कहीं तपस्विनी कन्या तो कहीं कुलवधू की तरह सौभाग्यवती दिखती हैं 'माँ गंगा'

जीवनदायिनी नदियों पर केंद्रित आलेख का आज हम दूसरा भाग प्रस्तुत करने जा रहे हैं| आज हम बात करते हैं पतित पावनी गंगा मैया की| गंगा कुछ भी न करती, सिर्फ देवव्रत भीष्म को ही जन्म देती, तो भी आर्यजाति की माता के तौर पर वह आज प्रख्यात होती। पितामह भीष्म की टेक, उनकी निस्पृहता, ब्रह्मचर्य और तत्वज्ञान हमेशा के लिए आर्यजाति का आदरपात्र ध्येय बन चुका है। हम गंगा को आर्य-संस्कृति के ऐसे आधारस्तंभ महापुरुष की माता के रूप में पहचानते हैं।

नदी को यदि कोई उपमा शोभा देती है, तो वह माता की ही। नदी के किनारे रहने से अकाल का डर तो रहता ही नहीं। मेघराज जब धोखा देते हैं तब नदीमाता ही हमारी फसल पकाती है। नदी का किनारा यानी शुद्ध और शीतल हवा। नदी के किनारे-किनारे घूमने जाएं तो प्रकृति के मातृवात्सल्य के अखंड प्रवाह का दर्शन होता है। नदी बड़ी हो और उसका प्रवाह धीर-गंभीर हो, तब तो उसके किनारे पर रहने वालों की शानो-शौकत उस नदी पर ही निर्भर करती है

सचमुच, नदी जनसमाज की माता है। नदी किनारे बसे हुए शहर की गली-गली में घूमते समय एकाध कोने से नदी का दर्शन हो जाए, तो हमें कितना आनंद होता है! कहां शहर का वह गंदा वायुमंडल और कहां नदी का यह प्रसन्न दर्शन! दोनों के बीच का फर्क फौरन ही मालूम हो जाता है। नदी ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर का स्मरण कराने वाली देवी है। यदि गुरु का वंदन करना आवश्यक है तो नदी का भी वंदन करना उचित है।

यह तो हुई सामान्य नदी की बात, किंतु गंगा मैया तो आर्य-जाति की माता है। आर्यो के बड़े-बड़े साम्राज्य इसी नदी के तट पर स्थापित हुए हैं। कुरु-पांचाल देश का अंग-वंगादि देशों के साथ गंगा ने ही संयोग किया है। आज भी हिंदुस्तान की आबादी गंगा के तट पर ही सबसे अधिक है। जब हम गंगा का दर्शन करते हैं तब हमारे ध्यान में फसल से लहलाते सिर्फ खेत ही नहीं आते, न सिर्फ माल से लदे जहाज ही आते हैं, बल्कि वाल्मीकि का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक, समुद्रगुप्त या हर्ष - जैसे सम्राटों के पराक्रम और तुलसीदास या कबीर जैसे संतजनों के भजन-इन सबका एक साथ ही स्मरण हो आता है। गंगा का दर्शन तो शैत्य-पावनत्व का हार्दिक तथा प्रत्यक्ष दर्शन है।

किंतु गंगा के दर्शन का एक ही प्रकार नहीं है। गंगोत्री के पास के हिमाच्छादित प्रदेशों में इसका खिलाड़ी कन्यारूप, उत्तरकाशी की ओर चीड़-देवदार के काव्यमय प्रदेश में मुग्धा रूप, देवप्रयाग के पहाड़ी और संकरे प्रदेश में चमकीली अलकनंदा के साथ इसकी अठखेलियां, लक्ष्मण-झूले की विकराल दंष्ट्रा में से छूटने के बाद हरिद्वार के पास अनेक धाराओं में स्वच्छंद विहार, कानपुर से सटकर जाता हुआ उसका इतिहास-प्रसिद्ध प्रवाह, प्रयाग के विशाल तट पर हुआ उसका कालिंदी के साथ का त्रिवेणी-संगम यानी हरेक की शोभा कुछ निराली ही है। एक दृश्य देखने पर दूसरे की कल्पना नहीं हो सकती। हरेक का सौंदर्य अलग, भाव अलग, वातावरण अलग और माहात्म्य अलग!

प्रयाग से गंगा अलग ही स्वरूप धारण कर लेती है। गंगोत्री से लेकर प्रयाग तक की गंगा वर्धमान होते हुए भी एकरूप मानी जाती है। किंतु प्रयाग के पास उससे यमुना आकर मिलती है। यमुना का तो पहले से ही दोहरा पाट है। वह खेलती है, कूदती है, किंतु क्रीड़ासक्त नहीं मालूम होती। गंगा शकुंतला जैसी तपस्वी कन्या दिखती है। काली यमुना द्रौपदी-जैसी मानिनी राजकन्या मालूम होती है।

शर्मिष्ठा और देवयानी की कथा जब सुनते हैं, तब भी प्रयाग के पास गंगा और यमुना के बड़ी कठिनाई के साथ मिलते हुए शुक्ल-कृष्ण प्रवाहों का स्मरण हो आता है। हिंदुस्तान में अनगिनत नदियां हैं, इसलिए संगमों का भी कोई पार नहीं है। इन सभी संगमों में हमारे पुरखों ने गंगा-यमुना का यह संगम सबसे अधिक पसंद किया है और इसीलिए उसका 'प्रयागराज' जैसा गौरवपूर्ण नाम रखा है। हिंदुस्तान में मुगलों के आने के बाद जिस प्रकार हिंदुस्तान के इतिहास का रूप बदला, उसी प्रकार दिल्ली-आगरा और मथुरा-वृंदावन के समीप से आते हुए यमुना के प्रवाह के कारण गंगा का स्वरूप भी प्रयाग के बाद बिल्कुल ही बदल गया है।

प्रयाग के बाद गंगा कुलवधू की तरह गंभीर और सौभाग्यवती दिखती है। इसके बाद उसमें बड़ी-बड़ी नदियां मिलती जाती हैं। यमुना का जल मथुरा-वृंदावन से श्रीकृष्ण के संस्मरण अर्पण करता है, जबकि अयोध्या होकर आनेवाली सरयू आदर्श राजा रामचंद्र के प्रतापी किंतु करुण जीवन की स्मृतियां लाती है।

दक्षिण की ओर से आनेवाली चंबल नदी रतिदेव के यज्ञ-याग की बातें करती है, जबकि महान कोलाहल करता हुआ सोनभद्र गज-ग्राह के दारुण द्वंद्वयुद्ध की झांकी कराता है। इस प्रकार हृष्ट-पुष्ट बनी हुई गंगा पाटलिपुत्र के पास मगध साम्राज्य जैसी विस्तीर्ण हो जाती है। फिर भी गंडकी अपना अमूल्य कर-भार लाते हुए हिचकिचाई नहीं। 

जनक और अशोक की, बुद्ध और महावीर की प्राचीन भूमि से निकलकर आगे बढ़ते समय गंगा मानो सोच में पड़ जाती है कि अब कहां जाना चाहिए। जब इतनी प्रचंड वारि-राशि अपने अमोघ वेग से पूर्व की ओर बह रही ही हो, तब उसे दक्षिण की ओर मोड़ना क्या कोई आसान बात है? फिर भी वह उस ओर मुड़ गई है। दो सम्राट या दो जगद्गुरु जैसे एकाएक एक दूसरे से नहीं मिलते, वैसा ही गंगा और ब्रह्मपुत्र का हाल है। 

ब्रह्मपुत्र हिमालय के उस पार का सारा पानी लेकर असम से होती हुई पश्चिम की ओर आती है, और गंगा इस ओर से पूर्व की ओर बढ़ती है। उनकी आमने-सामने भेंट कैसे हो? कौन किसके सामने पहले झुके? कौन किसे पहले रास्ता दे? अंत में दोनों ने तय किया कि दोनों को 'दाक्षिण्य' धारण कर सरित्पति के दर्शन के लिए जाना चाहिए और भक्ति नम्र होकर जाते-जाते जहां संभव हो, रास्ते में एक-दूसरे से मिल लेना चाहिए।

इस प्रकार गोआलंदो के पास जब गंगा और ब्रह्मपुत्र का विशाल जल आकर मिलता है, तब मन में संदेह पैदा होता है कि सागर और क्या होता होगा? विजय प्राप्त करने के बाद कसी हुई खड़ी सेना भी जिस प्रकार अव्यवस्थित हो जाती है और विजयी वीर मन में जो आए वहां-वहां घूमते हैं उसी प्रकार का हाल इसके बाद इन दो महान नदियों का होता है। अनेक मुखों द्वारा वे सागर से जाकर मिलती हैं। हरेक प्रवाह का नाम अलग-अलग है और कुछ प्रवाहों के तो एक से भी अधिक नाम हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र एक होकर पद्मा का नाम धारण करती हैं। यही आगे जाकर मेघना के नाम से पुकारी जाती है

यह अनेकमुखी गंगा कहां जाती है? सुंदरवन में बेंत के झुंड उगाने? या सागर-पुत्रों की वासना को तृप्त कर उनका उद्धार करने? आज जाकर आप देखेंगे तो यहां पुराने काव्य का कुछ भी शेष नहीं होगा। जहां देखो, वहां पटसन की बोरियां बनाने वाली मिलें दीख पड़ेंगीं। जहां से हिंदुस्तानी कारीगरी की असंख्य वस्तुएं हिंदुस्तानी जहाजों से लंका या जावा द्वीप तक जाती थीं, उसी रास्ते अब विलायती और जापानी अगिन-बोटें, विदेशी कारखानों में बना हुआ भद्दा माल हिंदुस्तान के बाजारों में भर डालने के लिए आती हुई दिखाई देती हैं। गंगा मैया पहले ही की तरह हमें अनेक प्रकार की समृद्धि प्रदान करती जाती है, किंतु हमारे निर्बल हाथ उसे उठा नहीं सकते!

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