आखिर क्यों मनाया जाता है मोहर्रम

नई दिल्ली: दुनिया के विभिन्न धर्मो के बहुत से त्योहार खुशियों का इजहार करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी त्योहार हैं जो हमे सच्चाई और मानवता के लिए दी गई शहादत की याद दिलाते हैं। ऐसा ही त्योहार है मुहर्रम, जो पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। यह हिजरी संवत का प्रथम मास है। मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन का शोक मनाया जाता है। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।

रसूल मोहम्मद साहब की वफात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया जब 60 हिजरी में हमीद मावीय के पुत्र याजीद राज सिंहासन पर बैठे। सिंहासन पर बैठते ही याजीद ने मदीना के राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा कि तुम इमाम हुसैन को बुलाकर मेरी आज्ञाओं का पालन करने और इस्लाम के सिद्धांतों को ध्यान में लाने के लिए कहो। यदि वह न माने तो इमाम हुसैन का सिर काट कर मेरे पास भेजा जाए। 

वलीद पुत्र अतुवा ने 25 या 26 रजब 60 हिजरी को रात्रि के समय हजरत इमाम हुसैन को राजभवन में बुलाया और उनको यजीद का फरमान सुनाया। इमाम हुसैन ने वलीद से कहा, "मैं एक व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, दुष्ट विचारधारा वाले, अत्याचारी, खुदा रसूल को न मानने वाले, यजीद की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता।" इसके बाद इमाम हुसैन साहब मक्का शरीफ पहुंचे ताकि हज की पवित्र प्रथा को पूरा कर सकें। लेकिन वहां पर भी इमाम हुसैन साहब को किसी प्रकार चैन नहीं लेने दिया गया। शाम को बादशाह यजीद ने अपने सैनिकों को यात्री बना कर हुसैन का कत्ल करने भेज दिया। 

हजरत इमाम हुसैन को पता चल गया कि यजीद ने गुप्त रूप से सैनिकों को मुझे कत्ल करने के लिए भेजा है। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहां पर किसी भी प्रकार की हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए कि मक्का में किसी प्रकार का खून-खराबा न हो, इमाम हुसैन ने हज की एक उप प्रथा जिसको इस्लामिक रूप से उमरा कहते हैं, अदा किया। हजरत हुसैन इसके बाद अपने परिवार सहित इराक की ओर चले गए। 

मुहर्रम मास की 2 तारीख 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार और मित्रों सहित कर्बला की भूमि पर पहुंचे और 9 तारीख तक यजीद की सेना को इस्लामिक सिद्धांतों को समझाया। लेकिन हजरत इमाम हुसैन की बातों का यजीद की फौज पर कोई असर नहीं हुआ। जब वह किसी प्रकार भी नहीं माने तो हजरत इमाम हुसैन ने कहा कि तुम मुझे एक रात की मोहलत दे दो ताकि मैं उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की इबादत कर सकूं। यजीद की फौजों ने किसी प्रकार इमाम हुसैन साहब को एक रात की मोहलत दे दी। उस रात को आसुर की रात कहा जाता है। 

हजरत इमाम हुसैन साहब ने उस पूरी रात अपने परिवार तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। मुहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यजीद के सेनापति उमर बिल साद ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। इसके बाद लड़ाई शुरू हो गई।  सुबह नमाज से असर तक इमाम हुसैन के सब साथी जंग में मारे गए। इमाम हुसैन मैदान में अकेले रह गए। खेमे में शोर सुनकर इमाम साहब खेमे में गए तो देखा कि उनका 6 महीने का बच्चा अली असगर प्यास से बेहाल है। हजरत इमाम हुसैन ने अपने बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और मैदाने कर्बला में ले आए।

हजरत इमाम हुसैन साहिब ने यजीद की फौजों से कहा कि बच्चे को थोड़ा सा पानी पिला दो किंतु यजीद की फौजों की तरफ से एक तीर आया और बच्चे के गले पर लगा और बच्चे ने बाप के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद तीन दिन से भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन साहब का कत्ल कर दिया गया। हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम पर तथा मानवता पर अपनी जान कुर्बान की जो अमर है। 

...इसी रात को भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों संग रचाया था रास

नई दिल्ली: आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है ऐसा इसलिए क्योंकि शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचाया था। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। इस बार शरद पूर्णिमा 26 अक्टूबर को पड़ रही है| 

पौराणिक मान्यताएं एवं शरद ऋतु, पूर्णाकार चंद्रमा, संसार भर में उत्सव का माहौल। इन सबके संयुक्त रूप का यदि कोई नाम या पर्व है तो वह है 'शरद पूनम'। वह दिन जब इंतजार होता है रात्रि के उस पहर का जिसमें 16 कलाओं से युक्त चंद्रमा अमृत की वर्षा धरती पर करता है। वर्षा ऋतु की जरावस्था और शरद ऋतु के बाल रूप का यह सुंदर संजोग हर किसी का मन मोह लेता है। सम्पूर्ण वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा ही षोडस कलाओं का होता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं जो कई बिमारियों का नाश कर देती हैं। 

आपको बता दें की एक यह भी मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। शरद पूर्णिमा के बाद से मौसम में परिवर्तन की शुरुआत होती है और शीत ऋतु का आगमन होता है। कहते हैं कि इस दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। शरद पूर्णिमा के दिन शाम को खीर, पूरी बनाकर भगवान को भोग लगाएँ । भोग लगाकर खीर को छत पर रख दें और रात को भगवान का भजन करें। चाँद की रोशन में सुईं पिरोएँ । अगले दिन खीर का प्रसाद सबको देना चाहिए । 

इस दिन प्रात:काल आराध्य देव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करें । आसन पर विराजमान कर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करनी चाहिए| सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर घी के 100 दीपक जलाए। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूंगी। इस प्रकार यह शरद पूर्णिमा, कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं मां लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।

बहुत ही गुणकारी है अलसी

अलसी, तीसी, अतसी, कॉमन फ्लेक्स और वानस्पतिक लिनभयूसिटेटिसिमनम नाम से विख्यात तिलहन अलसी के पौधे बागों और खेतों में खरपतवार के रूप में तो उगते ही हैं, इसकी खेती भी की जाती है। इसका पौधा दो से चार फुट तक ऊंचा, जड़ चार से आठ इंच तक लंबी, पत्ते एक से तीन इंच लंबे, फूल नीले रंग के गोल, आधा से एक इंच व्यास के होते हैं। इसके बीज और बीजों का तेल औषधि के रूप में उपयोगी है। अलसी की पुल्टिस का प्रयोग गले एवं छाती के दर्द, सूजन तथा निमोनिया और पसलियों के दर्द में लगाकर किया जाता है। इसके साथ यह चोट, मोच, जोड़ों की सूजन, शरीर में कहीं गांठ या फोड़ा उठने पर लगाने से शीघ्र लाभ पहुंचाती है। 

अलसी आधुनिक युग में स्त्रियों की यौन-इच्छा, कामोत्तेजना, चरम-आनंद विकार, बांझपन, गर्भपात, दुग्धअल्पता की महान औषधि है। स्त्रियों की सभी लैंगिक समस्याओं के सारे उपचारों से सर्वश्रेष्ठ और सुरक्षित है अलसी। ( व्हाई वी लव और ऐनाटॉमी ऑफ लव)  की महान लेखिका, शोधकर्ता और चिंतक हेलन फिशर भी अलसी को प्रेम, काम-पिपासा और लैंगिक संसर्ग के लिए आवश्यक सभी रसायनों जैसे डोपामीन, नाइट्रिक ऑक्साइड, नोरइपिनेफ्रीन, ऑक्सिटोसिन, सीरोटोनिन, टेस्टोस्टिरोन और फेरोमोन्स का प्रमुख घटक मानती है|

सबसे पहले तो अलसी आप और आपके जीवनसाथी की त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, बेदाग व गोरा बनायेगी। आपके केश काले, घने, मजबूत, चमकदार और रेशमी हो जायेंगे। अलसी आपकी देह को ऊर्जावान और मांसल बना देगी।शरीर में चुस्ती-फुर्ती बनी गहेगी, न क्रोध आयेगा और न कभी थकावट होगी। मन शांत, सकारात्मक और दिव्य हो जायेगा। अलसी में ओमेगा-3 फैट, आर्जिनीन, लिगनेन, सेलेनियम, जिंक और मेगनीशियम होते हैं जो स्त्री हार्मोन्स, टेस्टोस्टिरोन और फेरोमोन्स ( आकर्षण के हार्मोन) के निर्माण के मूलभूत घटक हैं। टेस्टोस्टिरोन आपकी कामेच्छा को चरम स्तर पर रखता है। अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट और लिगनेन जननेन्द्रियों में रक्त के प्रवाह को बढ़ाती हैं, जिससे कामोत्तेजना बढ़ती है।

इसके अलावा ये शिथिल पड़ी क्षतिग्रस्त नाड़ियों का कायाकल्प करती हैं जिससे मस्तिष्क और जननेन्द्रियों के बीच सूचनाओं एवं संवेदनाओं का प्रवाह दुरुस्त हो जाता है। नाड़ियों को स्वस्थ रखने में अलसी में विद्यमान लेसीथिन, विटामिन बी ग्रुप, बीटा केरोटीन, फोलेट, कॉपर आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अलसी को धीमी आँच पर हल्का भून लें। फिर मिक्सर में पीस कर किसी एयर टाइट डिब्बे में भरकर रख लें। रोज सुबह-शाम एक-एक चम्मच पावडर पानी के साथ लें। इसे अधिक मात्रा में पीस कर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यह खराब होने लगती है। इसलिए थोड़ा-थोड़ा ही पीस कर रखें। अलसी सेवन के दौरान पानी खूब पीना चाहिए। इसमें फायबर अधिक होता है, जो पानी ज्यादा माँगता है।

अलसी हमारी पाचन शक्ति बढ़ाती है और हमारे शरीर को ऊर्जा देने में सहायता करती है। अलसी के बीजों में फाइबर, विटामिन्स तथा प्रोटीन्स प्रचुर मात्रा में मौजूद होते हैं। प्रोटीन्स शरीर के सही विकास  में सहायक होते हैं। अलसी में फाइबर की मात्रा उच्च होने के कारण कोलोन का स्वास्थ्य बरकरार रहता है और आंतडिय़ों की गतिविधि में सुधार होता है। अलसी के बीजों में मौजूद फाइटो-एस्ट्रोजैन्स महिलाओं में रजोनिवृत्ति के बाद के लक्षणों से लडऩे में सहायक होते हैं। माहवारी के दौरान जिन महिलाओं को अत्यधिक पेट दर्द होता है, वे अलसी के बीजों से इस दर्द से राहत पा सकती हैं। एक छोटा चम्मच अलसी के बीजों को चबाने से आपको पेट संबंधी समस्याओं तथा पैप्टिक अल्सर से छुटकारा मिल सकता है। 

अलसी के नियमित सेवन से स्त्रियों के स्तनों में वृद्धि होती है। गर्भवती स्त्री के स्तनों में दूध बढ़ाने के लिए भी इसे खाने की सलाह दी जाती है। साथ ही अलसी के बीज महिलाओं में सेक्स के प्रति दिलचस्पी जाग्रत करते हैं। यौनांगों में जलन और योनि संकुचन जैसी बीमारियों के लिए तो इसे अचूक औषधि माना गया है। इसके अलावा मासिक धर्म से संबंधित परेशानियों में भी इसके द्वारा इलाज किया जाता है। अलसी के लगातार सेवन से चेहरे पर भी कांति आती है।

दूसरा एक तरीका है कि आप अलसी को सूखी कढ़ाई में डालिये, रोस्ट कीजिये (अलसी रोस्ट करते समय चट चट की आवाज करती है) और मिक्सी से पीस लीजिये| इन्हें थोड़े दरदरे पीसिये, एकदम बारीक मत कीजिये| भोजन के बाद सौंफ की तरह इसे खाया जा सकता है| लेकिन आप इसे जादा मात्रा में बना के न रक्खे क्युकि ये खराब हो जाती है| एक हफ्ते के लिए बनाना ही चाहिए| अलसी आपको अनाज बेचने वाले तथा पंसारी या आयुर्वेदिक जड़ी बूटी बेचने वालो के यहाँ से मिल जायेगी|

यह पथरी, मूत्र शर्करा और कष्ट से मूत्र आने पर गुणकारी है। अलसी के तेल का धुआं सूंघने से नाक में जमा कफ निकल आता है और पुराने जुकाम में लाभ होता है। यह धुआं हिस्टीरिया रोग में भी गुण दर्शाता है। अलसी के काढ़े से एनिमा देकर मलाशय की शुद्धि की जाती है। उदर रोगों में इसका तेल पिलाया जाता हैं। अलसी के तेल और चूने के पानी का इमल्सन आग से जलने के घाव पर लगाने से घाव बिगड़ता नहीं और जल्दी भरता है। पथरी, सुजाक एवं पेशाब की जलन में अलसी का फांट पीने से रोग में लाभ मिलता है। अलसी के कोल्हू से दबाकर निकाले गए (कोल्ड प्रोसेस्ड) तेल को फ्रिज में एयर टाइट बोतल में रखें। स्नायु रोगों, कमर एवं घुटनों के दर्द में यह तेल पंद्रह मि.ली. मात्रा में सुबह-शाम पीने से काफी लाभ मिलेगा।

बवासीर, भगदर, फिशर आदि रोगों में अलसी का तेल (एरंडी के तेल की तरह) लेने से पेट साफ हो मल चिकना और ढीला निकलता है। इससे इन रोगों की वेदना शांत होती है। अलसी के बीजों का मिक्सी में बनाया गया दरदरा चूर्ण पंद्रह ग्राम, मुलेठी पांच ग्राम, मिश्री बीस ग्राम, आधे नींबू के रस को उबलते हुए तीन सौ ग्राम पानी में डालकर बर्तन को ढक दें। तीन घंटे बाद छानकर पीएं। इससे गले व श्वास नली का कफ पिघल कर जल्दी बाहर निकल जाएगा। मूत्र भी खुलकर आने लगेगा। इसकी पुल्टिस हल्की गर्म कर फोड़ा, गांठ, गठिया, संधिवात, सूजन आदि में लाभ मिलता है। कई असाध्य रोग जैसे अस्थमा, एल्ज़ीमर्स, मल्टीपल स्कीरोसिस, डिप्रेशन, पार्किनसन्स, ल्यूपस नेफ्राइटिस, एड्स, स्वाइन फ्लू आदि का भी उपचार करती है अलसी। कभी-कभी चश्में से भी मुक्ति दिला देती है अलसी। दृष्टि को स्पष्ट और सतरंगी बना देती है अलसी।

अलसी शर्करा ही नियंत्रित नहीं रखती, बल्कि मधुमेह के दुष्प्रभावों से सुरक्षा और उपचार भी करती है। अलसी में रेशे भरपूर 27% पर शर्करा 1.8% यानी नगण्य होती है। इसलिए यह शून्य-शर्करा आहार कहलाती है और मधुमेह के लिए आदर्श आहार है। अलसी बी.एम.आर. बढ़ाती है, खाने की ललक कम करती है, चर्बी कम करती है, शक्ति व स्टेमिना बढ़ाती है, आलस्य दूर करती है और वजन कम करने में सहायता करती है। चूँकि ओमेगा-3 और प्रोटीन मांस-पेशियों का विकास करते हैं अतः बॉडी बिल्डिंग के लिये भी नम्बर वन सप्लीमेन्ट है अलसी।


ध्यान रहे -आयुर्वेदिक  चिकित्सक से विचार - विमर्श  ज़रूर कर ले।


जानिए महिलायें क्यों नहीं फोड़ती नारियल?

नई दिल्ली: आपको पता होगा की कोई भी होम हो, कथा हो पूजा हो या फिर विवाह हो नारियल की पूर्ण आहुति के बिना संपन्न नहीं होता है। आपने देखा होगा कि कथा या पूजा या किसी भी कार्य का शुभारंभ करने से पहले नारियल केवल पुरुष ही फोड़ते हैं महिलायें नहीं? क्या आप जानते हैं कि आखिर ऐसा क्या है कि महिलायें नारियल नहीं फोड़ती| 

आपको बता दें कि नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। पूजा में हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं। नारियल तोड़ने का कारण अनिष्ट शक्तियों के संचार पर अंकुश लगाना उन्हें प्रसन्न करना। इसलिए प्रथम नारियल फोडकर स्थान देवता का आवाहन कर वहां की स्थानीय अनिष्ट शक्तियों को नियंत्रित करने की उनसे प्रार्थना की जाती है। 

प्रार्थना द्वारा स्थान देवता के आवाहन से उनकी कृपा स्वरूप नारियल-जल के माध्यम से स्थान देवता की तरंगें सभी दिशाओं में फैलती हैं। इससे कार्यस्थल में प्रवेश करने वाली कष्टदायी स्पंदनों की गति पर अंकुश लगाना संभव होता है।  माना जाता है इससे उस परिसर में स्थान-देवता की सूक्ष्म-तरंगोंका मंडल तैयार होता है व समारोह निर्विघ्न संपन्न होता है। नारियल का एक उपयोग देवी या देवता के स्थान पर फोड़ने में होता है, फोड़ने में ऎसी कुशलता होनी चाहिए चाहिए कि रस छलककर पूरा का पूरा देवता के चरणों पर पड़े, कहीं अन्यत्र नहीं। यह फोड़ना आसान नही होता।

अब आपको बता दें कि महिलायें क्यों नहीं नारियल फोड़ती|  नारियल बीज रूप है, इसलिए इसे प्रजनन क्षमता से जोड़ा गया है। स्त्रियां प्रजनन की कारक हैं और इसी वजह से स्त्रियों के लिए बीज रूप नारियल को फोडऩा वर्जित किया गया है। इसके साथ ही नारियल बलि का प्रतीक है और बलि पुरुषों द्वारा ही दी जाती है। इस कारण से भी महिलाओ द्वारा नारियल नहीं फोड़ा जाता है।

ऐसी मान्यता है की जब भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर अवतार लिया तो वे अपने साथ तीन चीजें- लक्ष्मी, नारियल का वृक्ष तथा कामधेनु लाए इसलिए नारियल के वृक्ष को श्रीफल भी कहा जाता है। श्री का अर्थ है लक्ष्मी अर्थात नारियल लक्ष्मी व विष्णु का फल। नारियल में त्रिदेव अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास माना गया है। श्रीफल भगवान शिव का परम प्रिय फल है। मान्यता अनुसार नारियल में बनी तीन आंखों को त्रिनेत्र के रूप में देखा जाता है। श्रीफल खाने से शारीरिक दुर्बलता दूर होती है। इष्ट को नारियल चढ़ाने से धन संबंधी समस्याएं दूर हो जाती हैं।

पीरियड्स के दौरान भूलकर भी न करें यह 5 काम

नई दिल्ली: महिलाओं के लिए हर माह के कुछ दिन कष्टप्रद होते हैं। हालांकि प्रजनन क्षमता व स्त्री स्वास्थ्य के लिए यह जरूरी भी है। बदलती जीवनशैली, प्रदूषण और खानपान में बदलाव की वजह से ज्यादातर महिलाएं माहवारी के दिनों में दर्द की समस्या से परेशान रहती हैं| पीरियड्स के दौरान महिलाओं के शरीर में कई तरह के हॉर्मोनल बदलाव होते हैं. ऐसे में खानपान के साथ बहुत सी बातों का ध्यान रखना चाहिए| ये ऐसे ही पांच काम हैं जो पीरियड्स के दौरान भूलकर भी नहीं करने चाहिए|
1. असुरक्षित यौन संबंध
ऐसा भूलकर भी नहीं सोचना चाहिए कि पीरियड्स के दिनों में आप गर्भवती नहीं हो सकती हैं| इस दौरान भी गभर्वती होने की संभावना बहुत अधिक होती है| साथ ही संक्रमण से बचने के लिए भी इस दौरान संबंध बनाने से परहेज करना चाहिए|
2. नैपकिन को लेकर लापरवाही
पीरियड्स के दौरान ये बहुत जरूरी है कि आप हर तीन घंटे पर सैनेटरी नैपकिन बदलती रहें| इससे आप संक्रमण से सुरक्षित रहेंगी. साथ ही दुर्गंध की समस्या भी नहीं होगी|
3. बहुत तंग कपड़े पहनना
पीरियड्स के दौरान बहुत तंग कपड़े पहनना सही नहीं है| इन दिनों ऐसे कपड़े पहनें जिन्हें पहनकर आप आराम महसू करें| वरना चिड़चिड़ापन होने की आशंका बढ़ जाती है|
4. खाना छोड़ना हो सकता है खतरनाक
ये बहुत जरूरी है कि आप पर्याप्त मात्रा में खाना लें| खाना छोड़ना खतरनाक हो सकता है| आपको याद रखने की जरूरत है कि इस दौरान शरीर काफी कमजोर होता है, ऐसे में खाना छोड़ना भारी पड़ सकता है| कोशिश करें कि आप जो भी आहार लें वो पौष्ट‍िक ही हो|
5. शारीरिक श्रम से बचें
अगर पीरियड्स के दौरान आपको तेज दर्द होता है या फिर पीठ में अकड़ आ जाती है तो आपके लिए बेहतर होगा कि आप शारीरिक श्रम करने से बचें. वरना आपके शरीर का ये दर्द और अधिक बढ़ सकता है|

क्या सच में रावण के 10 सिर थे ?

नई दिल्ली: हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार आश्विन शुक्ल दशमी के दिन विजयदशमी (दशहरा) का त्यौहार मनाया जाता है। इस वर्ष दशहरा 22 अक्टूबर, 2015 को मनाया जाएगा। दशहरे के दिन कहीं-कहीं लंकापति रावण का पुतला जलाया जाता है और कहीं-कहीं रावण की पूजा की जाती है| कहते हैं दशहरे के दिन की भगवान श्रीराम ने असत्य पर सत्य की विजय पाई थी| लंकापति रावण के बारे में कहा जाता हैं कि उनके 10 सिर थे इसीलिए रावण को दशानन कहा जाता हैं| क्या यह सच में सही हैं? 

कुछ विद्वाओं का मानना हैं कि रावण के 10 सिर नहीं थे किंतु वह 10 सिर होने का भ्रम पैदा कर देता था इसी कारण लोग उसे दशानन कहते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार रावण 6 दर्शन और चारों वेद का ज्ञाता था इसीलिए उसे दसकंठी भी कहा जाता था। दसकंठी कहे जाने के कारण प्रचलन में उसके 10 सिर मान लिए गए।

जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि रावण के गले में बड़ी-बड़ी गोलाकार 9 मणियां होती थीं। उक्त 9 मणियों में उसका सिर दिखाई देता था जिसके कारण उसके 10 सिर होने का भ्रम होता था। हालांकि ज्यादातर विद्वान और पुराणों के अनुसार तो यही सही है कि रावण एक मायावी व्यक्ति था, जो अपनी माया द्वारा 10 सिर होने का भ्रम पैदा कर सकता था। उसकी मायावी शक्ति और जादू के चर्चे जगप्रसिद्ध थे।

रावण के 10 सिर होने की चर्चा रामचरित मानस में आती है। वह कृष्ण पक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिए चला था तथा 1-1 दिन क्रमशः 1-1 सिर कटते थे। इस तरह 10वें दिन अर्थात शुक्ल पक्ष की दशमी को रावण का वध हुआ इसीलिए दशमी के दिन रावण दहन किया जाता है।

रामचरित मानस में वर्णन आता है कि जिस सिर को राम अपने बाण से काट देते थे पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहां पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे- आसुरी माया से बने हुए।

मारीच का चांदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष राम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के 10 सिर और 20 हाथों को भी मायावी या कृत्रिम माना जा सकता है। 


...यहीं गिरी थी देवी सती के दायें पैर की चारों अंगुलियां

हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

कालीघाट काली मंदिर पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर के कालीघाट में स्थित देवी काली का प्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता में भगवती के अनेक प्रख्यान स्थल हैं। परंपरागत रूप से हावड़ा स्टेशन से 7 किलोमीटर दूर काली घाट के काली मंदिर को शक्तिपीठ माना जाता है, जहाँ सती के दाएँ पाँव की 4 उँगलियों (अँगूठा छोड़कर) का पतन हुआ था। यहाँ की शक्ति 'कालिका' व भैरव 'नकुलेश' हैं। इस पीठ में काली की भव्य प्रतिमा मौजूद है, जिनकी लंबी लाल जिह्वा मुख से बाहर निकली है। मंदिर में त्रिनयना माता रक्तांबरा, मुण्डमालिनी, मुक्तकेशी भी विराजमान हैं। पास ही में नकुलेश का भी मंदिर है।

काली मंदिर में देवी काली के प्रचंड रूप की प्रतिमा स्‍थापित है। इस प्रतिमा में देवी काली भगवान शिव के छाती पर पैर रखी हुई हैं। उनके गले में नरमुण्‍डों की माला है। उनके हाथ में कुल्‍हाड़ी तथा कुछ नरमुण्‍ड है। उनके कमर में भी कुछ नरमुण्‍ड बंधा हुआ है। उनकी जीभ निकली हुई है। उनके जीभ से रक्‍त की कुछ बूंदें भी टपक रही हैं। इस मूर्त्ति के पीछे कुछ अनुश्रुतियाँ भी प्रचलित है। इस अनुश्रुति के अनुसार देवी किसी बात पर गुस्‍सा हो गई थीं। इसके बाद उन्‍होंने नरसंहार करना शुरू कर दिया। उनके मार्ग में जो भी आता‍ वह मारा जाता। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्‍ते में लेट गए। देवी ने गुस्‍से में उनकी छाती पर भी पैर रख दिया। इसी समय उन्‍होंने भगवान शिव को पहचान लिया। इसके बाद ही उनका गुस्‍सा शांत हुआ और उन्‍होंने नरसंहार बंद किया।

इस पर्वत पर गिरा था देवी सती का सिर

नई दिल्ली: हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

मसूरी मोटर मार्ग पर तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर सुरकुट पर्वत पर सिद्धपीठ सुरकंडा मंदिर स्थित है। मान्यता है कि देवी सती का सिर इस पर्वत पर गिरा था। गंगा दशहरे के मौके पर यहां मेला लगता है, जबकि हर साल नवरात्रि में मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। खास बात यह है कि मंदिर में प्रसाद के रूप में रौंसली (थुनेर) के पत्ते दिए जाते हैं। दूर-दूर से लोग इस सिद्धपीठ के दर्शनों के लिए यहां आते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए आप ऋषिकेश से वाय चंबा होते हुए कद्दूखाल करीब 80 किमी की दूरी तय कर कद्दूखाल पहुंचा जाता है। कद्दूखाल से दो किमी की पैदल दूरी तय कर मंदिर तक पहुंचा जाता है। देहरादून से वाय मसूरी होते हुए 55 किमी का सफर तय कर यहां पहुंचा जा सकता है। यहां पहुंचने के लिए वाहन आसानी से मिल जाते हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन हरिद्वार व देहरादून हैं और हवाई सेवा जौलीग्रांट तक है।

जानिए हनुमान जी ने क्यों धारण किया पंचमुखी रूप

हिन्दू धर्म में हनुमान जी को कष्ट विनाशक और भय नाशक देवता के रूप में जाना जाता है| बजरंगबली अपनी भक्ति और शक्ति के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं| सारे पापों से मुक्त करने और हर तरह से सुख-आनंद एवं शांति प्रदान करने वाले हनुमान जी की उपासना लाभकारी एवं सुगम मानी गयी है। हनुमान जी ऐसे देवता है जो हर युग में किसी न किसी रूप, शक्ति और गुणों के साथ जगत के लिए संकटमोचक बनकर मौजूद रहते हैं। हनुमान जी के बारे में यह कहा जाता है कि एक बार हनुमाना जी ने पंचमुखी रूप धारण किया| अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि हनुमान जी को पंचमुखी रूप धारण करना पड़ा? 

भगवान श्रीराम और लंकापति रावण युद्ध में भाई रावण की मदद के लिए अहिरावण ने ऐसी माया रची कि सारी सेना गहरी निद्रा में सो गई। तब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण का अपहरण करके उन्हें निद्रावस्था में पाताल लोक ले गया। इस विपदा के समय में सभी ने संकट मोचन हनुमानजी का स्मरण किया। हनुमान जी तुरंत पाताल लोक पहुंचे और द्वार पर रक्षक के रूप में तैनात मकरध्वज से युद्घ कर उसे परास्त किया। जब हनुमानजी पातालपुरी के महल में पहुंचे तो श्रीराम और लक्ष्मण बंधक अवस्था में थे। वहा पांच दीपक पांच दिशाओ में मिले जो माँ भवानी के लिए अहिरावन में जलाये थे | इन पांचो दीपक को एक साथ बुझाने पर अहिरावन का वध हो जायेगा इसी कारण वश हनुमान जी पञ्च मुखी रूप धरा | उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिम्ह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इन पांच मुखों को धारण कर उन्होंने एक साथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया | और फिर राम और लश्मन को मुक्त करवाया |

एक अन्य कथा के अनुसार मरियल नाम का दानव एक बार विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र चुरा ले जाता है | हनुमानजी को जब यह पता चलता है तो वो संकल्प लेते है की वो पुनः चक्र प्राप्त कर के भगवान् विष्णु को सौफ देंगे | मरियल दानव इच्छाअनुसार रूप बदलने में माहिर था अत: विष्णु भगवान हनुमानजी को आशीर्वाद दिया, साथ ही इच्छानुसार वायुगमन की शक्ति के साथ गरुड़-मुख, भय उत्पन्न करने वाला नरसिम्ह-मुख तथा हयग्रीव एवं वराह मुख प्रदान किया। पार्वती जी ने उन्हें कमल पुष्प एवं यम-धर्मराज ने उन्हें पाश नामक अस्त्र प्रदान किया। यह आशीर्वाद एवं इन सबकी शक्तियों के साथ हनुमान जी मायिल पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे। तभी से उनके इस पंचमुखी स्वरूप को भी मान्यता प्राप्त हुई। 


हनुमान जी का पांच मुख वाला विराट रूप पांच दिशाओं का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक स्वरूप में एक मुख, त्रिनेत्र और दो भुजाएं हैं। इन पांच मुखों में नरसिंह, गरुड़, अश्व, वानर और वराह रूप हैं। इनके पांच मुख क्रमश: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊ‌र्ध्व दिशा में प्रधान माने जाते हैं। पूर्व की ओर का मुख वानर का हैं। जिसकी प्रभा करोडों सूर्यो के तेज समान हैं। इनका पूजन करने से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है। पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड का हैं। जो भक्तिप्रद, संकट निवारक माने जाते हैं। गरुड की तरह इनको भी अजर-अमर माना जाता हैं। उत्तर की ओर मुख शूकर का है। इनकी आराधना करने से अपार धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, यश, दिर्धायु प्रदान करने वाल व उत्तम स्वास्थ्य देने में समर्थ हैं। दक्षिणमुखी स्वरूप भगवान नृसिंह का है। जो भक्तों के भय, चिंता, परेशानी को दूर करता हैं। श्री हनुमान का ऊ‌र्ध्वमुख घोडे के समान हैं। इनका यह स्वरुप ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर प्रकट हुआ था। मान्यता है कि हयग्रीवदैत्य का संहार करने के लिए वे अवतरित हुए। ऐसे पंचमुखी हनुमान रुद्र कहलाने वाले बडे कृपालु और दयालु हैं।

एक ऐसा मंदिर जहां शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं देवी!

अभी तक आपने कई ऐसे मंदिर देखे और सुने होंगे जहां देवता नारी के रूप में और देवियां नर के रूप में पूजी जाती हैं| ऐसा ही एक मंदिर स्थित हैं छत्तीसगढ़ राज्य के आलोर गाँव में एक तो सबसे बड़ी बात है कि यह मंदिर नक्सल प्रभावित एरिया में आता इसीलिए भी लोगों की पहुँच से दूर है तो दूसरी बात यह भी हैं कि यह मंदिर साल में केवल एक ही बार खुलता है इसलिए भी यहाँ पर कम लोग ही पहुँच पाते है I इस मंदिर को लिंगाई माता के नाम से जाना जाता है| यह मंदिर एक प्राकृतिक गुफा के भीतर स्थित है I इस मंदिर में कोई देवी की मूर्ती नहीं है बल्कि यहाँ पर एक प्रकृति निर्मित शिवलिंग है जिसे लोग कहते है कि देवी यहाँ पर शिवलिंग के रूप में विराजमान है |

फरसगांव से लगभग 8 किमी दूर पश्चिम से बड़ेडोंगर मार्ग पर ग्राम आलोर स्थित है। ग्राम से लगभग 2 किमी दूर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है जिसे लिंगई गट्टा लिंगई माता के नाम से जाना जाता है। इस छोटी से पहाड़ी के ऊपर विस्तृत फैला हुआ चट्टान के उपर एक विशाल पत्थर है। बाहर से अन्य पत्थर की तरह सामान्य दिखने वाला यह पत्थर स्तूप-नुमा है इस पत्थर की संरचना को भीतर से देखने पर ऐसा लगता है कि मानो कोई विशाल पत्थर को कटोरानुमा तराश कर चट्टान के ऊपर उलट दिया गया है। इस मंदिर के दक्षिण दिशा में एक सुरंग है जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। द्वार इनता छोटा है कि बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जा सकता है। इसके अलावा कोई अन्य राश्ता नहीं है| गुफा के अंदर 25 से 30 आदमी बैठ सकते हैं। गुफा के अंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शिवलिंग है जिसकी ऊंचाई लगभग दो फुट होगी, श्रद्धालुओं का मानना है कि इसकी ऊंचाई पहले बहुत कम थी समय के साथ यह बढ़ गई।


इस मंदिर में प्रति दिन पूजा अर्चना नहीं होती है। वर्ष में एक दिन मंदिर का द्वार खुलता है और इसी दिन यहां मेला भरता है। संतान प्राप्ति की मन्नत लिये यहां हर वर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष नवमीं तिथि के पश्चात आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है, तथा दिनभर श्रद्धालुओं द्वारा पूजा अर्चना एवं दर्शन की जाती है। स्थानीय लोगों की ऐसा मान्यता कि यहाँ पर उन लोगों की मुराद पूरी होती है जो संतान प्राप्ति के लिए यहाँ आते है I उन्हें खीरा अपने साथ लाना होता है और वह खीरा यहाँ चढ़ाया जाता है और पूजा के बाद उस खीरे को उस दंपत्ति को पुजारी वह खीरा वापस कर देता है I दंपत्ति को वह खीरा अपने नाखूनों से फाड़कर वही खाना होता है जिससे उन्हें संतान की प्राप्ति होती है| मन्नत पूरी होने पर अगले साल श्रद्धा अनुसार चढ़ावा चढ़ाना होता है। 

आखिर क्यों भगवान श्री कृष्ण ने भीम के महाबली पौत्र बर्बरीक का मांगा सिर?

नई दिल्ली: पौराणिक महाकाव्य महाभारत के बारे में जानता तो हर कोई है| यह एक ऐसा शास्‍त्र है जिसके बारे में सबसे ज्‍यादा चर्चा और बातें की जाती है और इस काव्‍य में कई रहस्‍य है जिनके बारे में आजतक सही-सही पता नहीं लग पाया है या फिर बहुत कम लोगों को ही पता है। उदाहरण के लिए- पाण्डु पुत्र भीम के महाबली पौत्र बर्बरीक के बारे में| आपको पता है बर्बरीक अत्यंत बलशाली था| बर्बरीक के पास दिव्यशक्तियां थी वह एक ही बाण से सब कुछ तहस-नहस कर सकता था| लेकिन महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने उससे सिर मांग लिया| क्या आपको पता है भगवान श्री कृष्ण ने भीम के महाबली पौत्र बर्बरीक का सिर मांगा था?


बर्बरीक महाबली भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कक्ष का पुत्र था जो एक महान योद्धा था I चूँकि बर्बरीक का जन्म राक्षस कुल में हुआ था इसलिए वह शरीर से अतिबलशाली था और बड़ा भयंकर था I बर्बरीक ने बचपन से ही कामख्या देवी की तपस्या करके उनसे वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे युद्ध में कोई भी पराजित नहीं कर सकता था I एक कथा के अनुसार बर्बरीक को देवी कामख्या ने तीन ऐसे अद्वितीय तीर दिए थे जिनके चलाने से सम्पूर्ण दुश्मन सेना का नाश किया जा सकता था I

जब कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध अपनी चरम पर था तभी बर्बरीक ने इस युद्ध में सम्मिलित होने का निर्णय ले लिया I लेकिन बर्बरीक ने साथ यह भी सपथ ली वह उसी तरफ से युद्ध करेगा जो दल कमजोर होगा I और जिस समय बर्बरीक युद्ध के मैदान की तरफ बढ़ रहा था उस समय कौरवों की हालत बहुत ही ख़राब हो रही थी अतः बर्बरीक का कौरवों की तरफ लड़ना बिलकुल तय था | भगवान् श्री कृष्ण को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने सोचा कि यह बर्बरीक जीत को हार में बदल देगाI अब भगवान् श्री कृष्ण ने बर्बरीक का वध करने का निर्णय ले लिए और इससे पहले कि बर्बरीक महाभारत के युद्ध के मैदान में पहुँच कर युद्ध का पाशा पलटपाता या फिर युद्ध के मैदान तक पहुँच पाता उससे पहले ही भगवान् श्री कृष्ण उसके पास पहुँच गए I

भगवान् श्री कृष्ण ने बर्बरीक से कहा कि हे महावीर आप इस युद्ध में किस की तरफ से सम्मिलित होने की इच्छा से आये है ? बर्बरीक ने उत्तर दिया कि जो पक्ष कमजोर होगा मैं उसी की तरफ युद्ध करूँगा ! भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि आपके पास तो कोई सेना नहीं है आप कैसे इस युद्ध में अपने पक्ष को विजय दिला पाओगे ? बर्बरीक ने कहा कि मेरे पास वह दिव्य शक्तियां है कि मैं एक ही बाण से सम्पूर्ण दुश्मन सेना का वध कर सकता हूँ ! भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि क्या आप मुझे वह विद्या दिखा सकते हैं ? कृष्ण ने कहा कि यह जो वृक्ष है ‍इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊँगा। बर्बरीक ने आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया।

जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा, कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया की यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया। तब बर्बरीक ने कहा प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर छेदने की नहीं। उसके इस चमत्कार को देखकर कृष्ण चिंतित हो गए।

भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का भेष बनाकर अगले दिन बर्बरीक के शिविर के द्वार पर पहुँच गए और दान माँगने लगे। बर्बरीक ने कहा माँगो ब्राह्मण! क्या चाहिए? ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा कि तुम दे न सकोगे। लेकिन बर्बरीक कृष्ण के जाल में फँस गए और कृष्ण ने उससे उसका शीश माँग लिया। बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीशदान कर दिया। दान के पश्चात बर्बरीक ने कहा मेरी ये प्रबलतम इच्छा थी की काश महाभारत का युद्ध देख पाता ! तब भगवान् श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ आपकी ये इच्छा मैं पूर्ण करूंगा ! मैं आपके शीश को इस पीपल की सबसे उंची शाखा पर रख देता हूँ ! और आपको वो दिव्य दृष्टी प्राप्त है जिससे आप ये युद्ध पूरा आराम से देख पायेंगे ! उस योद्धा बर्बरीक ने अपना शीश काटकर श्री कृष्ण को दे दिया ! और श्री कृष्ण ने उसको वृक्ष की चोटी पर रखवा दिया|

दान के पश्चात्‌ श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को वर देते हुए कहा कि मैं आपको खुश होकर ये वरदान देता हूँ की आप कलयुग में मेरे श्याम नाम से पूजे जायेंगे| और उस समय आप लोगो का कल्याण करेंगे| और उनके दुःख क्लेश दूर करेंगे| ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने उस शीश को खाटू नामक ग्राम में स्थापित कर दिया| ये जगह आज लाखो भक्तो और श्रद्धालुओं की आस्था का स्थान है| यह जगह आज खाटू श्यामजी ( जिला-सीकर, राजस्थान ) के नाम से प्रसिद्द है|

...यहां गिरा था देवी सती का स्तन !

नई दिल्ली: हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।


51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

एेसा ही एक शक्तिपीठ है पंजाब के जलंधर शहर में जो त्रिपुरमालिनी शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। एेसी मान्यता है कि इस शक्तिपीठ में देवी सती का स्तन गिरा था। इसलिए इसे स्तनपीठ भी कहते हैं। इस मंदिर में पीठ स्थान पर स्तनमूर्ति एक कपडे से ढकी रहती है। जबकि मूर्ति का धातु से बना मुख मंडल बाहर दिखाई देता है। आम दिनों की बात करें तो यहां रविवार आैर मंगलवार के बड़ी संख्या में ऋद्धालु आते हैं। जबकि नवरात्र के दिनों में तो यहां की रौनक देखते ही बनती है। चैत्र नवरात्र की पंचमी तिथि के दिन यहां भव्य मेला लगता है। त्रिपुरामालिनी शक्ति पीठ के विषय में कहा गया है कि इस स्थान पर संयोगवश भी जिसकी मृ्त्यु हो जाती है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां तक की अगर कोई पशु भी यहां प्राण त्याग देता है, तो वह भी सद्गति प्राप्त कर लेता है। इस शक्ति पीठ से जुडी अन्य मान्यता के अनुसार यहां सभी देवी देवता व अन्य सभी तीर्थ भी अंश रुप में रहते है।

गजब: इस रेस्टोरेंट में बंदर करते हैं वेटर का काम

टोक्यो: जब आप किसी होटल में जाते हैं तो वहां आपकी खातिरदारी के लिए वेटर होते हैं| जो खाना परोसने से लेकर आपकी हर जरूरतों पर ध्यान देते हैं| आपने देखा होगा कि कहीं पर पुरूष और कहीं पर महिलाएं तक इस रोल को बखूबी निभाते हैं। लेकिन आज आपको एक ऐसा रैस्टोरेंट बताते हैं जहाँ कोई महिला या पुरुष नहीं बल्कि बंदर वेटर का काम करते हैं| जी हाँ यह रेस्टोरेंट है जापान की राजधानी टोक्यो मे स्तिथ काबुकी रेस्टोरेंट|


यह रेस्टोरेंट इस मामले मे विचित्र है कि यहां पर वेटर का काम इन्सान कि जगह बन्दर करते है। इस रेस्टोरेंट में बंदर येट चेन और फुकु चेन, 2008 से वेटर का काम कर रहे है। इनमे से येट चेन बड़ा है। जैसे ही कोई कस्टमर रेस्टोरेंट मे प्रवेश करता है दोनो बन्दर अपने काम मे लग जाते है। एक कस्टमर को उसकी सीट तक ले जाता है और दूसरा उसके हाथ पोंछने के लिऎ टॉवल ले आता है। उसके बाद एक बन्दर उनसे ऑर्डर लेता है और दूसरा बन्दर ऑर्डर सर्व करता है।

रेस्टोरेंट का मालिक इन्हे पालतू बन्दर के रूप मे लेकर आया था। लेकिन जब बड़े बन्दर येट चेन ने रेस्टोरेंट के काम दिलचस्पी दिखाना शुरू किया तो मालिक को लगा की ये बन्दर रेस्टोरेंट का काम कर सकता है। एक बार रेस्टोरेट मालिक ने कस्टमर के आने पर येट चेन को गर्म टॉवल दिया , येट चेन उसे सीधा कस्टमर को देके आ गया, जैसा कि उसका मालिक करता था। हालांकि फुक चेन को उन्हे ट्रेन्ड करना पड़ा।

इन बंदर वेटर से मालिक और वेटर दोनो ही बहुत खुश है। कस्टमर्स के अनुसार इंसानी वेटर्स कि तुलना में यह बहुत अच्छे है क्योकि इंसानी वेटर्स की तरह इनके व्यवहार को लेकर कभी भी शिकायत नहीं होती है। दूसरी बात यह की यह कभी भी टिप नहीं मांगते है। मालिक के लिए खुशी की बात यह है कि इन मंकी वेटर्स ने उन्हे कभी भी शिकायत का मौका नही दिया है। ये ग्राहकों द्वारा दिए गए आर्डर को एकदम सही समझते है और टेबल तक वही चीज पहुँचाते है। इसके अलावा एक मजे की बात यह है कि इन्हे तनख्वाह (पेमेंट) में केवल सोयाबीन चिप्स देनी पड़ती है।