जीवनदायिनी नदियों पर केंद्रित आलेख का आज हम तीसरा भाग प्रस्तुत करने जा रहे हैं| आज हम बात करते हैं यमराज की बहन यमुना की| हिमालय तो भव्यता का भंडार है। जहां-तहां भव्यता को बिखेरकर भव्यता की भव्यता को कम करते रहना ही मानो हिमालय का व्यवसाय है। फिर भी ऐसे हिमालय में एक ऐसा स्थान है, जिसकी ऊर्जस्विता हिमालय-वासियों का भी ध्यान खींचती है। यह है यमराज की बहन यमुना का उद्गम-स्थान।
ऊंचाई से बर्फ पिघलकर एक बड़ा प्रपात गिरता है। इर्द-गिर्द गगनचुम्बी नहीं, बल्कि गगनभेदी पुराने वृक्ष आड़े गिरकर गल जाते हैं। उत्तुंग पहाड़ यमदूतों की तरह रक्षण करने के लिए खड़े हैं। कभी पानी जमकर बर्फ के जितना ठंडा पानी बन जाता है। ऐसे स्थान में जमीन के अंदर से एक अद्भुत ढंग से उबलता हुआ पानी उछलता रहता है। जमीन के भीतर से ऐसी आवाज निकलती है मानो किसी वाष्पयंत्र से क्रोधायमान भाप निकल रही हो और उन झरनों से सिर से भी ऊंची उड़ती बूंदें सर्दी में भी मनुष्य को झुलसा देती हैं।
ऐसे लोक-चमत्कारी स्थान में शुद्ध जल से स्नान करना असंभव-सा है। ठंडे पानी में नहाएं तो ठंडे पड़ जाएंगे और गरम पानी में नहाएं तो वहीं के वहीं आलू की तरह उबलकर मर जाएंगे। इसीलिए वहां मिश्रजल के कुंड तैयार किए गए हैं। एक झरने के ऊपर एक गुफा है। उसमें लकड़ी के पटिये डालकर सो सकते हैं। हां, रातभर करवट बदलते रहना चाहिए, क्योंकि ऊपर की ठंड और नीचे की गरमी, दोनों एक-सी अस' होती है।
दोनों बहनों में गंगा से यमुना बड़ी, प्रौढ़ और गंभीर है, कृष्णभागिनी द्रौपदी के समान कृष्णवर्णा और मानिनी है। गंगा तो मानो बेचारी मुग्ध शकुंतला ही ठहरी, पर देवाधिदेव ने उसको स्वीकार किया, इसलिए यमुना ने अपना बड़प्पन छोड़कर, गंगा को ही अपनी सरदारी सौंप दी। ये दोनों बहनें एक-दूसरे से मिलने के लिए बड़ी आतुर दिखाई देती हैं।
हिमालय में तो एक जगह दोनों करीब-करीब आ जाती हैं, किंतु विघ्नसंतोषी की तरह ईष्र्यालु दंडाल पर्वत के बीच में आड़े आने से उनका मिलन वहां नहीं हो पाता। एक काव्यहृदयी ऋषि यमुना के किनारे रहकर हमेशा गंगा स्नान के लिए जाया करता था, किंतु भोजन के लिए वापस यमुना के ही घर आ जाता था। जब वह बूढ़ा हुआ तब उसके थके-मांदे पांवों पर तरस खाकर गंगा ने अपना प्रतिनिधिरूप एक छोटा-सा झरना यमुना के तीर पर ऋषि के आश्रम के पास भेज दिया। आज भी वह छोटा सा सफेद प्रवाह उस ऋषि का स्मरण करता हुआ वहां बह रहा है।
देहरादून के पास भी हमें आशा होती है कि ये दोनों एक-दूसरे से मिलेंगी। किंतु नहीं, अपने शैत्य-पाचनत्व से अंतर्वेदी के समूचे प्रदेश को पुनीत करने का कर्तव्य पूरा करने से पहले उन्हें एक-दूसरे से मिलकर फुरसत की बातें करने की सूझती ही कैसे? गंगा तो उत्तरकाशी, टिहरी, श्रीनगर, हरिद्वार, कन्नौज, ब्रह्मावर्त, कानपुर आदि पुराण पवित्र और इतिहास प्रसिद्ध स्थानों को अपना दूध पिलाती हुई दौड़ती है, जबकि यमुना कुरुक्षेत्र और पानीपत के हत्यारे भूमि-भाग को देखती हुई भारतवर्ष की राजधानी के पास आ पहुंचती है।
यमुना के पानी में साम्राज्य की शक्ति होना चाहिए। उसके स्मरण-संग्रहालय में पांडवों से लेकर मुगल-साम्राज्य तक को गदर के जमाने से लेकर स्वामी श्रद्धानंदजी की हत्या तक का सारा इतिहास भरा पड़ा है। दिल्ली से आगरे तक ऐसा मालूम होता है, मानो बाबर के खानदान के लोग ही हमारे साथ बातें करना चाहते हों। दोनों नगरों के किले साम्राज्य की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि यमुना की शोभा निहारने के लिए ही मानो बनाए गए हैं। मुगल साम्राज्य के नगाड़े तो कब के बंद हो गए, किंतु मथुरा-वृंदावन की बांसुरी अब भी बज रही हैं।
यमुना और मथुरा-वृंदावन :
मथुरा-वृंदावन की शोभा कुछ अपूर्व ही है। यह प्रदेश जितना रमणीय है, उतना ही समृद्ध है। हरियाने की गाएं अपने मीठे, सरस, सकस दूध के लिए हिंदुस्तान में मशहूर हैं। यशोदा मैया ने या गोपराजा नन्द ने खुद यह स्थान पसंद किया था, इस बात को तो मानो यहां की भूमि भूल ही नहीं सकती। मथुरा-वृंदावन तो हैं बालकृष्ण की क्रीड़ा-भूमि, वीर कृष्ण की विक्रम भूमि। द्वारकावास को यदि छोड़ दें तो श्रीकृष्ण के जीवन के साथ अधिक से अधिक सहयोग कालिन्दी ने ही किया है।
जिस यमुना ने कालियामर्दन देखा, उसी यमुना ने कंस का शिरोच्छेद भी देखा। जिस यमुना ने हस्तिानापुर के दरबार में श्रीकृष्ण की सचिव-वाणी सुनी, उसी यमुना ने रण-कुशल श्रीकृष्ण की योगमूर्ति कुरुक्षेत्र पर विचरती निहारी। जिस यमुना ने वृंदावन की प्रणय-बांसुरी के साथ अपना कलरव मिलाया, उसी यमुना ने कुरुक्षेत्र पर रोमहर्षक गीतावाणी को प्रतिध्वनित किया।
यमराज की बहन का भाईपन तो श्रीकृष्ण को ही शोभा दे सकता है। जिसने भारतवर्ष के कुल का कई बार संहार देखा है, उस यमुना के लिए पारिजात के फूल के समान ताजबीवी का अवसान कितना मर्मभेदी हुआ होगा? फिर भी उसने प्रेमसम्राट शाहजहां के जमे हुए संगमरमरी आंसुओं को प्रतिबिंबित करना स्वीकार कर लिया है।
भारतीय काल से मशहूर वैदिक नदी चर्मण्वती से करभार लेकर यमुना ज्योंही आगे बढ़ती है, त्योंही मध्ययुगीन इतिहास की झांगी करानेवाली नन्ही-सी सिंधु नदी उसमें आ मिलती है।
अब यमुना अधीर हो उठी है। कई दिन हुए, बहन गंगा के दर्शन नहीं हुए। ऐसी बातें पेट में समाती नहीं हैं। पूछने के लिए असंख्य सवाल भी इकट्ठे हो गए हैं। कानपुर और कालपी बहुत दूर नहीं हैं। यहां गंगा की खबर पाते ही खुशी से वहां की मिश्री से मुंह मीठा बनाकर यमुना ऐसी दौड़ी कि प्रयागराज में गंगा के गले से लिपट गई। क्या दोनों का उन्माद!
मिलने पर भी मानो उनको यकिन नहीं होता कि वे मिली हैं। भारतवर्ष के सब के सब साधु संत इस प्रेम संगम को देखने के लिए इकट्ठे हुए हैं, पर इन बहनों को उसकी सुध-बुध नहीं है। आंगन में अक्षयवट खड़ा है। उसकी भी इन्हें परवा नहीं है। बूढ़ा अकबर छावनी डाले पड़ा है, उसे कौन पूछता है? और अशोक का शिलास्तंभ लाकर खंडा करें तो भी क्या ये बहनें उसकी ओर नजर उठाकर देखेंगी?
प्रेम का यह संगम-प्रवाह बहता रहता है और उसके साथ कवि-सम्राट् कालिदास की सरस्वती भी अखंड बह रही है! -
क्वचित् प्रभा लेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिरिवानुविद्धा।
अन्यत्र माला सित-पंकजानाम् इन्दीवर्रै उत्खचितान्तरेव।।
क्वचित्खगानां प्रिय-मानसानां कादम्ब-संसर्गवतीव पंक्ति:।
अन्यत्र कालागुरु-दत्तपत्रा भक्ति भुवशचन्दन-कल्पितेव।।
क्वचित् प्रभा चांद्रमसी तमोभिश्छायाविलीनै: शबलीकृतेव।
अन्यत्र शुभ्रा शरद्अभ्रलेखा-रन्ध्रष्विवालक्ष्यनभ: प्रदेशा।।
क्वचित च कृष्णोरग-भूषणेव भस्मांग-रागा तनरू ईश्वरस्य।
पश्यानवद्यांगि! विभाति गंगा भिन्नप्रवाहा यमुनारतंगै:।।
अर्थात् - हे निर्दोष अंगवाली सीते, देखो, इस गंगा के प्रवाह में यमुना की तरंगे धंसकर प्रवाह को खंडित कर रही है। यह कैसा दृश्य है! मालूम होता है, मानो कहीं मोतियों की माला में पिरोये हुए इंद्रनीलमणि मोतियों की प्रभा को कुछ धुंधला कर रहे हैं। कहीं ऐसा दीखता है, मानो सफेद कमल के हार में नील कमल गूंथ दिये गए हों। कहीं मानो मानसरोवर जाते हुए श्वेत चंदन से लीपी हुई जमीन पर कृष्णागरु की पत्र रचना की गई हो। कहीं मानो चंद्र की प्रभा के साथ छाया में सोए हुए अंधकार की क्रीड़ा चल रही हो; कहीं शरदऋतु के शुभ्र मेघों की पीछे से इधर-उधर आसमान दीख रहा हो और कहीं ऐसा मालूम होता है, मानो महादेवजी के भस्म-भूषित शरीर पर कृष्ण सर्पो के आभूषण धारण करा दिए हों।
कैसा सुंदर दृश्य! ऊपर पुष्पक विमान में मेघ श्याम रामचंद्र और धवल-शीला जानकी चौदह साल के वियोग के पश्चात् अयोध्या में पहुंचने के लिए अधीर हो उठे हैं और नीचे इंदीवर-श्यामा कालिंदी और सुधा-जला जाह्न्वी एक दूसरे का परिरंभ छोड़े बिना सागर में नामरूप को छोड़कर विलीन होने के लिए दौड़ रही है। इस पावन दृश्य को देखकर स्वर्ग में सुमनों की पुष्प-वृष्टि हुई होगी और भूतल पर कवियों की प्रतिभा-सृष्टि के फुहारे उड़े होंगे।
ऊंचाई से बर्फ पिघलकर एक बड़ा प्रपात गिरता है। इर्द-गिर्द गगनचुम्बी नहीं, बल्कि गगनभेदी पुराने वृक्ष आड़े गिरकर गल जाते हैं। उत्तुंग पहाड़ यमदूतों की तरह रक्षण करने के लिए खड़े हैं। कभी पानी जमकर बर्फ के जितना ठंडा पानी बन जाता है। ऐसे स्थान में जमीन के अंदर से एक अद्भुत ढंग से उबलता हुआ पानी उछलता रहता है। जमीन के भीतर से ऐसी आवाज निकलती है मानो किसी वाष्पयंत्र से क्रोधायमान भाप निकल रही हो और उन झरनों से सिर से भी ऊंची उड़ती बूंदें सर्दी में भी मनुष्य को झुलसा देती हैं।
ऐसे लोक-चमत्कारी स्थान में शुद्ध जल से स्नान करना असंभव-सा है। ठंडे पानी में नहाएं तो ठंडे पड़ जाएंगे और गरम पानी में नहाएं तो वहीं के वहीं आलू की तरह उबलकर मर जाएंगे। इसीलिए वहां मिश्रजल के कुंड तैयार किए गए हैं। एक झरने के ऊपर एक गुफा है। उसमें लकड़ी के पटिये डालकर सो सकते हैं। हां, रातभर करवट बदलते रहना चाहिए, क्योंकि ऊपर की ठंड और नीचे की गरमी, दोनों एक-सी अस' होती है।
दोनों बहनों में गंगा से यमुना बड़ी, प्रौढ़ और गंभीर है, कृष्णभागिनी द्रौपदी के समान कृष्णवर्णा और मानिनी है। गंगा तो मानो बेचारी मुग्ध शकुंतला ही ठहरी, पर देवाधिदेव ने उसको स्वीकार किया, इसलिए यमुना ने अपना बड़प्पन छोड़कर, गंगा को ही अपनी सरदारी सौंप दी। ये दोनों बहनें एक-दूसरे से मिलने के लिए बड़ी आतुर दिखाई देती हैं।
हिमालय में तो एक जगह दोनों करीब-करीब आ जाती हैं, किंतु विघ्नसंतोषी की तरह ईष्र्यालु दंडाल पर्वत के बीच में आड़े आने से उनका मिलन वहां नहीं हो पाता। एक काव्यहृदयी ऋषि यमुना के किनारे रहकर हमेशा गंगा स्नान के लिए जाया करता था, किंतु भोजन के लिए वापस यमुना के ही घर आ जाता था। जब वह बूढ़ा हुआ तब उसके थके-मांदे पांवों पर तरस खाकर गंगा ने अपना प्रतिनिधिरूप एक छोटा-सा झरना यमुना के तीर पर ऋषि के आश्रम के पास भेज दिया। आज भी वह छोटा सा सफेद प्रवाह उस ऋषि का स्मरण करता हुआ वहां बह रहा है।
देहरादून के पास भी हमें आशा होती है कि ये दोनों एक-दूसरे से मिलेंगी। किंतु नहीं, अपने शैत्य-पाचनत्व से अंतर्वेदी के समूचे प्रदेश को पुनीत करने का कर्तव्य पूरा करने से पहले उन्हें एक-दूसरे से मिलकर फुरसत की बातें करने की सूझती ही कैसे? गंगा तो उत्तरकाशी, टिहरी, श्रीनगर, हरिद्वार, कन्नौज, ब्रह्मावर्त, कानपुर आदि पुराण पवित्र और इतिहास प्रसिद्ध स्थानों को अपना दूध पिलाती हुई दौड़ती है, जबकि यमुना कुरुक्षेत्र और पानीपत के हत्यारे भूमि-भाग को देखती हुई भारतवर्ष की राजधानी के पास आ पहुंचती है।
यमुना के पानी में साम्राज्य की शक्ति होना चाहिए। उसके स्मरण-संग्रहालय में पांडवों से लेकर मुगल-साम्राज्य तक को गदर के जमाने से लेकर स्वामी श्रद्धानंदजी की हत्या तक का सारा इतिहास भरा पड़ा है। दिल्ली से आगरे तक ऐसा मालूम होता है, मानो बाबर के खानदान के लोग ही हमारे साथ बातें करना चाहते हों। दोनों नगरों के किले साम्राज्य की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि यमुना की शोभा निहारने के लिए ही मानो बनाए गए हैं। मुगल साम्राज्य के नगाड़े तो कब के बंद हो गए, किंतु मथुरा-वृंदावन की बांसुरी अब भी बज रही हैं।
यमुना और मथुरा-वृंदावन :
मथुरा-वृंदावन की शोभा कुछ अपूर्व ही है। यह प्रदेश जितना रमणीय है, उतना ही समृद्ध है। हरियाने की गाएं अपने मीठे, सरस, सकस दूध के लिए हिंदुस्तान में मशहूर हैं। यशोदा मैया ने या गोपराजा नन्द ने खुद यह स्थान पसंद किया था, इस बात को तो मानो यहां की भूमि भूल ही नहीं सकती। मथुरा-वृंदावन तो हैं बालकृष्ण की क्रीड़ा-भूमि, वीर कृष्ण की विक्रम भूमि। द्वारकावास को यदि छोड़ दें तो श्रीकृष्ण के जीवन के साथ अधिक से अधिक सहयोग कालिन्दी ने ही किया है।
जिस यमुना ने कालियामर्दन देखा, उसी यमुना ने कंस का शिरोच्छेद भी देखा। जिस यमुना ने हस्तिानापुर के दरबार में श्रीकृष्ण की सचिव-वाणी सुनी, उसी यमुना ने रण-कुशल श्रीकृष्ण की योगमूर्ति कुरुक्षेत्र पर विचरती निहारी। जिस यमुना ने वृंदावन की प्रणय-बांसुरी के साथ अपना कलरव मिलाया, उसी यमुना ने कुरुक्षेत्र पर रोमहर्षक गीतावाणी को प्रतिध्वनित किया।
यमराज की बहन का भाईपन तो श्रीकृष्ण को ही शोभा दे सकता है। जिसने भारतवर्ष के कुल का कई बार संहार देखा है, उस यमुना के लिए पारिजात के फूल के समान ताजबीवी का अवसान कितना मर्मभेदी हुआ होगा? फिर भी उसने प्रेमसम्राट शाहजहां के जमे हुए संगमरमरी आंसुओं को प्रतिबिंबित करना स्वीकार कर लिया है।
भारतीय काल से मशहूर वैदिक नदी चर्मण्वती से करभार लेकर यमुना ज्योंही आगे बढ़ती है, त्योंही मध्ययुगीन इतिहास की झांगी करानेवाली नन्ही-सी सिंधु नदी उसमें आ मिलती है।
अब यमुना अधीर हो उठी है। कई दिन हुए, बहन गंगा के दर्शन नहीं हुए। ऐसी बातें पेट में समाती नहीं हैं। पूछने के लिए असंख्य सवाल भी इकट्ठे हो गए हैं। कानपुर और कालपी बहुत दूर नहीं हैं। यहां गंगा की खबर पाते ही खुशी से वहां की मिश्री से मुंह मीठा बनाकर यमुना ऐसी दौड़ी कि प्रयागराज में गंगा के गले से लिपट गई। क्या दोनों का उन्माद!
मिलने पर भी मानो उनको यकिन नहीं होता कि वे मिली हैं। भारतवर्ष के सब के सब साधु संत इस प्रेम संगम को देखने के लिए इकट्ठे हुए हैं, पर इन बहनों को उसकी सुध-बुध नहीं है। आंगन में अक्षयवट खड़ा है। उसकी भी इन्हें परवा नहीं है। बूढ़ा अकबर छावनी डाले पड़ा है, उसे कौन पूछता है? और अशोक का शिलास्तंभ लाकर खंडा करें तो भी क्या ये बहनें उसकी ओर नजर उठाकर देखेंगी?
प्रेम का यह संगम-प्रवाह बहता रहता है और उसके साथ कवि-सम्राट् कालिदास की सरस्वती भी अखंड बह रही है! -
क्वचित् प्रभा लेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिरिवानुविद्धा।
अन्यत्र माला सित-पंकजानाम् इन्दीवर्रै उत्खचितान्तरेव।।
क्वचित्खगानां प्रिय-मानसानां कादम्ब-संसर्गवतीव पंक्ति:।
अन्यत्र कालागुरु-दत्तपत्रा भक्ति भुवशचन्दन-कल्पितेव।।
क्वचित् प्रभा चांद्रमसी तमोभिश्छायाविलीनै: शबलीकृतेव।
अन्यत्र शुभ्रा शरद्अभ्रलेखा-रन्ध्रष्विवालक्ष्यनभ: प्रदेशा।।
क्वचित च कृष्णोरग-भूषणेव भस्मांग-रागा तनरू ईश्वरस्य।
पश्यानवद्यांगि! विभाति गंगा भिन्नप्रवाहा यमुनारतंगै:।।
अर्थात् - हे निर्दोष अंगवाली सीते, देखो, इस गंगा के प्रवाह में यमुना की तरंगे धंसकर प्रवाह को खंडित कर रही है। यह कैसा दृश्य है! मालूम होता है, मानो कहीं मोतियों की माला में पिरोये हुए इंद्रनीलमणि मोतियों की प्रभा को कुछ धुंधला कर रहे हैं। कहीं ऐसा दीखता है, मानो सफेद कमल के हार में नील कमल गूंथ दिये गए हों। कहीं मानो मानसरोवर जाते हुए श्वेत चंदन से लीपी हुई जमीन पर कृष्णागरु की पत्र रचना की गई हो। कहीं मानो चंद्र की प्रभा के साथ छाया में सोए हुए अंधकार की क्रीड़ा चल रही हो; कहीं शरदऋतु के शुभ्र मेघों की पीछे से इधर-उधर आसमान दीख रहा हो और कहीं ऐसा मालूम होता है, मानो महादेवजी के भस्म-भूषित शरीर पर कृष्ण सर्पो के आभूषण धारण करा दिए हों।
कैसा सुंदर दृश्य! ऊपर पुष्पक विमान में मेघ श्याम रामचंद्र और धवल-शीला जानकी चौदह साल के वियोग के पश्चात् अयोध्या में पहुंचने के लिए अधीर हो उठे हैं और नीचे इंदीवर-श्यामा कालिंदी और सुधा-जला जाह्न्वी एक दूसरे का परिरंभ छोड़े बिना सागर में नामरूप को छोड़कर विलीन होने के लिए दौड़ रही है। इस पावन दृश्य को देखकर स्वर्ग में सुमनों की पुष्प-वृष्टि हुई होगी और भूतल पर कवियों की प्रतिभा-सृष्टि के फुहारे उड़े होंगे।
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