त्रिलोक संचारी महर्षि नारद त्रिभुवनों का संचार करते हुए एक बार स्वर्णिम कांतियों से जाज्वल्यमान कल्याण नगर पहुंचे। वह नगर उद्यानों, अट्टालिकाओं, मंदिरों, सारस्वत गोष्ठियों और संगीत लहरियों से अत्यंत आह्लादमय था। उस नगर के राजा शीलनिधि प्रजावत्सल थे। उनके लक्ष्मी समान शीलवती नामक एक पुत्री थी। उनके लक्ष्मी समान शीलवती नामक एक पुत्री थी। शीलवती के युक्त वयस्का होते ही राजा ने उसका विवाह करने के विचार से स्वयंवर की घोषणा की। स्वयंवर के दिन नारद उस नगर में पहुंचे। राजमहल की शोभ देखकर नारद विस्मय में आ गए। द्वारपालों से नारद के आगमन का समाचार सुनकर राजा ने आदरपूर्वक उनका स्वागत किया। श्रद्धा, भक्ति के साथ अघ्र्य-पाद्यों से उन्हें संतुष्ट किया और अपनी पुत्री को बुलाकर नारद का चरणाभिवंदन कराया। उस कन्या के अनुपम सौंदर्य पर देवर्षि नारद मुग्ध हो गए। उनका मन विचलित हुआ।
राजा ने नारद से पूछा, "महर्षि, मैंने अपनी पुत्री का स्वयंवर रचा है। आप तो त्रिकालज्ञ हैं। कृपया बताइए कि इस कन्या का भाग्य कैसा है? इसे कैसा वर प्राप्त होगा?"
"राजन्! आपकी पुत्री साक्षात् लक्ष्मी समान है। इस कन्या के साथ विवाह करने के लिए विष्णु के समान शोभायमान व्यक्ति ही आएंगे। आप चिंता न करें।" नारद इसके बाद पल भर भी वहां ठहर न सके। सीधे बैकुंठ में पहुंचे। विष्णु के दर्शन करके बोले, "हे जगद्रक्षक, लोक बांधव, कल्याणपुरी की राजकुमारी के सौंदर्य का वर्णन किन शब्दों में करूं। वाणी के बाहर की बात है। वह लक्ष्मी देवी जैसी रूपवती है। भुवन मोहिनी है। इसलिए वह आप जैसे लोकोत्तर विमुग्धकारी पुरुष को ही वरण करेगी। परंतु उस पर मेरा मन रीझ गया है। उस युवती को न पाने पर मैं कामदेव के बाणों को सहते जीवित नहीं रह सकता। इसलिए आपसे मेरा यही निवेदन है कि मुझ पर अनुग्रह करके आपके पीतांबर, मुकुट, रत्न खचित आभूषण आदि प्रदान करें। मेरे मनोरथ के सफल होते ही लौटा दूंगा।"
नारद के मानिसक वैकल्य पर श्रीमहाविष्णु ने मंद हास करके उनकी इच्छा की पूर्ति की। नारद ने प्रसन्नतापूर्वक विष्णु से प्राप्त वस्त्राभूषण तत्काल धारण किया। मन में सोचने लगे कि निश्चय ही राजकुमारी उनके कंठ में जयमाला डालकर वरण करेगी। इसी विश्वास से वे शीघ्र गति से स्वयंवर मंडप में पहुंचे और उचित आसन पर बैठ गए। लेकिन विष्णु की माया कुछ विचित्र थी। नारद को वह वेष-भूषा सुंदर लग रही थी। वे अपने को विष्णु रूप में पाकर अभिमान कर रहे थे, लेकिन प्रेक्षकों को उनका चेहरा वानर मुख जैसे प्रतीत हो रहा था।
उसी स्वयंवर में जगन्नाटक सूत्रधारी श्रीमहाविष्णु भी स्वयं पधारे और वे सभा मंडप में एक कोने में जा बैठे। स्वयंवर का कार्यक्रम आरंभ हुआ। राजकुमारी शीलवती अपने हाथ में जयमाला लेकर सभा मंडप में उपस्थित प्रत्येक राजा का अवलोकन करते आगे बढ़ी चली आ रही थी। नारद मन ही मन पुलकित होते हुए विचारने लगे कि उनके अतिरिक्त किसी और राजा को वरने की बात शीलवती सोच भी नहीं सकती। पर मजे की बात यह थी कि स्वयंवर मंडप में उपस्थित सभी राजकुमार नारद की ओर देख-देख मुस्करा रहे थे। पर उन्हें इस बात का भय था कि यह बात नारद से कह दें तो वे कहीं नाराज होकर शाप न दे बैठें।
इसी समय राजकुमारी शीलवती नारद के समीप पहुंचकर उनको नख-शिख र्पयत निहारने लगी, तब नारद ने उल्लास में आकर कहा, "देखती क्या हो? जल्दी मेरे कंठ में वरमाला पहना दो।" लेकिन राजकुमारी मंद गति से आगे बढ़ गई। इस पर नारद एकदम हताश हो गए। इससे भी ज्यादा नारद के लिए संभ्रम और आश्चर्य की बात यह थी कि राजकुमारी ने आखिर एक कोने में साधारण वेष-भूषा में बैठे विष्णु के कंठ में जयमाला पहना दी। उसी समय विष्णु उस लक्ष्मी सदृश्य राजकुमारी शीलवती को अपने गरुड़ वाहन पर बिठाए बैकुंठ को चले गए।
नारद के आश्चर्य की कोई सीमा न रही। वे गुनगुनाने लगे, "मैंने सोचा था, निश्चय ही राजकुमारी मुझे वरण करेगी, लेकिन यह क्या हो गया? ऐसा कभी नहीं हो सकता था और न होना चाहिए था। समीप में खड़े दो शिवभक्तों ने ये बातें सुनीं। उन्हें अच्छा मजाक सूझा, वे बोले, "हे वानर मुखवाले। तुमने यह कैसे सोचा कि अनन्य रूपवती राजकुमारी इतने सुंदर राजकुमारों के होते तुमको वरण करेगी?"
इस पर नारद के क्रोध का पारा चढ़ गया। उन्होंने आवेश में आकर शिवभक्तों को शाप दे डाला, "तुम दोनों ने मेरा परिहास किया, इसलिए तुम दोनों भूलोक में राक्षस होकर जन्म धारण करोगे।" नारद का शाप सुनकर शिवभक्त विचलित नहीं हुए। उन्होंने सोचा कि शायद यही शिवेच्छा होगी। करनी को कौन टाल सकता है। यही विचार कर वे दोनों वहां से चुपचाप चले गए।
इतने मात्र से नारद का क्रोध शांत नहीं हुआ। वे सीधे बैकुंठ में गए। विष्णु को शीलवती के साथ प्रसन्न मुद्रा में विराजमान देख उनका क्रोध और भड़क उठा। उन्होंने विष्णु को दोष देते हुए शाप दिया, "मैंने आपसे प्रार्थना की थी। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर मुझे यह स्वरूप प्रदान किया। मैंने जिस युवती को मन से वर लिया था, आपने उसका वरण करके भरी सभा में मेरा अपमान किया। इस वचन भंग के कारण आप भी एक स्त्री के कारण दुखी होकर परिहास का कारण बन जाएंगे। साथ ही मानव जन्म धारण करके विषाद में डूब जाएंगे। तब ऐसे ही वानर आपकी सहायता करेंगे।" यह शाप देकर नारद बैकुंठ से चले गए।
नारद का शाप सुनकर श्रीमहाविष्णु चिंतित नहीं हुए। इस शाप को भी ईश्वर की इच्छा मानकर आनंद के साथ अपने दिन बिताने लगे। इस बीच नारद महर्षि भगवत माया से मुक्त हो विवेक में आकर पछताने लगे। उन्हें अपनी करनी का बोध हुआ। वे पुन: बैकुंठ को लौट गए। विष्णु के चरण-स्पर्श करके पश्चातापपूर्ण स्वर में बोले, "भगवन, मैंने क्रोध में अंधे होकर आपको शाप दे डाला। आपने मेरे निंदापूर्ण वचनों को कैसे सहन कर लिया? मैं अपने इस दोष से कैसे मुक्त हो सकता हूं? आप अपने चक्रायुध से मेरा अंत कर दीजिए।" इस प्रकार नारद ने विलाप करते हुए श्रीमहाविष्णु की शरण मांगी।
विष्णु ने शांत स्वर में समझाया, "हे नारद, तुम चिंता न करो। जो कुछ घटित है शिवजी की इच्छा और संकल्प से होता है। कहावत भी है-शिवजी की इच्छा के बिना चींटी भी नहीं काटती। विश्व के कालचक्र को सदाशिव ही चलाते हैं। इसलिए तुम उनका ध्यान करो। वे सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वेश्वर हैं, वे आदि, मध्य और अंत से परे हैं। मैं ही नहीं, ब्रह्मा और इंद्र भी मोहजाल में फंसकर दुख भोगा करते हैं। अब अन्य लोगों की बात क्या कहा जाए।" इस प्रकार श्रीमहाविष्णु ने महर्षि नारद को अनेक प्रकार से समझाकर शांत किया। उन्हें शिव भक्ति और शिवजी के महात्म्य का उपदेश दिया।
स्वयं श्रीमहाविष्णु के मुंह से सदाशिव के महात्म्य का मर्म समझकर नारद अत्यंत संतुष्ट हुए। तब अपनी वीणा के तारों को झंकृत कर 'नारायण-नारायण', 'ऊँ नम:, सिद्धं नम:' गाते हुए अपनी यात्रा पर चल पड़े।
राजा ने नारद से पूछा, "महर्षि, मैंने अपनी पुत्री का स्वयंवर रचा है। आप तो त्रिकालज्ञ हैं। कृपया बताइए कि इस कन्या का भाग्य कैसा है? इसे कैसा वर प्राप्त होगा?"
"राजन्! आपकी पुत्री साक्षात् लक्ष्मी समान है। इस कन्या के साथ विवाह करने के लिए विष्णु के समान शोभायमान व्यक्ति ही आएंगे। आप चिंता न करें।" नारद इसके बाद पल भर भी वहां ठहर न सके। सीधे बैकुंठ में पहुंचे। विष्णु के दर्शन करके बोले, "हे जगद्रक्षक, लोक बांधव, कल्याणपुरी की राजकुमारी के सौंदर्य का वर्णन किन शब्दों में करूं। वाणी के बाहर की बात है। वह लक्ष्मी देवी जैसी रूपवती है। भुवन मोहिनी है। इसलिए वह आप जैसे लोकोत्तर विमुग्धकारी पुरुष को ही वरण करेगी। परंतु उस पर मेरा मन रीझ गया है। उस युवती को न पाने पर मैं कामदेव के बाणों को सहते जीवित नहीं रह सकता। इसलिए आपसे मेरा यही निवेदन है कि मुझ पर अनुग्रह करके आपके पीतांबर, मुकुट, रत्न खचित आभूषण आदि प्रदान करें। मेरे मनोरथ के सफल होते ही लौटा दूंगा।"
नारद के मानिसक वैकल्य पर श्रीमहाविष्णु ने मंद हास करके उनकी इच्छा की पूर्ति की। नारद ने प्रसन्नतापूर्वक विष्णु से प्राप्त वस्त्राभूषण तत्काल धारण किया। मन में सोचने लगे कि निश्चय ही राजकुमारी उनके कंठ में जयमाला डालकर वरण करेगी। इसी विश्वास से वे शीघ्र गति से स्वयंवर मंडप में पहुंचे और उचित आसन पर बैठ गए। लेकिन विष्णु की माया कुछ विचित्र थी। नारद को वह वेष-भूषा सुंदर लग रही थी। वे अपने को विष्णु रूप में पाकर अभिमान कर रहे थे, लेकिन प्रेक्षकों को उनका चेहरा वानर मुख जैसे प्रतीत हो रहा था।
उसी स्वयंवर में जगन्नाटक सूत्रधारी श्रीमहाविष्णु भी स्वयं पधारे और वे सभा मंडप में एक कोने में जा बैठे। स्वयंवर का कार्यक्रम आरंभ हुआ। राजकुमारी शीलवती अपने हाथ में जयमाला लेकर सभा मंडप में उपस्थित प्रत्येक राजा का अवलोकन करते आगे बढ़ी चली आ रही थी। नारद मन ही मन पुलकित होते हुए विचारने लगे कि उनके अतिरिक्त किसी और राजा को वरने की बात शीलवती सोच भी नहीं सकती। पर मजे की बात यह थी कि स्वयंवर मंडप में उपस्थित सभी राजकुमार नारद की ओर देख-देख मुस्करा रहे थे। पर उन्हें इस बात का भय था कि यह बात नारद से कह दें तो वे कहीं नाराज होकर शाप न दे बैठें।
इसी समय राजकुमारी शीलवती नारद के समीप पहुंचकर उनको नख-शिख र्पयत निहारने लगी, तब नारद ने उल्लास में आकर कहा, "देखती क्या हो? जल्दी मेरे कंठ में वरमाला पहना दो।" लेकिन राजकुमारी मंद गति से आगे बढ़ गई। इस पर नारद एकदम हताश हो गए। इससे भी ज्यादा नारद के लिए संभ्रम और आश्चर्य की बात यह थी कि राजकुमारी ने आखिर एक कोने में साधारण वेष-भूषा में बैठे विष्णु के कंठ में जयमाला पहना दी। उसी समय विष्णु उस लक्ष्मी सदृश्य राजकुमारी शीलवती को अपने गरुड़ वाहन पर बिठाए बैकुंठ को चले गए।
नारद के आश्चर्य की कोई सीमा न रही। वे गुनगुनाने लगे, "मैंने सोचा था, निश्चय ही राजकुमारी मुझे वरण करेगी, लेकिन यह क्या हो गया? ऐसा कभी नहीं हो सकता था और न होना चाहिए था। समीप में खड़े दो शिवभक्तों ने ये बातें सुनीं। उन्हें अच्छा मजाक सूझा, वे बोले, "हे वानर मुखवाले। तुमने यह कैसे सोचा कि अनन्य रूपवती राजकुमारी इतने सुंदर राजकुमारों के होते तुमको वरण करेगी?"
इस पर नारद के क्रोध का पारा चढ़ गया। उन्होंने आवेश में आकर शिवभक्तों को शाप दे डाला, "तुम दोनों ने मेरा परिहास किया, इसलिए तुम दोनों भूलोक में राक्षस होकर जन्म धारण करोगे।" नारद का शाप सुनकर शिवभक्त विचलित नहीं हुए। उन्होंने सोचा कि शायद यही शिवेच्छा होगी। करनी को कौन टाल सकता है। यही विचार कर वे दोनों वहां से चुपचाप चले गए।
इतने मात्र से नारद का क्रोध शांत नहीं हुआ। वे सीधे बैकुंठ में गए। विष्णु को शीलवती के साथ प्रसन्न मुद्रा में विराजमान देख उनका क्रोध और भड़क उठा। उन्होंने विष्णु को दोष देते हुए शाप दिया, "मैंने आपसे प्रार्थना की थी। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर मुझे यह स्वरूप प्रदान किया। मैंने जिस युवती को मन से वर लिया था, आपने उसका वरण करके भरी सभा में मेरा अपमान किया। इस वचन भंग के कारण आप भी एक स्त्री के कारण दुखी होकर परिहास का कारण बन जाएंगे। साथ ही मानव जन्म धारण करके विषाद में डूब जाएंगे। तब ऐसे ही वानर आपकी सहायता करेंगे।" यह शाप देकर नारद बैकुंठ से चले गए।
नारद का शाप सुनकर श्रीमहाविष्णु चिंतित नहीं हुए। इस शाप को भी ईश्वर की इच्छा मानकर आनंद के साथ अपने दिन बिताने लगे। इस बीच नारद महर्षि भगवत माया से मुक्त हो विवेक में आकर पछताने लगे। उन्हें अपनी करनी का बोध हुआ। वे पुन: बैकुंठ को लौट गए। विष्णु के चरण-स्पर्श करके पश्चातापपूर्ण स्वर में बोले, "भगवन, मैंने क्रोध में अंधे होकर आपको शाप दे डाला। आपने मेरे निंदापूर्ण वचनों को कैसे सहन कर लिया? मैं अपने इस दोष से कैसे मुक्त हो सकता हूं? आप अपने चक्रायुध से मेरा अंत कर दीजिए।" इस प्रकार नारद ने विलाप करते हुए श्रीमहाविष्णु की शरण मांगी।
विष्णु ने शांत स्वर में समझाया, "हे नारद, तुम चिंता न करो। जो कुछ घटित है शिवजी की इच्छा और संकल्प से होता है। कहावत भी है-शिवजी की इच्छा के बिना चींटी भी नहीं काटती। विश्व के कालचक्र को सदाशिव ही चलाते हैं। इसलिए तुम उनका ध्यान करो। वे सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वेश्वर हैं, वे आदि, मध्य और अंत से परे हैं। मैं ही नहीं, ब्रह्मा और इंद्र भी मोहजाल में फंसकर दुख भोगा करते हैं। अब अन्य लोगों की बात क्या कहा जाए।" इस प्रकार श्रीमहाविष्णु ने महर्षि नारद को अनेक प्रकार से समझाकर शांत किया। उन्हें शिव भक्ति और शिवजी के महात्म्य का उपदेश दिया।
स्वयं श्रीमहाविष्णु के मुंह से सदाशिव के महात्म्य का मर्म समझकर नारद अत्यंत संतुष्ट हुए। तब अपनी वीणा के तारों को झंकृत कर 'नारायण-नारायण', 'ऊँ नम:, सिद्धं नम:' गाते हुए अपनी यात्रा पर चल पड़े।
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Very nice this Blog
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