भारतीय समाज में गुरु का स्थान गोविंद से भी ऊंचा है। सूर्य दिन में प्रकाश देता है, चंद्रमा रात को परंतु गुरु शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर, ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है। इससे उसका सारा जीवन आलोकित रहता है। इस कारण गुरु को पुराणों में एक तीर्थ बताया गया है। ऐसी ही एक गुरु तीर्थ कथा पढ़िए :
प्राचीन काल में भार्गव वंश में च्यवन नामक एक मुनि हुए थे। वे समस्त तीर्थो का सेवन करके नर्मदा नदी के तट पर पहुंचे। वहां पर चामर कैटभ नामक तीर्थ में स्नान करके समीप में स्थित एक वट वृक्ष की छाया में विश्राम करने के विचार से बैठ गए। वृक्ष पर कुछ पक्षी परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। महर्षि पक्षियों की बोली का ज्ञान रखते थे, इसलिए वे बड़ी उत्सुकता के साथ उनका संवाद सुनने लगे।
उस वृक्ष पर कुंजल नामक एक शुक रहा करता था। वह चिरंजीवी था। उसे चार पुत्र थे- उज्वल, समुज्वल, विज्वल, कपिंजल। वे अपने माता-पिता की सेवा करते उसी वृक्ष पर निवास करते थे। वे प्रतिदिन जंगलों, वनों तथा अन्य द्वीपों में जाकर फलों का संग्रह कर ले आते और अपने माता-पिता का पालन पोषण करके उनको प्रसन्न रखा करते थे।
एक दिन कुजल ने अपने ज्येष्ठ पुत्र उज्जवल को बुलाकर पूछा, "बेटा, आज तुम किस दिशा में गए, वहां की गई विशेषता हो, तो बताओ।"
"पिता जी, मैं प्रतिदिन फल लाने के लिए पल्क्ष द्वीप में जाया करता हूं। उस द्वीप का राजा दिवोदास है। उनकी पुत्री दिव्यदेवी अनुपम सुंदरी और शीलगुण संपन्न है। राजा ने अपनी पुत्री का विवाह योग्य वर के साथ करने का संकल्प किया और द्वीप सेनापति चित्रसेन के साथ दिव्यदेवी का विवाह निश्चय किया।"
विवाह की तैयारियां हो रही थीं कि दुर्भाग्यवश चित्रसेन का देहांत हुआ। राजा दिवोदास चिंता में डूब गए। उनकी समझ में न आया कि अब क्या किया जाय। उन्होंने राज पुरोहित को बुलाकर अपनी चिंता व्यक्त की और पूछा, "द्विजज्येष्ठ! मेरी कन्या के विवाह का निर्णय होने के पश्चात वर का निधन हो गया है। ऐसी स्थिति में कन्या का विवाह अन्य वर के साथ संपन्न करना धर्मसंगत है या नहीं? आप निर्णय करके बता दीजिए।"
इस पर राज पुरोहित ने धर्मशास्त्र का हवाला देते हुए कहा, "राजन! धर्मसूत्र बताते हैं कि वर का निर्णय होने के पश्चात भी यदि वह संन्यास ग्रहण करता है या भयंकर व्याधि से पीड़ित होता है अथवा अपराधी घोषित होता या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो ऐसे संदर्भो में वाग्दत्ता कन्या का विवाह अन्य वर के साथ संपन्न किया जा सकता है। केवल किसी कन्या का किसी युवक के साथ विवाह करने का निर्णय मात्र से वर को पतित्व प्राप्त नहीं होता। धर्माशास्त्रानुसार पाणिग्रहण संस्कार के साथ सप्तपद संपन्न होने पर ही वर को पतित्व की सिद्धि प्राप्त होती हैं। अत: आप अपनी कन्या का विवाह अन्य वर के साथ कर सकते हैं। यह शास्त्रसम्मत है।"
राज पुरोहित तथा अन्य वेदविदों की सलाह पाकर राजा दिवोदास ने इस बार अपनी पुत्री दिव्यदेवी का विवाह रूपसेन नामक युवक के साथ करने का निश्चय किया, परंतु आश्चर्य की बात है कि विवाह के समय ही रूपसेन काल का ग्रास बन गया। इस प्रकार दिव्यदेवी के विवाह के निर्णय के पश्चात एक-एक करके एक सौ एक वरों का निधन हो गया।
अंत में दिवोदास ने वेदविदों के निर्णयानुसार अपनी पुत्री को स्वयंवर का प्रबंध किया। स्वयंवर में आगत राजकुमार दिव्यदेवी के रूप लावण्य पर मोहित हो अपनी पत्नी बनाने के विचार से परस्पर लड़कर मर गए। राजा दिवोदास अपनी पुत्री के स्वयंवर के विफल हुए देख दुख में डूब गए। दिव्यदेवी शोक संतप्त हो विरागनी बनी और पर्वत की एक गुफा में तपस्या में लीन हो गई है। यह दृश्य मैंने प्रत्यक्ष स्पष्ट में देखा है। उनकी इस दुस्थिति का कारण क्या है, "मैं आपके श्रीमुख से जानना चाहता हूं।"
अपने पुत्र उज्ज्वल के मुंह से यह वृत्तांत सुनकर कुंजल ने दिव्यदेवी के पूर्वजन्म का वृतांत सुनाना आरंभ किया। "मेरे प्रिय पुत्र, सुनो। प्राचीन काल में पापहारिणी महानगरी वाराणसी में 'सुवीर' नामक एक वणिक श्रेष्ठ रहा करते थे। उनकी पत्नी 'चित्रा' दुराचारिणी, कलहप्रिय और परपुरुषगामिनी थी। उसके इस दुर्व्यवहार से रुष्ठ होकर सुवीर ने उसको अपने घर से निकाल दिया। चित्रा वारांगना बनकर देशाटन करते संपन्न परिवारों के अनेक युवकों और वीरों को प्रवंचित करती रही। साथ ही उनके साध्वी एवं सदाचारिणी गृहिणियों को प्रलोभन देकर पथभ्रष्ट किया और इस प्रकार उस दुष्टा ने अनेक युवकों को मोहजाल में फंसाकर एक सौ एक परिवारों का सर्वनाश कर दिया।"
संयोग्य की बात है, एक दिन उस पतिता चित्रा के घर एक क्षुधाग्रस्त सिद्ध पुरुष आ पहुंचा। उसके वस्त्र धूल धूसरित थे। उसका म्लान मुख मंडल देख चित्रा द्रवित हुई। स्नान भोजन कराकर उसका उपचार किया। इस पुण्य कार्य के कारण चित्रा अगले जन्म में दिव्यदेवी के नाम से राजा दिवोदास क पुत्री के रूप में पैदा हुई। इस जन्म में वह सुशीला होने के बावजूद भी पूर्वजन्म में एक सौ एक परिवारों का विनाश कारण बनी थी, परिणामस्वरूप उसे एक सौ एक पतियों की मृत्यु को देखना पड़ा।
"पुत्र, तुम्हारे मन में अब यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या उस दुष्टा को मुक्ति प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं? हां, है। अपने पति को वंचित एवं अपमानित करनेवाली गृहिणी को अपने पापों से मुक्त होने के लिए वेदविदों ने 'अशून्य शयन' नामक व्रत का विधान किया है। उस व्रत का आचरण करने पर वह अपने पापों से मुक्त हो सकती है। उसे निर्मल हृदय से विष्णु का ध्यान करना होगा। भौतिक क्लेशों से विमुक्त होने के लिए आत्म ज्ञान प्राप्त करना होगा। हे पुत्र, तुम इसी वक्त जाकर उस देव्येदेवी को शास्त्रोक्त विधिपूर्वक उपदेश दे दो। वह मुक्ति लाभ कर सकती है। विलंब न करो।"
अपने पिता का आदेश पाकर ज्वल दिव्यदेवी की तपोभूमि गुफा के समीप पहुंचा। उसके दर्शन करके विनम्र भाव से पूछा, "देवी! तुम कौन हो? किसने तुम्हारा अहित किया है? इस गुफा में निवास करने का कारण क्या है?"
दिव्यदेवी ने अपना संपूर्ण वृत्तांत सुनाकर पूछा, "आपकी वाणी सुनकर मेरे मन को अपार शांति हुई। क्या मैं जान सकती हूं कि इस शुरू रूप को प्राप्त आप वास्तव में कौन हैं? सिद्ध हो, विद्याधर हो, यक्ष या गंधर्व हो या कोई देवता हो? मुझे स्पष्ट बताकर मेरा जन्म धन्य कीजिए।"
"मैं कोई सिद्ध, साध्य या गंधर्व नहीं हूं। एक पक्षी हूं। तुम्हें इस दुस्थिति से विमुक्त कराने के लिए मेरे पिताश्री का आदेश मानकर उनका संदेश बताने आया हूं। मेरे पिताजी ने आपको अशून्य शयन नामक व्रत, हरिनामशत, निर्मल ध्यान और आत्मज्ञान को तुम्हारी मुक्ति के हेतुभूत हैं, तुम्हें इन चारों तत्वों का उपदेश देने के हेतु भेजा है। सुनो, मैं उनका विधान बताता हूं।"
उज्जवल के मुंह से उपदेश पाकर दिव्यदेवी ने पवित्र आशय के साथ अशुन्य शयन का व्रत का आचरण किया। महाविष्णु के शत नाम का जाप किया। निर्मल विष्णु स्वरूप का ध्यान किया और अपने आत्मज्ञान का रहस्य जान लिया। इस प्रकार वह जीवनमुक्ति को प्राप्त हुई।
उज्जवल ने लौटकर अपने पिता को सारा वृत्तांत सुनाया। इस पर कुंजल ने उज्जवल को समझाया, "वत्स, आचार्य या गुरु के सान्निध्य से प्राप्त आत्मज्ञान मानव को महामानव बना देता है, इसीलिए हमारे देश में आचार्य को देवता सम बताया गया है।"
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