दार्जिलिंग: दुनिया के खुबसूरत पर्वतीय स्थलों में से एक

भारत के पश्चिम बंगाल में स्थित इकलौता पर्वतीय पर्यटन स्थल दार्जिलिंग दुनिया के खुबसूरत पर्वतीय स्थलों में से जाना जाता है। अपने खूबसूरती के कारण ही इसे पहाड़ियों की रानी कहा जाता है। यहां की औसत ऊँचाई 2,134 मीटर है। चाय के बागानों के लिए मशहूर दार्जिलिंग हिमालय की पहाड़ियों के मोहक नजारे दिखाता है। दार्जिलिंग शब्द की उत्त्पत्ति दो तिब्बती शब्दों, दोर्जे (बज्र) और लिंग (स्थान) से हुई है। इस का अर्थ "बज्र का स्थान है।"

यहां मंदिरों व मठों के जरिए अध्यात्म का संदेश गूंजता है। ट्रेकिंग के लिए भी यह बेस्ट जगह है। फिर टॉय ट्रेन का रोमांच भी है। यानी हर एज ग्रुप के लिए यहां कुछ न कुछ खास जरूर है । 1835 में अंग्रेजो ने लीज पर लेकर इसे हिल स्टेशन की तरह विकसित करना प्रारम्भ किया। फिर चाय की खेती और दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की स्थापना और शैक्षणिक संस्थानों की शुरुआत भी हुई। कुछ इस तरह से 'क्वीन ओफ हिल्स' का विकास शुरू हुआ। दार्जिलिंग की यात्रा का एक खास आकर्षण हरे भरे चाय के बागान हैं। हजारों देशों में निर्यात होने वाली दार्जिलिंग की चाय सबको खूब भाती हैं।
यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए है। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको पूरानी इमारतें दिखाई देंगीं। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। आप यहां कब्रिस्‍तान, पुराने स्‍कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है।  
यहाँ स्थित टाइगर हिल शहर से 13 किमी दूर 8482 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। टाइगर हिल सूर्योदय के अद्भुत नजारे के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। यहां कंचनजंगा की पहाड़ियों के पीछे से सूर्योदय का सतरंगी नजारा देखने के लिए रोजाना देश-विदेश के हजारों पर्यटक जुटते हैं। यहां से मौसम साफ रहने पर विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट भी नजर आतीहै ।

यहाँ शाक्य मठ स्थित है। यह मठ दार्जिलिंग से 8 किलोमीटर दूर स्थित है शाक्य मठ शाक्य संप्रदाय का ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण मठ है। इसकी स्थापना 1915 में की गई थी इसमें एक विशाल प्रार्थना कक्ष भी है माकडोग मठ यह मठ चौरास्ता से 3 किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है यह बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय सेसंबंधित है और इसकी स्थापना श्री संगे लामा ने की थी। बता दें कि यह एक छोटा सा संप्रदाय है , जो नेपाल केपूर्वोत्तर भाग से दार्जिलिंग में आकर बस गया।  
संजय गांधी जैविक उद्यान - इस उद्यान में रेड पांडा व ब्लैक बीयर समेत कई दुर्लभ प्रजाति के जानवर व पक्षी हैं। इसके अलावा लायड्स बोटेनिकल गाडर्ेन में तरह-तरह की वनस्पतियां देखी जा सकती हैं।रंगीन वैली पैसेंजर रोपवे - शहर से तीन किमी दूर स्थित यह रोपवे देश का पहला यात्री रोपवे है। शहर के चौकबाजार से टैक्सी से यहां तक पहुंच कर रोपवे की सवारी का आनंद उठाया जा सकता है।
जपानी मंदिर विश्‍व में शांति लाने के लिए इस स्‍तूप की स्‍थापना फूजी गुरु जो कि महात्‍मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्‍तूप हैं। निप्‍पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य 1972 ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर 1 नवंबर 1992 ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है। अगर आप कभी भी हिल्स स्टेशन जाने का सोचे तो दार्जलिंग के बारे में जरुर सोचे। एक बार इन खुबसूरत पहाड़ियों में आने के बाद जाने का मन नहीं होता।  









..यहां दशहरे के 6 दिन बाद होता है रावण दहन

बुराई का प्रतीक माने जाने वाले रावण का पुतला देशभर में दशहरे के दिन जलाया जा चुका है लेकिन उत्तर प्रदेश के एक कस्बे में रावण दशहरे के छह दिन बाद तक जीवित रहता है। राजधानी लखनऊ से करीब 60 किलोमीटर दूर उन्नाव जिले के अचलगंज कस्बे में दशहरे के छह दिन बाद रावण और उसके कुनबे का दहन करने की परंपरा सालों से चली आ रही है।

स्थानीय लोगों का कहना है कि अचलगंज पूजा समिति की खराब आर्थिक स्थिति इस अनोखी परंपरा की वजह है, जो करीब सौ सालों से चली आ रही है। अचलगंज पूजा समिति के महामंत्री मोतीलाल गुप्ता ने बताया, "पूजा समिति ने गठन के बाद पहली बार आपसी सहयोग से चंदा लगाकर दुर्गा पूजा और दशहरा का आयोजन करने का निर्णय लिया। दुर्गा पूजा के आयोजन के वक्त ही इतना खर्चा आ गया और समिति के सामने पैसे की किल्लत आ गई।"

गुप्ता ने कहा, "दुर्गा पूजा तो किसी तरह संपन्न हो गई लेकिन पैसे की किल्लत की वजह से विजयादशमी के दिन रावण दहन का आयोजन नहीं हो पाया। समिति के सदस्यों ने एक बार फिर से लोगों से मदद मांगी। चार-पांच दिन बाद जब पैसे एकत्र हो गए तो फिर रावण दहन किया गया। तभी से यह परंपरा शुरू हुई और हर साल दशहरे के छह दिन बाद रावण दहन होने लगा।"

इस साल अचलगंज में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन 20 अक्टूबर को होगा। स्थानीय निवासी विकास तिवारी ने बताया, "मुझे नहीं लगता कि रावण और उसके कुनबे का दहन छह दिन बाद करने की अनोखी परंपरा हमारे अचलगंज के अतिरिक्त कहीं पर होगी।" तिवारी ने कहा, "बीते सालों की तरह इस साल भी मैं अपने परिवार को लेकर गांव के बाहर मैदान में जाऊंगा जहां पर दहन का कार्यक्रम आयोजित होगा।" 

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यहां पसही के चावल खाकर गुजर बसर कर रहे हैं लोग!

वक्त की मार बहुत बुरी होती है, यकीन न हो तो बुंदेलखंड में गरीबों की थाली में झांककर देखिए, जहां पेट की आग बुझाने के लिए भटक रहे 'गरीब-गुरबा' जंगली चारा 'पसही' का चावल खा बसर कर रहे हैं। इस चारा के चावल से तीन माह तक अपनी जीविका चलाने वाले सैकड़ों परिवार हैं।

तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी बुंदेलखंड से गरीबी और मुफलिसी का दाग मिटा नहीं है और न ही दैवीय त्राशदी में कमी ही आई। इसकी जीती-जागती उदाहरण हैं बांदा जिले के महोतरा गांव की अस्सी साल की वृद्धा गोढ़निया और तेंदुरा गांव की नेत्रहीन महिला बुधुलिया जो अपनी भूख अनाज से नहीं, बल्कि जंगली चारा 'पसही' के चावल से मिटाती हैं।

ऐसा भी नहीं है कि ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी योजनाएं न चल रही हों, लेकिन गोढ़निया और बुधुलिया जैसे सैकड़ों गरीब ऐसे हैं जिन्हें इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा।

महोतरा गांव की 80 साल की नि:संतान गोढ़निया बताती है कि उसे न तो सरकारी राशन कार्ड मिला और न ही भरण-पोषण के लिए पेंशन ही। वह बताती है कि रबी और खरीफ की फसल की कटाई के समय 'सीला' (खेत में बिखरी हुई अनाज की बाली) चुनकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करती है और इस समय जलमग्न जमीन में उगे जंगली चारा पसही का धान एल्युमीनियम की थाली के सहारे धुनकर लाती है और उसके कूटने से निकला चावल ही पेट की आग बुझाने का जरिया है।

इसी गांव का बुजुर्ग मनोहरा बताता है कि इस गांव के आधा सैकड़ा अनुसूचित वर्गीय लोग तड़के टीन और बांस से बनी लेंहड़ी के सहारे पसही का धान धुन रहे हैं और इसके चावल से करीब तीन माह तक अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं।

तेंदुरा गांव की नेत्रहीन महिला बुधुलिया का पति बंधना पैर से विकलांग है, उसके तीन साल की एक बेटी है। यह विकलांग दंपति भी भूख से तड़प रहा है। नेत्रहीन बुधुलिया अपने पड़ोस की बुजुर्ग महिलाएं रमिनिया, कौशल्या, नथुनिया और जहरी के साथ शाम-सबेरे थाली या लेंहड़ी के सहारे पसही के धान धुन कर लाती है और उसके चावल से पेट भरती है।

बुधुलिया बताती है कि उसे गरीबी रेखा का राशन कार्ड तो मिला हुआ है, पर सरकारी दुकान से अनाज खरीदने के लिए एक धेला (रुपया) नहीं है। ऐसी स्थिति में पसही के चावल से बसर करना मजबूरी है।

इस गांव के ग्राम प्रधान धीरेंद्र सिंह ने बताया कि गांव में करीब एक सौ बीघा जलमग्न वाले भूखंड़ों में जंगली चारा पसही उगी हुई है और करीब पांच दर्जन गरीब इसका धान इकट्ठा कर रहे हैं। इस जंगली चारा पसही के बारे में एक स्थानीय कृषि अधिकारी का कहना है कि जलमग्न भूमि में उगने वाला पसही चारा धान की ही अविकसित प्रजाति है, जिसका चावल संशोधित प्रजाति से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट और सुगंधित होता है।

इस अधिकारी के मुताबिक, इस चावल की बाजार में कीमत भी काफी ज्यादा है। पनगरा गांव के बुजुर्ग ब्राह्मण बलदेव दीक्षित तो इस जंगली धान को सीता प्रजाति का धान बता रहे हैं। वह बताते हैं कि भगवान श्रीराम द्वारा देवी सीता का परित्याग किए जाने के बाद जब महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में बेटे लव और कुश भूख से तड़प रहे थे, उस समय सीता ने अपनी शक्ति से एक पोखरा में पसही धान को पैदा किया था।

उन्होंने बताया कि पसही के चावल को सीताभोग के नाम से भी जाना जाता है और महिलाएं उपवास व निर्जला व्रत के दौरान इसी का पारन (भोजन) करती हैं। गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश रैकवार का कहना है कि बुंदेलखंड के जलमग्न इलाके में रहने वाले सैकड़ों गरीब परिवार ऐसे हैं जो मुफलिसी की वजह से जंगली धान से जीवन यापन कर रहे हैं।

...तो इसीदिन भगवान श्रीकृष्ण ने रचाया था गोपियों संग रास

आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है ऐसा इसलिए क्योंकि शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचाया था। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। इस बार शरद पूर्णिमा 18 अक्टूबर, शुक्रवार को है।

पौराणिक मान्यताएं एवं शरद ऋतु, पूर्णाकार चंद्रमा, संसार भर में उत्सव का माहौल। इन सबके संयुक्त रूप का यदि कोई नाम या पर्व है तो वह है 'शरद पूनम'। वह दिन जब इंतजार होता है रात्रि के उस पहर का जिसमें 16 कलाओं से युक्त चंद्रमा अमृत की वर्षा धरती पर करता है। वर्षा ऋतु की जरावस्था और शरद ऋतु के बाल रूप का यह सुंदर संजोग हर किसी का मन मोह लेता है। सम्पूर्ण वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा ही षोडस कलाओं का होता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं जो कई बिमारियों का नाश कर देती हैं।

आपको बता दें की एक यह भी मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। शरद पूर्णिमा के बाद से मौसम में परिवर्तन की शुरुआत होती है और शीत ऋतु का आगमन होता है।

कहते हैं कि इस दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। शरद पूर्णिमा के दिन शाम को खीर, पूरी बनाकर भगवान को भोग लगाएँ । भोग लगाकर खीर को छत पर रख दें और रात को भगवान का भजन करें। चाँद की रोशन में सुईं पिरोएँ । अगले दिन खीर का प्रसाद सबको देना चाहिए ।

इस दिन प्रात:काल आराध्य देव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करें । आसन पर विराजमान कर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करनी चाहिए| सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर घी के 100 दीपक जलाए। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूंगी। इस प्रकार यह शरद पूर्णिमा, कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं मां लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।

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जाने कार्तिक मास में क्यों करते हैं दीपदान

हिंदू धर्म के धर्म शास्त्रों में प्रत्येक ऋतु व मास का अपना विशेष महत्व बताया गया है। सामान्य रूप से तुला राशि पर सूर्यनारायण के आते ही कार्तिक मास प्रारंभ हो जाता है। कार्तिक का माहात्म्य पद्मपुराण तथा स्कंदपुराण में बहुत विस्तार से उपलब्ध है। कार्तिक मास में स्त्रियां ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके राधा-दामोदर की पूजा करती हैं। कलियुग में कार्तिक मास व्रत को मोक्ष के साधन के रूप में बताया गया है। कार्तिक में पूरे माह ब्रह्म मुहूर्त में किसी नदी, तालाब, नहर या पोखर में स्नान कर भगवान की पूजा की जाती है।

धर्म ग्रंथों में कार्तिक मास के बारे में वर्णित है कि यह मास स्नान, तप व व्रत के लिए सर्वोत्तम है। इस माह में दान, स्नान, तुलसी पूजन तथा नारायन पूजन का अत्यधिक महत्व है| कार्तिक माह की विशेषता का वर्णन स्कन्द पुराण में भी दिया गया है| स्कन्द पुराण में लिखा है कि सभी मासों में कार्तिक मास, देवताओं में विष्णु भगवान, तीर्थों में नारायण तीर्थ (बद्रीनारायण) शुभ हैं| कलियुग में जो इनकी पूजा करेगा वह पुण्यों को प्राप्त करेगा| पदम पुराण के अनुसार कार्तिक मास धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देने वाला है|

पद्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति पूरे कार्तिक माह में सूर्योदय से पूर्व उठकर नदी अथवा तालाब में स्नान करता है और भगवान विष्णु की पूजा करता है। भगवान विष्णु की उन पर असीम कृपा होती है। पद्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति कार्तिक मास में नियमित रूप से सूर्योदय से पूर्व स्नान करके धूप-दीप सहित भगवान विष्णु की पूजा करते हैं वह भगवान विष्णु के प्रिय होते हैं। पद्मपुराण की कथा के अनुसार कार्तिक स्नान और पूजा के पुण्य से ही सत्यभामा को भगवान श्री कृष्ण की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

कथा है कि एक बार कार्तिक मास की महिमा जानने के लिए कुमार कार्तिकेय ने भगवान शिव से पूछा कि कार्तिक मास को सबसे पुण्यदायी मास क्यों कहा जाता है। इस पर भगवान शिव ने कहा कि नदियों में जैसे गंगा श्रेष्ठ है, भगवानों में विष्णु उसी प्रकार मासों में कार्तिक श्रेष्ठ मास है। इस मास में भगवान विष्णु जल के अंदर निवास करते हैं। इसलिए इस महीने में नदियों एवं तलाब में स्नान करने से विष्णु भगवान की पूजा और साक्षात्कार का पुण्य प्राप्त होता है।

भगवान विष्णु ने जब श्री कृष्ण रूप में अवतार लिया तब रूक्मिणी और सत्यभामा उनकी पटरानी हुई। सत्यभामा पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण की पुत्री थी। युवावस्था में ही एक दिन इनके पति और पिता को एक राक्षस ने मार दिया। कुछ दिनों तक ब्राह्मण की पुत्री रोती रही। इसके बाद उसने स्वयं को विष्णु भगवान की भक्ति में समर्पित कर दिया।

वह सभी एकादशी का व्रत रखती और कार्तिक मास में नियम पूर्वक सूर्योदय से पूर्व स्नान करके भगवान विष्णु और तुलसी की पूजा करती थी। बुढ़ापा आने पर एक दिन जब ब्राह्मण की पुत्री कार्तिक स्नान के लिए गंगा में डुबकी लगायी तब बुखार से कांपने लगी और गंगा तट पर उसकी मृत्यु हो गयी। उसी समय विष्णु लोक से एक विमान आया और ब्राह्मण की पुत्री का दिव्य शरीर विमान में बैठकर विष्णु लोक पहुंच गया।

जब भगवान विष्णु ने कृष्ण अवतार लिया तब ब्राह्मण की पुत्री ने सत्यभामा के रूप में जन्म लिया। कार्तिक मास में दीपदान करने के कारण सत्यभामा को सुख और संपत्ति प्राप्त हुई। नियमित तुलसी में जल अर्पित करने के कारण सुन्दर वाटिका का सुख मिला। शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में किये गये दान पुण्य का फल व्यक्ति को अगले जन्म में अवश्य प्राप्त होता है।

कार्तिक में दीपदान का महत्व-

दीपदान करने के लिए कार्तिक माह का विशेष महत्व है| शास्त्रों के अनुसार इस माह भगवान विष्णु चार माह की अपनी योगनिद्रा से जागते हैं| विष्णु जी को निद्रा से जगाने के लिए महिलाएं विष्णु जी की सखियां बनती हैं और दीपदान तथा मंगलदान करती हैं| इस माह में दीपदान करने से विष्णु जी की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में छाया अंधकार दूर होता है| व्यक्ति के भाग्य में वृद्धि होती है|

पदमपुराण के अनुसार कार्तिक के महीने में शुद्ध घी अथवा तेल का दीपक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्यानुसार जलाना चाहिए| इस माह में जो व्यक्ति घी या तेल का दीया जलाता है, उसे अश्वमेघ यज्ञ के बराबर फलों की प्राप्ति होती है| मंदिरों में और नदी के किनारे दीपदान करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं|

हमारे शास्त्रों में दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए कई उपाय बताए हैं। उनमें कार्तिक मास के स्नान, व्रत की अत्यंत महिमा बताई गई है। इस मास का स्नान, व्रत लेने वालों को कई संयम, नियमों का पालन करना चाहिए तथा श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्रीहरि की आराधना करनी चाहिए।

कार्तिक स्नान कल से, जाने महत्व, विधि और कथा

आश्विन माह की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है| इसी दिन से कार्तिक माह का स्नान आरम्भ माना जाता है| प्रतिवर्ष कार्तिक माह आरम्भ होते ही पवित्र स्नान का शुभारम्भ हो जाता है| इस बार कार्तिक मास का स्नान इस बार 18 अक्टूबर से आरम्भ होकर 17 नवम्बर तक चलेगा| पुराणों में कार्तिक मास को स्नान, व्रत व तप की दृष्टि से मोक्ष प्रदान करने वाला बताया गया है। इस माह में स्नान - दान तथा व्रत से पुण्य कर्मों के फलों में वृद्धि होती है. इस माह में दीपदान का अपना विशेष महत्व है|

कार्तिक स्नान की विधि-

तिलामलकचूर्णेन गृही स्नानं समाचरेत्।

विधवास्त्रीयतीनां तु तुलसीमूलमृत्सया।।

सप्तमी दर्शनवमी द्वितीया दशमीषु च।

त्रयोदश्यां न च स्नायाद्धात्रीफलतिलैं सह।।

अर्थात कार्तिकव्रती को सर्वप्रथम गंगा, विष्णु, शिव तथा सूर्य का स्मरण कर नदी, तालाब या पोखर के जल में प्रवेश करना चाहिए। उसके बाद नाभिपर्यन्त (आधा शरीर पानी में डूबा हो) जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। गृहस्थ व्यक्ति को काला तिल तथा आंवले का चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिए परंतु विधवा तथा संन्यासियों को तुलसी के पौधे की जड़ में लगी मृत्तिका(मिट्टी) को लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी, द्वितीया, दशमी व त्रयोदशी को तिल एवं आंवले का प्रयोग वर्जित है। इसके बाद व्रती को जल से निकलकर शुद्ध वस्त्र धारणकर विधि-विधानपूर्वक भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। यह ध्यान रहे कि कार्तिक मास में स्नान व व्रत करने वाले को केवल नरकचतुर्दशी (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी) को ही तेल लगाना चाहिए। शेष दिनों में तेल लगाना वर्जित है।

कार्तिक माह की कथा-

बहुत समय पहले एक इल्ली थी और एक घुण था| कार्तिक माह का आरम्भ होने पर इल्ली ने घुण से कहा कि चलो आओ कार्तिक नहा लें| तब घुण ने कहा कि तू ही नहा लें, मेरे तो मोठ तथा बाजरा पडे़ हैं मैं नहीं नहाउंगा| मैं तो हरे-हरे बाजरे का सीटा खाउंगा और ठण्डा-ठण्डा पानी पीऊंगा| यह सुनकर इल्ली राजा की लड़की के पल्ले से चिपकर चली गई, लेकिन घुण वहीं पडा़ रहा| वह नहीं नहाया| कार्तिक खतम होने के बाद दोनों मर गए, मरने के बाद इल्ली ने कार्तिक स्नान के कारण राजा के घर जन्म लिया, लेकिन घुण ने कार्तिक स्नान नहीं किया था इसलिए वह राजा के घर गधा बनकर रहने लगा|

बडे़ होने पर राजा की लड़की बनी इल्ली का विवाह तय हुआ और विवाह के बाद वह ससुराल जाने लगी तो उसकी बैलगाडी़ रुक गई| राजा-रानी ने कहा कि बैलगाडी़ क्यूं रुक गई! तुझे जो मांगना है, वह मांग ले| तब लड़की ने कहा कि यह गधा मुझे दे दो| राजा-रानी हैरान हुए, वह बोले कि यह तुम क्या माँग रही हो| तुम चाहो तो धन-दौलत ले जाओ| यह गधा कोई ले जाने की चीज है, लेकिन लड़की नहीं मानी| हारकर राजा-रानी ने वह गधा रथ के साथ बाँध दिया| गधा फुदक-फुदक कर चलने लगा| अपने ससुराल के महल में पहुंचने पर लड़की वह गधा महल की सीढी़ के नीचे बाँध दिया|

एक दिन जब वह सीढी़ उतर रही थी तब वह गधा बोला कि ऎ सुन्दरी, थोडा़ पानी पिला दे, तब वह बोली आ अब पहले तू नहा ले| पहले जन्म में तूने कहा था कि मैं पहले बाजरा खाऊंगा और ठण्डा-ठण्डा जल पीऊंगा| उन दोनों के आपस की यह बात देवरानी तथा जेठानी सुन लेती हैं| दोनों जाकर लड़की के पति को सिखाती हैं कि तुम्हारी पत्नी जादूगरनी है वह जानवरों से बात करती है| तब उसके पति ने जवाब दिया - मैं आपकी बातें तभी मानूंगा जब मैं स्वयं अपने कानों से यह सब सुन लूंगा और अपनी आंखों से देख लूंगा|

अगले दिन राजकुमार छिपकर बैठ जाता है| उस दिन भी लड़की बनी इल्ली तथा गधा बना घुण वही बात करते हैं तो उसका पति तलवार निकालकर खडा़ हो जाता है और कहता है कि तुम जानवर से बात कर रही हो! तुम मुझे सच बताओ, क्या बात है? अन्यथा मैं तलवार से तुम्हें मार दूंगा| उसकी पत्नी उससे विनती करती है कि तुम औरत का भेद मत खोलो, लेकिन वह नहीं मानता| हारकर लड़की को सारी बात बतानी पड़ती है| वह कहती है कि पिछले जन्म में मैं इल्ली थी और यह गधा घुण था| मैने इसे कार्तिक नहाने के लिए बहुत कहा लेकिन यह नहीं माना| राजा की लड़की के पल्ले से लगकर नहाने से मैंने राजा की लड़की के रुप में जन्म लिया और यह घुण नहीं नहाया तो यह गधा बन गया इसलिए मैं इससे पिछली बात कर रही थी|

अपनी पत्नी की बात सुनकर वह बहुत हैरान हुआ और कहने लगा कि कार्तिक स्नान से इतना पुण्य मिलता है? तब उसकी पत्नी बोली कि मेरे कार्तिक स्नान के कारण ही तो मैं राजा के घर जन्मी हूँ और मेरा विवाह एक राजकुमार से हुआ है| मुझे सभी तरह का राजपाट मिला है| यह सुनकर पति बोला कि यदि कार्तिक स्नान का इतना अधिक महत्व है तब हम दोनों जोडे़ में यह स्नान करेंगें और जितना हो सकेगा उतना दान-पुण्य भी करेगें| इससे हमें भविष्य में भी शुभ फलों की प्राप्ति हो| उसके बाद दोनों पति-प्त्नी जोडे़ से कार्तिक स्नान करने लगे और उनके पास पहले से भी अधिक धन-सम्पदा एकत्रित हो जाती है|

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शरद पूर्णिमा को रात्री जागरण करने से लक्ष्मी और ऐश्वर्य की प्राप्ति

आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है ऐसा इसलिए क्योंकि शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचाया था। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। इस बार शरद पूर्णिमा 18 अक्टूबर,को है। 

पौराणिक मान्यताएं एवं शरद ऋतु, पूर्णाकार चंद्रमा, संसार भर में उत्सव का माहौल। इन सबके संयुक्त रूप का यदि कोई नाम या पर्व है तो वह है 'शरद पूनम'। वह दिन जब इंतजार होता है रात्रि के उस पहर का जिसमें 16 कलाओं से युक्त चंद्रमा अमृत की वर्षा धरती पर करता है। वर्षा ऋतु की जरावस्था और शरद ऋतु के बाल रूप का यह सुंदर संजोग हर किसी का मन मोह लेता है। सम्पूर्ण वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा ही षोडस कलाओं का होता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं जो कई बिमारियों का नाश कर देती हैं। 

आपको बता दें की एक यह भी मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। शरद पूर्णिमा के बाद से मौसम में परिवर्तन की शुरुआत होती है और शीत ऋतु का आगमन होता है।

कहते हैं कि इस दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। शरद पूर्णिमा के दिन शाम को खीर, पूरी बनाकर भगवान को भोग लगाएँ । भोग लगाकर खीर को छत पर रख दें और रात को भगवान का भजन करें। चाँद की रोशन में सुईं पिरोएँ । अगले दिन खीर का प्रसाद सबको देना चाहिए । 

इस दिन प्रात:काल आराध्य देव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करें । आसन पर विराजमान कर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करनी चाहिए| सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर घी के 100 दीपक जलाए। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूंगी।

इस प्रकार यह शरद पूर्णिमा, कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं मां लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।
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यहां हिंदू करते हैं मजार की देखभाल

छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में सांप्रदायिक सौहाद्र्र का अनूठा उदाहरण है जलाउद्दीन बगदाद वाले बाबा की मजार। इस मजार की पूरी देख-रेख यहां के लिए बनी हिन्दुओं की समिति करती है। पिनकापार गांव में एकमात्र मुस्लिम परिवार निवास करता है। मुस्लिम परिवार भी हिन्दुओं की इस धार्मिक आस्था से बेहद प्रसन्न है। 

गांव में बने मजार का पिछले 100 वर्षो से यहां के हिंदू पूरी शिद्दत से देखभाल करते आ रहे हैं। इसके लिए कमेटी बनाई गई है। कमेटी जलाउद्दीन बगदाद वाले बाबा के नाम से लोकप्रिय मजार को पूरी तरह सुरक्षित रखने के लिए पहले अस्थाई शेड बनाना चाहते हैं। इसीलिए वे गांव के लोगों से धन संग्रह कर रहे हैं। 

यहां की आबादी करीब 450 परिवारों की है, जिसमें एक मात्र मुस्लिम परिवार है। शुरुआत में परकोटे का निर्माण दाऊ शशि देशमुख ने कराया। प्रत्येक शुक्रवार को 20 से अधिक हिंदू परिवार मजार पर अगरबत्ती व धूप से इबादत करते हैं। 

90 साल के प्रेमलाल देवांगन, झाड़ूराम सारथी व बसंत देशमुख ने बताया कि 1905 में मजार मिट्टी की बनी थी, जिसे चूना व पत्थर से पक्का कर दिया गया। वे मजार निर्माण का सही समय नहीं बता पाए, पर उनका कहना है कि किसी भी तरह की परेशानी आने पर यहां आकर फरियाद करते रहे हैं तो लाभ मिलता है। इसीलिए लोगों का मजार के प्रति विश्वास बढ़ता गया। 

बुजुर्गों का कहना है कि 1890 में यहां करीब 70 मुस्लिम परिवार रहते थे। अब एक ही मुस्लिम परिवार सत्तार खां ही रहते हैं। बताया गया कि एक दशक पहले हिंदुओं के सहयोग से महबूब खां ताजिया निकाला करते थे। जबसे उनकी मृत्यु हुई, तब से ताजिया निकलनी बंद हो गई है।

पिनकापार से करीब 12 किलोमीटर दूर ग्राम जेवरतला है। यहां के निवासी धनराज ढोबरे (मराठा) पिछले 26 सालों से प्रत्येक शुक्रवार को मजार आ रहे हैं। ढोबरे का कहना है कि यहां आने पर उन्हें सुकून मिलता है। 

इसी तरह से बीस साल से इतवारी रजक भी मजार पर आ रहे हैं। रजक ने अपने होटल में मजार के विस्तार के लिए दानपात्र रखा है। सालों से हर शुक्रवार को आने वालों में मुजगहन के नकुल सिन्हा, संतोष देवांगन, इंदू भूआर्य, जाग्रत देवांगन, ओमप्रकाश कोसमा व कु.शशि साहू हैं। अब तो यहां आसपास के गांव से भी हिन्दू इबादत के लिए पहुंचने लगे हैं।
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65 साल की हुई 'ड्रीम गर्ल' हेमा मालिनी

अपनी बेमिसाल खूबसूरती के लिए बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान रखने वाली बेहद अनुभवी और प्रतिभाशाली ऐक्ट्रेस हेमा मालिनी आज 65 साल की हो गई हैं। जीवन के सातवें दशक में प्रवेश कर चुकी हेमामालिनी आज भी जवां लोगों की पसंदीदा ऐक्ट्रेस बनी हुई हैं| अपने 40 साल के फिल्मी करियर में हेमा मालिनी ने 150 फिल्मों में काम किया।

भले ही उनकी उम्र ने 65 का आकंड़ा पार कर लिया हो लेकिन खूबसूरती के मामले में आज भी कोई हेमा के टक्कर का नहीं है| आज भी जब वह अपनी बेटियों अहाना और ईशा के साथ खड़ी होती हैं तो वह उनकी मां नहीं बल्कि उनकी बड़ी बहन लगती है। बॉलीवुड ने उन्हें उनकी खूबसूरत की वजह से ही 'ड्रीम गर्ल' का खिताब दिया गया। हेमा मालिनी बेहतरीन अभिनय के अलावा शास्त्रीय नृत्य में भी पारंगत हैं।

हेमा मालिनी का जन्म 16 अक्टूबर 1948 को अम्मनकुंडी तमिलनाडु में वीएसआर चक्रवर्ती और जया चक्रवर्ती के आयंगर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। हेमा के पिता वी एस आर चक्रवर्ती तमिल फिल्मों के निर्माता थे। फिल्मी परिवेश में पली-बढ़ी हेमामालिनी ने चेन्नई के आध्र महिला सभा से अपनी पढ़ाई पूरी की। 'सपनों का सौदागर' की नायिका के रूप में हिंदी फिल्मों को उसकी 'ड्रीम गर्ल' की पहली झलक मिली। धीरे-धीरे हेमा मालिनी का जादू हिंदी फिल्म दर्शकों के सिर चढ़कर बोलने लगा और उनका नाम शीर्ष अभिनेत्रियों की सूची में सबसे ऊपर शुमार हो गया।

लगभग तीन दशक तक हेमामालिनी के अभिनय का जादू उस दौरान की अभिनेत्रियों पर हावी रहा। 'सीता और गीता' की सफलता से वह बॉलीवुड की नंबर वन हीरोइन बन गई। फिल्म 'शोले' में उनके बसंती वाले किरदार को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं। बेस्ट एक्ट्रेस के लिए वह 11 बार नॉमिनेट हुई और वर्ष 1972 में उन्होंने यह खिताब जीता। वर्ष 2000 में फिल्मफेयर लाइफटाइम एचिवमेंट अवार्ड और पद्मश्री अवार्ड से भी वह सम्मानित हुईं।

हेमा मालिनी बेहतरीन अभिनय के अलावा शास्त्रीय नृत्य में भी पारंगत हैं। भरतनाट्मय नृत्य शैली में वह महारत हासिल रखती हैं। उन्होंने अपने नृत्य के दौरान मां दुर्गा का जो किरदार अदा किया है उसके लिए वह अपनी अलग पहचान रखती हैं। इसी अनोखी अदा की वजह से उन्होंने एक टीवी सीरियल 'जय माता की' में मां दुर्गा का किरदार निभाया जिसके लिए उन्हें काफी सराहना मिली।

त्याग और इंसानियत का पर्व है बकरीद

दुनिया में कोई भी कौम ऐसी नहीं है जो कोई एक खास दिन त्यौहार के रूप में न मनाती हो। इन त्योहारों में एक तो धार्मिक आस्था विशेष रूप से देखने को मिलती है दूसरा अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का अवसर मिलता है। अगर मुसलमानों के पास ईद है तो हिंदुओं के पास दीपावली है। ईसाइयों की ईद बड़ा दिन अर्थात क्रिसमस है तो सिखों की ईद गुरु पर्व है। इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। इसे मीठी ईद और छोटी ईद भी कहा जाता है। यह त्यौहार रमजान के 30 रोजे रखने के बाद मनाया जाता है। दूसरा है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं। इस बार ईद-उल-जुहा 16 अक्टूबर दिन बुधवार को मनाया जायेगा|

ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में बकरीद का त्यौहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्यौहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है।

कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा। वैसे बकरीद शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में 'बक़र' का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह (कुर्बान) किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे 'बकरीद' कहते हैं। वास्तव में कुर्बानी का असल अर्थ ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो। जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की कुर्बानी दी। यहां तक कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत की और बेटा जिंदा रहा। हजरत इब्राहीम चूंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे इसलिए उनको 'खलीलुल्लाह' की पदवी भी दी गई है। कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जिलहिज्जा (अर्थात हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है। कुरान में लिखा है, "हमने तुम्हें हौज-ए-कौसर दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।"

वैसे तो इस पावन पर्व की नींव अरब में पड़ी, मगर तुजक-ए-जहांगीरी में लिखा है : "जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंदहार इस्फाहान, बुख़ार, .खोरासां, बगदाद, और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का आगमन भारत से पहले हुआ। बादशाह सलामत जहांगीर अपनी रिआया के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे। गैर मुसलिमों के दिल को चोट न पहुंचे इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिंदू बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे। बड़ी चहल-पहल रहती थी। बादशाह सलामत इनाम-इकराम भी खूब देते थे। मुगल बादशाहों ने कुर्बानी के लिए गाय कुर्बान की सख्त मनाही की थी क्योंकि हमारे देश में गाय को गोमाता के नाम से माना जाता है। यह करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ी है इसलिए सरकार ने गाय की कुर्बानी करने पर पाबंदी लगायी है।

बकरीद वास्तव में न सिर्फ अकबर व जहांगीर के समय धूम धाम से मनाया जाता था बल्कि आज भी ईद-उल- जुहा का जो असली मनोरंजन है, वह भारत में ही देखने को मिलता है। ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है।

आइये एक नज़र ईद-उल-जुहा के इतिहास पर डालें। ईद-उल-जुहा का इतिहास बहुत पुराना है जो हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम आज से कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। इब्राहीम ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी उनके दुश्मन हो गए। हजरत इब्राहीम का ज्यादातर जीवन रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में जनसेवा में बीता। संतानहीन होने के कारण उन्होंने एक संतान प्राप्ति के लिए खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की थी जो सुनी गई और उन्हें चांद सा बेटा हुआ। उन्होंने अपने इस फूल से बेटे का नाम इस्माईल रखा। जब इस्माईल की उम्र 11 साल से भी कम थी तो एक दिन हजरत इब्राहीम ने एक ख़्वाब देखा, जिसमें उन्हें यह आदेश हुआ कि खुदा की राह में सबसे प्यारी चीज कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। इतना होने पर हजरत इब्राहीम समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और उन्होंने अपनी पत्नी हाजरा से अपने प्यारे लाडले को नहला-धुलाकर कुर्बानी के लिए तैयार करने को कहा। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं।

हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम बुढ़ापे में रेगिस्तान में पत्नी और बच्चे को छोड़ आए। बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर उस बीहड़ रेगिस्तान में पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने लगा। यह देखकर हजरत जिब्रईल ने हुक्म दिया कि फौरन चश्मा अर्था तालाब जारी हो जाए। पानी का फव्वारा हजरत इस्माईल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माईल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब हाजरा को यह पता चला कि अल्लाह के नाम पर उनके प्यारे बेटे का गला उनके पिता द्वारा ही काटा जाएगा, तो हाजरा स्तब्ध हो गईं। मानों वह मां नहीं, कोई पत्थर की मूरत हों। जब हजरत इब्राहीम अपने प्यारे बेटे इस्माईल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो शैतान (इबलीस) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके। हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे हुए बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद रहा है और उसकी जगह जन्नत से एक दुम्बा भेजा गया और उसकी कुर्बानी हुई। यह देखकर हजरत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से जिलहिज्जा के महीने में जानवर की बलि देने की परंपरा चली आ रही है।

बॉलीवुड को प्रिय है राजस्थान का चोमू महल

राजस्थान के चोमू में स्थित 300 सालों से भी पुराना महल फिल्म निर्माताओं के लिए पसंदीदा बन गया है। 'भूलभुलैया' में विद्या बालन और 'बोल बच्चन' में अभिषेक बच्चन ने इसी चोमू किले में शूटिंग की थी, और अब यह किला हेरिटेज होटल में तब्दील हो चुका है।

चोमू महल के महाप्रबंधक शुभाशीष बनर्जी ने बताया, "चोमू महल का इतिहास 300 साल से भी पुराना है और अब बॉलीवुड यहां शूटिंग के लिए लालायित है।" उन्होंने कहा कि 'भूलभुलैया' और 'बोल बच्चन' दोनों ही काफी सफल हुई थी। बनर्जी ने बताया, "यहां 'डर्टी पॉलिटिक्स' फिल्म की शूटिंग भी हुई है जो इसी साल प्रदर्शित होने वाली है।"

उन्होंने बताया कि यहां 'लोफर', 'गुलाल' और 'क्वीन्स (द डेस्टिनी ऑफ डांस)' जैसी फिल्मों की शूटिंग भी हुई है। 1598 में करण सिंह ने इसका निर्माण कार्य शुरू कराया था। बनर्जी ने बताया कि फिल्मों के अलावा यहां टीवी धारावाहिकों की शूटिंग भी हुई है। उन्होंने कहा, "यहां पर 'रतन का स्वयंवर' और 'झांसी की रानी' जैसे धारावाहिकों की शूटिंग भी हुई है।"

लेकिन अब एक साल तक इसमें शूटिंग नहीं हो पाएगी। बनर्जी ने बताया, "बॉलीवुड हमसे शूटिंग के लिए होटल किराए पर देने का निवेदन कर रहा है, लेकिन हम उन्हें ऑफ सीजन में ही होटल दे सकते हैं।" पुराने दिनों में यह किला सेना प्रमुखों का निवास स्थान रहा है। करण सिंह के बाद उनके बड़े बेटे सुख सिंह राजा बने और किले और महल के बाकी हिस्से का निर्माण कराया। महल में खूबसूरती से बनाए गए कमरे राज्य की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं। इसके बड़े बरामदों में से एक को 'भूलभुलैया' में दिखाया गया था। 
महल की अधिकतर कलाकृतियां बरकरार हैं, जो शाहीपन का एहसास कराती हैं। उदाहरण के लिए होटल का महाराजा कमरा, इसकी चांदी की चारपाई और खूबसूरती और चांदी के नक्काशीदार फर्नीचर इसे भव्य और वैभवशाली बनाते हैं। महल की नक्काशीदार दीवारें पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। ये फिल्मों के लिए एक दम सही पृष्ठभूमि हैं। किले की वीरता की कहानियां अब इतिहास के पन्नों में हैं लेकिन किला अब बॉलीवुड को अपनी ओर आकर्षिक कर रहा है। यह खूबसूरत और शाही महल अगर फिल्मों में देखना आपके लिए काफी नहीं है तो महल में आइए और शाही शान-ओ-शौकत का आनंद उठाइए।

कैसे जाएं : चोमू राजस्थान की राजधानी जयपुर से सिर्फ 30 किलोमीटर की दूरी पर है। हवाई मार्ग से दिल्ली से जयपुर का रास्ता मात्र आधा घंटे का है।

महल के कमरों के किराए 6,000 रुपये प्रति दिन से शुरू हैं। 

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दतिया भगदड़ : दामन बचाने में जुटी सरकार

मध्य प्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ हादसे ने हर किसी को हिलाकर रख दिया है। अगर कोई नहीं हिला है तो वह है सरकार और प्रशासनिक अमला। यही कारण है कि 111 लोगों की मौत हो जाने के बाद भी सरकारी मशीनरी को बचाने के लिए सभी लामबंद हो गए हैं। उनका स्वर एक है और वे हादसे के लिए पुल टूटने की अफवाह को ही मूल वजह बताने में तुले हुए हैं।

रतनगढ़ के देवी मंदिर में हर साल हजारों लोग नवरात्रि, दीपावली और भाईदूज पर पहुंचते हैं। रविवार को नवमी थी और दतिया सहित उत्तर प्रदेश के नजदीकी जिलों के श्रद्धालु भी मंदिर पहुंचे थे। भीड़ को कैसे नियंत्रित किया जाए, इसका कोई इंतजाम नहीं था। मंदिर तक जाने के लिए सिंध नदी पर बना पुल संकरा है।

इस पुल पर से एक साथ हजारों लोगों का रेला गुजर रहा था, मगर उन्हें नियंत्रित करने के लिए गिनती के पुलिस वाले तैनात किए गए थे। कोई भी बड़ा अफसर मौके पर नहीं था। पुलिस अधीक्षक चंद्रशेखर सोलंकी तो कई घंटे बाद मौके पर पहुंचे। भगदड़ में 111 लोगों की मौत हो चुकी है, मगर अब तक किसी पर जिम्मेदारी तय नहीं की गई है। राज्य में चुनाव आचार संहिता लागू है, सरकार इसका हवाला देकर अपने को बचाने का प्रयास कर सकती है, मगर सरकार के प्रवक्ता ने हादसे के कुछ घंटे बाद ही कह दिया कि हादसा पुल टूटने की अफवाह के चलते हुआ। जबकि पीड़ितों का साफ कहना है कि पुलिस ने जाम लगने पर लाठीचार्ज किया, जिससे भगदड़ मची।

राज्य के मुख्य सचिव एंटोनी डिसा भी लगभग वही कह रहे हैं, जो सरकार के प्रवक्ता ने कहा है। उनका कहना है कि ट्रैक्टर रेलिंग से टकराया और पुल का कुछ हिस्सा टूटा, फिर अफवाह फैली कि पुल टूट गया और भगदड़ मच गई। साथ ही वह कहते हैं कि इस मामले की जांच जल्द होगी और दोषियों पर कार्रवाई की जाएगी। मगर पुलिस अधिकारी रेलिंग टूटने की बात से इंकार कर रहे हैं। हादसे के एक दिन बाद भी सरकार और मुख्य सचिव की ओर से न तो किसी पर जिम्मेदारी तय की गई है, और न ही किसी पर कार्रवाई की गई है। मामले की न्यायिक जांच के आदेश देकर मामले को ठंडे बस्ते में डालने का काम जरूर किया गया है।

रतनगढ़ में वर्ष 2006 में भी हादसा हुआ था। तब 47 लोगों की मौत हुई थी। तब सरकार ने प्रशासनिक अफसरों को दतिया से हटाने के साथ ही उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस.के. पांडे की अध्यक्षता में जांच आयोग गठित किया था। आयोग ने मार्च 2007 में रपट सरकार को सौंप दी। लेकिन सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया। उसके बाद 2010 में रपट सार्वजनिक करने के लिए आरटीआई दायर की गई। तब से अबतक विपक्षी दल व सामाजिक कार्यकर्ता रपट सार्वजनिक करने की लगातार मांग कर रहे हैं, मगर सरकार ने आजमक रपट सार्वजनिक नहीं की है।

वर्ष 2006 में हुए हादसे के बाद सरकार ने चार अफसरों पर कार्रवाई की थी मगर इस बार 111 लोगों की मौत के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यह सरकार और प्रशासन की हठधर्मिता को जाहिर करता है। 

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आखिर हादसों से कब सबक लेंगे!

धार्मिक आयोजनों में भगदड़, हादसे, मौतें और फिर आंसू बहाकर मृतकों के परिजनों के लिए मुआवजे मंजूर कर देना हमारी सरकारी मशीनरी का हिस्सा बन गया है। ये हादसे फिर न हों इसके दावे तो बहुत होते हैं, मगर इंतजाम न के बराबर। नतीजतन हादसे-दर-हादसे होते रहते हैं। कम से कम मध्य प्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ में हुआ हादसा तो यही कुछ बताता है।

रतनगढ़ माता मंदिर के करीब शारदीय नवरात्र के अंतिम दिन जयकारों की बजाय चीत्कार और रुदन के स्वर सुनाई दे रहे हैं। बच्चों से लेकर बुजुगरें के स्वर हर किसी को द्रवित कर देने वाले हैं, क्योंकि उन्होंने अपनों को तब खोया है, जब वे देवी के दरबार में सुनहरे कल की कामना के लिए जा रहे थे।

रविवार सुबह रतनगढ़ माता मंदिर से पहले सिंध नदी पर बने पुल से सैकड़ों वाहनों पर सवार और पैदल हजारों श्रद्घालुओं का रेला बढ़े जा रहा था। पुल पर गुजरती भीड़ को व्यवस्थित मंदिर तक पहुंचाने के लिए महज आठ से दस जवान ही तैनात थे। भीड़ के बढ़ते ज्वार को संभालने के लिए पुलिस के जवानों ने हल्का बल प्रयोग किया तो भीड़ में भगदड़ मच गई। लोग एक-दूसरे को रौंदकर तो वाहन पैदल चल रहे श्रद्घालुओं को रौंद कर भागने लगे। श्रद्घालुओं ने अपनी जान बचाने के लिए पुल पर से छलांग लगा दी।

इस हादसे में अबतक 85 श्रद्घालुओं के शव बरामद हो चुके हैं और नदी में जल के बहाव के साथ कितने बह गए हैं, इसका अंदाजा किसी को नहीं है। वहीं 100 से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए हैं। राज्य सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने हादसे की वजह चूक मानने से इंकार नहीं किया है, मगर वह पुलिस के बल प्रयोग की बजाय पुल टूटने की अफवाह को हादसे की वजह मान रहे हैं।

रतनगढ़ में हुआ यह कोई पहला हादसा नहीं है, इससे पहले 2006 में इसी दिन अर्थात शारदीय नवरात्र की नवमी को नदी में अचानक बहाव आने से 49 लोगों की पानी में डूबकर मौत हो गई थी। उसके बाद सरकार ने पुल बनवाया, मगर रविवार को वही पुल हादसे का कारण बन गया। तब सरकार ने जांच के आदेश दिए थे, कुछ अफसरों पर कार्रवाई भी हुई थी, मगर हादसे को नहीं रोका जा सका। इस बार फिर हादसे की जांच के आदेश दे दिए गए हैं।

इसके अलावा राजधानी भोपाल के करीब सलकनपुर मंदिर और करौली माता मंदिर में भी भगदड़ और कई लोगों की मौत के हादसे हो चुके हैं। मगर सरकार ने ऐसे कोई इंतजाम नहीं किए, जिनसे इन हादसों को रोका जा सके। राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष, अजय सिंह ने रतनगढ़ हादसे पर दु:ख व्यक्त करते हुए कहा कि अपने को हिन्दुत्व का ठेकेदार बताने वाले भाजपा राज में रतनगढ़ में ही यह दूसरा हादसा है। उन्होंने मृतकों के परिजनों को पांच लाख रुपये मुआवजा देने की मांग की है।

सिंह ने कहा कि रतनगढ़ में बद इंतजामी का आलम यह है कि घटना के कई घंटों बाद वहां प्राथमिक उपचार तक की व्यवस्था नहीं थी और न ही पानी था। इससे अनेक लोगों ने दम तोड़ दिया। रतनगढ़ के हादसे ने सुरक्षा-व्यवस्था के उन दावों पर तो सवाल खड़े कर ही दिए हैं, जो सरकार और प्रशासन की ओर से आम तौर पर किए जाते रहे हैं। क्या हम अब भी सबक लेने को तैयार हैं। 

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