पर्यटकों को लुभा रहा आपदा से अछूता नैनीताल

देश का प्रमुख पर्वतीय पर्यटन स्थल नैनीताल उत्तराखंड में आई बीती आपदा से भले ही सीधे-सीधे प्रभावित न हुआ हो, लेकिन यहां का पर्यटन कारोबार जरूर इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सर्दियों से ठीक पहले इस मनोरम स्थल की खूबसूरती ने हालांकि मेहमानों की मेजबानी के लिए एकबार फिर खुद को संवार लिया है। यहां का एकमात्र चार सितारा होटल सुविधायुक्त शेरवानी हिलटॉप ने पर्यटकों के स्वागत के लिए खुद को निखार लिया है। 

शहर की आपा-धापी भरी दिनचर्या से अलग अचानक नैनीताल जाने का हाल ही में संयोग मिला। नैनीताल पहुंचने के लिए निकटतम हवाईअड्डा यहां से दो घंटे के सड़कमार्ग की दूरी पर पंतनगर में तथा निकटतम रेलमार्ग यहां से लगभग एक घंटे की दूरी पर काठगोदाम रेलवे स्टेशन है।

काठगोदाम उतरकर जैसे ही हमारी कार नैनीताल की पहाड़ियां चढ़ने लगी, मानों हर पहाड़ी, एक-एक र्दे, हरे-भरे पेड़ों से लदी-फदी चोटियां हमें अपनी वादियों में न्यौता दे रही हों। बारिश होकर निकली ही थी, और एक-एक पत्ते ऐसे चटकिले हरे कि मानों उन्होंने अपनी अंजुरी में पानी भर रखा हो और बस अभी उलीच देंगी हमारे ऊपर, और हम भी उनकी तरह ही हरीतिमा युक्त हो जाएंगे।

नैनीताल पहुंचकर हम सीधे होटल शेरवानी हिलटॉप गए। नैनीताल का एकमात्र चार सितारा सुविधाओं वाला यह रिसॉर्ट अपने अप्रतिम लोकेशन के लिहाज से छुट्टियां मनाने का एक परफेक्ट प्लेस है। चूंकि पर्वतीय पर्यटन स्थल क्षेत्रफल के लिहाज से बहुत बड़े नहीं होते और पर्यटकों का हुजूम इन्हें भीड़ से भर देता है, ऐसे में नैनीताल की प्रमुख आकर्षण नैनी झील और उसके किनारे माल रोड बाजार के शोरगुल से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस रेसॉर्ट में रुकना प्रकृति से एकाकार होने जैसा है।

छह श्रेणियों में 47 सुइट्स वाला यह रिसॉर्ट नैनीताल का एकमात्र ऐसा रेसॉर्ट है, जिसमें बहुत करीने से हिमालय की वादियों के साथ-साथ सुदूर देशों के खूबसूरत फूलों एवं पौधों से युक्त एक बागीचा भी विकसित किया गया है। इस बागीचे से आप वादियों में पतंग उड़ाने का शौक भी पूरा कर सकते हैं। शेरवानी हिलटॉप रिसॉर्ट में डिलक्स, प्रीमियम, सुइट, हिल व्यू, गार्डेन व्यू और प्रेसिडेंशियल सुइट श्रेणी में कमरे उपलब्ध हैं।

शेरवानी हिलटॉप न सिर्फ सुकून से इस पर्वतीय पर्यटक स्थल की खूबसूरती निहारने के लिए बेजोड़ है, बल्कि रिसॉर्ट अपने मेहमानों को मनोरंजन एवं पर्यटन की अनेक सुविधाएं भी मुहैया कराता है, जैसे नेचर वॉक, विभिन्न आउटडोर रोमांचक स्पोर्ट्स के साथ-साथ बच्चों एवं बड़ों के लिए अलग-अलग इनडोर गेम्स।

नैनीताल के आस-पास वैसे तो घूमने लायक अनेक रमणीय स्थल हैं, लेकिन नैनी झील के किनारे बोटहाउस क्लब से झील और उसमें हौले-हौले डोलती डोंगियों का नजारा ही अद्भुत है। सांझ ढलने से कुछ पहले से लेकर सांझ ढलने तक झील में झांकती अगल-बगल की पहाड़ियां और उसके पीछे दूर तक आसमां..।

होटल एंड रेस्तरां एसोसिएशन ऑफ नॉर्दर्न इंडिया के अध्यक्ष एवं शेरवानी हिलटॉप के मालिक सईद शेरवानी ने बताया, "बाढ़ के कारण उत्तराखंड में बीती गर्मियां त्रासद रहीं। दुर्भाग्य से मीडिया में आई आपदा की खबरों के कारण उत्तराखंड के ऐसे पर्यटक स्थलों का कारोबार भी प्रभावित हुआ जहां आपदा आई ही नहीं।"

शेरवानी हिलटॉप नैनीताल के प्रबंध निदेशक (होटल) गोपाल सुयल ने बताया कि नैनीताल होटल एंड रेस्तरां एसोसिएशन के अनुसार आपदा के कारण भयभीत होकर पर्यटकों के न आने और पहले से कराई गई बुकिंग रद्द करवा लेने के कारण इस वर्ष अब तक नैनीताल होटल उद्योग को 32 करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है। सईद शेरवानी ने कहा कि ऐसे में पर्यटकों को फिर से प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है।

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कमजोर पड़ रही शेरशाह के मकबरे की नींव

बिहार की पहचान इसके गौरवशाली इतिहास और ऐतिहासिक धरोहरों से है, मगर देखरेख के अभाव में कई धरोहरें अपना वजूद खोने लगी हैं। ऐसी ही एक धरोहर है रोहतास जिले के सासाराम स्थित शेरशाह सूरी का मकबरा जिसकी नींव अंदर से कटती जा रही है, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।

अफगानी स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना शेरशाह का मकबरा अपनी सुरुचिपूर्ण सौम्यता के लिए प्रसिद्ध है। अपने छोटे से शासनकाल (वर्ष 1540-1545 ईस्वी) को इतिहास के एक अहम कालखंड के रूप में स्थापित करने वाले शेरशाह सूरी को समूचे भारतीय मध्ययुग के सबसे महत्वपूर्ण शासकों में गिना जाता है।

कोलकाता से पेशावर तक ग्रैंट ट्रंक (जीटी) रोड बनवाने और भारतीय रुपये के प्रथम संस्करण 'रुपया' का चलन प्रारंभ करने, एक व्यवस्थित डाक व्यवस्था प्रारंभ करने के साथ-साथ कई ऐतिहासिक कार्य शुरू करने के लिए प्रख्यात शेरशाह सूरी ने 15वीं सदी में सासाराम में एक तालाब के बीच मकबरा बनवाया था।

अफगान वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना होने के कारण संयुक्त राष्ट्र ने 1998 में इस मकबरे को विश्व धरोहरों की सूची में स्थान दिया। यह मकबरा 1130 फीट लंबे और 865 फीट चौड़े तालाब के मध्य में स्थित है। तालाब के मध्य में सैंड स्टोन के चबूतरे पर अष्टकोणीय मकबरा सैंडस्टोन तथा ईंट से बना है। इसका गोलाकार स्तूप 250 फीट चौड़ा तथा 150 फीट ऊंचा है। इसकी गुंबद की ऊंचाई ताजमहल से भी दस फीट अधिक है।

मकबरे में ऊंचाई पर बनी बड़ी-बड़ी खिड़कियां मकबरे को हवादार और रोशनीयुक्त बनाती हैं। खिड़कियों पर की गई बारीक नक्काशी बरबस पर्यटकों को उस समय की कारीगरी की दाद देने को मजबूर कर देती हैं। कहा जाता है कि इस मकबरे मंे शेरशाह की कब्र के अतिरिक्त 24 और कब्रें हैं, जो उनके परिवार के सदस्यों, मित्रों और अधिकारियों के हैं। सभी पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं।

मकबरे के अंदर पश्चिमी दीवार की मेहराब के ऊपर मकबरे का निर्माण कार्य शेरशाह के बेटे सलीम शाह द्वारा जुमदा के सातवें दिन हिजरी संवत 952 यानी 16 अगस्त 1945 ईस्वी को शेरशाह के देहांत के तीन महीने बाद पूरा किए जाने की बात खुदी है।

स्थानीय लोगों का मानना है कि इस ऐतिहासिक धरोहर का सही ढंग से रखरखाव नहीं होने के कारण इसकी कारीगरी कुछ स्थानों पर खराब होने लगी है। कहा जाता है कि वर्ष 1882 में अंग्रेजों ने मकबरे की मरम्मत तथा संरक्षण का काम किया था। आज भी समय-समय पर धरोहरों से प्रेम करने वाले लोग इसे संरक्षित करने का प्रयास करते हैं।

पुरातत्वविदों की मानें तो शहर की गंदगी और खेतों से बहकर आने वाला रसायन युक्त पानी तालाब में गिरने से मकबरे की नींव अंदर से कट रही है। रोहतास के श्रीशंकर महाविद्यालय के वनस्पति विभाग के विभागाध्यक्ष अवधेश कुमार कहते हैं कि तालाब को स्वच्छ रखने के लिए कारगर कदम उठाने की जरूरत है, तभी इस मकबरे को बचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि तालाब में गाद मिट्टी का भी जमाव हो रहा है। इस धरोहर के संरक्षण की जिम्मेदारी हालांकि भारतीय पुरातत्व विभाग को मिली हुई है।

सासाराम, रोहतास जिले का मुख्यालय है जो ग्रैंड ट्रंक रोड (राजमार्ग संख्या-2) पर बसा एक छोटा शहर है। यह राजधानी पटना से लगभग 160 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

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अपने देश में बेगाना: भारत-बांग्लादेश सीमा के निवासियों की व्यथा

भारत में पैदा हुए हजारों लोगों को सरकार भारतीय नागरिक स्वीकार नहीं करती और उन्हें बांग्लादेशी मानती है। क्योंकि इनके पास अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। ऐसे ही एक मामले में एक व्यक्ति पिछले एक वर्ष से अवैध रूप से बांग्लादेश में रहने को विवश है।

भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा समझौते से करीब 50,000 लोग ऐसे ही स्थिति का सामना कर रहे हैं। हजारों गरीब और अनपढ़ लोगों की तरह पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले में पैदा हुए रूहुल अमीन शेख (32) को अब भारतीय अधिकारियों के कारण बांग्लादेश में अवैध रूप से अपनी चाची के घर में रहना पड़ रहा है। भारतीय अधिकारियों ने उन्हें विदेशी ठहराकर देश से बाहर निकाल दिया।

अमीन की परेशानी तब शुरू हुई, जब उनकी सात वर्षीय बेटी ने दुर्गापूजा पर एक नई पोशाक की मांग की। इसके बाद शेख एक निर्माण क्षेत्र के एक मजदूर के तौर पर नई दिल्ली चले आए। एक अवैध बांग्लादेशी होने के आरोप में शेख को 26 बार 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में रखा गया। इसके बाद उन्हें देश से बाहर निकाल दिया गया।

एन्क्लेव में पैदा हुए अन्य लोगों की तरह अमीन के पास अपनी भारतीय पहचान को स्थापित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। वह शिक्षा, बिजली और अन्य मूल जरूरतों के अभाव में पले-बढ़े हैं। एन्क्लेव में रहने वालों की समस्याओं पर काम करने वाले एक स्वयंसेवी संगठन भारत-बांग्लादेश एन्क्लेव विनिमय समन्वय समिति (बीबीईईसीसी) ने कहा कि अमीन को दिल्ली से अगस्त के शुरू में लाया गया और अवैध रूप से पुलिस ने उन्हें भारत से बाहर निकाल दिया।

बीबीईईसीसी के समन्वयक दीप्तिमान सेनगुप्ता ने कहा, "अमीन को बांग्लादेश के उच्चायुक्त को सूचना दिए बगैर ही बांग्लादेश में धकेल दिया गया जो अवैध है। अमीन को 2011 की जनगणना में मोसलडंगा का निवासी बताया गया है। इसलिए वह आप्रवासी कैसे हो सकता है?" 

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तीन माह बाद भी अस्तव्यस्त है केदारनाथ

आपदा से आहत हुए प्रसिद्ध तीर्थस्थल केदारनाथ अभी भी संपर्क विहीन स्थिति में है। पहुंच मार्ग नहीं होने के साथ ही मलबों के नीचे अभी भी कई शव दबे हुए हैं और डरे हुए ग्रामीण शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। पलायन करने वालों में से कई ने 'देवभूमि' माने जाने वाले इस इलाके में दोबारा नहीं लौटने का मन बना लिया है।

केदारनाथ मंदिर के कपाट हालांकि बुधवार को खोल दिए गए और 15 से 17 जून को हुई भारी वर्ष एवं उससे आई बाढ़ के तांडव के बाद पहली बार वहां पूजा-अर्चना हुई। उत्तराखंड में आई इस प्राकृतिक आपदा में सैकड़ों लोग मारे गए। उत्तराखंड सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती आपदा में केदारनाथ और इसके आसपास के इलाके में बेघर हो गए लोगों को राहत पहुंचाना और उनका पुनर्वास कराना है।

स्थानीय विधायक शैल रानी रावत ने बताया, "केदार घाटी में मौसम का मिजाज अभी भी बिगड़ैल ही बना हुआ है और क्षेत्र में केवल हेलीकॉप्टर के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। वर्ष में यह सेवा भी प्रभावित होती है। सर्दियों में हालत और बुरी हो जाएगी।" उन्होंने कहा कि केदारनाथ मंदिर की सफाई हो चुकी है और पूजा के लिए तैयार है, लेकिन शेष इलाका अभी भी मलबे से ढका हुआ है।

रावत ने कहा, "बड़ी-बड़ी चट्टानें और भवनों के ध्वस्त ढांचे अभी तक वैसे ही पड़े हैं। इनको हटाने के लिए बड़ी मशीनों व अन्य उपकरणों की जरूरत होगी। चूंकि अभी तक सड़क संपर्क नहीं हो पाया है इसलिए मलबे को साफ करना कठिन है।"

इलाके में काम करने वाले कई एनजीओ का कहना है कि मंदिर के इर्दगिर्द सैकड़ों शव अभी भी मलबे के नीचे दबे हुए हैं। इलाके में काम कर रहे एक्शन एड नेटवर्क के समन्वयक दुर्गा प्रसाद के मुताबिक सितंबर के बाद जब बारिश रुक जाएगी तभी मारे गए लोगों की वास्तविक संख्या और प्रभावित हुए लोगों की सही जानकारी उपलब्ध हो सकेगी।

उन्होंने बताया कि अभी तक मानवीय श्रम से कुछ अस्थायी सड़कों का ही निर्माण हो पाया है ताकि मालवाहक वाहन क्षेत्र तक राहत सामग्री पहुंचा सकें। प्रसाद ने बताया, "ढेर सारी राहत सामग्री आ रही है, लेकिन प्रभावितों तक सभी नहीं पहुंच पा रही है। गांव तक पहुंचने का रास्ता नहीं होने के कारण ट्रक सामग्री को बीच में ही उतारकर लौटने के लिए मजबूर हैं।"

प्रसाद ने कहा, "अब तो कई लोगों ने राहत सामग्री लेने के लिए आना बंद कर दिया है, क्योंकि उन्हें 10 से 30 किलोमीटर खतरनाक पहाड़ी रास्तों और विपरीत मौसम को झेलते हुए आना पड़ता है। इसलिए हम वाहनों के जरिए उन तक राहत सामग्री पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं।"

आपदा से डर कर पलायन कर रहे लोग उत्तराखंड सरकार के सामने एक और बड़ी समस्या खड़ी कर रहे हैं। पहाड़ से लोग रोजी-रोटी की तलाश और भयमुक्त होने के लिए देहरादून, ऋषिकेश, नैनीताल एवं अन्य शहरों की तरफ रुख कर रहे हैं। केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने कहा, "मेरी याददाश्त में यह पहला मौका है जब पहाड़ लोगों को डरा रहे हैं और त्रासदी के बाद पर्वतीय क्षेत्र से मैदान की तरफ बड़े पैमाने पर लोग पलायन कर रहे हैं।" 

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विश्वकर्मा पूजा पर विशेष: दुनिया के इंजीनियर भगवान विश्वकर्मा

हिंदू धर्म में मानव विकास को धार्मिक व्यवस्था के रूप में जीवन से जोड़ने के लिए विभिन्न अवतारों का विधान मिलता है। इन्हीं अवतारों में से एक भगवान विश्वकर्मा को दुनिया का इंजीनियर माना गया है, अर्थात समूचे विश्व का ढांचा उन्होंने ही तैयार किया है। वे ही प्रथम आविष्कारक थे। हिंदू धर्मग्रंथों में यांत्रिक, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र विद्या, वैमानिकी विद्या आदि का जो प्रसंग मिलता है, इन सबके अधिष्ठाता विश्वकर्मा माने जाते हैं। इस बार विश्वकर्मा पूजा 17 सितम्बर दिन मंगलवार को पड़ रही है|

विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता रहा है। प्राचीन शास्त्रों में वैमानकीय विद्या, नवविद्या, यंत्र निर्माण विद्या आदि का उपदेश भगवान विश्वकर्मा ने दिया। माना जाता है कि प्राचीन समय में स्वर्ग लोक, लंका, द्वारिका और हस्तिनापुर जैसे नगरों के निर्माणकर्ता भी विश्वकर्मा ही थे।

माना जाता है कि विश्वकर्मा ने ही इंद्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पांडवपुरी, सुदामापुरी और शिवमंडलपुरी आदि का निर्माण किया। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा निर्मित हैं। कर्ण का कुंडल, विष्णु का सुदर्शन चक्र, शंकर का त्रिशूल और यमराज का कालदंड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है।

एक कथा के अनुसार यह मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण अर्थात् विष्णु भगवान क्षीर सागर में शेषशय्या पर आविर्भूत हुए। उनके नाभि-कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र 'धर्म' तथा धर्म के पुत्र 'वास्तुदेव' हुए।

कहा जाता है कि धर्म की 'वस्तु' नामक स्त्री से उत्पन्न 'वास्तु' सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की 'अंगिरसी' नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए थे। अपने पिता की भांति ही विश्वकर्मा भी आगे चलकर वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने। भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं। उन्हें कहीं पर दो बाहु, कहीं चार, कहीं पर दस बाहुओं तथा एक मुख और कहीं पर चार मुख व पंचमुखों के साथ भी दिखाया गया है। उनके पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ हैं।

यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार भी वैदिक काल में किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरूपों और अवतारों का वर्णन मिलता है :

विराट विश्वकर्मा : सृष्टि के रचयिता

धर्मवंशी विश्वकर्मा : शिल्प विज्ञान विधाता और प्रभात पुत्र

अंगिरावंशी विश्वकर्मा : आदि विज्ञान विधाता और वसु पुत्र

सुधन्वा विश्वकर्मा : विज्ञान के जन्मदाता (अथवी ऋषि के पौत्र)

भृंगुवंशी विश्वकर्मा : उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र)

विश्वकर्मा के विषय में कई भ्रांतियां हैं। बहुत से विद्वान विश्वकर्मा नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है। कुछ विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं, तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं।

ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं लिखी हुई हैं। यही सूक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सूक्त मंत्र 16 से 31 तक 16 मंत्रों में आया है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द इंद्र व सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं। स्कंद पुराण प्रभात खंड के इस श्लोक की भांति किंचित पाठभेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है :

बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।

प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।

विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापति: ।।16।।

महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। भारत में शिल्प संकायों, कारखानों और उद्योगों में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को भगवान विश्वकर्मा पूजनोत्सव का आयोजन किया जाता है।

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विश्व ओजोन दिवस विशेष: पूरे वर्ष ओजोन को याद रखना होगा

किसी व्यवस्था में छेद होने से पहले हमारे विचारों में छुद्रता आती है। और इस वैचारिक छुद्रता का अर्थ यह होता है कि कि हमारे पतन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। और इस पतन का ही परिणाम है कि आज राजनीति से लेकर समाज, अर्थव्यवस्था और हमारा पर्यावरण, सबकुछ छलनी हो चला है।

हमने ओजोन की उस छतरी में भी छेद कर डाला है, जो सूरज की खतरनाक किरणों से हमें अब तक बचाती रही है। चिंता की बात यह कि अब यह छेद सिर्फ छेद नहीं, हमारे अस्तित्व के लिए अंतहीन सुरंग बनने की ओर बढ़ चला है। नासा के औरा उपग्रह से प्राप्त आंकड़े के अनुसार ओजोन छिद्र का आकार 13 सितंबर, 2007 को अपने चरम पर पहुंच गया था, कोई 97 लाख वर्ग मील के बराबर। यह क्षेत्रफल उत्तरी अमेरिका के क्षेत्रफल से भी अधिक है। 12 सितंबर, 2008 को छेद का आकार और बढ़ गया। ओजोन परत अभी भी खतरनाक स्थिति में है।

वायुमंडल में मौजूद ओजोन की चादर लगातार झीनी हो रही है। सूरज से निकलने वाली खतरनाक पराबैंगनी किरणें हमारे अस्तित्व को छेद रही हैं। लेकिन इसके लिए कोई और नहीं, खुद हम, हमारी सोच और हमारी जीवनशैली जिम्मेदार है। आज हमें त्वचा कैंसर, त्वचा के बूढ़ा होने और आंखों की खतरनाक बीमारियों के खतरों से दो-चार होना पड़ रहा है।

ओजोन की छतरी में छेद के लिए जिम्मेदार है, क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस, और आज हमारे जीवन में इस गैस का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। रेफ्रीजरेटर से लेकर एयरकंडीशनर तक इसी गैस पर निर्भर हैं और हम इन उपकरणों पर। हमें इन उपकरणों से बचना होगा, क्योंकि इन्हीं के जरिए सीएफसी वातावरण में घुल रही है। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि सीएफसी के उत्पादन और इस्तेमाल पर आज से पूर्ण प्रतिबंध भी लगा दिया जाए, तो भी ओजोन क्षरण की समस्या बनी रहेगी। क्योंकि वातावरण में पहले से मौजूद सीएफसी को साफ करने का कोई तरीका अभी तक नहीं ढूढ़ा जा सका है और यह अगले 100 सालों तक इसी तरह वातावरण में बनी रहेगी। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि क्या सीएफसी पर पूर्ण प्रतिबंध संभव है?

मांट्रियल प्रोटोकाल से जुड़े 30 देशों ने सीएफसी के इस्तेमाल में कमी लाने पर सहमति जताई है। लेकिन यह कमी कितनी होगी, इसका कोई आंकड़ा स्पष्ट नहीं है। वर्ष 2000 तक अमेरिका तथा यूरोप के 12 राष्ट्र सीएफसी के इस्तेमाल और उत्पादन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने पर सहमत हो गए थे। इसे एक बड़ी उपलब्धि मानी गई थी, क्योंकि ये देश दुनिया में उत्पादित होने वाले सीएफसी का तीन चैथाई हिस्सा पैदा करते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि इन देशों ने अपनी सहमति को साकार कितना किया?

ओजोन छिद्र से घायल हुआ अमेरिका :

अमेरिका ओजोन के छेद से सबसे पहले घायल हुआ है, क्योंकि ओजोन की चादर में पहला छेद अंटार्कटिक के ठीक ऊपर बना। यह छेद न केवल इस महाद्वीप के लिए खतरनाक है, बल्कि कई अन्य महाद्वीपों के लिए भी। क्योंकि अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने के कारण कई सारे देशों के जलमग्न होने का खतरा पैदा हो गया है।

अंटार्कटिका के ऊपर इस ओजोन छिद्र का पता 1985 में ब्रिटिश वैज्ञानिक जोसेफ फारमैन, ब्रायन गार्डनर और ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के जोनाथन शंकलिन ने लगाया था। इसके पहले वायुमंडल में ओजोन की चादर की खोज वर्ष 1913 में फ्रेंच वैज्ञानिकों, चार्ल्स फैब्री और हेनरी बूइसॉ ने की थी। पृथ्वी से 30 मील ऊपर तक का क्षेत्र वायुमंडल कहलाता है और वायुमंडल के सबसे ऊपरी हिस्से में ओजोन गैस की पर्त है।

ओजोन नीले रंग की गैस होती है। ओजोन में ऑक्सीजन के तीन परमाणु मिले हुए होते हैं। हमें श्वसन क्रिया के लिए जिस ऑक्सीजन की जरूरत होती है, उसमें ऑक्सीजन के दो परमाणु ही होते हैं। लिहाजा ओजोन गैस प्रत्यक्ष रूप में हमारे जीवन के लिए खतरनाक है। सीएफसी से निकलने वाली क्लोरीन गैस ओजोन के तीन ऑक्सीजन परमाणुओं में से एक परमाणु से अभिक्रिया कर जाती है। यह प्रक्रिया जारी रहती है, और इस तरह क्लोरीन का एक परमाणु ओजोन के 100,000 अणुओं को नष्ट कर डालता है।

ओजोन क्षरण से बीमारियों का खतरा :

अमेरिका की एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) के अनुसार ओजोन क्षरण के कारण, वर्ष 2027 तक पैदा होने वाले छह करोड़ अमेरिकी, त्वचा कैंसर से पीड़ित होंगे। इनमें से लगभग 10 लाख लोग बेमौत मारे जाएंगे। कुछ अनुसंधानों में कहा गया है कि कैंसर के अलावा मलेरिया और अन्य संक्रामक बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाएगा।

ईपीए के अनुसार ओजोन क्षरण के कारण मोतियाबिंद के 1.70 करोड़ नए मामले सामने आ सकते है, वृक्षों का जीवन चक्र बदल सकता है, खाद्य श्रृंखला बिगड़ सकती है। इसका असर पशुओं पर भी पड़ेगा। इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएं पैदा होंगी, कहना कठिन है।

समुद्र बुरी तरह प्रभावित होगा। अधिकांश समुद्री सूक्ष्म जीव समाप्त हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो वे सभी जंतु भी मर जाएंगे जो खाद्य श्रृंखला में सूक्ष्म जीवों पर निर्भर होते हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय समिति (आईपीसीसी) की हाल की रिपोर्ट में कहा गया है कि ओजोन क्षरण के कारण धरती का तापमान पिछले 100 सालों में 0.74 प्रतिशत बढ़ गया है। और इसका प्रभाव घातक है।

सीएफसी पर लग पाएगा पूर्ण प्रतिबंध? :

ओजोन की चादर को तार-तार होने से बचाने के लिए सीएफसी के इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध के अलावा फिलहाल और कोई रास्ता नहीं है। इसी बारे में जागरूकता फैलाने के लिए 16 सितंबर, 1995 को संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहल पर मांट्रियल प्रोटोकॉल पर 191 देशों ने सहमति जताई थी। प्रोटोकाल के तहत सभी सदस्य देशों को सीएफसी के उत्पादन और इस्तेमाल में कमी लाने के लिए अपने-अपने स्तर पर उपाय करने थे।

इसी सहमति के समर्थन में अब हर वर्ष 16 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय ओजोन दिवस मनाया जाता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या साल में एक दिन का समारोह मना लेने से यह समस्या सुलझ जाएगी? जवाब होगा नहीं! लिहाजा यदि हम वाकई समाधान के प्रति गंभीर हैं, तो हमें साल के 365 दिन ओजोन को याद रखना होगा। और इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी सोच और जीवन शैली में बदलाव लाना होगा। कई सारे छोटे-बड़े उपाय अपनाने होंगे।

अधिक से अधिक पेड़ लगाने होंगे, ऊर्जा की खपत घटानी होगी, पर्यावरण अनुकूल उत्पादों और वस्तुओं का इस्तेमाल करना होगा, स्थानीय स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी। तो आइए हम सभी मिल कर इस उद्देश्य के लिए अभी से संकल्प लें। 

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चाहते हैं सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी तो रखें पदमा एकादशी व्रत

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकाद्शी पदमा एकादशी के नाम से जानी जाती है| इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है| इस दिन भगवान श्री विष्णु के वामनावतार की पूजा पूजा की जाती है| यह एकादशी वामन एकादशी के नाम से भी जानी जाती है| इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी होती है| इस एकादशी के विषय में एक मान्यता है, कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्री कृ्ष्ण के वस्त्र धोये थे| इसी कारण से इस एकाद्शी को "जलझूलनी एकादशी" भी कहा जाता है| इस बार पदमा एकादशी 15 सितम्बर दिन रविवार को मनाई जायेगी| 

पदमा एकादशी की व्रत विधि-

इस दिन जो व्यक्ति व्रत करता है, उसे भूमि दान करने और गौदान करने के पश्चात मिलने वाले पुन्यफलों से अधिक शुभ फलों की प्राप्ति होती है| इस व्रत में धूप, दीप,नेवैद्ध और पुष्प आदि से पूजा करने की विधि-विधान है| इस व्रत में सात कुम्भ स्थापित किये जाते है| सातों कुम्भों में सात प्रकार के अलग- अलग धान्य भरे जाते है| इनमें जो धान्य भरे जाते हैं उनमें गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौं, चावल और मसूर शामिल है| 

एकादशी के एक दिन पहले यानि दशमी तिथि के दिन इनमें से किसी धान्य का सेवन नहीं करना चाहिए| कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रख पूजा की जाती है| इस व्रत को करने के बाद रात्रि में श्री विष्णु जी के पाठ का जागरण करना चाहिए| यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर, द्वादशी तिथि तक जाता है| इसलिये इस व्रत की अवधि सामान्य व्रतों की तुलना में कुछ लम्बी होती है| एकादशी तिथि के दिन पूरे दिन व्रत कर अगले दिन द्वादशी तिथि के प्रात:काल में अन्न से भरा घडा ब्राह्माण को दान में दिया जाता है| 

पूजा करते समय इस मंत्र का जरुर उच्चारण करना चाहिए- 

देवेश्चराय देवाय, देव संभूति कारिणे ।
प्रभवे सर्व देवानां वामनाय नमो नम: ।।

पदमा एकादशी व्रत कथा-

एक बार युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा: केशव ! कृपया यह बताइये कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके देवता कौन हैं और कैसी विधि है? भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ, जिसे ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कहा था ।

नारदजी ने पूछा : चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है ! मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिए आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? तब ब्रह्माजी ने कहा : मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे! भादों के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘पदमा’ के नाम से विख्यात है । उस दिन भगवान ह्रषीकेश की पूजा होती है । यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है । सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक प्रजा का पालन किया करते थे। उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था । उनकी प्रजा निर्भय तथा धन धान्य से समृद्ध थी । महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था । उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म में लगे रहते थे । मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देनेवाली थी । उनके राज्यकाल में प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था ।

एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई । इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी । तब सम्पूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा : नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिए । पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जल को ‘नार’ कहा है । वह ‘नार’ ही भगवान का ‘अयन’ (निवास स्थान) है, इसलिए वे ‘नारायण’ कहलाते हैं । नारायणस्वरुप भगवान विष्णु सर्वत्र व्यापकरुप में विराजमान हैं । वे ही मेघस्वरुप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है । नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है, अत: ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो ।

राजा ने कहा : आप लोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है । अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जगत जीवन धारण करता है । लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है, किन्तु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता । फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करुँगा ।

ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने गिने व्यक्तियों को साथ ले, विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये । वहाँ जाकर मुख्य मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे । एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ॠषि के दर्शन हुए । उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनि ने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी । मुनि ने राजा को आसन और अर्ध्य दिया| उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो मुनि ने राजा से आगमन का कारण पूछा ।

राजा ने कहा : भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था । फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया । इसका क्या कारण है इस बात को मैं नहीं जानता । ॠषि बोले : राजन् ! सब युगों में उत्तम यह सत्ययुग है । इसमें सब लोग परमात्मा के चिन्तन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है । इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं । किन्तु महाराज ! तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या करता है, इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते। तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो, जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय।

राजा ने कहा : मुनिवर ! एक तो वह तपस्या में लगा है और दूसरे, वह निरपराध है । अत: मैं उसका अनिष्ट नहीं करुँगा। आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये ।

ॠषि बोले : राजन् ! यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्रत करो । भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो ‘पधा’ नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी । नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो ।

ॠषि के ये वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये । उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजा के साथ भादों के शुक्लपक्ष की ‘पधा एकादशी’ का व्रत किया । इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे । पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी । उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए । ‘पदमा एकादशी’ के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढकँकर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिए । दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ।

भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥

‘बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान गोविन्द ! आपको नमस्कार है… नमस्कार है ! मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें । आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं ।’ राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

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नरेंद्र मोदी: चाय विक्रेता से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी

गुजरात के एक रेलवे स्टेशन पर कभी चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह आगे बढ़े हैं। वर्ष 2001 में मुख्यमंत्री बनने के बाद सुर्खियों में आए मोदी महज 12 वर्षो में पार्टी की ओर से देश की सरकार के शीर्ष पद के प्रत्याशी बनाए गए हैं।

धुर हिंदूवादी या हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के पैरोकार मोदी (62) जनभावनाओं को उभारने में अपनी पार्टी के किसी भी नेता से आगे माने जाते हैं। उनके साथियों का कहना है कि सदैव लक्ष्य पर निगाह टिकाए रखने वाले मोदी हर विपरीत परिस्थिति को अवसर में बदलने में दक्ष हैं।

गुजरात का मुख्यमंत्री चयनित होने से पहले मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक रहे और जिस समय देश के सर्वाधिक विकसित राज्य की उन्हें कमान सौंपी गई थी उस समय तक उन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।

तीव्र गति से आगे बढ़ते जाने वाले मोदी पर उनके आलोचकों का आरोप है कि शिखर चढ़ने में मददगार रहे लोगों को ही वे ठिकाने लगाते रहे हैं। इस सूची में सबसे ताजा नाम भाजपा के कद्दावर नेता और कभी उनके (मोदी के) संरक्षक रहे लालकृष्ण आडवाणी का भी नाम जुड़ गया है। आडवाणी तब मोदी के मार्गदर्शक थे जब उन्हें कोई जानता तक नहीं था।

मोदी को गहरे रूप से जानने वाले राजनीतिक विश्लेषक जी. वी. एल. नरसिम्हा राव ने कहा, "वे प्रतिबद्ध व्यक्ति हैं। वे अत्यंत इमानदार और परिश्रमी हैं। चाहे जैसी भी परिस्थिति हो वे समझौता नहीं करते। और यहां तक कि मोदी एक अस्थायी विजय के लिए कभी नहीं झुकेंगे।" आज के मुकाबले मोदी का शुरुआती जीवन बेहद गौण रहा है।

गुजरात के मेहसाणा जिले के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में 17 सितंबर 1950 को जन्मे मोदी अपने माता-पिता की चार संतानों में तीसरे हैं। उनके पिता दामोदरदास चाय की एक छोटी सी दुकान चलाते थे। गुजरात के वादनगर रेलवे स्टेशन पर उनके बेटे केतली में चाय लेकर रेलगाड़ियों में बेचा करते थे।

इस परिवार का घर ऐसा था जिसमें खिड़कियों से पर्याप्त रोशनी भी नहीं पहुंचती थी। किरासन तेल पर जलनेवाली एकमात्र चिमनी धुआं और कालिख उगलती रहती थी। जो लोग मोदी को जानते हैं वे बताते हैं कि वे एक औसत दर्जे के छात्र थे। खुद उनके मुताबिक वे एक समर्पित हिंदू हैं। चार दशक तक उन्होंने नवरात्रि के दौरान केवल जल के सहारे उपवास रखते रहे।

मोदी के जीवनीलेखक नीलांजन मुखोपाध्याय के मुताबिक, युवावस्था में ही मोदी की शादी हुई, लेकिन वह निभ नहीं सकी। प्रचारक बनने के लिए उन्होंने अपने विवाहित होने के सच को छिपाए रखा। इस सच के सामने आने पर अति शुद्धतावादी संघ का प्रचारक बनना मुश्किल था।

स्कूली जीवन से ही मोदी अच्छे वक्ता रहे हैं। वे अक्सर महीनों अपने परिवार से गायब रहा करते थे। वे एकांत में रुकते या हिमालय में भटका करते थे। एक बार वे गिर के जंगलों में एक छोटे से मंदिर में ठहरे थे। 1967 में उन्होंने अपने परिवार से नाता तोड़ लिया।

मोदी संघ में औपचारिक रूप से 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद शमिल हुए। वे दिल्ली के संघ कार्यालय में रहे जहां उनकी दिनचर्या कुछ इस तरह की थी। सुबह 4 बजे जगने के बाद पूरे कार्यालय में झाडूबुहारू करना, वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के लिए चाय के साथ-साथ नाश्ता और शाम का नाश्ता बनाना और पत्रों का उत्तर देना उनका काम था। वे बर्तन भी साफ करते थे और पूरे भवन की साफ सफाई करते थे।

मोदी अपना कपड़ा भी खुद धोते थे। जब इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा था तब मोदी दिल्ली से गुजरात जा कर भूमिगत हो गए। एक बजाज स्कूटर पर अनवरत इधर-उधर घूमते रहते और कभी-कभी गुप्तरूप से और छपे हुए केंद्र सरकार विरोधी पर्चे बांटा करते थे। राजनीति को अंगीकार करने वाले मोदी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक और गुजरात विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की है।

अपने परिश्रम के दम पर मोदी ने वरिष्ठों का ध्यान खींचा और उन्हें 1987-88 में भाजपा की गुजरात इकाई में संगठन मंत्री की कमान सौंपी गई। यहीं से उनके राजनीतिक सफर की औपचारिक शुरुआत हुई।

मोदी ने आहिस्ता-आहिस्ता भाजपा पर नियंत्रण पाया और कार्यकर्ताओं के बीच पैठ बनाई। उन्होंने 1990 में तब महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जब आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली थी। इसी रथ यात्रा ने भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराने में मदद दिलाई।

लेकिन राजनीतिक कद बढ़ते जाने के बीच मोदी की अपनी कुछ निजी कमजोरियां भी हैं। 1992 में उन्हें गुजरात भाजपा में दरकिनार कर दिया गया। पहले से जमे केशुभाई पटेल, शंकरसिंह वाघेला और कांशीराम राणा जैसे वरिष्ठ नेताओं को मोदी का 'उदय' नहीं पचा। 

समय बीता। मोदी पर आरोप है कि उन्होंने अपने लाभ के लिए समर्थकों को किनारे लगाने में भी परहेज नहीं किया। वर्ष 2001 में जिस मुख्यमंत्री पटेल की जगह उन्होंने ली कभी मोदी उनके विश्वासपात्र रह चुके थे।

मोदी की आज की पहचान पर 2002 के गुजरात में हुई हिंसा की व्यापक छाया है। उस समय वहां उन्हीं की सरकार थी। उनकी सरकार पर एक समुदाय विशेष के लोगों को निशाना बनाने के लिए दूसरे समुदाय को प्रोत्साहन देने का आरोप है।

उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात हिंसा पर गहरी नाराजगी जताई थी। तब मोदी के लिए आडवाणी संकटमोचक बने थे। उसके बाद 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी विजेता बनकर उभरे और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

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हरियाणा का मोरनी हिल्स, जहाँ हवा में कलरव करते पक्षियों का संगीत गूंजता है

जब भी हम कभी किसी हिल्स स्टेशन पर जाने की सोचतें हैं तब हमें याद आता है धरती का स्वर्ग कश्मीर, उत्तराखंड की मनोरम वादियाँ या फिर हिमांचल की को गोद में में समाये अद्भुत स्थल लेकिन आज हम आपको एक और मनोरम स्थल के बारे में बतायेंगे जिसके बारे में सुनने के बाद आपका मन एक बार को जरुर मचलेगा कि एक बार तो घूम ही आयें। वो हरियाणा का एक मात्र हिल स्टेशन मोरनी,जो पिकनिक और सभी वर्ष के आसपास छोटी यात्राओं के लिए एक आदर्श स्थान है।

मोरनी हिल्स पहाड़ी पटरियों, वन और देवदार के पेड़, सुरम्य स्थान के साथ मोरनी हिल्स चंडीगढ़ से होते हुए (45 किलोमीटर) दूर पंचकुला जिले में स्थित है। मोरनी के गांव 1220 मीटर या समुद्र तल से 3600 फीट की ऊंचाई पर, पहाड़ी पर स्थित है। शिवालिक रेंज के निचले इलाकों में स्थित मोरनी, पक्षियों को देखने के लिए अपनी ठंडी जलवायु, सुंदर प्राकृतिक खा़का और असंख्य अवसरों के साथ एक छुट्टी के लिए आदर्श है।

मोरनी हिल्स में बड़ों के लिए बोटिंग और पैरा सेलिंग तो बच्चों के लिए ढ़ेर सारे खेल हैं। यहां मौजूद हिल्स एन थ्रिल्स पार्क में रोमांचित और रोंगटे खड़े कर देने वाली है। यहाँ एक से बढ़ कर एक चीजें हैं। एक तरफ ट्रैकिंग के लिए साफ-सुथरे और चलने के लिए उत्साहित करते रहने वाले ट्रैक हैं तो दूसरी तरफ प्रकृति प्रेमियों के लिए टिक्कर ताल किनारे बैठ कर पहाड़ और उसके ऊपर अक्सर छा जाने वाले बादलों की खूबसूरती भी है।

मोरनी वनस्पतियों और जीव का एक आकर्षक रेंज है| पाइंस ताज नीम, ओक, पीपल, जामुन, अमलतास के पेड़ों ने किनारे-किनारे से पेड़ों ने टीलों और ढलानों को कवर किया है| फूल के पेड़ बौर, पहाड़ी रंग से अटा पड़ा हैं, ये सब इतना मनोरम लगता है कि बस निहारते रहों पलक तक झपकने का मन नहीं करता। मोरनी बटेर, रेत शिकायत और आम कबूतर के साथ ही गीदड़, हाइना,सांभर और यहां तक ​​कि एक जंगली बिल्ली या दो तरह के जानवरों की तरह पक्षियों के अपने बहुतायत आबादी के साथ वन्य जीवन के प्रति उत्साही और पक्षियों को पसंद करने वालों के लिए मानो यह किसी स्वर्ग से कम नहीं।

पंचकुला से यात्रा शुरू करते हैं। हर रोज यहाँ के बस अड्डे से मोरनी के लिए दोपहर 2 बजे तक नियमित बसें जाती हैं और शाम तक मोरनी गांव से पंचकुला लौटती हैं, लेकिन टैक्सी आदि चंडीगढ़ से भी ली जा सकती है। अपनी या रिजर्व गाड़ी है तो फिर पूछने ही क्या । पिंजौंर गार्डन के पास से मोरनी हिल्स के लिए रास्ता अलग हो जाता है जो आपको मोरनी हिल्स के एक छोटे से मोरनी गांव में ले जाता है।

यहां तक सीढ़ी चढ़ाई के बाद आपको बिलकुल थकान नहीं लगेगी इतना अद्भुत रास्ता है कि बस ये आपको अपनी तरफ खीचता ही जायेगा। यहां से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर ही आपको आपकी मंजिल यानी एडवेंचर पार्क पुकार रहा होगा। ढ़लान पर उतरते हुए शुरू हो जाएगा नजरों के सामने चारों तरफ दूर-दूर तक फैले हरे-भरे पहाड़ों का नजारा। चीड़, नीम, पीपल, जामुन, अमलतास आदि के पेड़, उन पर कलरव करते पक्षियों का संगीत और संगीत को और मनमोहक बनाती ठंडी-ठंडी हवा। पतले रास्ते के एक तरफ खड़े ऊंचे पहाड़ और दूसरी तरफ पसरी खाई के बीच यात्रा करते हुए आप रोमांचित होते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।


वहां की शिवालिक की पहाड़ी के पास स्थित मोरनी हिल्स जैसे लगता है कि यह स्थान पहाड़ियों की चरणों में अपना शीश झुकाए हुए है। ये झूमती मचलती, गुनगुनाती पहाड़ी हवाएं इंसान के मन को गुदगुदाए बगैर नहीं रहती। अगर अप यह सोच के जाते हैं कि घूम के तुरंत लौट आये तो आप ऐसा कर नहीं सकते। जब भी जाएंगे तो मन कम से कम एक दो रात यहां ठहरने को मचलने लगेगा।

यहाँ गांव के लोग शहरी सभ्यता से दूर सीधी साधी जिंदगी व्यतीत करते दिखाई देंगें। छोटे-छोटे खेतों में काम करते मजदूर दिखाई देंगे। एच एंड जे (होश एंड जोश) यानी हिल्स एन थ्रिल्स में तो आप कई-कई घंटे पूरे परिवार के साथ बिता सकते हैं। इसके अंदर तरह-तरह के खेल तो हैं ही, घग्गर नदी के किनारे के अलावा एक ट्रैकिंग रूट भी है और पास ही में एक डरावना घर भी।

दिल्ली से लगभग 290 किमी की दूरी पर स्थित इस पार्क के पास ताल के किनारे खाने-पीने के लिए एक शानदार रेस्तरां भी है। पास ही में हरियाणा टूरिज्म का माउंटेन क्वैल टूरिस्ट रिजॉर्ट भी है, जो आपके बजट में ही है। आप चाहे तो यहां ताल के किनारे कैंपिंग भी कर सकते हैं। ऐसे टेंटेड एकोमोडेशन को एंजॉय करने के लिए आप हरियाणा टूरिज्म से पैकेज तैयार करवा सकते हैं, लेकिन इसके लिए आपके ग्रुप में कम से कम 15 लोग शामिल हों।

कैसे पहुंचें

हवाई मार्ग से: नजदीकी हवाई अड्डा चंडीगढ़ सिर्फ 38 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्ली से चंडीगढ़ के लिए दिन भर में अनेक उड़ानें हैं।

रेल मार्ग से : रेलवे स्टेशन चंडीगढ़ सिर्फ 35 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्ली से चंडीगढ़ के लिए कई गाड़ियाँ चलतीं हैं।

सड़क मार्ग से : पंचकुला से मोरनी गांव तक बस या अपनी टैक्सी से पहुंचा जा सकता है। पंचकुला बस अड्डे से मोरनी गांव की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है। मोरनी गांव से टैक्सी, ऑटो आदि से एडवेंचर पार्क तक की 6 किलोमीटर की दूरी तय की जा सकती है।

12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन मात्र से मिट जातें हैं सारे कष्ट

भारतीय मान्यता के अनुसार दुनिया में लगभग 36 करोड़ हिन्दू देवी देवता हैं, जिन्हें पूजा जाता है लेकिन उन सब में भगवन शंकर को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसलिए तो उन्हें देवों के देव महा देव कहतें हैं। इन्हीं महा देव के बारह ज्योतिर्लिंग हमारे देश में स्थित हैं। हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रकट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। शिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है ये 12 ज्योतिर्लिंग हैं- 

सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्री सोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर। कहा जाता है कि भगवान शिव के इन बारह अवतारों में से किसी एक ज्योतिर्लिग का भी अगर पूजन किया जाए तो भक्त को मुक्ति मिल जाती है। साथ ही दैविक, दैहिक व भौतिक कष्टों से छुटकारा भी मिलता है। आईये जानतें हैं इन ज्योतिर्लिंगों के पौराणिक महत्व-

श्री सोमनाथ:

भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में अरब सागर के तट पर स्थित आदि ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग स्थित है। यह तीर्थस्थान देश के प्राचीनतम तीर्थस्थानों में से एक है और इसका उल्लेख स्कंदपुराणम, श्रीमद्‍भागवत गीता, शिवपुराणम आदि प्राचीन ग्रंथों में भी है। वहीं ऋग्वेद में भी सोमेश्वर महादेव की महिमा का उल्लेख है। कहा जाता है कि ईसा के पूर्व बने इस मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया । इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी|

अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया| 1024 के दिसंबर महिने में मुहमद गजनवी ने कुछ 500 साथीयों के साथ मंदिर में लूटपाट की मंदिर के लिंग को नाश करना चाहा उस वक़्त 50,000 लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे ,सभी कत्ल कर दिये गये। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया । महमूद गजनवी ने इस मंदिर पर 17 बार आक्रमण किया था। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया| 

मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया । इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। सोमनाथजी के मंदिर की व्यवस्था और संचालन का कार्य सोमनाथ ट्रस्ट के अधीन है। सरकार ने ट्रस्ट को जमीन, बाग-बगीचे देकर आय का प्रबंध किया है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।

धार्मिक महत्व- पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार सोम नाम चंद्र का है, जो दक्ष के दामाद थे। एक बार उन्होंने दक्ष की आज्ञा की अवहेलना की, जिससे कुपित होकर दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि उनका प्रकाश दिन-प्रतिदिन धूमिल होता जाएगा। जब अन्य देवताओं ने दक्ष से उनका श्राप वापस लेने की बात कही तो उन्होंने कहा कि सरस्वती के मुहाने पर समुद्र में स्नान करने से श्राप के प्रकोप को रोका जा सकता है। सोम ने सरस्वती के मुहाने पर स्थित अरब सागर में स्नान करके भगवान शिव की आराधना की। प्रभु शिव यहाँ पर अवतरित हुए और उनका उद्धार किया व सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।


श्रीमल्लिकार्जुन:

यह ज्योतिर्लिंङ्ग आंध्रप्रदेश के कर्नूल जिले में कृष्णा नदी के किनारे श्रीशैलम् पहाड़ी पर स्थित है। इस पहाड़ी को श्री पर्वत, मलया गिरि और क्रौंच पर्वत भी कहते हैं। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं मल्लिका का मतलब पार्वती और अर्जुन का अर्थ शिव होता है। शिवरात्रि के दिन इनकी पूजा और आराधना का धार्मिक महत्व है। कथा एक बार शंकर और पार्वती के पुत्र गणेश व कार्तिकेय के बीच पहले शादी करने के लिए विवाद हो गया। तब शंकर और पार्वती ने कहा दोनों में से जो भी इस पृथ्वी की परिक्रमा पहले करेगा उसकी शादी पहले होगी। कार्तिकेय पृथ्वी का चक्कर लगाने निकल पड़े और गणेश ने शिव-पार्वती की परिक्रमा कर ली। शास्त्रों में माता-पिता की परिक्रमा पृथ्वी के समान बताई गई है। अत: गणेश का विवाह सिद्धि व बुद्धि नाम को दो कन्याओं से कर दिया गया। इससे कार्तिकेय नाराज होकर श्री शैलम् पर्वत पर चले गए। 

कार्तिकेय को खुश करने के लिए शिव इस पर्वत पर ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में प्रकट हुए। यही ज्योतिर्लिंङ्ग मल्लिकार्जुन कहलाया। इसी पहाड़ी पर पार्वती भ्रमराम्बा देवी के रूप में प्रकट हुईं। महत्व ऐसा कहा जाता है कि रावण का वध करने के बाद राम और सीता ने भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन किए थे। द्वापर युग में युधिष्ठिïर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने इनकी पूजा-अर्चना की थी। राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप भी इनकी पूजा करता था। बाद में मंदिर की संपत्ति लूटने के लिए हिंदू विरोधी मान्यता के लोगों ने तोडफ़ोड़ भी की। कालांतर में विजयनगर के राजा श्रीकृष्णदेव राय और रेड्डी वंश के राजाओं ने मंदिर का पुनरोद्धार कराया। धर्मग्रन्थों में यह महिमा बताई गई है कि श्रीशैल शिखर के दर्शन मात्र से मनुष्य सब कष्ट दूर हो जाते हैं और अपार सुख प्राप्त कर जीवन के आवागमन के चक्र से मुक्ति मिलती है अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है।

श्रीमहाकाल:

यह परम पवित्र ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। पुण्यसलिला क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जैन प्राचीनकाल में उज्जयिनी के नाम से विख्यात था, इसे अवन्तिकापुरी भी कहते थे। यह भारत की परम पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। महाभारत, शिवपुराण एवं स्कन्दपुराण में महाकाल ज्योतिर्लिंग की महिमा का पूरे विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।

इस ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार वर्णित है- प्राचीनकाल में उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन राज्य करते थे। वह परम शिव-भक्त थे। एक दिन श्रीकर नामक एक पाँच वर्ष का गोप-बालक अपनी माँ के साथ उधर से गुजर रहा था। राजा का शिवपूजन देखकर उसे बहुत विस्मय और कौतूहल हुआ। वह स्वयं उसी प्रकार की सामग्रियों से शिवपूजन करने के लिए लालायित हो उठा।

सामग्री का साधन न जुट पाने पर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर आकर उसी पत्थर को शिव रूप में स्थापित कर पुष्प, चंदन आदि से परम श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन करने के लिए बुलाने आई, किंतु वह पूजा छोड़कर उठने के लिए किसी भी प्रकार तैयार नहीं हुआ। अंत में माता ने झल्लाकर पत्थर का वह टुकड़ा उठाकर दूर फेंक दिया। इससे बहुत ही दुःखी होकर वह बालक जोर-जोर से भगवान्‌ शिव को पुकारता हुआ रोने लगा। 

रोते-रोते अंत में बेहोश होकर वह वहीं गिर पड़ा। बालक की अपने प्रति यह भक्ति और प्रेम देखक भोलेनाथ भगवान्‌ शिव अत्यंत प्रसन्न हो गए। बालक ने जैसे ही होश में आकर अपने नेत्र खोले तो उसने देखा कि उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अतिविशाल स्वर्ण और रत्नों से बना हुआ मंदिर खड़ा है। उस मंदिर के अंदर एक बहुत ही प्रकाशपूर्ण, भास्वर, तेजस्वी ज्योतिर्लिंग खड़ा है। बच्चा प्रसन्नता और आनंद से विभोर होकर भगवान्‌ शिव की स्तुति करने लगा। 

माता को जब यह समाचार मिला तब दौड़कर उसने अपने प्यारे लाल को गले से लगा लिया। पीछे राजा चंद्रसेन ने भी वहाँ पहुँचकर उस बच्चे की भक्ति और सिद्धि की बड़ी सराहना की। धीरे-धीरे वहाँ बड़ी भीड़ जुट गई। इतने में उस स्थान पर हनुमानजी प्रकट हो गए। उन्होंने कहा- 'मनुष्यों! भगवान शंकर शीघ्र फल देने वाले देवताओं में सर्वप्रथम हैं। इस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने इसे ऐसा फल प्रदान किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि करोड़ों जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर पाते। इस गोप-बालक की आठवीं पीढ़ी में धर्मात्मा नंदगोप का जन्म होगा। द्वापरयुग में भगवान्‌ विष्णु कृष्णावतार लेकर उनके वहाँ तरह-तरह की लीलाएँ करेंगे।' हनुमान्‌जी इतना कहकर अंतर्धान हो गए। उस स्थान पर नियम से भगवान शिव की आराधना करते हुए अंत में श्रीकर गोप और राजा चंद्रसेन शिवधाम को चले गए।

ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर:


यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू-सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता-पर्वत या शिवपुरी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है। 

दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा मानी जाती है। इसी मान्धाता-पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर-ज्योतिर्लिंग का मंदिर स्थित है। पूर्वकाल में महाराज मान्धाता ने इसी पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान्‌ शिव को प्रसन्न किया था। इसी से इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा। 

इस ज्योतिर्लिंग-मंदिर के भीतर दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है। ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है। स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। संपूर्ण मान्धाता-पर्वत ही भगवान्‌ शिव का रूप माना जाता है। इसी कारण इसे शिवपुरी भी कहते हैं लोग भक्तिपूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं। कार्त्तिकी पूर्णिमा के दिन यहाँ बहुत भारी मेला लगता है। यहाँ लोग भगवान्‌ शिवजी को चने की दाल चढ़ाते हैं रात्रि की शिव आरती का कार्यक्रम बड़ी भव्यता के साथ होता है। तीर्थयात्रियों को इसके दर्शन अवश्य करने चाहिए।

इस ओंकारेश्वर-ज्योतलिंग के दो स्वरूप हैं। एक को ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह नर्मदा के दक्षिण तट पर ओंकारेश्वर से थोड़ी दूर हटकर है पृथक होते हुए भी दोनों की गणना एक ही में की जाती है। लिंग के दो स्वरूप होने की कथा पुराणों में इस प्रकार दी गई है- एक बार विन्ध्यपर्वत ने पार्थिव-अर्चना के साथ भगवान्‌ शिव की छः मास तक कठिन उपासना की। उनकी इस उपासना से प्रसन्न होकर भूतभावन शंकरजी वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने विन्ध्य को उनके मनोवांछित वर प्रदान किए। विन्ध्याचल की इस वर-प्राप्ति के अवसर पर वहाँ बहुत से ऋषिगण और मुनि भी पधारे। उनकी प्रार्थना पर शिवजी ने अपने ओंकारेश्वर नामक लिंग के दो भाग किए। एक का नाम ओंकारेश्वर और दूसरे का अमलेश्वर पड़ा। दोनों लिंगों का स्थान और मंदिर पृथक्‌ होते भी दोनों की सत्ता और स्वरूप एक ही माना गया है।

शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर के दर्शन का पुण्य बताते हुए नर्मदा-स्नान के पावन फल का भी वर्णन किया गया है। प्रत्येक मनुष्य को इस क्षेत्र की यात्रा अवश्य ही करनी चाहिए। इनके दर्शन मात्र से ही अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन उसके लिए सहज ही सुलभ हो जाते हैं। अंततः उसे लोकेश्वर महादेव भगवान्‌ शिव के परमधाम की प्राप्ति भी हो जाती है।

श्री वैद्यनाथ:

श्री वैद्यनाथ ज्योतिलिंग बिहार प्रांत के संथाल परगने में स्थित है। शास्त्र और लोक दोनों में इसकी बड़ी प्रसिद्धि है। इसकी स्थापना के विषय में यह कथा कही जाती है-

एक बार रावण ने हिमालय पर जाकर भगवान शिव के दर्शन प्राप्त करने के लिए बड़ी घोर तपस्या की। उसने एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू किए। इस प्रकार उसने अपने नौ सिर वहां काट कर चढ़ा डाले। जब वह अपना दसवां और अंतिम सिर काट कर चढ़ाने के लिए उद्यत हुआ तब भगवान शिव अति प्रसन्न और संतुष्ट होकर उसके समक्ष प्रकट हो गए। शीश काटने को उद्यत रावण का हाथ पकड़कर उन्होंने उसे वैसा करने से रोक दिया। उसके नौ सिर भी पहले की तरह जोड़ दिए और अत्यंत प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहा।

रावण ने वर के रूप में भगवान शिव से उस लिंग को अपनी राजधानी लंका में ले जाने की आज्ञा मांगी। भगवान शिव ने उसे यह वरदान तो दे दिया लेकिन एक शर्त भी उसके साथ लगा दी। उन्होंने कहा कि तुम इसे ले जा सकते हो किन्तु यदि रास्ते में इसे कहीं रख दोगे तो यह वहीं अचल हो जाएगा, तुम फिर इसे उठा न सकोगे। रावण इस बात को स्वीकार कर उस शिवलिंग को उठाकर लंका के लिए चल पड़ा। चलते-चलते एक जगह मार्ग में उसे लघुशंका करने की आवश्यकता महसूस हुई। वह उस शिवलिंग को एक अहीर के हाथ में थमा कर लघुशंका की निवृत्ति के लिए चल पड़ा। उस अहीर को शिवलिंग का भार बहुत अधिक लगा वह उसे संभाल न सका।

विवश होकर उसने उसे वहीं भूमि पर रख दिया। रावण जब लौट कर आया तब उसके बहुत प्रयत्न करने के बाद भी उस शिवलिंग को किसी प्रकार उठा न सका। अंत में निरुपाय होकर उस पवित्र शिवलिंग पर अपने अंगूठे का निशान बनाकर उसे वहीं छोड़कर लंका को लौट गया। तत्पश्चात ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने वहां आकर उस शिवलिंग का पूजन किया। इस प्रकार वहां उसकी प्रतिष्ठा कर वे लोग अपने-अपने धाम को लौट गए। यही ज्योतिलिंग श्री वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है। यह वैद्यनाथ-ज्योतिलिंग अनंत फलों को देने वाला है। यह ग्यारह अंगुल ऊंचा है।

इसके ऊपर अंगूठे के आकार का निशान है। कहा जाता है कि यह वही निशान है जिसे रावण ने अपने अंगूठे से बनाया था। यहां दूर-दूर से तीर्थों का जल लाकर चढ़ाने का विधान है। रोग मुक्ति के लिए भी इस ज्योतिलिंग की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। पुराणों में बताया गया है कि जो मनुष्य इस ज्योतिलिंग के दर्शन करता है उसे अपने समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

उस पर भगवान शिव की कृपा सदा बनी रहती है। दैहिक, दैविक, भौतिक कष्ट उसके पास भूल कर भी नहीं आते। भगवान भूत भावना की कृपा से वह सारी बाधाओं, समस्त रोगों-शोकों से छुटकारा पा जाता है। उसे परम शांतिदायक शिवधाम की प्राप्ति होती है। शिव की कृपा प्राप्त जन सारे संसार के लिए सुखदायक होता है। उसके सारे कृत्य भगवान शिव को समर्पित करके किए जाते हैं। सारे संसार में उसे भगवान शिव के ही दर्शन होते हैं। सारे प्राणियों के प्रति उसमें ममता और दया का भाव होता है। सभी भेदों में उसकी अभेद दृष्टि हो जाती है। 

श्रीभीमशङ्कर:

श्रीभीमशङ्कर ज्योतिर्लिंग पुणे से लगभग 100 किलोमिटर दूर सेह्याद्री की पहाड़ी पर स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है कि एक समय प्राचीनकाल में भीम नामक एक महाप्रतापी राक्षस हुआ करता था। वह अपनी माँ के साथ कामरूप प्रदेश में रहता था। वह महाबली राक्षस, राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण का पुत्र था लेकिन उसने अपने पिता से कभी मिला नहीं था। उसके होश संभालने के पूर्व ही भगवान्‌ राम के द्वारा कुंभकर्ण का वध कर दिया गया था। जब वह युवावस्थामें आया तब उसकी माता ने उससे सारी बातें बताईं। भगवान्‌ विष्णु के अवतार श्रीरामचंद्रजी द्वारा अपने पिता के वध की बात सुनकर वह महाबली राक्षस अत्यंत क्रुद्ध हो उठा। अब वह निरंतर भगवान्‌ श्री हरि के वध का उपाय सोचने लगा। 

उसने अपनी इस इक्छा को पूरी करने के लिए एक हजार वर्ष तक कठिन तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे लोक विजयी होने का वर दे दिया। अब तो वह राक्षस ब्रह्माजी के उस वर के प्रभाव से सारे प्राणियों को पीड़ित करने लगा। उसने देवलोक पर आक्रमण करके इंद्र आदि सारे देवताओं को वहाँ से बाहर निकाल दिया।

उसने पूरे देवलोक पर भी अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने भगवान्‌ श्रीहरि को भी युद्ध में परास्त किया। श्रीहरि को पराजित करने के पश्चात उसने कामरूप के परम शिवभक्त राजा सुदक्षिण पर आक्रमण करके उन्हें मंत्रियों-अनुचरों सहित बंदी बना लिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने सारे लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। उसके अत्याचार से वेदों, पुराणों, शास्त्रों और स्मृतियों का सर्वत्र एकदम लोप हो गया। वह किसी को कोई भी धार्मिक कृत्य नहीं करने देता था। इस प्रकार यज्ञ, दान, तप, स्वाध्याय आदि के सारे काम एकदम रूक गए। 

भीम के अत्याचार की भीषणता से घबराकर ऋषि-मुनि और देवगण भगवान्‌ शिव की शरण में गए और उनसे अपना तथा अन्य सारे प्राणियों का दुःख कहा। उनकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने कहा कि मैं शीघ्र ही उस अत्याचारी राक्षस का संहार करूँगा। उसने मेरे प्रिय भक्त, कामरूप-नरेश सुदक्षिण को भी सेवकों सहित बंदी बना लिया है। वह अत्याचारी असुर अब और अधिक जीवित रहने का अधिकारी नहीं रह गया। भगवान्‌ शिव से यह आश्वासन पाकर ऋषि-मुनि और देवगण अपने-अपने स्थान को वापस लौट गए।

इधर राक्षस भीम के बंदीगृह में पड़े हुए राजा सदक्षिण ने भगवान्‌ शिव का ध्यान किया। वे अपने सामने पार्थिव शिवलिंग रखकर अर्चना कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख क्रोधोन्मत्त होकर राक्षस भीम ने अपनी तलवार से उस पार्थिव शिवलिंग पर प्रहार किया। किंतु उसकी तलवार का स्पर्श उस लिंग से हो भी नहीं पाया कि उसके भीतर से साक्षात्‌ शंकरजी वहाँ प्रकट हो गए। उन्होंने उस राक्षस को वहीं जलाकर भस्म कर दिया।

भगवान्‌ शिवजी का यह अद्भुत कृत्य देखकर सारे ऋषि-मुनि और देवगण वहाँ एक होकर उनकी स्तुति करने लगे। उन लोगों ने भगवान्‌ शिव से प्रार्थना की कि महादेव! आप लोक-कल्याणार्थ अब सदा के लिए यहीं निवास करें। यह क्षेत्र शास्त्रों में अपवित्र बताया गया है। आपके निवास से यह परम पवित्र पुण्य क्षेत्र बन जाएगा। भगवान्‌ शिव ने सबकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। वहाँ वह ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए निवास करने लगे। उनका यह ज्योतिर्लिंग भीमेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।

श्री रामेश्वरम:

हिंदू धर्म में तमिलनाडु के रामनाथपुरम में स्थित रामेश्वरम ज्योतिर्लिग एक विशेष स्थान रखता है। यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि उत्तर में जितना महत्व काशी का है, उतना ही महत्व दक्षिण में रामेश्वरम का भी है। रामेश्वरम चेन्नई से करीब 425 मील दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित एक सुंदर टापू है, जिसे हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी चारों तरफ से घेरे हुए है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीरामंद्रजी ने की थी। स्कंदपुराण में इसकी महिमा विस्तार से वर्णित है|

कहतें है जबभगवान्‌ श्रीरामंद्रजी लंका पर चढ़ाई करने के लिए जा रहे थे तब इसी स्थान पर उन्होंने समुद्र की बालू से शिवलिंग बनाकर उसका पूजन किया था। दूसरी कथा भी प्रचलित है कहते हैं कि भगवान श्री राम जब रावण का वध करके और माता सीता को कैद से छुड़ाकर अयोध्या जा रहे थे तब उन्होंने मार्ग में गन्धमादन पर्वत पर रुक कर विश्राम किया था। उनके आने की खबर सुनकर ऋषि-महर्षि उनके दर्शन के लिए वहां पहुंचे। ऋषियों ने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने पुलस्त्य कुल का विनाश किया है, जिससे उन्हें ब्रह्म हत्या का पातक लग गया है। 

श्रीराम ने पाप से मुक्ति के लिए ऋषियों के आग्रह से ज्योतिर्लिग स्थापित करने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने हनुमान से अनुरोध किया कि वे कैलाश पर्वत पर जाकर शिवलिंग लेकर आएं लेकिन हनुमान शिवलिंग की स्थापना की निश्चित घड़ी पास आने तक नहीं लौट सके। जिसके बाद सीताजी ने समुद्र के किनारे की रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना डाला। श्रीराम ने प्रसन्न होकर इसी रेत के शिवलिंग को प्रतिष्ठापित कर दिया। यही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। बाद में हनुमान के आने पर उनके द्वारा लाए गए शिवलिंग को उसके साथ ही स्थापित कर दिया गया। इस लिंग का नाम भगवान राम ने हनुमदीश्वर रखा।

श्रीनागेश्वर:

भगवान शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिलिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील दूर स्थित है। इसके संबंध में पुराणों में यह कथा दी हुई है कि सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी व्यापारी भगवान शिव का अनन्य भक्त था। वह निरंतर उनके आराधन, पूजन और ध्यान में लीन रहता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णत: शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्ध रहता था। उसे भगवान शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरंतर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुंचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था तब उस दुष्ट राक्षस ने यह उपयुक्त अवसर देख कर उस नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़ कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर दिया। 

सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्य नियम के अनुसार भगवान शिव की पूजा-आराधना करने लगा। अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यंत क्रुद्ध होकर उस कारागार में आ पहुंचा। सुप्रिय उस समय भगवान शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आंखें बंद किए बैठा था।

राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देख कर अत्यंत भीषण स्वर में उसे डांटते हुए कहा कि अरे दुष्ट, तू आंखें बंद कर इस समय यहां कौन से उपद्रव और षड्यंत्र करने की बातें सोच रहा है?’ उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिव भक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह महाभयानक राक्षस क्रोध से एकदम बावला हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचर राक्षसों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया।

सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ। वह एक निष्ठ भाव और एकाग्र मन से अपनी व अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव को पुकारने लगा। उसे पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान शिव इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएंगे। उसकी प्रार्थना सुन कर भगवान शंकर तत्क्षण उस कारागार में एक ऊंचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिलिंग के रूप में प्रकट हो गए। उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत अस्त्र भी प्रदान किया। उस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायकों का वध करके सुप्रिय शिव धाम को चला गया। भगवान शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिलिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा। 

श्री विश्वनाथ:

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस ज्योतिर्लिंग के बारे में कथा प्रचलित है कि भगवान्‌ शंकर पार्वतीजी से विवाह करके कैलास पर्वत रह रहे थे लेकिन वहाँ पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना पार्वतीजी को अच्छा न लगता था। 

एक दिन उन्होंने भगवान्‌ शिव से कहा कि आप मुझे अपने घर ले चलिए। यहाँ रहना मुझे अच्छा नहीं लगता। सारी लड़कियाँ शादी के बाद अपने पति के घर जाती हैं, मुझे पिता के घर में ही रहना पड़ रहा है। भगवान्‌ शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। माता पार्वतीजी को साथ लेकर अपनी पवित्र नगरी काशी में आ गए। यहाँ आकर वे विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।

इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन द्वारा मनुष्य समस्त पापों-तापों से छुटकारा पा जाता है। प्रतिदिन नियम से श्री विश्वनाथ के दर्शन करने वाले भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार भगवान शंकर अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसा भक्त उनके परमधाम का अधिकारी बन जाता है। भगवान्‌ शिवजी की कृपा उस पर सदैव बनी रहती है।

श्री त्र्यम्बकेश्वर:

त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में हैं यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्यतोया गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप असस्थित त्रयम्बकेश्वर-भगवान की भी बड़ी महिमा हैं गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गङ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतिक माने जाते हैं। 

त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना के संबंध में पुराणों में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। शिवपुराण के मुताबिक, यह स्थान कभी ऋषि गौतम और हजारों साधु-संतों का तपोस्थल था। अपनी साधना और तपोबल के कारण ऋषि गौतम अन्य सभी संतों से इक्कीस पड़ते थे। उनकी प्रसिद्धि से सारा संत समाज चिढ़ता था। एक बार कुछ साधुओं ने ऋषि गौतम को गोहत्या के झूठे आरोप में फंसा दिया। गोहत्या के कलंक से छुटकारा पाने के लिए महर्षि गौतम ने ब्रह्मïगिरि पर्वत पर तपस्या कर भगवान शिव को प्रकट होने और उनकी जटाओं में बसी गंगा को अवतरित होने के लिए मजबूर कर दिया, तभी से माना जाता है कि इस स्थान पर भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में और उनकी प्रिय गंगा गोदावरी नदी के रूप में स्थापित हैं।

कहा जाता है कि यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है। मंदिर परिसर में सारा साल धार्मिक अनुष्ठान व पूजा चलती रहती है, काल सर्प दोष, नारायण नागबली पूजा के लिए देशभर से लोग यहां आते हैं। मंदिर के पास में ही कुशावर्त तीर्थस्थल है, जहां गोदावरी बहती है। यहां से 7 कि.मी. की दूरी पर अंजनेरी पर्वत स्थित है, जिसे हनुमान जी की जन्मस्थली माना जाता है। श्री क्षेत्र त्र्यम्बकेश्वर एक महान तीर्थस्थल है, जहां आने वालों के सभी कष्टï भगवान शंकर दूर करते हैं। त्र्यम्बकेश्वर के कण-कण में भगवान शिव और उनसे जुड़ी कथाओं की महक आती है। यहां आकर तन और मन दोनों उल्लास से भर जाते हैं।

श्री केदारनाथ:

यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है। इस चोटी के पश्चिम भाग में पुण्यमती मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित केदारेश्वर महादेव का मंदिर अपने स्वरूप से ही हमें धर्म और अध्यात्म की ओर बढ़ने का संदेश देता है। चोटी के पूर्व में अलकनंदा के सुरम्य तट पर बद्रीनाथ का परम प्रसिद्ध मंदिर है। अलकनंदा और मंदाकिनी- ये दोनों नदियाँ नीचे रुद्रप्रयाग में आकर मिल जाती हैं। दोनों नदियों की यह संयुक्त धारा और नीचे देवप्रयाग में आकर भागीरथी गंगा से मिल जाती हैं। इस प्रकार परम पावन गंगाजी में स्नान करने वालों को भी श्री केदारेश्वर और बद्रीनाथ के चरणों को धोने वाले जल का स्पर्श सुलभ हो जाता है। कहा जाता है कि यहीं महातपस्वी श्रीनर और नारायण ने बहुत वर्षों तक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। 

कई हजार वर्षों तक वे निराहार रहकर एक पैर पर खड़े होकर शिव नाम का जप करते रहे। इस तपस्या से सारे लोकों में उनकी चर्चा होने लगी। देवता, ऋषि-मुनि, यक्ष, गन्धर्व सभी उनकी साधना और संयम की प्रशंसा करने लगे। चराचर के पितामह ब्रह्माजी और सबका पालन-पोषण करने वाले भगवान विष्णु भी महापस्वी नर-नारायण के तप की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे, अंत में भगवान शंकरजी भी उनकी उस कठिन साधना से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन दोनों ऋषियों को दर्शन दिए। 

नर और नारायण ने भगवान्‌ भोलेनाथ के दर्शन से भाव-विह्वल और आनंद-विभोर होकर बहुत प्रकार की पवित्र स्तुतियों और मंत्रो से उनकी पूजा-अर्चना की। भगवान्‌ शिवजी ने अत्यंत प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा। भगवान्‌ शिव की यह बात सुनकर दोनों ऋषियों ने उनसे कहा, 'देवाधिदेव महादेव! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो भक्तों के कल्याण हेतु आप सदा-सर्वदा के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की कृपा करें। 

आपके यहाँ निवास करने से यह स्थान सभी प्रकार से अत्यंत पवित्र हो उठेगा। यहाँ आपका दर्शन-पूजन करने वाले मनष्यों को आपकी अविनाशिनी भक्ति प्राप्त हुआ करेगी। प्रभो! आप मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करें।'

उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ वास करना स्वीकार किया। केदार नामक हिमालय-श्रृंग पर स्थित होने के कारण इस ज्योतिर्लिंग को श्री केदारेश्वर-ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन तथा यहाँ स्नान करने से भक्तों को लौकिक फलों की प्राप्ति होने के साथ-साथ अचल शिवभक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है

ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणों में यह कथा है कि दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।

पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान्‌ शिव की अनन्य भभगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया।

श्रीघुश्मेश्वर:

ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है।

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वासुकीनाथ गए बिना अधूरी है बैद्यनाथ धाम की पूजा

द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक झारखंड के देवघर जिला स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम में जो कांवड़िया जलाभिषेक करने आते हैं, वे वासुकीनाथ मंदिर में जलाभिषेक करना नहीं भूलते। मान्यता है कि जब तक नागराज वासुकी के नाम से प्रसिद्घ वासुकीनाथ मंदिर में जलाभिषेक नहीं किया जाता तब तक बाबा बैद्यानाथ धाम की पूजा अधूरी मानी जाती है। 

बाबा बैद्यनाथ धाम से करीब 42 किलोमीटर दूर दुमका जिला में स्थित है वासुकीनाथ मंदिर। बाबा वैद्यनाथ मंदिर स्थित कामना लिंग पर जलाभिषेक करने आए कांवड़िये अपनी पूजा को पूर्ण करने के लिए वासुकीनाथ मंदिर में जलभिषेक करना नहीं भूलते। कांवड़िये अपने कांवड़ में सुल्तानगंज के गंगा नदी से जो दो पात्रों में जल लाते हैं, उसमें से एक बाबा बैद्यनाथ में चढ़ाते हैं तो एक बाबा वासुकीनाथ में। 

ये अलग बात है कि कामना लिंग में जलाभिषेक के बाद कई कांवड़िये तो पैदल ही वासुकीनाथ धाम की यात्रा करते हैं, परंतु अधिकांश कांवड़िये फिर वाहनों द्वारा यहां तक की यात्रा करते हैं। 

किवदंतियों के मुताबिक प्राचीन समय में वासुकी नाम का एक किसान जमीन पर हल चला रहा था तभी उसके हल का फाल किसी पत्थर के टुकड़े से टकरा गया और वहां दूध बहने लगा। इसे देखकर वासुकी भागने लगा तब यह आकाशवाणी हुई कि तुम भागो नहीं मैं शिव हूं। मेरी पूजा करो। तब ही से यहां पूजा होने लगी। कहा जाता है कि उसी वासुकी के नाम पर इस मंदिर का नाम वासुकीनाथ धाम पड़ा। 

श्रद्घालुओं की मान्यता है कि बाबा बैद्यनाथ के दरबार में अगर दीवानी मुकदमों की सुनवाई होती है, तो वासुकीनाथ में फौजदारी मुकदमे की सुनवाई होती है। मंदिर के पास ही वाणगंगा नाम का एक तालाब है, जिसके पवित्र जल में स्नान कर भक्त वासुकीनाथ की पूजा करते हैं। यहां पूजा करने के बाद ही बाबा बैद्यनाथ धाम की यात्रा पूर्ण होती है। 

वासुकीनाथ मंदिर के पुजारी पंडा रामेश्वर के मुताबिक वासुकीनाथ में शिव का रूप नागेश का है। वे बताते हैं कि यहां पूजा में अन्य सामग्रियां तो चढ़ाई ही जाती हैं, परंतु यहां दूध से पूजा करने का काफी महत्व है। मान्यता है कि नागेश के रूप के कारण दूध से पूजा करने से भगवान शिव खुश रहते हैं।

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मातृभाषा को समृद्ध बनाने का प्रयास

देश भर में 14 सितम्बर के दिन को हिं‍दी दि‍वस के रूप में मनाया जाता है। 14 सि‍तम्‍बर 1949 को देश के संवि‍धान नि‍र्माताओं ने हिं‍दी को संघ की राजभाषा के रूप में स्‍वीकार करने का फैसला कि‍या था। इस ऐति‍हासि‍क क्षण के उपलक्ष्‍य में प्रति‍वर्ष 14 सि‍तम्‍बर को हिं‍दी दि‍वस मनाया जाता है। भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343 (1) में यह वर्णित है “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय होगा|"

देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी भाषा का अपना अलग ही महत्व है| हम हिन्दी को मातृभाषा और राष्ट्रभाषा मानते हैं| इसके बिना हमारी कोई पहचान ही नहीं है| संसार में चीनी के बाद हिन्दी सबसे विशाल जनसमूह की भाषा है| भारत में अनेक उन्नत और समृद्ध भाषाएं हैं किंतु हिन्दी सबसे अधिक व्यापक क्षेत्र में और सबसे अधिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है|

हिंदी दिवस बड़े आयोजनों, गोष्ठियों और समारोहों के साथ आयोजित होता हो लेकिन वास्तविकता ये है कि राजभाषा को महत्व देना गुजरे ज़माने को याद करने जैसा हो चुका है| नई पीढ़ी में अंग्रेजी भाषा के प्रयोग के फैशन के सामने हिंदी केवल उन लोगों की ही भाषा बन गई है जिनको या तो अंग्रेज़ी आती नहीं या फिर कुछ पढ़े-लिखे लोग जिनको हिंदी से कुछ ज़्यादा ही मोह है|

सरकार भी हिं‍दी भाषा को सम्मान देने के लिए आज के दिन राजभाषा नीति का कार्यान्‍वयन‍, व्यवसायिक क्षेत्र के वि‍षयों में मौलि‍क हिं‍दी पुस्‍तक लेखन, वि‍ज्ञान और प्रौद्योगि‍की सहि‍त समकालीन रुचि ‍से जुड़े वैज्ञानि‍क और तकनीकी वि‍षयों पर हिं‍दी पुस्‍तक लेखन जैसे वि‍भि‍न्‍न क्षेत्रों में वि‍शि‍ष्‍ट पुरस्‍कार प्रदान करने जैसी औपचारिकता प्रतिवर्ष अपनी जिम्मेदारी के तौर पर पूरी करती है लेकिन संसद के भीतर की अधिकतम कार्रवाई, अभिभाषण और बहस मुख्यतः अंग्रेजी भाषा में ही होते है| इसके इतर देश की नौकरशाही भी हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी का प्रयोग करना बेहतर समझती है| 

हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए हिंदी दिवस पर विशेष आयोजनों और सम्मान समारोहों के आयोजन करने से ज्यादा जरुरी है कि दिखावट और श्रेष्ठता के प्रदर्शन के लिए अंग्रेजी जैसी भाषा के प्रयोग के बजाय मातृभाषा के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाये क्योंकि कोई भी देश या व्यक्ति अपनी मातृभाषा से दूरी बनाकर खुद को श्रेष्ठ साबित नहीं कर सकता|

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हिंदी दिवस विशेष: आम जन की भाषा है हिंदी

हिंदी भारोपीय (भारतीय-यूरोपीय)परिवार की एक ऐसी भाषा है जो आम भारतीयों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। संख्या बल की दृष्टि से यह दुनिया में सर्वाधिक लोगों के बीच समझी जाने वाली भाषा है। भारोपीय परिवार की भाषा होने के कारण यह भारतीय सीमा के बाहर भी समझी जाती है। संस्कृत शब्दों की बहुलता के कारण यह देश के भीतर संपर्क का बेहतर माध्यम मानी जाती है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही आजाद देश की भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किए जाने की वकालत की जाने लगी थी। उस समय करीब-करीब देश के हर नेता ने हिंदी के महत्व को स्वीकार किया था, किंतु दुर्भाग्यवश हिंदी को वह सम्मानजनक आसन दिला पाने में वे विफल रहे।

हिंदी दिवस : कारण और महत्व

स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी (खड़ी बोली) ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाया जाता है।

इस दिन विभिन्न शासकीय, अशासकीय कार्यालयों, शिक्षा संस्थाओं आदि में विविध गोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं 'हिंदी पखवाड़ा' तथा 'राजभाषा सप्ताह' भी मनाए जाते हैं। 

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए कहा था, "किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।"

यह बहस 12 सितंबर, 1949 को शाम चार बजे से शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई थी। 14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद भाषा संबंधी संविधान के तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 में हिंदी का उल्लेख है।

संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की महती भूमिका रही। बहस के बाद यह सहमति बनी कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों और अंग्रेजी में लिखे जाने वाले अंकों को लेकर बहस हुई और अंतत: आयंगार-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया गया।

स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद जो निर्णय लिया गया, वह भारतीय संविधान के अध्याय 17 के अनुच्छेद 343 (1) में इस प्रकार वर्णित है : संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय ही होगा।

राजभाषा के प्रश्न से अलग हिंदी की अपनी एक विशाल परंपरा है। साहित्य और संचार के क्षेत्र में भी हिंदी का दबदबा देखने को मिलता है। तकनीक की क्रांति ने हिंदी को बल दिया है तो इसे सीमा के बाहर भी फैलने का अवसर प्रदान किया है।

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