एक दृष्टिहीन ने 'अंधेरी दुनिया' को दिए थे ज्ञानचक्षु

नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि का निर्माण करने के लिए लुई ब्रेल जगत प्रसिद्ध हैं। फ्रांस में जन्मे लुई ब्रेल ज्ञान के चक्षु बन गए। ब्रेल लिपि के निर्माण से नेत्रहीनों की पढ़ने की कठिनाई को मिटाने वाले लुई स्वयं भी नेत्रहीन थे। लुई ने अपनी सारी सीमाओं को ताक पर रखकर जिंदगी की मांग को सर आखों पर बिठाया और वह कर दिखाया जिससे आज अनगिनत आंख वालों को भी मानवता के माने समझने की रोशनी मिल रही है। लुई ब्रेल का जन्म चार जनवरी 1809 में फ्रांस के छोटे से गांव कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था।

एक दिन काठी के लिए लकड़ी को काटने में इस्तेमाल किया जाने वाला चाकू अचानक उछलकर इस नन्हे बालक की आंख में जा लगी और बालक की आंख से खून की धारा बह निकली। रोता हुआ बालक अपनी आंख को हाथ से दबाकर सीधे घर आया और घर में साधारण जड़ी-बूटी लगाकर उसकी आंख पर पट्टी कर दी गई। बालक लुई की आंख के ठीक होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। कुछ दिन बाद इस बालक को दूसरी आंख से भी कम दिखलाई देने लगी। उसके पिता साइमन की साधनहीनता के चलते बालक की आंख का समुचित इलाज नहीं कराया जा सका।

पिता ने चमड़े का उद्योग लगाया था, जिसमें उत्सुकता रखने वाले लुई ने अपनी दूसरी आंख की रोशनी भी एक दुर्घटना में गंवा दी। यह दुर्घटना लुई के पिता की कार्यशाला में हुई, जहां एक लोहे का सूजा लुई की आंख में घुस गया। यह बालक मगर कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से जूझने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। लुई ने हार नहीं मानी। पादरी बैलेंटाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस 10 वर्षीय बालक को 'रायल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड्स' में दाखिला मिल गया। वर्ष 1821 में बालक लुई को पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत्त कैप्टन चार्ल्स बार्बर ने सेना के लिए ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों को पढ़ सकते थे। कैप्टन बार्बर का उद्देश्य युद्ध के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था।

इधर, बालक लुई का मष्तिष्क भी उसी तरह टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए पढ़ने की संभावना ढूंढ़ रहा था। उसने पादरी बैलेंटाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टन बार्बर से मुलाकात चाहता है। पादरी ने लुई की कैप्टन से मुलाकात की व्यवस्था कराई। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टन के द्वारा सुझाई गई कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किए। कैप्टन उस दृष्टिहीन बालक का आत्मविश्वास देखकर दंग रह गए। अंतत: पादरी बैलेंटाइन के इस शिष्य के द्वारा बताए गए संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।

लुई ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किए और अंतत: 1829 में छह बिंदुओं पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुए। लुई ब्रेल के आत्मविश्वास की अभी और परीक्षा बाकी थी, इसलिए उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशास्त्रियों ने मान्यता नहीं दी, बल्कि उसका माखौल उड़ाया गया। लुई ने सरकार से प्रार्थना की कि उसके द्वारा ईजाद की हुई लिपि को दृष्टिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता दी जाए। लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी बात नजरअंदाज कर दी गई। अपने प्रयासों को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए संघर्षरत लुई 43 वर्ष की अवस्था में जीवन की लड़ाई हार गए। उनका देहांत 6 जनवरी 1952 को हुआ।

उनके द्वारा अविष्कृत ब्रेल लिपि उनकी मृत्यु के बाद दृष्ठिहीनों के बीच लगातार लोकप्रिय होती गई। लुई की मृत्यु के बाद शिक्षा शास्त्रियों ने उनके किए कार्य की गंभीरता को समझा और अपने दकियानूसी विचारों से बाहर निकालकर इस लिपि को मान्यता देने की सिफारिश की। लुई की मृत्यु के पूरे सौ साल बाद फ्रांस में 20 जून, 1952 का दिन उनके सम्मान का दिवस निर्धारित किया गया। इस प्रकार एक राष्ट्र के द्वारा अपनी ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित किया गया। लुई द्वारा ईजाद लिपि अकेले फ्रांस के लिए न होकर संपूर्ण विश्व की दृष्टिहीन मानव जाति के लिए वरदान साबित हुई। 

पर्दाफाश से साभार

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