काल की महिमा अपरम्पार है। कोई निश्चित रूप से यह नहीं बता सकता कि किस घड़ी या पल में क्या घटित होने वाला है। ज्योतिष शास्त्र के महापंडित हालांकि भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाओं को राशि, नक्षत्र और दशाभुक्ति के आधार पर गुनकर फल निर्धारित करते हैं, परंतु पुराणों में कुछ ऐसी कथाओं का वर्णन है जब विधाता व यमराज को भी अपनी लिपि व लेख बदलने-सुधारने पड़े थे।
कालचक्र के परिभ्रमण में घटित होने वाले कुछ ऐसे प्रसंग हैं जो देव, दानव व मानव समुदाय को विस्मय में डाल देते हैं। वैसे स्थल, गुण, विद्या और तपस्या का अपना महत्व होता है। इसी प्रकार ऋतु और मास का भी महात्म्य होता है। ऐसी ही एक कथा पद्मपुराण में माघ मास के महात्म्य पर भी वर्णित है। माघ मास का महात्म्य माधु पुराण में बताया गया है। यह कथा वशिष्ठ ने चक्रवर्ती राजा दिलीप को सुनाई थी।
प्राचीन काल में मृगश्रृंग नाम के एक महामुनि रहा करते थे। उनके एक पुत्र मृकंड थे। मृकंड के कोई संतान नहीं थी। पुराणों में कहा गया है 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' इसलिए वे चिंतित रहने लगे। पुत्र की प्राप्ति के लिए उन्होंने पुण्य नगरी काशी में जाकर तपस्या करने का निश्चय किया। इसी उद्देश्य से वे काशी यात्रा पर चल पड़े। उस समय उनके साथ राष्ट्र विवर्धन नामक राजा भी निकल पड़े। उन्होंने रास्ते में यात्रियों को काशी का महात्म्य सुनाया।
दरिद्रस्य कुभार्यस्य कुपुत्रस्य कुरुपिणि।
येषां क्वपि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गति:।।
अर्थात दरिद्र, दुष्ट पत्नीवाले गृहस्थ, दुष्ट पुत्रवाले पिता व कुरूपियों के लिए वाराणसी ही एकमात्र शरणस्थली है। काशी पहुंचकर मृकंड ने अपनी पत्नी के साथ एक वर्ष तक काशी के 64 घाटों में तीर्थ स्नान किया। विघ्नेश्वर, अन्नपूर्णा व विश्वेश्वर की पूजा की। उसके पश्चात डुडि विघ्नेश्वर की प्रतिमा के सामने मृकंड ने एक शिवलिंग की स्थापना की जो मृकंडीश्वर लिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनकी पत्नी परुदृति ने मणिकर्णिकाघाट के पश्चिम में एक शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। गोमती और गोदावरी नदियों में भी तीर्थ स्नान करके अन्न-जल त्याग कर केवल वायु का सेवन करते हुए शिवजी के प्रति घोर तपस्या की। लेकिन इससे भी कोई प्रयोजन सिद्ध न होते देख मृकंड ने सूर्य को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की।
देवता मृकंड के तप पर भयभीत हो शिवजी की शरण में गए। शिवजी ने अभयदान देकर देवताओं को वापस भेज दिया। मृकंड के सामने प्रकट होकर शिव ने पूछा, "मृकंड, मैं तुम्हारी भक्ति पर प्रसन्न हूं। बताओ, तुम्हें चरित्रहीन, चिरंजीवी पुत्र चाहिए या चरित्रवान 16 वर्ष की आयुवाला पुत्र।"
मृकंड, ने अपनी पत्नी की सलाह लेकर उत्तर दिया, "महादेव, हमें गुणशील, पुत्र ही प्रदान कीजिए।" महेश्वर 'तथास्तु' कहकर अदृश्य हो गए। मृकंड अपने नगर को लौट आए। उनकी पत्नी परुदृति ने नौ महीने के बाद एक पुत्र को जन्म दिया। महर्षि व्यास ने उस बालक का मरक डेय नामकरण किया।
मरक डेय दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। एक दिन देवमुनि नारद मृकंड मुनि के निवास पर महुंचे। अघ्र्य पाद्य पाकर नारद मुनि ने बालक मरक डेय को अपनी जांघ पर बिठाया। आपादमस्तक बालक को देखकर नारद ने कहा, "मुनिवर, आपके पुत्र के कर, चरण और कंठ पर मत्स्य रेखाएं हैं। वैसे यह बालक अत्यंत योगकारक है, लेकिन इसकी आयु केवल सोलह वर्ष है।" नारद के मुंह से यह बात सुनकर मरक डेय के माता-पिता दुखी हुए और वे बड़ी सावधानी से उस बालक का पालन पोषण करने लगे।
अपनी कथा को आगे बढ़ाते हुए वशिष्ठ महर्षि ने कहा, "हे चक्रवर्ती दिलीप! एक दिन हम सप्तर्षि-कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम और मैं मृकंड के आश्रम में गए। उस बालक को सबने 'चिरंजीवी भव' कहकर आशीर्वाद दिया। बालक मरक डेय ने सभी महर्षियों के चरणों में साष्टांग दंडवत किया। जब वह मेरे पास आया तब मैंने उसे प्रणाम करने से मना किया। इस पर शेष महर्षियों ने मेरे वचन सुनकर आश्चर्य प्रकट किया।"
महर्षि ने उन्हें समझाया, "आप सबने इस बालक को 'चिरंजीवी भव' कहकर आशीर्वाद दिया लेकिन परमेश्वर ने इसको केवल सोलह वर्ष की अल्पायु प्रदान की है। ऐसी हालत में मैं इस बालक को 'चिरंजीवी भव' कहकर कैसे आशीर्वाद दे सकता हूं?"
इस पर ऋषियों ने आश्चर्य में आकर कहा, "आप ही बताइए, ऋषियों के आशीर्वाद कैसे व्यर्थ हो सकते हैं।" इसके बाद सब महर्षि परस्पर विचार करके मरक डेय को विधाता के पास ले गए। विधाता ने भी बालक को देख प्रसन्न हो 'चिरंजीवी' कहकर आशीर्वाद दिया। मैंने अपने मानस पिता से पूछा, "पिताश्री, आपने इस बालक को 'चिरंजीवी' कहकर आशीर्वाद दिया, महादेव ने तो इस बालक को केवल सोलह वर्ष की आयु प्रदान की है। इसकी आयु अब एक वर्ष में समाप्त होने वाली है।"
"वत्स, सुनो। शिवजी सर्वेश्वर हैं। उन्होंने ही विष्णु, गरुड़, प्रह्लाद, शुक महर्षि, हनुमान, राजा बलि, बाणासुर, ध्रुव, विभीषण और मुझे भी चिरंजीवी बनने का आशीर्वाद दिया था। उन्हीं की कृपा से मरक डेय भी चिरंजीवी हो सकता है।"
यह कर कर ब्रह्मा ने शिवजी का ध्यान किया और कहा, "वत्स, महादेव भोला शंकर है। कोई भी उनकी स्तुति और ध्यान करके उनका अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं। तुम भूलोक में जाकर उनका ध्यान करो।"
ब्रह्मलोक से लौटकर मरक डेय ने अपने माता-पिता को प्रणाम किया। तब मरुदृति अपने अल्पायु पुत्र को देख रो पड़ी। मरक डेय ने समझाया, "जननी, आप चिंता न करें। मैं परमेश्वर के प्रति तपस्या करके उनको प्रसन्न कर वरदान प्राप्त करूंगा और चिरंजीवी होकर लौटूंगा। आप मुझे आज्ञा दीजिए।" इसके बाद अपने पिता के चरणों में प्रणाम करके मरक डेय ने उनकी अनुमति मांगी।
तब मृकंड ने अपने पुत्र मरक डेय को समझाया, "पुत्र, महान व्यक्तियों का मानना है कि गोदावरी तट पर स्थित सिद्धि क्षेत्र में तपस्या करने पर शीघ्र ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसलिए तुम वहां जाकर महेश्वर की तपस्या करो। उस स्थल का महात्म्य वर्णनातीत है।" मरक डेय ने गोदावरी के तट पर पहुंचकर एक स्थान पर शिवलिंग की प्रतिष्ठा करके परमेश्वर के प्रति ध्यान करना आरंभ किया।
एक दिन ब्रह्मा देवताओं व सप्तर्षियों को साथ लेकर कैलाश में पहुंचे। शिवजी के दर्शन उन्होंने निवेदन किया, "हे विश्वेश्वर, आपने मरक डेय को अल्पायु प्रदान की। मैंने व इन सात ऋषियों ने उसको 'चिरंजीवी भव' कहकर आशीर्वाद दिया है। कल उसकी सोलह वर्ष की आयु समाप्त होने वाली है। हमारे आशीर्वाद व्यर्थ जाएंगे। आप कृपा करके हमारे आशीर्वादों को सफल बनाने का अनुग्रह कीजिए।"
"आप लोग चिंता न करें। आप सबके आशीर्वाद को मैं सफल बनाऊंगा।" यों उन्हें समझाकर परमेश्वर ने सबको विदा कर दिया उसके पश्चात परमेश्वर पार्वती के साथ अपने नंदी वाहन पर आरूढ़ हो मरक डेय के समीप पहुंचे। मरक डेय शिवजी के ध्यान में मग्न थे। उसी समय न्यायपालक यमराज अपने महिष वाहन पर सवार हो वहां पहुंचे और अपने काल-पाश को मरक डेय पर फेंक दिया।
मरक डेय ने विचलित हुए बिना निवेदन किया, "महानुभाव, मैं परमेश्वर के ध्यान में शिवजी का स्तोत्र किए बिना अन्न-जल भी नहीं ग्रहण करता। कृपया आप मेरा व्रत भंग न करें। आप थोड़ी देर रुक जाइए।" लेकिन यमराज ने अट्टहास करके कहा, "तुम्हारी आयु समाप्त हो चुकी है। तुम अपने धर्मोपदेश मत दो। तुम नहीं जानते कि ब्रह्मा, विष्णु व महेश्वर भी काल के अधीन हैं।" यह कहकर यमराज ने मरक डेय के कंठ को लक्ष्य कर अपने पाश को फेंका। मरक डेय की पुकार सुनकर उसी समय पार्वती के साथ प्रवेश करके परमेश्वर ने यमराज के वक्ष पर जात मार दी। यमराज नीचे गिर गए।
मरक डेय ने अपने नेत्र खोलकर देखा, सामने कैलाशपति परमेश्वर पार्वती समेत प्रत्यक्ष हैं और उनके साथ ब्रह्मा वगैरह देवता व प्रमथगण भी उपस्थित हैं। वह पुलकित हो प्रसन्नतावश पार्वती-परमेश्वर के चरणों पर गिर पड़े। तब उस आदि दंपत्ति ने मरक डेय को हाथ पकड़कर उठाया। मरक डेय ने विनीत भाव से हाथ जोड़कर शिव की स्तुति की और प्रार्थना की, "हे महादेव, मुझे एक कल्पांत तक बिना किसी प्रकार की जरा-व्याधि और मृत्यु के जीवित रहने का वरदान दीजिए।"
"वत्स, ब्रह्मा ने तुम्हें सात कल्पांत तक जीवित देखना चाहा है। मैं उनके संकल्प को सत्य प्रमाणित करना चाहता हूं।" यह कहकर वे पार्वती समेत अंतर्धान हो गए। इसके बाद घर लौटकर मरक डेय ने मृत्यु पर विजय पाकर चिरंजीवी होने का समाचार अपने माता-पिता को सुनाया। वे अपने मृत्युंजय पुत्र को देख परमानंदित हुए। एक दिन अपने माता-पिता की अनुमति लेकर मरक डेय तीर्थाटन पर चल पड़े। गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, तुंग भद्रा आदि पुण्य नदियों में माघ स्नान करके पुण्य के भागी बने।
यह कहानी सुनाकर वशिष्ठ ने राजा दिलीप को समझाया, "यह सब माघ मास के तीर्थ स्नान का अनुपम फल है।"
पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार
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