इस तरह संत ने राजा को दिया सुख का मंत्र

एक राजा था। वह बड़ा निडर और उदार था। उसकी प्रजा उसे बहुत चाहती थी। एक दिन राजा एकांत में बैठा सोच रहा था। सोचते-सोचते वह गहराई में उतर गया। उसे लगा, इतनी सारी सुख-निधि पाकर भी आदमी दु:खी क्यों है? 

एक दिन उसने अपने दरबारियों को आज्ञा दी कि सबसे सुखी और तन्दुरुस्त आदमी को पकड़ कर लाओ। दरबारी और प्रजा हैरान। वे राजा की आज्ञा का पालन करने के लिए बहुत भटके, पर राजा जैसा चाहता था, वैसा एक भी आदमी नहीं मिला। उन्होंने दरबार में आकर राजा से कहा, "हे राजन् इस धरती पर पूर्ण सुखी और स्वस्थ कोई भी इंसान नहीं है। किसी को कोई दुख है तो किसी को कोई।"

सुनकर राजा स्तब्ध रह गया। फिर बोला, "तो क्या मेरे राज्य में सब दुखी और बीमार हैं? इस धरती पर कोई भी सुखी नहीं है। नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। जाओ, एक बार फिर खोजो।"

दरबारी क्या करते! फिर निकले। घूमते-घूमते वे एक निर्जन और वीरान जंगल से गुजरे। देखा, एक संत ध्यान में लीन हैं। वे वहीं जाकर बैठ गए। ध्यान खुलने पर संत ने पूछा, "तुम लोग कौन हो? कहां से आए हो?"

दरबारियों ने कहा, "हम राजा की आज्ञा मानकर सबसे सुखी और स्वस्थ प्राणी को खोजने निकले हैं।" सुनकर संत बोले, "क्या तुम्हें अब तक ऐसा कोई आदमी मिला है?"

दरबारियों ने कहा, "नहीं" इसके बाद साधु उनके साथ राजा के पास गए। राजा संत को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। संत ने कहा, "राजन्! तुम व्यर्थ ही परेशान होते हो। क्या तुम्हें पता है कि मनुष्य के हृदय में ही सुख का अपार भंडार भरा पड़ा है? जरा टटोलो तो अपने को। सुख की खोज में जैसे कस्तूरी मृग इधर-उधर भटकता है, वैसे ही तुम भटक रहे हो। सुख के लिए बाहर नहीं, भीतर देखना होता है।"

राजा का हृदय पुलक उठा। उसकी समस्या हल हो गई।

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