...यहाँ नाग पंचमी के दिन होती है नागों की अनोखी पूजा





आपने नाग पंचमी के मौके पर नाग पूजन के विषय में सुना और देखा भी होगा परंतु बिहार के समस्तीपुर जिले में नाग पंचमी के मौके पर नाग की पूजा करने की अनोखी प्रथा है। इस दिन नाग के भगत (पुजारी, भक्त) गंडक नदी या पोखर में डुबकी लगाकर नदी से सांप निकालते हैं और उसकी पूजा करते हैं। या यूं कहिये कि नदी के किनारे सांपों का मेला लगता है।





समस्तीपुर के विभूतिपुर प्रखंड के सिंघिया और रोसड़ा गांव में भगत जहां गंडक नदी में डुबकी लगाकर सांप निकालते हैं वहीं सरायरंजन में एक प्राचीन पोखर से सांप निकालकर उसकी पूजा करते हैं। इस दौरान इस स्थानों पर नाग पंचमी के दिन लोगों का मजमा लगता है।




नाग पंचमी रविवार को इस इलाके में धूमधाम से मनाया गया। इस मौके पर इस अनोखी परम्परा को देखने के लिए बिहार के ही लोग नहीं बल्कि अन्य राज्यों के लोग भी यहां पहुंचते हैं और इस अभूतपूर्व नजारे को देखते हैं। गंडक के तट पर सैकड़ों भगत जुटते हैं और फिर नदी में डुबकी लगाकर नाग सांप को नदी से निकाल आते हैं। वे कहते हैं कि सांप उनको कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।


सिंघिया गांव के भगत रासबिहारी भगत कहते हैं कि यह काफी प्राचीन प्रथा है। वे कहते हैं कि यह प्रथा इस इलाके में करीब 300 वर्ष से चली आ रही है। वे बताते हैं कि उनके भगवान नाग होते हैं। वे कहते हैं कि वे पिछले 25 वषरें से यहां जुटते हैं और सांप निकालते हैं।


भगतों द्वारा निकाले गए सांपों को नदी के किनारे ही बने नाग मंदिर या भगवती मंदिर में ले जाया जाता है और फिर उनकी सामूहिक रूप से पूजा कर उन्हें दूध और लावा खिलाकर वापस नदी में छोड़ दिया जाता है। इस दौरान सांप को दूध और लावा देने के लिए गांव के पुरूष और महिलाओं की भारी भीड़ भी यहां लगी रहती है। पूजा के दौरान वहां कीर्तन और भजन का भी कार्यक्रम चलते रहता है।


एक अन्य भगत रामचंद्र जो पिछले 36 वषरें से यह कार्य करते आ रहे हैं, ने बताया कि यह परम्परा अब इन गांवों में सभ्यता बन गई है। वे कहते हैं कि नाग पंचमी के दिन नागों की पूजा करने से केवल खुद की बल्कि गांव और क्षेत्र का कल्याण होता हैं। रामचंद्र भगत के मुताबिक इससे सांप को कोई नुकसान नहीं होता है। यह तो भगवान और भक्त का एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना है।


रामचंद्र का दावा है कि जो भी व्यक्ति यहां अपनी मुराद मांगते हैं उसकी सभी मुरादें पूरी हो जाती हैं। वे कहते हैं इसे कई लोग सांपों के प्रदर्शन की बात कहते हैं परंतु यह गलत है। यहां कोई प्रदर्शन नहीं होता बल्कि पूजा होती है। ये अलग बात है कि दूर-दूर से लोग इस पूजा को देखने के लिए यहां एकत्र होते हैं।

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नाग पंचमी कल, इस तरह करें नाग देवता को प्रसन्न

नाग पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन माह की शुक्ल पक्ष के पंचमी को नाग पंचमी के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 11 अगस्त दिन रविवार को मनाया जायेगा| यह श्रद्धा व विश्वास का पर्व है| इस दिन भगवान भोलेनाथ के साथ साथ उनके गले के श्रृंगार नागदेवता की भी पूजा होती है| उत्तर भारत में नाग पंचमी के दिन मनसा देवी की पूजा करने का भी विधान है| देवी मनसा को नागों की देवी माना गया है, इसलिये बंगाल, उडिसा और अन्य क्षेत्रों में मनसा देवी के दर्शन व उपासना का कार्य किया जाता है|

नाग पंचमी की विशेषता-

हिंदी धर्म शास्त्रों के अनुसार पंचमी तिथि के स्वामी नाग देवता है| श्रावण मास में नाग पंचमी होने के कारण इस मास में धरती खोदने का कार्य नहीं किया जाता है| श्रावण मास के विषय मे यह मान्यता है कि इस माह में भूमि में हल नहीं चलाना चाहिए, नीवं नहीं खोदनी चाहिए| इस अवधि में भूमि के अंदर नाग देवता का विश्राम कर रहे होते है| भूमि के खोदने से नाग देव को कष्ट होने की संभावना रहती है|

नाग पंचमी की पूजन विधि-

नाग पंचमी के दिन प्रातःकाल उठकर घर की सफाई कर नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएँ। उसके बाद स्नान कर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजन के लिए सेंवई-चावल आदि ताजा भोजन बनाएँ। कुछ भागों में नागपंचमी से एक दिन भोजन बना कर रख लिया जाता है और नागपंचमी के दिन बासी खाना खाया जाता है।

इसके बाद दीवाल पर गेरू पोतकर पूजन का स्थान बनाया जाता है। फिर कच्चे दूध में कोयला घिसकर उससे गेरू पुती दीवाल पर घर जैसा बनाते हैं और उसमें अनेक नागदेवों की आकृति बनाते हैं। कुछ जगहों पर सोने, चांदी, काठ व मिट्टी की कलम तथा हल्दी व चंदन की स्याही से अथवा गोबर से घर के मुख्य दरवाजे के दोनों बगलों में पाँच फन वाले नागदेव अंकित कर पूजते हैं।

सर्वप्रथम नागों की बांबी में एक कटोरी दूध चढ़ा आते हैं। और फिर दीवाल पर बनाए गए नागदेवता की दूध, दूब, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, जल, कच्चा दूध, रोली और चावल आदि से पूजन कर सेंवई व मिष्ठान से उनका भोग लगाते हैं।फिर कथा सुनकर आरती करते हैं|

नागदेवता की नाग स्त्रोत या निम्न मंत्र का जाप करें-

" ऊँ कुरुकुल्ये हुँ फट स्वाहा"

इस मंत्र की तीन माला जप करने से नाग देवता प्रसन्न होते हैं| नाग देवता को चंदन की सुगंध विशेष प्रिय होती है| इसलिये पूजा में चंदन का प्रयोग करना चाहिए| इस दिन की पूजा में सफेद कमल का प्रयोग किया जाता है| उपरोक्त मंत्र का जाप करने से "कालसर्प योग' के अशुभ प्रभाव में कमी आती है| 

नागपंचमी की कथा-

एक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में एक सेठजी के सात पुत्र थे। सातों के विवाह हो चुके थे। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की विदूषी और सुशील थी, परंतु उसके भाई नहीं था। एक दिन बड़ी बहू ने घर लीपने को पीली मिट्टी लाने के लिए सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी डलिया और खुरपी लेकर मिट्टी खोदने लगी। तभी वहां एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने उसे रोकते हुए कहा- 'मत मारो इसे? इस बेचारे का क्या अपराध है' यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा तब सर्प एक ओर जा बैठा। इसपर छोटी बहू ने उससे कहा-'हम अभी लौट कर आते हैं तुम यहां से जाना मत। यह कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और वहाँ कामकाज में फँसकर सर्प से जो वादा किया था उसे भूल गई।

उसे दूसरे दिन वह बात याद आई तो सब को साथ लेकर वहाँ पहुँची और सर्प को उस स्थान पर बैठा देखकर बोली- सर्प भैया नमस्कार! सर्प ने कहा- 'तू भैया कह चुकी है, इसलिए तुझे छोड़ देता हूं, नहीं तो झूठी बात कहने के कारण तुझे अभी डस लेता। वह बोली- भैया मुझसे भूल हो गई, उसकी क्षमा माँगती हूं, तब सर्प बोला- अच्छा, तू आज से मेरी बहन हुई और मैं तेरा भाई हुआ। तुझे जो मांगना हो, माँग ले। वह बोली- भैया! मेरा कोई नहीं है, अच्छा हुआ जो तू मेरा भाई बन गया।

कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सर्प मनुष्य का रूप रखकर उसके घर आया और बोला कि 'मेरी बहन को भेज दो।' सबने कहा कि 'इसके तो कोई भाई नहीं था, तो वह बोला- मैं दूर के रिश्ते में इसका भाई हूँ, बचपन में ही बाहर चला गया था। उसके विश्वास दिलाने पर घर के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि 'मैं वहीं सर्प हूँ, इसलिए तू डरना नहीं और जहां चलने में कठिनाई हो वहां मेरी पूछ पकड़ लेना। उसने कहे अनुसार ही किया और इस प्रकार वह उसके घर पहुंच गई। वहाँ के धन-ऐश्वर्य को देखकर वह चकित हो गई।

एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा- 'मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ, तू अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे यह बात ध्यान न रही और उससे गर्म दूध पिला दिया, जिसमें उसका मुख बुरी तरह जल गया। यह देखकर सर्प की माता बहुत क्रोधित हुई। परंतु सर्प के समझाने पर चुप हो गई। तब सर्प ने कहा कि बहन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे बहुत सा सोना, चाँदी, जवाहरात, वस्त्र-आभूषण आदि देकर उसके घर पहुँचा दिया।

इतना ढेर सारा धन देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या से कहा- भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे तो उससे और भी धन लाना चाहिए। सर्प ने यह वचन सुना तो सब वस्तुएँ सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू ने कहा- 'इन्हें झाड़ने की झाड़ू भी सोने की होनी चाहिए'। तब सर्प ने झाडू भी सोने की लाकर रख दी।

सर्प ने छोटी बहू को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया था। उसकी प्रशंसा उस देश की रानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि- सेठ की छोटी बहू का हार यहाँ आना चाहिए।' राजा ने मंत्री को हुक्म दिया कि उससे वह हार लेकर शीघ्र उपस्थित हो मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि 'महारानी जी छोटी बहू का हार पहनेंगी, वह उससे लेकर मुझे दे दो'। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार मंगाकर दे दिया।

छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने सर्प भाई को याद किया और आने पर प्रार्थना की- भैया ! रानी ने हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जब वह हार उसके गले में रहे, तब तक के लिए सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सर्प बन गया। यह देखकर रानी चीख पड़ी और रोने लगी।

यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठ जी डर गए कि राजा न जाने क्या करेगा? वे स्वयं छोटी बहू को साथ लेकर उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से पूछा- तुने क्या जादू किया है, मैं तुझे दण्ड दूंगा। छोटी बहू बोली- राजन! क्षमा कीजिए, यह हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और दूसरे के गले में सर्प बन जाता है। यह सुनकर राजा ने वह सर्प बना हार उसे देकर कहा- अभी पहनकर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना वैसे ही हीरों-मणियों का हो गया।

यह देखकर राजा को उसकी बात का विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार में दीं। छोटी बहू अपने हार सहित घर लौट आई। उसके धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या के कारण उसके पति को सिखाया कि छोटी बहू के पास कहीं से धन आया है। यह सुनकर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- ठीक-ठीक बता कि यह धन तुझे कौन देता है? तब वह सर्प को याद करने लगी। तब उसी समय सर्प ने प्रकट होकर कहा- यदि मेरी बहन के आचरण पर संदेह प्रकट करेगा तो मैं उसे डस लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। उसी दिन से नागपंचमी का त्यौहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं।

वहीँ, एक अन्य कथा के अनुसार, किसी नगर में एक किसान अपने परिवार सहित रहता था। उसके तीन बच्चे थे-दो लड़के और एक लड़की। एक दिन जब वह हल चला रहा था तो उसके हल के फल में बिंधकर सांप के तीन बच्चे मर गए। बच्चों के मर जाने पर मां नागिन विलाप करने लगी और फिर उसने अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का प्रण किया। एक रात्रि को जब किसान अपने बच्चों के साथ सो रहा था तो नागिन ने किसान, उसकी पत्नी और उसके दोनों पुत्रों को डस लिया। दूसरे दिन जब नागिन किसान की पुत्री की डसने आई तो उस कन्या ने डरकर नागिन के सामने दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी। उस दिन नागपंचमी थी। नागिन ने प्रसन्न होकर कन्या से वर मांगने को कहा। लड़की बोली-'मेरे माता-पिता और भाई जीवित हो जाएं और आज के दिन जो भी नागों की पूजा करे उसे नाग कभी न डसे। नागिन तथास्तु कहकर चली गई और किसान का परिवार जीवित हो गया। उस दिन से नागपंचमी को खेत में हल चलाना और साग काटना निषिद्ध हो गया।

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हिन्दू के लिए ‘देव’ और सपेरों की ‘रोजी-रोटी’ हैं नाग!

नागपंचमी में हिन्दू समाज जिस नाग को ‘देवता’ मान पूजा-अर्चना करता है, वह हिन्दू समाज के ही अनुसूचित वर्गीय सपेरा समुदाय की सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है। इनके मासूम बच्चे जहरीले सांपों के साथ खेल कर अपना सौख पूरा करते हैं और स्कूल जाने की जगह ‘पिटारी’ और ‘बीन’ बजाने के गुर सीखने को मजबूर हैं।

इस देश में हिन्दू समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो बेहद मुफलिसी का जीवन गुजार रहा है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड़ की सीमा से सटे इलाहाबाद जिले के शंकरगढ़ इलाके में आधा दर्जन गांवों में अनुसूचित वर्गीय सपेरा समाज के करीब साढ़े चार सौ परिवार आबाद हैं, इनका सुबह से शाम तक दैनिक कार्य जहरीले सांप पकड़ना और ‘बीन’ के इशारे पर नचा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना है। सपेरा समुदाय का आर्थिक ढांचा बेहद कमजोर होने वह अपने बच्चों को खिलैनों की जगह जहरीले सांप और स्कूली बस्ते के स्थान पर सांप पालने वाली ‘पिटारी’ और ‘बीन’ थमा देते हैं, ताकि आगे चल कर इस पुश्तैनी पेशे से जुड़े रहें।

शंकरगढ़ के सहने वाला सपेरा बाबा दिलनाथ बताता है कि ‘करीब आधा दर्जन गांवों में उनकी बिरादरी के साढ़े चार सौ परिवार पीढि़यों से आबाद हैं। सरकार ने सांप पकड़ने और उनके प्रदर्शन करने में रोंक तो लगा दी है, मगर रोटी का अन्य ‘सहारा’ नहीं दिया, जिससे चोरी छिपे सांप नचाना मजबूरी बना हुआ है।’ वह बताता है कि ‘सांप मांसाहारी जीव है, यह कभी दूध नहीं पीता, भगवान शिव का श्रंगार मान अधिकांश हिन्दू इसे देवता मानते हैं, लेकिन हमारे लिए यह सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है।

सपेरों का एक कुनबा बांदा जिले के अतर्रा कस्बे में नागपंचमी के त्योहार में बरसाती की पन्नी डाल कर डेरा जमाए है, इस कुनबे के 13 वर्षीय बालक चंद्रनाथ को ‘पिटारी’ और ‘बीन’ उसके पिता ने बिरासत में दिया है। वह कस्बे में घूम-घूम कर जहरीले सांपों का प्रदर्शन कर रहा है, उसने बताया कि ‘वह भी पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता है, लेकिन परिवार की माली हालत उसे पुश्तैनी पेश में खींच लायी है। यह संवाददाता शनिवार की सुबह जब सपेरों की इस झोपड़ी में गया तो वहां नजारा देख भौंचक्का रह गया। मासूम बच्चे शनि, बली और चंदू मिट्टी के खिलौनों से नहीं, बल्कि जहरीले सांप और विषखापर से खेल रहे थे। कुनबे में मौजूद महिला सोमवती ने बताया कि ‘मिट्टी के खिलौना खरीदने के लिए पैसे नहीं है, सो बच्चे इन्हीं सांपों से खेल कर अपना सौख पूरा कर लेते हैं।’

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रक्षाबंधन पर भाई को गुर्दा देकर जीवन रक्षा करेगी बहन

भाइयों के लिए बहनों की रक्षा का संकल्प लेने का पर्व है रक्षाबंधन। मगर, मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में यह पर्व एक भाई के लिए जीवन रक्षा की सौगात लेकर आ रहा है, क्योंकि राखी पर एक बहन अपना गुर्दा (किडनी) भाई को देने जा रही है। 

रतलाम जिले के ढोढर में रहने वाले नंदकिशोर कुमावत (23 वर्ष) का जीवन संकट के दौर से गुजर रहा है। उनके शरीर में दो की बजाय एक ही गुर्दा है, और वह भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। इस स्थिति में उनके जीवन को बचाना आसान नहीं है, जीवन बचाना है तो एक गुर्दे की जरूरत है।

नंदकिशोर इंदौर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था, तभी अप्रैल 2010 में उसके पेट में दर्द हुआ। इस पर उसने चिकित्सकों को दिखाया, सोनोग्राफी कराई गई तो पता चला कि उसके शरीर में दो नहीं सिर्फ एक ही गुर्दा है और वह भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। उसने कई जगह इलाज कराया मगर बात नहीं बनी। चिकित्सकों ने उसे नई किडनी लगवाने की सलाह दी। 

बताते हैं कि नंदकिशोर शादीशुदा है, और इस स्थिति में उसकी पत्नी गंगाबाई, भाई अमृत, भाभी सीमाबाई और चाची कैलाशबाई ने अपनी किडनी देने की पेशकश की मगर उनके टिसू का मिलान नहीं हुआ, लिहाजा इन चारों की किडनी उसके काम नहीं आ सकती थी। 

इस स्थिति में नंदकिशोर की बहन यशोदा (30 वर्ष) ने अपनी किडनी देने की पेशकश की। चिकित्सकीय परीक्षण के बाद पाया गया कि यशोदा की किडनी नंदकिशोर को प्रत्यारोपित की जा सकती है।

चिकित्सक बताते हैं कि हजारों में एक ऐसा प्रकरण होता है, जब किसी व्यक्ति के एक किडनी हो और वह भी क्षतिग्रस्त हो चुकी हो, बहन द्वारा भाई को किडनी दिए जाने के बाद दोनों का जीवन सामान्य रहेगा। 

अहमदाबाद में नंदकिशोर की किडनी का प्रत्यारोपण होगा और ऑपरेशन की तारीख 20 अगस्त रक्षाबंधन के ही आसपास निकल रही है। बहन द्वारा किडनी दिए जाने का जिक्र आते ही नंदकिशोर की आंखें नम हो जाती हैं। वह कहता है कि राखी के पर्व पर भाई बहन की रक्षा का वचन देता है, मेरी बहन अपनी जान की परवाह किए बिना मुझे किडनी देकर जीवन रक्षा करने जा रही है। 

नंदकिशोर की बहन यशोदा के दो बच्चे हैं और पति शांतिलाल ने भी किडनी देने की इजाजत दे दी है। अहमदाबाद के गुर्दा विशेषज्ञ डॉ. मनेाज गुंबज के परामर्श पर नंदकिशोर गुर्दा प्रत्यारोपित करा रहा है। रक्षाबंधन के मौके पर एक बहन द्वारा भाई के जीवन रक्षा की कोशिश सफल हो, हर कोई यही कामना कर रहा है। ताकि भाई-बहन के अटूट रिश्ते का यह पर्व एक मिसाल बन जाए।


पर्दाफाश से साभार

सावन में चढ़ा 'मेहंदी का रंग'


मेहंदी बाजारों में यूं तो महिलाओं का आना पूरे साल लगा रहता है, परंतु सावन में जब प्रकृति स्वयं को हरियाली से संवारती दिखती है तो भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-श्रृंगार में हरे रंग की मौजूदगी जरूरी समझती हैं। ऐसे में जब महिलाओं के श्रृंगार की बात हो, तो मेहंदी का जिक्र होना लाजिमी हो जाता है। सावन में मेहंदी का विशेष महत्व है। 

आमतौर पर मान्यता है कि जिसकी मेहंदी जितना रंग लाती है, उसे ससुराल में उतना ही प्यार मिलता है। मेहंदी की सौंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, उसकी सुंदरता में भी चार चांद लग जाते हैं। 

सावन के चलते इन दिनों पटना में मेहंदी बाजारों में विशेष रौनक है। पटना का कोई भी ऐसा मार्केट कांप्लेक्स नहीं है, जहां मेहंदी वाले न हों। 

पटना के डाक बंगला चौराहे के मौर्या लोक कांप्लेक्स में 'अपना मेहंदी वाला' और 'राजा मेहंदी' वाले की दुकानें सजी हुई हैं। बेली रोड के केशव पैलेस में सुरेश मेहंदी वाले और क्लासिक मेहंदी वाले अपनी हुनर से महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। 

डिजाइनों की मांग के अनुसार अलग-अलग रेट भी हैं। ब्राइडल, बॉम्बे डिजाइन, बैंगल डिजाइन और एरेबिक डिजाइन वाली मेहंदी लगवाने का क्रेज अधिक है। मेहंदी का रंग ज्यादा दिन टिके, इसके लिए काली मेहंदी की मांग हो रही है। 

पटना में तीज त्योहार पर कई ब्यूटी पार्लरों में भी मेहंदी लगाई जाती है। लेकिन वहां अपेक्षाकृत अधिक दाम चुकाने पड़ते हैं। ऐसे में अधिकांश महिलाएं स्थानीय छोटी-छोटी दुकानों का रुख करती हैं। इन दुकानों पर तीन से चार मेहंदी कलाकार बैठे होते हैं, जो सुबह से ही हथेलियों पर अपना हुनर दिखाने में जुट जाते हैं। यह सिलसिला देर शाम तक जारी रहता है। 

क्लासिक मेहंदी वाले बताते हैं कि आमतौर पर सावन में ग्राहकों की संख्या चार गुना बढ़ जाती है। इसे देखते हुए हम भी कारीगरों की संख्या बढ़ा देते हैं। वे बताते हैं कि प्रतिदिन करीब 100 से ज्यादा हाथों पर अपनी कला का नमूना उतारते हैं। आमतौर पर महिलाएं हाथों के दोनों तरफ मेहंदी लगवाती हैं। कई तरह के डिजाइन की भी मांग करती हैं। 

एक अन्य मेहंदी वाले ने बताया कि सिल्वर मेहंदी, गोल्डन मेहंदी, ब्राउन मेहंदी को छोड़कर सारे डिजाइन असली मेहंदी से बनते हैं। इसका रंग भी अपेक्षाकृत अधिक दिन टिकता है। उन्होंने बताया कि सिल्वर, गोल्डन और ब्राउन मेहंदी आमतौर पर शादी समारोह में ही लगवाई जाती है। उनके मुताबिक मारवाड़ी और राजस्थानी मेहंदी की मांग ज्यादा होती है। 

पटना के जगदेवपथ में एक ब्यूटी पार्लर संचालिका तान्या ने आईएएनएस को बताया कि इन दिनों मेहंदी फैशन का हिस्सा बन चुकी है, इसीलिए इसकी मांग भी बढ़ी है। उनका दावा है कि मेहंदी हार्मोन को प्रभावित करती है। ब्लड प्रेशर भी नियंत्रित रखती है। 

इधर, मेहंदी लगवाने पहुंची कॉलेज छात्रा दीप्ति कहती है कि "मुझे मेहंदी लगवाना पसंद है। सावन में तो इसका अपना महत्व है।" दीप्ति ब्राइडल मेहंदी पसंद करती हैं, क्योंकि इसके डिजाइन से हाथ की खूबसूरती बढ़ जाती है। 

दीप्ति कहती हैं कि आखिरकार मेहंदी सजने की वस्तु है तो महिलाएं-युवतियां सावन में इससे दूर कैसे रह सकती हैं?

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बुंदेलखंड में अब नहीं सुनाई देते सावन के गीत

'झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा.' सावन का महीना आते ही बुंदेलखंड के हर बगीचे में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं 'ढोल-मंजीरे' की थाप में इस तरह के सावन के गीत गाया करती थीं। लेकिन, अब जहां एक ओर बगीचे नहीं बचे, वहीं दूसरी ओर सावन गीत के स्वर दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रहे। 

बुंदेलखंड पुरानी परम्पराओं व रिवाजों का गढ़ रहा है। यहां हर तीज-त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास और भाईचारे के साथ मनाने का रिवाज रहा है। सावन का महीना आते ही बाग-बगीचों में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं दो गुटों में बंट कर 'ढोल-मंजीरे' की थाप में मोरों की आवाज के बीच सावन गीत गाया करती थीं। 

इन्हीं गीतों के साथ ससुराल से नैहर वापस आईं बेटियां झूलों में 'पींग' भरती थीं। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। बुंदेलखंड के लोग अपने हरे-भरे आम के बागों का नामोशिान मिटा रहे हैं। इससे न तो झूले डालने की गुंजाइश बची है और न ही महिलाएं गीत गाती नजर आ रहीं हैं। रही बात राष्ट्रीय पक्षी मोर की तो वह यदा-कदा ही दिखाई दे रहे हैं।

बांदा जिले के तेन्दुरा गांव की बुजुर्ग महिला सुरतिया कहती हैं, "एक दशक पूर्व तक इस गांव के चारों तरफ बस्ती से लगे हुए कई आम के बगीचे थे, जहां सावन मास में झूले लगा करते थे।" 

इसी गांव के एक अन्य बुजुर्ग देउवा माली ने बताया, "पहले हर किसी के मन में बेटियों के प्रति सम्मान हुआ करता था, अब राह चलते छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैं। साथ ही आपसी सामंजस्य व भाईचारा नहीं रह गया, जिससे बेटियों को दूर-दराज बचे बगीचों में भेजने से डर लगता है।"

पति की लंबी उम्र के लिए महिलाएं रखें हरियाली तीज का व्रत

तीज का त्यौहार भारत के भारत भागों में बहुत जोश और उल्लास के साथ मनाया जाता है| यह त्यौहार खासतौर पर महिलाओं का त्यौहार है| तीज का आगमन वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही आरंभ हो जाता है| सावन के महीने के आते ही आसमान काले मेघों से आच्छ्दित हो जाता है और वर्षा की बौछर पड़ते ही हर वस्तु नवरूप को प्राप्त करती है| ऎसे में भारतीय लोक जीवन में हरियाली तीज या कजली तीज महोत्सव मनाया जाता है|

श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन श्रावणी तीज, हरियाली तीज मनायी जाती है इसे मधुस्रवा तृतीय या छोटी तीज भी कहा जाता है| इस बार हरियाली तीज 9 अगस्त दिन शुक्रवार को पड़ रही है| हरियाली तीज में महिलाएं व्रत रखती हैं इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य की चाहत के लिए करती हैं|

हरियाली तीज पूजा एवं व्रत-

अपने सुखी दांपत्य जीवन की कामना के लिये स्त्रियां यह व्रत किया करती हैं| इस दिन व्रत रखकर भगवान शंकर-पार्वती की बालू से मूर्ति बनाकर षोडशोपचार पूजन किया जाता है जो रात्रि भर चलता है| सुंदर वस्त्र धारण किये जाते है तथा कदली स्तम्भों से घर को सजाया जाता है| इसके बाद मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है| इस व्रत को करने वालि स्त्रियों को पार्वती के समान सुख प्राप्त होता है|

हरियाली तीज कथा-

हरियाली तीज पर एक धार्मिक किवदंती प्रचलित है जिसके अनुसार पौराणिक काल में देवी पार्वती भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए व्रत रखती हैं| जिस कारण उन्हें भगवान शिव का मिलन प्राप्त हुआ था| इसके अतिरिक्त कहा जात है कि श्रावण शुक्ल तृतीया के दिन देवी पार्वती ने सौ वर्षों की तपस्या साधना पश्चात भगवान शिव को प्राप्त कर पातीं हैं| इसी कारण से विवाहित महिलाएं इस व्रत को अपने सुखी विवाहित जीवन की कामना के लिए करती हैं| इस दिन स्त्रियां माँ पार्वती का पूजन करती हैं अविवाहित और विवाहित स्त्री दोनों ही इस व्रत को कर सकती हैं| समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है|

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उप्र में नेताओं की चरण वंदना की परम्परा

उत्तर प्रदेश में आईएएस दुर्गा शक्ति नागपाल जैसे कुछ नौकरशाह अपनी ईमानदारी और कर्तव्य पालन के लिए उदाहरण पेश करते हैं तो कुछ नौकरशाह मंत्रियों की चापलूसी करने के लिए सरेआम उनके पैर छूकर नौकरशाही की गरिमा को ताक पर रख देते हैं। हालिया मामला इटावा जिले का है, जहां अपर पुलिस अधीक्षक ऋषिपाल सिंह और सिटी मजिस्ट्रेट शारदा प्रसाद यादव ने सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान स्थानीय विधायक एवं राज्य सरकार के सबसे कद्दावर मंत्री शिवपाल सिंह यादव के पैर छुए। 

मामले के तूल पकड़ने के बाद जब शिवपाल सिंह यादव से इस बाबत सवाल किया गया तो उन्होंने कहा,"पैर छूना हमारी संस्कृति रही है। वैसे मैं तो सभी को यहां तक की पार्टी कार्यकर्ताओं को भी पैर छूने से मना करता हूं, लेकिन अगर कोई छू लेता है तो मैं क्या करूं।"

इससे पहले बीते साल भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी अजय मोहन शर्मा द्वारा समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले सांसद रामगोपाल यादव के पैर छूने का फुटेज समाचार चैनलों पर प्रसारित होने के बाद अधिकारियों द्वारा नेताओं के पैर छूने के बढ़ते चलन पर खूब बहस हुई थी।

वरिष्ठ आईपीएस एवं राज्य के पुलिस महानिरीक्षक (कानून-व्यवस्था) राजकुमार विश्वकर्मा ने इस संबंध में कहा कि अफसर घर में मां-बाप का तो पैर छू सकते हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर किसी के पैर छूने का प्रावधान नहीं है। जानकारों का कहना है कि मंत्रियों की चापलूसी करके निजी स्वार्थ के लिए कुछ अफसर नौकरशाही की गरिमा को ताक पर रखकर पैर छूते हैं। इस तरह से वे संबंधित मंत्री या नेता के प्रति अपनी वफादारी साबित करते हैं, जो अफसरों के निर्धारित आचरण के खिलाफ है।

पूर्व पुलिस महानिरीक्षक एस़ आऱ दारापुरी ने कहा कि इस तरह नेताओं की चरण वंदना करना 'कोड ऑफ कंडक्ट' के खिलाफ है। अगर ड्यूटी के दौरान किसी का अभिवादन करना है तो सैल्यूट ही एक निर्धारित अभिवादन का तरीका है। इस तरह के कृत्य करने वाले पर वैसे तो एक निर्धारित कार्रवाई के तहत दंड का प्रावधान है, लेकिन सत्ताधारी दल के नेता या मंत्री की चरण वंदना करने पर कार्रवाई की बात बेमानी हो जाती है।

दारापुरी के मुताबिक किसी अधिकारी द्वारा इस तरह निर्धारित आचरण के खिलाफ कृत्य करने पर उसकी कंट्रोलिंग अथारिटी द्वारा उसे कारण बताओ नोटिस दिया जाना चाहिए। जवाब संतोषजनक न पाए जाने पर दंड के लिए शासन से संस्तुति की जाए।

उन्होंने कहा कि शासन इस पर संबंधित अधिकारी को या तो लिखित चेतावनी या फिर उसकी चरित्र पंजिका में निंदा प्रविष्टि दर्ज करके दंड दे सकता है। उत्तर प्रदेश में अफसरों द्वारा गरिमा तो ताक पर रखकर चरण वंदना करना नई रवायत नहीं है। एक पुलिस उपाधीक्षक द्वारा पिछली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सरकार के शासनकाल में तत्कालीन मुख्यमंत्री की जूती साफ करने का मामला सामने आया था। इस मामले ने मीडिया में आने के बाद खूब तूल पकड़ा था।

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जब गाँधी ने दिए रबीन्द्रनाथ को 60 हजार रुपये

गुरुदेव के नाम से विख्यात रवींद्रनाथ ठाकुर महान कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और नोबल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले एकमात्र भारतीय साहित्यकार हैं। ठाकुर का 7 अगस्त, 1941 को निधन हो गया था। रवींद्रनाथ ठाकुर भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगद्रष्टा कवि थे। साहित्य में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले वे एशिया के प्रथम व्यक्ति हैं। वे एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी दो अलग-अलग रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं। भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएं हैं।

रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की संतान के रूप में 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटाऊन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया, लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ।

बचपन से ही उनमें कविता, छंद और भाषा में अद्भुत प्रतिभा की झलक मिलने लगी थी। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी।

ठाकुर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं।

टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शांतिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की।

टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।

गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लांति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं।

ठाकुर और महात्मा गांधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गांधी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। ठाकुर ने गांधीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शांतिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गांधी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।

उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हें सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। 

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लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ ने बदल दी जीवनधारा

हिंदी साहित्याकाश में परम नक्षत्र माने जाने वाले महाकवि गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक इन तीनो रूपों में मान्य हैं। इनके गुरु बाबा नरहरिदास ने उन्हें दीक्षा दी थी। तुलसीदास का अधिकांश जीवन चित्रकूट, काशी तथा अयोध्या में बीता। तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश में आज के बांदा जिले के राजापुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को मिली रत्नावली से फटकार "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" ने महाकवि की जीवनधारा बदल दी।

तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। अल्प वय में ही माता-पिता दोनों चल बसे और उन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। कहा जाता है कि जन्म लेने के बाद तुलसीदास के मुख से राम का उच्चारण हुआ था।

नरहरि बाबा ने तुलसीदास को तलाशा और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ले गए और उनका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मंत्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गए। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पांच संस्कार कर रामबोला को राममंत्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे।

बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहां से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। वहां श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पंद्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया।

इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहां आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

अपने दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन के बल पर तुलसी ने साहित्य को अमूल्य कृतियों से समृद्ध किया, जो तत्कालीन भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली, जानकीमंगल, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

गोस्वामीजी श्रीसंप्रदाय के आचार्य रामानंद की शिष्यपरंपरा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का महिमामंडन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गई है।

तुलसीदास कृत रामचरित मानस इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापंडित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंकाओं का रामचरितमानस में समाधान है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यंत विशाल और शक्तिशाली संप्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो सांप्रदायिकता की सीमाओं को लांघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतांतरों में पूर्णतया मान्य है।

सबको एक सूत्र में ग्रथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। वैष्णव, शैव, शाक्त आदि सांप्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे। तुलसीदास का निधन 1623 ईस्वी में हुआ।

अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 12 ग्रन्थ लिखे और उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिंदी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। श्रीराम जी को समर्पित ग्रन्थ श्री रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से अवधी भाषांतर था जिसे समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। विनयपत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य काव्य है। 
 
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काजोल के 39वें जन्मदिन पर विशेष.........

बॉलीवुड की खुबसूरत अभिनेत्री काजोल आज अपना 39 वां जन्मदिन मना रही हैं। पांच अगस्त 1975 को मुंबई में जन्मी काजोल अपने अभिनय से लाखों दिलों की धड़कन बन गयीं। काजोल को बचपन से ही फिल्मों में अभिनय का शौक रहा और रहे भी क्यों न काजोल की माँ तनूजा अपने समय की एक जानी मानी अभिनेत्रियों में से एक थीं जबकि पिता सोमु मुखर्जी एक निर्माता रहे|

वर्ष 1992 में निर्देशक राहुल रवैल की फिल्म बेखूदी के साथ काजोल ने अपनी फिल्मी करियर की शुरुआत की। काजोल की पहली फिल्म सफल तो नहीं रही लेकिन सावली सलोनी रूप वाली काजोल को फिल्मे मिलने लगी। वर्ष 1993 में शाहरूख खान के साथ उन्होंने 'बाजीगर' के रूप में अपनी पहली हिट फिल्म दी। इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए। इसके साथ ही काजोल और शाहरूख की जोड़ी दर्शकों के दिलों पर राज करने लगीं। इस सफल जोड़ी को दर्शक आज तक नहीं भूले। आज भी जब इनकी जोड़ी सिल्वर स्क्रीन पर एक साथ होती है तो उसे दर्शकों का वही प्यार मिलता है जो 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' या फिर 'बाजीगर' को मिली थी। काजोल की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे को बॉलीवुड के इतिहास की सबसे कामयाब फिल्मों में गिना जाता है। यह फिल्म इस कदर कामयाब हुई कि आज तक चल रही है। 

काजोल ने अपने फ़िल्मी करियर में हर तरह की भूमिकाएं निभायीं और हर भूमिका को बेहद खूबसूरती के साथ निभाया। गुप्त, इश्क, प्यार किया तो डरना क्या, कुछ-कुछ होता है, प्यार तो होना ही था, फना जैसी कामयाब फिल्में दी। फिल्म गुप्त में निभाए गए उनकी नकारात्मक चरित्र के लिए काजोल को सर्वश्रेष्ठ खलनायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास का पहला मौका था जब किसी अभिनेत्री को सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। 

वर्ष 1999 में उन्होंने अभिनेता अजय देवगन के साथ सात फेरे लिए। अजय देवगन और काजोल की जोड़ी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेस्ट जोड़ियों में शुमार की जाती है। काजोल ने अजय को अपनी जीवन में उस समय शामिल किया जब उनका कैरियर अपने बुलंदियों पर था। शादी के बाद काजोल ने अपना वक़्त अपने घर परिवार को देना शुरू किया अपने दो बच्चों बेटी न्यासा और बेटे युग को पूरा समय देने लगी।

दो बच्चों न्यासा और युग की मां काजोल ने शादी के बाद भी 'फना', 'माई नेम इज खान' और 'कभी खुशी कभी गम' समेत कई हिट फिल्में दीं। वर्ष 2010 में आई फिल्म माय नेम इज खान काजोल और शाहरुख़ की यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रही। अब काजोल घर के साथ-साथ अपनी फ़िल्मी करियर पर भी ध्यान दे रहीं हैं। काजोल के नाम अपनी सबसे ज्यादा पांच बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्फेयर पुरस्कार पाने का रिकॉर्ड है।

परशुराम ने चलाई थी कांवड़ की परंपरा

भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव में मंदिर की स्थापना कर कांवड़ में गंगाजल से पूजन कर कांवड़ परंपरा की शुरुआत की जो आज भी देशभर में काफी प्रचलित है। यहां के पंडित विनोद पाराशर ने कहा कि कांवड़ की परंपरा चलाने वाले भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में की जानी चाहिए।

उन्होंने बताया कि भगवान परशुराम श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को कांवड़ में जल ले जाकर शिव की पूजा-अर्चना करते थे। शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान आशुतोष का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शीतलता मिलती है। 

पंडित विनोद पाराशर ने बताया कि भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है। खासतौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है। इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताए गए हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है।

भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए। पंडित पाराशर ने सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाने को गलत बताया। उन्होंने भगवान आशुतोष के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा को भी श्रावण मास में लाभकारी बताया। 

शिव की पूजा से पहले नंदी व परशुराम के पूजन की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि शिव का जलाभिषेक नियमित रूप से करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।

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आंवले के पेड़ में प्रकट हुए हनुमान!

आधुनिकता के इस युग में भी अंधविश्वास सिर चढ़कर बोल रहा है। कुछ लोगों ने उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के बिठवल खुर्द गांव में एक आंवले की कटी डाल में उभरी आकृति को 'हनुमान' के अचानक प्रकट होने का सिर्फ ढिंढोरा ही नहीं पीटा, बल्कि पूजा-अर्चना शुरू कर वहां मंदिर निर्माण तक की योजना बना डाली है। 

हुआ यह कि बिठवल खुर्द गांव में बब्बन सिंह के दरवाजे पर एक काफी पुराना आंवले का पेड़ है। उसकी बढ़ी हुई डालों के कारण आम रास्ता प्रभावित हो रहा था, इसलिए बब्बन सिंह ने कुछ दिन पूर्व डालियों की छटनी करा दी। फिर क्या था, कटी डाल के हिस्से से हनुमान के चेहरे जैसी आकृति उभर आई। शनिवार को गांव के ग्रामीणों की नजर पड़ी तो वह इसे एक चमत्कार मान बैठे और उस आकृति में घी-सिंदूर का लेपन कर पूजा-अर्चना शुरू कर दी। 

अब रोजाना यहां भक्तों की भीड़ जमा हो रही है। गांव के कुछ अति उत्साही युवकों ने इस स्थान पर अखंड रामचरित मानस का पाठ भी शुरू करवा दिया है। गांव के युवक अरविंद सिंह ने बताया कि इस स्थान पर हनुमान मंदिर निर्माण के लिए एक पांच सदस्यीय टीम गठित की गई है, जो आस-पास के गांवों में घूमकर चंदा इकट्ठा कर रही है। 

अरविंद ने बताया कि शीघ्र ही यहां एक भव्य हनुमान मंदिर का निर्माण कराया जाएगा। एक अन्य युवक मुन्ना सिंह ने बताया कि आंवले के पेड़ में उभरी आकृति हूबहू हनुमान जी जैसी है। आस-पास के गांव के भी सैकड़ों लोग यहां रोजाना दर्शन और पूजन करने आ रहे हैं।

दातापंथी साधु दाता सत्बोध साईं का कहना है कि यह कोई चमत्कार नहीं है। पेड़ की कटी डाल में कोई भी आकृति उभर सकती है। वह कहते हैं कि यह इत्तेफाक ही है कि आकृति हनुमान के चेहरे जैसी है। मगर इसे हनुमान का दर्जा देना किसी अंधविश्वास से कम नहीं है।