एक ऐसा मंदिर जहां शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं देवी!

अभी तक आपने कई ऐसे मंदिर देखे और सुने होंगे जहां देवता नारी के रूप में और देवियां नर के रूप में पूजी जाती हैं| ऐसा ही एक मंदिर स्थित हैं छत्तीसगढ़ राज्य के आलोर गाँव में एक तो सबसे बड़ी बात है कि यह मंदिर नक्सल प्रभावित एरिया में आता इसीलिए भी लोगों की पहुँच से दूर है तो दूसरी बात यह भी हैं कि यह मंदिर साल में केवल एक ही बार खुलता है इसलिए भी यहाँ पर कम लोग ही पहुँच पाते है I इस मंदिर को लिंगाई माता के नाम से जाना जाता है| यह मंदिर एक प्राकृतिक गुफा के भीतर स्थित है I इस मंदिर में कोई देवी की मूर्ती नहीं है बल्कि यहाँ पर एक प्रकृति निर्मित शिवलिंग है जिसे लोग कहते है कि देवी यहाँ पर शिवलिंग के रूप में विराजमान है |

फरसगांव से लगभग 8 किमी दूर पश्चिम से बड़ेडोंगर मार्ग पर ग्राम आलोर स्थित है। ग्राम से लगभग 2 किमी दूर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है जिसे लिंगई गट्टा लिंगई माता के नाम से जाना जाता है। इस छोटी से पहाड़ी के ऊपर विस्तृत फैला हुआ चट्टान के उपर एक विशाल पत्थर है। बाहर से अन्य पत्थर की तरह सामान्य दिखने वाला यह पत्थर स्तूप-नुमा है इस पत्थर की संरचना को भीतर से देखने पर ऐसा लगता है कि मानो कोई विशाल पत्थर को कटोरानुमा तराश कर चट्टान के ऊपर उलट दिया गया है। इस मंदिर के दक्षिण दिशा में एक सुरंग है जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। द्वार इनता छोटा है कि बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जा सकता है। इसके अलावा कोई अन्य राश्ता नहीं है| गुफा के अंदर 25 से 30 आदमी बैठ सकते हैं। गुफा के अंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शिवलिंग है जिसकी ऊंचाई लगभग दो फुट होगी, श्रद्धालुओं का मानना है कि इसकी ऊंचाई पहले बहुत कम थी समय के साथ यह बढ़ गई।


इस मंदिर में प्रति दिन पूजा अर्चना नहीं होती है। वर्ष में एक दिन मंदिर का द्वार खुलता है और इसी दिन यहां मेला भरता है। संतान प्राप्ति की मन्नत लिये यहां हर वर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष नवमीं तिथि के पश्चात आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है, तथा दिनभर श्रद्धालुओं द्वारा पूजा अर्चना एवं दर्शन की जाती है। स्थानीय लोगों की ऐसा मान्यता कि यहाँ पर उन लोगों की मुराद पूरी होती है जो संतान प्राप्ति के लिए यहाँ आते है I उन्हें खीरा अपने साथ लाना होता है और वह खीरा यहाँ चढ़ाया जाता है और पूजा के बाद उस खीरे को उस दंपत्ति को पुजारी वह खीरा वापस कर देता है I दंपत्ति को वह खीरा अपने नाखूनों से फाड़कर वही खाना होता है जिससे उन्हें संतान की प्राप्ति होती है| मन्नत पूरी होने पर अगले साल श्रद्धा अनुसार चढ़ावा चढ़ाना होता है। 

आखिर क्यों भगवान श्री कृष्ण ने भीम के महाबली पौत्र बर्बरीक का मांगा सिर?

नई दिल्ली: पौराणिक महाकाव्य महाभारत के बारे में जानता तो हर कोई है| यह एक ऐसा शास्‍त्र है जिसके बारे में सबसे ज्‍यादा चर्चा और बातें की जाती है और इस काव्‍य में कई रहस्‍य है जिनके बारे में आजतक सही-सही पता नहीं लग पाया है या फिर बहुत कम लोगों को ही पता है। उदाहरण के लिए- पाण्डु पुत्र भीम के महाबली पौत्र बर्बरीक के बारे में| आपको पता है बर्बरीक अत्यंत बलशाली था| बर्बरीक के पास दिव्यशक्तियां थी वह एक ही बाण से सब कुछ तहस-नहस कर सकता था| लेकिन महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने उससे सिर मांग लिया| क्या आपको पता है भगवान श्री कृष्ण ने भीम के महाबली पौत्र बर्बरीक का सिर मांगा था?


बर्बरीक महाबली भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कक्ष का पुत्र था जो एक महान योद्धा था I चूँकि बर्बरीक का जन्म राक्षस कुल में हुआ था इसलिए वह शरीर से अतिबलशाली था और बड़ा भयंकर था I बर्बरीक ने बचपन से ही कामख्या देवी की तपस्या करके उनसे वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे युद्ध में कोई भी पराजित नहीं कर सकता था I एक कथा के अनुसार बर्बरीक को देवी कामख्या ने तीन ऐसे अद्वितीय तीर दिए थे जिनके चलाने से सम्पूर्ण दुश्मन सेना का नाश किया जा सकता था I

जब कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध अपनी चरम पर था तभी बर्बरीक ने इस युद्ध में सम्मिलित होने का निर्णय ले लिया I लेकिन बर्बरीक ने साथ यह भी सपथ ली वह उसी तरफ से युद्ध करेगा जो दल कमजोर होगा I और जिस समय बर्बरीक युद्ध के मैदान की तरफ बढ़ रहा था उस समय कौरवों की हालत बहुत ही ख़राब हो रही थी अतः बर्बरीक का कौरवों की तरफ लड़ना बिलकुल तय था | भगवान् श्री कृष्ण को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने सोचा कि यह बर्बरीक जीत को हार में बदल देगाI अब भगवान् श्री कृष्ण ने बर्बरीक का वध करने का निर्णय ले लिए और इससे पहले कि बर्बरीक महाभारत के युद्ध के मैदान में पहुँच कर युद्ध का पाशा पलटपाता या फिर युद्ध के मैदान तक पहुँच पाता उससे पहले ही भगवान् श्री कृष्ण उसके पास पहुँच गए I

भगवान् श्री कृष्ण ने बर्बरीक से कहा कि हे महावीर आप इस युद्ध में किस की तरफ से सम्मिलित होने की इच्छा से आये है ? बर्बरीक ने उत्तर दिया कि जो पक्ष कमजोर होगा मैं उसी की तरफ युद्ध करूँगा ! भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि आपके पास तो कोई सेना नहीं है आप कैसे इस युद्ध में अपने पक्ष को विजय दिला पाओगे ? बर्बरीक ने कहा कि मेरे पास वह दिव्य शक्तियां है कि मैं एक ही बाण से सम्पूर्ण दुश्मन सेना का वध कर सकता हूँ ! भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि क्या आप मुझे वह विद्या दिखा सकते हैं ? कृष्ण ने कहा कि यह जो वृक्ष है ‍इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊँगा। बर्बरीक ने आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया।

जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा, कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया की यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया। तब बर्बरीक ने कहा प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर छेदने की नहीं। उसके इस चमत्कार को देखकर कृष्ण चिंतित हो गए।

भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का भेष बनाकर अगले दिन बर्बरीक के शिविर के द्वार पर पहुँच गए और दान माँगने लगे। बर्बरीक ने कहा माँगो ब्राह्मण! क्या चाहिए? ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा कि तुम दे न सकोगे। लेकिन बर्बरीक कृष्ण के जाल में फँस गए और कृष्ण ने उससे उसका शीश माँग लिया। बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीशदान कर दिया। दान के पश्चात बर्बरीक ने कहा मेरी ये प्रबलतम इच्छा थी की काश महाभारत का युद्ध देख पाता ! तब भगवान् श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ आपकी ये इच्छा मैं पूर्ण करूंगा ! मैं आपके शीश को इस पीपल की सबसे उंची शाखा पर रख देता हूँ ! और आपको वो दिव्य दृष्टी प्राप्त है जिससे आप ये युद्ध पूरा आराम से देख पायेंगे ! उस योद्धा बर्बरीक ने अपना शीश काटकर श्री कृष्ण को दे दिया ! और श्री कृष्ण ने उसको वृक्ष की चोटी पर रखवा दिया|

दान के पश्चात्‌ श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को वर देते हुए कहा कि मैं आपको खुश होकर ये वरदान देता हूँ की आप कलयुग में मेरे श्याम नाम से पूजे जायेंगे| और उस समय आप लोगो का कल्याण करेंगे| और उनके दुःख क्लेश दूर करेंगे| ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने उस शीश को खाटू नामक ग्राम में स्थापित कर दिया| ये जगह आज लाखो भक्तो और श्रद्धालुओं की आस्था का स्थान है| यह जगह आज खाटू श्यामजी ( जिला-सीकर, राजस्थान ) के नाम से प्रसिद्द है|

...यहां गिरा था देवी सती का स्तन !

नई दिल्ली: हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।


51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

एेसा ही एक शक्तिपीठ है पंजाब के जलंधर शहर में जो त्रिपुरमालिनी शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। एेसी मान्यता है कि इस शक्तिपीठ में देवी सती का स्तन गिरा था। इसलिए इसे स्तनपीठ भी कहते हैं। इस मंदिर में पीठ स्थान पर स्तनमूर्ति एक कपडे से ढकी रहती है। जबकि मूर्ति का धातु से बना मुख मंडल बाहर दिखाई देता है। आम दिनों की बात करें तो यहां रविवार आैर मंगलवार के बड़ी संख्या में ऋद्धालु आते हैं। जबकि नवरात्र के दिनों में तो यहां की रौनक देखते ही बनती है। चैत्र नवरात्र की पंचमी तिथि के दिन यहां भव्य मेला लगता है। त्रिपुरामालिनी शक्ति पीठ के विषय में कहा गया है कि इस स्थान पर संयोगवश भी जिसकी मृ्त्यु हो जाती है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां तक की अगर कोई पशु भी यहां प्राण त्याग देता है, तो वह भी सद्गति प्राप्त कर लेता है। इस शक्ति पीठ से जुडी अन्य मान्यता के अनुसार यहां सभी देवी देवता व अन्य सभी तीर्थ भी अंश रुप में रहते है।

गजब: इस रेस्टोरेंट में बंदर करते हैं वेटर का काम

टोक्यो: जब आप किसी होटल में जाते हैं तो वहां आपकी खातिरदारी के लिए वेटर होते हैं| जो खाना परोसने से लेकर आपकी हर जरूरतों पर ध्यान देते हैं| आपने देखा होगा कि कहीं पर पुरूष और कहीं पर महिलाएं तक इस रोल को बखूबी निभाते हैं। लेकिन आज आपको एक ऐसा रैस्टोरेंट बताते हैं जहाँ कोई महिला या पुरुष नहीं बल्कि बंदर वेटर का काम करते हैं| जी हाँ यह रेस्टोरेंट है जापान की राजधानी टोक्यो मे स्तिथ काबुकी रेस्टोरेंट|


यह रेस्टोरेंट इस मामले मे विचित्र है कि यहां पर वेटर का काम इन्सान कि जगह बन्दर करते है। इस रेस्टोरेंट में बंदर येट चेन और फुकु चेन, 2008 से वेटर का काम कर रहे है। इनमे से येट चेन बड़ा है। जैसे ही कोई कस्टमर रेस्टोरेंट मे प्रवेश करता है दोनो बन्दर अपने काम मे लग जाते है। एक कस्टमर को उसकी सीट तक ले जाता है और दूसरा उसके हाथ पोंछने के लिऎ टॉवल ले आता है। उसके बाद एक बन्दर उनसे ऑर्डर लेता है और दूसरा बन्दर ऑर्डर सर्व करता है।

रेस्टोरेंट का मालिक इन्हे पालतू बन्दर के रूप मे लेकर आया था। लेकिन जब बड़े बन्दर येट चेन ने रेस्टोरेंट के काम दिलचस्पी दिखाना शुरू किया तो मालिक को लगा की ये बन्दर रेस्टोरेंट का काम कर सकता है। एक बार रेस्टोरेट मालिक ने कस्टमर के आने पर येट चेन को गर्म टॉवल दिया , येट चेन उसे सीधा कस्टमर को देके आ गया, जैसा कि उसका मालिक करता था। हालांकि फुक चेन को उन्हे ट्रेन्ड करना पड़ा।

इन बंदर वेटर से मालिक और वेटर दोनो ही बहुत खुश है। कस्टमर्स के अनुसार इंसानी वेटर्स कि तुलना में यह बहुत अच्छे है क्योकि इंसानी वेटर्स की तरह इनके व्यवहार को लेकर कभी भी शिकायत नहीं होती है। दूसरी बात यह की यह कभी भी टिप नहीं मांगते है। मालिक के लिए खुशी की बात यह है कि इन मंकी वेटर्स ने उन्हे कभी भी शिकायत का मौका नही दिया है। ये ग्राहकों द्वारा दिए गए आर्डर को एकदम सही समझते है और टेबल तक वही चीज पहुँचाते है। इसके अलावा एक मजे की बात यह है कि इन्हे तनख्वाह (पेमेंट) में केवल सोयाबीन चिप्स देनी पड़ती है।

....यहाँ गिरा था देवी सती का हृदय!

नई दिल्ली: हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

गुजरात का अम्बा धाम। दुनिया का एकमात्र मंदिर हैं जहां मां अम्बा माता के दिव्य स्वरूप 'अम्बा यंत्र' की पूजा की जाती है। यह पूजा आंखों पर पट्टी बांध कर की जाती है। अम्बा धाम मंदिर गुजरात और राजस्थान की सीमा पर अहमदाबाद से 18 किलो मीटर और माउंट आबू से 45 किमी दूरी पर स्थित है। यहां गर्भगृह में मां की मूर्ति नहीं बल्कि अंबा यंत्र की पूजा की जाती है। अंबा देवी का यंत्र गुप्त रखा गया है जिसे खुले में देखना भी निषेध है। यहां तक पुजारी भी आंखों में पट्टी बांधकर पूजा करते हैं। मां का यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है जहां मां सती का ह्दय गिरा था।

अम्बा मंदिर की छटा निराली है मां के दर्शन हों या उनके मंदिर में बनने वाला भोग विशेष बात यह है कि यह भोग मंदिर में देशी घी से तैयार किया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार नंदबाबा और माता यशोदा ने यहीं मां अम्बा के यहां भगवान श्रीकृष्ण का मुंडन करवाया था। भगवान राम और लक्ष्मण सीता की खोज करते हुए यहीं से गुजरे थे। यहीं माता ने रावण को मारने के लिए बाण दिया था। कहते है वाल्मीकि जी ने रामायण लिखने की शुरुआत इसी तपोभूमि से की थी। अम्बा जी के इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है यहां यंत्र पूजा का विधान है। यही कारण है कि मंदिर में प्रवेश करते ही भक्तों का मन अध्यात्म और मां की शक्ति से गूंज उठता है। मां अम्बा का यह मंदिर करीब 12 सौ साल पुराना है। मंदिर का जीर्णोद्धार 1975 में शुरु हुआ था जो अभी भी जारी है। यह मंदिर सफेद संगमरमर से बना है मंदिर का शिखर 103 फुट ऊंचा है। यहां शिखर पर 358 स्वर्ण कलश सुशोभित हैं।

भगवान शंकर और माता पार्वती के एक पुत्री भी थी, जानिए कौन थी वो

अभी तक आप यही जानते रहे होंगे कि देवों के देव महादेव और माता पार्वती के दो पुत्र थे एक भगवान श्रीगणेश और दूसरे कार्तिकेय| लेकिन क्या आपको पता है भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती के एक बेटी भी थी?

पद्म पुराण के अनुसार, एक बार माता पार्वती विश्व में सबसे सुंदर उद्यान में जाने के लिए भगवान शिव से कहा। तब भगवान शिव पार्वती को नंदनवन ले गए, वहां माता को कल्पवृक्ष से लगाव हो गया और उन्होंने उस वृक्ष को लेकर कैलाश आ गईं। एक बार भगवान भोलेनाथ तप करने के लिए चले गए| माता अकेली थी| अपने अकेलेपन को दूर करने हेतु पार्वती ने उस कल्प वृक्ष से यह वर मांगा कि उन्हें एक कन्या प्राप्त हो, तब कल्पवृक्ष द्वारा अशोक सुंदरी का जन्म हुआ।

एक बार अशोक सुंदरी अपने दासियों के साथ नंदनवन में विचरण कर रहीं थीं तभी वहां हुंड नामक राक्षस का आया। अशोक सुंदरी की सुंदरता को देखकर वह मोहित हो गया| और उसने अशोक सुंदरी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। इस पर अशोक सुंदरी ने उसका प्रस्ताव ठुकराते हुए कहा कि उसका विवाह भविष्य में नहुष से होगा|

इतना सुनते ही हुंड नाम का वह राक्षस तिलमिला उठा और कहने लगा कि वह नहुष को ज़िंदा नहीं छोड़ेगा| ऎसा सुनकर अशोक सुंदरी ने राक्षस को शाप दिया कि उसकी मृत्यु नहुष के हाथों ही होगी। इस श्राप से बचने के लिए हुंड ने नहुष का अपहरण कर लिया। जिस समय नहुष का अपहरण किया गया था उस समय वह बाल्यावस्था में थे| नहुष को राक्षस हुंड की एक दासी ने बचाया।

उसके बाद नहुष को महर्षि वशिष्ठ के आश्रम शरण मिली| यही रहकर नहुष बड़े हुए और अंत में उन्होंने हुंड का वध किया। इसके बाद नहुष तथा अशोक सुंदरी का विवाह हुआ|

नवरात्रि कल से जानिए कलश स्थापना का मुहूर्त एवं पूजन व‌िध‌ि

हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष शारदीय नवरात्रि 13 अक्टूबर आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होगी| प्रतिपदा तिथि के दिन शारदिय नवरात्रों का पहला नवरात्र होगा| माता पर श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह दिन विशेष रहेगा| इस बार नवरात्रि पूरे नौ दिन के होंगे| मंगलवार को नवरात्र के मंगल कलश की स्थापना होगी।

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

नव दुर्गा-

नव दुर्गा- श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।

श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण -

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है| देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है। नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है।कहीं-कहीं इन्हें कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है| जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है। आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्रि:-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है।

अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

घट स्थापना मुहूर्त-

नवरात्र में तिथि वृद्धि सुखद संयोग माना जाता है। नवरात्र के प्रथम दिन घट स्थापना के साथ दैनिक पूजा भी बहुत सरल विधि से की जा सकती है| इस वर्ष की नवरात्र प्रतिपदा चित्रा नक्षत्र एवं वैधृति योग से दूषित है, इसलिए प्रथम 4 घंटे छोड़कर अभिजित मुहूर्त में दिन के 11 बजकर 49 मिनट से 12 बजकर 37मिनट के मध्य ही कलश स्थापन और दीप पूजन शुभ रहेगा

घट स्थापना विधि-

नवरात्र पूजन में कई लोग घट व नारियल स्थापना उन्होंने कलश स्थापना की सही विधि घट सही तरीके से न करने से शुभ की जगह अशुभ फल प्राप्त होता है। आपको बता दें कि मंदिर के उत्तर पूर्व दिशा के मध्य में स्थित ईशान कोण में मिट्टी या धातु के पात्र में साख लगाएं। इसके बाद पात्र में घट (कलश) की स्थापना करें। घट धातु का ही होना चाहिए, तांबे या पीतल धातु का शुभ होता है। घट को मौली बांधे, उसमें जल, चावल, पंचरतनी, चुटकी भर तुलसी की मिट्टी, स्र्वोष्धी, तिलक, फूल व द्रूवा व सिक्के डाल कर आम के नौ पत्ते रख कर उस पर चावल से भरे दोने से ढक सभी देवी-देवताओं का ध्यान कर उनका आह्वान करें। इसके बाद चावलों के ऊपर नारियल का मुख अपनी और इस तरह रखें कि उसे देखने पर साधक की नजरें सीधे मुख पर पड़े।

शास्त्रों में वर्णित श्लोक के मुताबिक 'अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊ‌र्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभम संमुख्यम नारीकेलम' के अनुसार स्थापना के दौरान नारियल का मुख नीचे रखने से शत्रु बढ़ते हैं, ऊपर रखने से रोग में वृद्धि, पूर्व दिशा में करने से धन हानि होती है। इसलिए नारियल का मुख अपनी तरफ रख ही उसकी स्थापना करनी चाहिए। नारियल जिस तरफ से पेड़ पर लगा होता है, वह उसका मुख वह होता और उसका ठीक उल्टा हिस्सा नुकीला होता है।

अनार के दाने ही नहीं छिलके भी हैं बहुत फायदेमंद

अनार एक ऐसा फल है जो अंदर से ही नहीं बाहर से भी होता फायदेमंद। मतलब अनार के दाने के साथ-साथ छिलके भी आपके लिए बहुत फायदेमंद हैं| चेहरे पर मुंहासों की समस्या से परेशान है तो अनार का छिलका बहुत लाभकारी होता है। अनार के छिलकों को भून लें और ठंडा होने पर इसे पीस लें। इस पाउडर को गुलाबजल या दूध के मिलाकर चेहरे पर लगाए और सूखने पर ताजा पानी से साफ कर लें। इस पैक के प्रयोग से आप झुर्रियों से भी निजात पा सकते है।

अनार में भरपुर विटामिन्स और एंटीऑक्सीलडेंट्स होने के कारण सिर्फ खूबसूरती ही नहीं निखरती बल्कि कई बीमारियां भी दूर हो जाती है। पीरियड्स के समय पेट में अक्सर दर्द ज्यादा ही होता है। ऎसे में अगर आप अनार के सुखाएं हुए छिलकों का पाउडर बनाकर इसे पानी के साथ लेने से दर्द से छुटकारा मिल जाएगा।

जिनका कैलोस्ट्रॉल लेवल ज्यादा होता है,अगर वे अनार के छिलकों के पाउडर को पानी के साथ लें। इससे आपका कैलोस्ट्रॉल लेवल कंट्रोल हो जाएगा। इसके अलावा खांसी,गले में खराश,दांतो संबंधी प्रॉबल्म,सांसो की बदबू से भी निजात दिलाते है ये छिलकें। पानी में इन छिलकों को मिलाकर गरारें करें। फिर देखें इसका कमाल|

बालों का झड़ना और डेंड्रफ होना आजकल आम बात हो गया है। सभी इस समस्या से परेशान है। बालों का वोल्यूम(घना)बढ़ाने के लिए अनार के छिलके वरदान की तरह है। अनार के छिलकों के पाउडर को तेल (आपकी सुविधानुसार) में मिलाकर सिर में अच्छे से मालिश करें और कम से कम दो घंटे बाद शैंपू कर लें। रूखी त्वचा के लिए भी अनार के छिलकें गुणकारी होते है। धूप और भागदौड़ के कारण आपकी त्वचा की नमी खो जाती है जिसे अनार के पाउडर को दही मिलाकर लगानें से फायदा पहुंचता है।

अनार के छिलकों को सुखाकर, भून लें और ठंडा होने पर पीसकर चेहरे पर लगाने से मुंहासों की समस्या से छुटकारा मिलता है। अनार के छिलकों को सुखाकर इसका पाउडर बनाकर इसमें गुलाब जल मिलाकर इसको फेसपैक की तरह चेहरे पर लगाने से त्वचा जवां बनी रहती है और झुर्रियों से राहत मिलती है।

सनातन धर्म में क्यों होता है मुंडन संस्कार?

हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही इसे ‘सनातन धर्म’ भी कहा जाता है। सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल सोलह संस्कार बताए गये हैं, सभी मनुष्यों के लिए 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है और उन्हें कोई भी धारण कर सकता है l समस्त मनुष्यों को अपना जीवन इन 16 संस्कारो के अनुसार व्यतीत करने की आज्ञा दी गयी है ल सनातन धर्म के जो 16 संस्कार हैं उनमें गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमन्तोन्नयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, मुंडन/चूडाकर्म संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, कर्णवेध संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, वेदारम्भ संस्कार, केशान्त संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार और अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार| क्या आपको पता है हिन्दू धर्म में मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार क्यों किया जाता है?

आपको बता दें कि इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं । लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ । यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं । इन्हें हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने का कार्य इतना महान् एवं आवश्यक है कि वह हो सका, तो यही कहना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशु की बनी रही । हमारी परम्परा हमें सिखाती है कि बालों में स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं अतः जन्म के साथ आये बालों को पूर्व जन्म की स्मृतियों को हटाने के लिए मुंडन संस्कार किया जाता हैं|

वहीँ, यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो बालक का कपाल करीब 3 वर्ष की अवस्था तक कोमल रहता है। तत्पश्चात धीरे-धीरे कठोर होने लगता है। गर्भावस्था में ही उसके सिर पर उगे बालों के रोमछिद्र इस अवस्था तक कुछ बंद से हो गए रहते है। अत: इस अवस्था में शिशु के बालों को उस्तरे से साफ कर देने पर सिर की गंदगी, कीटाणु आदि तो दूर हो ही जाते हैं, मुंडन करने पर बालों के रोमछिद्र भी खुल जाते है। इससे नये बाल घने, मजबूत व स्वच्छ होकर निकलते हैं। सिर पर घने, मजबूत और स्वच्छ बालों का होना मस्तिष्क की सुरक्षा के लिए आवश्यक है अथवा यो कहें कि सिर के बाल सिर के रक्षक हैं, तो गलत न होगा। इसलिए चूडाकर्म एक संस्कार के रूप में किया जाता है।

जानिए मंदिर में शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है नंदी?

आप जब भी शिव मंदिर में भगवान भोलेनाथ के मंदिर में दर्शनों के लिए जाते हैं तो आपने देखा होगा कि देवाधि देव महादेव के साथ उनका बैल नंदी जरुर होता है| क्या आप जानते हैं कि भगवान भोलेनाथ के मंदिर में उनके सामने नंदी क्यों बैठाया जाता है और उसका मुंह शंकर की तरफ ही क्यों किया जाता है? अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं|

आपको बता दें कि भगवान शंकर के मंदिर में उनके सामने उनकी सवारी नंदी को इसलिए स्थापित करते हैं क्योंकि शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ यानी मेहनत का प्रतीक है। अब सवाल यह बनता है कि नंदी शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है? जानते हैं दरअसल नंदी का संदेश है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है।

जिस प्रकार नंदी की नज़र भगवान शंकर की तरफ होती हैं उसी तरह हमारी नजर भी आत्मा की ओर होनी चाहिए| इस प्रकार हर मनुष्य को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। आपको बता दें कि भगवान शंकर की सवारी नंदी का इशारा यही होता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है।

...यहाँ दहेज में मिलती है बीयर

बस्तर: अभी तक आपने शादियां तो कई प्रकार की देखी और सुनी होगी लेकिन आज हम आपको छत्तीसगढ के बस्तर में एक अजब शादी के बारे में बताते हैं| यहाँ शादी के दुल्हन ससुराल अपने साथ बीयर लेकर आती है| यह बीयर बाजार से खरीदकर नही लायी जाती बल्कि सल्फी नाम के पेड़ से निकलने वाले रस से तैयार की जाती है|

इसलिये इसे देसी बीयर कहा जाता है। यह पेय स्वास्थ्य के लिये लाभदायक माना जाता है। सल्फी का पेड़ 9 से 10 वर्ष के बाद रस देना शुरु करता है। इसकी ऊंचाई 40 फुट तक होती है। ऑक्सीफोरम फिजिरियम नामक फंगस के कारण सल्फी के पेड़ अब सूख रहे हैं। आदिवासी आय के साधन वाले सल्फी के पेडों के सूखने से बहुत चिंतित हैं। इनकी संख्या कम होने की वजह से इन पेड़ों का महत्व और भी बढ़ता जा रहा है। इसलिए लोग इस पेड़ को दहेज के रूप में अपनी बेटियों को देते हैं, बस्तर के इलाके में इन पेड़ों को सोने-चांदी से कम नहीं माना जाता।

एक ऐसी ही शादी राजस्थान के बाड़मेर में होती है जहाँ वधु अपने साथ दहेज़ में कुत्ता और गधा लेकर आती है| इस जिले में अनेक जातियां बसती हैं इन्हीं जातियों में एक जाति है जोगी| आमतौर पर यह जाति भीख मांगकर अपना गुजारा करती है| आजादी के 65 साल बीत गए जहाँ पूरे देश तरक्की कर रहा है वहीं इस जाति के लोग आज भी सदियों पुरानी परम्पराओं में जकड़े हुए हैं| इस जाति में शादी की सदियों पुरानी परम्परा जो आज भी चली आ रही है वह यह कि यहाँ लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले दहेज़ देते हैं इसके अलावा युवक जिस लड़की से शादी करना चाहता है उसे दो साल तक कमाकर खिलाता है यदि वह ऐसा करने में सफल होता है तभी उसकी शादी होती है|

इस जाति में दहेज़ के रूप में कुत्ता और गधा देने का चलन है। कुत्ता जहां सामान की रखवाली करने के काम आता है और गधा इसलिए ताकि उसका सामान आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाया जा सके। इतना ही नहीं इस जाति की एक और अनोखी परंपरा वह यह कि यहाँ जब सस्त्रियाँ गर्भवती होती हैं तो उसके पति को उसे सियार का मांस खिलाना होता है| फिलहाल यदि इस जाति के लोगों की माने तो उनका कहना है कि यह पुरानी परम्पराएँ धीरे- धीरे समाप्त हो रही है और लोग अन्य व्यवसाय में रूचि ले रहे हैं|

इच्छाधारी नाग बना बाबा, भक्तों को बांट रहा संजीवनी बूटी!

आगरा: भारतीय जनमानस में इच्छाधारी नाग अथवा नागिन की अनगिनत कथाएं मौजूद हैं। किवदंतियों के अनुसार ये इच्छाधारी नाग अथवा नागिन कोई भी रूप धर सकते हैं। कहीं भी जा सकते हैं। हिन्दी फिल्मकारों ने समाज में व्याप्त सर्प सम्बंधी अंधविश्वास की धारणाओं का जमकर दोहन किया है। उन्होंने न सिर्फ इस विषय फिल्में बनाकर मोटा मुनाफा कमाया है, वरन समाज में अंधविश्वास की धारणा को और ज्यादा गहरा करने का काम भी किया है। जानकारों की माने तो ये सारी बातें कोरी बकवास हैं। इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है| फिलहाल इच्छाधारी नाग नागिन का एक मामला ताज नगरी आगरा में देखने को मिला है| यहां एक बाबा इच्छाधारी नाग होने का दावा कर लोगों का इलाज कर रहा है। लोगों का मानना है कि उनके हाथ से दवा पीने पर 21 दिन में ही बीमारी खत्म हो जाती है। 

प्राप्त जानकारी के अनुसार, शिव शक्ति बाबा भुड़कनाथ (29) का असली नाम मनोज सिंह यादव है। वह गाजीपुर का रहने वाला है। उन्होंने 12वीं की पढ़ाई के बाद आईटीआई की और फिर बाबा बन गए। करीब एक हफ्ते पहले बाबा ने ककरैठा में अपना डेरा जमा लिया। इसके बाद उनके शिष्यों ने गांव-गांव में पर्चे बांटना शुरू कर दिया। इन पर्चों में बाबा के इच्‍छाधारी नाग होने का जिक्र है। इसमें लिखा है कि बाबा इच्‍छाधारी नाग हैं। उनकी गाय में दैवीय शक्ति है। बाबा के हाथ से दवा पीने पर कोई भी बीमारी 21 दिन में खत्म हो जाती है। साथ ही इस पर्चे को छपवाकर बांटने वाले को भी फायदा होगा। 

फिर क्या था लोग बाबा के नाम के पर्चे छपवाकर बांटे लगे| बाबा का कहना है कि उनके पास कुछ दवाएं है, जिससे मरीज पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं। यह 21 दिनों की दवा है। इसमें लौकी का जूस, जामुन और कई जड़ी-बूटियां शामिल हैं। इसे यहां आने वाले मरीजों को खीर में मिलाकर दिया जाता है। बाबा की दवा लेने के लिए लोगों को घंटों अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है। इसकी जानकारी होने पर स्वास्थ्य विभाग की एक टीम वहां पहुंची| हालांकि बाबा के भक्तों ने दवा की जांच नहीं करने दी। 

आपको बता दें कि यह इच्छाधारी नाग का यह पहला मामला नहीं है इससे पहले भी कई मामले देखे गए| अभी हाल ही में एक ऐसा मामला औरंगाबाद में देखने को मिला था| बिहार के औरंगाबाद में देखने को मिला है| यहां एक किशोरी की शादी इच्छाधारी नाग से होने की अफवाह फैली। अफवाह पर ही यह शादी देखने के लिए 50 हजार से अधिक लोगों की भीड़ जुट गई। हद तो यह हो गई कि किशोरी को सजाकर खड़ा कर दिया गया, लेकिन नाग को न आना था, ना आया। 

यहां यह अफवाह फैलाई गई थी कि गांव के अखिलेश भुइयां की बेटी रेणु कुमारी की शादी इच्छाधारी नाग से होगी। वर नाग रूप में आएगा और इंसान से शादी करेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चर्चा ये उड़ाई गई कि गांव की एक किशोरी जब एक दिन अपने घर आ रही थी तो उसे एक नाग ने रोक लिया। बाद में आदमी का रूप धर कर उसने लड़की से शादी करने का प्रस्ताव रखा और शादी के लिए दिन तय किया। फिर क्या था यह अनोखी शादी देखने के लिए हर तरफ से लोगों का रेला आना शुरू हो गया| सुबह आठ बजे तक सारा इलाका लोगों से पट गया। सभी सड़कें जाम हो गईं। खेतों से लेकर सड़कों तक, पेड़ों से लेकर मकानों तक लोग भरे पड़े थे। कुछ महिलाएं तो बाकायदा शादी के गीत गाते हुए टोलियों में पहुंचीं। लेकिन जब कोई इच्छाधारी नाग लड़की को ब्याहने नहीं पहुंचा तो हर कोई किशोरी के मां-बाप को कोसता हुआ अपने घर चला गया| 

एक ऐसा ही मामला वाराणसी जिले में भी देखने को मिला था| वाराणसी के पिंडरा विकास खंड के राजपुर ग्रामसभा के राजस्व गांव बड़वापुर के रहने वाले संदीप नाम के व्यक्ति ने इच्छाधारी नागिन से शादी करने का दवा किया था| अपने आप को पूर्वजन्म में नाग और इस जन्म में नागिन से शादी का दावा करने वाले संदीप ने बताया कि गांव के ही शिव मंदिर के बगल में इच्छाधारी नागिन से उसकी मुलाकात हुई थी। नागिन ने उसे बताया था कि 20 साल पूरा होने पर वह उससे शादी करने के लिए आएगी। बड़वापुर के रहने वाले दयाशंकर वर्मा के दो लड़कों में छोटा लड़का संदीप कुमार दावा कर रहा था कि उसके ऊपर नाग देवता की सवारी है। उसकी शादी इच्छाधारी नागिन से चार अप्रैल को शिव मंदिर में होगी। हालाँकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ| 

इससे पहले इच्छाधारी नाग' की शादी का मामला उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में अगस्त 2014 को देखने को मिला था| बांदा जिले के बबेरू थाने के पवैया गांव निवासी दलित युवक अरुण कुमार ने भी दावा किया था कि वह इच्छाधारी नाग है, नाग पंचमी को नागिन से शादी करेगा| अरुण ने ग्रामीणों को बताया था कि एक इच्छाधारी नागिन सपने में उसे बताती है कि वह उसका पूर्व पति है और उसके चाचा ने उसकी हत्या कर दी थी, अब वह हत्यारे के घर में जन्म लिया है| बकौल अरुण, 'मैं इच्छाधारी नाग हूं और नाग पंचमी को नागिन से शादी करूंगा' उसके इस ऐलान से आस-पास के गांवों के हजारों लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया| इसी दौरान बबेरू पुलिस को सूचना मिली और वह मौके पर पहुंच कर कथित इच्छाधारी नाग को हिरासत में ले लॉकअप में बंद कर दिया| उधर, गांव में मौजूद प्रत्यक्षदर्शी सहदेव रैदास ने बताया कि पुलिस जैसे ही अरुण को हिरासत में लेकर चली गई तो एक नागिन 'बांबी' से निकलकर आई और गुस्से में उसने कई लोगों को खदेड़ा| उसका कहना था कि नागिन के इस तरह खदेड़ने से साबित होता है कि इन दोनों में जरूर कोई पुराना रिश्ता है|

इंदिरा एकादशी: इस व्रत से पितरों को होती है स्वर्गलोक की प्राप्ति

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। आश्चिन कृ्ष्ण पक्ष की एकादशी को इन्दिरा एकादशी कहा जाता है| इस एकादशी के दिन शालीग्राम की पूजा कर व्रत किया जाता है| इस एकादशी के व्रत करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है| इस व्रत के फलों के विषय में एक मान्यता प्रसिद्ध है, कि इस व्रत को करने से नरक मे गए, पितरों का उद्वार हो जाता है| इस एकादशी की कथा को सुनने मात्र से यज्ञ करने के समान फल प्राप्त होते है| इस बार इंदिरा एकादशी का व्रत 8 अक्टूबर दिन गुरूवार को पड़ रहा है|

इंदिरा एकादशी व्रत विधि-

इंदिरा एकादशी के दिन उपवासक को जल्द उठना चाहिए| उठने के बाद नित्यक्रिया कार्यों से मुक्त हो जाना चाहिए| तत्पश्चात स्नान आदि करने के पश्चात ही श्रद्वा पूर्वक व्रत का संकल्प लेना चाहिए|एकादशी तिथि के व्रत में रात्रि के समय में ही फल ग्रहण किये जा सकते है| तथा द्वादशी तिथि में भी दान आदि कार्य करने के बाद ही स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए| एकादशी तिथि की दोपहर को सालिग रामजी जी मूर्ति को स्थापित किया जाता है,जिसकी स्थापना के लिये किसी ब्राह्माण को बुलाना चाहिए| ब्राह्माण को बुलाकर उसे भोजन कराना चाहिए और दक्षिणा देनी चाहिए|

बनाये गये भोजन में से कुछ हिस्से गाय को भी देने चाही और भगवान श्री विष्णु की धूप, दीप, नैवेद्ध आदि से पूजा करनी चाहिए| एकादशी रात्रि में जागरण कर भगवान विष्णु का पाठ या मंत्र जाप करना चाहिए| अगले दिन प्रात: स्नान आदि कार्य करने के बाद ब्राह्माणों को दक्षिणा देने के बाद ही अपने परिवार के साथ मौन होकर भोजन करना चाहिए|

इंदिरा एकादशी व्रत कथा-

युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! कृपा करके मुझे यह बताइये कि आश्विन के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार भाद्रपद) के कृष्णपक्ष में ‘इन्दिरा’ नाम की एकादशी होती है । उसके व्रत के प्रभाव से बड़े बड़े पापों का नाश हो जाता है । नीच योनि में पड़े हुए पितरों को भी यह एकादशी सदगति देनेवाली है ।

राजन् ! पूर्वकाल की बात है । सत्ययुग में इन्द्रसेन नाम से विख्यात एक राजकुमार थे, जो माहिष्मतीपुरी के राजा होकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते थे । उनका यश सब ओर फैल चुका था ।

राजा इन्द्रसेन भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो गोविन्द के मोक्षदायक नामों का जप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्मतत्त्व के चिन्तन में संलग्न रहते थे । एक दिन राजा राजसभा में सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतने में ही देवर्षि नारद आकाश से उतरकर वहाँ आ पहुँचे । उन्हें आया हुआ देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें आसन पर बिठाया । इसके बाद वे इस प्रकार बोले: ‘मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपा से मेरी सर्वथा कुशल है । आज आपके दर्शन से मेरी सम्पूर्ण यज्ञ क्रियाएँ सफल हो गयीं । देवर्षे ! अपने आगमन का कारण बताकर मुझ पर कृपा करें ।

नारदजी ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! सुनो । मेरी बात तुम्हें आश्चर्य में डालनेवाली है । मैं ब्रह्मलोक से यमलोक में गया था । वहाँ एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा और यमराज ने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की । उस समय यमराज की सभा में मैंने तुम्हारे पिता को भी देखा था । वे व्रतभंग के दोष से वहाँ आये थे । राजन् ! उन्होंने तुमसे कहने के लिए एक सन्देश दिया है, उसे सुनो । उन्होंने कहा है: ‘बेटा ! मुझे ‘इन्दिरा एकादशी’ के व्रत का पुण्य देकर स्वर्ग में भेजो ।’ उनका यह सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ । राजन् ! अपने पिता को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के लिए ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत करो ।

राजा ने पूछा : भगवन् ! कृपा करके ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत बताइये । किस पक्ष में, किस तिथि को और किस विधि से यह व्रत करना चाहिए ।

नारदजी ने कहा : राजेन्द्र ! सुनो । मैं तुम्हें इस व्रत की शुभकारक विधि बतलाता हूँ । आश्विन मास के कृष्णपक्ष में दशमी के उत्तम दिन को श्रद्धायुक्त चित्त से प्रतःकाल स्नान करो । फिर मध्याह्नकाल में स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक समय भोजन करो तथा रात्रि में भूमि पर सोओ । रात्रि के अन्त में निर्मल प्रभात होने पर एकादशी के दिन दातुन करके मुँह धोओ । इसके बाद भक्तिभाव से निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए उपवास का नियम ग्रहण करो :

अघ स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः ।

श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥

‘कमलनयन भगवान नारायण ! आज मैं सब भोगों से अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करुँगा । अच्युत ! आप मुझे शरण दें । ’

इस प्रकार नियम करके मध्याह्नकाल में पितरों की प्रसन्नता के लिए शालग्राम शिला के सम्मुख विधिपूर्वक श्राद्ध करो तथा दक्षिणा से ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें भोजन कराओ । पितरों को दिये हुए अन्नमय पिण्ड को सूँघकर गाय को खिला दो । फिर धूप और गन्ध आदि से भगवान ह्रषिकेश का पूजन करके रात्रि में उनके समीप जागरण करो । तत्पश्चात् सवेरा होने पर द्वादशी के दिन पुनः भक्तिपूर्वक श्रीहरि की पूजा करो । उसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर भाई बन्धु, नाती और पुत्र आदि के साथ स्वयं मौन होकर भोजन करो ।

राजन् ! इस विधि से आलस्यरहित होकर यह व्रत करो । इससे तुम्हारे पितर भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में चले जायेंगे । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! राजा इन्द्रसेन से ऐसा कहकर देवर्षि नारद अन्तर्धान हो गये । राजा ने उनकी बतायी हुई विधि से अन्त: पुर की रानियों, पुत्रों और भृत्योंसहित उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया ।

कुन्तीनन्दन ! व्रत पूर्ण होने पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । इन्द्रसेन के पिता गरुड़ पर आरुढ़ होकर श्रीविष्णुधाम को चले गये और राजर्षि इन्द्रसेन भी निष्कण्टक राज्य का उपभोग करके अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं स्वर्गलोक को चले गये । इस प्रकार मैंने तुम्हारे सामने ‘इन्दिरा एकादशी’ व्रत के माहात्म्य का वर्णन किया है । इसको पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।