लावारिस बच्चों को अपना आंचल देकर मां की कमी पूरी करती है शिरीन

बोझ समझकर जिन बच्चों को उनके माता-पिता ने छोड़ दिया है, एक ग्रामीण महिला उनकी 'मां' बनकर जन्म देने वाली मां से कहीं ज्यादा लाड़-प्यार देती है। वह नि:स्वार्थ भाव से लावारिस और बेसहारा बच्चों को अपना आंचल देकर उनके जीवन में मां की कमी पूरी करती है। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के पडरौना कस्बे के निकट परसौनी कला गांव में रहने वाली 63 वर्षीया शिरीन बसुमता लावारिस हालत में मिले 29 बच्चों को अपने घर लाकर उनका पालन-पोषण कर रही हैं। बिना भेदभाव के सभी बच्चों को शिरीन का बराबर प्यार मिलता है। 

शिरीन ने बताया, "लावारिस और बेसहारा बच्चों की देखभाल करना मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गया है। मुझे लगता है, जैसे ईश्वर ने मुझे इसी काम के लिए दुनिया में भेजा है।" उन्होंने कहा, "मैं इसे सौभाग्य समझती हूं कि ईश्वर ने मुझे इस काम के लिए चुना। मैंने करीब 13 साल पहले यह नेक काम शुरू किया था।"

शिरीन के मुताबिक, 5 नवंबर 2001 को गांव से थोड़ी दूर पर एक नाले के पास उन्हें एक नवजात बच्ची मिली। उसकी हालत बहुत खराब थी। वह उसे घर ले आईं और उसका इलाज करवाया। डॉक्टर की कड़ी मशक्कत के बाद आखिरकार उस बच्ची की जान बच सकी।

शिरीन कहती हैं, "मैंने उस बच्ची का नाम महिमा रखा। उस दिन के बाद से मैंने तय कर लिया कि अब मैं उन लावारिस बच्चों की मां बनकर उन्हें लाड़-प्यार दूंगी जिन्हें जन्म देने वाली मां किसी मजबूरी के चलते नाले, झाड़ियों, बाग, रेलवे और बस स्टेशन के आस-पास छोड़ जाती हैं।"

महिमा के बाद एक-एक करके सिरीन को अब तक कुल 29 बच्चे मिले। इनसे से कई उन्हें लावारिस हालत में मिले और कुछ को लोगों ने उन्हें सौंपा। शिरीन को इस काम में उनके परिवार के अन्य सदस्य भी पूरी मदद करते हैं। उनके पुत्र जयवंत बसमुता कहते हैं कि वह अपनी मां से प्रेरणा लेकर इन बच्चों की सेवा करते हैं। इस काम में बहुत खुशी और संतोष मिलता है।

इन बच्चों के खाने-पीने और कपड़ों के इंतजाम में शिरीन की गांव के लोगों के साथ कुछ सामाजिक संगठन भी मदद करते हैं। जयवंत कहते हैं, "गांव के लोग अक्सर हमें अनाज, सब्जियां और दूध आदि देकर मदद करते हैं जिससे हमें बच्चों के खान-पान की व्यवस्था करने में कुछ आसानी हो जाती है। कुछ सामाजिक संगठन के लोग हमारे इस नेक काम में रुपये के जरिए मदद कर देते हैं।"शिरीन ने पांच साल से ऊपर के बच्चों को घर के निकट स्थित एक मिशनरी स्कूल में दाखिला दिलवाया है। वह चाहती हैं कि ये बच्चे पढ़-लिख कर नेक इंसान बनें और जिंदगी में कुछ करके दिखाएं।

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हिमाचल में निवास करते हैं दुनिया के आधे कलहंस

विश्व की सबसे बड़ी आद्रभूमियों में से एक हिमालय की तराई में निर्मित कृत्रिम आद्रभूमि पोंग डैम इस समय लगभग 43,000 कलहंसों का निवास स्थल है। वन्यजीव अधिकारियों का कहना है कि यह विश्व में कुल कलहंसों की लगभग आधी आबादी है, जो हिमाचल प्रदेश के पोंग डैम में आश्रय लिए हुए हैं।

अधिकारियों का कहना है कि इस बार पोंग आद्रभूमि में पिछले वर्षो की अपेक्षा अधिक संख्या में कलहंस पहुंचे हैं। वन (वन्यजीव) के सहायक संरक्षक डी. एस. डडवाल ने कहा, "आद्रभूमि में रहने वाली पक्षियों की प्रजाति की गणना में लगभग 43,000 प्रवासी पक्षियों की मौजूदगी का पता चला है। राज्य वन्यजीव विभाग ने 29 जनवरी को पोंग जलाशय में पक्षी गणना कराई थी।"

कलहंसों के अलावा कांगड़ा घाटी स्थित पोंग जलाशय में सामान्य कूट पक्षी, पिनटेल, सामान्य एवं गुच्छेदार तथा लाल कलगी वाले पोचार्ड प्रजाति के बत्तख, सामान्य चैती, छोटे जलकाग, बड़ी कलगी वाले ग्रेब और भूरी टांगों वाले कलहंस जैसी प्रजाति के पक्षियों की मौजूदगी का पता चला है।

पक्षी गणना में 119 प्रजातियों के 1,28,200 पक्षियों की मौजूदगी का पता चला है। साथ ही भारतीय आद्रभूमि क्षेत्र में कम ही दिखने वाले सामान्य शेलडक, सारस क्रेन, मछलियों का शिकार करने वाले बाज (ओस्प्रे), बफ बेलीड पिपिट, भारत में पाया जाने वाला स्किमर और छोटा गुल आधि प्रजाति के पक्षियों की मौजूदगी का भी पता चला है।

डडवाल ने कहा कि पोंग डैम में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में कलहंस पक्षियों ने डेरा डाला है। कलहंस हर वर्ष सर्दियों में मध्य एशिया तथा तिब्बत और लद्दाख से यहां प्रवास पर आते हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के सहायक निदेशक एस. बालाचंद्रन ने बताया कि कलहंस पक्ष बड़ी संख्या में पोंग डैम की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। पोंग डैम आद्रभूमि क्षेत्र में स्थानीय और प्रवासी पक्षियों की 421 प्रजातियां, सांपों की 18 प्रजातियां, तितलियों की 90 प्रजातियां, स्तनपाई जीवों की 24 प्रजातियां और मछलियों की 27 प्रजातियां पाई जाती हैं।

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विश्व कैंसर दिवस पर विशेष: कैंसर का उपचार अब घर पर भी संभव

चित्रा शाह (30) उस समय बिल्कुल टूट चुकी थीं, जब उन्हें मालूम हुआ कि उनके पति फेफड़े के कैंसर से पीड़ित हैं। पति की बीमारी के दौरान घर और बच्चों की देखभाल, सास-ससुर की सेवा और पति को अस्पताल ले जाने-लाने में चित्रा को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था।

इसके अलावा घर से अस्पताल की दूरी और अतिरिक्त खर्चे के बोझ से चित्रा बेहाल थीं। लेकिन, कैंसर के बेहतर इलाज और उपचार के लिए शुरू की गई नई योजना चित्रा के लिए राहत लेकर आई। योजना के अंतर्गत गहन चिकित्सा इकाई (आईसीयू) सेवा और कीमोथेरेपी की सुविधा घर पर ही उपलब्ध कराई जाएगी।

हेल्थकेयर एट होम (एचसीएएच) मेडिकल सर्विस के प्रमुख गौरव ठकराल ने बताया, "कैंसर का संघर्ष बेहद कठिन और तोड़ देने वाला है, लेकिन इसकी मुश्किल को थोड़ा कम किया जा सकता है और इलाज को सुविधाजनक बनाया जा सकता है, यदि कैंसर का इलाज और उपचार घर पर ही संभव हो जाए।"

इस योजना की नींव रखने वालों में ठकराल भी शामिल हैं। इस योजना को शुरू करने के लिए उन्होंने पिछले साल फोर्टिस में चिकित्सक के पद से त्यागपत्र दे दिया। ठकराल जब अपने मरीजों द्वारा उठाई जा रही परेशानियों से रू-ब-रू हुए तो उनके दिमाग में घर पर ही कैंसर का इलाज उपलब्ध कराने की सुविधा का विचार आया।

उन्होंने कहा कि बार-बार अस्पतालों के चक्कर लगाने के बजाय अब मरीजों को उनके घर पर ही कीमोथेरेपी के इंजेक्शन, प्रशिक्षित नर्स और दूसरी सुविधाएं मिलेंगी। जिन मरीजों को आईसीयू में रखे जाने की जरूरत होगी, उनके लिए भी घर पर ही आईसीयू की सुविधा मुहैया कराई जाएगी।

अच्छी बात यह है कि घर पर उपचार की सुविधा के लिए मरीज को अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा। कीमोथेरेपी इंजेक्शन की सामान्य कीमत जहां 2,000 से 10,000 के बीच है, वहीं घर पर उपचार कराने पर भी आईसीयू की सुविधा के लिए 8,000 से 10,000 रुपये तक का ही खर्च आएगा।

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ऋतुराज के स्वागत का पर्व है बसंत पंचमी

भारतीय जीवन में परिवर्तन का मनुष्य ने जिस उत्साह के साथ स्वागत किया वहीं त्योहारों के रूप में परंपरा में शामिल होता गया। बसंत पंचमी ऋतुओं के उसी सुखद परिवर्तन का स्वागत समारोह है। धार्मिक रूप से यह त्योहार हालांकि विद्या की देवी सरस्वती की पूजा से संबंधित है। संपूर्ण भारत में बड़े उल्लास बसंत पंचमी के रोज विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। बसंत पंचमी के पर्व से ही बसंत ऋतु का आगमन माना जाता है।

बसंत पंचमी का अर्थ है शुक्ल पक्ष का पांचवां दिन अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार यह पर्व जनवरी-फरवरी तथा हिन्दू तिथि के अनुसार माघ के महीने में मनाया जाता है। बसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। इस समय पंचतत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। पंचतत्व, जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखाते हैं।

दरअसल मौसम और प्रकृति में मनोहारी बदलाव होते जिसने मनुष्य को सदा से उल्लासित किया है। पेड़ों पर फूल आ जाते हैं। नई कोपलें निकल आती हैं। फलों के पेड़ों में बौर आने का संकेत मिल जाता है। इन श्रंगारिक परिवर्तनों ने कवियों को सदैव आकर्षित किया और वसंत कविता का विषय रहा। प्राय: हर भाषा के कवि ने बसंत का अपनी तरह से वर्णन किया है। 

बसंत पर्व का आरंभ बसंत पंचमी से होता है। इसी दिन श्री अर्थात विद्या की अधिष्ठात्री देवी महासरस्वती का जन्मदिन मनाया जाता है। सरस्वती ने अपने चातुर्य से देवों को राक्षसराज कुंभकर्ण से कैसे बचाया, इसकी एक मनोरम कथा वाल्मिकी रामायण के उत्तरकांड में आती है। कहते हैं देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक गोवर्ण में घोर तपस्या की। 

जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए तो देवों ने कहा कि यह राक्षस पहले से ही है, वर पाने के बाद तो और भी उन्मत्त हो जाएगा तब ब्रह्मा ने सरस्वती का स्मरण किया। सरस्वती राक्षस की जीभ पर सवार हुईं। सरस्वती के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा, 'स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम।' अर्थात मैं कई वर्षों तक सोता रहूं, यही मेरी इच्छा है।

ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार वाग्देवी सरस्वती ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्विनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की गई है। बसंत पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। अत: वागीश्वरी जयंती व श्रीपंचमी नाम से भी यह तिथि प्रसिद्ध है। 

बसंत पंचमी को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। मुख्यत: विद्यारंभ, नवीन विद्या प्राप्ति एवं गृह प्रवेश के लिए बसंत पंचमी को पुराणों में भी अत्यंत श्रेयस्कर माना गया है। बसंत पंचमी को अत्यंत शुभ मुहूर्त मानने के पीछे कई कारण हैं। यह पर्व अधिकतर माघ मास में ही पड़ता है। माघ मास का भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस माह में पवित्र तीर्थों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। दूसरे इस समय सूर्यदेव भी उत्तरायण होते हैं।

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रैलियां करने में सपा, भाजपा सबसे आगे

लोकसभा चुनाव की घोषणा में अभी भले ही तीन-चार महीने की देरी हो, मगर सर्वाधिक सीटों वाले उत्तर प्रदेश में चुनावी हलचल तेज हो गई है। बड़े राजनीतिक दलों की रैलियों से चुनावी बिगुल बजने लगा है। रैलियों की होड़ में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राज्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) सबसे आगे है। एक ओर जहां भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कई रैलियां की हैं, वहीं सपा प्रमुख ने भी अपना दम दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अभी एक ही रैली की है, पर इसमें जुटे लोगों की भीड़ ने पूर्व में आयोजित रैलियों को पीछे छोड़ दिया। प्रदेश में होने वाली रैलियों में कांग्रेस भी पीछे नहीं है, पर भीड़ के लिहाज से उसकी रैलियां अपना खास असर नहीं छोड़ पाई हैं।

सूबे में राजनीतिक हाशिए पर पड़ी भाजपा ने पिछले साल सितंबर महीने से ही रैलियों की शुरुआत कर चुकी है। मोदी की इन रैलियों को भाजपा नेतृत्व ने 'विजय शंखनाद' नाम दिया। कानपुर में मोदी की पहली रैली आयोजित की गई। रैली आयोजन स्थल के लिए प्रशासनिक अनुमति को लेकर छिड़े विवाद ने ही इस रैली के प्रचार का काम किया। मोदी की इस रैली में जुटी भीड़ ने मानो भाजपा में नई जान फूंकने का काम किया। चंद रोज बाद ही बुंदेलखंड के झांसी में मोदी ने दूसरी रैली कर विरोधी दलों को चुनावी मैदान तैयार करने को मजबूर कर दिया। 

भाजपा ने एक ओर जहां पूर्वाचल के बहराइच में चुनावी हुंकार भरी तो दूसरी ओर पश्चिम में आगरा में भी मोदी ने बदलाव की बयार बहाने का प्रयास किया। आगरा में खराब मौसम के बाद भी रैली ग्राउंड से लेकर काफी दूर तक भाजपा का रंग दिखा। इस रैली की खासियत रही कि मंच पर जिस कुर्सी पर मोदी बैठे थे, उसे खरीदने की लोगों में होड़ मच गई। मामूली कुर्सी की कीमत लाखों में पहुंच गई, मगर कुर्सी के मालिक ने इसे बेचने से इनकार कर दिया। उनसे इच्छा जताई कि जीतने के बाद मोदी एक बार आकर फिर इसी कुर्सी पर बैठें। 

भाजपा के इस आक्रामक रुख को कम करने के लिए समाजवादी पार्टी ने भी चुनावी जंग में ताल ठोंककर उतरने का फैसला लिया। कमान खुद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने संभाली। 28 अक्टूबर को पूर्वाचल के आजमगढ़ में 'देश बचाओ-देश बनाओ' रैली में भारी भीड़ जुटाकर पार्टी सपा प्रमुख ने चुनावी शंखनाद किया। 

इसके चंद रोज बाद ही मुलायम और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पश्चिम के मैनपुरी में कई विकास योजनाओं का लोकार्पण और शिलान्यास करने के साथ ही बड़ी रैली आयोजित कर जनता से संवाद बनाया। इसके बाद सपा की रैलियों का भी सिलसिला चल पड़ा। भाजपा की ताबड़तोड़ रैलियों का जवाब सपा ने निराले अंदाज में दिया। पार्टी ने उसी दिन रैली आयोजित की जिस दिन भाजपा की रैली थी। 

बरेली में मुलायम व मुख्यमंत्री अखिलेश ने 21 नवंबर को महारैली कर अपनी ताकत का अहसास कराया, वहीं ठीक उसी दिन आगरा में मोदी ने जनता को विकास का पाठ पढ़ाया। इसके चंद दिन बाद ही मुलायम सिंह यादव व मुख्यमंत्री ने बदायूं में रैली कर विपक्ष को चुनौती दी। इसके बाद सपा नेतृत्व ने मोदी का जवाब देने के लिए झांसी में रैली की। झांसी की यह रैली भीड़ के लिहाज से सपा की आजमगढ़ व बरेली की रैलियों से बड़ी थी। सपा ने एक बार फिर मोदी की गोरखपुर रैली के दिन 23 जनवरी को ही पूर्वाचल के ही दूसरे गढ़ वाराणसी में चुनावी शंखनाद किया। 

चुनावी जमीन तैयार करने के लिए यूं तो कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी ने भी कई महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में रैलियां आयोजित कीं। राहुल इन रैलियों के आयोजन के केंद्र में 'खाद्य सुरक्षा विधेयक' को रखकर जनता के बीच कांग्रेस के 'मिशन 2014' का अहसास दिलाया। कांग्रेस उपाध्यक्ष ने सबसे पहले पश्चिम के मुस्लिम इलाकों रामपुर और अलीगढ़ में रैलियां कीं। एक ही दिन में इन दोनों ही जगहों पर की गई रैलियों में कांग्रेस भाजपा व सपा के मुकाबले भीड़ जुटाने में पीछे रह गई।

इसी क्रम में एक ही दिन में बुंदेलखंड के हमीरपुर जिले के राठ और पूर्वाचल के देवरिया जिले के सलेमपुर में रैली आयोजित की गई। दोनों की जगह राहुल गांधी ने रैली की कमान संभाली, लेकिन यहां भी कांग्रेस भीड़ जुटाने में सफल नहीं रही।

प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले इस प्रदेश में भाजपा, सपा और कांग्रेस की रैलियों की आंधी के बीच बसपा ने अपने सधे हुए अंदाज में कदम रखा। लंबे इंतजार के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रैली का ऐलान किया। रैली में प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश से लोगों को बुलाया गया। लखनऊ में रैली के लिए तीन दिन पहले से ही लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। रैली के दिन खराब मौसम के बावजूद यहां जुटी भीड़ ने विपक्षी दलों की रैलियों के रिकार्ड ध्वस्त कर दिए।

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...यहाँ दलितों को खेत जोतने, नल से पानी भरने व मंदिर जाने पर लगा दी रोक!

वे दलित हैं, इसलिए उन्हें अछूत बना दिया गया है, गांव के दबंगों ने उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया। वे अपने खेत की जुताई नहीं कर सकते, नलों से पानी नहीं भर सकते और मंदिर नहीं जा सकते। विरोध करते हैं तो सबक सिखाने की धमकी दी जाती है, अब पीड़ितों ने पुलिस के दरवाजे पर दस्तक देकर मदद मांगी है। 

मामला मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले के कैथ गांव का है। यह गांव चीनौर थाना क्षेत्र में आता है। दबंगों ने यहां के एक दलित परिवार का जीना मुश्किल कर दिया है। आलम यह है कि यह परिवार अपनी मर्जी से कोई काम नहीं कर पा रहा है। परिवार का बुजुर्ग सदस्य हुकमा राम बताता है कि दबंग उसे अपनी खेती की जमीन को जोतने नहीं दे रहे हैं। वह जमीन जोतने की कोशिश करता है तो उसे धमकाया जाता है। इतना ही नहीं, उसके परिवार के सदस्य मंदिर दर्शन करने तक नहीं जा पा रहे हैं। मंदिर जाते हैं तो वहां भी उन्हें धमकाया जाता है।

परिवार की बुजुर्ग महिला पुक्खो बाई का कहना है कि उनके परिवार की महिलाएं नलों पर पानी भरने को नहीं जा पा रही हैं। इतना ही नहीं, उनसे बदसलूकी भी की जा रही है। काफी अरसे से यही हाल है, लेकिन कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा।

पीड़ित परिवार के युवा सदस्य राजाराम का कहना है कि गांव के दबंग उनकी जमीन हथियाना चाहते हैं, इसीलिए उन्हें तरह-तरह से परेशान किए जा रहे हैं। थाने की पुलिस ने भी उनकी नहीं सुनी, तब वे पुलिस अधीक्षक के पास आए हैं। पीड़ित परिवार ने थाने में जाकर शिकायत की, लेकिन बात अनसुनी कर दी गई। आखिर में वे गुरुवार को पुलिस अधीक्षक संतोष कुमार सिंह के कार्यालय में जा पहुंचे। पीड़ितों ने सिंह को आपबीती सुनाई।

पुलिस अधीक्षक ने बताया कि पीड़ितों ने उन्हें अपने साथ हो रहे बर्ताव की जानकारी दी है, उन्होंने अनुविभागीय अधिकारी पुलिस को गांव जाकर जांच कर पीड़ितों की मदद करने और दोषियों पर कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं। वैसे तो संविधान में दलितों को बराबरी का हक दिलाने का प्रावधान है, सरकार उनके सशक्तीकरण के लिए योजनाएं भी चला रही है, लेकिन हकीकत गाहे-बगाहे सामने आ ही जाती है।

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....इसलिए मौनी अमावस्या को रखते हैं मौन

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| इस दिन सृष्टि के निर्माण करने वाले मनु ऋषि का जन्म भी माना जाता है| क्या आपको पता है कि मौनी अमावस्या को मौन धारण क्यों किया जाता है?

विद्वानों के अनुसार इस दिन व्यक्ति विशेष को मौन व्रत रखना चाहिए| मौन व्रत का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखना चाहिए| धीरे-धीरे अपनी वाणी को संयत करके अपने वश में करना ही मौन व्रत है| कई लोग इस दिन से मौन व्रत रखने का प्रण करते हैं | वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि कितने समय के लिए वह मौन व्रत रखना चाहता है| 

प्रत्येक मनुष्य के अंदर तीन प्रकार का मैल होता है| कर्म का मैल, भाव का मैल तथा अज्ञान का मैल| इन तीनों मैलों को त्रिवेणी के संगम पर धोने का महत्व है| त्रिवेणी के संगम पर स्नान करने से व्यक्ति के अंदर स्थित मैल का नाश होता है और उसकी अन्तरआत्मा स्वच्छ होती है, इसलिए व्यक्ति को इस दिन मौन व्रत धारण करके ही स्नान करना चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि त्रिवेणी के संगम में मौनी अमावस्या के दिन स्नान करने से सौ हजार राजसूय यज्ञ के बराबर फल की प्राप्ति होती है अथवा इस दिन संगम में स्नान करना और अश्वमेघ यज्ञ करना दोनों के फल समान है|

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मौनी अमावस्या आज, अत्यंत पवित्र एवं फलदायी है गंगा स्नान

हिन्दू ग्रंथों में माघ मास को बेहद पवित्र माना जाता है। माघ मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है कि इसी दिन से द्वापर युग का शुभारंभ हुआ था। दुख दरिद्र और सभी को सफलता दिलाने वाली मौनी अमावस्या इस बार 30 जनवरी दिन गुरूवार को है। मान्यताओं के अनुसार इस दिन पवित्र संगम में देवताओं का निवास होता है इसलिए इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस मास को भी कार्तिक के समान पुण्य मास कहा गया है। 

मौनी अमावस्या का महत्व-

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| इस दिन सूर्य तथा चन्द्रमा गोचरवश मकर राशि में आते हैं| ऐसा माना गया है कि इस दिन सृष्टि के निर्माण करने वाले मनु ऋषि का जन्म भी माना जाता है| लोगों का यह भी मानना है कि इस दिन ब्रह्मा जी ने मनु महाराज तथा महारानी शतरुपा को प्रकट करके सृष्टि की शुरुआत की थी, इसलिए भी इस अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| 

मौनी अमावस्या में स्नान करने की विधि-

माघ मास की अमावस्या जिसे मौनी अमावस्या कहते हैं। यह योग पर आधारित महाव्रत है। इस दिन व्यक्ति विशेष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान, पुण्य तथा जाप करने चाहिए| यदि किसी व्यक्ति की सामर्थ्य त्रिवेणी के संगम अथवा अन्य किसी तीर्थ स्थान पर जाने की नहीं है तब उसे अपने घर में ही प्रात: काल उठकर दैनिक कर्मों से निवृत होकर स्नान आदि करना चाहिए अथवा घर के समीप किसी भी नदी या नहर में स्नान कर सकते हैं क्योंकि पुराणों के अनुसार इस दिन सभी नदियों का जल गंगाजल के समान हो जाता है| स्नान करते हुए मौन धारण करें और जाप करने तक मौन व्रत का पालन करें| इस दिन व्यक्ति प्रण करें कि वह झूठ, छल-कपट आदि की बातें नहीं करेगें| 

मौनी अमावस्या की कथा-

प्राचीन समय में कांचीपुरी में देवस्वामी नाम का ब्राह्मण रहता था| उसकी पत्नी का नाम धनवती था| देवस्वामी की आठ संताने थी| सात पुत्र और एक पुत्री थी| उसकी पुत्री का नाम गुणवती था| ब्राह्मण ने अपने सातों पुत्र के विवाह के बाद अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश में अपने सबसे बडे़ पुत्र को भेजा| उसी दौरान किसी ज्योतिषी ने कन्या की कुण्डली देखकर कहा कि विवाह समाप्त होते ही वह विधवा हो जाएगी| इससे देवस्वामी तथा अन्य सदस्य चिन्तित हो गये| देवस्वामी ने गुणवती के वैधव्य दोष के निवारण के बारे में ज्योतिषी से पूछा तब उसने कहा कि सिंहल द्वीप में सोमा नाम की धोबिन रहती है| सोमा का पूजन करने से गुणवती के वैधव्य दोष का निवारण हो सकता है| आप किसी भी प्रकार सोमा को विवाह होने से पहले यहाँ बुला लें| यह सुनने के पश्चात गुणवती और उसका सबसे छोटा भाई सिंहल द्वीप की ओर चल दिए| सिंहल द्वीप सागर के मध्य स्थित था| दोनों बहन-भाई सागर तट पर एक वृक्ष के नीचे सागर को पार करने की प्रतीक्षा में बैठ गए| दोनों को सागर पार करने की चिन्ता थी| उसी वृक्ष के ऊपर एक गिद्ध ने अपना घोंसला बना रखा था| उस घोंसले में गिद्ध के बच्चे रहते थे| जब शाम को गिद्ध अपनी पत्नी के साथ घोंसलें में लौटा तब उसके बच्चों ने बताया कि इस वृक्ष के नीचे बहन-भाई सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं| जब तक वह दोनों खाना नहीं खाएंगें, हम भी भोजन ग्रहण नहीं करेगें|

गिद्ध ने दोनों बहन-भाइयों को भोजन कराया तथा उनके वहाँ आने का कारण पूछा तब उन्होंने सारा वृतांत सुनाया| सारी बातें जानने के बाद गिद्ध ने उन्हें सिंहल द्वीप पर पहुंचाने का अश्वासन दिया| अगले दिन सुबह ही गिद्ध ने दोनों को सिंहल द्वीप पहुंचा दिया| सिंहल द्वीप पर आने के बाद दोनों बहन-भाइयों ने सोमा धोबिन के घर का काम करना शुरु कर दिया| सारे घर की साफ सफाई तथा घर के अन्य कार्य दोनों बहन-भाई बहुत ही सफाई से करने लगे| सुबह सोमा जब उठती तब उसे हैरानी होती कि कौन यह सब कम कर रहा है| सोमा ने अपनी पुत्रवधु से पूछा तब उसने बडे़ ही चतुराई से कहा कि हम करते हैं और कौन करेगा| सोमा को अपनी बहु की बातों पर विश्वास नहीं हुआ और उसने उस रात जागने का निर्णय किया| तब सोमा ने देखा कि गुणवती अपने छोटे भाई के साथ सोमा के घर का सारा कार्य निबटा रही है| सोमा उन दोनों से बहुत प्रसन्न हुई और उनके ऎसा करने का कारण पूछा तब उन्होंने गुणवती के विवाह तथा उसके वैधव्य की बात बताई|

सोमा ने गुणवती को आशीर्वाद दिया, लेकिन दोनों बहन-भाई सोमा से अपने साथ विवाह में चलने की जिद करने लगे| सोमा उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गई और अपनी पुत्रवधु से कहा कि यदि परिवार में किसी कि मृत्यु हो जाती है तब उसका अंतिम संस्कार ना करें, मेरे घर आने की प्रतीक्षा करें| गुणवती का विवाह होने लगा| विवाह समाप्त होते ही गुणवती के पति का देहांत हो गया| सोमा ने अपने अच्छे कर्मों के बल पर गुणवती के मरे हुए पति को अपने आशीर्वाद से दोबारा जीवित कर दिया, लेकिन ऎसा करने पर सोमा के सभी अच्छे कर्म समाप्त हो गये और सिंहल द्वीप पर रहने वाले उसके परिवार के सदस्यों का देहान्त हो गया| 

सोमा ने वापस अपने घर जाते हुए रास्ते में ही अपने संचित कर्मों को फिर से एकत्रित करने की बात सोची और रास्ते में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा की और पीपल के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की| ऎसा करने पर उसके परिवार के मृतक सदस्य दोबारा जीवित हो गये, सोमा को उसके नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल मिल गया|

अहिंसा के पुजारी को हिंसक श्रद्धांजलि!

गांधी बलिदान दिवस, 30 जनवरी पर एक बार फिर देश अपने शहीदों को याद करेगा। इस दिन होने वाले ढेर सारे कार्यक्रमों का केंद्र बनता है राजघाट। यहां राष्ट्रपति महोदय ठीक 10 बजकर 58 मिनट पर गांधी समाधि पर एक विशेष फूल माला चढ़ाते हैं। फिर सेना के तीनों अंगों की तीन टुकड़ियां अपने हथियारों को उलटा करती हैं। 

सेना के बिगुलवादक अपने बिगुल पर 'लॉस्ट पोस्ट' नामक धुन बजाकर पूरे देश में दो मिनट का मौन प्रारंभ होने का संकेत देते हैं। सेना की तोप इस मौन की सूचना गोला दागकर देती है। और सब जगह तो शायद नहीं, पर गांधी समाधि पर तो सब कुछ थम जाता है। बस थमती नहीं है गुलामी की जंजीरों की तेज खनखनाहट। इन जंजीरों को हम इतने सारे वर्षो की आजादी के बाद भी हटाना नहीं चाहते। 

गुलामी की ये जंजीरें बहुत ही भव्य जो हैं! हमारे इस शहीद दिवस की रस्म का हर अंग, एक-एक हिस्सा ब्रितानी सैनिक प्रतीकों से भरा पड़ा है। आजादी की लड़ाई में शहीद हुए लोगों के सपनों से ये प्रतीक बिलकुल मेल नहीं खाते। वे लोग जिनके विरुद्ध लड़े थे, उनकी, अंग्रेजों की सैन्य परंपरा की भव्यता का ही बखान करते हैं ये प्रतीक। 

यह घिनौना काम और कहीं भी होता तो चल जाता, पर यह तो होता है गांधी समाधि पर। उसकी समाधि पर जिसका हथियारों, बंदूकों, सेना और ब्रितानी रीति-रिवाज, तौर-तरीकों से कोई भी संबंध नहीं था। 
दुनिया भर में अहिंसा का प्रतीक बन गई इस समाधि, राजघाट पर हमारी सेना के तीनों अंगों से चुनकर बनाई गई तीन टुकड़ियों का प्रवेश होता है। सारे श्रद्धालु इस जगह जूते उतार कर आते हैं, पर इस दिन तीनों टुकड़ियों के सैनिक अपने चमकाए गए शानदार जूतों के साथ यहां प्रवेश करते हैं। इसके बाद का सारा समारोह ब्रितानी सेना की उन विशिष्ट परंपराओं से मंडित होता है, जो उनके हिसाब से ठीक ही रही होंगी। 

लेकिन बीच में अचानक गांधीजी का प्रिय भजन 'रघुपति राघव राजा राम' भी सुनाई दे जाए तो चौंक मत पड़िए। यह इस भव्य माने गए कार्यक्रम का मूल हिस्सा नहीं था। बहुत बाद में और शायद बहुत बेमन से इसे उस कार्यक्रम का हिस्सा बनाया गया था। 

गांधीजी के प्रिय भजन गाए जाने लगते हैं। राष्ट्रपति महोदय के आने की सूचना मिलती है। उनका प्रवेश होता है समाधि पर तो भजन गायन का स्वर धीमा पड़ने लगता है। भजन पूरा होना भी जरूरी नहीं है। बस यह तो राष्ट्रपति के आगमन तक समय बिताने, वक्त काटने का एक सुंदर तरीका बना लिया गया है। अब राष्ट्रपति पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। यह श्रद्धासुमन देसी या गंवारू ढंग से अर्पित नहीं किए जाते। यूरोप में, इंग्लैंड में जिसे 'रीथ' कहा जाता है, उसे यहां अपनाया गया है शुरू से ही। एक बड़े गोल आकार में सजे फूलों की माला। प्राय: यह टायरों पर ताजे फूलों को सजाकर बनाई जाती है। फिर बजता है बिगुल। 'लॉस्ट पोस्ट' की धुन।

इसी शोक धुन से ब्रितानी फौज अपने शहीदों को याद करती आ रही है। इसके बाद प्रारंभ होता है दो मिनिट का मौन। यह मौन श्रद्धांजलि भी हमारी परंपरा का अंश नहीं है। और न ग्यारह बजे का समय भी। ऐसा बताया जाता है कि प्रथम महायुद्ध के बाद सन् 1918 को ठीक ग्यारह बजे युद्ध विराम संधि पर दस्तखत हुए थे। शहीद दिवस के आयोजन में इसी समय को चुन लिया गया है।

शहीदों की याद में दो मिनिट के मौन में अपनी गुलामी की जंजीरों को जोर-जोर से बजाने वाला यह समारोह सन् 1953 से शुरू हुआ था। इससे पहले गांधी समाधि पर 30 जनवरी को चार बार यह शहीद दिवस बहुत ही सादगी से, पर बहुत ही श्रद्धा से मनाया गया था। 

उन दिनों समाधि भी बहुत ही सीधी-सादी थी। न तो आज की तरह उस पर काला संगमरमर मढ़ा गया था और न चौबीस घंटे गैस बर्बाद करने वाली 'अमर ज्योति' वहां जला करती थी। सन् 1951 में संसद ने 'राजघाट समाधि अधिनियम' पारित किया था। समाधि की देखभाल, रख-रखाव के लिए तब के आवास मंत्रालय (अब शहरी विकास) के अंतर्गत एक समिति का गठन किया गया था। बस इसी के बाद शुरू हुआ था यह भव्य समारोह जो तब से आज तक बराबर दुहराया जाता है। 

इस समिति के अध्यक्ष प्राय: कोई वरिष्ठ गांधीवादी रखे जाते हैं पर बाकी काम अपने ढंग से होता रहता है। सन् 1970 में पहली बार संसद के तीस सदस्यों ने आचार्य कृपालानी, मधु लिमये और समर गुहा के नेतृत्व में इस शहीद दिवस समारोह में भरी पड़ी ब्रितानी रस्मों का विरोध किया था और सार्वजनिक रूप से बयान आदि देकर इसकी निंदा की थी। राजघाट समिति के कुछ सदस्यों ने भी इसमें उनका साथ दिया था।

ऐसा नहीं था कि सरकार ने इतने बड़े और इतनी बड़ी संख्या में आगे आए संसद सदस्यों की बात को गंभीरता से नहीं लिया था। पर तब 30 जनवरी आने ही वाली थी। सरकार ने अपनी मजबूरी बताई। कहा कि इतना कम वक्त बचा है, इसमें तो कोई बुनियादी बदलाव नहीं लाया जा सकेगा। संसद सदस्य भी उदार हृदय वाले थे। धीरज वाले थे।

इस तरह सन् 1971 का समारोह ज्यों का त्यों मनाया गया। उसके बाद अगले साल भी यह काम हो नहीं पाया। तब तो सरकार के पास वक्त की कोई कमी नहीं थी, इच्छा की कमी जरूर रही होगी। इसलिए 1972 के समारोह में भी समारोह का मूल रूप, ब्रितानी परंपरा ज्यों की त्यों रही। बस गांधीजी के कुछ प्रिय भजन जरूर जोड़ दिए गए थे। वह भी ऐसी जगह, जिससे मूल कार्यक्रम पर भजनों की उपस्थिति पता न चल पाए। 

तब रक्षामंत्री से इस बारे में पूछा गया था कि यह सब बदल क्यों नहीं पा रहा? उनका उत्तर था : 'सरकार ने सभी विरोधी दलों की राय ले ली है।' यानी कम से कम ब्रितानी नकल के मामले मंे हमारे सत्तारूढ़ दल और विरोधी दलों में दूरी घट चली थी। सन् 1973 से लेकर 1976 तक सत्तारूढ़ दल और विरोधी दल और भी जरूरी कामों में व्यस्त रहे होंगे। तब आ गया 1977। विरोधी दल ही सत्ता में आ गया। कुछ को लगा था कि अब तो यह समारोह बदल ही जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। अब कब होगा?

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अदरक एक, फायदे अनेक

साधारण सी दिखने आने वाली अदरक अगर थोड़ी सी भी चाय में डाल दी जाए तो स्वाद को दोगुना कर देती है| औषधीय गुणों से भरपूर अदरक महज सर्दी जुकाम खांसी की नहीं है, बल्कि कई बीमारियों की बेमिसाल दवा भी है| इसका आयुर्वेद में भी खूब जिक्र किया गया है| आयुर्वेद में अदरक को रूचिकारक, पाचक, स्निग्ध, उष्ण वीर्य, कफ तथा वातनाशक, कटु रस युक्त विपाक में मधुर, मलबंध दूर करने वाली, गले के लिए लाभकारी, श्वास, शूल, वमन, खांसी, हृदय रोग, बवासीर, तीक्ष्ण अफारा पेट की वायु, अग्निदीपक, रूक्ष तथा कफ को नष्ट करने वाली बताया गया है।

अदरक में शरीर के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व मौजूद होते हैं| ताजा अदरक में 81% पानी, 2.5% प्रोटीन, 1% वसा, 2.5% रेशे और 13% कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है| इसके अलावा अदरक में आयरन, कैल्शियम, आयोडीन, क्लो‍रीन और विटामिन के साथ कई पोषक तत्व मौजूद होते हैं. इतना ही नहीं, ये कई बीमारियों से भी लड़ती है, जैसे कि:

जुकाम में चाय में अदरक के साथ तुलसी के पत्ते तथा एक चुटकी नमक डालकर गुनगुनी अवस्था में पीने से लाभ मिलता है। गले में खराश होने या खांसी होने पर ताजा अदरक के टुकड़े को नमक लगाकर चूसने से आराम मिलता है। बुखार, फ्लू आदि में अदरक तथा सौंफ के रस में शहद मिलाकर सेवन करने से शीघ्र पसीना आकर बुखार उतर जाता है। ऐसे में अदरक की चाय भी फायदेमंद होती है। गला पकने या इन्फ्लुएंजा होने पर पानी में अदरक का रस तथा नमक मिलाकर गरारे करने से शीघ्र लाभ मिलता है।

पेट संबंधी समस्याओं के निदान में भी अदरक बहुत लाभदायक सिद्ध होता है। अफारे और अजीर्ण में सोंठ का चूर्ण, अजवायन, इलायची का चूर्ण लेकर मिलाकर पीस कर रख लें। दिन में प्रत्येक भोजन के बाद इसका सेवन करें। बच्चों के पेट में दर्द की शिकायत होने पर अदरक का रस दूध में मिलाकर पिलाना चाहिए इससे गैस तथा अफारे की समस्या दूर हो जाती है। सोंठ और गुड़ की बनी गोलियों के नियमित सेवन से, आंव आने की समस्या का समाधान हो जाता है। आमाजीर्ण में भी सोंठ और गुड मिलाकर सेवन करना चाहिए इससे पाचक अग्नि ठीक हो जाती है। गजपिप्पली और सोंठ के चूर्ण का दूध के साथ सेवन पेट के विकारों के लिए एक आदर्श औषधि है।

अदरक को जलाकर उसकी राख बारीक पीसकर रख ले। यह राख नेत्रांजन करने से नेत्रों में ढलका जाना, जाला पड़ना आदि रोग दूर हो जाते है। यदि किसी को आधासीसी का दर्द है तो रोगी व्यक्ति को चारपाई पर कुछ नीचा सिर करके सीधा लिटा दे। उसके बाद जिधर के हिस्से में दर्द हो उधर नासाछिद्र में अदरक का रस, मधु व जल समान मात्रा में मिलाकर 2-3 बूदे टपकाये। 3-4 बार ऐसा करने से लाभ हो जायेगा, दवा मस्तिष्क में अवश्य पहुच जानी चाहिए। 

भूख बढ़ाने तथा भोजन के प्रति रूचि पैदा करने के लिए भोजन से पहले थोड़ा सा अदरक या सोंठ का चूर्ण नमक मिलाकर खाना चाहिए। इससे पाचन शक्ति बढ़ती है और कब्ज का निदान होता है। छोटों या बड़ों को यदि खालिस दूध न पचने की शिकायत हो तो दूध में सोंठ की गांठ उबालकर या सोंठ का चूर्ण बुरकाकर सेवन करना चाहिए। 48 ग्राम सोंठ, 200 ग्राम तिल तथा 120 ग्राम गुड़ को मिलाकर कूट लें। इस मिश्रण की 12 ग्राम मात्रा का सेवन रोज करने से वायुगोला शांत होता है। पेट की ऐंठन तथा योनि शूल का दूर करने के लिए यह एक कारगर औषधि है। खाली पेट अधिक पानी पीने से हुए पेटदर्द को दूर करने लिए सोंठ के चूर्ण का गुड़ के साथ सेवन करना चाहिए।

अदरक पीसकर गर्म कर ले। इसकी दर्द वाले स्थान पर लगभग आधा इंच (मोटाई) लेप करके पट्टी बाधे लगभग 2 घन्टे पश्चात लेप को हटाये व सरसों का तेल लगाकर सेक लें। इस प्रक्रिया को लाभ हाने पर प्रतिदिन करे। अदरक के रस में कपड़ा भिगो-भिगोकर नाभि पर प्रति 15 मिनट बाद बदलते हुए रखें। अतिसार रूक जाता है और नाभि यथास्थान बैठ जाती है। सिर में दर्द या शरीर के जोड़ों (संधि स्थलो) में किसी भी कारण से पीड़ा होने पर अदरक के रस में सेंधानमक या हिगं मिलाकर मालिश करनी चाहिऐ। 

मोच आ जाए तो अदरक का लेप लगाकर रखा जाए, जब लेप सूख जाए तो इसे साफ करके गुनगुने सरसों के तेल से मालिश करनी चाहिए, दिन में दो बार दो दिनों तक किया जाए, मोच का असर खत्म हो जाता है| दांतों में दर्द होते समय अदरक के छोटे टुकड़े दांतों के बीच में दबाकर रखने से दांतों में होने वाला दर्द खत्म हो जाता है, सूखे अदरक या सोंठ के चूर्ण में थोड़ा सा लौंग का तेल मिलाकर दांतों पर लगाया जाए तो दर्द छूमंतर हो जाता है| 

संग्रहणी रोग में भी अदरक खासा फायदेमंद होता है। संग्रहणी में आम विकार के निदान के लिए सोंठ, मोथा और अतीस का काढ़ा बनाकर रोगी को देना चाहिए। इसके अतिरिक्त मसूर के सूप के साथ सोंठ और कच्चे बेल की गिरी के कल्क का सेवन करने से भी लाभ होता है। ज्वरातिसार एवं शोथयुक्त ग्रहणी रोग मंे प्रतिदिन सोंठ के एक ग्राम चूर्ण का दशमूल के काढ़े के साथ सेवन करना चाहिए। उल्टी होने पर अदरक के रस में पुदीने का रस, नींबू का रस एवं शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। उल्टियां रोकने के लिए अदरक के रस में, तुलसी के पत्तों का रस, मोरपंख की राख तथा शहद मिलाकर सेवन करने से शीघ्र लाभ होता है।

तीव्र प्यास को शांत करने के लिए अदरक के रस और शुंठी बीयर में आधा पानी मिलाकर पिलाने से रोगी का प्यास जल्दी शांत हो जाती है। डायरिया के रोगी के यदि हाथ−पैर ठंडे पड़ गए हों तो सोंठ के चूर्ण में देशी घी मिलाकर मलना चाहिए इससे खून की गति बढ़ जाती है। महिलाओं में गर्भपात रोकने के लिए सोंठ, मुलहठी और देवदारू का दूध के साथ सेवन करना चाहिए। इससे गर्भ पुष्ट होता है। बच्चों के पेट में यदि कीडे़ हों तो उन्हें अदरक के रस की एक−एक चम्मच मात्रा दिन में दो बार नियमित रूप से देनी चाहिए। अदरक का कोसा रस कान में डालने पर कान का दर्द ठीक हो जाता है।

आमवात तथा कटिशूल में एक ग्राम सोंठ तथा तीन ग्राम गोखरू के काढ़े का प्रातरूकाल सेवन करना चहिए। फीलपांव के रोगी के लिए भी सोंठ का काढ़ा लाभदायक होता है। सबसे आम समस्या सिरदर्द में तुरन्त फायदे के लिए आधा चम्मच सोंठ पाउडर को एक कप पानी में घोलकर पिएं।

अदरक त्वचा को आकर्षक व चमकदार बनाने में मदद करता है। सुबह ख़ाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी के साथ अदरक का एक टुकड़ा खाएं। इससे न केवल आपकी त्वचा में निखार आएगा बल्कि आप लंबे समय तक जवान दिखेंगे। बहुत कम लोग जानते हैं कि अदरक एक प्राकृतिक दर्द निवारक है, इसलिए इसे आर्थराइटिस और दूसरी बीमारियों में उपचार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। अदरक दर्द भगाने की सबसे कारगर दवा है। 'फूड्स दैट फाइट पेन' पुस्तक के लेखक आर्थर नील बर्नार्ड के मुताबिक अदरक में दर्द मिटाने के प्राकृतिक गुण पाए जाते हैं। यह बिना किसी दुष्प्रभाव के दर्दनिवारक दवा की तरह काम करता है। अदरक का अर्क मांसपेशियों की सूजन और दर्द कम कर देता है। और मांसपेशियों में दर्द, गठिया, सिर दर्द, माइग्रेन आदि अदरक का तेल की मालिश या अदरक का पेस्ट दर्द को कम कर के मांसपेशियों के दर्द और तनाव को कम करने में सहायक होता है।

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मैहर के शारदा मंदिर पर संकट के बादल

मध्य प्रदेश के सतना जिले के मैहर में स्थित प्रसिद्ध शारदा देवी मंदिर पर जल भराव, अंधाधुंध निर्माण और बढ़ते यातायात के दवाब के कारण संकट के बादल मंडराने लगे हैं। यह खुलासा हुआ है सूचना के अधिकार के तहत हासिल की गई जानकारी से ।  विंध्यांचल पर्वत श्रंखला की ऊंची पहाड़ी पर स्थित यह ऐसा ऐतिहासिक मंदिर है, जहां हर वर्ष 50 लाख से ज्यादा श्रद्धालु दर्शन को आते हैं। मान्यता है कि यहां की गई कामना पूरी होती है। यहां आने वालों में राज्य और राज्य के बाहर के श्रद्धालु भी शामिल हैं। 

ऐतिहासिक मंदिर संकट के दौर से गुजर रहा है, क्योंकि पहाड़ी पर स्थित मंदिर का सुरक्षा कवच जंगल लगातार कम हो रहा है, वहीं निर्माण कार्यों के चलते पहाड़ी पर वजन बढ़ रहा है। इतना ही नहीं मिट्टी का क्षरण होने के साथ पानी का भराव भी होता है। ये स्थितियां केंद्रीय भवन शोध संस्थान(सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीटयूट) रुड़की ने एक अध्ययन के दौरान 1993 में पाई थी।

रुड़की के शोध संस्थान द्वारा किया गया अध्ययन उन लाखों श्रद्धालुओं की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है जो हर वर्ष यहां माता के दर्शन करने आते हैं। इस अध्ययन के तथ्य सूचना के अधिकार के जरिए सामने आए हैं। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी हासिल करने वाले अधिवक्ता नित्यानंद मिश्रा का कहना है कि शारदा माता मंदिर पर गहराए संकट का खुलासा रुड़की के अध्ययन से हुआ है। वह बताते हैं कि इस अध्ययन मंे कहा गया है कि पहाड़ी पर कई स्थानों पर ढाल बन गए हैं और कई स्थानों पर मिट्टी भी धंस रही है। पहाड़ी की ढलान पर लगे कुछ पेड़ों का झुकना भी इस बात का संकेत है कि कुछ हलचल है। 

अध्ययन यह भी कहता है कि निर्माण कार्यों के दौरान लोक निर्माण विभाग की राय को भी नजर अंदाज किया गया है। इनता ही नहीं मंदिर के आसपास जो निर्माण किए गए हैं, उनमे भी दरारें उभरी हैं। जो चटटानों के खिसकने का संकेत है। 

माता का मंदिर विंध्य पर्वत श्रृंखला की पहाड़ी पर लगभग 646 फुट की उंचाई पर स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए घुमावदार चार किलोमीटर लम्बी सड़क बनाई गई है और सीढ़ियां भी हैं। यहां महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मंदिर प्रबंधक समिति (एसपीएस) ने ही यह अध्ययन कराया था, मगर इससे कोई सीख नहीं ली गई है। साथ ही कोई एहतियाती कदम भी नहीं उठाए गए हैं। 

मिश्रा का कहना है कि रुड़की के अध्ययन के नतीजों से कोई सीख लेकर सुरक्षा के इंतजाम करना तो दूर नए निर्माण कार्यों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। उनका कहना है कि एक तरफ पहाड़ी में बढ़ता मिट्टी का क्षरण व अन्य स्थितियां अंदेशे का आभास करा रही हैं तो दूसरी ओर मंदिर की पहाड़ी से पांच से 10 किलो मीटर की परिधि में जारी खनन भी खतरा बना हुआ है। 

अध्ययन के निष्कर्षो को राज्य सरकार भी नजरअंदाज कर रही है। मंदिर प्रबंधन समिति और राज्य सरकार के रवैए से निराश अधिवक्ता मिश्रा ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय जाने का मन बनाया है। मंदिर के प्रशासक के. बी. एस. चौधरी पहाड़ी के ऊपरी हिस्से पर अतिरिक्त निर्माण कार्य कराए जाने से इंकार करते हैं। उनका कहना है कि पहाड़ी के ऊपरी हिस्से पर मंदिर के अलावा कोई निर्माण कार्य नहीं हुआ है। साथ ही उनका कहना है कि यह रिपोर्ट पुरानी है और जल निकासी के प्रबंध किए गए हैं, लिहाजा मंदिर को कोई खतरा नहीं है। 

दूसरी ओर सूत्रों का कहना है कि प्रशासन की ओर से मंदिर क्षेत्र में अतिक्रमण कर बनाई गई कई दुकानों के संचालकों को नोटिस जारी किए गए हैं।

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शंख की इन खूबियों के बारे में जानकर दंग रह जायेंगे आप

भारतीय संस्कृति में शंख को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। पुराणों के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप माना गया है| कहते हैं शंख के मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 

शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है। भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। उससे निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।

अगहन मास में शंख पूजा से सभी मनोवांछित फल प्राप्त हो जाते हैं। शंख को देवता का प्रतीक मानकर पूजा जाता है एवं इसके माध्यम से अभीष्ट की प्राप्ति की जाती है। शंख की विशिष्ट पूजन पद्धति एवं साधना का विधान भी है। पंचजन्य की पूजा भी भगवान श्री हरि की आराधना के समान ही पुण्य देने वाली मानी गई है। विधि-विधान से इस माह शंख की पूजा की जानी चाहिए। जिस प्रकार सभी देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, वैसे ही शंख का भी पूजन करें। वास्तु में भी शंख के बारे में गुणगान किया गया है| ज्योतिष बताते हैं कि शंख में ऐसी खूबियां है जो वास्तु संबंधी कई समस्याओं को दूर करके घर में सकारात्मक उर्जा को आकर्षित करता है जिससे घर में खुशहाली आती है। शंख की ध्वनि जहां तक पहुंचती हैं वहां तक की वायु शुद्ध और उर्जावान हो जाती है। वास्तु विज्ञान के अनुसार सोयी हुई भूमि भी नियमित शंखनाद से जग जाती है। भूमि के जागृत होने से रोग और कष्ट में कमी आती है तथा घर में रहने वाले लोग उन्नति की ओर बढते रहते हैं। भगवान की पूजा में शंख बजाने के पीछे भी यह उद्देश्य होता है कि आस-पास का वातावरण शुद्ध पवित्र रहे।

शंख कई प्रकार के होते हैं और सभी प्रकारों की विशेषता एवं पूजन-पद्धति भिन्न-भिन्न है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं। शंख की आकृति के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं - दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है, वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है। जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है, वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बायें हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं। हिन्दुओं के 33 करोड़ देवता हैं। सबके अपने- अपने शंख हैं। देव-असुर संग्राम में अनेक तरह के शंख निकले, इनमे कई सिर्फ़ पूजन के लिए होते है।

शंख का धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक भी महत्व है| तो आइये जानते हैं क्या है इसका वैज्ञानिक महत्त्व- 

अगर आपको खांसी, दमा, पीलिया, ब्लडप्रेशर या दिल से संबंधित मामूली से लेकर गंभीर बीमारी है तो इससे छुटकारा पाने का एक सरल-सा उपाय है - शंख बजाइए और रोगों से छुटकारा पाइए। शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का नाश हो जाता है। 

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।

शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि होती है। शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है। प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते। शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है। शंख बजाने से चेहरे, श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है। शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।

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नेता जी सुभाषचन्द्र बोस की जयंती पर विशेष.......

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं, जिन्हें आज भी लोग दिल से याद करते हैं| सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था, लेकिन बोस की मृत्यु को लेकर आजतक असमंजस्य बना हुआ है| 

भाई से था सबसे ज्यादा लगाव

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था| बोस के पिता कटक शहर के मशहूर वकील थे| बोस के पिता ने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और वह बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे| अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें 'रायबहादुर' का खिताब दिया था| प्रभावती और जानकीनाथ बोस की 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे| सुभाषचंद्र उनकी 9वीं संतान थे| अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था| सुभाष, शरदचंद्र को मेजदा कहकर बुलाते थे| दोनों भाइयों में बहुत लगाव था| दोनों हमेशा एक-दूसरे के साथ रहते थे| 

गांधीजी से पहली मुलाकात

सुभाषचन्द्र बोस कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्यों से प्रेरित थे| वह सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे अतः उन्होंने इंग्लैंड से उन्हें पत्र लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की| 

रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के मुताबिक भारत वापस आने पर वह सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गाँधी से मुलाकात की| उस समय गाँधी जी मुम्बई के मणिभवन में निवास करते थे| वहाँ, 20 जुलाई, 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई| गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी| इसके बाद बोस ने दासबाबू से भेट की| 

स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश

उन दिनों गाँधीजी, अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ 'असहयोग आंदोलन' कर रहे थे| वहीँ दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे| उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए| वर्ष 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत 'स्वराज पार्टी' की नींव रखी| दासबाबू ने बोस को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया| बोस ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल कर रख दिया| कोलकाता में जो रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिया| जिन लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राण न्यौछावर किये थे उस लोगों के परिजाओं को महापालिका में नौकरी मिलने लगी|

नेहरू के साथ शुरू की इंडिपेंडन्स लिग

अपने कार्य से बोस बहुत ही जल्द एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए| पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ बोस ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की 'इंडिपेंडन्स लिग' शुरू की| वर्ष 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए| कोलकाता में बोस ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था| साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा| पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और बोस उसके एक सदस्य थे| 

नहीं बचा सके भगत सिंह को

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर बोस ने एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व किया| इस दौरान पुलिस ने उन पर लाठी चलायी, जिससे वह घायल हो गए| जब बोस जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा किया गया, लेकिन अंग्रेजों ने सरदार भगत सिंह को रिहा करने से इनकार कर दिया| यही नहीं भगत सिंह की फांसी माफ़ कराने के लिए गाँधीजी ने सरकार से बात भी की, लेकिन वह नहीं माने| बोस चाहते थे कि गाँधीजी, अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड दें, लेकिन गांधीजी इसके लिए राजी नहीं हुए| अंग्रेज सरकार भी अडी रही इसके चलते भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई| 

अपने सार्वजनिक जीवन में बोस को कुल 11 बार जेल जाना पड़ा| सबसे पहले उन्हें 1921 में छह महीन एके लिए जेल जाना पड़ा| 

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद बोस को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था| उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया| 18 अगस्त1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की ओर जा रहे थे कि अचानक रास्ते में उनका जहाज लापता हो गया| उस दिन के बाद आज तक बोस का कोई आता-पता नहीं है| उन्हें आज तक कोई खोज नहीं सका|

बचपन से ही थे सुभाष-

नेता जी के घर के सामने एक बूढ़ी भिखारिन रहती थी। वे देखते थे कि वह हमेशा भीख मांगती थी और दर्द साफ दिखाई देता था। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उसका दिल दहल जाता था। भिखारिन से मेरी हालत कितनी अच्‍छी है यह सोचकर वे स्वयं शर्म महसूस करते थे। 

उन्हें यह देखकर बहुत कष्ट होता था कि उसे दो समय की रोटी भी नसीब नहीं होती। बरसात, तूफान, कड़ी धूप और ठंड से वह अपनी रक्षा नहीं कर पाती। यदि हमारे समाज में एक भी व्यक्ति ऐसा है कि वह अपनी आवश्यकता को पूरा नहीं सकता तो मुझे सुखी जीवन जीने का क्या अधिकार है और उन्होंने ठान लिया कि केवल सोचने से कुछ नहीं होगा, कोई ठोस कदम उठाना ही होगा। 

सुभाष के घर से उसके कॉलेज की दूरी 3 किलोमीटर थी। जो पैसे उन्हें खर्च के लिए मिलते थे उनमें उनका बस का किराया भी शामिल था। उस बुढ़िया की मदद हो सके, इसीलिए वह पैदल कॉलेज जाने लगे और किराए के बचे हुए पैसे वह बुढ़िया को देने लगे।

सुभाष जब विद्यालय जाया करते थे तो मां उन्हें खाने के लिए भोजन दिया करती थी। विद्यालय के पास ही एक बूढ़ी महिला रहती थी। वह इतनी असहाय थी कि अपने लिए भोजन तक नहीं बना सकती थी। प्रतिदिन सुभाष अपने भोजन में से आधा भोजन उस बुढ़िया को दिया करते थे। एक दिन सुभाष ने देखा कि वह बुढ़िया बहुत बीमार है। सुभाष ने 10 दिन तक उस बुढ़िया की मन से सेवा की और वह बुढ़िया ठीक हो गई। ऐसे थे अपने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस