हिंदू धर्म में राम को विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था। जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:- ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। राजा युवनाश्व के कोई पुत्र नहीं था। वे इक्ष्वाकु वंशी राजा थे। युवनाश्व ने प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान किया। संतान के अभाव से संतप्त वे वन में रहकर भगवत् चिंतन करने लगे। एक बार वे शिकार खेलते विचर रहे थे। उस रात वे भूखे-प्यासे पानी की खोज में च्यवन के आश्रम में पहुँचे। च्यवन उन्हीं की संतानोंत्पति के लिए घोर तपस्या से इष्ट कर, मंत्र-पूत जल का एक कलश रखकर सो गये थें सब ऋषि-मुनि रात तें देर तक जागने के कारण इतने थककर सोये थे कि राजा के बार-बार पुकारने पर भी किसी की नींद नहीं खुली। जब च्यवन की नींद खुली तब तक राजा युवनाश्व कलश का अधिकांश जल पीकर शेष पृथ्वी पर बहा चुके थे। मुनि ने जाना तो राजा से कहा कि अब उन्हीं की कोख से बालक जन्म लेगा।
सौ वर्ष उपरांत अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। देवताओं के यह पूछने पर कि अब बालक क्या पीयेगा? इंद्र ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। अंगुली पीते-तीते वह तेरह बित्ता बढ़ गया। बालक ने चिंतनमात्र से धनुर्वेद सहित समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इंद्र ने उसका राज्याभिषेक किया। मांधाता ने धर्म से तीनों लोकों को नाप लिया। बारह वर्ष की अनावृष्टि के समय इंद्र के देखते-देखते मांधाता ने स्वयं पानी की वर्षा की थी।
मांधाता ने समरांगण में अंगार, मरूत, असित, गय तथा बृहद्रथ को भी पराजित कर दिया था। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक का समस्त प्रदेश मांधाता का ही कहलाता था। उन्होंने सौ अश्वमेघ और सौ राजसूय यज्ञकरके दस योजन लंबे और एक योजन ऊंचे रोहित नामक सोने के मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणों को दान दिये थे। दीर्घकाल तक धर्मपूर्वक राज्य करने के उपरांत मांधाता ने विष्णु के दर्शनों के निमित्त तपस्या की। वे विष्णु से कर्म का उपदेश लेकर वनगमन के लिए उद्यत थे। विष्णु ने इंद्र का रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिये तथा क्षत्रियोचित कर्म का निर्वाह करने का उपदेश देकर मरूतों सहित अंतर्धान हो गये।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:- ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। राजा युवनाश्व के कोई पुत्र नहीं था। वे इक्ष्वाकु वंशी राजा थे। युवनाश्व ने प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान किया। संतान के अभाव से संतप्त वे वन में रहकर भगवत् चिंतन करने लगे। एक बार वे शिकार खेलते विचर रहे थे। उस रात वे भूखे-प्यासे पानी की खोज में च्यवन के आश्रम में पहुँचे। च्यवन उन्हीं की संतानोंत्पति के लिए घोर तपस्या से इष्ट कर, मंत्र-पूत जल का एक कलश रखकर सो गये थें सब ऋषि-मुनि रात तें देर तक जागने के कारण इतने थककर सोये थे कि राजा के बार-बार पुकारने पर भी किसी की नींद नहीं खुली। जब च्यवन की नींद खुली तब तक राजा युवनाश्व कलश का अधिकांश जल पीकर शेष पृथ्वी पर बहा चुके थे। मुनि ने जाना तो राजा से कहा कि अब उन्हीं की कोख से बालक जन्म लेगा।
सौ वर्ष उपरांत अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। देवताओं के यह पूछने पर कि अब बालक क्या पीयेगा? इंद्र ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। अंगुली पीते-तीते वह तेरह बित्ता बढ़ गया। बालक ने चिंतनमात्र से धनुर्वेद सहित समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इंद्र ने उसका राज्याभिषेक किया। मांधाता ने धर्म से तीनों लोकों को नाप लिया। बारह वर्ष की अनावृष्टि के समय इंद्र के देखते-देखते मांधाता ने स्वयं पानी की वर्षा की थी।
मांधाता ने समरांगण में अंगार, मरूत, असित, गय तथा बृहद्रथ को भी पराजित कर दिया था। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक का समस्त प्रदेश मांधाता का ही कहलाता था। उन्होंने सौ अश्वमेघ और सौ राजसूय यज्ञकरके दस योजन लंबे और एक योजन ऊंचे रोहित नामक सोने के मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणों को दान दिये थे। दीर्घकाल तक धर्मपूर्वक राज्य करने के उपरांत मांधाता ने विष्णु के दर्शनों के निमित्त तपस्या की। वे विष्णु से कर्म का उपदेश लेकर वनगमन के लिए उद्यत थे। विष्णु ने इंद्र का रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिये तथा क्षत्रियोचित कर्म का निर्वाह करने का उपदेश देकर मरूतों सहित अंतर्धान हो गये।
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