इस मंदिर में सम्राट अकबर ने भी टेका था माथा!

जहाँ आज लोग मंदिर निर्माण करवाकर पुण्य कमाना चाहते हैं वहीँ एक ऐसा मंदिर जहाँ जिसे बड़ा बनवाने के लिए जब भी लोग पहल शुरू करते हैं तो आस- पास के क्षेत्र में अनिष्ठ घटनाएं शुरू हो जाती हैं| यह मंदिर माता वनखंडी देवी का है जो उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के कालपी कस्बे में स्थित है| कहा जाता है कि मुगलकालीन वनखंडी देवी की महिमा से अभिभूत मुगल बादशाह अकबर ने भी देवी के दरबार में माथा टेका था।

बादशाह के नवरत्नों में शामिल बीरबल यहां के निवासी थे जिनका किला आज भी खंडहर की शक्ल में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इस बारे में वयोवृद्ध बुद्धिजीवी बृजेन्द्र निगम बताते हैं कि बादशाह अकबर बीरबल से मिलने के लिये जल मार्ग से आगरा से कालपी आये थे।

इस मंदिर के विषय में मान्यता है कि यहां आकर जो भी भक्त श्रद्धापूर्वक माँ को हलवा पूड़ी का भोग लगाता है तो उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं| इस मंदिर के बारे में एक कथा है, "प्राचीन काल से ही योगमाया माता कालपी अम्बिका वन में निवास करती हैं। वनक्षेत्र में निवास करने के कारण माता को वनखंडी देवी के नाम से जाना जाता है। मान्यता यह भी है कि वनखंडी देवी का चमत्कार देखकर ब्रम्हा, विष्णु और महेश भी हैरान हो गये थे और अपने लोक से अम्बिका वन में आकर माता की शक्ति को प्रणाम किया था। 

आपको बता दें कि वनखंडी देवी के मंदिर का प्रांगण करीब एक एकड़ में फैला हुआ है किंतु देवी एक बेहद छोटे मठ में निवास करती हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जब भी माता के मंदिर को बड़ा करने का प्रयास किया जाता है तब आस पास के क्षेत्र में अनिष्ट घटनाएं होने लगती हैं। 

माँ वनखंडी की कथा-

प्राचीन काल में सुधांशु नाम के एक ब्राह्मण थे जिनके कोई संतान नही थी | एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में घूमते हुए उनके घर के सामने से निकले | अपने घर के बाहर उन्होंने सुधांशु ब्राम्हण को दुखी: अवस्था में बैठे हुए देखा | उस अवस्था में बैठे देख देवर्षि को उस पर दया आयी | उन्होंने उससे दुखी होने का कारण पूछा | ब्राम्हण ने संतान सुख न होने की अपनी व्यथा कही एवं संतान प्राप्ति हेतु प्रार्थना की | नारद ने कहा कि वह उसकी बात को भगवान से कहकर उसके दुःख को मिटाने की प्रार्थना करेंगे |

उस ब्राम्हण की बात को सुनकर नारद जी विष्णुलोक पहुंचे एवं भगवान् विष्णु से उस ब्राम्हण की बात कही | भगवान् विष्णु ने कहा कि इस जन्म में उसके कोई संतान योग नही है | यही बात नारद जी ने ब्रम्हा एवं भगवान् शंकर से पूछी | उन्होंने ने भी यही जवाब दिया | यह बात नारद जी वापस लौटकर उस ब्राम्हण को बताई | निसंतान ब्राम्हण यह सुनकर दू:खी हुआ पर भावी को कौन बदल सकता है |

कुछ वर्षोपरांत एक दिन सात वर्ष की एक कन्या उसके द्वार के सामने से यह कहते हुए निकली कि " जो कोई मुझे हलुआ-पूड़ी का भोजन कराएगा वह मनवांछित वर पायेगा |" यह बात उस सुधांशु ब्राम्हण की पत्नी ने सुनीं तो दौड़कर बाहर आयी | ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या को बुलाया, उस आदर से बैठाकर पूछा कि " मै यदि आपको हलुआ-पूड़ी खिलाऊं तो क्या मेरी मनोकामना पूर्ण होगी ?" उस कन्या ने कहा, "हाँ अवश्य पूर्ण होगी |" 

तत्पश्चात उस ब्राम्हण पत्नी ने पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उस कन्या को हलुआ-पूड़ी का भोजन कराया | भोजनोपरांत ब्राम्हण पत्नी ने कहा- देवी मेरे कोई संतान नही है ,कृपया मुझे संतान सु:ख का वर दीजिये | कन्या ने ब्राम्हण पत्नी से "तथास्तु" कहा | इसके बाद ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या से उसका नाम व धाम के बारे में पूछा | उस कन्या ने अपना नाम जगदम्बिका तथा अपना धाम अम्बिकावन बताया |

समय पर ब्राम्हण को पुत्र प्राप्ति हुई | पुत्र धीरे-धीरे जब कुछ बड़ा हुआ कुछ समय पश्चात एक दिन देवर्षि नारद जी का पुन: आगमन हुआ | नारद जी ने उस ब्राम्हण से पूछा ये पुत्र किसका है ? तो ब्राम्हण ने बताया कि यह पुत्र मेरा है |

नारद जी को पहले तो विश्वास नही हुआ, फिर उस ब्राम्हण की बात सुनकर भगवान विष्णु के लोक में जाकर उनसे ब्राम्हण पुत्र के बारे में चर्चा की | भगवान ने कहा ऐसा हो ही नही सकता कि ब्राम्हण को कोई संतान हो | यही बात ब्रम्हा और भगवान शंकर ने भी कही | तब नारद जी ने त्रिदेवों से स्वयं चलकर देखने के लिए प्रार्थना की | नारद जी की प्रार्थना पर त्रिदेव नारद जी के साथ ब्राम्हण के यहाँ पधारे |

ब्राम्हण से पुत्र प्राप्ति का सम्पूर्ण वृतांत जानकार त्रिदेव नारद जी एवं वह ब्राम्हण के साथ अम्बिकावन को प्रस्थान किये | अम्बिकावन में उन्हें वह देवी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई दिखी | उस समय सर्दी का मौसम था एवं शीत लहर ले साथ वर्षा भी हो रही थी | अत्यंत शीत लहर के कारण इन्हें ब्राम्हण के साथ-साथ सर्दी का बहुत तेजी से अनुभव हो रहा था |

ये सभी उस देवी को देख कर पहुंचे तो देखा कि देवी के सिर पर बहुत बड़ा जूड़ा बंधा हुआ है एवं पास में ही एक पात्र में घृत(घी) रखा हुआ है | उस कन्या ने इन्हें ठण्ड से कांपते हुए देखा तो पास में रखे हुए घी को अपने बालों में लगाकर उसमे अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी ताकि इनकी ठण्ड दूर हो सके | परन्तु यह दृश्य देखकर सभी अत्यंत भयभीत हो गए एवं देवी से अग्नि शांति हेतु प्रार्थना करने लगे, तब देवी ने अग्नि को शांत कर पूछा कि आप किस लिए यहाँ आये हुए हैं ? त्रिदेव अपने आने का सम्पूर्ण कारण बताते हुए बोले; "देवी हम सब कुछ जान चुके हैं कि आप सर्व समर्थ हैं | जो हम नही कर सकते है वो आप कर सकती हैं | यह अम्बिका वन ही अपना कालपी धाम है और माता जगदम्बिका ही माँ वनखंडी हैं | कोई-कोई इन्हें योग माया के नाम से जानते हैं | "

यह भी एक कथा है कि वर्तमान काल में झांसी कानपुर रेलवे लाइन ब्रिटिश काल के समय जब बिछाई जा रही थी , उस समय के अंग्रेज अधिकारी तथा कालपी के पटवारी कानूगो आदि उस स्थान का सर्वेक्षण कर रहे थे उस समय ब्रिटिश अधिकारी को दो सफ़ेद शेर दिखाई दिए | ब्रिटिश अधिकारी ने उनका शिकार करना चाहा तो साथ के लोगो ने ऐसा न करने का विनय किया | उनकी बात सुनकर कुछ क्षण के लिए अधिकारी हिचका इतने में वो शेर आगे निकल गए | किन्तु अधिकारी का मन नही माना एवं उसने उन शेरों का पीछा किया | अधिकारी के साथ दूसरे अन्य लोग भी उनके साथ चले| जंगल में विचरते हुए वे शेर एक झड़ी की तरफ आकर गम हो गए| जब सभी लोग घूम कर उस घनी झाडी के सामने आये तो वे शेर पत्थर के बने हुए वहां पर बैठे थे | उनके (शेरों के) पीछे झाड़ियों के अन्दर माँ की पिण्डी का दर्शन हो रहा था | उस समय यह पूरा क्षेत्र घनघोर जंगल के रूप में था माँ की पिण्डी झाड़ियों में एक टीले के ऊपर दबी हुई थी | जो अपना हल्का सा आभास दे रही थी | उस दृश्य को देखकर वह अंग्रेज अधिकारी एवं उनके साथ के सभी लोग भयभीत एवं चकित हो गए एवं आश्चर्य-चकित अवस्था में उलटे पैरों वापस लौट पड़े| जिस विवरण को उस समय के पटवारी ने अपनी दैनिक डायरी में लिपिबद्ध किया |

कुछ समय तक यह घटना चन्द ही लोगो तक रही लेकिन उसी समय एक और घटना घटी | आस-पास क्षेत्र के चरवाहे जंगल में अपने जानवर चराया करते थे | उनमे से एक चरवाहे की गाय जो बछड़े को जन्म देने के उपरांत जंगल में चरने को आती थी किन्तु शाम को जब पहुँचती तो उसके थनों में दूध नही रहता था | चरवाहा इस बात को देख कर कुछ दिन हैरान रहा | उसके बाद इसकी जांच करने का निश्चय किया कि इस गाय का दूध कौन निकाल लेता है | यह सोच कर दुसरे दिन उसने जंगल में चरते समय उस गाय का पीछा किया | तो उसने देखा की गाय एक टीले पर जाकर झाड़ियों के बीच में खड़ी हुई तथा उस टीले पर दिखाई दे रहे एक पत्थर पर गाय के थनों से दूध निकल कर बहने लगा | जैसे वह गाय उस दूध से उस पत्थर का अभिषेक कर रही हो | उस दृश्य को देखकर चरवाहा अत्यंत आश्चर्य-चकित हुआ एवं उसने अपने साथियों को बुला कर यह दृश्य दिखाया | उन सबने यह दृश्य देख कर उस पत्थर को निकलना चाह किन्तु जितना वो खोदते उतना ही वो पत्थर गहरा होता जाता था | अंत में उस पत्थर को उसी स्थान पर छोड़ दिया गया एवं सभी अपने-अपने घर को आ गए | रात में उस चरवाहे को माँ ने स्वप्न में बताया कि मैं जगतजननी जगदम्बा हूँ

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