पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व है पितृपक्ष

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 20 सितम्बर से प्रारम्भ होंगे| आखिरी मातामह का श्राद्ध 4 अक्टूबर को होगा। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं| 

श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है|

शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|

पितृ पक्ष का महत्व-

देवताओ से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व होता है| वायु पुराण ,मत्स्य पुराण ,गरुण पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है| पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16 दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है| पूरे 16 दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है| पितृ श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है| भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान - दक्षिणा दी जाती है| 

श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति- 

आश्विन मास के कृ्ष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृ्त्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है| यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं| श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है|

श्राद्ध करते समय इन बातों का रखें विशेष ध्यान-

शास्त्रों में बताए गए विधि -विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए| श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।

1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे - गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।

2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

3 - सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है| 

4 - रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।

5 - आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

6 - केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।

7 - चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

जाने पुत्र के न होने पर कौन-कौन कर सकता है श्राद्ध-

हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए| यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता- पिता करते है। इसलिए हम आप को बताते है कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है| 

- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।

- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।

- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।

- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।

- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।

- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी है।

- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।

- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है।

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यहाँ पुरखों के मोक्ष के लिए 'कौआ भोज'

इसे अंधविश्वास माना जाए या फिर कुछ और कि आम दिनों में घर की खपरैल पर 'कौआ' की हाजिरी को बुंदेली अशुभ मान इन्हें 'हाड़ी' कह कर दुत्कारते हैं, पर पितृ पक्ष में एक पखवाड़ा इन्हीं कौओं से 'दाई-बाबा' का रिश्ता कायम कर पूर्वजों के श्राद्ध में 'कौआ भोज' आयोजित करते हैं। लोगों का मानना है कि पूर्वज कौआ का भी जन्म ले सकते हैं और 'कौआ भोज' से पुरखों को मोक्ष की प्राप्ति होगी। 

वैसे बुंदेलखंड में कई ऐसी पुरानी परम्पराएं आज भी चल रही हैं, जो अंधविश्वास की ओर इशारा करती हैं। अब आप पितृपक्ष में पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को ही ले लीजिए। आम दिनों में घर की चौखट या खपरैल पर कौआ के बैठने को यहां के वाशिंदे अशुभ मानते हैं और उसे 'हाड़ी' कह कर दुत्कार कर भगा देते हैं, लेकिन एक पखवाड़ा चलने वाले पितृपक्ष में इन्हीं कौवों से 'दाई-बाबा' (दादा-दादी) का रिश्ता कायम कर उनकी खातिरी में 'कौआ भोज' तक आयोजित करते चले आ रहे हैं। 

बुजुर्ग लोगों का मानना है कि पूर्वज कौआ का भी जन्म ले सकते हैं, कौवों को भोजन कराने से पुरखों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जल्दी ही उनका मानव के रूप में जन्म भी हो जाता है। खास बात यह है कि श्राद्ध की पूर्वसंध्या पर घर की बुजुर्ग महिला अपने आंगन से ऊंची आवाज लगाकर 'दाई-बाबा' को भोज में शामिल होने का आमंत्रण देती हैं और वही महिला श्राद्ध की सुबह कई प्रकार के पकवान बनाकर घर की खपरैल पर रख देती हैं, जिसे झुंड में पहुंचे कौआ खाते हैं। 

यहां यह बताना जरूरी है कि बुंदेलखंड में गंगापारी कम और सामान्य प्रजाति के कौआ ज्यादा पाए जाते हैं, अगर श्राद्ध के दिन एक भी गंगापारी कौआ इस भोज में शामिल हो गया तो उस परिवार के सदस्य इसलिए बेहद खुश होते हैं कि उनका पूर्वज मोक्ष प्राप्त कर वापस आया है।

इस पुरानी परम्परा के बारे में बांदा जनपद के पनगरा गांव में कई सालों से पितृ पक्ष के क्रियाकर्म कराते आ रहे बुजुर्ग ब्राह्मण पंडित बद्री प्रसाद दीक्षित बताते हैं, "किसी भी धर्मग्रंथ में पूर्वजों के श्राद्ध में कौआ भोज कराने का उल्लेख नहीं है, पर 84 लाख योनि में कौआ भी आता है। कर्मो के आधार पर अगला जन्म होना बताया जाता है, हो सकता है कि किसी का पूर्वज कौआ योनि में जन्म ले लिया हो।" वह बताते हैं कि श्राद्ध के दिन पुण्यदान और भोज कराने की परम्परा चली आ रही है, इसलिए इस पक्षी को भी आमंत्रित किया जाता है। 

इसी गांव की पिछड़े वर्ग की बुजुर्ग महिला सहदेइया (78) बताती हैं कि वह अपने पूर्वजों के श्राद्ध में कई साल से कौवों को भोज में आमंत्रित करती आई है, यह परम्परा कब और कैसे शुरू हुई उसे नहीं मालूम। लेकिन शिक्षित वर्ग इस परम्परा को बकवास और अंधविश्वास मानता है।

इसी गांव के बलराम दीक्षित का कहना है, "गैर शिक्षित समाज में बेमतलब की परम्पराएं थोपी गई हैं, जिनका कुछ भी सामाजिक आशय नहीं है। मरणोपरांत किसका जन्म कहां और किस रूप में हुआ, किसी को पता नहीं है।" यह भले ही अंधविश्वास से जुड़ी परम्परा हो, लेकिन बुंदेलखंड में पूर्वजों का श्राद्ध करने वाला शिक्षित और गैर शिक्षित दोनों वर्ग इस अनूठे भोज का आयोजन करवाता है।

श्राद्ध है पितृऋण से मुक्ति का द्वार

हिन्दू धर्म और वैदिक मान्यताओं के अनुसार अश्विन के श्राद्ध पक्ष के रूप में पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवनकाल में जीवित माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी बरसी तथा महालया (पितृपक्ष) में उनका विधिवत श्राद्ध करे। 

आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अश्विन की अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। तमिलनाडु में इसे आदि अमावसाई, केरल में करिकड़ा वावुबली और महाराष्ट्र में पितृ पंधरवड़ा नाम से जाना जाता है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है। इस वर्ष 20 सितम्बर से पितृपक्ष प्रारम्भ हो रहा है। 

मान्यता है कि जो लोग अपने शरीर को छोड़कर चले जाते है, वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, श्राद्ध पक्ष में वे पृथ्वी पर आते हैं और उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध होता है।

हिन्दु मान्यताओं के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है। ऐसे तो देश के कई स्थानों पर पिंडदान किया जाता है लेकिन बिहार के गया में पिंडदान का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्गवास करते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है।

किंवदंतियों के अनुसार भस्मासुर के वंशज गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं। इस वरदान के मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्राकृतिक नियम के विपरीत होने लगा। लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे। 

इससे बचने के लिए देवताओं ने गयासुर से यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया बनी। परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे। जो भी लोग यहां पर किसी के तर्पण की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने के लिए पिंडदान के लिए गया आते हैं।

विद्वानों के मुताबिक किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक के निमित अर्पित किए जाने वाले पदार्थ की बनाई गई गोलाकृति पिंड होती है। इसे जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाया जाता है।

श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेउ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन कराया जाता है।

पंडों के मुताबिक शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों के श्रेणी में आते हैं। 

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं, जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। वैसे कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्ष्यवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख हैं। 

उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरूक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर, बद्रीनाथ सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन गया का स्थान इनमें सवरेपरी कहा गया है। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर रखा जाने वाला एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाता है।

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अक्षयवट में पिंडदान करने से ही पूरा होता है श्राद्ध

मनुष्य के जीवन में ही नहीं मृत्यु के बाद भी प्रकृति प्रदत वस्तुओं का अलग महत्व है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पीपल, वट, तुलसी सहित कई अन्य वृक्षों की पूजा की जाती है तथा इनमें देवताओं का निवास भी बताया जाता है। गया का अक्षयवट भी एक ऐसी वेदी है, जहां पिंडदान किए बिना श्राद्ध पूरा नहीं होता। 

पितरों (पूर्वजों) की आत्मा की शांति तथा उनके उद्धार (मुक्ति) के लिए किए जाने वाले पिंडदान के लिए बिहार के गया को विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थल माना गया है। आत्मा, प्रेतात्मा तथा परमात्मा में विश्वास रखने वाले लोग अश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से पूरे पितृपक्ष की समाप्ति तक गया में आकर पिंडदान करते हैं। 

पितृपक्ष के अंतिम दिन या यूं कहा जाए कि गया के माड़नपुर स्थित अक्षयवट स्थित पिंडवेदी पर श्राद्धकर्म कर पंडित द्वारा दिए गए 'सुफल' के बाद ही श्राद्धकर्म को पूर्ण या सफल माना जाता है। 

यह परम्परा त्रेता युग से ही चली आ रही है। श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की नगरी गया से थोड़ी दूर स्थित माढ़नपुर स्थित अक्षयवट के बारे में कहा जाता है कि इसे खुद भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर रोपा था। इसके बाद मां सीता के आशीर्वाद से अक्षयवट की महिमा विख्यात हो गई। 

गया के प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर और ब्रह्मयोनि पर्व के साथ-साथ शक्तिपीठ महामाया मंगला गौरी, माहेश्वर मंदिर, मधुकुल्या तीर्थवेदी प्रमुख हैं। प्रसिद्ध पंडा राजगोपाल कहते हैं कि प्राचीन में गया के पंचकोश में 365 वेदियां थीं, परंतु कालांतर में इनकी संख्या कम होती गई और आज यहां 45 वेदियां हैं जहां पिंडदान किया जाता है। 

मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्री राम, लक्ष्मण और सीता के साथ गया में श्राद्धकर्म के लिए आए थे। इसके बाद राम और लक्ष्मण सामान लेने चले गए। इतने में राजा दशरथ प्रकट हो गए और सीता को ही पिंडदान करने के लिए कहकर मोक्ष दिलाने का निर्देश दिया। माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। 

जब भगवान राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ। तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली। 

क्रुद्ध सीता ने तभी फल्गु को बिना पानी की नदी (अंत:सलिला), गाय के गोबर को शुद्ध तथा केतकी फूल को शुभकार्यो से वंचित होने का श्राप दे दिया। अक्षयवट को अक्षय रहने का आर्शीवाद दे दिया। 

एक पंडे ने बताया कि धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक अक्षयवट के निकट भोजन करने का भी अपना अलग महत्व है। अक्षयवट के पास पूर्वजों को दिए गए भोजन का फल कभी समाप्त नहीं होता। वे कहते हैं कि पूरे विश्व में गया ही एक ऐसा स्थान है, जहां सात गोत्रों में 121 पीढ़ियों का पिंडदान और तर्पण होता है। 

यहां पिंडदान में माता, पिता, पितामह, प्रपितामह, प्रमाता, वृद्ध प्रमाता, प्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्ध प्रमातामही, पिताकुल, माताकुल, श्वसुर कुल, गुरुकुल, सेवक के नाम से किया जाता है। गया श्राद्ध का जिक्र कर्म पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण, वाल्मीकि रामायण, भागवत पुराण, महाभारत सहित कई धर्मग्रंथों में मिलता है।

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पितरों की मुक्ति के लिए प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान जरुरी

पितृपक्ष के प्रारम्भ होते ही पिंडदान के लिए उत्तम माने जाने वाले बिहार के गया में लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति व मुक्ति के लिए पिंडदान करने आने लगते हैं। वे पिंडदान के लिए विश्व प्रसिद्ध गया में प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान करना नहीं भूलते। 

आत्मा और प्रेतात्मा में विश्वास रखने वाले लोग आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से पूरे पितृपक्ष की समाप्ति तक गया में आकर पिंडदान करते हैं। मान्यता है कि प्रेतशिला में पिंडदान के बाद ही पितरों को प्रेतात्मा योनि से मुक्ति मिलती है। 

गया में पुराने समय में 365 वेदियां थी जहां लोग पिंडदान किया करते थे लेकिन वर्तमान समय में यहां 45 वेदियां हैं जहां लोग पिंडदान कर अपने पुरखों का श्राद्ध करते हैं। इन्हीं 45 वेदियों में से एक है प्रेतशिला वेदी। 

मान्यता है कि जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें दोबारा जन्म नहीं मिला, ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में लिप्त आत्माओं के लिए अंतिम बार उनकी मृत्यु के एक वर्ष पश्चात गया में मुक्ति तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता है। 

गया शहर से लगभग चार किलोमीटर दूर प्रेतशिला तक पहुंचने के लिए 873 फीट ऊंचे प्रेतशिला पहाड़ी के शिखर तक जाना पड़ता है। ऐसे तो सभी श्रद्धालु पिंडदान करने यहां पहुंचते हैं लेकिन शारीरिक रूप से कमजोर लोगों के लिए इतनी ऊंचाई पर वेदी के होने के कारण वहां तक पहुंचना मुश्किल होता है। वेदी तक पहुंचने के लिए यहां पालकी की व्यवस्था भी है जिस पर सवार होकर शारीरिक रूप से कमजोर लोग यहां तक पहुंचते हैं। 

पंडा पूर्णेश्वर ने बताया कि प्रेतशिला वेदी के पास विष्णु भगवान के चरणों के निशान हैं और इस वेदी के पास पत्थरों में दरार है। मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। उन्होंने बताया कि सभी वेदियों पर तिल, गुड़, जौ आदि से पिंड दिया जाता है लेकिन यहां तिल मिश्रित सत्तु से पिंडदान होता है। उन्होंने बताया कि मृत्यु के बाद प्रेतयोनि में प्रवेश कर अपने ही घर में लोगों को तंग करने वाले पूर्वजों के यहां पिंडदान से उन्हें शांति मिल जाती है और वे मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। 

उन्होंने बताया कि पहले प्रेतशिला का नाम प्रेतपर्वत हुआ करता था लेकिन भगवान राम के यहां आकर पिंडदान करने के बाद इस स्थान का नाम प्रेतशिला हुआ। प्रेतशिला में पिंडदान के पूर्व ब्रह्म कुंड में स्नान-तर्पण करना होता है। गया में पिंडदान करने आए गोरखपुर के अश्विनी शुक्ल कहते हैं कि अगर हमारे पिंडदान से सभी पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है तो यह सभी का कर्तव्य है कि वे यहां आकर अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए पिंडदान करें। उन्होंने कहा कि मरने के बाद कौन कहां जाता है यह गूढ़ रहस्य है, लेकिन पिंडदान आवश्यक है और वह उसका पालन करने यहां आए हैं।

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यहाँ पुरखों के मोक्ष के लिए होता है 'मत्स्य भोज'

इलाका एक, परम्पराएं अलग-अलग। यह आलम है बुंदेलखंड का। पितृपक्ष में एक इलाके के लोग पुरखों के मोक्ष के लिए 'कौआ भोज' करते हैं तो वहीं एक इलाका ऐसा भी है, जहां के लोग बेतवा नदी में 'मत्स्य भोज' आयोजित कर अपने पुरखों के मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं। यहां लोक मान्यता है कि पुरखे 'मत्स्यावतार' में आकर दर्शन देते हैं और मछलियों को आटे की पिंडी दान करने से उनका 'मानवावतार' होगा। ककरीले-पथरीले बुंदेलखंड में कई पुरानी परम्पराएं ऐसी हैं जो अंधविश्वास की ओर इशारा करती हैं। यहां के रीति-रिवाज भी जुदा हैं। अब आप पितृपक्ष को ही ले लीजिए, धर्मनगरी चित्रकूट के आस-पास के बांदा और महोबा व हमीरपुर में पुरखों के मोक्ष के लिए श्राद्ध के दिन 'कौआ भोज' आयोजित करने की सदियों पुरानी परम्परा चली आ रही है तो जालौन जिले के उरई इलाके में लोग श्राद्ध के दिन परासन गांव के बेतवा नदी के घाट पर तड़के पहुंचकर 'मत्स्य भोज' कराते हैं। 

इस इलाके में लोक मान्यता है कि पूर्वज यहां 'मत्स्यावतार' में आकर दर्शन देते हैं और नदी की भारी भरकम मछलियों को पानी में गुंथे आटे की पिंडी दान करने से पुरखे 'मत्स्यावतार' से मुक्त होकर 'मानवावतार' में शीघ्र जन्म लेते हैं।

परासन गांव को महाभारत कालीन महर्षि पाराशर का जन्म स्थान माना जा रहा है। यह गांव बुंदेलखंड के जालौन जनपद के उपजिला उरई में आटा रेलवे स्टेशन की कुछ दूरी पर बेतवा नदी के किनारे बसा हुआ है। यहां आस-पास के दर्जनभर गांवों के लोग एक पखवाड़े तक चलने वाले पितृपक्ष में रोजाना अपने पूर्वजों के श्राद्ध के दिन तड़के पहुंचकर जलतर्पण के बाद मछलियों को गुंथा आटा खिलाते हैं। इलाकाई लोगों का मानना है कि पुरखे यहां पखवाड़ा भर 'मत्स्यावतार' में हाजिर में होकर अपने वंश को दर्शन देते हैं। 

इस गांव के रहने वाले पंडित किशनलाल बताते हैं, "इस क्षेत्र की यह बहुत पुरानी परम्परा है। तड़के से ही बेतवा नदी के घाट पर जलतर्पण के बाद पूर्वजों के मोक्ष के लिए 'मत्स्य भोज' कराने की होड़ लग जाती है। लोग अपने साथ घरों से सूखा आटा लेकर आते हैं और नदी के पानी में गूंथ पिंडी बनाकर मछलियों को खिलाते हैं।"

वह कहते हैं कि इस परम्परा की शुरुआत के बारे में कोई अभिलेखीय साक्ष्य मौजूद नहीं है, पर लोक मान्यता है कि पुरखे यहां पितृपक्ष में 'मत्स्यावतार' में आते हैं और अपने वंश को दर्शन और आशीर्वाद देते हैं। बकौल किशनलाल, "मत्स्य भोज कराने से पूर्वज मत्स्यावतार से मुक्त होकर मानवावतार में शीघ्र जन्म लेने की मान्यता प्रचलित है।" इसी गांव के पूर्व जिला पंचायत सदस्य करन सिंह बताते हैं कि लोक मान्यता कुछ भी हो, पर पितृपक्ष में इस घाट में हजारों की तादाद में भारी भरकम मछलियां मौजूद रहती हैं और उनका शिकार करने पर प्रतिबंध लगा रहता है, जबकि सालभर एक भी मछली नहीं दिखाई देती।

उरई से समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक दयाशंकर वर्मा कहते हैं, "यह अंधविश्वास से जुड़ी आस्था है, आस्था ही परम्परा में बदल जाती है जिसके सामाजिक रूप को दरकिनार नहीं किया जा सकता।" कुल मिलाकर पितृपक्ष में कहीं 'कौआ भोज' तो कहीं 'मत्स्य भोज' आयोजित कर बुंदेली अपने पुरखों को मोक्ष दिलाने की कामना करते हैं, जबकि तल्ख सच्चाई यह है कि कई परिवारों में तमाम जीवित बुजुर्ग दो वक्त की रोटी को तरस रहे हैं, उन्हें उनके बेटे एक बूंद पानी तक देने को तैयार नहीं हैं।

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श्राद्ध के लिए सर्वोत्तम स्थान है गया

वैदिक परंपरा और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना एक महान और उत्कृष्ट कार्य है। मान्यता के मुताबिक पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवन काल में जीवित माता-पिता की सेवा करें और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्यु तिथि (बरसी) तथा महालय (पितृपक्ष) में उसका विधिवत श्राद्ध करें। 

अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने की अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। इस वर्ष 20 सितंबर से पितृपक्ष प्रारंभ हो रहा है। मान्यता के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है। 

ऐसे तो देश के हरिद्वार, गंगासागर, कुरूक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर सहित कई स्थानों में भगवान पितरों को श्रद्धापूर्वक किए गए श्राद्ध से मोक्ष प्रदान कर देते हैं, लेकिन गया में किए गए श्राद्ध की महिमा का गुणगान तो भगवान राम ने भी किया है। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था। 

आचार्यो के मुताबिक जनमानस में यह आम धारणा है कि एक परिवार से कोई एक ही 'गया' करता है। गया करने का मतलब है कि गया में पितरों को श्राद्ध करना, पिंडदान करना। गरूड़ पुराण में लिखा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनते जाते हैं। 'गृहाच्चलितमात्रस्य गयायां गमनं प्रति। स्वर्गारोहणसोपानं पितृणां तु पदे-पदे।'

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग चले जाते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है। 

गया के पंडा रामानंद कहते हैं कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता। पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है। ऐसे तो प्रतिपदा से पिंडदान किया जाता है परंतु पूर्णिमा से भी कई लोग पिंडदान करने लगते हैं। 

पौराणिक मान्यताओं और किवंदंतियों के अनुसार भस्मासुर के वंश में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं। इस वरदान के मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और प्राकृतिक नियम के विपरीत सब कुछ होने लगा। लेाग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे। 

इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से मांगी। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं के यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। 

यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया बनी परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने (मुक्ति) वाला बना रहे। जो भी लोग यहां पर किसी का तर्पण करने की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने के लिए पिंडदान के लिए गया आते हैं। 

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थी जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। पिंडदान के लिए प्रतिवर्ष गया में देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं।

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पर्यटकों को लुभा रहा आपदा से अछूता नैनीताल

देश का प्रमुख पर्वतीय पर्यटन स्थल नैनीताल उत्तराखंड में आई बीती आपदा से भले ही सीधे-सीधे प्रभावित न हुआ हो, लेकिन यहां का पर्यटन कारोबार जरूर इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सर्दियों से ठीक पहले इस मनोरम स्थल की खूबसूरती ने हालांकि मेहमानों की मेजबानी के लिए एकबार फिर खुद को संवार लिया है। यहां का एकमात्र चार सितारा होटल सुविधायुक्त शेरवानी हिलटॉप ने पर्यटकों के स्वागत के लिए खुद को निखार लिया है। 

शहर की आपा-धापी भरी दिनचर्या से अलग अचानक नैनीताल जाने का हाल ही में संयोग मिला। नैनीताल पहुंचने के लिए निकटतम हवाईअड्डा यहां से दो घंटे के सड़कमार्ग की दूरी पर पंतनगर में तथा निकटतम रेलमार्ग यहां से लगभग एक घंटे की दूरी पर काठगोदाम रेलवे स्टेशन है।

काठगोदाम उतरकर जैसे ही हमारी कार नैनीताल की पहाड़ियां चढ़ने लगी, मानों हर पहाड़ी, एक-एक र्दे, हरे-भरे पेड़ों से लदी-फदी चोटियां हमें अपनी वादियों में न्यौता दे रही हों। बारिश होकर निकली ही थी, और एक-एक पत्ते ऐसे चटकिले हरे कि मानों उन्होंने अपनी अंजुरी में पानी भर रखा हो और बस अभी उलीच देंगी हमारे ऊपर, और हम भी उनकी तरह ही हरीतिमा युक्त हो जाएंगे।

नैनीताल पहुंचकर हम सीधे होटल शेरवानी हिलटॉप गए। नैनीताल का एकमात्र चार सितारा सुविधाओं वाला यह रिसॉर्ट अपने अप्रतिम लोकेशन के लिहाज से छुट्टियां मनाने का एक परफेक्ट प्लेस है। चूंकि पर्वतीय पर्यटन स्थल क्षेत्रफल के लिहाज से बहुत बड़े नहीं होते और पर्यटकों का हुजूम इन्हें भीड़ से भर देता है, ऐसे में नैनीताल की प्रमुख आकर्षण नैनी झील और उसके किनारे माल रोड बाजार के शोरगुल से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस रेसॉर्ट में रुकना प्रकृति से एकाकार होने जैसा है।

छह श्रेणियों में 47 सुइट्स वाला यह रिसॉर्ट नैनीताल का एकमात्र ऐसा रेसॉर्ट है, जिसमें बहुत करीने से हिमालय की वादियों के साथ-साथ सुदूर देशों के खूबसूरत फूलों एवं पौधों से युक्त एक बागीचा भी विकसित किया गया है। इस बागीचे से आप वादियों में पतंग उड़ाने का शौक भी पूरा कर सकते हैं। शेरवानी हिलटॉप रिसॉर्ट में डिलक्स, प्रीमियम, सुइट, हिल व्यू, गार्डेन व्यू और प्रेसिडेंशियल सुइट श्रेणी में कमरे उपलब्ध हैं।

शेरवानी हिलटॉप न सिर्फ सुकून से इस पर्वतीय पर्यटक स्थल की खूबसूरती निहारने के लिए बेजोड़ है, बल्कि रिसॉर्ट अपने मेहमानों को मनोरंजन एवं पर्यटन की अनेक सुविधाएं भी मुहैया कराता है, जैसे नेचर वॉक, विभिन्न आउटडोर रोमांचक स्पोर्ट्स के साथ-साथ बच्चों एवं बड़ों के लिए अलग-अलग इनडोर गेम्स।

नैनीताल के आस-पास वैसे तो घूमने लायक अनेक रमणीय स्थल हैं, लेकिन नैनी झील के किनारे बोटहाउस क्लब से झील और उसमें हौले-हौले डोलती डोंगियों का नजारा ही अद्भुत है। सांझ ढलने से कुछ पहले से लेकर सांझ ढलने तक झील में झांकती अगल-बगल की पहाड़ियां और उसके पीछे दूर तक आसमां..।

होटल एंड रेस्तरां एसोसिएशन ऑफ नॉर्दर्न इंडिया के अध्यक्ष एवं शेरवानी हिलटॉप के मालिक सईद शेरवानी ने बताया, "बाढ़ के कारण उत्तराखंड में बीती गर्मियां त्रासद रहीं। दुर्भाग्य से मीडिया में आई आपदा की खबरों के कारण उत्तराखंड के ऐसे पर्यटक स्थलों का कारोबार भी प्रभावित हुआ जहां आपदा आई ही नहीं।"

शेरवानी हिलटॉप नैनीताल के प्रबंध निदेशक (होटल) गोपाल सुयल ने बताया कि नैनीताल होटल एंड रेस्तरां एसोसिएशन के अनुसार आपदा के कारण भयभीत होकर पर्यटकों के न आने और पहले से कराई गई बुकिंग रद्द करवा लेने के कारण इस वर्ष अब तक नैनीताल होटल उद्योग को 32 करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है। सईद शेरवानी ने कहा कि ऐसे में पर्यटकों को फिर से प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है।

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कमजोर पड़ रही शेरशाह के मकबरे की नींव

बिहार की पहचान इसके गौरवशाली इतिहास और ऐतिहासिक धरोहरों से है, मगर देखरेख के अभाव में कई धरोहरें अपना वजूद खोने लगी हैं। ऐसी ही एक धरोहर है रोहतास जिले के सासाराम स्थित शेरशाह सूरी का मकबरा जिसकी नींव अंदर से कटती जा रही है, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।

अफगानी स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना शेरशाह का मकबरा अपनी सुरुचिपूर्ण सौम्यता के लिए प्रसिद्ध है। अपने छोटे से शासनकाल (वर्ष 1540-1545 ईस्वी) को इतिहास के एक अहम कालखंड के रूप में स्थापित करने वाले शेरशाह सूरी को समूचे भारतीय मध्ययुग के सबसे महत्वपूर्ण शासकों में गिना जाता है।

कोलकाता से पेशावर तक ग्रैंट ट्रंक (जीटी) रोड बनवाने और भारतीय रुपये के प्रथम संस्करण 'रुपया' का चलन प्रारंभ करने, एक व्यवस्थित डाक व्यवस्था प्रारंभ करने के साथ-साथ कई ऐतिहासिक कार्य शुरू करने के लिए प्रख्यात शेरशाह सूरी ने 15वीं सदी में सासाराम में एक तालाब के बीच मकबरा बनवाया था।

अफगान वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना होने के कारण संयुक्त राष्ट्र ने 1998 में इस मकबरे को विश्व धरोहरों की सूची में स्थान दिया। यह मकबरा 1130 फीट लंबे और 865 फीट चौड़े तालाब के मध्य में स्थित है। तालाब के मध्य में सैंड स्टोन के चबूतरे पर अष्टकोणीय मकबरा सैंडस्टोन तथा ईंट से बना है। इसका गोलाकार स्तूप 250 फीट चौड़ा तथा 150 फीट ऊंचा है। इसकी गुंबद की ऊंचाई ताजमहल से भी दस फीट अधिक है।

मकबरे में ऊंचाई पर बनी बड़ी-बड़ी खिड़कियां मकबरे को हवादार और रोशनीयुक्त बनाती हैं। खिड़कियों पर की गई बारीक नक्काशी बरबस पर्यटकों को उस समय की कारीगरी की दाद देने को मजबूर कर देती हैं। कहा जाता है कि इस मकबरे मंे शेरशाह की कब्र के अतिरिक्त 24 और कब्रें हैं, जो उनके परिवार के सदस्यों, मित्रों और अधिकारियों के हैं। सभी पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं।

मकबरे के अंदर पश्चिमी दीवार की मेहराब के ऊपर मकबरे का निर्माण कार्य शेरशाह के बेटे सलीम शाह द्वारा जुमदा के सातवें दिन हिजरी संवत 952 यानी 16 अगस्त 1945 ईस्वी को शेरशाह के देहांत के तीन महीने बाद पूरा किए जाने की बात खुदी है।

स्थानीय लोगों का मानना है कि इस ऐतिहासिक धरोहर का सही ढंग से रखरखाव नहीं होने के कारण इसकी कारीगरी कुछ स्थानों पर खराब होने लगी है। कहा जाता है कि वर्ष 1882 में अंग्रेजों ने मकबरे की मरम्मत तथा संरक्षण का काम किया था। आज भी समय-समय पर धरोहरों से प्रेम करने वाले लोग इसे संरक्षित करने का प्रयास करते हैं।

पुरातत्वविदों की मानें तो शहर की गंदगी और खेतों से बहकर आने वाला रसायन युक्त पानी तालाब में गिरने से मकबरे की नींव अंदर से कट रही है। रोहतास के श्रीशंकर महाविद्यालय के वनस्पति विभाग के विभागाध्यक्ष अवधेश कुमार कहते हैं कि तालाब को स्वच्छ रखने के लिए कारगर कदम उठाने की जरूरत है, तभी इस मकबरे को बचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि तालाब में गाद मिट्टी का भी जमाव हो रहा है। इस धरोहर के संरक्षण की जिम्मेदारी हालांकि भारतीय पुरातत्व विभाग को मिली हुई है।

सासाराम, रोहतास जिले का मुख्यालय है जो ग्रैंड ट्रंक रोड (राजमार्ग संख्या-2) पर बसा एक छोटा शहर है। यह राजधानी पटना से लगभग 160 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

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अपने देश में बेगाना: भारत-बांग्लादेश सीमा के निवासियों की व्यथा

भारत में पैदा हुए हजारों लोगों को सरकार भारतीय नागरिक स्वीकार नहीं करती और उन्हें बांग्लादेशी मानती है। क्योंकि इनके पास अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। ऐसे ही एक मामले में एक व्यक्ति पिछले एक वर्ष से अवैध रूप से बांग्लादेश में रहने को विवश है।

भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा समझौते से करीब 50,000 लोग ऐसे ही स्थिति का सामना कर रहे हैं। हजारों गरीब और अनपढ़ लोगों की तरह पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले में पैदा हुए रूहुल अमीन शेख (32) को अब भारतीय अधिकारियों के कारण बांग्लादेश में अवैध रूप से अपनी चाची के घर में रहना पड़ रहा है। भारतीय अधिकारियों ने उन्हें विदेशी ठहराकर देश से बाहर निकाल दिया।

अमीन की परेशानी तब शुरू हुई, जब उनकी सात वर्षीय बेटी ने दुर्गापूजा पर एक नई पोशाक की मांग की। इसके बाद शेख एक निर्माण क्षेत्र के एक मजदूर के तौर पर नई दिल्ली चले आए। एक अवैध बांग्लादेशी होने के आरोप में शेख को 26 बार 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में रखा गया। इसके बाद उन्हें देश से बाहर निकाल दिया गया।

एन्क्लेव में पैदा हुए अन्य लोगों की तरह अमीन के पास अपनी भारतीय पहचान को स्थापित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। वह शिक्षा, बिजली और अन्य मूल जरूरतों के अभाव में पले-बढ़े हैं। एन्क्लेव में रहने वालों की समस्याओं पर काम करने वाले एक स्वयंसेवी संगठन भारत-बांग्लादेश एन्क्लेव विनिमय समन्वय समिति (बीबीईईसीसी) ने कहा कि अमीन को दिल्ली से अगस्त के शुरू में लाया गया और अवैध रूप से पुलिस ने उन्हें भारत से बाहर निकाल दिया।

बीबीईईसीसी के समन्वयक दीप्तिमान सेनगुप्ता ने कहा, "अमीन को बांग्लादेश के उच्चायुक्त को सूचना दिए बगैर ही बांग्लादेश में धकेल दिया गया जो अवैध है। अमीन को 2011 की जनगणना में मोसलडंगा का निवासी बताया गया है। इसलिए वह आप्रवासी कैसे हो सकता है?" 

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तीन माह बाद भी अस्तव्यस्त है केदारनाथ

आपदा से आहत हुए प्रसिद्ध तीर्थस्थल केदारनाथ अभी भी संपर्क विहीन स्थिति में है। पहुंच मार्ग नहीं होने के साथ ही मलबों के नीचे अभी भी कई शव दबे हुए हैं और डरे हुए ग्रामीण शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। पलायन करने वालों में से कई ने 'देवभूमि' माने जाने वाले इस इलाके में दोबारा नहीं लौटने का मन बना लिया है।

केदारनाथ मंदिर के कपाट हालांकि बुधवार को खोल दिए गए और 15 से 17 जून को हुई भारी वर्ष एवं उससे आई बाढ़ के तांडव के बाद पहली बार वहां पूजा-अर्चना हुई। उत्तराखंड में आई इस प्राकृतिक आपदा में सैकड़ों लोग मारे गए। उत्तराखंड सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती आपदा में केदारनाथ और इसके आसपास के इलाके में बेघर हो गए लोगों को राहत पहुंचाना और उनका पुनर्वास कराना है।

स्थानीय विधायक शैल रानी रावत ने बताया, "केदार घाटी में मौसम का मिजाज अभी भी बिगड़ैल ही बना हुआ है और क्षेत्र में केवल हेलीकॉप्टर के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। वर्ष में यह सेवा भी प्रभावित होती है। सर्दियों में हालत और बुरी हो जाएगी।" उन्होंने कहा कि केदारनाथ मंदिर की सफाई हो चुकी है और पूजा के लिए तैयार है, लेकिन शेष इलाका अभी भी मलबे से ढका हुआ है।

रावत ने कहा, "बड़ी-बड़ी चट्टानें और भवनों के ध्वस्त ढांचे अभी तक वैसे ही पड़े हैं। इनको हटाने के लिए बड़ी मशीनों व अन्य उपकरणों की जरूरत होगी। चूंकि अभी तक सड़क संपर्क नहीं हो पाया है इसलिए मलबे को साफ करना कठिन है।"

इलाके में काम करने वाले कई एनजीओ का कहना है कि मंदिर के इर्दगिर्द सैकड़ों शव अभी भी मलबे के नीचे दबे हुए हैं। इलाके में काम कर रहे एक्शन एड नेटवर्क के समन्वयक दुर्गा प्रसाद के मुताबिक सितंबर के बाद जब बारिश रुक जाएगी तभी मारे गए लोगों की वास्तविक संख्या और प्रभावित हुए लोगों की सही जानकारी उपलब्ध हो सकेगी।

उन्होंने बताया कि अभी तक मानवीय श्रम से कुछ अस्थायी सड़कों का ही निर्माण हो पाया है ताकि मालवाहक वाहन क्षेत्र तक राहत सामग्री पहुंचा सकें। प्रसाद ने बताया, "ढेर सारी राहत सामग्री आ रही है, लेकिन प्रभावितों तक सभी नहीं पहुंच पा रही है। गांव तक पहुंचने का रास्ता नहीं होने के कारण ट्रक सामग्री को बीच में ही उतारकर लौटने के लिए मजबूर हैं।"

प्रसाद ने कहा, "अब तो कई लोगों ने राहत सामग्री लेने के लिए आना बंद कर दिया है, क्योंकि उन्हें 10 से 30 किलोमीटर खतरनाक पहाड़ी रास्तों और विपरीत मौसम को झेलते हुए आना पड़ता है। इसलिए हम वाहनों के जरिए उन तक राहत सामग्री पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं।"

आपदा से डर कर पलायन कर रहे लोग उत्तराखंड सरकार के सामने एक और बड़ी समस्या खड़ी कर रहे हैं। पहाड़ से लोग रोजी-रोटी की तलाश और भयमुक्त होने के लिए देहरादून, ऋषिकेश, नैनीताल एवं अन्य शहरों की तरफ रुख कर रहे हैं। केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने कहा, "मेरी याददाश्त में यह पहला मौका है जब पहाड़ लोगों को डरा रहे हैं और त्रासदी के बाद पर्वतीय क्षेत्र से मैदान की तरफ बड़े पैमाने पर लोग पलायन कर रहे हैं।" 

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विश्वकर्मा पूजा पर विशेष: दुनिया के इंजीनियर भगवान विश्वकर्मा

हिंदू धर्म में मानव विकास को धार्मिक व्यवस्था के रूप में जीवन से जोड़ने के लिए विभिन्न अवतारों का विधान मिलता है। इन्हीं अवतारों में से एक भगवान विश्वकर्मा को दुनिया का इंजीनियर माना गया है, अर्थात समूचे विश्व का ढांचा उन्होंने ही तैयार किया है। वे ही प्रथम आविष्कारक थे। हिंदू धर्मग्रंथों में यांत्रिक, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र विद्या, वैमानिकी विद्या आदि का जो प्रसंग मिलता है, इन सबके अधिष्ठाता विश्वकर्मा माने जाते हैं। इस बार विश्वकर्मा पूजा 17 सितम्बर दिन मंगलवार को पड़ रही है|

विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता रहा है। प्राचीन शास्त्रों में वैमानकीय विद्या, नवविद्या, यंत्र निर्माण विद्या आदि का उपदेश भगवान विश्वकर्मा ने दिया। माना जाता है कि प्राचीन समय में स्वर्ग लोक, लंका, द्वारिका और हस्तिनापुर जैसे नगरों के निर्माणकर्ता भी विश्वकर्मा ही थे।

माना जाता है कि विश्वकर्मा ने ही इंद्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पांडवपुरी, सुदामापुरी और शिवमंडलपुरी आदि का निर्माण किया। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा निर्मित हैं। कर्ण का कुंडल, विष्णु का सुदर्शन चक्र, शंकर का त्रिशूल और यमराज का कालदंड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है।

एक कथा के अनुसार यह मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण अर्थात् विष्णु भगवान क्षीर सागर में शेषशय्या पर आविर्भूत हुए। उनके नाभि-कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र 'धर्म' तथा धर्म के पुत्र 'वास्तुदेव' हुए।

कहा जाता है कि धर्म की 'वस्तु' नामक स्त्री से उत्पन्न 'वास्तु' सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की 'अंगिरसी' नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए थे। अपने पिता की भांति ही विश्वकर्मा भी आगे चलकर वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने। भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं। उन्हें कहीं पर दो बाहु, कहीं चार, कहीं पर दस बाहुओं तथा एक मुख और कहीं पर चार मुख व पंचमुखों के साथ भी दिखाया गया है। उनके पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ हैं।

यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार भी वैदिक काल में किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरूपों और अवतारों का वर्णन मिलता है :

विराट विश्वकर्मा : सृष्टि के रचयिता

धर्मवंशी विश्वकर्मा : शिल्प विज्ञान विधाता और प्रभात पुत्र

अंगिरावंशी विश्वकर्मा : आदि विज्ञान विधाता और वसु पुत्र

सुधन्वा विश्वकर्मा : विज्ञान के जन्मदाता (अथवी ऋषि के पौत्र)

भृंगुवंशी विश्वकर्मा : उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र)

विश्वकर्मा के विषय में कई भ्रांतियां हैं। बहुत से विद्वान विश्वकर्मा नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है। कुछ विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं, तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं।

ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं लिखी हुई हैं। यही सूक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सूक्त मंत्र 16 से 31 तक 16 मंत्रों में आया है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द इंद्र व सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं। स्कंद पुराण प्रभात खंड के इस श्लोक की भांति किंचित पाठभेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है :

बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।

प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।

विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापति: ।।16।।

महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। भारत में शिल्प संकायों, कारखानों और उद्योगों में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को भगवान विश्वकर्मा पूजनोत्सव का आयोजन किया जाता है।

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विश्व ओजोन दिवस विशेष: पूरे वर्ष ओजोन को याद रखना होगा

किसी व्यवस्था में छेद होने से पहले हमारे विचारों में छुद्रता आती है। और इस वैचारिक छुद्रता का अर्थ यह होता है कि कि हमारे पतन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। और इस पतन का ही परिणाम है कि आज राजनीति से लेकर समाज, अर्थव्यवस्था और हमारा पर्यावरण, सबकुछ छलनी हो चला है।

हमने ओजोन की उस छतरी में भी छेद कर डाला है, जो सूरज की खतरनाक किरणों से हमें अब तक बचाती रही है। चिंता की बात यह कि अब यह छेद सिर्फ छेद नहीं, हमारे अस्तित्व के लिए अंतहीन सुरंग बनने की ओर बढ़ चला है। नासा के औरा उपग्रह से प्राप्त आंकड़े के अनुसार ओजोन छिद्र का आकार 13 सितंबर, 2007 को अपने चरम पर पहुंच गया था, कोई 97 लाख वर्ग मील के बराबर। यह क्षेत्रफल उत्तरी अमेरिका के क्षेत्रफल से भी अधिक है। 12 सितंबर, 2008 को छेद का आकार और बढ़ गया। ओजोन परत अभी भी खतरनाक स्थिति में है।

वायुमंडल में मौजूद ओजोन की चादर लगातार झीनी हो रही है। सूरज से निकलने वाली खतरनाक पराबैंगनी किरणें हमारे अस्तित्व को छेद रही हैं। लेकिन इसके लिए कोई और नहीं, खुद हम, हमारी सोच और हमारी जीवनशैली जिम्मेदार है। आज हमें त्वचा कैंसर, त्वचा के बूढ़ा होने और आंखों की खतरनाक बीमारियों के खतरों से दो-चार होना पड़ रहा है।

ओजोन की छतरी में छेद के लिए जिम्मेदार है, क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस, और आज हमारे जीवन में इस गैस का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। रेफ्रीजरेटर से लेकर एयरकंडीशनर तक इसी गैस पर निर्भर हैं और हम इन उपकरणों पर। हमें इन उपकरणों से बचना होगा, क्योंकि इन्हीं के जरिए सीएफसी वातावरण में घुल रही है। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि सीएफसी के उत्पादन और इस्तेमाल पर आज से पूर्ण प्रतिबंध भी लगा दिया जाए, तो भी ओजोन क्षरण की समस्या बनी रहेगी। क्योंकि वातावरण में पहले से मौजूद सीएफसी को साफ करने का कोई तरीका अभी तक नहीं ढूढ़ा जा सका है और यह अगले 100 सालों तक इसी तरह वातावरण में बनी रहेगी। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि क्या सीएफसी पर पूर्ण प्रतिबंध संभव है?

मांट्रियल प्रोटोकाल से जुड़े 30 देशों ने सीएफसी के इस्तेमाल में कमी लाने पर सहमति जताई है। लेकिन यह कमी कितनी होगी, इसका कोई आंकड़ा स्पष्ट नहीं है। वर्ष 2000 तक अमेरिका तथा यूरोप के 12 राष्ट्र सीएफसी के इस्तेमाल और उत्पादन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने पर सहमत हो गए थे। इसे एक बड़ी उपलब्धि मानी गई थी, क्योंकि ये देश दुनिया में उत्पादित होने वाले सीएफसी का तीन चैथाई हिस्सा पैदा करते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि इन देशों ने अपनी सहमति को साकार कितना किया?

ओजोन छिद्र से घायल हुआ अमेरिका :

अमेरिका ओजोन के छेद से सबसे पहले घायल हुआ है, क्योंकि ओजोन की चादर में पहला छेद अंटार्कटिक के ठीक ऊपर बना। यह छेद न केवल इस महाद्वीप के लिए खतरनाक है, बल्कि कई अन्य महाद्वीपों के लिए भी। क्योंकि अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने के कारण कई सारे देशों के जलमग्न होने का खतरा पैदा हो गया है।

अंटार्कटिका के ऊपर इस ओजोन छिद्र का पता 1985 में ब्रिटिश वैज्ञानिक जोसेफ फारमैन, ब्रायन गार्डनर और ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के जोनाथन शंकलिन ने लगाया था। इसके पहले वायुमंडल में ओजोन की चादर की खोज वर्ष 1913 में फ्रेंच वैज्ञानिकों, चार्ल्स फैब्री और हेनरी बूइसॉ ने की थी। पृथ्वी से 30 मील ऊपर तक का क्षेत्र वायुमंडल कहलाता है और वायुमंडल के सबसे ऊपरी हिस्से में ओजोन गैस की पर्त है।

ओजोन नीले रंग की गैस होती है। ओजोन में ऑक्सीजन के तीन परमाणु मिले हुए होते हैं। हमें श्वसन क्रिया के लिए जिस ऑक्सीजन की जरूरत होती है, उसमें ऑक्सीजन के दो परमाणु ही होते हैं। लिहाजा ओजोन गैस प्रत्यक्ष रूप में हमारे जीवन के लिए खतरनाक है। सीएफसी से निकलने वाली क्लोरीन गैस ओजोन के तीन ऑक्सीजन परमाणुओं में से एक परमाणु से अभिक्रिया कर जाती है। यह प्रक्रिया जारी रहती है, और इस तरह क्लोरीन का एक परमाणु ओजोन के 100,000 अणुओं को नष्ट कर डालता है।

ओजोन क्षरण से बीमारियों का खतरा :

अमेरिका की एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) के अनुसार ओजोन क्षरण के कारण, वर्ष 2027 तक पैदा होने वाले छह करोड़ अमेरिकी, त्वचा कैंसर से पीड़ित होंगे। इनमें से लगभग 10 लाख लोग बेमौत मारे जाएंगे। कुछ अनुसंधानों में कहा गया है कि कैंसर के अलावा मलेरिया और अन्य संक्रामक बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाएगा।

ईपीए के अनुसार ओजोन क्षरण के कारण मोतियाबिंद के 1.70 करोड़ नए मामले सामने आ सकते है, वृक्षों का जीवन चक्र बदल सकता है, खाद्य श्रृंखला बिगड़ सकती है। इसका असर पशुओं पर भी पड़ेगा। इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएं पैदा होंगी, कहना कठिन है।

समुद्र बुरी तरह प्रभावित होगा। अधिकांश समुद्री सूक्ष्म जीव समाप्त हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो वे सभी जंतु भी मर जाएंगे जो खाद्य श्रृंखला में सूक्ष्म जीवों पर निर्भर होते हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय समिति (आईपीसीसी) की हाल की रिपोर्ट में कहा गया है कि ओजोन क्षरण के कारण धरती का तापमान पिछले 100 सालों में 0.74 प्रतिशत बढ़ गया है। और इसका प्रभाव घातक है।

सीएफसी पर लग पाएगा पूर्ण प्रतिबंध? :

ओजोन की चादर को तार-तार होने से बचाने के लिए सीएफसी के इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध के अलावा फिलहाल और कोई रास्ता नहीं है। इसी बारे में जागरूकता फैलाने के लिए 16 सितंबर, 1995 को संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहल पर मांट्रियल प्रोटोकॉल पर 191 देशों ने सहमति जताई थी। प्रोटोकाल के तहत सभी सदस्य देशों को सीएफसी के उत्पादन और इस्तेमाल में कमी लाने के लिए अपने-अपने स्तर पर उपाय करने थे।

इसी सहमति के समर्थन में अब हर वर्ष 16 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय ओजोन दिवस मनाया जाता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या साल में एक दिन का समारोह मना लेने से यह समस्या सुलझ जाएगी? जवाब होगा नहीं! लिहाजा यदि हम वाकई समाधान के प्रति गंभीर हैं, तो हमें साल के 365 दिन ओजोन को याद रखना होगा। और इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी सोच और जीवन शैली में बदलाव लाना होगा। कई सारे छोटे-बड़े उपाय अपनाने होंगे।

अधिक से अधिक पेड़ लगाने होंगे, ऊर्जा की खपत घटानी होगी, पर्यावरण अनुकूल उत्पादों और वस्तुओं का इस्तेमाल करना होगा, स्थानीय स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी। तो आइए हम सभी मिल कर इस उद्देश्य के लिए अभी से संकल्प लें। 

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