जानिए तिल चतुर्थी की कथा, महत्व व पूजन विधि


माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकटा गणेश चतुर्थी का व्रत किया जाता है| इसे तिल चतुर्थी भी कहते हैं | इस बार तिल चतुर्थी 30 जनवरी दिन बुधवार को पड़ रही है| इस दिन भगवान श्री गणेश व चंद्रमा की पूजा की जाती है| 

तिल चतुर्थी व्रत की विधि-

तिल चतुर्थी या संकटा चतुर्थी के दिन सुबह स्नानादि करके स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए| उसके बाद विघ्न विनाशक भगवान श्री गणेश की पूजा करें| पूजा के दौरान भगवान गणेश की धूप-दीप आदि से आराधना करनी चाहिए| उसके बाद फल,फूल, अक्षत, रौली,मौली, पंचामृत से स्नान आदि कराने के पश्चात भगवान गणेश को तिल से बनी वस्तुओं या तिल तथा गुड़ से बने लड्डुओं का भोग लगायें| पूजा करते समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए| संध्या समय में कथा सुनने के पश्चात गणेश जी की आरती करनी चाहिए. इससे आपको मानसिक शान्ति मिलने के साथ आपके घर-परिवार के सुख व समृद्धि में वृद्धि होगी| 

तिल चतुर्थी व्रत का महत्व-

मान्यता है कि इस दिन जो व्यक्ति भगवान गणेश की पूजा श्रद्धा और भक्ति भाव से करता है उस व्यक्ति की सभी व्याधियों को गणेश जी हर लेते हैं| सभी प्रकार के विघ्न तथा बाधाओं से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है| माघ माह की कृष्ण पक्ष की गणेश चतुर्थी को जो व्यक्ति श्रद्धा और विश्वास से गणेश जी का उपवास करते हैं, गणेश जी प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं| यह चतुर्थी सभी प्रकार के संकटों को हरने वाली होती है, इसलिए इसे संकष्ट चतुर्थी कहा गया है| 

गणेश तिल चतुर्थी की व्रत कथा-

एक बार देवता अनेक विपदाओं में घिरे थे। तब वे मदद के लिए भगवान शिव के पास आए। उस समय भगवान शिव के साथ कार्तिकेय तथा गणेशजी भी थे। देवताओं की बात सुनकर शिवजी ने कार्तिकेय व गणेशजी से पूछा कि तुम में से कौन देवताओं के कष्टों का निवारण कर सकता है। तब कार्तिकेय व गणेशजी दोनों ने ही स्वयं को इस कार्य के लिए सक्षम बताया। इस पर भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेते हुए कहा कि तुम दोनों में से जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आएगा वही देवताओं की मदद करने जाएगा।

यह सुनते ही कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल गये। गणेशजी सोच में पड़ गये कि वह चूहे के ऊपर चढ़कर सारी पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे तो उन्हें बहुत समय लग जायेगा। तभी उन्हें एक उपाय सुझा वे अपने स्थान से उठकर सात बार अपने माता-पिता की परिक्रमा करके बैठ गए। परिक्रमा करके लौटने पर कार्तिकेय स्वयं को विजेता बताने लगे। तब शिवजी ने श्रीगणेश से पृथ्वी की परिक्रमा ना करने का कारण पूछा।

तब गणेश जी बोले कि माता-पिता के चरणों में ही समस्त लोक हैं। यह सुनकर भगवान शिव ने गणेशजी को देवताओं के संकट दूर करने की आज्ञा दी। इस प्रकार भगवान शिव ने गणेशजी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में चन्द्रमा को अध्र्य देगा उसके तीनों ताप - दैहिक ताप, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर होगें। उस व्यक्ति को सभी प्रकार के दु:खों से मुक्ति मिलेगी। उसे सभी प्रकार के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी व सुख तथा समृद्धि में वृद्धि होगी।

इसके अलावा गणेश संकष्ट चतुर्थी व्रत की एक अन्य कथा है जो सबसे अधिक प्रचलित है- 

प्राचीन समय में एक नगर में एक कुम्हार राज्य के बर्तन बनाने का कार्य करता था| जिसमें मिट्टी के बर्तन पकाए जाते हैं उसे आँवा कहते हैं| आँवा लगाने के एक वर्ष में बर्तन पक कर तैयार होते थे| एक बार उस कुम्हार ने आँवा लगाया परन्तु बर्तन पके ही नहीं| इससे वह कुम्हार परेशान होकर राजा के पास गया| राजा ने आँवा ना पकने का कारण राजपण्डित से पूछा| राज पण्डित ने कहा कि जब भी आँवा लगाया जाएगा तब एक बच्चे की बलि देने से आँवा पकेगा अन्यथा आँवा नहीं पकेगा| राजा ने आज्ञा दी कि प्रत्येक वर्ष एक घर से एक बच्चे की बलि दी जाएगी| इस प्रकार आँवा पकाने के लिए हर वर्ष एक बच्चे की बलि देने का प्रचलन चल पडा़| 

कुछ वर्षों बाद राज्य में रहने वाली एक बुढि़या के बेटे की बारी आई| बुढि़या का उसके बेटे के अलावा कोई अन्य सहारा नहीं था| बुढि़या को अपने बेटे के जाने का बहुत दु:ख था| वह सोचने लगी कि मेरा तो एक ही बेटा है और वह भी मुझसे जुदा हो जाएगा| उसने अपने कलेजे पर पत्थर रख कर अपने बेटे को बलि के लिए भेज दिया| बुढि़या ने उस दिन संकष्ट चतुर्थी का व्रत रखा हुआ था| उसने अपने बेटे के हाथ में थोडे़ से तिल देकर कहा कि जब तुम आँवे में बैठोगे तब अपने चारों ओर यह तिल डाल देना बाकि भगवान गणेश पर छोड़ देना वो जैसा चाहेगें वैसा करेंगें| उस दिन वह स्वयं भगवान गणेश की पूजा करती रही और रो-रो कर यही प्रार्थना करती रही कि मेरे बच्चे कि रक्षा करना| उसके बेटे ने अपनी माँ के दिए तिलों को आँवे में बैठने के बाद अपने चारों ओर बिखेर दिया और भगवान गणेश का ध्यान करने लगा| 

आँवे में मिट्टी के बर्तनों को पकने में एक वर्ष का समय लगता था परन्तु उस दिन एक दिन के बाद ही आँवा ठण्डा हो गया और बर्तन पक गए| कुम्हार को बहुत हैरानी हुई कि यह कैसे हुआ| उसने आँवा हटाया और यह देखकर हैरान हो गया कि बुढि़या का बेटा जीवित बैठा है और गणेश जी का ध्यान कर रहा है| उसके साथ नगर के अन्य बालक भी जीवित थे| कुम्हार ने राजा को इस बात की सूचना दी| राजा ने सम्पूर्ण वृतान्त के बारे में बुढि़या के बेटे से पूछा, उसने अपनी माँ द्वारा रखे गये उपवास तथा गणेश जी की महिमा के बारे में बताया| सारी बातें जानने के पश्चात राजा ने बुढि़या तथा उसके बेटे को बहुत से उपहार और इनाम दिए| साथ ही सारे नगरवासियों से निवेदन किया कि अपने परिवार और राज्य की रक्षा के लिए माघ मास की कृष्ण पक्ष की गणेश संकष्ट चतुर्थी का व्रत करें| इससे सभी की बाधाएं दूर होगी तथा मनोकामनाएं भगवान गणेश पूर्ण करेंगें| 

जानिए दाह संस्कार में चंदन की लकड़ी क्यों...?

भारत मान्यताओं और परम्पराओं का देश है| यहाँ तमाम तरह की परम्पराएँ है| इन परम्पराओं में एक हिन्दू मृतक का दाह संस्कार करते समय उसके मुख पर चंदन रखकर जलाने की परम्परा| यह परम्परा आज से नहीं बल्कि प्राचीन काल से ही चली आ रही है| क्या आप जानते हैं कि दाह संस्कार में चंदन या चंदन की लकड़ी क्यों लगती हैं यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि हिन्दू परम्परा में मृतक के दाह संस्कार करते समय चंदन की लकड़ी या चंदन रखकर जलाने की परम्परा क्यों है|

आपको बता दें कि दाह संस्कार में चंदन की लकड़ी या चंदन रखकर जलाने की परम्परा की पीछे सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक कारण भी है| चंदन को अत्यंत शीतल माना गया है| यही वजह है कि अपने दिमाग को शीतलता प्रदान करने के लिए लोग उसे घिसकर मस्तिक पर लगाते हैं| धार्मिक मान्यता है कि मृतक के मुख पर चंदन की लकड़ी रखकर दाह संस्कार करने से उसकी आत्मा को भी शांति मिलती है|

मृतक के शरीर पर चंदन की लकड़ी रखने का केवल धार्मिक कारण ही नहीं अपितु वैज्ञानिक कारण भी है| वह यह कि मृतक के शरीर में आग लगने से हड्डियों और मांस के जलने से दुर्गन्ध आती हैं ऐसे में शरीर के साथ- साथ जब चंदन की लकड़ी जलती है तो वह दुर्गन्ध को कम कर देती है|

पुत्रदा एकादशी व्रत से होती है मनोवांछित फल की प्राप्ति


हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रतिवर्ष पुत्रदा एकादशी का व्रत पौष माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है| इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है| इस बार पुत्रदा एकादशी 22 जनवरी दिन मंगलवार को पड़ रही है| 


पुत्रदा एकादशी व्रत की विधि-



इस एकादशी के दिन भगवान नारायण की पूजा की जाती है| सुबह स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने के पश्चात श्रीहरि का ध्यान करना चाहिए| सबसे पहले धूप दीप आदि से भगवान नारायण की पूजा अर्चना की जाती है, उसके बाद फल- फूल, नारियल, पान सुपारी लौंग, बेर आंवला आदि व्यक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार भगवान नारायण को अर्पित करते हैं| पूरे दिन निराहार रहकर संध्या समय में कथा आदि सुनने के पश्चात फलाहार किया जाता है|



पुत्रदा एकादशी व्रत का महत्व-



इस व्रत के नाम के अनुसार ही इस व्रत का फल है| जिन व्यक्तियों के संतान होने में बाधाएं आती हैं उनके लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत बहुत ही शुभफलदायक होता है| इसलिए संतान प्राप्ति के लिए इस व्रत को व्यक्ति विशेष को अवश्य रखना चाहिए, जिससे उन्हें मनोवांछित फल की प्राप्ति हो|



पुत्रदा एकादशी व्रत कथा-



युधिष्ठिर बोले: श्रीकृष्ण ! कृपा करके पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का माहात्म्य बतलाइये । उसका नाम क्या है? उसे करने की विधि क्या है ? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?



भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: राजन्! पौष मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम ‘पुत्रदा’ है ।



‘पुत्रदा एकादशी’ को नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरि का पूजन करे । नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा नींबू, जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों से देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए । इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना करे ।



‘पुत्रदा एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होति है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता । यह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है ।



चराचर जगतसहित समस्त त्रिलोकी में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है । समस्त कामनाओं तथा सिद्धियों के दाता भगवान नारायण इस तिथि के अधिदेवता हैं ।



"पूर्वकाल की बात है, भद्रावतीपुरी में राजा सुकेतुमान राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छ्वास से गरम करके पीते थे । ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा …’ यह सोच सोचकर पितर दु:खी रहते थे ।



एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये । पुरोहित आदि किसीको भी इस बात का पता न था । मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे । मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे । इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गयी । राजा को भूख और प्यास सताने लगी । वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे । किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे । शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा । उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे । राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे । उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे । वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे । जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् किया,तब मुनि बोले : ‘राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं।’



राजा बोले: आप लोग कौन हैं ? आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित हुए हैं? कृपया यह सब बताइये ।



मुनि बोले: राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं । यहाँ स्नान के लिए आये हैं । माघ मास निकट आया है । आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा । आज ही ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है,जो व्रत करनेवाले मनुष्यों को पुत्र देती है ।



राजा ने कहा: विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।



मुनि बोले: राजन्! आज ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो । महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।



भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ का अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया । प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ ।



इसलिए राजन्! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए । मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा एकादशी’ का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है । 

जाने धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के नाम

महाभारत का नाम किसने नहीं सुना होगा| महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच हुआ था| यह भी पता होगा महाराज पाण्डु के पुत्र पांडव कहलाये और धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाये| क्या आपको सौ कौरवों के नाम पता है? यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं सौ कौरवों के नाम- 

पुराणों के अनुसार, ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इला-नन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। उनसे आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु हुए। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद और विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए थे। चित्रांगद चित्रांगद नाम वाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये और राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की आज्ञा से व्यासजी ने नियोग के द्वारा अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु को उत्पन्न किया। धृतराष्ट्र ने गांधारी द्वारा सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के युधिष्टर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पांच पुत्र हुए। 

धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे, अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया। एक बार वन में आखेट खेलते हुए पाण्डु के बाण से एक मैथुनरत मृगरुपधारी ऋषि की मृत्यु हो गयी। उस ऋषि से शापित हो कि "अब जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तो तेरी मृत्यु हो जायेगी", पाण्डु अत्यन्त दुःखी होकर अपनी रानियों सहित समस्त वासनाओं का त्याग करके तथा हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र को अपना का प्रतिनिधि बनाकर वन में रहने लगें।

तो आइये जाने धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के नाम-

दुर्योधन, दु:शासन, दु:सह, दु:शल, जलसंघ, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुर्धर्ष, सुबाहु, दुषप्रधर्षण, दुर्मशर्ण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, विकर्ण, शल, सत्वान, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मद, दुर्विगाह, विवित्सु, विक्टानन्द, ऊर्णनाभ, सुनाभ, नन्द, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, अयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बालाकि, बलवर्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधर, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृंदारक, द्दणवर्मा, द्रढ़क्षत्र, सोमकिर्ती, अनूदर, दढ़संघ, जरासंघ, सत्यसंघ, सद्सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढहस्त, सुहस्त, वातवेग, सुवर्च, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, उग्रशायी, कवचि, क्रथन, कुण्डी, भीमविक्र, धनुर्धर, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, दृढकर्मा, दृढथाश्र्य, अनाध्रश्य, कुण्डभेदी, विरवि, चित्रकुण्डल, प्रधम, अमाप्रमाथि, दीर्घरोमा, सुवीर्यवान, दीर्घबाहु, सुजात, कनकध्वज, कुण्डाशी, विरज, युयुत्सु, इसके अलावा धृतराष्ट्र के एक पुत्री भी थी जिसका नाम दुश्शाला था| 

सफला एकादशी व्रत से मिलता है हजारों यज्ञों का फल

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। पद्मपुराण के अनुसार, पौष मास में कृष्ण पक्ष की एकादशी को सफला नामक एकादशी के नाम से जाना जाता है| इस बार यह व्रत 8 जनवरी दिन मंगलवार को मनाया जायेगा| सफला एकादशी के विषय में कहा गया है, कि यह एकादशी व्यक्ति को सहस्त्र वर्ष तपस्या करने से जिस पुण्य की प्रप्ति होती है| वह पुण्य भक्ति पूर्वक रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी का व्रत करने से मिलता है| मान्यता है कि सफला एकादशी का व्रत करने से कई पीढियों के पाप दूर होते है|

सफला एकादशी की व्रत विधि-

सफला एकादशी के व्रत में देव श्री विष्णु का पूजन किया जाता है| जिस व्यक्ति को सफला एकाद्शी का व्रत करना हो व इस व्रत का संकल्प करके इस व्रत का आरंभ नियम दशमी तिथि से ही प्रारम्भ करे| व्रत के दिन व्रत के सामान्य नियमों का पालन करना चाहिए| इसके साथ ही साथ जहां तक हो सके व्रत के दिन सात्विक भोजन करना चाहिए| भोजन में उसे नमक का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए| इस व्रत को करने वाले व्यक्ति को व्रत के दिन प्रातःकाल स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण कर माथे पर श्रीखंड चंदन अथवा गोपी चंदन लगाकर कमल अथवा वैजयन्ती फूल, फल, गंगा जल, पंचामृत, धूप, दीप, सहित लक्ष्मी नारायण की पूजा एवं आरती करें और और भगवान को भोग लगायें| इस दिन भगवान नारायण की पूजा का विशेष महत्व होता है| ब्राह्मणों तथा गरीबों, को भोजन अथवा दान देना चाहिए| इस व्रत में रात्रि जागरण का बहुत ही महत्व है इसलिए व्रती को चाहिए कि वह रात्रि में कीर्तन पाठ आदि करे| यह एकादशी व्यक्ति को सभी कार्यों में सफलता प्रदान कराती है|

सफला एकादशी की कथा-

एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा: प्रभु! पौष मास के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता की पूजा की जाती है? यह बताइये ।

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा: राजन सुनो! बड़ी बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है। पौष मास के कृष्णपक्ष में ‘सफला’ नाम की एकादशी होती है। उस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए। जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है।

राजन् ! ‘सफला एकादशी’ को नाम मंत्रों का उच्चारण करके नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा तथा जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों और धूप दीप से श्रीहरि का पूजन करे। ‘सफला एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है। रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए। जागरण करने वाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता।

नृपश्रेष्ठ ! अब ‘सफला एकादशी’ की शुभकारिणी कथा सुनो। चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी । राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे । उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था । परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था । उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया । वह सदा दुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था । अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । लुम्भक गहन वन में चला गया । वहीं रहकर उसने प्राय: समूचे नगर का धन लूट लिया । एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया । किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया । फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा । उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था । उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था । पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था ।

एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया । पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा । उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला । वह निष्प्राण सा हो रहा था । सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया । ‘सफला एकादशी’ के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा । दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई । फिर इधर उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लँगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया । वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था । राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल पर लौटा, तब तक सूर्यदेव अस्त हो गये । तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा: ‘इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों ।’ यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली । इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया| उस समय सहसा आकाशवाणी हुई: ‘राजकुमार ! तुम ‘सफला एकादशी’ के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया । इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया । तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता ।

राजन् ! इस प्रकार जो ‘सफला एकादशी’ का उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है । संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला एकादशी’ के व्रत में लगे रहते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है । महाराज! इसकी महिमा को पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है ।

लोहड़ी: प्रेम-सौहार्द का पर्व

लोहड़ी उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध त्योहार है। हिन्दू पंचांग के अनुसार, लोहड़ी मकर संक्रांति के एक दिन पहले मनाई जाती है और इस बार लोहड़ी का पर्व दो दिन यानि की 12 और 13 जनवरी को मनाया जाएगा| वहीँ मकर संक्रांति इस बार 14 जनवरी दिन रविवार को पड़ रही है| इन दोनों पर्वों में इस बार दो दिनों का अंतर इसलिए आ गया है क्योंकि सूर्य 13 तारीख को अर्धरात्रि के बाद मकर राशि में प्रवेश कर रहा है| लोहड़ी को सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण में आने का स्वागत पर्व भी माना जाता है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल एवं कश्मीर में इस त्यौहार की सबसे ज्यादा धूम रहती है।

लोहड़ी से 20 से 25 दिन पहले ही बालक एवं बालिकाएँ 'लोहड़ी' के लोकगीत गाकर लकड़ी और उपले इकट्ठे करते हैं। संचित सामग्री से चौराहे या मुहल्ले के किसी खुले स्थान पर आग जलाई जाती है। मुहल्ले या गाँव भर के लोग अग्नि के चारों ओर आसन जमा लेते हैं। घर और व्यवसाय के कामकाज से निपटकर प्रत्येक परिवार अग्नि की परिक्रमा करता है। रेवड़ी अग्नि की भेंट किए जाते हैं तथा ये ही चीजें प्रसाद के रूप में सभी उपस्थित लोगों को बाँटी जाती हैं। घर लौटते समय 'लोहड़ी' में से दो चार दहकते कोयले, प्रसाद के रूप में, घर पर लाने की प्रथा भी है।

लोहड़ी के दिन सुबह से ही बच्चे घर–घर जाकर गीत गाते हैं तथा प्रत्येक घर से लोहड़ी माँगते हैं। यह कई रूपों में उन्हें प्रदान की जाती है। जैसे तिल, मूँगफली, गुड़, रेवड़ी व गजक। पंजाबी रॉबिन हुड दूल्हा भट्टी की प्रशंसा में गीत गाते हैं। कहते हैं कि दुल्ला भट्टी एक लुटेरा हुआ करता था लेकिन वह हिंदू लड़कियों को बेचे जाने का विरोधी था और उन्हें बचा कर वह उनकी हिंदू लड़कों से शादी करा देता था इस कारण लोग उसे पसंद करते थे और आज भी लोहड़ी गीतों में उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है|

हिन्दू शास्त्रों में यह मान्यता है कि लोहड़ी के दिन इस आग में जो भी समर्पित किया जाता है वह सीधे हमारे देवों-पितरों को जाता है| इसलिए जब लोहड़ी जलाई जाती है तो उसकी पूजा गेहूं की नयी फसल की बालियों से की जाती है| लोहडी के दिन अग्नि को प्रजव्व्लित कर उसके चारों ओर नाच-गाकर शुक्रिया अदा किया जाता है|

यूं तो लोहडी उतरी भारत में प्रत्येक वर्ग, हर आयु के जन के लिये खुशियां लेकर आती है| परन्तु नवविवाहित दम्पतियों और नवजात शिशुओं के लिये यह दिन विशेष होता है| युवक -युवतियां सज-धज, सुन्दर वस्त्रों में एक-दूसरे से गीत-संगीत की प्रतियोगिताएं रखते है| लोहडी की संध्यां में जलती लकडियों के सामने नवविवाहित जोडे अपनी वैवाहिक जीवन को सुखमय व शान्ति पूर्ण बनाये रखने की कामना करते है| सांस्कृतिक स्थलों में लोहडी त्यौहार की तैयारियां समय से कुछ दिन पूर्व ही आरम्भ हो जाती है|

क्यों मनाई जाती है लोहड़ी-

कंस सदैव बालकृष्ण को मारने के लिए नित नए प्रयास करता रहता था। एक बार जब सभी लोग मकर संक्रांति का पर्व मनाने में व्यस्थ थे कंस ने बालकृष्ण को मारने के लिए लोहिता नामक राक्षसी को गोकुल में भेजा था, जिसे बालकृष्ण ने खेल-खेल में ही मार डाला था। लोहिता नामक राक्षसी के नाम पर ही लोहड़ी उत्सव का नाम रखा। उसी घटना की स्मृति में लोहड़ी का पावन पर्व मनाया जाता है।

लोहड़ी पर गिद्दा व भांगड़ा की धूम

लोहडी़ के पर्व पर लोकगीतों की धूम मची रहती है, चारों और ढोल की थाप पर भंगड़ा-गिद्दा करते हुए लोग आनंद से नाचते नज़र आते हैं| लोहडी के दिन में भंगडे की गूंज और शाम होते ही लकडियां की आग और आग में डाले जाने वाले खाद्धानों की महक एक गांव को दूसरे गांव व एक घर को दूसरे घर से बांधे रखती है| यह सिलसिला देर रात तक यूं ही चलता रहता है| बडे-बडे ढोलों की थाप, जिसमें बजाने वाले थक जायें, पर पैरों की थिरकन में कमी न हों, रेवडी और मूंगफली का स्वाद सब एक साथ रात भर चलता रहता है|

पौष की विदाई और माघ का आगमन-

लोहडी पर्व मकर संक्रान्ति से ठीक एक दिन पहले मनाया जाता है तथा इस त्यौहार का सीधा संबन्ध सूर्य के मकर राशि में प्रवेश से होता है| लोहड़ी पौष की आख़िरी रात को मनायी जाती है जो माघ महीने के शुभारम्भ व उत्तरायण काल का शुभ समय के आगमन को दर्शाता है और साथ ही साथ ठंड को दूर करता हुआ मौसम में बदलाव का संकेत बनता है|

इसी तालाब का पानी पीकर राजा सूरजसेन को मिला था जीवनदान


मध्य प्रदेश का एक प्रमुख शहर है ग्वालियर| ग्वालियर अपने पुरातन ऎतिहासिक संबंधों, दर्शनीय स्थलों और एक बड़े सांस्कृतिक, औद्योगिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में जाना जाता है। इसीलिए यहाँ हर वर्ष यहाँ देश- विदेश से हज़ारों की संख्या में पर्यटक आते हैं| इस शहर को उसका नाम उस ऐतिहासिक पत्थरों से बने क़िले के कारण दिया जाता है, जो एक अलग-थलग, सपाट शिखर वाली 3 किलोमीटर लंबी तथा 90 मीटर ऊँची पहाड़ी पर बना है। लेकिन क्या आप जानते है इस शहर का नाम ग्वालियर कैसे पड़ा?


जनश्रुति के अनुसार, आठवीं शताब्दी में एक राजा हुए सूरजसेन| एक दिन राजा जंगल में रास्ता भटक गए तो उन्हें जोरों की प्यास लगी| पानी की तलाश में राजा सूरजसेन इधर-धरा भटक रहे थे कि अचानक उनकी भेंट एक संत से हो गई जिसका नाम था ग्वालिपा| सूरजसेन उस संत से मिलकर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने संत से कहा कि महत्मन मैं बहुत प्यासा हूँ| इस पपर संत राजा को एक तालाब के पास ले गया| तालाब का पानी पीकर राजा सूरजसेन ने अपनी प्यास बुझाई| उस तालाब का पानी पीकर कुष्ठ रोग से पीड़ित राजा को जीवनदान मिल गया| जिस तालाब में पानी पीने से राजा को जीवनदान मिला उसी तालाब को आज सूरजकुंड के नाम से जाना जाता है| 

जीवनदान मिलने के बाद जब राजा ने उस संत को कुछ देने के लिए कहा तो संत ने कहा महाराज जंगल में इस पहाड़ी पर साधना कर रहे कई साधुओं के यज्ञ में जंगली जानवर विघ्न पैदा करते हैं, इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए पहाड़ी पर एक दीवार बनवा दो। इसके बाद सूरज सेन ने किले के अंदर एक महल बनवाया, जिसका नाम संत गालिप से प्रभावित होकर उनके नाम पर ग्वालियर रखा। 

यह शहर सदियों से राजपूतों की प्राचीन राजधानी रहा है, चाहे वे प्रतिहार रहे हों या कछवाहा या तोमर। इस शहर में इनके द्वारा छोडे ग़ये प्राचीन चिह्न स्मारकों, क़िलों, महलों के रूप में मिल जाएंगे। सहेज कर रखे गए अतीत के भव्य स्मृति चिह्नों ने इस शहर को पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बनाता है। यह नगर सामंती रियासत ग्वालियर का केंद्र था। जिस पर 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मराठों के सिंधिया वंश का शासन था। रणोजी सिंधिया द्वारा 1745 में इस वंश की बुनियाद रखी गई और महादजी (1761-94) के शासनकाल में यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा।

इस मंदिर में सम्राट अकबर ने भी टेका था माथा!

जहाँ आज लोग मंदिर निर्माण करवाकर पुण्य कमाना चाहते हैं वहीँ एक ऐसा मंदिर जहाँ जिसे बड़ा बनवाने के लिए जब भी लोग पहल शुरू करते हैं तो आस- पास के क्षेत्र में अनिष्ठ घटनाएं शुरू हो जाती हैं| यह मंदिर माता वनखंडी देवी का है जो उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के कालपी कस्बे में स्थित है| कहा जाता है कि मुगलकालीन वनखंडी देवी की महिमा से अभिभूत मुगल बादशाह अकबर ने भी देवी के दरबार में माथा टेका था।

बादशाह के नवरत्नों में शामिल बीरबल यहां के निवासी थे जिनका किला आज भी खंडहर की शक्ल में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इस बारे में वयोवृद्ध बुद्धिजीवी बृजेन्द्र निगम बताते हैं कि बादशाह अकबर बीरबल से मिलने के लिये जल मार्ग से आगरा से कालपी आये थे।

इस मंदिर के विषय में मान्यता है कि यहां आकर जो भी भक्त श्रद्धापूर्वक माँ को हलवा पूड़ी का भोग लगाता है तो उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं| इस मंदिर के बारे में एक कथा है, "प्राचीन काल से ही योगमाया माता कालपी अम्बिका वन में निवास करती हैं। वनक्षेत्र में निवास करने के कारण माता को वनखंडी देवी के नाम से जाना जाता है। मान्यता यह भी है कि वनखंडी देवी का चमत्कार देखकर ब्रम्हा, विष्णु और महेश भी हैरान हो गये थे और अपने लोक से अम्बिका वन में आकर माता की शक्ति को प्रणाम किया था। 

आपको बता दें कि वनखंडी देवी के मंदिर का प्रांगण करीब एक एकड़ में फैला हुआ है किंतु देवी एक बेहद छोटे मठ में निवास करती हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जब भी माता के मंदिर को बड़ा करने का प्रयास किया जाता है तब आस पास के क्षेत्र में अनिष्ट घटनाएं होने लगती हैं। 

माँ वनखंडी की कथा-

प्राचीन काल में सुधांशु नाम के एक ब्राह्मण थे जिनके कोई संतान नही थी | एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में घूमते हुए उनके घर के सामने से निकले | अपने घर के बाहर उन्होंने सुधांशु ब्राम्हण को दुखी: अवस्था में बैठे हुए देखा | उस अवस्था में बैठे देख देवर्षि को उस पर दया आयी | उन्होंने उससे दुखी होने का कारण पूछा | ब्राम्हण ने संतान सुख न होने की अपनी व्यथा कही एवं संतान प्राप्ति हेतु प्रार्थना की | नारद ने कहा कि वह उसकी बात को भगवान से कहकर उसके दुःख को मिटाने की प्रार्थना करेंगे |

उस ब्राम्हण की बात को सुनकर नारद जी विष्णुलोक पहुंचे एवं भगवान् विष्णु से उस ब्राम्हण की बात कही | भगवान् विष्णु ने कहा कि इस जन्म में उसके कोई संतान योग नही है | यही बात नारद जी ने ब्रम्हा एवं भगवान् शंकर से पूछी | उन्होंने ने भी यही जवाब दिया | यह बात नारद जी वापस लौटकर उस ब्राम्हण को बताई | निसंतान ब्राम्हण यह सुनकर दू:खी हुआ पर भावी को कौन बदल सकता है |

कुछ वर्षोपरांत एक दिन सात वर्ष की एक कन्या उसके द्वार के सामने से यह कहते हुए निकली कि " जो कोई मुझे हलुआ-पूड़ी का भोजन कराएगा वह मनवांछित वर पायेगा |" यह बात उस सुधांशु ब्राम्हण की पत्नी ने सुनीं तो दौड़कर बाहर आयी | ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या को बुलाया, उस आदर से बैठाकर पूछा कि " मै यदि आपको हलुआ-पूड़ी खिलाऊं तो क्या मेरी मनोकामना पूर्ण होगी ?" उस कन्या ने कहा, "हाँ अवश्य पूर्ण होगी |" 

तत्पश्चात उस ब्राम्हण पत्नी ने पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उस कन्या को हलुआ-पूड़ी का भोजन कराया | भोजनोपरांत ब्राम्हण पत्नी ने कहा- देवी मेरे कोई संतान नही है ,कृपया मुझे संतान सु:ख का वर दीजिये | कन्या ने ब्राम्हण पत्नी से "तथास्तु" कहा | इसके बाद ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या से उसका नाम व धाम के बारे में पूछा | उस कन्या ने अपना नाम जगदम्बिका तथा अपना धाम अम्बिकावन बताया |

समय पर ब्राम्हण को पुत्र प्राप्ति हुई | पुत्र धीरे-धीरे जब कुछ बड़ा हुआ कुछ समय पश्चात एक दिन देवर्षि नारद जी का पुन: आगमन हुआ | नारद जी ने उस ब्राम्हण से पूछा ये पुत्र किसका है ? तो ब्राम्हण ने बताया कि यह पुत्र मेरा है |

नारद जी को पहले तो विश्वास नही हुआ, फिर उस ब्राम्हण की बात सुनकर भगवान विष्णु के लोक में जाकर उनसे ब्राम्हण पुत्र के बारे में चर्चा की | भगवान ने कहा ऐसा हो ही नही सकता कि ब्राम्हण को कोई संतान हो | यही बात ब्रम्हा और भगवान शंकर ने भी कही | तब नारद जी ने त्रिदेवों से स्वयं चलकर देखने के लिए प्रार्थना की | नारद जी की प्रार्थना पर त्रिदेव नारद जी के साथ ब्राम्हण के यहाँ पधारे |

ब्राम्हण से पुत्र प्राप्ति का सम्पूर्ण वृतांत जानकार त्रिदेव नारद जी एवं वह ब्राम्हण के साथ अम्बिकावन को प्रस्थान किये | अम्बिकावन में उन्हें वह देवी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई दिखी | उस समय सर्दी का मौसम था एवं शीत लहर ले साथ वर्षा भी हो रही थी | अत्यंत शीत लहर के कारण इन्हें ब्राम्हण के साथ-साथ सर्दी का बहुत तेजी से अनुभव हो रहा था |

ये सभी उस देवी को देख कर पहुंचे तो देखा कि देवी के सिर पर बहुत बड़ा जूड़ा बंधा हुआ है एवं पास में ही एक पात्र में घृत(घी) रखा हुआ है | उस कन्या ने इन्हें ठण्ड से कांपते हुए देखा तो पास में रखे हुए घी को अपने बालों में लगाकर उसमे अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी ताकि इनकी ठण्ड दूर हो सके | परन्तु यह दृश्य देखकर सभी अत्यंत भयभीत हो गए एवं देवी से अग्नि शांति हेतु प्रार्थना करने लगे, तब देवी ने अग्नि को शांत कर पूछा कि आप किस लिए यहाँ आये हुए हैं ? त्रिदेव अपने आने का सम्पूर्ण कारण बताते हुए बोले; "देवी हम सब कुछ जान चुके हैं कि आप सर्व समर्थ हैं | जो हम नही कर सकते है वो आप कर सकती हैं | यह अम्बिका वन ही अपना कालपी धाम है और माता जगदम्बिका ही माँ वनखंडी हैं | कोई-कोई इन्हें योग माया के नाम से जानते हैं | "

यह भी एक कथा है कि वर्तमान काल में झांसी कानपुर रेलवे लाइन ब्रिटिश काल के समय जब बिछाई जा रही थी , उस समय के अंग्रेज अधिकारी तथा कालपी के पटवारी कानूगो आदि उस स्थान का सर्वेक्षण कर रहे थे उस समय ब्रिटिश अधिकारी को दो सफ़ेद शेर दिखाई दिए | ब्रिटिश अधिकारी ने उनका शिकार करना चाहा तो साथ के लोगो ने ऐसा न करने का विनय किया | उनकी बात सुनकर कुछ क्षण के लिए अधिकारी हिचका इतने में वो शेर आगे निकल गए | किन्तु अधिकारी का मन नही माना एवं उसने उन शेरों का पीछा किया | अधिकारी के साथ दूसरे अन्य लोग भी उनके साथ चले| जंगल में विचरते हुए वे शेर एक झड़ी की तरफ आकर गम हो गए| जब सभी लोग घूम कर उस घनी झाडी के सामने आये तो वे शेर पत्थर के बने हुए वहां पर बैठे थे | उनके (शेरों के) पीछे झाड़ियों के अन्दर माँ की पिण्डी का दर्शन हो रहा था | उस समय यह पूरा क्षेत्र घनघोर जंगल के रूप में था माँ की पिण्डी झाड़ियों में एक टीले के ऊपर दबी हुई थी | जो अपना हल्का सा आभास दे रही थी | उस दृश्य को देखकर वह अंग्रेज अधिकारी एवं उनके साथ के सभी लोग भयभीत एवं चकित हो गए एवं आश्चर्य-चकित अवस्था में उलटे पैरों वापस लौट पड़े| जिस विवरण को उस समय के पटवारी ने अपनी दैनिक डायरी में लिपिबद्ध किया |

कुछ समय तक यह घटना चन्द ही लोगो तक रही लेकिन उसी समय एक और घटना घटी | आस-पास क्षेत्र के चरवाहे जंगल में अपने जानवर चराया करते थे | उनमे से एक चरवाहे की गाय जो बछड़े को जन्म देने के उपरांत जंगल में चरने को आती थी किन्तु शाम को जब पहुँचती तो उसके थनों में दूध नही रहता था | चरवाहा इस बात को देख कर कुछ दिन हैरान रहा | उसके बाद इसकी जांच करने का निश्चय किया कि इस गाय का दूध कौन निकाल लेता है | यह सोच कर दुसरे दिन उसने जंगल में चरते समय उस गाय का पीछा किया | तो उसने देखा की गाय एक टीले पर जाकर झाड़ियों के बीच में खड़ी हुई तथा उस टीले पर दिखाई दे रहे एक पत्थर पर गाय के थनों से दूध निकल कर बहने लगा | जैसे वह गाय उस दूध से उस पत्थर का अभिषेक कर रही हो | उस दृश्य को देखकर चरवाहा अत्यंत आश्चर्य-चकित हुआ एवं उसने अपने साथियों को बुला कर यह दृश्य दिखाया | उन सबने यह दृश्य देख कर उस पत्थर को निकलना चाह किन्तु जितना वो खोदते उतना ही वो पत्थर गहरा होता जाता था | अंत में उस पत्थर को उसी स्थान पर छोड़ दिया गया एवं सभी अपने-अपने घर को आ गए | रात में उस चरवाहे को माँ ने स्वप्न में बताया कि मैं जगतजननी जगदम्बा हूँ

अपने प्रवाह के द्वारा आनंद की अनुभूति कराती हैं 'नर्मदा'

 हिंदुस्तान के नक्शे को यदि उल्टा पकड़ें, तो उसका आकार शिवलिंग के जैसा मालूम होगा। उत्तर का हिमालय उसका पाया है और दक्षिण की ओर का कन्याकुमारी का हिस्सा उसका शिखर है। 

गुजरात के नक्शे को जरा-सा घुमाएं और पूर्व के हिस्से को नीचे की ओर और सौराष्ट्र के छोर यानी ओखा मंडल को ऊपर की ओर ले जाएं तो यह भी शिवलिंग के जैसा ही मालूम होगा। हमारे यहां पहाड़ों के जितने भी शिखर हैं, सब शिवलिंग ही हैं। कैलाश के शिखर का आकार भी शिवलिंग के समान ही है।

इन पहाड़ों के जंगलों से जब कोई नदी निकलती है, तब कवि लोग यह कहे बिना नहीं रहते कि "शिवजी की जटाओं से गंगाजी निकलती है!" कुछ लोग पहाड़ों से आने वाली पानी के प्रवाह को अप्सरा (अप्-सरा) कहते हैं और कुछ लोग पर्वत की इन तमाम लड़कियों को पार्वती कहते हैं।

ऐसी ही अप्सरा-जैसी एक नदी के चर्चा इस लेख में की गई है। महादेव के पहाड़ के समीप मेकल या मेखल पर्वत की तलहटी में अमरकंटक नामक एक तालाब है। वहां से नर्मदा का उद्गम हुआ है। जो अच्छा घास उगाकर गायों की संख्या में वृद्धि करती है, उस नदी को 'गो-दा' कहते हैं। यश देनेवाली को 'यशो-दा', और जो अपने प्रवाह तथा तट की सुंदरता के द्वारा 'नर्म' यानी 'आनंद' देती है, वह है नर्म-दा। इसके किनारे घूमते-घामते जिसको बहुत ही आनंद मिला, ऐसे किसी ऋषि ने इस नदी को यह नाम दिया होगा। उसे मेखल-कन्या या मेखला भी कहते हैं।

जिस प्रकार हिमालय का पहाड़ तिब्बत और चीन को हिंदुस्तान से अलग करता है, उसी प्रकार हमारी यह नर्मदा नदी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच आठ सौ मील की एक चमकती, नाचती, दौड़ती सजीव रेखा खींचती है और कहीं इसको कोई मिटा न दे, इस ख्याल से भगवान ने इस नदी के उत्तर की ओर विंध्य तथा दक्षिण की ओर सतपुड़ा के लंबे-लंबे पहाड़ों को नियुक्त किया है। ऐसे समर्थ भाइयों की रक्षा के बीच नर्मदा दौड़ती-कूदती अनेक प्रांतों को पार करती हुई भृगुकच्छ यानी भड़ौंच के समीप समुद्र से जा मिलती है।

अमरकंटक के पास नर्मदा का उद्गम समुद्र की सतह से करीब पांच हजार फुट की ऊंचाई पर होता है। अब आठ सौ मील में पांच हजार फुट उतरना कोई आसान काम नहीं है। इसलिए नर्मदा जगह-जगह छोटी-बड़ी छलांगें मारती हैं। इसी पर से हमारे कवि-पूर्वजों ने नर्मदा को दूसरा नाम दिया 'रेवा'। संस्कृत में 'रेव्' धातु का अर्थ है कूदना।

जो नदी कदम-कदम पर छलांगें मारती है, वह नौकानयम के लिए यानी किश्तियों के द्वारा दूर तक की यात्रा करने के लिए काम की नहीं। समुद्र से जो जहाज आता है वह नर्मदा में मुश्किल से तीस-पैंतीस मील अंदर आ जा सकता है। वर्षा ऋतु के अंत में ज्यादा से ज्यादा पचास मील तक पहुंचता है।

जिस नदी के उत्तर और दक्षिण की ओर दो पहाड़ खड़े हैं, उसका पानी भला नहर खोदकर दूर तक कैसे लाया जा सकता है? अत: नर्मदा जिस प्रकार नाव खेने के लिए बहुत काम की नहीं है, उसी प्रकार खेतों की सिंचाई के लिए विशेष काम की नहीं है। फिर भी इस नदी की सेवा दूसरी दृष्टि से कम नहीं है। उसके पानी में विचरने वाले मगरमच्छों और मछलियों की, उसके तट पर चरने वाले ढोरों और किसानों की, और तरह-तरह के पशुओं की तथा उसके आकाश में कलरव करने वाले पक्षियों की वह माता है।

भारतवासियों ने अपनी सारी भक्ति भले गंगा पर उड़ेल दी हो, पर हमारे लोगों ने नर्मदा के किनारे कदम-कदम पर जितने मंदिर खड़े किए हैं, उतने अन्य किसी नदी के किनारे नहीं किए होंगे।
पुराणकारों ने गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, गोमती, सरस्वती और नदियों के स्नान-पान का और उनके किनारे किए हुए दान के माहात्म्य का वर्णन भले चाहे जितना किया हो, किंतु इन नदियों की प्रदक्षिणा करने की बात किसी भक्त ने नहीं सोची, जबकि नर्मदा के भक्तों ने कवियों को ही सूझने वाले नियम बनाकर सारी नर्मदा की परिक्रमा या 'परिकम्मा' करने का प्रकार चलाया है।

नर्मदा के उद्गम से प्रारंभ करके दक्षिण-तट पर चलते हुए सागर-संगम तक जाइए, वहां से नाव में बैठकर उत्तर के तट पर जाइए और वहां से फिर पैदल चलते हुए अमरकंटक तक जाइए- एक परिक्रमा पूरी होगी। नियम बस इतना ही है कि 'परिकम्मा' के दरम्यान नदी के प्रवाह को कहीं भी लांघना नहीं चाहिए, न प्रवाह से बहूत दूर ही जाना चाहिए। 

हमेशा नदी के दर्शन होने चाहिए। पानी केवल नर्मदा का ही पीना चाहिए। अपने पास धन-दौलत रखकर ऐश-आराम में यात्रा नहीं करनी चाहिए। नर्मदा के किनारे जंगल में बसने वाले आदिम निवासियों के मन में यात्रियों की धन-दौलत के प्रति विशेष आकर्षण होता है। आपके पास यदि अधिक कपड़े बर्तन या पैसे होंगे, तो वे आपको इस बोझ से अवश्य मुक्त कर देंगे।

हमारे लोगों को ऐसे अकिंचन और भूखे भाइयों का पुलिस द्वारा इलाज करने की बात कभी सूझी ही नहीं और निवासी भाई ही मानते आए हैं कि यात्रियों पर उनका यह हक है। जंगलों में लूटे गए यात्री जब जंगल से बाहर आते हैं, तब दानी लोग यात्रियों को नए कपड़े और अन्न देते हैं।

श्रद्धालु लोग सब नियमों का पालन करके खास तौर पर ब्रह्मचर्य का आग्रह रखकर नर्मदा की परिक्रमा धीरे-धीरे तीन साल में पूरी करते हैं। चौमासे में वे दो-तीन माह कहीं रहकर साधु-संतों के सत्संग से जीवन का रहस्य समझने का आग्रह रखते हैं।

ऐसी परिक्रमा के दो प्रकार होते हैं। उनमें जो कठिन प्रकार है, उसमें सागर के पास भी नर्मदा को लांघा नहीं जा सकता। उद्गम से मुख तक जाने के बाद फिर उसी रास्ते से उद्गम तक लौटना तथा उत्तर के तट से सागर तक जाना और फिर उसी रास्ते से उद्गम तक लौटना यह परिक्रमा इस प्रकार दूनी होती है। इसी का नाम है जलेरी।

मौज और आराम को छोड़कर तपस्यापूर्वक एक ही नदी का ध्यान करना, उसके किनारे के मंदिरों के दर्शन करना, आसपास रहने वाले संत-महात्माओं के वचनों को श्रवण-भक्ति से सुनना और प्रकृति की सुंदरता तथा भव्यता का सेवन करते हुए जीवन के तीन साल बिताना कोई मामूली प्रवृत्ति नहीं है। इसमें कठोरता है, तपस्या है, बहादुरी है, अंतर्मुख होकर आत्म-चिंतन करने की और गरीबों के साथ एकरूप होने की भावना है, प्रकृतिमय बनने की दीक्षा है और प्रकृति के द्वारा प्रकृति में विराजमान भगवान के दर्शन करने की साधना है। इस नदी के किनारे की समृद्धि मामूली नहीं है।

बिहार के माँ मुंडेश्वरी धाम में बलि की सात्विक परम्परा

यूं तो करीब-करीब सभी देवी मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा है, लेकिन बिहार में कैमूर जिले के मां मुंडेश्वरी धाम में बलि की सात्विक परम्परा है, जो किसी अन्य मंदिर में नहीं है। यहां बलि अवश्य दी जाती है, लेकिन किसी भी जीव का जीवन नहीं लिया जाता।

मंदिर के एक पुजारी ने बताया, "यहां बकरे की बलि देने की प्रथा है, लेकिन जीव को जान से नहीं मारा जाता। बकरे को माता के चरणों में समर्पित कर पुजारी उस पर अक्षत-पुष्प डालते हैं और उसका संकल्प करवा दिया जाता है। इसके बाद उसे भक्त को वापस दे दिया जाता है।" उन्होंने हालांकि माना कि श्रद्धालु बकरे को घर ले जाकर हत्या कर देते हैं और उसका मांस प्रसाद के रूप में बांट देते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि किसी भी जीव की हत्या यहां मंदिर परिसर में नहीं की जाती।

कैमूर जिला मुख्यालय से करीब 10-11 किलोमीटर दूर पंवरा पहाड़ी पर स्थित मुंडेश्वरी धाम में ऐसे तो सालभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है और लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए यहां मां से आर्शीवाद मांगने आते हैं, लेकिन शारदीय एवं चैत्र नवरात्र के मौके पर यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। माघ और चैत्र महीने में यहां यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है।

इस प्राचीन मंदिर के निर्माण काल की जानकारी यहां के शिलालेखों से होती है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, मंदिर परिसर में मिले शिलालेखों से जाहिर होता है कि इसका निर्माण 635-636 ईस्वी के बीच किया गया। ऐसा माना जाता है कि मुंडेश्वरी के इस अष्टकोणीय मंदिर का निर्माण महराजा उदय सेन के शासनकाल में किया गया था।

बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष और भातीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे किशोर कुणाल ने कहा कि वर्ष 2007 में इस ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल का अधिग्रहण न्यास परिषद ने किया। दुर्गा के वैष्णवी रूप को ही मां मुंडेश्वरी धाम में स्थापित किया गया है। मुंडेश्वरी की प्रतिमा वाराही देवी की प्रतिमा के रूप में है, क्योंकि इनका वाहन महिष है।

मंदिर का मुख्य द्वारा दक्षिण की ओर है। 608 फुट ऊंची पहाड़ी पर बने इस मंदिर के बारे में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह 108 ईस्वी में शक शासनकाल में बनाया गया। यह शासनकाल गुप्त शासनकाल के पूर्व का बताया जाता है।

इतिहासकार बताते हैं कि मंदिर परिसर में पाए गए कुछ शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं, जबकि गुप्त शासनकाल में पाणिनी के प्रभाव के कारण संस्कृत का उपयोग किया जाता था। यहां 1,900 वर्षो से पूजा हो रही है। यहां अष्टाकार गर्भगृह तब से आज तक कायम है। गर्भगृह के कोने में देवी की मूर्ति है, जबकि बीच में चतुर्मुखी शिवलिंग है।

बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष कुणाल ने बताया कि मंदिर पहाड़ी पर है, जिस कारण समय-समय पर इसे प्राकृतिक आपदा झेलनी पड़ती है, जिससे इस स्थल का क्षरण होता रहा है।

पहाड़ी पर आज भी कई मूर्तियों के भग्नावशेष हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 1968 में पुरातत्व विभाग ने यहां से प्राप्त 68 मूर्तियों को पटना संग्रहालय में रखवा दिया। इसके अतिरिक्त यहां से मिली कुछ मूर्तियां कोलकाता संग्रहालय की भी शोभा बढ़ा रही हैं। बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की ओर से जारी कैलेंडर में भी मां मुंडेश्वरी धाम का चित्र है।

कुणाल ने बताया कि पर्यटन विभाग और न्यास परिषद इस क्षेत्र में श्रद्घालुओं को सुविधा देने के लिए कई कार्य कर रहे हैं। मुंडेश्वरी धाम की महिमा वैष्णव देवी और ज्वाला देवी जैसी मानी जाती है।

तो इस तरह बसा अल्मोड़ा शहर

क्या आपको पता है अल्मोड़ा शहर किस तरह बसा यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं| कहा जाता है कि हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के कुमायूं नामक स्थान का राजा एक बार अल्मोड़े की घाटी में शिकार खेलने गया। उस समय वह स्थान घने जंगल से ढका था। एक खरगोश झाड़ियों में से निकला। राजा ने उसका पीछा किया, किंतु अचानक वह खरगोश चीते में बदल गया और शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हो गया। उस आश्चर्यजनक घटना से स्तम्भित हुए राजा ने पंडितों की एक सभा बुलाई और उनसे इसका अर्थ पूछा।

उन्होंने उत्तर दिया कि इसका अर्थ यह है कि जिस स्थान पर चीता दृष्टि से ओझल हुआ था, वहां आपको एक नया शहर बसाना चाहिए, क्योंकि चीते केवल उसी स्थान से भाग जाते हैं, जहां मनुष्यों को एक बड़ी संख्या में बसना हो।

अतएव, नया शहर बसाने के लिए मजदूर लोग काम पर लगा दिए गए। अंत में जमीन की कठोरता देखने के लिए एक स्थान पर उन्होंने लोहे की एक मोटी कील गाड़ी। उस समय अचानक पृथ्वी में एक हल्का-सा कंपन हो उठा।

"ठहरो!" पंडित लोग चिल्ला पड़े, "इसकी नोक सर्पराज शेषनाग की देह में धंस गई है। अब यहां शहर नहीं बनाना चाहिए।" जब वह लोहे की कील पृथ्वी से बाहर निकाली गई तो वह वास्तव में शेषनाग के रक्त से लाल हो रही थी। "यह तो बड़े दुख की बात है", राजा बोला, "हम यहां शहर बनाने का निश्चय कर चुके हैं, इसलिए अब बनाना ही होगा।"

पंडितों ने क्रोध में आकर भविष्यवाणी की कि शहर पर कोई भारी विपत्ति आएगी और राजा का अपना वंश भी शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। जमीन वहां की उपजाऊ थी और पानी भी खूब था। छह सौ साल से अल्मोड़ा शहर उस पहाड़ पर बसा हुआ है और उसके चारों ओर फैले खेत बढ़िया फसलें पैदा करते हैं।

इस प्रकार बुद्धि रखते हुए भी वे पंडित अपनी भविष्यवाणी में गलत निकले। नि:संदेह वे सच्चे थे और उन्हें विश्वास था कि वे सत्य कह रहे हैं, किंतु लोग ऐसी गलती प्राय: करते हैं और अंधविश्वास को वास्तविकता समझ लेते हैं।

संसार अंधविश्वासों से भरा पड़ा है। सत्य को ढूंढ़ने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि मनुष्य सदा अपने विचारों, कार्यो और वचनों में अधिकाधिक सच्चे और निष्कपट रहें, क्योंकि दूसरों को सब बातों में धोखा देना छोड़कर ही हम अपने-आपको कम से कम धोखा देना सीखते हैं।

यहीं मिला था ब्रह्मदेव के कटे सिर को मोक्ष

हिंदुओं के लिए चारधाम यात्रा का मतलब है स्वर्ग की सीढ़ी। धर्मग्रंथों में इस यात्रा की महिमा का काफी गुणगान किया गया है। कहा जाता है कि जिसने चारधाम देख लिए उसने मानो धरती पर ही स्वर्ग के दर्शन कर लिए। चारधाम यात्रा के बारे में यह भी कहा जाता है कि जिसने चारो धामों के दर्शन कर लिए उसने न केवल पाप से मुक्त हो लिया बल्कि वह व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से परे हो जाता है| 

हिन्दू धर्म के चार पावन धामों में एक बद्रीनाथ तीर्थ की यात्रा पर जहां कुदरत के तमाम खुशनुमा नजारों और पर्वत चोटियों की ऊंचाईयों को देखने का सुखद एहसास मिलता है, वहीं इस स्थान पर आने के बाद हर तीर्थयात्री स्वयं को धर्म और अध्यात्म की गहराइयों में उतरने से रोक नहीं सकता। क्योंकि इस तीर्थ और उसके आस-पास के सभी स्थान बहुत धार्मिक महत्व रखते हैं।

इन स्थानों में एक है बद्रीनाथ मंदिर के उत्तर दिशा में लगभग 100 मीटर दूरी पर स्थित है - ब्रह्मकपाल। यह अलकनंदा नदी के किनारे सिथि है| ब्रह्मकपाल पौराणिक महत्व का स्थान होने के साथ ही धार्मिक कर्मकाण्ड के लिए प्रमुख तीर्थ है। ब्रह्म कपाल श्राद्ध कर्म के लिए सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है। 

ब्रह्मकपाल के बारे में यह कथा प्रचलित है कहते हैं कि एक बार भगवान भोलेनाथ ने जगत के विषय पर ब्रह्मदेव से मतभेद होने पर क्रोधित होकर त्रिशूल से ब्रह्मदेव के पांच सिरों में से एक सिर काट दिया। किंतु ब्रम्हा जी का सिर कटते ही शिव के त्रिशूल से ही चिपक गया। भगवान ने सिर से त्रिशूल को अलग करने की तमाम कोशिश की लेकिन ब्रम्हा जी का सिर त्रिशूल से अलग नहीं हो सका| इससे भगवान भोलेनाथ ब्रह्म दोष से दु:खी होकर बद्री क्षेत्र में आए। यहां शिव ने बद्रीनारायण की आराधना की। जिससे जगत पालक विष्णु प्रसन्न हुए। उनकी कृपा से ब्रह्मदेव का कटा सिर त्रिशूल से निकलकर दूर जा गिरा। भगवान शिव भी ब्रह्मदोष से मुक्त हुए। 

कहते हैं कि ब्रम्हा जी वह सिर जहां गिरा, वह स्थान ही तीर्थ कहलाया। जो बद्रीनाथ धाम के समीप स्थित है। मान्यता है कि इससे ब्रह्मदेव के कटे सिर को भी मोक्ष प्राप्त हुआ। तब से ही यह क्षेत्र श्राद्ध कर्म और पितरों के मोक्ष तीर्थ के रुप में प्रसिद्ध है।