तुलसी दूर करेगी शादी, संतान और नौकरी की समस्याएं, जानिए कैसे

धर्मग्रंथों के अनुसार जिस घर में तुलसी का पौधा होता है वहां रोग, दोष या क्लेश नहीं होता वहां हमेशा सुख-समृद्धि का वास होता है। इसीलिए प्रतिदिन तुलसी के पौधे की पूजा करने का भी विधान है। प्राचीन काल से ही यह परंपरा चली आ रही है कि घर में तुलसी का पौधा होना चाहिए। शास्त्रों में तुलसी को पूजनीय, पवित्र और देवी स्वरूप माना गया है, इस कारण घर में तुलसी हो तो कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। यदि ये बातें ध्यान रखी जाती हैं तो सभी देवी-देवताओं की विशेष कृपा हमारे घर पर बनी रहती है। घर में सकारात्मक और सुखद वातावरण बना रहता है, पैसों की कमी नहीं आती है और परिवार के सदस्यों को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। 

हर रोज तुलसी पूजन करना चाहिए के साथ ही यहां बताई जा रही सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। साथ ही, हर शाम तुलसी के पास दीपक लगाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि जो लोग शाम के समय तुलसी के पास दीपक लगाते हैं, उनके घर में महालक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है। तुलसी घर-आंगन में होने से कई प्रकार के वास्तु दोष भी समाप्त हो जाते हैं और परिवार की आर्थिक स्थिति पर शुभ असर होता है। 

तुलसी का पौधा किचन के पास रखने से घर के सदस्यों में आपसी सामंजस्य बढ़ता है। पूर्व दिशा में यदि खिड़की के पास रखा जाए तो आपकी संतान आपका कहना मानने लगेगी। अगर संतान बहुत ज्यादा जिद्दी और अपनी मर्यादा से बाहर है तो पूर्व दिशा में रखे तुलसी के पौधे के तीन पत्ते रोज उसे किसी ना किसी तरह खिला दें। यदि आपकी कन्या का विवाह नहीं हो रहा हो तो तुलसी के पौधे को दक्षिण-पूर्व में रखकर उसे नियमित रूप से जल अर्पण करें। इस उपाय से जल्द ही योग्य वर की प्राप्ति होगी। यदि आपका कारोबार ठीक से नहीं चल रहा है तो तुलसी के पौधे को नैऋत्य कोण में रखकर हर शुक्रवार को कच्चा दूध चढ़ाएं।

आपको बता दें कि कैसे हुई तुलसी की उत्पत्ति? देव और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मदेव ने उसे भगवान विष्णु को सौंपा। भगवान विष्णु, योगेश्वर कृष्ण और पांडुरंग (श्री बालाजी) की पूजन के समय तुलसी का हार उनकी प्रतिमाओं को अर्पण किया जाता है। तुलसी का रोजाना दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है और पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन आदि पूजन करने से पुण्य मिलता है।


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हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की 110वीं जयंती पर विशेष...

दुनिया भर में 'हॉकी के जादूगर' के नाम से मशहूर भारत के महान व कालजयी हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद की आज 110वीं जयंती है। 29 अगस्त 1905 को जन्मे ध्यानचंद को सम्मान देने के लिए भारत में हर वर्ष इस तारीख को 'राष्ट्रीय खेल दिवस' मनाया जाता है| आज के दिन खेल की दुनिया में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के जरिये देश का नाम रौशन करने वाले सभी खिलाड़ियों को राष्ट्रपति भवन में भारत के राष्ट्रपति के द्वारा 'खेल पुरस्कारों' से नवाजा जाता है जिनमें राजीव गांधी खेल-रत्न पुरस्कार, अर्जुन पुरस्कार, द्रोणाचार्य पुरस्कार, ध्यानचंद पुरस्कार, तेनजिंग नोर्गे साहसिक पुरस्कार प्रमुख हैं| इस मौके पर खिलाड़ियों के साथ-साथ उनकी प्रतिभा निखारने वाले कोचों को भी सम्मानित किया जाता है।

पूरी दुनिया में अपनी हॉकी का लोहा मनवाने वाले मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद में हुआ था| भले ही उनका जन्म इलाहाबाद में हुआ हो लेकिन उन्हें पहचान झांसी से ही मिली। यहां की मिट्टी में खेलकूद कर हॉकी का पाठ पढ़ने वाले ध्यानचंद ताउम्र झांसी में ही रहे। ध्यानचंद को अपने सरकारी सेवा में कार्यरत पिता के झांसी में स्थानांतरण होने के कारण यहां आना पड़ा। यहां रेल की पटरियों के किनारे वे लकड़ी के तिरछे डंडे से बाल को नचाते घूमाते थे। चौदह वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली बार हॉकी स्टिक अपने हाथ में थामी थी| 

सोलह वर्ष की आयु में वह आर्मी की पंजाब रेजिमेंट में शामिल हुए| इसके बाद भी हॉकी खेलने की लगन कम नहीं हुई। उनकी लगन देखकर सेना के सूबेदार बाले तिवारी ने ध्यानचंद को हॉकी के खेल में निपुण किया और जल्द ही उन्हें हॉकी के अच्छे खिलाड़ियों का मार्गदर्शन प्राप्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप ध्यानचंद के कॅरियर को उचित दिशा मिलने लगी|

एक बार झांसी में सेना की दो टीमों के बीच हॉकी का मैच चल रहा था, जिसमें ध्यानचंद भी बतौर दर्शक मौजूद थे। एक टीम पांच शून्य से पिछड़ रही थी तब ध्यानचंद ने कहा कि मैं होता तो इस टीम को जिता देता। हारने वाली टीम के कोच ने रिस्क लेते हुए उन्हें अपनी टीम से खिलाया और देखते ही देखते ध्यानचंद ने गोलों की झड़ी लगा दी और जो टीम पहले हार रही थी वह जीत गई। उनके खेल को देखकर टीम के अंग्रेज कोच ने कहा कि तुम तो चांद हो ध्यानचांद। इसके बाद वे ध्यान सिंह से 'ध्यानचंद' बन गए। आर्मी से संबंधित होने के कारण ध्यानचंद को 'मेजर ध्यानचंद' के नाम से पहचान मिली|

फिर तो ध्यानचंद ब्रिटिश के अधीन भारतीय सेना के नियमित सदस्य हो गए। वर्ष 1922 से लेकर 1926 के बीच ध्यानचंद केवल पंजाब रेजिमेंट और आर्मी हॉकी टूर्नामेंट में ही खेलते थे| वह न्यूजीलैंड दौरे पर जाने वाली आर्मी हॉकी टीम का हिस्सा बने| ध्यानचंद के अदभुत कौशल और उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण भारतीय आर्मी हॉकी टीम एक मैच हारने और अठ्ठारह हॉकी मैचों में जीत दर्ज करने के बाद भारत लौटी| भारत वापसी के बाद ध्यानचंद को आर्मी में लांस नायक की उपाधि प्रदान की गई| 

'इंडियन हॉकी फेडरेशन' के गठन के बाद इसके सदस्यों ने पूरी कोशिश की कि वर्ष 1928 में एम्सटर्डम में होने वाले ओलंपिक खेलों में अच्छे खिलाड़ियों के दल को भेजा जाए| इसीलिए वर्ष 1925 में उन्होंने एक इंटर-स्टेट हॉकी चैंपियनशिप की शुरुआत की जिसमें पांच राज्यों (संयुक्त प्रांत, बंगाल राजपुताना, पंजाब, केंद्रीय प्रांत) की टीमों ने भाग लिया| ध्यानचंद भी आर्मी हॉकी टीम की ओर से संयुक्त प्रांत की टीम में चयनित हुए|

पहली बार वह आर्मी से बाहर किसी हॉकी मैच का हिस्सा बन रहे थे| हॉकी को पहली बार 1928 में ओलंपिक में जगह दी गई और पहले ही ओलंपिक में ध्यानचंद के खेल ने भारत को विजेता बना दिया। यहीं से उनके अंतर्राष्ट्रीय कॅरियर की शुरुआत हुई| 1932 और 1936 के ओलंपिक में भी यह करिश्मा जारी रहा। उन्होंने लगभग हर मैच में सर्वाधिक गोल करने वाले खिलाड़ी का खिताब जीता| अपने बेजोड़ और अदभुत खेल के कारण उन्होंने लगातार तीन ओलंपिक खेलों, एम्सटर्डम ओलंपिक 1928, लॉस एंजेल्स 1932, बर्लिन ओलंपिक 1936 (कैप्टैंसी) में टीम को तीन स्वर्ण पदक दिलवाए| 

लॉस एंजेल्स ओलंपिक खेलों के फाइनल में भारत ने अमेरिका को 24-1 से रौंद दिया था, जो आज भी एक रिकॉर्ड है। इस मैच में ध्यानचंद ने आठ गोल किए जबकि बर्लिन ओलंपिक के फाइनल में भारत ने जर्मनी को 8-1 से करारी शिकस्त दी थी। ध्यानचंद ने सबसे ज्यादा तीन गोल किए थे। हॉकी ही एक ऐसा खेल है, जिसमें भारत ने आठ स्वर्ण सहित ग्यारह पदक जीते हैं। 

जर्मनी के खिलाफ भारतीय जीत के बाद जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने जर्मन आर्मी में उच्च अधिकारी बनाने की पेशकश की लेकिन ध्यानचंद ने अपनी सभ्यता और नम्र व्यवहार का परिचय देते हुए इस ओहदे के लिए मना कर दिया| हिटलर ने ही उन्हें 'हॉकी के जादूगर' के खिताब से नवाजा था। एक बार विपक्षी टीम के खिलाड़ियों को शक हुआ कि ध्यानचंद की स्टिक में चुंबक लगी है। उनकी स्टिक तोड़ी गई लेकिन आशंका गलत साबित हुई। बाद में उसी मैच में उन्होंने टूटी स्टिक से जिताऊ गोल दागे। 

1936 के बाद ध्यानचंद भारतीय टीम के मैनेजर बन गए| ध्यानचंद ने ओलंपिक खेलों में 101 गोल और अंतर्राष्ट्रीय खेलों में 300 गोल दाग कर एक ऐसा रिकॉर्ड बनाया जिसे आज तक कोई तोड़ नहीं पाया है| एम्सटर्डम हॉकी ओलंपिक मैच में 28 गोल किए गए जिनमें से ग्यारह गोल अकेले ध्यानचंद ने ही किए थे| हॉकी के क्षेत्र में प्रतिष्ठित सेंटर-फॉरवर्ड खिलाड़ी ध्यानचंद ने 42 वर्ष की आयु तक हॉकी खेलने के बाद वर्ष 1948 में हॉकी से संन्यास ग्रहण कर लिया| 

इस दौरान उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं अन्य मान्यता प्राप्त हॉकी प्रतियोगिताओं में एक हजार से अधिक गोल किए। उनके गोलों की संख्या देखकर क्रिकेट के भीष्म पितामह डॉन ब्रैडमैन ने कहा था कि यह तो किसी क्रिकेटर के रनों की संख्या मालूम होती है। वर्ष 1956 में मेजर ध्यानचंद सिंह को भारत के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया| कैंसर जैसी लंबी बीमारी को झेलते हुए 3 दिसंबर वर्ष 1979 में मेजर ध्यानचंद का देहांत हो गया| 

इनकी मृत्यु के बाद उनके जीवन के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारत की राजधानी दिल्ली में उनके नाम से एक हॉकी स्टेडियम का उद्घाटन किया गया| इसके अलावा भारतीय डाक सेवा ने भी ध्यानचंद के नाम से डाक-टिकट चलाई| इस महान खिलाड़ी के सम्मान में वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है। इसमें उनको चार हाथों में चार स्टिक पकड़े हुए दिखाया गया है। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के कार्यकाल में ध्यानचंद के जन्मदिवस को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया। 

मेजर ध्यानचंद ने अपनी जीवनी और महत्वपूर्ण घटना वृतांत को अपने प्रशंसकों के लिए अपनी आत्मकथा गोल में सम्मिलित किए हैं| हॉकी में कॅरियर बनाने वाले युवाओं के लिए उनका जीवन और खेल दोनों ही एक मिसाल हैं| इस दिन युवाओं में खेलों के प्रति रुझान को बढ़ाने के लिए उन्हें प्रेरित भी किया जाता है|

पीएम मोदी को महिलाओं और बच्चों ने बांधी राखी, देखें फोटो

रक्षाबंधन के अवसर पर शनिवार को समाज के विभिन्न वर्गो की महिलाओं और बच्चों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निवास स्थान पर उन्हें राखी बांधी। यहां जारी किए गए बयान के मुताबिक, प्रधानमंत्री मोदी ने बच्चों को शुभकामनाएं दीं और इस अवसर पर सभी को हार्दिक बधाई दी।













रोचक लेकिन बहुत कठिन है नागा साधु बनने की प्रक्रिया

कुंभ मेले के दौरान नासिक और त्र्यंबकेश्वर में 29 अगस्त को होने वाले पहले शाही स्नान की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। जिला कलेक्टर दीपेंद्र सिंह कुश्वाह ने बताया कि वैष्णव सम्प्रदाय के दिगम्बर, निर्मोही और निर्वाणी अखाड़ों के हजारों महंत और साधु नासिक में पहला पवित्र स्नान करेंगे, जबकि शैव सम्प्रदाय के 10 अखाड़ों के महंत और साधु यहां से 30 किलोमीटर दूर त्र्यंबकेश्वर में पवित्र स्नान करेंगे। नागा साधुओं को लेकर कुंभ मेले में बड़ी जिज्ञासा और कौतुहल रहता है, खासकर विदेशी पर्यटकों में। कोई कपड़ा ना पहनने के कारण शिव भक्त नागा साधु दिगंबर भी कहलाते हैं, अर्थात आकाश ही जिनका वस्त्र हो। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे ये साधु कुम्भ मेले में सिर्फ शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के सामने आते हैं। तो आइये जानते हैं कि नागा साधुओं के बारे में 

नाग साधुओं के नियम :- 

वर्तमान में भारत में नागा साधुओं के कई प्रमुख अखाड़े है। वैसे तो हर अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते हैं। नागा साधु को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है| कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।

ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं। दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।

नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है। नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है। नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है। 

नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण करना होता है। नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहां तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है।

दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है। बस्ती से बाहर निवास करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं। 

रोचक लेकिन कठिन है नागा साधु बनने की प्रक्रिया-

नागा साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। उनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। जानिए कौन सी प्रक्रियाओं से एक नागा को गुजरना होता है- 

जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है। 

अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं। महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। इसके लिए अखाड़ा परिषद की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।

इस प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाए-पीए खड़ा होना पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे होते हैं। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है। नागा साधुओं के कई पद होते हैं। एक बार नागा साधु बनने के बाद उसके पद और अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। नागा साधु के बाद महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत, दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है। 

महिलाएं 16 तो नागा साधू करते हैं 17 श्रृंगार-

श्रंगार सिर्फ महिलाओं को ही प्रिय नहीं होता, नागाओं को भी सजना-संवरना अच्छा लगता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की उतनी ही फिक्र होती है जितनी आम आदमी को। नागा साधु प्रेमानंद गिरि के मुताबिक नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग हैं, लेकिन नागाओं को प्रिय हैं। जानिए नागा साधु कैसे अपना श्रंगार करते हैं- 

नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। भगवान शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं। रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैंं। यह भस्म भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है। 

कईं नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं। इसमें गेंदे के फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। इसके पीछे कारण है गेंदे के फूलों का अधिक समय तक ताजे बना रहना। नागा साधु गले में, हाथों पर और विशेषतौर से अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं। हालांकि कई साधु अपने आप को फूलों से बचाते भी हैं। यह निजी पसंद और विश्वास का मामला है। नागा साधु सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। यह पहचान और शक्ति दोनों का प्रतीक है। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान रहते हैं। वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है। तिलक लगाने में इतनी बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप मैन मात खा जाएं। 

भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। कहा जाता है रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं। यह साक्षात भगवान शिव के प्रतीक हैं। इस कारण लगभग सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। ये मालाएं साधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है। ये मालाएं नागाओं के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। कहते हैं कि अगर कोई नागा साधु किसी पर खुश होकर अपनी माला उसे दे दे तो उस व्यक्ति के वारे-न्यारे हो जाते हैं। आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे। कई साधु हठयोग के तहत भी लंगोट धारण करते हैं- जैसे लोहे की लंगोट, चांदी की लंगोट, लकड़ी की लंगोट। यह भी एक तप की तरह होता है।

नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं। ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो हैं ही, साथ ही इनके लुक का भी हिस्सा हैं। नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है। चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है। ऐसा उल्लेख भी कई जगह मिलता है कि कई साधु चिमटे से ही अपने भक्तों को आशीर्वाद भी देते थे। महाराज का चिमटा लग जाए तो नैया पार हो जाए।

कईं नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा कम ही होते हैं। उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रंगार का आवश्यक हिस्सा होते हैं। जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की जाती है। काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया जाता है। अपनी जटाओं के नागा सजाते भी हैं। कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं। 

जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है। इसकी देखरेख भी जटाओं की तरह ही होती है। नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते हैं। जिस तरह भगवान शिव बाघंबर यानी शेर की खाल को वस्त्र के रूप में पहनते हैं, वैसे ही कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते हैं- जैसे हिरण या शेर। हालांकि शिकार और पशु खाल पर लगे कड़े कानूनों के कारण अब पशुओं की खाल मिलना मुश्किल होती है, फिर भी कई साधुओं के पास जानवरों की खाल देखी जा सकती है।

एक राजा ने अपनी रानी को दिया था ताजमहल से भी प्यारा गिफ्ट

आपने बहुत-से उपवन देखे होंगे। हम आपको एक अद्भुत उपवन के विषय में बताते हैं, जो संसार की सात आश्चर्यजनक वस्तुओं में से एक था। कारण, यह हवा में लटकता था। दक्षिण-पश्चिमी एशिया के इराक (मेसोपोटामिया) देश में फरात नदी के किनारे के मैदान में एक बड़ा सुंदर नगर था। इस नगर के चारो ओर बड़ी ऊंची दीवार का परकोटा था। इस परकोटे में बड़े-बड़े द्वार लगे हुए थे। इस नगर का नाम बैबिलन है।

आज से दो हजार वर्ष पहले बैबिलन संसार का एक बहुत बड़ा और धनी नगर था। वहां नबूचद नाजिर नामक एक बड़ा शक्तिशाली बादशाह राज्य करता था। इस बादशाह ने आक्रमण करके आसपास के देशों को ही नहीं, वरन् संसार के दूर-दूर के देशों को भी जीत लिया था।

जिस समय बादशाह को लड़ने से अवकाश मिल जाता था, वह अपने नगर में रहकर हजारों कारीगरों को मंदिर बनाने और शहर के परकोटे को मजबूत करने में जुटा देता था। एक बार बादशाह की इच्छा एक सुंदर महल बनवाने की हुई। फिर क्या था! उसने इतने लोग जुटा दिये कि महल पंद्रह दिन में बनकर तैयार हो गया।

बादशाह उन दिनों एक दूसरे देश की यात्रा करने गया हुआ था। वहां बादशाह की भेंट उस देश के बादशाह की पुत्री से हुई। बादशाह ने शाहजादी से विवाह कर लिया और दोनों बैबिलन लौट आए। शहजादी अब रानी हो गई थी और उसके रहने के लिए एक सुंदर महल भी था, फिर भी वह अनमनी-सी रहती थी, क्योंकि उसे रह-रहकर अपने देश के पर्वतों का ध्यान आता था। यहां के मैदान की हवा बड़ी ही गरम थी। रानी हरदम अपने मन में सोचती, "यदि पिता के घर होती तो पर्वतों की चोटियों पर चढ़कर शीतल वायु का सेवन करती।" धीरे-धीरे उसकी सेहत गिरने लगी।

बादशाह ने यह देखा तो उसे चिंता हुई। एक दिन उसने रानी से पूछा, "दिन-दिन तुम्हारी सेहत क्यों गिर रही है? तुम्हारी यह हालत मुझसे नहीं देखी जाती। जो इच्छा हो, नि:संकोच कहो। मैं तुम्हें प्रसन्न करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हूं।" 

रानी ने बादशाह से कहा, "मैं जानती हूं कि आप मेरे लिए सबकुछ करने को तैयार हैं, पर अपने चौरस देश में इच्छा होने पर भी पर्वत और पहाड़ियां तो नहीं बनवा सकते।"

बात सच थी; किंतु बादशाह भी सहज हार माननेवाला नहीं था। उसके पास अनेक कारीगर थे। बादशाह ने तुरंत उन सबको काम पर जुटा दिया। इन लोगों ने सबसे पहले एक वर्गाकार भूमि को ढकने के लिए बड़े-बड़े खंभों की कतारें बनाईं। हर कतार अपने आगे की कतार से ऊंची थी और खंभे पकी हुई इंटों तथा राल से बनाए गए थे। भीतर से वे खोखले थे। उनके भीतर मिट्टी भरी गई। उन खंभों को घुमावों द्वारा एक-दूसरे से मिला दिया गया। घुमावों के ऊपर छतें बनाई गईं।

खंभे इतने बड़े और मजबूत थे कि उनमें से बड़े से बड़े वृक्ष लगाए जा सकते थे। छतों पर भी मिट्टी बिछाई गई थी और उस पर पैधे लगाए जा सकते थे। छतों पर भी मिट्टी बिछाई गई थी और उस पर वृक्ष, झाड़ियां तथा पुष्प लगाए गए थे। इन छतों पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बना दी गई थीं। छतें एक बड़ी सीढ़ी की तरह एक दूसरों से ऊपर निकाली हुई थी। वृक्षों, लताओं और पुष्पों से भर जाने के कारण ये बड़ी मनमोहक लगती थीं।

बाग की सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकता होती हैं; किंतु बैबिलन में तो बहुत ही कम वर्षा होती थी। वहां पानी फराद नदी से आता था। बाग की सिंचाई का सवाल उठा। बाग फरात नदी के किनारे पर बनाया गया था। बादशाह ने अपने दास-दासियों को आज्ञा दी कि वे हर समय डोलों में पानी भर भरकर बाग को सींचते रहें।

इस बाग को सींचने में दास-दासियों को कठिन परिश्रम करना पड़ता था, क्योंकि सबसे ऊंचे घुमाव की ऊंचाई 75 गज थी। देखते-देखते ही एक बड़ा ही सुंदर उपवन बन गया। रानी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अब वह छतों पर चढ़कर वृक्षों के नीचे जा बैठती और इच्छानुसार ठंडक का आनंद लेती। उपवन राजमहल और उसके पिता के बाग से कहीं अधिक ठंडा था।

इन्हीं छतों को लटकते हुए उपवन के नाम से पुकारते थे, किंतु अब तो उनकी याद ही शेष रह गई है। सैकड़ों वर्ष से ये उपवन खंडहरों के रूप में पड़े हैं। किसी समय में इस स्थान को सुंदरता को देखकर लोग दांतों तले उंगली दबाते थे।

इन्द्र की पत्नी इंद्राणी ने शुरू किया था रक्षाबंधन का त्यौहार

मेले और त्योहारों के देश भारत में हर त्योहार पौराणिक आख्यानकों से जुड़े हैं, लेकिन उसका लौकिक अर्थ और महत्व है। ऐसे ही त्योहारों में रक्षाबंधन भी है जिसे श्रावण महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है। आम प्रथा के अनुसार इस अवसर पर बहनें अपने भाई की दाहिनी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती हैं और भाई बदले में सामथ्र्य के अनुसार उपहार देता है। 

रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चांदी जैसी मंहगी वस्तु तक की हो सकती है। सामान्यत: बहनें भाई को ही राखी बांधती हैं, लेकिन ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित संबन्धियों को भी बांधी जाती है। 

प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियां और महिलाएं पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक और मिठाई होते हैं। लड़के और पुरुष स्नानादि कर पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। उन्हें रोली या हल्दी से टीका कर चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उनकी आरती उतारी जाती है और तब दाहिनी कलाई पर राखी बांधी जाती है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। रक्षाबंधन का अनुष्ठान पूरा होने के बाद ही भोजन किया जाता है। 

यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फिल्में भी इससे अछूते नहीं हैं। राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नजर आने लगे। भगवान इंद्र घबरा कर बृहस्पति के पास गए। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बांध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। 

स्कंध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबंधन का प्रसंग मिलता है। दानवेंद्र राजा बलि का अहंकार चूर करने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और ब्राह्मण के वेश में राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए। भगवान ने बलि से भिक्षा में तीन पग भूमि की मांग की। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश, पाताल और धरती नाप लिया और राजा बलि को रसातल में भेज दिया। बलि ने अपनी भक्ति के बल पर भगवान से रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान को वापस लाने के लिए नारद ने लक्ष्मी जी को एक उपाय बताया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि राखी बांध अपना भाई बनाया और पति को अपने साथ ले आईं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। 

इस त्योहार से कई ऐतिहासिक प्रसंग जुड़े हैं। राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ-साथ हाथ में रेशमी धागा बांधती थी। यह विश्वास था कि यह धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आएगा। मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण करने की सूचना मिली। रानी उस समय लड़ने में असमर्थ थी अत: उन्होंने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंच कर बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ाई लड़ी। हुमायूं ने कर्मावती व उनके राज्य की रक्षा की। 

एक अन्य प्रसंग में कहा जाता है कि सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पोरस (पुरू) को राखी बांधकर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन ले लिया। पोरस ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान किया और सिकंदर पर प्राण घातक प्रहार नहीं किया। रक्षाबंधन की कथा महाभारत से भी जुड़ती है। जब युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। 

कृष्ण और द्रौपदी से संबंधित वृत्तांत में कहा गया है कि जब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया था तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी थी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया था।

आखिर क्या है भद्रा?

किसी भी मांगलिक कार्य में भद्रा योग का विशेष ध्यान रखा जाता है, क्योंकि भद्रा काल में मंगल-उत्सव की शुरुआत या समाप्ति अशुभ मानी जाती है अत: भद्रा काल की अशुभता को मानकर कोई भी आस्थावान व्यक्ति शुभ कार्य नहीं करता। अब ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या है भद्रा? और क्यों इसे अशुभ मानते हैं| 

पुराणों के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य नारायण और पत्नी छाया की कन्या व शनि की बहन है। भद्रा काले वर्ण, लंबे केश, बड़े दांत वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुंचाने लगी और मंगल कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सारे जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी।

उसके दुष्ट स्वभाव को देखकर सूर्यदेव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्ट कुरूपा कन्या का विवाह कैसे होगा? सभी ने सूर्यदेव के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब सूर्यदेव ने ब्रह्माजी से उचित परामर्श मांगा।

ब्रह्माजी ने तब विष्टि से कहा कि- 'भद्रे! बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करे, तो तुम उन्हीं में विघ्न डालो। जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना।' इस प्रकार उपदेश देकर ब्रह्माजी अपने लोक चले गए। तब से भद्रा अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई।

रक्षाबंधन आज, जानिए राखी बांधने का शुभ मुहूर्त

रक्षाबंधन हिन्दुओं का सबसे प्रमुख त्यौहार है| श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई बहन के प्यार का प्रतीक है| इस दिन सभी बहने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और भाई की लम्बी उम्र की कामना करती हैं| भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है| इस वर्ष यह त्यौहार 10 अगस्त दिन रविवार को मनाया जायेगा|

रक्षा बंधन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक होकर चारों ओर अपनी छटा को बिखेरता सा प्रतीत होता है| सात्विक एवं पवित्रता का सौंदर्य लिए यह त्यौहार सभी जन के हृदय को अपनी खुशबू से महकाता है| इतना पवित्र पर्व यदि शुभ मुहूर्त में किया जाए तो इसकी शुभता और भी अधिक बढ़ जाती है|

शुभ मुहूर्त-

भाई-बहन के प्रेम-स्नेह और अटूट विश्वास भरे इस पर्व पर इस बार भी भद्रा का साया है| हालांकि यह साया आधे दिन बाद छंट जायेगा और इसके साथ ही भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र का रंग खिल जायेगा| श्रावण पूर्णिमा तिथि 29 अगस्त, शनिवार को भोर 02:48 पर लग रही है जो कि रात्रि 12:39 तक रहेगी| इस बार भद्रा 29 अगस्त को अपराह्न 01:44 तक रहेगा| अत: शनिवार को बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रक्षासूत्र अपराह्न 01:44 के बाद ही बांध पाएंगी|

किस तरह से बांधें राखी-

रक्षासूत्र के लिए उचित मुहूर्त की चाह हर किसी को होती है| इस त्यौहार की ख़ास बात यह है कि राखी के साथ कुमकुम, हल्दी, चावल, दीपक, अगरबती, मिठाई का उपयोग किया जाता है| कुमकुम, हल्दी और चावल से पहले भाई को टीका करें उसके बाद उसकी आरती फिर भाई की दाहिनी कलाई रक्षासूत्र बांधें| राखी बांधते समय बहनें निम्न मंत्र का उच्चारण करें, इससे भाईयों की आयु में वृ्द्धि होती है. “येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: | तेन त्वांमनुबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल ||”

इस दिन व्यक्ति को चाहिए कि उसे उस दिन प्रात: काल में स्नान आदि कार्यों से निवृ्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए| इसके बाद अपने इष्ट देव की पूजा करने के बाद राखी की भी पूजा करें साथ ही पितृरों को याद करें व अपने बडों का आशिर्वाद ग्रहण करें|

पौराणिक प्रसंग-

भाई बहन का यह पावन पर्व आज से ही नहीं बल्कि युगों-युगों से चलता चला आ रहा है भविष्य पुराण में भी इसका व्याख्यान किया गया है| एक बार दानवों और देवताओं में युद्ध शुरू हुआ| दानव देवताओं पर भारी पड़ने लगे तब इन्द्र घबराकर वृहस्पतिदेव के पास गए| वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है।

इसके अलावा स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राम्हण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश,पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है।

कहा जाता है कि जब बलि रसातल चला गया तो उसने अपने तप से भगवान को रात- दिन अपने पास रहने का वचन ले लिया| भगवान विष्णु के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को देवर्षि नारद ने एक उपाय सुझाया| नारद के उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी राजा बलि के पास गई और उन्हें राखी बांधकर अपना भाई बना लिया| उसके बाद अपने पति भगवान विष्णु और बलि को अपने साथ लेकर वापस स्वर्ग लोक चली गईं| उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से आन मिली।

पौराणिक युग के साथ साथ एतिहासिक युग में भी यह त्यौहार काफी प्रचलित था कहते हैं कि राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तब महिलाएं उनके मस्तक पर कुमकुम का टीका लगाती थी और हाथ में रेशम का धागा बांधती थी| महिलाओं को यह विश्वास होता था कि उनके पति विजयी होकर लौटेंगे|

मेवाड़ की महारानी कर्मवती के राज्य पर जब बहादुर शाह जफ़र द्वारा हमला की सूचना मिली तब रानी ने अपनी कमजोरी को देखते हुए मुग़ल शासक हुमायूँ को राखी भेजी। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए रानी कर्मवती और उसके राज्य की रक्षा की। कहते है सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया। इस तरह से तमाम येसे प्रसंग हैं जो भ्रात्र स्नेह से जुड़े हुए हैं|

कहाँ किस नाम से जाना जाता है यह त्यौहार-

रक्षाबंधन का यह त्यौहार अलग- अलग राज्यों में अलग- अलग नामों से जाना जाता है| उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।

इसके अलावा महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से जाना जाता है| इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। वहीँ, अगर राजस्थान की बात करें तो रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और केवल भगवान को बांधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है।
जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट(पूजास्थल) बनाकर मंत्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनाई जाती है। राखी में कच्चे दूध से अभिमंत्रित करते हैं और इसके बाद भोजन का प्रावधान है।

तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्णण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।

ब्रम्हा जी ने यहां की थी सृष्टि की रचना

महान क्रांतिकारी तात्या टोपे, नाना राव पेशवा और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसे क्रांतिकारियों की यादें अपने दामन में समेटे हुए है बिठूर। यह ऐसा दर्शनीय स्थल है जिसे ब्रह्मा, महर्षि वाल्मीकि, वीर बालक ध्रुव, माता सीता, लव कुश ने किसी न किसी रूप में अपनी कर्मस्थली बनाया। रमणीक दृश्यों से भरपूर यह जगह सदियों से श्रद्धालुओं और पर्यटकों को लुभा रही है। तो आइये शुरू करते हैं बिठूर की यात्रा| 

सन् 1857 में भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम बिठूर में ही प्रारम्भ हुआ था। यह शहर उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से 22 किलोमीटर दूर कन्नौज रोड़ पर स्थित है। पवित्र पावनी गंगा के किनारे बसा बिठूर का कण-कण नमन के योग्य है। यह दर्शनीय इसलिए है कि महाकाव्य काल से इसकी महिमा बरकरार है। यह महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि है। यह क्रांतिकारियों की वीरभूमि है। यहाँ महान क्रांतिकारी तात्या टोपे ने क्रांति मचा दी थी। यहाँ नाना साहब पेशवा की यादें खण्डहरों के बीच बसती हैं। यही नहीं तपस्वी बालक ध्रुव और उसके पिता उत्तानपाद की राजधानी भी कभी यहीं पर थी। 

कहते हैं कि 'ध्रुव का टीला' ही उस समय ध्रुव के राज्य की राजधानी थी। आज राजधानी की झलक देखने को नहीं मिलती लेकिन ऐतिहासिकता की कहानी यहाँ के खण्डहर सुनाते हैं। बिठूर के किनारे से होकर गंगा कल-कल करती बहती है। सुरम्यता का आलम यह है कि जिधर निकल जाइए, मन मोहित हो जाता है। कहते हैं कि इसी स्थान पर भगवान राम ने सीता का त्याग किया था और यहीं संत वाल्मीकि ने तपस्या करने के बाद पौराणिक ग्रंथ रामायण की रचना की थी। 

बिठूर के विषय में कहा जाता है कि ब्रह्मा ने वहीं पर सृष्टि रचना की थी और सृष्टि रचना के पश्चात अश्वमेध यज्ञ किया था उस यज्ञ के स्मारक स्वरूप उन्होंने घोड़े की एक नाल वहां स्थापित की थी, जो ब्रह्मावर्त घाट के ऊपर अभी तक विद्यमान है। इसे ब्रह्मनाल या ब्रह्म की खूंटी भी कहते हैं क्योंकि महर्षि वाल्मीकि की यह तपोभूमि है, इसलिए इसका राम कथा से जुड़ाव स्वाभाविक है। धोबी के ताना मारने के बाद जब राजा राम ने सीता को राज्य से निकाला तो उन्हें यहाँ पर वाल्मीकि के आश्रम में शरण मिली थी। यहीं पर उनके दोनों पुत्र लव और कुश का जन्म हुआ। 

यही नहीं जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो उनके द्वारा छोड़े गए घोड़े को यहीं पर लव-कुश ने पकड़ा। ज़ाहिर है कि इस तरह यह भूमि प्रभु राम और माता सीता के आख़िरी मिलन की भूमि है। भगवान शंकर ने मां पार्वती देवी को इस तीर्थस्थल का महात्म्य समझाते हुए कहा है-

ब्रह्मवर्तस्य माहात्म्यं भवत्यै कथितं महत्।
यदा कर्णन मात्रेण नरो न स्यात्स्नन्धयः।

यही नहीं, सन 1818 में अंतिम पेशवा बाजीराव अंग्रेज़ों से लोहा लेने का मन बनाकर बिठूर आ गए। नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांति का बिगुल इसी ज़मीन पर बजाया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का शैशवकाल यहीं बीता। इस ऐतिहासिक भूमि को तात्या टोपे जैसे क्रांतिकारियों ने अपने ख़ून से सींचकर उर्वर बनाया है। यहाँ क्रांतिकारियों की गौरव गाथाएँ आज भी पर्यटक सुनने आते हैं।

बिठूर के दार्शनिक स्थल निम्न प्रकार है| पहले तो बात करते हैं वाल्मीकि आश्रम की| हिन्दुओं के लिए इस पवित्र आश्रम का बहुत महत्व है। यही वह स्थान है जहां रामायण की रचना की गई थी। संत वाल्मीकि इसी आश्रम में रहते थे। राम ने जब सीता का त्याग किया तो वह भी यहीं रहने लगीं थीं। इसी आश्रम में सीता ने लव-कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। यह आश्रम थोड़ी ऊंचाई पर बना है, जहां पहुंचने के लिए सीढि़यां बनी हुई हैं। इन सीढि़यों को स्वर्ग जाने की सीढ़ी कहा जाता है। आश्रम से बिठूर का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है।

ब्रह्मावर्त घाट- इसे बिठूर का सबसे पवित्रतम घाट माना जाता है। भगवान ब्रह्मा के अनुयायी गंगा नदी में स्नान करने बाद खड़ाऊ पहनकर यहां उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने यहां एक शिवलिंग स्थापित किया था, जिसे ब्रह्मेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा यहाँ एक लाल पत्थरों से बना हुआ घाट है जिसे पाथर घाट कहते हैं| अनोखी निर्माण कला के प्रतीक इस घाट की नींव अवध के मंत्री टिकैत राय ने डाली थी। घाट के निकट ही एक विशाल शिव मंदिर है, जहां कसौटी पत्थर से बना शिवलिंग स्थापित है।

यहाँ एक टीला भी है जिसे आज ध्रुव टीला के नाम से जाना जाता है| कहते हैं कि बालक ध्रुव ने एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की थी। ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे एक दैवीय तारे के रूप में सदैव चमकने का वरदान दिया था। इन धार्मिक स्थानों के अलावा भी बिठूर में राम जानकी मंदिर, लव-कुश मंदिर, हरीधाम आश्रम, जंहागीर मस्जिद और नाना साहब स्मारक अन्य दर्शनीय स्थल हैं।

सीताफल खाइये और बीमारियों को दूर भगाइए

सीताफल (Custard apple) एक लाजवाब, स्वादिष्ट और मीठा फल होने के साथ-साथ अपने में अनगिनत औषधीय गुणों को शामिल किए हुए है। पूरे शरीर को स्वस्थ और बीमारियों से दूर रखने का यह एक बहुत ही आसान उपाय है। सीताफल में मौजूद विरोधी अपचायक(एंटी ऑक्सिडेंट) ,शरीर मुक्त कण से लड़ने में मदद करते हैं। पोटेशियम और मैग्नीशियम हृदय रोग से हृदय की रक्षा करते है| सीताफल एक संतुलित आहार हैं इसमे प्रोटीन, फाइबर, खनिज, विटामिन, ऊर्जा और थोड़ा वसा होता हैं। उपरोक्त रूप से इसमे कई रोगों का मुकाबला करने की शक्ति होती है। 

सीताफल में वजन बढ़ाने की क्षमता भरपूर होती है और अगर आप वजन बढ़ाने के सारे जतन करके थक चुके हैं तो तैयार हो जाएं एक नए और मीठे उपाय के लिए। आपको बस सीताफल को अपनी डाइट का हिस्सा बनाना है और आपका मनचाहा फिगर आप पा सकेंगे बहुत ही जल्दी। क्या आप अक्सर कमजोरी महसूस करते हैं? सीताफल आपकी यह परेशानी दूर कर सकता है। सीताफल बहुत ही अच्छा एनर्जी का स्रोत होता है और इसके सेवन से थकावट और मसल्स मतलब मांसपेशियों की कमजोरी आपको बिलकुल भी महसूस नहीं होगी। बस, सीताफल को अपनी डाइट में शामिल कर लीजिए।

विटामिन बी कॉम्प्लेक्स से भरा हुआ सीताफल दिमाग को शीतलता देने का भी काम करता है। यह आपको चिड़चिड़ेपन से बचाकर निराशा को दूर रखता है। तो फिर बस, सीताफल अपनाइए और अपनी मानसिक शांति को रखिए अपने साथ हमेशा। खून की कमी यानी एनीमिया से बचना अब बिलकुल आसान है। सीताफल का हर दिन इस्तेमाल खून की अल्पता को खत्म कर देता है और उल्टियों के प्रभाव को भी कम करता है। सीताफल आपके दांतों के स्वास्थ्य के लिए भी बहुत उत्तम है। इसको नियमित खाकर आप दांतों और मसूड़ों में होने वाले दर्द से छुटकारा पा सकते हैं।

सीताफल में मौजूद मैग्नीशियम शरीर में पानी को संतुलित करता है और इस तरह से जोड़ों में होने वाले अम्ल को हटा देता है। यह अम्ल गठिया रोग का मुख्य कारण होता है और इस तरह से सीताफल गठिया रोग से सुरक्षा करता है। सीताफल आंखों की देखने की क्षमता बढ़ाता है, क्योंकि इसमें विटामिन सी और रिबोफ्लॉविन काफी ज्यादा होता है। इससे नंबर के चश्मे को आप खुद से बड़ी आसानी से दूर रख सकते हैं। 

दिल की तंदुरुस्ती अब बिलकुल आसान है। इसमें सोडियम और पोटेशियम संतुलित मात्रा में होते हैं जिससे खून का बहाव यानी ब्लड प्रेशर में अचानक होने वाले बदलाव नियंत्रित हो जाते हैं। दोनों प्रकार की शुगर को संतुलित रखना सीताफल के उपयोग के साथ बहुत ही आसान है। इसमें शरीर में होने वाली शुगर को सोख लेने का गुण होता है और इस तरह से यह शुगर का शरीर में स्तर सामान्य बनाए रखता है। सीताफल में विटामिन बी -6 जैसे पोषक तत्व होने की वजह से ब्रोन्कियल सूजन और दमा के हमलों को रोकने मे मदद मिलती है। यह फल गर्भावस्था के समय होने वाले मूड स्विंग, मॉर्निंग सिकनेस और अकड़न से राहत दिलाने में मदद करता है।

अपनाइये ये उपाय शनिदेव होंगे शांत

कठोर न्यायाधीश कहे जाने वाले शनि देव के कोप से सभी भलीभांति परिचित हैं क्योंकि शनि देव बुरे कर्मों का न्याय बड़ी कठोरता से करते हैं। शनि की बुरी नजर किसी भी राजा को रातों-रात भिखारी बना सकती है और यदि शनि शुभ फल देने वाला हो जाए तो कोई भी भिखारी राजा के समान बन सकता है।

जन्मकुंडली में शनि ग्रह अशुभ प्रभाव में होने पर व्यक्ति को निर्धन, आलसी, दुःखी, कम शक्तिवान, व्यापार में हानि उठाने वाला, नशीले पदार्थों का सेवन करने वाला, अल्पायु निराशावादी, जुआरी, कान का रोगी, कब्ज का रोगी, जोड़ों के दर्द से पीड़ित, वहमी, उदासीन, नास्तिक, बेईमान, तिरस्कृत, कपटी, अधार्मिक तथा मुकदमें व चुनावों में पराजित होने वाला बनाता है। आज आपको शनिदेव को प्रसन्न करने का आसान उपाय बताने जा रहे हैं जिसके द्वारा आप शनिदेव को खुश कर सकते हैं- 

हर शनिवार को शनि देव की प्रतिमा को तेल से स्नान कराएं या एक कटोरी में तेल डालकर उसमें अपना चेहरा देखकर उसे दान कर दें, तो इससे भी शनि देव खुश होते। शनि मंदिर में जाकर शनि चालीसा पढ़ने और दिया जलाने से भी शनि देव के प्रकोप से बचाव होता है। 

शनिवार के दिन शनि यंत्र की स्थापना व पूजन करें| इसके बाद प्रतिदिन इस यंत्र की विधि-विधान पूर्वक पूजा करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं| प्रतिदिन यंत्र के सामने सरसों के तेल का दीप जलाएं| नीला या काला पुष्प चढ़ाएं ऐसा करने से लाभ होगा| प्रत्येक शनिवार के दिन बंदरों और काले कुत्तों को बूंदी के लड्डू खिलाने से भी शनि का कुप्रभाव कम हो जाता है अथवा काले घोड़े की नाल या नाव में लगी कील से बना छल्ला धारण करें| पीपल की पूजा करें, जल चढ़ाएं एवं परिक्रमा करें साथ ही गरीबों को भोजन कराएँ|

शनि मंत्र-

शनि के प्रभाव से बचने के लिए "शन्नो देवीरभिष्ट्यऽआपो भवंतु पीतये। शंय्योर भिस्त्रवन्तु न:" का जाप करे|

...यहां गौमुख से आती है जलधारा और खुद ही करती है भगवान भोलेनाथ का अभिषेक

श्रावण में महादेव के जलाभिषेक की परंपरा है। श्रद्धालु शिवलिंग पर जल, दूध व पंचामृत से अभिषेक करते हैं। लेकिन मध्य प्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर के देव गुराड़िया स्थित गुप्तेश्वर महादेव एक ऐसा अद्भुत मंदिर है जहां गौमुख से जलधारा आती है और वह खुद ही शिवजी का अभिषेक करती है। इस दृश्य को देखने के लिए अनेक श्रद्धालु शिव के मंदिर में दर्शन-पूजन करने आते हैं। श्रावण में यहां काफी भीड़ होती है और गौमुख का ये जल लोग मस्तक से लगाकर शिव को नमन करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं| 

देव गराड़िया मंदिर इंदौर शहर से करीब 15 किमी की दूरी पर स्थित है। यह नेमावर रोड़ पर एक छोटा सा गांव हैं। जहां अतिप्रचीन शिव मंदिर है। मंदिर की परंपराएं और मान्यताएं श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। मंदिर में भगवान शिव के गण माने जाने वाले नाग का जोड़ा भी रहता है। कभी कुंड में तो कभी शिवालय में ये नाग-नागिन भक्तों दर्शन देते हैं। मान्यता है कि जिस भक्त को इनके दर्शन होते हैं उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। 

गुप्तेश्वर महादेव मंदिर में शिवलिंग के ऊपर एक गौमुख बना है। जिसमें प्राकृतिक रूप से जल आता है। जो कि महादेव का अभिषेक स्वतः ही होता है। यह जलाअभिषेक ही इस मंदिर के प्रति भक्तों की आस्था को दृढ़ करता है। यह जल पिंडी के ऊपर से गिरकर मंदिर के पास बने कुंड में गिरता है और यहां इकट्ठा हो जाता है। मान्यता है कि मंदिर के आसपास बने यह कुंड कभी सूखते नहीं हैं। मंदिर के अंदर ही बना जलकुंड पूरे गांव की प्यास बुझाता है। पूरे गांव के लोग इसी जलकुंड का पानी पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस जलकुंड में साल के 12 महीनों पानी भरा रहता है। 


मंदिर के अंदर के कुंड के अलावा मंदिर में 5 कुंड और बने हैं जो कि हमेशा पानी से भरे होते हैं। इनका पानी कभी खाली नहीं होता है। मान्यता है कि भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ ने यहां आकर भगवान शिव की तपस्या की थी। इसलिए ही इस स्थान का नाम देव गुराड़िया पड़ा है। इस स्थान को गरुड़ तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण 18वीं सदी में देवी अहिल्याबाई ने करवाया था।

औषधीय गुण की खान है अजवाइन

एक कहावत है-'एकाजवानी शतमन्ना पचिका' अर्थात अकेली अजवाइन ही सैकड़ों प्रकार के अन्न को पचाने वाली होती है। भारतीय खाने में अजवाइन का उपयोग मसाले के रूप में कई सदियों से किया जाता है लेकिन अजवाइन सिर्फ एक मसाला ही नहीं है ये कई तरह के औषधिय गुणों से भरपूर है। अजवाइन के कई ऐसे घरेलू प्रयोग है जो हेल्थ प्रॉब्लम्स में रामबाण की तरह कार्य करते हैं तो आइए आज हम आपको बतातेे हैं ऐसे ही कुछ औषधीय गुणों के बारे में....

अजवाइन के बारे में बता दें कि इसका वानस्पतिक नाम ट्रेकीस्पर्मम एम्माई है। अजवाइन में 7 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट,21 प्रतिशत प्रोटीन, 17 प्रतिशत खनिज ,7 प्रतिशत कैल्शियम, फॉस्फोरस, लौह, पोटेशियम, सोडियम, रिबोफ्लेविन, थायमिन, निकोटिनिक एसिड अल्प मात्रा में, आंशिक रूप से आयोडीन, शर्करा, सेपोनिन, टेनिन, केरोटिन और 14 प्रतिशत तेल पाया जाता है। इसमें मिलने वाला सुगंधित तेल 2 से 4 प्रतिशत होता है, 5 से 60 प्रतिशत मुख्य घटक थाइमोल पाया जाता है। मानक रूप से अजवाइन के तेल में थाइमोल 40 प्रतिशत होता है।

पेट खराब होने पर अजवाइन को चबाकर खाएं और एक कप गर्म पानी पीएं। पेट में कीड़े हैं तो काले नमक के साथ अजवाइन खाएं। लीवर की परेशानी है तो 3 ग्राम अजवाइन और आधा ग्राम नमक भोजन के बाद लेने से काफी लाभ होगा। पाचन तंत्र में किसी भी तरह की गड़बड़ी होने पर मट्ठे के साथ अजवाइन लें, आराम मिलेगा। अजवाइन मोटापे कम करने में भी उपयोगी होती है। रात में एक चम्मच अजवाइन को एक गिलास पानी में भिगो दें। सुबह छान कर एक चम्मच शहद के साथ मिलाकर पीने से लाभ होता है। इसके नियमित सेवन से मोटापा कम होता है।

मसूड़ों में सूजन होने पर अजवाइन के तेल की कुछ बूंदों को गुनगुने पानी में डालकर कुल्ला करने से सूजन कम होती है। सरसों के तेल में अजवाइन डाल कर गर्म करें। इससे जोड़ों की मालिश करने पर दर्द से आराम मिलेगा। अजवाइन के रस में दो चुटकी काला नमक मिलाकर उसका सेवन करें और उसके बाद गर्म पानी पी लें। इससे आपकी खांसी ठीक हो जाएगी। आप काली खांसी से परेशान हैं तो जंगली अजवाइन के रस को सिरका और शहद के साथ मिलाकर दिन में 2-3 बार एक-एक चम्मच सेवन करें, राहत मिलेगी।

अजवाइन को भून व पीसकर मंजन बना लें। इससे मंजन करने से मसूढ़ों के रोग मिट जाते हैं। अजवाइन, सेंधानमक, सेंचर नमक, यवाक्षार, हींग और सूखे आंवले का चूर्ण आदि को बराबर मात्रा में लेकर अच्छी तरह पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को 1 ग्राम की मात्रा में सुबह और शाम शहद के साथ चाटने से खट्टी डकारें आना बंद हो जाती हैं।

अजवाइन का रस आधा कप इसमें इतना ही पानी मिलाकर दोनों समय (सुबह और शाम) भोजन के बाद लेने से दमा का रोग नष्ट हो जाता है।मासिक धर्म के समय पीड़ा होती हो तो 15 से 30 दिनों तक भोजन के बाद या बीच में गुनगुने पानी के साथ अजवायन लेने से दर्द मिट जाता है। मासिक अधिक आता हो, गर्मी अधिक हो तो यह प्रयोग न करें। सुबह खाली पेट 2-4 गिलास पानी पीने से अनियमित मासिक स्राव में लाभ होता है।

मुख से दुर्गंध आने पर थोड़ी सी अजवायन को पानी में उबालकर रख लें, फिर इस पानी से दिन में दो-तीन बार कुल्ला करने पर दो-तीन दिन में दुर्गंध खत्म हो जाती है। खीरे के रस में अजवायन पीसकर चेहरे की झाइयों पर लगाने से लाभ होता है।अजवाइन, काला नमक, सौंठ तीनों को पीसकर चूर्ण बना लें। भोजन के बाद फाँकने पर अजीर्ण, अशुद्ध वायु का बनना व ऊपर चढऩा बंद हो जाएगा। कान में दर्द होने पर अजवाइन के तेल की कुछ बूंदे कान में डालने से आराम मिलता है। शरीर में दाने हो जाएं या फिर दाद-खाज़ हो जाए तो, अजवाइन को पानी में गाढ़ा पीसकर दिन में दो बार लेप करने से फायदा होता है। घाव और जले हुए स्थानों पर भी इस लेप को लगाने से आराम मिलता है और निशान भी दूर हो जाते हैं।

बरसात के मौसम में पाचन क्रिया के शिथिल पडऩे पर अजवायन का सेवन काफी लाभदायक होता है। इससे अपच को दूर किया जा सकता है। अजवायन, काला नमक, सौंठ तीनों को पीसकर चूर्ण बना लें। भोजन के बाद फाँकने पर अजीर्ण, अशुद्ध वायु का बनना व ऊपर चढऩा बंद हो जाएगा। पैर में कांटा चुभ जाए, तो कांटा चुभने के स्थान पर पिघले हुए गुड़ में 10 ग्राम पिसी हुई अजवाइन मिलाकर थोड़ा गरम कर बांध देने से कांटा अपने आप निकल जाएगा। रात्रि में एक चम्मच अजवायन एक गिलास पानी में भिगोएं। सुबह छानकर उस पानी में शहद डालकर पीने पर लाभ होता है।

लीवर की परेशानी है तो 3 ग्राम अजवाइन और आधा ग्राम नमक भोजन के बाद लेने से काफी लाभ होगा। पाचन तंत्र में किसी भी तरह की गड़बड़ी होने पर मट्ठे के साथ अजवाइन लें, आराम मिलेगा। अगर पेट में गैस की समस्या से परेशान हैं तो 1-2 ग्राम खुरसानी अजवाइन में गुड़ मिलाकर इसकी गोलियां बना कर खाएं, आपको तुरंत राहत मिलेगी। पेट में गैस होने पर हल्दी, अजवाइन और एक चुटकी काला नमक लें, इससे भी बहुत जल्दी काफी आराम मिलता है। पेट में पथरी का अंदेशा है तो आप 5 ग्राम ग्राम जंगली अजवाइन को पानी के साथ निगल लें। ऐसा आप महीने में पांच दिन करें तो पथरी कभी नहीं बनेगी। हैजा होने पर कपूर के साथ अजवाइन को मिला कर दें, हैजा की परेशानी कम होगी।

कुंदरू के फल, अजवायन, अदरक और कपूर की समान मात्रा लेकर कूट लिया जाए और एक सूती कपड़े में लपेटकर हल्का-हल्का गर्म करके सूजन वाले भागों धीमें -धीमें सिंकाई की जाए तो सूजन मिट जाती है। किसी शराब पीने वाले की आदत छुड़ाना चाहते हैं तो दिन में हर दो घंटे बाद उसे एक चुटकी अजवाइन चबाने को दें, बहुत जल्द उनकी शराब पीने की आदत छूट जाएगी। अजवाइन को पीस लिया जाए और नारियल तेल में इसके चूर्ण को मिलाकर ललाट पर लगाया जाए तो सिर दर्द में आराम मिलता है। अस्थमा के रोगी को यदि अजवाइन के बीज और लौंग की समान मात्रा का 5 ग्राम चूर्ण प्रतिदिन दिया जाए तो काफी फायदा होता है। अजवाइन को किसी मिट्टी के बर्तन में जलाकर उसका धुंआ भी दिया जाए तो अस्थमा के रोगी को सांस लेने में राहत मिलती है।

गले में खराश हो तो बेर के पत्ते और अजवाइन दोनों को पानी में एक साथ उबाल कर उस पानी को छानकर पी लें। नाक बंद होने पर आप अजवाइन को बारीक पीस कर उसे कपड़े में बांध कर सूंघें, आराम मिलेगा। खाने के बाद अजवाइन के साथ गुड़ खाने से सर्दी और एसिडिटी में आराम मिलता है।अजवाइन की 2 से 3ग्राम मात्रा को दिन में तीन बार लें। जुकाम, नजला और सिरदर्द में यह रामबाण दवा है। पान के पत्ते के साथ अजवाइन के बीजों को चबाया जाए तो गैस, पेट मे मरोड़ और एसीडिटी से निजात मिल जाती है।

अजवाइन, इमली के बीज और गुड़ की समान मात्रा लेकर घी में अच्छी तरह भून लेते है और फिर इसकी कुछ मात्रा प्रतिदिन नपुंसकता से ग्रसित व्यक्ति को दें।ये मिश्रण पौरुषत्व बढ़ाने के साथ-साथ शुक्राणुओं की संख्या बढ़ाने में भी मदद करता है। नींद न आने की समस्या हो तो 2 ग्राम अजवाइन पानी के साथ निगल लें। इससे अच्छी नींद आएगी। कान में दर्द है तो अजवाइन के तेल का इस्तेमाल करें, दर्द ठीक हो जाएगा।