धार्मिक एकता के पक्षधर थे रामकृष्ण परमहंस

भारतीय अध्यात्म और चिंतन परंपरा को जिन संतों मनीषियों ने समृद्ध किया है उनमें रामकृष्ण परमहंस का नाम बेहद आदर से लिया जाता है। वह आधुनिक भारत के उद्गाता और दुनिया भर में भारतीय चिंतन का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक गुरु भी थे। रामकृष्ण परमहंस ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया था। वह बचपन से ही इस विश्वास से भरे थे कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना की और भक्तिपूर्ण जीवन बिताया। अपनी साधना के बल पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वह ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।

रामकृष्ण परमहंस का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकुर नामक गांव के एक गरीब धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फरवरी 1836 को हुआ था। उनके बचपन का नाम गदाधर था। उनके पिता का नाम खुदीराम चट्टोपाध्याय था। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। सत्रह वर्ष की अवस्था में अपना घर-बार त्याग कर वह कलकत्ता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ रहने लगे। कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर में वह पुजारी नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने मां महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। 

परमहंसजी का जीवन द्वैतवादी पूजा के स्तर से क्रमबद्ध आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा निरपेक्षवाद की ऊंचाई तक निर्भीक एवं सफल उत्कर्ष के रूप में पहुंचा हुआ था। उन्होंने प्रयोग करके अपने जीवन काल में ही देखा कि उस परमोच्च सत्य तक पहुंचने के लिए आध्यात्मिक विचार- द्वैतवाद, संशोधित अद्वैतवाद एवं निरपेक्ष अद्वैतवाद, ये तीनों महान श्रेणियां मार्ग की अवस्थाएं थीं। वह एक दूसरे की विरोधी नहीं, बल्कि यदि एक को दूसरे में जोड़ दिया जाए तो वे एक दूसरे की पूरक हो जाती थीं।

उन दिनों बंगाल में बाल विवाह की प्रथा थी। उनका विवाह भी बचपन में हो गया था। उनकी पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आईं तब गदाधर वीतरागी हो चुके थे। परमहंस अपनी पत्नी शारदामणि में भी महाकाली का रूप देखने लगे थे। उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों का समाचार जैसे-जैसे फैलने लगा वैसे-वैसे दक्षिणेश्वर मंदिर की ख्याति भी फैलती गई। मंदिर में भ्रमणशील संन्यासियों, बड़े-बड़े विद्वानों एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधकों का जमावड़ा होने लगा। उस समय के कई ख्याति नाम विचारक जैसे- पं. नारायण शास्त्री, पं. पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते थे। वह शीघ्र ही तत्कालीनन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। ऐसे लोगों में केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चटर्जी, अश्विनी कुमार दत्त के नाम लिए जा सकते हैं। 

आचार्य के जीवन के अंतिम वर्षों में पवित्र आत्माओं का प्रतिभाशील मंडल, जिसके नेता नरेंद्रनाथ दत्त (बाद में स्वामी विवेकानंद) थे, रंगमंच पर अवतरित हुआ। आचार्य ने चुने हुए कुछ लोगों को अपना घनिष्ठ साथी बनाया, त्याग एवं सेवा के उच्च आदशरें के अनुसार उनके जीवन को मोड़ा और पृथ्वी पर अपने संदेश की पूर्ति के निमित्त उन्हें एक आध्यामिक बंधुत्व में बदला। महान आचार्य के ये दिव्य संदेशवाहक कीर्तिस्तंभ को साहस के साथ पकड़े रहे और उन्होंने मानव जगत की सेवा में पूर्ण रूप से अपने को न्योछावर कर दिया।

1885 के मध्य में उन्हें गले के कष्ट की शिकायत हुई। शीघ्र ही इसने गंभीर रूप धारण किया जिससे वह मुक्त न हो सके। 16 अगस्त 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया। अपने शिष्यों को सेवा की शिक्षा जो उन्होंने दी थी वही आज रामकृष्ण मिशन के रूप में दुनिया भर में मूर्त रूप में है। उनके ज्ञान दीप को स्वामी विवेकानंद ने संसार में फैलाया था।

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तिरंगे की रंगत में डूबी नवाबों की नगरी

स्वतंत्रता दिवस के जश्न में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ तिरंगे के रंगों में रंगी हुई है। आलीशान इमारतें तिरंगी चूनर ओढ़े सजी संवरी और तिरंगी रोशनी से नहाती दिख रही हैं तो बाजारों में भी तिरंगी रंगत चढ़ी नजर आ रही है। नवाबों के शहर में हर तरफ तिरंगे की धूम है।

विधानसभा सहित लखनऊ की सभी सरकारी इमारतों (शक्ति भवन, जवाहर भवन, इंदिरा भवन, एनेक्सी, बापू भवन, आयकर कार्यालय) पर तिरंगी बिजली की झालर रोशनी बिखेरने लगी है। इसके अलावा इन इमारतों पर की गई तिरंगे झंडे की पट्टी की सजावट देखते ही बन रही है।

एक सरकारी बैंक में कैशियर पारुल गुप्ता कहती हैं कि तिरंगी रोशनी से नहा रही भव्य इमारतें और शहर की सजावट ने शहर की फिजा बदल दी है। सड़कों पर निकलकर इस रौनक को देखकर अद्भुद अहसास हो रहा है।

शहर के लगभग सभी चौक चौराहों पर पिछले दो तीन दिनों से तिरंगे झंडों की अस्थाई दुकानें लगी हैं, जहां विभिन्न प्रकार के बड़े से लेकर छोटे झंडे, तिरंगे स्टीकर, टोपियां, टेबल फ्लैग और तिरंगी पट्टियां पांच रुपये से लेकर 50 रुपये तक की कीमत में उपलब्ध हैं। आजादी के रंग में रंगने के लिए बच्चे और युवा तिरंगे सामानों की खरीददारी कर रहे हैं।

राजधानी के हजरतगंज, आलमबाग, अमीनाबाद जैसे प्रमुख बाजारों में तिरंगे वस्त्रों की धूम है, जो आजादी के रंग में रंगने का खूबसूरत अहसास करा रहे हैं। आलमबाग के कपड़ा व्यवसायी सुधीर जायसवाल कहते हैं कि आजादी का जश्न मनाने के लिए विशेष तिरंगा कलेक्शन लोगों को खासकर युवाओं को खूब भा रहा है।

उन्होंने कहा कि आजादी का जश्न मनाने के लिए युवा बड़े जोश के साथ सफेद कुर्ता, हरी जींस और उस पर केसरिया दुपट्टा (गमछा) के अलावा तिरंगे बॉर्डर की कमीजें खरीद रहे हैं। दुकानों में महिलाओं के लिए तिरंगी साड़ियां बिक रही हैं। इन वस्त्रों की कीमत 150 रुपये से लेकर 600 रुपये तक है।

स्वतंत्रता दिवस पर नवाबों की नगरी में पतंग उड़ाने का चलन पुराना है। ऐसे में आजादी के जश्न को देखते हुए तिरंगी पतंगें बाजारों में उतारी गई हैं। आजादी के जश्न के बीच मिठाईयों पर भी तिरंगा रंग चढ़ गया है। राजधानी की कई मिठाई दुकानों ने तिरंगी मिठाई तैयार करवाई है। सदर बाजार स्थित अग्रवाल मिष्ठान के कमलेश कुमार ने बताया कि इस खास त्योहार पर हमने पेड़ा, बर्फी और कालाजाम पर तिरंगे को कोट किया है। तीन सौ रुपये से पांच सौ रुपये प्रति किलोग्राम की कीमत की ये मिठाईयां लोगों को काफी पसंद आ रही हैं। अग्रवाल ने कहा कि मिठाईयों के साथ डिब्बों को भी तिरंगे रंग में तैयार कराया गया है। इसके अलावा डिब्बों की पैकिंग में भी तिरंगी सजावट का इस्तेमाल किया जा रहा है।

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राम-रस जग को चखाय गए तुलसी

आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुंज आप रूप गर्भ में समाय गए तुलसी।

जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गए तुलसी।

रत्नावली-सी अर्धागिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ प्रीति पाय गए तुलसी।

मानस में राम के चरित्र की कथा सुनाय राम-रस जग को चखाय गए तुलसी।

शक्ति, शील सौंदर्य के समन्वित प्रतीक राम में मयार्दा की स्थापना और उसके व्यावहारिक रूप पर दृढ़ता से टिकने की भावना अभिव्यंजित की गई है। पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के मधुर आदर्श तथा उत्सर्ग की भावना 'रामचरितमानस' में सर्वत्र बिखरी पड़ी है।

कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास को साक्षात भगवान के दर्शन हुए थे और उन्हीं की इच्छानुसार उन्होंने 'रामचरितमानस' की रचना की थी। गोस्वामी तुलसीदास का जन्म राजापुर गांव उत्तर प्रदेश में हुआ था। संवत 1554 की श्रावण मास की अमावस्या के सातवें दिन तुलसीदास का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था।

मान्यता है कि तुलसीदास का जन्म बारह महीने गर्भ में रहने के बाद हुआ था और जन्म लेने के बाद वे आम बच्चों की तरह रोए नहीं थे, बल्कि 'राम' का उच्चारण किया था। इसी से उनका नाम ही रामबोला पड़ गया। मां तो जन्म देने के बाद दूसरे ही दिन चल बसीं, पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिए बालक को चुनियां नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गए। जब रामबोला साढ़े पांच वर्ष के थे तो चुनियां भी नहीं रही।

बचपन में इतनी परेशानियां और मुश्किलें झेलने के बाद भी तुलसीदास ने कभी भगवान का दामन नहीं छोड़ा और उनकी भक्ति में हमेशा लीन रहे। बचपन में उनके साथ एक और घटना घटी जिसने उनके जीवन को पूरी तरह बदल कर रख दिया। भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनंतानंद जी के प्रिय शिष्य नरहरि बाबा ने रामबोला को ढूंढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। इसके बाद उन्हें शिक्षा दी जाने लगी।

21 वर्ष की अवस्था में तुलसीराम का विवाह यमुना के पार स्थित एक गांव की अति सुंदरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली से कर दी गई। एक दिन अपनी पत्नी की बहुत याद आने पर वह गुरु की आज्ञा से मिलने पहुंच गए। उस समय यमुना नदी में बहुत उफान आया हुआ था पर तुलसीराम ने अपनी पत्नी से मिलने के लिए उफनती नदी को भी पार कर लिया।

लेकिन रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को महान तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !

नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?

अर्थात जितना प्रेम मेरे इस हाड़-मांस के बने शरीर से कर रहे हो, उतना स्नेह यदि प्रभु राम से करते, तो तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती। यह सुनते ही तुलसीराम की चेतना जागी और उसी समय से वह प्रभु राम की वंदना में जुट गए।

तुलसी दास ने सर्वप्रथम संस्कृत में पद्य-रचना शुरू की, लेकिन बाद में वे अपनी भाषा में काव्य रचना करने लगे। संवत 1631 में तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना शुरू की। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारंभ की। दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रंथ संपन्न हुआ। संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों कांड पूर्ण हो गए।

अंत में तुलसीदास काशी के विख्यात घाट अस्सीघाट पर रहने लगे और यहीं उन्होंने अपनी अंतिम कृति 'विनय-पत्रिका' लिखी। संवत 1680 में तुलसीदास जी ने 'राम-राम' कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

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बंदूक ही नहीं कलम से भी लड़ी गई थी स्वतंत्रता की जंग


देश को आज़ादी दिलाने के लिए आज़ादी के मतवालों ने एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी| इस लड़ाई के परिणाम स्वरुप 15 अगस्त, 1947 को भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली| इस लड़ाई की ख़ास बात यह रही कि यह लड़ाई सिर्फ बंदूक ही नहीं बल्कि कलम के सहारे भी लड़ी गयी|

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रारम्भ में दो घटनाएं ऐसी घटीं, जिनसे देश के आगामी सौ वर्षो का इतिहास तय हो गया| पहली घटना मेरठ में घटी| मंगल पांडे नामक सिपाही ने धर्म की रक्षा में बंदूक तानी नहीं, बल्कि बंदूक न छूने की कसम खाई| सैद्धांतिक मतभेद में, शस्त्रविहीन आग्रह या अवज्ञा का यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग था, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में किया गया विद्रोह था। दूसरी घटना में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ तलवार उठा ली|

विद्रोह किसी भी हुकूमत को पसंद नहीं हो सकता। ब्रिटिश सरकार भी इन दोनों घटनाओं को कुचलने के लिए जो कर सकती थी, वह उसने किया| दमन की इस प्रक्रिया में जो रक्तपात हुआ, वह रक्तबीज बनकर पूरे देश में फैल गया। इस तरह कभी सूर्यास्त न होने वाले ब्रिटिश साम्राज्य पर अंधकार का पसरना शुरू हो गया| विरोध के स्वर जब फूटते हैं तो गूंजने के लिए उन्हें काव्य के धरातल की जरूरत होती है| स्वरों की इस जरूरत को लोककवि, स्थानीय कवि, महाकवि और शायरों ने पूरा किया|

ब्रिटिश साम्राज्य के दुर्भाग्य से यही समय रिकार्डिग कम्पनी और छापाखाने के उद्गम और विकास का था। लोककवियों से लेकर महाकवियों तक के विषय तय थे। मातृभूमि की वंदना, हुकूमत का विरोध, और शहीद-स्तुति| अगर जयशंकर प्रसाद लिखते-

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।

तो गीतकार, कवि प्रदीप ने लिखा-

आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है।

स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर रचना 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' अपने मूल रूप में बुंदेले हरबोलों के बुंदेली लोकगीत में मिलती है| खूबई लड़ी रे मर्दानी खूबई जूझी रे मर्दानी। बा झांसी वारी रानी अपने सिपाहियन को लड्डू खबावें, आपइ पिये ठंडा पानी बा झांसी वारी रानी|

प्रभात फेरियों का चलन जोर पकड़ रहा था| छोटे बड़े सभी शहरों में सुबह प्रयाण गीत गाती टोलियां घूमती थीं| सुबह लोग गाते-

माता के वीर सपूतों की आज कसौटी होना है, देखें कौन निकलता पीतल कौन निकलता सोना है|

इसका जवाब शाम को कोई सरफिरा देता था-

मैं माता का पूत कसौटी का कोई पत्थर ले आए, मुझसे ऐसी रेख खिचेगी जिससे सोना भी शरमाए|

किसी ने लिख दिया-

गले बांधे कफनियां हो-शहीदों की टोली निकली|

वर्ष 1913 में गदर पार्टी नामक क्रांतिकारी संगठन बना। संगठन का मुखपत्र 'गदर' नाम से प्रकाशित होने लगा। इसी समय कलकत्ते मेंअलीपुर बम कांड में वरिष्ठ नेता वारिंद्र घोष, विचारक और संत अरविंद घोष, नरेन्द्र नाथ बख्शी इत्यादि की गिरफ्तारियां हुईं।

काकोरी रेल डकैती में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी पकड़े गए| बिस्मिल ने फांसी पर चढ़ते हुए कहा-

मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे|

बाकी न मैं रहूं न मेरी आरज़ू रहे|

अशफाक उल्ला ने मरते-मरते लोगों को नसीहत दी-

"बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा।

गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।

मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।

तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।"

फांसी पर चढ़ने से पहले भगतसिंह गा रहे थे-

मेरी हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली

ये मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे, रहे न रहे।।

स्वतंत्रता आंदोलन में, देश के सभी बुद्धिजीवी किसी ने किसी तरह जुड़े थे, अधिकांश उस समय कै़दखानों की शोभा बन गए थे| आगरा जेल, इस तरह के जमावड़े का अच्छा उदाहरण था| शैदा, अहमक, जमररुध, उस्मान, रघुपति सहाय 'फिराक', कृष्णकांत, मालवीय, रामनाथ 'असीर' और महावीर त्यागी जैसे कवि, लेखक और शायर वहां क़ैद थे| देशप्रेम के नियमित मुशायरे आगरा जेल में होने लगे, बाद में तराना-ए-क़फस शीर्षक से इन रचनाओं का संग्रह कृष्णकांत मालवीय के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ|

इन सब रचनाओं के बीच 'जन गण मन अधिनायक जय हे' (रविन्द्रनाथ टैगोर), 'वंदे मातरम्' (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय) और झंडावंदन 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' (श्यामलाल पार्षद) हमारी आन बान और शान का प्रतीक बन गए| वंदेमातरम का उपयोग बलिदान मंत्र की तरह होने लगा| इसे गाते हुए या कहते हुए फांसी पर चढ़ना, चलन हो गया था, लोकप्रियता की दृष्टि से वंदे मातरम् इन तीनों में विशिष्ट था|

'सन्यासी विद्रोह' पूर्वी बंगाल में हुकूमत के खिलाफ आंदोलन था| सन्यासी विद्रोह, पर आधारित उपन्यास 'आनंद मठ' में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम गीत का उपयोग किया था| बंकिम बाबू ने यह गीत 1876 में लिखा था। उपन्यास प्रकाशन का समय 1880-82 माना गया| संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से सजी इस रचना की लोकप्रियता का पहला उदाहरण वर्ष 1902 में सामने आया, जब कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसका संगीत बनाया और सस्वर पाठ किया| फ्रांस की किसी 'पाथे' ग्रामोफोन कम्पनी के तत्वावधान में बना यह रिकॉर्ड प्रसारित किया गया जिसके बाद यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया|

एक तरफ अरविन्द घोष जैसे संत का नाम इससे जुड़ा तो दूसरी तरफ विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर जैसे महान संगीतज्ञ ने इसकी धुन बनाई। एक ही गीत की इतनी धुनें शायद ही कभी बनी हों| रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर ए आर रहमान तक ने इसकी कितनी धुनें बनाई और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर लता मंगेशकर व ए आर रहमान सहित कितने गायक इसे गाकर गौरवान्वित हुए|

कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 में हो गई थी, इसके अधिवेशनों एवं सम्मेलनों में वंदे मातरम् नियमित रूप से गाया जाने लगा था| कभी इसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गाया तो कभी विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर ने| पुरानी 'देवदास' फिल्म के संगीत निर्देशक 'तिमिर बरन भट्टाचार्य' ने इसकी धुन सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के लिए बनाई थी| इस धुन को ब्रिटिश बैंड ने भी बजाया और आजाद हिन्द फौज की रेडियो सर्विस सिंगापुर से नियमित प्रसारण होता था|

बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में सिने संगीत प्रचार के सशक्त माध्यम की तरह अस्तित्व में आया| वर्ष 1940 में एक फिल्म बनी 'बंधन', जिसमें कवि प्रदीप का लिखा गीत चल-चल रे नौजवान बहुत लोकप्रिय हुआ| स्वतंत्रता से पहले बनी फिल्मों में मात्र यही गीत ऐसा मिलता है, जिससे ब्रिटिश सरकार हैरान हो गई थी| कवि प्रदीप ने इसे बाम्बे टाकीज के अहाते में एक पेड़ की छांव में बैठकर लिखा और इस आग उगलने वाले ओजस्वी गीत को फिल्म की संगीत निर्देशक जोड़ी सरस्वती देवी एवं रामचंद्र पाल को धुन बनाने के लिए दे दिया| दोनों मिलकर कई दिनों तक सिर खपाते रहे पर कोई नतीजा नहीं निकला| एक दिन फिल्म के नायक अशोक कुमार ने स्टूडियो में हारमोनियम उठाया और पहली पंक्ति स्वरबद्ध हो गई|

इसके बाद अशोक कुमार भी लाचार हो गए| अंत में वह अपनी बहन सती देवी मुखर्जी के पास गए, जिन्होंने उसका पूरा संगीत तैयार किया| कड़ी सेंसरशिप की आंखों में धूल झोंककर यह गीत फिल्म में आ गया और सारे देश में धूम मचाने लगा, देश के युवकों ने इसे अपने मन की आवाज माना| पंजाब और सिंध के युवकों ने तो असेंबली में इसे वंदे मातरम् की जगह राष्ट्रगीत बनाए जाने का प्रस्ताव रखवा दिया| गांधीवादी महादेव भाई देसाई ने इस गीत की तुलना उपनिषद् मंत्रों से की| सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी उन दिनों बीबीसी लंदन में कार्यरत थे| उन्होंने इसे वहां से प्रसारित करवाया|

सिने जगत में स्वतंत्रता आंदालन से जुड़ी जो हस्तियां उल्लेखनीय हैं, उनमें कवि प्रदीप के साथ गीतकार इंदीवर (बड़े अरमान से रखा है बलम तेरी कसम-मल्हार) और संगीत निर्देशक अनिल विश्वास (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है) प्रमुख हैं| क्रांतिकारी विचारधारा अपनाने वाले अनिल दा ने 12 वर्ष की अल्पायु में ही पिस्तौल रखना शुरू कर दिया था| इतना ही नहीं, किशोरावस्था में ही भूमिगत जीवन की आदत हो गई थी|

झांसी के श्यामलाल राय, इंदीवर के नाम से फिल्मों में गीत लिखते रहे| वर्ष 1942 में 'अरे किरायेदार कर दे मकान खाली' सरकारी विरोध में लिखी कविता मानी गई (इसकी सजा किरायेदार ने मकान मालिक को दी) और उन्हें आगरा जेल में एक साल रखा गया| पैत्रिक संपत्ति राष्ट्र को समर्पित कर बम्बई आये इंदीवर ने शेष जीवन फिल्मी गीतकार के रूप में बिताया| निरंतर योगदान के लिए कवि प्रदीप अपने अन्य साथियों की तुलना में विशिष्ट और अलग दिखते हैं| 'चल चल रे नौजवान' (बंधन) गीत धूम तो मचाया लेकिन प्रदीप को फिल्मों में स्थायित्व दिया किस्मत के गीत ने (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है)| प्रतिष्ठा में थोड़ी बहुत कसर जो बाकी थी, उसे 'ऐ मेरे वतन के लोगों' ने पूरी कर दी|

'ऐ मेरे वतन के लोगों' गीत के साथ थोड़ा बहुत विवाद और इतिहास जुड़ा है| लता जी तब तक सार्वजनिक प्रदर्शन से इंकार करती थीं लेकिन कवि प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया यह गीत चीन आक्रमण के बाद लाल क़िले में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने गाया| नेहरू जी गदगद हो गए थे और गीत के भाव उन्हें रुला गए| शुरू में यह गीत आशा भोंसले को गाना था| संगीत निर्देशक सी रामचन्द्र व लता मंगेशकर में अनबन चल रही थी| प्रदीप जी के व्यक्तिगत अनुरोध पर लताजी भी इसमें शामिल होने तैयार हो गईं।|अब आशा एवं लता दोनों की आवाज़ में गाना रिकॉर्ड होना था लेकिन रिकॉर्डिग तारीख पर आशा जी को समय न होने के कारण लता जी ने अकेले यह गीत गाया|

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9 वर्ष की बच्ची सिखाएगी, कैसे तिरंगे में रंगें अपना चेहरा


देश का 66वां स्वतंत्रता दिवस नजदीक है, और इस अवसर पर अपने चेहरे, नाखूनों या शरीर के अन्य हिस्सों पर तिरंगा पेंट करने में लोगों को होने वाली परेशानियों को दूर करने के लिए एक नौ वर्ष की बच्ची ने एक वीडियो ट्यूटोरियल तैयार किया है। दिल्ली से सटे हरियाणा के गुड़गांव के केआर मंगलम स्कूल में पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाली अरक्ष्या राज कालरा को अपने चेहरे को तिरंगे पेंट से सजाना बहुत अच्छा लगता है।

अरक्ष्या सिर्फ स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्रता दिवस पर ही नहीं बल्कि भारतीय क्रिकेट टीम के मैच के दौरान भी अपने चेहरे को तिरंगे से रंग लेती है। उसने बताया कि उसके मन में अपने चेहरे को देशभक्ति के रंग में रंगने को फैशन का नया अंदाज बनाने का विचार आया।

अरक्ष्या को कंप्यूटर में बहुत दिलचस्पी है और उसका अच्छा ज्ञान भी। इसलिए उसने कंप्यूटर की मदद से एक ऐसा वीडियो बनाने की सोची जिससे उनके मित्रों को अपने चेहरे को तिरंगे से रंगने में मदद मिल सके।

अरक्ष्या ने बताया कि अपने चेहरे पर रंग लगाने से पहले मैं जानना चाहती थी कि वह मुझ पर कैसा लगेगा। पापा की मदद से मैंने फोटोशॉप सॉफ्टवेयर पर एक वीडियो ट्यूटोरियल तैयार किया है। अरक्ष्या द्वारा बनाए गए इस वीडियो ट्यूटोरियल में 51 अध्याय हैं, जिसमें सामान्य से सामान्य परेशानियों का समाधान सुझाया गया है।

वह इस स्वतंत्रता दिवस पर अपने एक ट्यूटोरियल को लांच करने वाली है, जिसमें वह अपने पिता के साथ लोगों को अपने चेहरों को तिरंगे में रंगने के लिए ऑनलाइन प्रशिक्षित करेगी।

उसका कहना है कि आज उसकी उम्र के अधिकांश बच्चे काफी समय इंटरनेट पर गुजारते हैं और सोशल नेटवर्किं ग साइटों के जरिए बातचीत करते हैं। इस तरह संदेशों के आदान प्रदान में चित्रों का उपयोग प्रभावी हो सकता है। अरक्ष्या का यह वीडियो ट्यूटोरियल आरकेफोटोमैजिकट्रिक्स डॉट कॉम पर उपलब्ध है।

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स्वतंत्रता दिवस विशेष: बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी

'बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मदार्नी वह तो झांसी वाली रानी थी' कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पंक्तियां आज भी बुंदेलों की जुबान पर हैं। स्वतंत्रता दिवस या आजादी की बात हो और रानी झांसी का जिक्र न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। 

सन् 1857 के विद्रोह (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) में फिरंगी सेना की चूल्हे हिला देने वाली रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यह बात अलग है कि आजादी की लड़ाई का हिस्सा बना बुंदेलखण्ड आज खुद की 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई में अलग-थलग पड़ा हुआ है।

यह विश्व विदित है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सन् 1857 में भड़के विद्रोह में वीरांगना रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने अपनी महिला सेनापति झलकारीबाई के साथ फिरंगी सेना का मुकाबले करते हुए युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया था, लेकिन अंग्रेजों की दासता नहीं स्वीकार की थी। 

अंग्रेजों को आभास भी नहीं था कि 19 साल की उम्र में कदम रखने वाली रानी झांसी के सामने उसके सैनिकों को मुंह की खानी पड़ेगी। 21 नवम्बर, 1853 को राजा बाल गंगाधर राव की मौत के बाद सात मार्च, 1854 को अंग्रेजों ने झांसी रियासत को अपने कब्जे में ले लिया था, तमाम प्रयासों के बाद भी फिरंगियों ने जब रानी झांसी को राज्य वापस करने से इंकार कर दिया तो उनके सामने युद्ध के अलावा कोई चारा नहीं बचा। रानी झांसी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर अंग्रेजी सेना के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं। 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इस युद्ध में बांदा के नवाब अली बहादुर ने रक्षाबंधन में रानी झांसी द्वारा भेजी गई 'राखी' की कीमत अपनी सेना झांसी की मदद में भेज कर अदा की थी। चार अप्रैल, 1858 को नाना भोपटकर की सलाह पर रात को जब रानी अपने दत्तक पुत्र के साथ बिठूर की ओर रवाना हुईं तब वह अपनी ही रियासत के राजनीतिक अभिकर्ता मालकम की गद्दारी का शिकार हुईं और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हो गईं। 

झांसी की रानी की निर्भीकता और बहादुरी को देखकर ही अंग्रेज अधिकारी जनरल ह्यूरोज ने चार जून, 1858 को कहा था कि 'नो स्टूअर्स इफ वन परसेंट ऑफ इंडियन वुमेन बिकम सो मैड ऐज दिस गर्ल इज, वी विल हैव टू लीव आल दैट वी हैव इन दिस कंट्री (अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आजादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा)।' अंग्रेज अधिकारी की यह बात सही साबित हुई और उन्हें यह देश छोड़कर जाना ही पड़ा। लेकिन, आजादी की लड़ाई का हिस्सा बनने वाले इस बुंदेलखण्ड के अब हालात क्या हैं?

बुंदेलखण्ड के इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली बताते हैं, "आजादी की जंग में रानी लक्ष्मीबाई और उनकी महिला सेनापति झलकारीबाई ने ब्रिटिश हुकूमत की चूल्हे हिलाकर रख दी थीं। इन दोनों वीरांगनाओं ने युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया, लेकिन फिरंगियों की दासता नहीं स्वीकार की थी।" 

झांसी किले के उन्नाव गेट के नया पुरा मुहल्ला में रहने वाले बुजुर्ग मोहन मास्टर खुद के झलकारीबाई का वंशज होने का दावा करते हुए बताते हैं, "रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध कौशल से ही अंग्रेजों को एक भारतीय नारी और बुंदेली माटी की ताकत का अहसास हुआ था।" 

इसी उन्नाव गेट के अंदर रहने वाले मनसुख दास जतारिया को मलाल है कि यदि मालकम ने गद्दारी न की होती तो रानी लक्ष्मीबाई बिठूर पहुंच कर बच सकती थीं। महोबा के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बासुदेव चौरसिया कहते हैं, "रानी झांसी जैसी शूरवीरों की शहादत को सहेज कर रख पाना आज की पीढ़ी के लिए बड़ा मुश्किल काम है, बुंदेलखण्ड में झांसी का किला अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता और रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी का प्रत्यक्ष गवाह है।" 

बांदा के बुजुर्ग पत्रकार राजकुमार पाठक का कहना है, "आजादी का जश्न हर साल मनाकर सरकार सरकारी परम्परा का निर्वहन करती है, 15 अगस्त या 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज फहराना ही असली आजादी नहीं है।" 

वह कहते हैं, "देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो दो वक्त की रोटी को तरस रहा है और कुछ ही लोग हैं जो आराम से जिंदगी गुजार रहे हैं।" वह सवाल करते हैं, "क्या रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, मंगल पांड़े, रामप्रसाद बिस्मिल, नेता जी सुभाशचंद्र बोस जैसे दीवाने इसी आजादी की कल्पना कर शहीद हुए होंगे?" 

फिल्म अभिनेता और बुंदेलखण्ड कांग्रेस के अध्यक्ष राजा बुंदेला कहते हैं, "बुंदेलखण्ड के लिए आजादी बेमानी है, बुंदेलों को सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व मानसिक रूप से अब तक आजादी नहीं मिली, यह इलाका आजद देश में अपनी 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई लड़ रहा है।" 


वह कहते हैं, "अंग्रेजों के जमाने में कम से कम इतना तो था कि भूख से तड़प कर कोई आत्महत्या नहीं करता था, यहां तो 'पलायन' और 'आत्महत्या' का अनवरत सिलसिला जारी है, इसे कैसे आजादी माना जा सकता है?"

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साल में एक दिन के लिए खुलता है नागचंद्रेश्वर मंदिर

हिन्दू धर्मावलंबियों समेत अन्य धर्मों में भी शायद ही कोई ऐसा मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर होगा जो वर्ष में एक दिन के लिए खुलता होगा, लेकिन महाकाल की नगरी उज्जैन में एक दुर्लभ नागचन्द्रेश्वर मंदिर है जिसके पट श्रावण शुक्ल पंचमी यानि की नाग पंचमी के दिन ही खुलते हैं| इस साल मंदिर के पट 23 जुलाई दिन सोमवार को खुलेंगे| यह मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर के सबसे उपरी तल पर स्थित है| हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प भगवान शिव का कंठाहार और भगवान विष्णु का आसन है लेकिन यह विश्व का संभवत:एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान शिव, माता पार्वती एवं उनके पुत्र गणेशजीको सर्प सिंहासन पर आसीन दर्शाया गया है। इस मंदिर के दर्शनों के लिए नागपंचमी के दिन सुबह से ही लोगों की लम्बी कतारे लग जाती है|

भगवान भोलेनाथ को अर्पित फूल व बिल्वपत्र को लांघने से मनुष्य को दोष लगता है। कहते हैं कि भगवान नागचंद्रेश्वर के दर्शन करने से यह दोष मिट जाता है| महाकाल की नगरी में देवता भी अछूते नहीं रहे वह भी इस दोष से बचने के लिए नागचंद्रेश्वर का दर्शन करते हैं। ऐसा धर्मग्रंथों में उल्लेख है। भगवान नागचंद्रेश्वर को नारियल अर्पित करने की परंपरा है। पंचक्रोशी यात्री भी नारियल की भेंट चढ़ाकर भगवान से बल प्राप्त करते हैं और यात्रा पूरी होने पर मिट्टी के अश्व अर्पित कर उनका बल लौटाते हैं।

मान्यता है कि सर्पो के राजा तक्षक ने भगवान भोलेनाथ की यहां घनघोर तपस्या की थी। तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और तक्षक को अमरत्व का वरदान दिया। ऐसा माना जाता है कि उसके बाद से तक्षक नाग यहां विराजित है, जिस पर शिव और उनका परिवार आसीन है। एकादशमुखी नाग सिंहासन पर बैठे भगवान शिव के हाथ-पांव और गले में सर्प लिपटे हुए है।

इस अत्यंत प्राचीन मंदिर का परमार राजा भोज ने एक हजार और 1050 ई. के बीच पुनर्निर्माण कराया था। 1732 में तत्कालीन ग्वालियर रियासत के राणा जी सिंधिया ने उज्जयिनी के धार्मिक वैभव को पुन:स्थापित करने के भागीरथी प्रयास के तहत महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्वार कराया।
एक प्रचलित कथा के अनुसार, एक बार देवर्षि नारद इंद्र की सभा में कथा सुना रहे थे। इंद्र ने नारद जी से पूछा कि हे मुनि, आप त्रिलोक के ज्ञाता हैं। मुझे पृथ्वी पर ऐसा स्थान बताओ, जो मुक्ति देने वाला हो। यह सुनकर मुनि ने कहा कि उत्तम प्रयागराज तीर्थ से दस गुना ज्यादा महिमा वाले महाकाल वन में जाओ। वहां महादेव के दर्शन मात्र से ही सुख, स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वर्णन सुनकर सभी देवता विमान में बैठकर महाकाल वन आए। उन्होंने आकाश से देखा कि चारों ओर साठ करोड़ से भी शत गुणित लिंग शोभा दे रहे हैं। उन्हें विमान उतारने की जगह दिखाई नहीं दे रही थी।

इस पर निर्माल्य उल्लंघन दोष जानकर वे महाकाल वन नहीं उतरे, तभी देवताओं ने एक तेजस्वी नागचंद्रगण को विमान में बैठकर स्वर्ग की ओर जाते देखा। पूछने पर उसने महाकाल वन में महादेव के उत्तम पूजन कार्य को बताया। देवताओं के कहने पर कि वन में घूमने पर तुमने निर्माल्य लंघन भी किया होगा, तब उसके दोष का उपाय बताओ।

नागचंद्रगण ने ईशानेश्वर के पास ईशान कोण में स्थित लिंग का महात्म्य बताया। इस पर देवता महाकाल वन गए और निर्माल्य लंघन दोष का निवारण उन लिंग के दर्शन कर किया। कहते हैं कि यह बात नागचंद्रगण ने बताई थी, इसीलिए देवताओं ने इस लिंग का नाम नागचंद्रेश्वर महादेव रखा।

कैसे पहुंचे-

उज्जैन शहर भोपाल-अहमदाबाद रेल खण्ड पर स्थित एक पवित्र धार्मिक नगर है। यहां हर गाड़ी रुकती है। इंदौर यहां से केवल 65 किलोमीटर दूर है। उज्जैन रेलवे स्टेशन से महाकालेश्वर मंदिर मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां आवागमन के साधन आसानी से मिल जाते हैं।

नागपंचमी विशेष: जानिए कालसर्प दोष, प्रकार व उससे मुक्ति पाने का उपाय

शनि की साढ़ेसाती और कालसर्प दोष का नाम सुनते ही लोग घबरा जाते हैं| क्योंकि जिन लोगों की कुंडली में यह दोष होता है उन्हें अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जैसे, विवाह, सन्तान में विलम्ब, दाम्पत्य जीवन में असंतोष, मानसिक अशांति, स्वास्थ्य हानि, धनाभाव एवं प्रगति में रूकावट आदि| 

काल सर्प दोष के निवारण के लिए बारह ज्योतिर्लिंग के अभिषेक एवं शांति का विधान बताया गया है। यदि द्वादश ज्योतिर्लिंग में से केवल एक नासिक स्थित त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग का नागपंचमी के दिन अभिषेक, पूजा किया जाए तो इस दोष से हमेशा के लिए मुक्ति मिलती है।

काल सर्प का सामान्य अर्थ यह है कि जब ग्रह स्थिति आएगी तब सर्प दंश के समान कष्ट होगा| पुराने समय राहु तथा अन्य ग्रहों की स्थिति के आधार पर काल सर्प का आंकलन किया जाता था| आज ज्योतिष शास्त्र को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने के लिए नये नये शोध हो रहे हैं| इन शोधो से कालसर्प योग की परिभाषा और इसके विभिन्न रूप एवं नाम के विषय में भी जानकारी मिलती है| वर्तमान समय में कालसर्प योग की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार जन्म कुण्डली में सभी ग्रह राहु केतु के बीच में हों या केतु राहु के बीच में हों तो काल सर्प योग बनता है|

कालसर्प योग के प्रकार-

ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक भाव के लिए अलग अलग कालसर्प योग के नाम दिये गये हैं| इन काल सर्प योगों के प्रभाव में भी काफी कुछ अंतर पाया जाता है जैसे प्रथम भाव में कालसर्प योग होने पर अनन्त काल सर्प योग बनता है| 

अनन्त कालसर्प योग -

जब प्रथम भाव में राहु और सप्तम भाव में केतु होता है तब यह योग बनता है| इस योग से प्रभावित होने पर व्यक्ति को शारीरिक और, मानसिक परेशानी उठानी पड़ती है साथ ही सरकारी व अदालती मामलों में उलझना पड़ता है| इस योग में अच्छी बात यह है कि इससे प्रभावित व्यक्ति साहसी, निडर, स्वतंत्र विचारों वाला एवं स्वाभिमानी होता है|


कुलिक काल सर्प योग -

द्वितीय भाव में जब राहु होता है और आठवें घर में केतु तब कुलिक नामक कालसर्प योग बनता है| इस कालसर्प योग से पीड़ित व्यक्ति को आर्थिक काष्ट भोगना होता है| इनकी पारिवारिक स्थिति भी संघर्षमय और कलह पूर्ण होती है| सामाजिक तौर पर भी इनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं रहती|

वासुकि कालसर्प योग - 

जन्म कुण्डली में जब तृतीय भाव में राहु होता है और नवम भाव में केतु तब वासुकि कालसर्प योग बनता है| इस कालसर्प योग से पीड़ित होने पर व्यक्ति का जीवन संघर्षमय रहता है और नौकरी व्यवसाय में परेशानी बनी रहती है| इन्हें भाग्य का साथ नहीं मिल पाता है व परिजनों एवं मित्रों से धोखा मिलने की संभावना रहती है|

शंखपाल कालसर्प योग-

राहु जब कुण्डली में चतुर्थ स्थान पर हो और केतु दशम भाव में तब यह योग बनता है| इस कालसर्प से पीड़ित होने पर व्यक्ति को आंर्थिक तंगी का सामना करना होता है| इन्हें मानसिक तनाव का सामना करना होता है| इन्हें अपनी मां, ज़मीन, परिजनों के मामले में कष्ट भोगना होता है|

पद्म कालसर्प योग-

पंचम भाव में राहु और एकादश भाव में केतु होने पर यह कालसर्प योग बनता है| इस योग में व्यक्ति को अपयश मिलने की संभावना रहती है| व्यक्ति को यौन रोग के कारण संतान सुख मिलना कठिन होता है| उच्च शिक्षा में बाधा, धन लाभ में रूकावट व वृद्धावस्था में सन्यास की प्रवृत होने भी इस योग का प्रभाव होता है|

महापद्म कालसर्प योग -

जिस व्यक्ति की कुण्डली में छठे भाव में राहु और बारहवें भाव में केतु होता है वह महापद्म कालसर्प योग से प्रभावित होता है| इस योग से प्रभावित व्यक्ति मामा की ओर से कष्ट पाता है एवं निराशा के कारण व्यस्नों का शिकार हो जाता है| इन्हें काफी समय तक शारीरिक कष्ट भोगना पड़ता है| प्रेम के ममलें में ये दुर्भाग्यशाली होते हैं|

कर्कोटक कालसर्प योग-

केतु दूसरे स्थान में और राहु अष्टम स्थान में कर्कोटक नाम कालसर्प योग बनता है। इस योग की वजह से कुछ रुकावटें अवश्य आती हैं। नौकरी मिलने व पदोन्नति होने में भी कठिनाइयां आती हैं। कभी-कभी तो उन्हें बड़े ओहदे से छोटे ओहदे पर काम करने का भी दंड भुगतना पड़ता है। पैतृक संपत्ति से भी ऐसे जातकों को मनोनुकूल लाभ नहीं मिल पाता। व्यापार में भी समय-समय पर क्षति होती रहती है। कोई भी काम बढ़िया से चल नहीं पाता। कठिन परिश्रम के बावजूद उन्हें पूरा लाभ नहीं मिलता। मित्रों से धोखा मिलता है तथा शारीरिक रोग व मानसिक परेशानियों से व्यथित जातक को अपने कुटुंब व रिश्तेदारों के बीच भी सम्मान नहीं मिलता। चिड़चिड़ा स्वभाव व मुंहफट बोली से उसे कई झगड़ों में फंसना पड़ता है। उसका उधार दिया पैसा भी डूब जाता है। 

तक्षक कालसर्प योग-

तक्षक कालसर्प योग की स्थिति अनन्त कालसर्प योग के ठीक विपरीत होती है| इस योग में केतु लग्न में होता है और राहु सप्तम में| इस योग में वैवाहिक जीवन में अशांति रहती है| कारोबार में साझेदारी लाभप्रद नहीं होती और मानसिक परेशानी देती है| 

शंखचूड़ कालसर्प योग-

तृतीय भाव में केतु और नवम भाव में राहु होने पर यह योग बनता है| इस योग से प्रभावित व्यक्ति जीवन में सुखों को भोग नहीं पाता है| इन्हें पिता का सुख नहीं मिलता है| इन्हें अपने कारोबार में अक्सर नुकसान उठाना पड़ता है|

घातक कालसर्प योग -

कुण्डली के चतुर्थ भाव में केतु और दशम भाव में राहु के होने से घातक कालसर्प योग बनता है| इस योग से गृहस्थी में कलह और अशांति बनी रहती है| नौकरी एवं रोजगार के क्षेत्र में कठिनाईयों का सामना करना होता है|

विषधर कालसर्प योग -

केतु जब पंचम भाव में होता है और राहु एकादश में तब यह योग बनता है| इस योग से प्रभावित व्यक्ति को अपनी संतान से कष्ट होता है| इन्हें नेत्र एवं हृदय में परेशानियों का सामना करना होता है| इनकी स्मरण शक्ति अच्छी नहीं होती| उच्च शिक्षा में रूकावट एवं सामाजिक मान प्रतिष्ठा में कमी भी इस योग के लक्षण हैं| 

शेषनाग कालसर्प योग -

व्यक्ति की कुण्डली में जब छठे भाव में केतु आता है तथा बारहवें स्थान पर राहु तब यह योग बनता है| इस योग में व्यक्ति के कई गुप्त शत्रु होते हैं जो इनके विरूद्ध षड्यंत्र करते हैं| इन्हें अदालती मामलो में उलझना पड़ता है| मानसिक अशांति और बदनामी भी इस योग में सहनी पड़ती है| इस योग में एक अच्छी बात यह है कि मृत्यु के बाद इनकी ख्याति फैलती है| अगर आपकी कुण्डली में है तो इसके लिए अधिक परेशान होने की आवश्यक्ता नहीं है| काल सर्प योग के साथ कुण्डली में उपस्थित अन्य ग्रहों के योग का भी काफी महत्व होता है| आपकी कुण्डली में मौजूद अन्य ग्रह योग उत्तम हैं तो संभव है कि आपको इसका दुखद प्रभाव अधिक नहीं भोगना पड़े और आपके साथ सब कुछ अच्छा हो|

कालसर्प दोष से बचने के उपाय-

उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचंद्रेश्वर मंदिर के दर्शन करें। सर्प सूक्त से उनकी आराधना करें। दुग्ध, शक्कर, शहद से स्नान व अभिषेक करें। यदि शुक्ल यजुर्वेद में वर्णित भद्री द्वारा नागपंचमी के दिन महाकालेश्वर की पूजा की जाए तो इस दोष का शमन होता है।

कालसर्प योग शांति के लिए नागपंचमी के दिन व्रत करें और काले पत्थर की नाग देवता की एक प्रतिमा बनवा कर उसकी किसी मन्दिर में प्रतिष्ठा करवा दें| इसके आलावा काले नाग-नागिन का जो़ड़ा सपेरे से मुक्त करके जंगल में छो़ड़ें। ताँबा धातु की एक सर्पमूर्ति बनवाकर अपने घर के पूजास्थल में स्थापित करें, एक वर्ष तक नित्य उसका पूजन करने के बाद उसे किसी नदी या तालाब इत्यादि में प्रवाहित कर दें|

श्रावण कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि अर्थात नागपंचमी को उपवास रखें और उस दिन सर्पाकार सब्जियाँ खुद न खाकर, न अपने हाथों काटकर बल्कि उनका किसी भिक्षुक को दान करें|

नागपंचमी के दिन रुद्राक्ष माला से शिव पंचाक्षर मंत्र ॐ नमः शिवाय का जप करने से भी इसकी शांति होती है और इस दिन बटुक भैरव यंत्र को पूजास्थल पर रखने से भी इसका शमन होता है।

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जाने नागपंचमी के दिन क्यों पीटी जाती हैं गुड़िया

नागपंचमी हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है| इस दिन भगवान भोलेनाथ के साथ- साथ उनके गले का श्रृंगार नागदेवता की भी पूजा होती है| नागपंचमी का त्यौहार देश केविभिन्न भागों में मनाया जाता है| लेकिन उत्तर प्रदेश में इसे मनाने का ढंग कुछ अनूठा है| यहाँ नागपंचमी के दिन महिलाएं व लड़कियां घर के पुराने कपड़ों की गुड़िया बनाती हैं जिसे लड़के कोड़ों व डंडों से पीटते हैं| क्या आपको पता है कि ऐसा क्यों होता है- 

इस बारे में एक प्रचलित कथा है- 

तक्षक नाग के बारे में आपने कई धार्मिक पुस्तकों में पढ़ा होगा| माना जाता है कि तक्षक नाग काफी जहरीला था| इसमें इतनी शक्ति थी कि अपने विष से हरे-भरे वृक्ष को भी सूखा सकता था| कहा जाता है कि एक बार महाराज परीक्षित को एक ऋषि ने शाप दे दिया कि तक्षक तुम्हें डसेगा जिससे तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी| ऋषि के श्राप से तक्षक ने नियत समय पर परीक्षित को डस लिया| इससे परीक्षित की मृत्यु हो गयी| 

धीरे- धीरे समय बीतता गया और तक्षक की चौथी पीढी में कन्या का विवाह राजा परीक्षित की चौथी पीढी में हुआ| उस कन्या ने ससुराल में एक महिला को यह रहस्य बताकर उससे इस बारे में किसी को भी नहीं बताने के लिए कहा| कहते हैं कि औरतों के बात हजम नहीं होती और उस महिला ने दूसरी महिला को यह बात बता दी और उसने भी उससे यह राज किसी से नहीं बताने के लिए कहा। लेकिन धीरे-धीरे यह बात पूरे नगर में फैल गई।

तक्षक के तत्कालीन राजा ने इस रहस्य को उजागर करने पर नगर की सभी लड़कियों को चौराहे पर इकट्ठा करके कोड़ों से पिटवा कर मरवा दिया। वह इस बात से क्रुद्ध हो गया था कि औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचती है। तभी से नागपंचमी पर गुड़िया को पीटने की परम्परा है।

वहीं एक दूसरी कथा के मुताबिक, किसी नगर में एक भाई अपनी बहन के साथ रहता था| दोनों भाई बहन एक दूसरे से बहुत प्रेम करते थे| भाई, भगवान भोलेनाथ और मां काली का भक्त था। वह प्रतिदिन भगवान् भोलेनाथ के मंदिर जाता था जहाँ उसे एक नागदेवता के दर्शन होते थे| वह लड़का रोजाना उस नाग को दूध पिलाने लगा| धीरे- धीर दोनों में प्रेम बढ़ने लगा| लड़के को देखते ही सांप अपनी मणि छोड़कर उसके पैरों में लिपट जाता था। 

एक बार सावन का महीना था। बहन, भाई के साथ सज धजकर मंदिर जाने के लिए तैयार हुई। नये गेहूं और चने की मीठी खीर, फल, फूल लेकर भाई संग मंदिर गयी। वहां रोज की तरह सांप अपनी मणि छोड़कर भाई के पैरों मे लिपट गया। बहन को लगा कि सांप भाई को डस रहा है। इस पर ने वह दलीय सांप पर दे मारी और उसे पीट- पीटकर मर डाला| भाई ने जब अपनी बहन को पुरी बात बताई तो वह रोने लगी और पश्चाताप करने लगी| लोगों ने कहा कि सांप देवता का रूप होते हैं इसलिए बहन को दंड और पूजा जरूरी है। पर बहन ने भाई की जान बचाने के लिए सांप को मारा है। इसलिए बहन के रूप में यानी गुड़िया को हर काल में दंड भुगतना पड़ेगा| तभी से गुडिया का यह पर्व मनाया जाने लगा|

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इस बांबी की परिक्रमा करने से उतरता है जहरीले नाग का 'जहर'

उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के एक गांव में एक ऐसी सांप की बांबी है, जहां परिक्रमा मात्र लगाने से ही जहरीले नाग का जहर तत्काल छूमंतर हो जाता है| नाग पंचमी को इस बांबी में ग्रामीण लोग पूजा-अर्चना कर इच्छाधारी नाग को बांबी में ही बसे रहने की आरजू-मिन्नत करते हैं.

बांदा जनपद की अतर्रा तहसील के नाहर पुरवा गांव के बीचों बीच करिश्माई सांप की यह बांबी बनी हुई है| मिट्टी के भारी टीले से बनी बांबी को गांव के ग्रामीण 'नाहर देवता' के नाम से पुकारते हैं| इस गांव के लोगों का कहना है कि वर्षों पहले इस बांबी में इच्छाधारी नाग-नागिन का जोड़ा रहा करता था| नहर देवता की वजह से ही इस गांव का नाम भी 'नहर पुरवा' पड़ा है|

यहां आज भी आस-पास के गांवों में अगर जहरीले सांप ने किसी को काटा तो उसके बालों में नाहर देवता के नाम की गांठ लगाकर नाहर बाबा के जयकारों के साथ परिक्रमा लगाने भर से वह ठीक हो जाता है| इस करिश्मे से प्रभावित होकर हर साल नाग पंचमी को नाग देवता की पूजा-अर्चना कर यहीं बसे रहने को राजी करते हैं|

इस गांव के बुजुर्ग हीरालाल लोधी ने बताया कि गांव बसने से पूर्व इस बांबी में एक इच्छाधारी नाग-नागिन का जोड़ा रहा करता था जो नाग पंचमी की आधी रात को मानव रूप धारण कर अठखेलियां किया करता था| उनके परिवार के एक बुजुर्ग को इस जोड़े ने सपने में यहां अपने बसनेर करने की जानकारी दी और बताया कि जहरीले सांप के डसे व्यक्ति द्वारा सात परिक्रमा लगाने से तुरंत जहर उतर जाएगा| तब से यही मान्यता चली आ रही है|

नाग पंचमी के दिन आस-पास के गांवों के लोग नाग देवता की विधि विधान से पूजा करते हैं और नाग देवता के यहीं बसे रहने की आरजू-मिन्नत करते हैं| उन्होंने बताया कि यहां न तो कोई दवा दी जाती है और न ही झाड़-फूंक ही होती है| सिर्फ पीड़ित के सात परिक्रमा लगाने मात्र से जहरीले नाग का जहर ठीक हो जाता है|

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...यहाँ नाग पंचमी के दिन होती है नागों की अनोखी पूजा





आपने नाग पंचमी के मौके पर नाग पूजन के विषय में सुना और देखा भी होगा परंतु बिहार के समस्तीपुर जिले में नाग पंचमी के मौके पर नाग की पूजा करने की अनोखी प्रथा है। इस दिन नाग के भगत (पुजारी, भक्त) गंडक नदी या पोखर में डुबकी लगाकर नदी से सांप निकालते हैं और उसकी पूजा करते हैं। या यूं कहिये कि नदी के किनारे सांपों का मेला लगता है।





समस्तीपुर के विभूतिपुर प्रखंड के सिंघिया और रोसड़ा गांव में भगत जहां गंडक नदी में डुबकी लगाकर सांप निकालते हैं वहीं सरायरंजन में एक प्राचीन पोखर से सांप निकालकर उसकी पूजा करते हैं। इस दौरान इस स्थानों पर नाग पंचमी के दिन लोगों का मजमा लगता है।




नाग पंचमी रविवार को इस इलाके में धूमधाम से मनाया गया। इस मौके पर इस अनोखी परम्परा को देखने के लिए बिहार के ही लोग नहीं बल्कि अन्य राज्यों के लोग भी यहां पहुंचते हैं और इस अभूतपूर्व नजारे को देखते हैं। गंडक के तट पर सैकड़ों भगत जुटते हैं और फिर नदी में डुबकी लगाकर नाग सांप को नदी से निकाल आते हैं। वे कहते हैं कि सांप उनको कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।


सिंघिया गांव के भगत रासबिहारी भगत कहते हैं कि यह काफी प्राचीन प्रथा है। वे कहते हैं कि यह प्रथा इस इलाके में करीब 300 वर्ष से चली आ रही है। वे बताते हैं कि उनके भगवान नाग होते हैं। वे कहते हैं कि वे पिछले 25 वषरें से यहां जुटते हैं और सांप निकालते हैं।


भगतों द्वारा निकाले गए सांपों को नदी के किनारे ही बने नाग मंदिर या भगवती मंदिर में ले जाया जाता है और फिर उनकी सामूहिक रूप से पूजा कर उन्हें दूध और लावा खिलाकर वापस नदी में छोड़ दिया जाता है। इस दौरान सांप को दूध और लावा देने के लिए गांव के पुरूष और महिलाओं की भारी भीड़ भी यहां लगी रहती है। पूजा के दौरान वहां कीर्तन और भजन का भी कार्यक्रम चलते रहता है।


एक अन्य भगत रामचंद्र जो पिछले 36 वषरें से यह कार्य करते आ रहे हैं, ने बताया कि यह परम्परा अब इन गांवों में सभ्यता बन गई है। वे कहते हैं कि नाग पंचमी के दिन नागों की पूजा करने से केवल खुद की बल्कि गांव और क्षेत्र का कल्याण होता हैं। रामचंद्र भगत के मुताबिक इससे सांप को कोई नुकसान नहीं होता है। यह तो भगवान और भक्त का एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना है।


रामचंद्र का दावा है कि जो भी व्यक्ति यहां अपनी मुराद मांगते हैं उसकी सभी मुरादें पूरी हो जाती हैं। वे कहते हैं इसे कई लोग सांपों के प्रदर्शन की बात कहते हैं परंतु यह गलत है। यहां कोई प्रदर्शन नहीं होता बल्कि पूजा होती है। ये अलग बात है कि दूर-दूर से लोग इस पूजा को देखने के लिए यहां एकत्र होते हैं।

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नाग पंचमी कल, इस तरह करें नाग देवता को प्रसन्न

नाग पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन माह की शुक्ल पक्ष के पंचमी को नाग पंचमी के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 11 अगस्त दिन रविवार को मनाया जायेगा| यह श्रद्धा व विश्वास का पर्व है| इस दिन भगवान भोलेनाथ के साथ साथ उनके गले के श्रृंगार नागदेवता की भी पूजा होती है| उत्तर भारत में नाग पंचमी के दिन मनसा देवी की पूजा करने का भी विधान है| देवी मनसा को नागों की देवी माना गया है, इसलिये बंगाल, उडिसा और अन्य क्षेत्रों में मनसा देवी के दर्शन व उपासना का कार्य किया जाता है|

नाग पंचमी की विशेषता-

हिंदी धर्म शास्त्रों के अनुसार पंचमी तिथि के स्वामी नाग देवता है| श्रावण मास में नाग पंचमी होने के कारण इस मास में धरती खोदने का कार्य नहीं किया जाता है| श्रावण मास के विषय मे यह मान्यता है कि इस माह में भूमि में हल नहीं चलाना चाहिए, नीवं नहीं खोदनी चाहिए| इस अवधि में भूमि के अंदर नाग देवता का विश्राम कर रहे होते है| भूमि के खोदने से नाग देव को कष्ट होने की संभावना रहती है|

नाग पंचमी की पूजन विधि-

नाग पंचमी के दिन प्रातःकाल उठकर घर की सफाई कर नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएँ। उसके बाद स्नान कर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजन के लिए सेंवई-चावल आदि ताजा भोजन बनाएँ। कुछ भागों में नागपंचमी से एक दिन भोजन बना कर रख लिया जाता है और नागपंचमी के दिन बासी खाना खाया जाता है।

इसके बाद दीवाल पर गेरू पोतकर पूजन का स्थान बनाया जाता है। फिर कच्चे दूध में कोयला घिसकर उससे गेरू पुती दीवाल पर घर जैसा बनाते हैं और उसमें अनेक नागदेवों की आकृति बनाते हैं। कुछ जगहों पर सोने, चांदी, काठ व मिट्टी की कलम तथा हल्दी व चंदन की स्याही से अथवा गोबर से घर के मुख्य दरवाजे के दोनों बगलों में पाँच फन वाले नागदेव अंकित कर पूजते हैं।

सर्वप्रथम नागों की बांबी में एक कटोरी दूध चढ़ा आते हैं। और फिर दीवाल पर बनाए गए नागदेवता की दूध, दूब, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, जल, कच्चा दूध, रोली और चावल आदि से पूजन कर सेंवई व मिष्ठान से उनका भोग लगाते हैं।फिर कथा सुनकर आरती करते हैं|

नागदेवता की नाग स्त्रोत या निम्न मंत्र का जाप करें-

" ऊँ कुरुकुल्ये हुँ फट स्वाहा"

इस मंत्र की तीन माला जप करने से नाग देवता प्रसन्न होते हैं| नाग देवता को चंदन की सुगंध विशेष प्रिय होती है| इसलिये पूजा में चंदन का प्रयोग करना चाहिए| इस दिन की पूजा में सफेद कमल का प्रयोग किया जाता है| उपरोक्त मंत्र का जाप करने से "कालसर्प योग' के अशुभ प्रभाव में कमी आती है| 

नागपंचमी की कथा-

एक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में एक सेठजी के सात पुत्र थे। सातों के विवाह हो चुके थे। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की विदूषी और सुशील थी, परंतु उसके भाई नहीं था। एक दिन बड़ी बहू ने घर लीपने को पीली मिट्टी लाने के लिए सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी डलिया और खुरपी लेकर मिट्टी खोदने लगी। तभी वहां एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने उसे रोकते हुए कहा- 'मत मारो इसे? इस बेचारे का क्या अपराध है' यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा तब सर्प एक ओर जा बैठा। इसपर छोटी बहू ने उससे कहा-'हम अभी लौट कर आते हैं तुम यहां से जाना मत। यह कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और वहाँ कामकाज में फँसकर सर्प से जो वादा किया था उसे भूल गई।

उसे दूसरे दिन वह बात याद आई तो सब को साथ लेकर वहाँ पहुँची और सर्प को उस स्थान पर बैठा देखकर बोली- सर्प भैया नमस्कार! सर्प ने कहा- 'तू भैया कह चुकी है, इसलिए तुझे छोड़ देता हूं, नहीं तो झूठी बात कहने के कारण तुझे अभी डस लेता। वह बोली- भैया मुझसे भूल हो गई, उसकी क्षमा माँगती हूं, तब सर्प बोला- अच्छा, तू आज से मेरी बहन हुई और मैं तेरा भाई हुआ। तुझे जो मांगना हो, माँग ले। वह बोली- भैया! मेरा कोई नहीं है, अच्छा हुआ जो तू मेरा भाई बन गया।

कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सर्प मनुष्य का रूप रखकर उसके घर आया और बोला कि 'मेरी बहन को भेज दो।' सबने कहा कि 'इसके तो कोई भाई नहीं था, तो वह बोला- मैं दूर के रिश्ते में इसका भाई हूँ, बचपन में ही बाहर चला गया था। उसके विश्वास दिलाने पर घर के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि 'मैं वहीं सर्प हूँ, इसलिए तू डरना नहीं और जहां चलने में कठिनाई हो वहां मेरी पूछ पकड़ लेना। उसने कहे अनुसार ही किया और इस प्रकार वह उसके घर पहुंच गई। वहाँ के धन-ऐश्वर्य को देखकर वह चकित हो गई।

एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा- 'मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ, तू अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे यह बात ध्यान न रही और उससे गर्म दूध पिला दिया, जिसमें उसका मुख बुरी तरह जल गया। यह देखकर सर्प की माता बहुत क्रोधित हुई। परंतु सर्प के समझाने पर चुप हो गई। तब सर्प ने कहा कि बहन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे बहुत सा सोना, चाँदी, जवाहरात, वस्त्र-आभूषण आदि देकर उसके घर पहुँचा दिया।

इतना ढेर सारा धन देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या से कहा- भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे तो उससे और भी धन लाना चाहिए। सर्प ने यह वचन सुना तो सब वस्तुएँ सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू ने कहा- 'इन्हें झाड़ने की झाड़ू भी सोने की होनी चाहिए'। तब सर्प ने झाडू भी सोने की लाकर रख दी।

सर्प ने छोटी बहू को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया था। उसकी प्रशंसा उस देश की रानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि- सेठ की छोटी बहू का हार यहाँ आना चाहिए।' राजा ने मंत्री को हुक्म दिया कि उससे वह हार लेकर शीघ्र उपस्थित हो मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि 'महारानी जी छोटी बहू का हार पहनेंगी, वह उससे लेकर मुझे दे दो'। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार मंगाकर दे दिया।

छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने सर्प भाई को याद किया और आने पर प्रार्थना की- भैया ! रानी ने हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जब वह हार उसके गले में रहे, तब तक के लिए सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सर्प बन गया। यह देखकर रानी चीख पड़ी और रोने लगी।

यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठ जी डर गए कि राजा न जाने क्या करेगा? वे स्वयं छोटी बहू को साथ लेकर उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से पूछा- तुने क्या जादू किया है, मैं तुझे दण्ड दूंगा। छोटी बहू बोली- राजन! क्षमा कीजिए, यह हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और दूसरे के गले में सर्प बन जाता है। यह सुनकर राजा ने वह सर्प बना हार उसे देकर कहा- अभी पहनकर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना वैसे ही हीरों-मणियों का हो गया।

यह देखकर राजा को उसकी बात का विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार में दीं। छोटी बहू अपने हार सहित घर लौट आई। उसके धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या के कारण उसके पति को सिखाया कि छोटी बहू के पास कहीं से धन आया है। यह सुनकर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- ठीक-ठीक बता कि यह धन तुझे कौन देता है? तब वह सर्प को याद करने लगी। तब उसी समय सर्प ने प्रकट होकर कहा- यदि मेरी बहन के आचरण पर संदेह प्रकट करेगा तो मैं उसे डस लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। उसी दिन से नागपंचमी का त्यौहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं।

वहीँ, एक अन्य कथा के अनुसार, किसी नगर में एक किसान अपने परिवार सहित रहता था। उसके तीन बच्चे थे-दो लड़के और एक लड़की। एक दिन जब वह हल चला रहा था तो उसके हल के फल में बिंधकर सांप के तीन बच्चे मर गए। बच्चों के मर जाने पर मां नागिन विलाप करने लगी और फिर उसने अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का प्रण किया। एक रात्रि को जब किसान अपने बच्चों के साथ सो रहा था तो नागिन ने किसान, उसकी पत्नी और उसके दोनों पुत्रों को डस लिया। दूसरे दिन जब नागिन किसान की पुत्री की डसने आई तो उस कन्या ने डरकर नागिन के सामने दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी। उस दिन नागपंचमी थी। नागिन ने प्रसन्न होकर कन्या से वर मांगने को कहा। लड़की बोली-'मेरे माता-पिता और भाई जीवित हो जाएं और आज के दिन जो भी नागों की पूजा करे उसे नाग कभी न डसे। नागिन तथास्तु कहकर चली गई और किसान का परिवार जीवित हो गया। उस दिन से नागपंचमी को खेत में हल चलाना और साग काटना निषिद्ध हो गया।

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हिन्दू के लिए ‘देव’ और सपेरों की ‘रोजी-रोटी’ हैं नाग!

नागपंचमी में हिन्दू समाज जिस नाग को ‘देवता’ मान पूजा-अर्चना करता है, वह हिन्दू समाज के ही अनुसूचित वर्गीय सपेरा समुदाय की सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है। इनके मासूम बच्चे जहरीले सांपों के साथ खेल कर अपना सौख पूरा करते हैं और स्कूल जाने की जगह ‘पिटारी’ और ‘बीन’ बजाने के गुर सीखने को मजबूर हैं।

इस देश में हिन्दू समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो बेहद मुफलिसी का जीवन गुजार रहा है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड़ की सीमा से सटे इलाहाबाद जिले के शंकरगढ़ इलाके में आधा दर्जन गांवों में अनुसूचित वर्गीय सपेरा समाज के करीब साढ़े चार सौ परिवार आबाद हैं, इनका सुबह से शाम तक दैनिक कार्य जहरीले सांप पकड़ना और ‘बीन’ के इशारे पर नचा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना है। सपेरा समुदाय का आर्थिक ढांचा बेहद कमजोर होने वह अपने बच्चों को खिलैनों की जगह जहरीले सांप और स्कूली बस्ते के स्थान पर सांप पालने वाली ‘पिटारी’ और ‘बीन’ थमा देते हैं, ताकि आगे चल कर इस पुश्तैनी पेशे से जुड़े रहें।

शंकरगढ़ के सहने वाला सपेरा बाबा दिलनाथ बताता है कि ‘करीब आधा दर्जन गांवों में उनकी बिरादरी के साढ़े चार सौ परिवार पीढि़यों से आबाद हैं। सरकार ने सांप पकड़ने और उनके प्रदर्शन करने में रोंक तो लगा दी है, मगर रोटी का अन्य ‘सहारा’ नहीं दिया, जिससे चोरी छिपे सांप नचाना मजबूरी बना हुआ है।’ वह बताता है कि ‘सांप मांसाहारी जीव है, यह कभी दूध नहीं पीता, भगवान शिव का श्रंगार मान अधिकांश हिन्दू इसे देवता मानते हैं, लेकिन हमारे लिए यह सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है।

सपेरों का एक कुनबा बांदा जिले के अतर्रा कस्बे में नागपंचमी के त्योहार में बरसाती की पन्नी डाल कर डेरा जमाए है, इस कुनबे के 13 वर्षीय बालक चंद्रनाथ को ‘पिटारी’ और ‘बीन’ उसके पिता ने बिरासत में दिया है। वह कस्बे में घूम-घूम कर जहरीले सांपों का प्रदर्शन कर रहा है, उसने बताया कि ‘वह भी पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता है, लेकिन परिवार की माली हालत उसे पुश्तैनी पेश में खींच लायी है। यह संवाददाता शनिवार की सुबह जब सपेरों की इस झोपड़ी में गया तो वहां नजारा देख भौंचक्का रह गया। मासूम बच्चे शनि, बली और चंदू मिट्टी के खिलौनों से नहीं, बल्कि जहरीले सांप और विषखापर से खेल रहे थे। कुनबे में मौजूद महिला सोमवती ने बताया कि ‘मिट्टी के खिलौना खरीदने के लिए पैसे नहीं है, सो बच्चे इन्हीं सांपों से खेल कर अपना सौख पूरा कर लेते हैं।’

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