दीवानगी ऐसी कि घर को बना दिया लता का मंदिर

दीवानगी को सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता और न ही उसका जानने का कोई पैमाना होता है। इसका प्रमाण है मध्य प्रदेश के इंदौर में स्वर कोकिला लता मंगेशकर की दीवानी वर्षा झालानी का घर, जो मंदिर में बदल चुका है। उन्होंने तो अपने घर का नाम ही लताश्रय रख दिया है।

लता की दीवानी वर्षा झालानी इंदौर के ओल्ड पलासिया क्षेत्र के सकेत नगर में रहती हैं। वर्षा का घर बाहर से तो आम मकानों जैसा ही है, मगर अंदर का नजारा अचरज पैदा कर देने वाला होता है, क्योंकि दरवाजे से लेकर हर तरफ सिर्फ एक ही तस्वीर नजर आती है और वह है लता मंगेशकर की। लता के जीवन से जु़ड़ी शायद ही कोई फोटो हो जो इस मकान में न सजी हो और न ही मकान का कोई ऐसा कोना है जहां लता न नजर आएं।

वर्षा का जीवन ही लता के इर्द गिर्द घूमता है। दिन की शुरुआत लता के गीत से होती है तो रात भी। सुबह और शाम उनकी आरती उतरती है। उसका कहना है कि लता ताई के रूप में इस धरती पर साक्षात मां सरस्वती ने जन्म लिया है।

लता के प्रति वर्षा में यह दीवानगी अचानक नहीं जगी है, बल्कि वह कहती हैं कि लता के प्रति उसकी यह दीवानगी जन्मजात है। उसकी मां भी लता की दीवानी थीं। जब वह गर्भ में थी तो मां भगवान से सिर्फ यही प्रार्थना करती थी कि उसके घर में बेटी पैदा हो और वह बड़ी होकर लता की तरह ही अपनी आवाज का जादू बिखेरे।

वह बताती है कि मां उन दिनों सिर्फ लता ताई के ही गाने सुना करती थीं। जब वह छोटी थी तो मां रेडियो में बजने वाले लता के गाने उसे भी सुनाती थी। जैसे-जैसे बड़ी होती गई लता ताई के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहने लगी, जिन दिनों बच्चे खिलौनों की मांग किया करते थे, वर्षा लता के गानों के कैसेट मांगती थी।

वर्षा को जेब खर्च के लिए जो पैसे मिलते थे, उसमें से बचत कर वह लता के कैसेट खरीद लाती थी। वह बताती है कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, वैसे-वैसे लता के प्रति उसका समर्पण बढ़ता गया, आज उसके लिए यदि कोई भगवान है और वह पूजा करती है तो सिर्फ लता की। घर में उनका मन्दिर भी है। इसी मन्दिर के सामने बैठकर वह घंटों लता के गाए गानों का रियाज करती है।

पूरा देश शनिवार 28 सितंबर को लता मंगेशकर का जन्मदिन मना रहा है और वर्षा भी अपने देवता को अपने तरह से याद कर रही है। वर्षा के लिए आज सबसे खुशी का दिन है।

वर्षा बताती है कि उसने संगीत की शिक्षा तो ली है, लेकिन उसका कोई गुरु नहीं है। वह सिर्फ लता को ही अपना गुरु मानती है। वर्षा की लता से मुलाकात हो चुकी है और लता ने उसे आशीर्वाद भी दिया था कि वह खूब तरक्की करे, साथ ही रियाज का सिलसिला भी जारी रखे। वर्षा लता के गाए गानों को एक नहीं बल्कि बारह भाषाओं में गा सकती है। टीवी चैनल के एक रियलिटी शो से लता के गाने गाकर अपनी पहचान बनाने वाली वर्षा अपने देवता की दीर्घायु की कामना करती है।

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शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयंती पर विशेष.....

आधुनिक विश्व में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने सरदार भगत सिंह की तरह कम उम्र में ही अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने का प्रयास किया हो। भगत सिंह बुद्धिजीवी थे, लेकिन शहीद-ए-आजम का यह पक्ष अब तक अप्रचारित है। उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के इस पहलू की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो स्वयं को भगत सिंह की परंपरा के ध्वजवाहक कहते हैं।

भगत सिंह जब 17 वर्ष के थे, तो 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर आयोजित एक राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता में उन्होंने हिस्सा लिया था। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'मतवाला' में उन्होंने एक लेख लिखा था और उसी लेख को इस प्रतियोगिता में भेज दिया। भगत सिंह को इस लेख के लिए 50 रुपये का प्रथम पुरस्कार मिला था।

भगत सिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार था। भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह विचारक, लेखक और देशभक्त नागरिक थे। उनके पिता खुद एक बड़े देशभक्त थे। उनका भगत सिंह के जीवन पर गहरा असर पड़ा। लाला छबीलदास जैसे पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगत सिंह ने दीमक की तरह चाट डाली थी। पुस्तकालय प्रभारी ने कहा था कि भगत सिंह किताबों को पढ़ता नहीं था, वह तो निगलता था। भगत सिंह को फांसी होने वाली थी, फिर भी वह अपने अंतिम समय तक रोज किताबें पढ़ रहे थे। भगत सिंह मृत्युंजय थे।

भगत सिंह को हिंदी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भाषा भी आती थी, जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी। जेल में भगत सिंह करीब दो साल रहे। इस दौरान वह लेख लिखकर अपने क्रांतिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। जेल प्रवास के दौरान उनके लिखे लेख व सगे-संबंधियों को लिखे पत्र वस्तुत: उनके विचारों के दर्पण हैं।

भगत सिंह मानते थे कि केवल अंग्रेजों के चले जाने से देश की आजादी का सपना पूरा नहीं हो सकता। केवल गोरे साहबों के स्थान पर भूरे साहबों का शासन होने से देश की बहुसंख्यक गरीब जनता का भला नहीं होने वाला है। इसलिए भगत सिंह ने समाजवादी विचारों का प्रचार करने और देश में समाजवादी शासन की स्थापना का सपना देखा।

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गांव में हुआ था, जो इस समय पाकिस्तान में है। उनके पिता का नाम किशन सिंह और मां का नाम विद्यावती कौर था। इस सिख परिवार ने आर्य समाज के विचारों को अपना लिया था। उनके परिवार पर आर्य समाज और महर्षि दयानंद की विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा था। क्रांतिकारी भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को मात्र 23 वर्ष की अवस्था में फांसी दे दी। वह शहीद-ए-आजम कहलाए और आज भी लाखों युवाओं के दिल में बसते हैं। 

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दुरुस्त दिल के लिए भ्रमों से रहें दूर

हृदयरोग से जुड़े ऐसे कई मिथक हैं, जो पूरी तरह बेबुनियाद होने के बावजूद अधिकांश लोगों के दिमाग में घर किए रहते हैं। ये गलत-सही जानकारियां हमें कहीं से भी मिल सकती हैं, लेकिन इन पर विश्वास करना हमारे हृदय के लिए हानिकारक हो सकता है।

हृदय विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें हृदयरोगियों का उपचार करते समय उन्हें रोगियों के ऐसे कई मिथकों को भी दूर करना पड़ता है। कुछ मिथक तो बहुत आम होते हैं और इन मिथकों को तोड़कर सही तथ्य स्पष्ट करने मात्र से रोगियों के हृदय को लंबे समय तक स्वस्थ रखा जा सकता है।

विख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ अशोक सेठ के अनुसार, हृदयरोग से जुड़े मिथकों में सबसे आम धारणा यह है कि हर तरह का व्यायाम हृदय के लिए लाभकारी होता है। सेठ ने बताया, "तेज गति से 45 मिनट टहलना या एरोबिक्स करना दिल के लिए स्वास्थ्यकर होता है। लेकिन जरूरी नहीं है कि भारोत्तोलन और कसरत भी दिल के लिए लाभकारी ही हो।"

लोगों में आम धारणा यह भी है कि महिलाओं में दिल की बीमारी का खतरा कम होता है। सेठ ने बताया, "महिलाओं की मृत्यु के सबसे बड़े कारकों में दिल की बीमारी ही है, बल्कि स्तन कैंसर की अपेक्षा छह गुना अधिका महिलाओं की मौत दिल की बीमारी से होती है।"

उन्होंने आगे बताया कि पुरुषों को हल्की परेशानी होते ही वे चिकित्सक के पास चले जाते हैं, लेकिन सहनशक्ति अधिक होने के कारण महिलाएं हल्की-फुल्की परेशानी यूं ही झेल जाती हैं।उन्होंने यह भी बताया कि कई बार तो चिकित्सक के पास जाने पर कैंसर तक की जांच लिख दी जाती है, लेकिन दिल की जांच नहीं करवाई जाती।

दिल्ली के मैक्स अस्पताल में हृदयरोग विशेषज्ञ के.के. तलवार ने भी इन बातों का समर्थन किया। उन्होंने बताया, "महिलाओं में एस्ट्रोजन हार्मोन के रहने से वे कुछ हद तक इससे संरक्षित तो रहती हैं, लेकिन धुम्रपान, अस्वास्थ्यकर भोजन करने की आदत और गर्भनिरोधक दवाएं लेने के कारण उनमें भी दिल की बीमारी का खतरा काफी होता है। मेनोपाज के बाद तो यह खतरा और बढ़ जाता है।"

इसके अलावा ऐसे ढेरों मिथक हैं, जिन्हें समाज के मस्तिष्क से दूर किए जाने की जरूरत है, जैसे युवाओं को दिल की बिमारी नहीं हो सकती या जब सीने के बाईं ओर दर्द हो तभी दिल की बीमारी की आशंका व्यक्त की जाती है। हृदयरोग विशेषज्ञ सुनीता चौधरी ने बताया कि दिल की बीमारी होने पर दाहिनी बांह, ऊपरी पेड़ू या आम तौर पर बाईं बांह में भी दर्द हो सकता है।

अधिकांश विज्ञापनों में कुछ विशेष तरह के खाद्य तेलों को हृदय के लिए अच्छा बताया जाता है, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह सच नहीं होता। हृदयरोग विशेषज्ञों का मानना है कि कई बार सही और गलत जानकारी में बहुत मामूली अंतर होता है, इसलिए सावधान रहने की जरूरत है।

विशेषज्ञों की सलाह :

-सक्रिय रहें : नियमित तौर पर प्रतिदिन 30 से 45 मिनट तक टहलने और हल्के व्यायाम करने से न सिर्फ आपका हृदय बल्कि पूरा शरीर स्वस्थ रहेगा।

- भोजन : अपने भोजन के प्रति सजग रहें। ताजी हरी सब्जियां और फल खाएं, मोटे अनाज की रोटी और चावल का सेवन करें तथा वसायुक्त भोजन से बचें। जंक फूड से भी बचें।

-धूम्रपान न करें

-शराब का संतुलित सेवन ही करें

-तनाव से मुक्त रहें।

एक प्रख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ ने बहुत व्यावहारिक बात कही है कि तनाव रहित नहीं रहा जा सकता, लेकिन उससे निजात पाने का पूरा प्रयास करना चाहिए। इसके लिए वह संगीत को सबसे बेहतर विकल्प बताते हैं। 

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विश्व हृदय दिवस पर विशेष: 'युवाओं को खानपान में सावधानी बरतने की जरूरत'

हृदय रोगों से पीड़ित भारतीयों की बढ़ती तादाद के बीच जीवनशैली व खान-पान की आदतों में बदलाव आज की जरूरत बन गई है। चिकित्सकों का कहना है कि युवाओं को समय रहते ही खानपान को लेकर सावधानी बरतने की आवश्यकता है, वरना अगले 10 वषरें में देश की आबादी लगभग 20 फीसदी लोगों को हृदय से संबंधित बीमारी से ग्रसित होने की आशंका है।

डा़. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ़ भुवन सी. तिवारी ने कहा कि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में एक हृदय ही है जिस पर सबसे ज्यादा बोझ पड़ता है। तनाव, थकान, प्रदूषण आदि कई वजहों से खून का आदान-प्रदान करने वाले इस अति महत्वपूर्ण अंग को अपना काम करने में मुश्किल होती है।

डॉ. तिवारी ने बताया कि युवाओं में हृदयाघात और हृदय संबंधी बीमारियों के बढ़ने का प्रमुख कारण धूम्रपान और मशालेदार एवं तली भुनी चीजों का अधिक मात्रा में सेवन करना है। इससे बचने के लिए रेशायुक्त भोजन करना चाहिए और व्यायाम को नियमित दिनचर्या का अंग बनाना अति आवश्यक है।

उन्होंने कहा कि पहले जहां 30 से 40 वर्ष तक के बीच हृदय की समस्याएं आंकी जाती थीं, आज यह 20 वर्ष से कम उम्र के लोगों में भी होने लगी है। ऐसे में हृदय की समस्याओं से बचने का एक ही उपाय है कि लोग खुद अपनी कुछ सामान्य जांच कराएं और हृदय संबंधी सामान्य समस्याओं को भी गंभीरता से लें।

उन्होंने कहा कि अगले पांच से 10 सालों में भारतीय आबादी का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा इससे प्रभावित होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 तक भारत में मौतों और विकलांगता की सबसे बड़ा वजह हृदय से संबंधित रोग ही होंगे।

हृदय के साथ होने वाली छेड़छाड़ का ही नतीजा है कि आज विश्व भर में हृदय रोगियों की संख्या बढ़ गई है। एक अनुमान के अनुसार, भारत में 10 . 2 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में हैं। पूरी दुनिया में हर साल 1 . 73 करोड़ लोगों की मौत इस बीमारी की वजह से हो जाती है और यदि हालातों पर काबू नहीं किया गया तो 2020 तक हर तीसरे व्यक्ति की मौत हृदय रोग से होगी।

चिकित्सकों के मुताबिक जीवनशैली व खान-पान में बदलाव लाकर हृदय रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। इससे बचने के लिए मशालेदार व अधिक तली भुनी चीजों से परहेज करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आजकल लोग अधिकतर समय कार्यालय में सिर्फ बैठकर अपना काम करते हैं। इस स्थिति में शरीर निष्क्रिय जीवनशैली का आदी बन जाता है। आज के युवा कार्यालय में तो बैठे बैठे काफी पीते हैं और फिर घर पर भी रात को देर तक टेलीविजन देखकर सुबह देर से जगते हैं और व्यायाम नहीं करते हैं। ऐसे में हृदय रोगों की आहट आना लाजमी है।

चिकित्सकों की मानें तो मधुमेह और हाइपरटेंशन के मरीजों को शुगर तथा रक्त चाप पर नियंत्रण रखना चाहिए। एक सप्ताह में कम से कम पांच दिन व्यायाम जरुरी है। तंबाकू का सेवन नहीं करना चाहिए। वसायुक्त भोजन का सेवन न करें साथ ही ताजे फल एवं सब्जियों का सेवन करना चाहिए। चिकनाई युक्त पदार्थ नहीं खाना चाहिए। चिकित्सक रचनात्मक और मनोरंजनात्मक कायरें में मन लगने की भी सलाह देते हैं।

बलरामपुर अस्पताल के योग विशेषज्ञ एऩ एल़ यादव कहते हैं कि तनाव के कारण मस्तिष्क से जो रसायन स्रावित होते हैं वे हृदय की पूरी प्रणाली को खराब कर देते हैं। तनाव से उबरने के लिए योग का भी सहारा लिया जा सकता है। हृदय हमारे शरीर का ऐसा अंग है जो लगातार पंप करता है और पूरे शरीर में रक्त प्रवाह को संचालित करता है। प्रतिदिन कम से कम आधे घंटे तक व्यायाम करना हृदय के लिए अच्छा होता है। 

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विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष: विदेशी सैलानियों में अमेरिका, ब्रिटेन का दबदबा

भारत आने वाले विदेशी सैलानियों में अमेरिका और ब्रिटेन के पर्यटकों का दबदबा रहा है। यह तथ्य भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय के 2011 और 2012 के आंकड़ों से उजागर होती है। 27 सितंबर को पूरी दुनिया में विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है और भारत में भी पर्यटन सत्र लगभग इसी समय शुरू होता है, जो अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर, जनवरी और फरवरी भर चलता है। इस दौरान होटलों और पर्यटन उद्योग से जुड़े कारोबार को काफी लाभ होता है।

पिछले कुछ महीने में डॉलर के मुकाबले रुपये में आई गिरावट के कारण अमेरिका तथा यूरोप के पर्यटकों के लिए भारत एक सस्ता गंतव्य बन गया है और इस नाते इस बार शीत ऋतु में देश में विदेशी सैलानियों की संख्या में भारी वृद्धि होने का अनुमान है। मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 में देश में आए विदेशी सैलानियों में अमेरिका का अनुपात 15.81 फीसदी था, जबकि ब्रिटेन का अनुपात 11.98 फीसदी था।

भारत की लगभग गोद में बसा बांग्लादेश अमेरिका और ब्रिटेन के बाद भारत आने वाले विदेशी सैलानियों में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। 2012 में बांग्लादेश का अनुपात 7.41 फीसदी रहा।अमेरिका, ब्रिटेन और बांग्लादेश से 2012 में क्रमश: 10,39,947 पर्यटक, 7,88,170 और 4,87,397 पर्यटक भारत आए थे। तीनों देश 2011 में विदेशी सैलानी भेजने वाले देशों में पहले, दूसरे और तीसरे स्थानों पर रहे थे और इनकी हिस्सेदारी भी लगभग इतनी ही (15.54 फीसदी, 12.65 फीसदी और 7.35 फीसदी) थी।

मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2012 में भारत में विदेशी सैलानी भेजने वाले 15 सबसे बड़े देशों की सूची और उनकी हिस्सेदारी इस प्रकार है : 1. अमेरिका (15.81 फीसदी), 2. ब्रिटेन (11.98 फीसदी), 3. बांग्लादेश (7.41 फीसदी), 4. श्रीलंका (4.51 फीसदी), 5. कनाडा (3.89 फीसदी), 6. जर्मनी (3.87 फीसदी), 7. फ्रांस (3.66 फीसदी), 8. जापान (3.34 फीसदी), 9. आस्ट्रेलिया (3.07 फीसदी), 10. मलेशिया (2.98 फीसदी), 11. रूस (2.70 फीसदी), 12. चीन मुख्य भूमि (2.57 फीसदी), 13. सिंगापुर (2.00 फीसदी), 14. नेपाल (1.91 फीसदी) और 15. कोरिया गणराज्य (1.66 फीसदी)।

2012 में देश के विदेशी सैलानियों में इन 15 देशों का अनुपात कुल 46,94,722 पर्यटकों के साथ 71.37 फीसदी रहा। इस वर्ष देश में कुल 65 लाख, 77 हजार, 745 विदेश सैलानी पहुंचे।महादेशों के मामले में 2012 में भारत आने वाले विदेशी सैलानियों में पश्चिमी यूरोप की हिस्सेदारी सबसे अधिक 18,53,066 पर्यटकों के साथ 28.17 फीसदी रही। दूसरे स्थान पर 12,95,968 पर्यटकों के साथ उत्तरी अमेरिका की हिस्सेदारी 19.70 फीसदी रही। तीसरे स्थान पर 11,71,499 सैलानियों के साथ दक्षिण एशिया की हिस्सेदारी 17.81 फीसदी रही। उपर्युक्त आंकड़ों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि पर्यटन उद्योग के विकास के लिए भारत को किस बाजार को लुभाने की कोशिश करनी चाहिए।

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लता मंगेशकर : आवाज ही पहचान है..

भारत रत्न से विभूषित भारत की 'स्वर कोकिला' लता मंगेशकर का गाया गीत 'नाम गुम जाएगा चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज ही पहचान है गर याद रहे' वास्तव में उनके व्यक्तित्व, कला और अद्वितीय प्रतिभा का परिचायक है। 28 सितंबर को लता जी अपने जीवन के 84 साल पूरे कर रही हैं। उन्होंने फिल्मों में पाश्र्वगायन के अलावा गर फिल्मी गीत भी गाए हैं। 

मध्य प्रदेश के इंदौर में 28 सितंबर 1929 को जन्मीं कुमारी लता दीनानाथ मंगेशकर रंगमंचीय गायक दीनानाथ मंगेशकर और सुधामती की पुत्री हैं। चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी लता को उनके पिता ने पांच साल की उम्र से ही संगीत की तालीम दिलवानी शुरू की थी। 

बहनों आशा, उषा और मीना के साथ संगीत की शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ लता बचपन से ही रंगमंच के क्षेत्र में भी सक्रिय थीं। जब लता सात साल की थीं, तब उनका परिवार मुंबई आ गया, इसलिए उनकी परवरिश मुंबई में हुई।

वर्ष 1942 में दिल का दौरा पड़ने से पिता के देहावासान के बाद लता ने परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ वर्षो तक हिंदी और मराठी फिल्मों में काम किया, जिनमें प्रमुख हैं 'मीरा बाई', 'पहेली मंगलागौर' 'मांझे बाल' 'गजा भाऊ' 'छिमुकला संसार' 'बड़ी मां' 'जीवन यात्रा' और 'छत्रपति शिवाजी'।

लेकिन लता की मंजिल तो गायन और संगीत ही थे। बचपन से ही उन्हें गाने का शौक था और संगीत में उनकी दिलचस्पी थी। लता ने एक बार बातचीत में बीबीसी को बताया था कि जब वह चार-पांच साल की थीं तो किचन में खाना बनाती स्टूल पर खड़े होकर अपनी मां को गाने सुनाया करती थीं। तब तक उनके पिता को उनके गाने के शौक के बारे में पता नहीं था। 

एक बार पिता की अनुपस्थिति में उनके एक शागिर्द को लता एक गीत के सुर गाकर समझा रही थीं, तभी पिता आ गए। पिताजी ने उनकी मां से कहा, "हमारे खुद के घर में गवैया बैठी है और हम बाहर वालों को संगीत सिखा रहे हैं।" अगले दिन पिताजी ने लता को सुबह छह बजे जगाकर तानपुरा थमा दिया।

लता के फिल्मों में पाश्र्वगायन की शुरुआत 1942 में मराठी फिल्म 'कीती हसाल' से हुई, लेकिन दुर्भाग्य से यह गीत फिल्म में शामिल नहीं किया गया। कहते हैं, सफलता की राह आसान नहीं होती। लता को भी सिनेमा जगत में कॅरियर के शुरुआती दिनों में काफी संघर्ष करना पड़ा। उनकी पतली आवाज के कारण शुरुआत में संगीतकार फिल्मों में उनसे गाना गवाने से मना कर देते थे। 

अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर हालांकि धीरे-धीरे उन्हें काम और पहचान दोनों मिलने लगे। 1947 में आई फिल्म 'आपकी सेवा में' में गाए गीत से लता को पहली बार बड़ी सफलता मिली और फिर उन्होंने पीछे मुढ़कर नहीं देखा। 

वर्ष 1949 में गीत 'आएगा आने वाला', 1960 में 'ओ सजना बरखा बहार आई', 1958 में 'आजा रे परदेसी', 1961 में 'इतना न तू मुझसे प्यार बढ़ा', 'अल्लाह तेरो नाम', 'एहसान तेरा होगा मुझ पर' और 1965 में 'ये समां, समां है ये प्यार का' जैसे गीतों के साथ उनके प्रशंसकों और उनकी आवाज के चाहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती गई।

यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी सिनेमा में गायकी का दूसरा नाम लता मंगेशकर है। वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद जब एक कार्यक्रम में लता ने पंडित प्रदीप का लिखा गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गाया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आंखों में आंसू आ गए थे।

भारत सरकार ने लता को पद्म भूषण (1969) और भारत रत्न (2001) से सम्मानित किया। सिनेमा जगत में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार, दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और फिल्म फेयर पुरस्कारों सहित कई अनेकों सम्मानों से नवाजा गया है। 

सुरीली आवाज और सादे व्यक्तित्व के लिए विश्व में पहचानी जाने वाली लता जी आज भी गीत रिकार्डिग के लिए स्टूडियो में प्रवेश करने से पहले चप्पल बाहर उतार कर अंदर जाती हैं।

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यहाँ के जंगलों में विचरण करता था अंगुलिमाल

अंगुलिमाल के बारे में आपने बहुत कुछ सुना होगा लेकिन पहला सवाल तो यही उठता है कि कौन था अंगुलिमाल| अंगुलिमाल बौद्ध कालीन एक दुर्दांत डाकू था जो राजा प्रसेनजित के राज्य श्रावस्ती में निरापद जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। एक डाकू जो बाद मे संत बन गया।

अहिंसक से कैसे बना अंगुलिमाल- 

लगभग ईसा के 500 वर्ष पूर्व कोशल देश की राजधानी श्रावस्ती में एक ब्राह्मण पुत्र के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है।

माता-पिता ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा। अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के बिरुद्ध कर दिया। 

आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उँगलियाँ काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे। अहिंसक गुरु की आज्ञा मान कर हत्यारा बन गया और लोगों की हत्या कर के उनकी उँगलियों को काट कर उनकी माला पहनने लगा। इस प्रकार उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा गया।

भगवान बुद्ध और अंगुलिमाल-

प्राचीनकाल की बात है। मगध देश की जनता में आतंक छाया हुआ था। अँधेरा होते ही लोग घरों से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, कारण था अंगुलिमाल। अंगुलिमाल एक खूँखार डाकू था जो मगध देश के जंगल में रहता था। जो भी राहगीर उस जंगल से गुजरता था, वह उसे रास्ते में लूट लेता था और उसे मारकर उसकी एक उँगली काटकर माला के रूप में अपने गले में पहन लेता था। इसी कारण लोग उसे "अंगुलिमाल" कहते थे। 

एक दिन उस गाँव में महात्मा बुद्ध आए। लोगों ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। महात्मा बुद्ध ने देखा वहाँ के लोगों में कुछ डर-सा समाया हुआ है। महात्मा बुद्ध ने लोगों से इसका कारण जानना चाहा। लोगों ने बताया कि इस डर और आतंक का कारण डाकू अंगुलिमाल है। वह निरपराध राहगीरों की हत्या कर देता है। महात्मा बुद्ध ने मन में निश्चय किया कि उस डाकू से अवश्य मिलना चाहिए।

बुद्ध जंगल में जाने को तैयार हो गए तो गाँव वालों ने उन्हें बहुत रोका क्योंकि वे जानते थे कि अंगुलिमाल के सामने से बच पाना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। लेकिन बुद्ध अत्यंत शांत भाव से जंगल में चले जा रहे थे। तभी पीछे से एक कर्कश आवाज कानों में पड़ी- "ठहर जा, कहाँ जा रहा है?" 

बुद्ध ऐसे चलते रहे मानो कुछ सुना ही नहीं। पीछे से और जोर से आवाज आई-"मैं कहता हूँ ठहर जा।" बुद्ध रुक गए और पीछे पलटकर देखा तो सामने एक खूँखार काला व्यक्ति खड़ा था। लंबा-चौड़ा शरीर, बढ़े हुए बाल, एकदम काला रंग, लंबे-लंबे नाखून, लाल-लाल आँखें, हाथ में तलवार लिए वह बुद्ध को घूर रहा था। उसके गले में उँगलियों की माला लटक रही थी। वह बहुत ही डरावना लग रहा था। 

बुद्ध ने शांत व मधुर स्वर में कहा- "मैं तो ठहर गया। भला तू कब ठहरेगा?"

अंगुलिमाल ने बुद्ध के चेहरे की ओर देखा, उनके चेहरे पर बिलकुल भय नहीं था जबकि जिन लोगों को वह रोकता था, वे भय से थर-थर काँपने लगते थे। अंगुलिमाल बोला- "हे सन्यासी! क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा है? देखो, मैंने कितने लोगों को मारकर उनकी उँगलियों की माला पहन रखी है।" 

बुद्ध बोले- "तुझसे क्या डरना? डरना है तो उससे डरो जो सचमुच ताकतवर है।" अंगुलिमाल जोर से हँसा - 'हे साधु! तुम समझते हो कि मैं ताकतवर नहीं हूँ। मैं तो एक बार में दस-दस लोगों के सिर काट सकता हूँ।' 

बुद्ध बोले - 'यदि तुम सचमुच ताकतवर हो तो जाओ उस पेड़ के दस पत्ते तोड़ लाओ।' अंगुलिमाल ने तुरंत दस पत्ते तोड़े और बोला - 'इसमें क्या है? कहो तो मैं पेड़ ही उखाड़ लाऊँ।' महात्मा बुद्ध ने कहा - 'नहीं, पेड़ उखाड़ने की जरूरत नहीं है। यदि तुम वास्तव में ताकतवर हो तो जाओ इन ‍पत्तियों को पेड़ में जोड़ दो।' अंगुलिमाल क्रोधित हो गया और बोला - 'भला कहीं टूटे हुए पत्ते भी जुड़ सकते हैं।' महात्मा बुद्ध ने कहा - 'तुम जिस चीज को जोड़ नहीं सकते, उसे तोड़ने का अधिकार तुम्हें किसने दिया? 

एक आदमी का सिर जोड़ नहीं सकते तो काटने में क्या बहादुरी है? अंगुलिमाल अवाक रह गया। वह महात्मा बुद्ध की बातों को सुनता रहा। एक अनजानी शक्ति ने उसके हृदय को बदल दिया। उसे लगा कि सचमुच उससे भी ताकतवर कोई है। उसे आत्मग्लानि होने लगी। 

वह महात्मा बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और बोला - 'हे महात्मन! मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं भटक गया था। आप मुझे शरण में ले लीजिए।' भगवान बुद्ध ने उसे अपनी शरण में ले लिया और अपना शिष्य बना लिया। आगे चलकर यही अंगुलिमाल एक बहुत बड़ा साधु हुआ।

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यहाँ दहेज़ में मिलता है कुत्ता और गधा!

अभी तक शादी तो बहुत देखी और सूनी होगी लेकिन आज हम आपको एक ऐसी अनोखी शादी के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे सुनकर आप भी हैरान हो जायेंगे| अभी तक आपने यही सुना होगा की लड़की पक्ष वाले लड़कों वालों को दहेज़ देते हैं लेकिन इस अनोखी शादी में लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले लड़की को दहेज़ देते हैं| और शादी के बाद जब लड़की अपनी ससुराल आती है तो वह उपहार के तौर पर गधा और कुत्ता भी लाती है| इतना सुनकर आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर यह अनोखी शादी होती कहाँ है तो आपको बता दें कि पश्चिमी राजस्थान का खुबसूरत जिला है बाड़मेर| इस जिले में अनेक जातियां बसती हैं इन्हीं जातियों में एक जाति है जोगी| आमतौर पर यह जाति भीख मांगकर अपना गुजारा करती है| आजादी के 65 साल बीत गए जहाँ पूरे देश तरक्की कर रहा है वहीं इस जाति के लोग आज भी सदियों पुरानी परम्पराओं में जकड़े हुए हैं| 

इस जाति में शादी की सदियों पुरानी परम्परा जो आज भी चली आ रही है वह यह कि यहाँ लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले दहेज़ देते हैं इसके अलावा युवक जिस लड़की से शादी करना चाहता है उसे दो साल तक कमाकर खिलाता है यदि वह ऐसा करने में सफल होता है तभी उसकी शादी होती है| 

इस जाति में दहेज़ के रूप में कुत्ता और गधा देने का चलन है। कुत्ता जहां सामान की रखवाली करने के काम आता है और गधा इसलिए ताकि उसका सामान आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाया जा सके। इतना ही नहीं इस जाति की एक और अनोखी परंपरा वह यह कि यहाँ जब सस्त्रियाँ गर्भवती होती हैं तो उसके पति को उसे सियार का मांस खिलाना होता है| फिलहाल यदि इस जाति के लोगों की माने तो उनका कहना है कि यह पुरानी परम्पराएँ धीरे- धीरे समाप्त हो रही है और लोग अन्य व्यवसाय में रूचि ले रहे हैं|

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यहाँ की महिलाएं एक नहीं कई पतियों के साथ करती हैं सम्भोग!

आमतौर पर विवाह चार प्रकार के होते हैं| एकल विवाह, बहु पत्नी विवाह, बहु पति विवाह व समूह विवाह| हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में आज भी बहु पति विवाह का चलन है| यहाँ की महिलाओं के एक से अधिक पति होते हैं| किन्नौर जिले में एक ऐसा स्थान भी है जहाँ पत्नी को पति के मरणोपरांत उसका वियोग सहने का मौका नहीं दिया जाता है| 

किन्नौर के इस क्षेत्र में एक ही स्त्री से एक ही परिवार के तीन चार भाई शादी करते हैं| यहाँ जब कोई भाई अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहा होता है तो वह कमरे के बाहर लगी खूंटे पर अपनी टोपी टांग जाता है ताकि अन्य भाइयों को यह पता चल जाए कि दूसरा भाई अभी पत्नी के साथ सम्भोग कर रहा है|

यदि यहाँ के लोगों की माने तो उनका कहा है कि यह प्रथा इसलिए चली आ रही है क्योंकि अज्ञातवास के दौरान पाँचों पांडवों ने यही समय बिताया था| सर्दी में बर्फबारी की वजह से यहाँ की महिलाएं और पुरुष घर में ही रहते हैं क्योंकि बर्फबारी की वजह से कोई काम नहीं रहता है| इन दिनों इन लोगों के पास बस मौज मस्ती में दिन व रात गुजारने होते हैं इसके अलावा और कोई काम नहीं होता है| महिलाएं सारा दिन पुरुषों के साथ गप्पें मारती हैं और पहेलियां बुझाती हैं। फिर रात वहीं गुजारती हैं। इस प्रथा को घोटुल प्रथा कहते हैं। घोटुल घरों में युवक-युवतियां आपस में शारीरिक संबंध भी कायम करते हैं|

भारत देश पुरुष प्रधान देश माना जाता है लेकिन यहाँ पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं घर की मुखिया होती हैं| इनका काम होता है पति व संतानों की सही ढंग से देखभाल करना| परिवार की सबसे बड़ी स्त्री को गोयने कहा जाता है, जिसके पास घर के भंडार की चाबियां रहती हैं। उसके सबसे बडे पति को गोर्तेस,कहते हैं यानी घर का स्वामी, जिसकी आज्ञा से पूरा परिवार चलता है।

यहाँ की एक और बात खास होती है वह यह कि यहाँ खाने के साथ शराब अनिवार्य होती है| यदि पुरुषों का मन दुखी होता है तो यह शराब और तम्बाकू का सेवन करते हैं वहीं जब महिलाओं को किसी बात को लेकर दुःख होता है तो वह गीत गाती हैं|

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यहाँ मां बनने के बाद होती है शादी..!

अभी तक आपने शादी तो कई तरह की देखि होगी लेकिन आज हाको एक ऐसी अनोखी शादी के बारे में बताने जा रहे हैं| जिसमें संतान होने के बाद होती है लड़की की शादी| यह सुनकर आपको थोड़ा अटपटा जरुर लग रहा होगा कि यह कैसी परम्परा है| लेकिन यह सच है| हिमाचल प्रदेश के कबायली इलाके के किन्नौर में अभी भी विवाह की यह परम्परा प्रचलित है| इस परम्परा को दारोश डब-डब के नाम से जाना जाता है| इस परम्परा के तहत लड़का जिस लड़की को पसंद करता है उसे अपने घर उठा ले जाता है और बच्चा होने के बाद लड़की के घरवालों की रजामंदी से शादी कर लेता है| 

बताते हैं कि इस विवाह में वर एक टोली बनाता है और वह जिस लड़की को पसंद करता है जब लड़की कहीं अकेली मिलती है तो वह उसे अपने घर उठा ले जाता है| वर द्वारा लाइ गई उस युवती की खूब सेवा की जाती है| उसे अच्छे से अच्छा भोजन कराया जाता है| वर के परिवार व रिश्तेदार उस युवती को शादी करने के लिए खूब समझाते हैं| यदि लड़की शादी के लिए रजामंद नहीं होती है तो वह खाना नहीं खाती और मौका पाकर वह भाग जाती है| 

बताते हैं कि जब लड़की अपने घर भाग जाती है तो लड़के वाले उसे मनाने के लिए एक व्यक्ति को उसके घर भेजते हैं| और वह व्यक्ति उस लड़की से क्षमा मांगता है इसके अलावा उसकी इज्जत के तौर पर उसे कुछ पैसे भी देता है| यदि लड़की उसे क्षमा कर देती है तो लड़के वाले उसके माता-पिता को अपने घर बुलाते हैं ताकि विधिवत तरीके से शादी की जा सके| इज्जत स्वीकार करने पर कन्या विवाह से पूर्व ससुराल में आती जाती रहती है। जब उसका पहला बच्चा हो जाता है तो उसकी बड़ी धूम धाम से शादी कर दी जाती है|

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यहाँ बिना दूल्हे के होती है शादियाँ

अभी तक आपने बहुत शादी देखी और सुनी होगी जिसमें एक दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर आता है और अपनी राजकुमारी को ले जाता है| क्या कभी आपने कोई ऐसी बारात देखी है जिसमें दूल्हा न हो? शायद नहीं! पर हिमाचल प्रदेश के दुर्गम कबायली जिला लाहुल स्पीती में शादी की रस्म ही अलग है| यहाँ कई गाँवों में बारात में दूल्हा नहीं बल्कि उसकी बहन कुछ निशानी लेकर जाती है और दूल्हन को अपने घर विदा कराकर लाती है| 

शीत नारुस्थल के नाम से जाने जाने वाली इस घाटी के जिला मुख्यालय केलोंग सहित गाहर घाटी के बिलिंग, युरिनाथ, रौरिक, छिक्का, जिस्पा अदि कई ऐसे गांव हैं जहां बैंड बाजा बारात तो होती है पर दूल्हा नहीं होता है यहाँ दूल्हे के स्थान पर बहन जाती है|

घाटी की मियाद, तिणन, गाहर अदि घाटियों की शादी की रस्में मेल भी खाती हैं। इस घाटी में विवाह की सबसे पुराणी रसम गंधार्भ विवाह है। यहाँ अपनी पसंदीदा लड़की उठा कर ले जाने की परंपरा आज भी प्रचलित है| वर द्वारा कन्या को उठा ले जाने के बाद वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष के घर मक्खन लगी शराब लेकर जाते हैं यदि कन्या पक्ष के लोग उस शराब की बोतल का ढक्कन खोल देते हैं तो समझो रिश्ता पक्का यदि नहीं तो रिश्ता नामंजूर माना जाता है| घाटी में इस रिश्ते की मंजूरी को कई साल भी लग जाते हैं और ऐसी शादियों के निर्वहन में बच्चों ही नहीं बल्कि पोतो के शरीक होने के भी कई प्रमाण मिलते हैं।

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'यहाँ लड़कियों का होता है उपनयन संस्कार, पहनती हैं जनेऊ'

महिलाओं के लिए नैतिकता के पैमाने गढ़े जाने के बीच बिहार के एक गांव की महिलाओं ने परम्पराओं और पुरुषवादी मानसिकता को बदलने वाला उदाहरण पेश किया है। राजधानी पटना से 150 किलोमीटर दूर बक्सर जिले के मैनिया गांव में पिछले तीन दशक से लड़कियों का उपनयन संस्कार कराया जाता है जो कि सामान्यत: ब्राह्ण लड़कों के बीच होता है। यहां की लड़कियां लड़कों की तरह धागे से बने जनेऊ भी पहनती हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता सिद्धेश्वर शर्मा ने कहा, "तीन दशक से चली आ रही यह रोचक कहानी है। विश्वनाथ सिंह ने 1972 में मैनिया में लड़कियों के लिए उस वक्त एक स्कूल की स्थापना की थी जब महिलाओं को स्कूल जाने से रोका जा रहा था। उन्होंने अपनी चार बेटियों को स्कूल भेजना शुरू किया, इससे दूसरी लड़कियां भी प्रेरित हुईं। इसके बाद विश्वनाथ ने अपनी बड़ी बेटी का जनेऊ संस्कार कराया। इसके बाद इसका अनुसरण दूसरों ने भी किया और अब यह पूरे गांव में होता है।"

इस परम्परा की शुरुआत करने वाली मीरा कुमारी अपनी तीन बहनों के साथ अभी भी जनेऊ पहनती हैं। पेशे से शिक्षक मीरा ने कहा, "जनेऊ पहनना इस बात का प्रतीक है कि हम पुरुषों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं।"शर्मा के मुताबिक इस परम्परा ने लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरुकता पैदा करने के लिए गांव की चर्चित कर दिया है।

उनके मुताबिक गांव की 24 से अधिक लड़कियां जनेऊ पहन कर स्कूल आती हैं। शर्मा ने कहा, "महिलाओं की इस परम्परा ने गांव के पुरुषों की मानसिकता बदली है और अब वे महिलाओं के साथ भेदभाव की हिम्मत नहीं करते।"

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यहाँ माहवारी आने पर घर से बाहर निकाल दी जाती हैं महिलाएं!

आधुनिकता के इस दौर में हिमाचल प्रदेश के कबायली क्षेत्र में आज भी महिलाएं वह तीन रातें बड़े कष्ट से गुजारती हैं जब वह मासिक धर्म से गुजर रही होती हैं| इन दिनों महिलाएं घर के बाहर गौशाला में घास के बिछौने व फटे-पुराने कम्बल में रातें काटती हैं अब चाहे बर्फबारी हो या फिर आंधी तूफ़ान ही क्यों न आए| यहाँ एक ऐसा भी गाँव है जहाँ माहवारी आने पर महिलाओं को गाँव से बाहर निकाल दिया जाता है और उन्हें इन दिनों बाहर ही रहना पड़ता है| 

मिली जानकारी के मुताबिक, यहाँ के जिला मंडी की चौहारघाटी, स्नोर बदार, चच्योट, कमरूघाटी, जंजैहली, करसोग, कांगड़ा के छोटा व बड़ा भंगाल में आज भी महिलाएं अछूत होने का दंड भुगतती हैं| 

बताते हैं कि यहाँ प्रथम रजस्वला से लेकर तृतीय रजस्वला तक महिलाएं घर के बर्तन से लेकर घर के चूल्हे चौके तक को हाथ नहीं लगा सकती हैं| इन दिनों उन्हें घर के बाहर ही अलग बर्तन में खाना दिया जाता है| मान्यता है कि माहवारी के दिनों में महिला किसी देव स्थल घर के चूल्हे व चौके से छू गई तो घर से देवताओं का वास उठ जाएगा कई प्रकार के क्लेश उत्पन्न होंगे। इसके अलावा उन्हें रात गुजारने के लिए घास के बनी दरी व फटा-पुराना कम्बल दिया जाता है| माहवारी के तीसरे दिन उस महिला को घर से बाहर ही एकांत स्थान पर नहलाकर पंचामृत, पिलाकर घर में प्रवेश दिया जाता है। 

इन स्थानों पर इतना ही काफी है कि महिलाओं को गौशाला में रहना पड़ता है लेकिन कुल्लू के मलाणा में महिलाओं को गाँव से ही निकाल दिया जाता है| इतना ही नहीं किसी औरत की प्रसूति होने पर तो उसे तेरह दिनों तक गांव से बाहर रखा जाता है।

शास्त्रों में भी कहा गया है कि ब्रम्हा जी ने कहा, स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा। उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी।

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तो इसलिए सिर पर रखते हैं शिखा

हिन्दू धर्म के साथ शिखा (चोटी) का अटूट संबंध होने के कारण शिखा रखने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। सिर पर शिखा ब्राह्मणों की पहचान मानी जाती है। लेकिन यह केवल कोई पहचान मात्र नहीं है। जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। 

इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि शिखा वाला भाग, जिसके नीचे सुषुम्ना नाड़ी होती है, कपाल तन्त्र के अन्य खुली जगहोँ की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है। जिसके खुली होने के कारण वातावरण से उष्मा व अन्यब्रह्माण्डिय विद्युत-चुम्बकी य तरंगोँ का मस्तिष्क से आदान प्रदान बड़ी ही सरलता से हो जाता है। और इस प्रकार शिखा न होने की स्थिति मेँ स्थानीय वातावरण के साथ साथ मस्तिष्क का ताप भी बदलता रहता है। लेकिन वैज्ञानिकतः मस्तिष्क को सुचारु, सर्वाधिक क्रियाशिल और यथोचित उपयोग के लिए इसके ताप को नियंन्त्रित रहना अनिवार्य होता है। जो शिखा न होने की स्थिति मेँ एकदम असम्भव है। क्योँकि शिखा इस ताप को आसानी से सन्तुलित कर जाती है और उष्मा की कुचालकता की स्थिति उत्पन्न करके वायुमण्डल से उष्मा के स्वतः आदान प्रदान को रोक देती है।

आधुनकि दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यह नहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचों बीच सहस्राह चक्र होता है। शरीर में पांच चक्र होते हैं,मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्सेमें होता है और आखिरी है सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। शिखा का हल्का दबाव होने से रक्त प्रवाह भी तेज रहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।

कहते हैं कि शिखा रखने से मनुष्य लौकिक तथा पारलौकिक समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त करता है| शिखा रखने से मनुष्य प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता है। शिखारखने से सभी देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं। शिखा रखने से मनुष्य की नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है। शिखा रखने से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता है।

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छत्तीसगढ़ के राजिम में मिला छठी शताब्दी का शिवमंदिर

छत्तीसगढ़ के राजिम में पुरातत्व विभाग की ओर से राजीव लोचन मंदिर के पास की जा रही खुदाई में छठी शताब्दी का एक शिव मंदिर मिला है। खुदाई में और भी कई पुरातात्विक अवशेष सामने आ रहे हैं। खुदाई स्थल से प्राचीन इमारतों के अवशेष मिलने का दावा करने वाले अधिकारी अब उसे छठी शताब्दी का पांडुकाल के दौरान निर्मित शिव मंदिर बता रहे हैं।

पुरातत्व अवशेषों को देखने के लिए वहां बड़ी संख्या में लोग पहुंच रहे हैं। पिछले 18 दिनों से चल रही खुदाई में करीब 10 फुट गहराई तक खुदाई की जा चुकी है। पुरातत्व विभाग को 30 सितंबर तक खुदाई की अनुमति मिली है। 25 सितंबर को नई दिल्ली में पुरातत्व विभाग के उच्चाधिकारियों की बैठक होने वाली है। उम्मीद है कि इसमें खुदाई की तारीख आगे बढ़ाने पर चर्चा होगी।

बताया जाता है कि राजीव लोचन मंदिर के सामने सीताबाड़ी में 500 वर्ग फुट जगह में चार सितंबर से पुरातत्व विभाग खुदाई कर रहा है। यह काम पुरातत्व अधिकारी अरुण शर्मा के मार्गदर्शन में चल रहा है।

खुदाई के दौरान प्राचीन खंभे, सीप, बड़ा शंख, शिवलिंग, जलहरी, बिल्लस, तकली, दवाई कूटने की कुट्टी, तांबे की बाली, मिट्टी के बर्तन, नाद आदि के टुकड़े बरामद हुए हैं। 10 फीट गहराई में मंदिर का गर्भगृह मिला, जिसकी लंबाई 3.25 मीटर व चौड़ाई 2.20 मीटर है। अभी खुदाई का काम जारी है।

पुरातत्वविद् उम्मीद कर रहे हैं कि आगे की खुदाई में शिवलिंग जलहरी आदि मिल सकती है। जहां खुदाई हुई है उसके बगल में पत्थर की जोड़ाई वाली दीवार दिखाई दे रही है, जो संभवत: मंडप हो सकता है। इस मंडप की लंबाई 4.75 मीटर और चौड़ाई 3.29 मीटर है।

अरुण शर्मा ने बताया कि मंडप में एक-एक मीटर में दीवारें हैं, जिसे मजबूती के लिए बनाया गया है। ये दीवारें नदी की मुख्य धारा के समानांतर बनाई गई हैं, जिससे यह बाढ़ में भी टूटने नहीं पाए। यह पश्चिममुखी शिवमंदिर रहा होगा। पूरी दीवार को पत्थर से जोड़ा गया है। पत्थर को चिपकाने के लिए बेल का गुदा व बबूल के गोंद का गारा बनाकर पत्थरों की जोड़ाई की गई है।

मंदिर के पास ही शंख से चूड़ियां बनाने का कारखाना होने की संभावना जताई जा रही है। खुदाई के दौरान अलंकृत चूड़ियां मिल रही हैं। शर्मा का कहना है कि खुदाई की तारीख सरकार बढ़ाए और निधि आवंटित कर दे तो खुदाई का काम आगे भी जारी रखा जा सकेगा, जिससे और भी अचरज की वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं।

खुदाई से प्राप्त अवशेषों को सुरक्षित रखने तथा लोगों को ऐतिहासिक वस्तुओं से परिचित कराने के लिए यहां संग्रहालय के लिए भवन की मांग की जा रही है। इस बीच, सांसद चंदूलाल साहू ने खुदाई स्थल का मुआयना किया। बहरहाल, विशेषज्ञों ने इलाके में और भी जगहों पर पुरातात्विक अवशेष होने की संभावना जताई है। 

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प्रेम और सद्भाव लाने में मदद करेगी कवाल की रामलीला

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई हिंसा के बाद चारों तरफ बने अविश्वास के माहौल के बीच कवाल गांव में दोनों समुदाय के लोगों ने परंपरागत रामलीला का आयोजन करने का फैसला किया है। इसका मकसद समाज को यह संदेश देना है कि नफरत की आग में झुलसने के बाद भी उनका आपसी विश्वास पहले की तरह अटूट है।

कवाल गांव की रामलीला पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मशहूर है। करीब 66 साल से यहां दोनों समुदाय के लोग मिलकर रामलीला का आयोजन करते आ रहे हैं। हिंसा भड़कने के बाद इलाके में बने माहौल के बीच सवाल उठ रहे थे कि इस वर्ष रामलीला का आयोजन हो सकेगा या नहीं और यदि होगा भी तो इसमें पहले की तरह मुस्लिम समुदाय के लोग शिरकत करेंगे या नहीं।

लगभग 12 हजार की मिश्रित आबादी वाले कवाल गांव के प्रधान एवं रामलीला आयोजन समिति के सदस्य महेंद्र सिंह सैनी कहते हैं, "माहौल थोड़ा सामान्य होने के बाद जब मैंने मुस्लिम भाइयों से रामलीला के आयोजन और उनकी सहभागिता को लेकर बातचीत की तो उन्होंने नाराजगी जताते हुए कहा कि आपके मन में सहभागिता को लेकर संशय कैसे पैदा हुआ। यह बात सुनकर मेरी आंखों में आंसू भर आए।"

कवाल वही गांव है, जो हिंसा का वजह बना। इसी गांव में छेड़खानी की घटना को लेकर हुए विवाद में तीन हत्याएं होने के मामले के तूल पकड़ने के बाद जिले भर में हिंसा भड़की और लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। हिंसा में 47 लोगों की जानें चली गईं, हजारों लोग बेघर हो गए।

सैनी ने कहा, "हम लोग आज भी उस काले दिन को सोच कर सहम उठते हैं, जब हमारे गांव से उठी चिंगारी ने पूरे जिले और प्रदेश को झुलसा दिया। लेकिन हम सभी मानते हैं कि सियासतदानों ने अपने मुनाफे के लिए विवाद को तूल देकर नफरत की आग फैलाई और दो भाइयों को आपस में लड़ाया। इस तरह की साजिशें हमारे आपसी प्रेम और सद्भाव को कम नहीं कर पाएंगी।"

सैनी ने कहा, "हमारी रामलीला दोनों वर्गो के सहयोग से होती है। यह हमारे आपसी भाईचारे का जीता-जागता प्रतीक है। गुजरे वर्षो की तरह इस वर्ष भी दोनों समुदाय के लोग मिलकर रामलीला का आयोजन करेंगे। यह हिंसा हमारे बीच के विश्वास की दीवार नहीं तोड़ पाएगी।" कवाल की रामलीला में विभिन्न पात्रों की अदायगी हिंदू समुदाय के लोग करते हैं, और साजो-सामान, प्रकाश एवं ध्वनि व्यवस्था और वाद्य यंत्रों को बजाने का जिम्मा मुस्लिम समुदाय के लोग निभाते आए हैं।

रामलीला के दौरान ढोलक बजाने वाले निजामुद्दीन ने कहा, "हम मिलजुल कर रामलीला का आयोजन करके लोगों का मनोरंजन करने के साथ कौमी एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश भी देते हैं।" छह अक्टूबर से शुरू होने वाली रामलीला के लिए सभी पात्रों ने रिहर्सल शुरू कर दी है। लक्ष्मण का करदार निभाने वाले जगपाल ने कहा, "हम मानते हैं कि हिंसा के बाद जिले में लोगों के मन में जो तनाव और अविश्वास पैदा हुआ है, हमारी रामलीला उसे समाप्त करके प्रेम और सद्भाव लाने में मदद करेगी।" 

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भारत का स्विट्ज़रलैंड है औली

अगर आप अपनी ज़िन्दगी में रोमांच पसंद करते हैं, तो अपने ही देश में एक ऐसी जगह है, जहां आपको स्विट्ज़रलैंड जैसा खूबसूरत और रूमानी माहौल मिल सकता है। उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित औली पर्यटक स्थल, जो किसी भी मायने में स्विट्ज़रलैंड से कम नहीं है। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर औली भारत का एक प्रसिद्ध स्किन रिजोर्ट है। इसके चारों ओर धुंध के बादल, मीलों दूर तक जमी बर्फ की सफेद चादर, बड़े-बड़े पहाड़ देखकर आपको लगेगा जैसे आप स्विट्ज़रलैंड में आ गए हैं। जहां तक आपकी नज़र जाएगी बर्फीले पहाड़ों का यह खूबसूरत दृश्य और खाइयों की गहराई आपको रोमांच से भर देगी। 

5-7 किमी. में फैला यह छोटा-सा स्किन रिसोर्ट जोशीमठ से 16 किमी दूर स्थित है। जोशीमठ से औली तक जाने के दो सुलभ रस्ते हैं , एक तो सड़क का ओर दूसरा रोपवे (केबल) का, चार किलोमीटर लम्बे रोपवे से जाने पर इस जन्नत का नज़ारा ओर भी खूबसूरत लगता है। इस तीन किलोमीटर लंबा रोमांचकारी ढलान, जिसकी ऊंचाई 2519 मीटर से लेकर 3049 मीटर है | गढ़वाल मंडल विकास निगम द्वारा इसका रखरखाव किया जाता है। स्कीइंग के लिए मशहूर इस रिजोर्ट में स्कीइंग प्रशिक्षण भी दिया जाता है।

फिशिंग, स्कीइंग के लिए यह जगह एकदम परफेक्ट मानी जाती है। वैसे भी अगर चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़ हो तो स्कीइंग किये बिना भला किसका मन मानेगा। दिसम्बर से मार्च तक यहां का मौसम सुहावना रहता है। जब यहाँ बर्फ गिरती है, तो यहाँ के वातावरण को और भी सुन्दर बना देती है । स्कीइंग के लिए यह समय बिलकुल परफेक्ट होता है। इसके आलावा यहां रॉक क्लाइम्बिंग, फॉरस्ट कैम्पिंग और हौर्स राइडिंग आदि भी की जाती है। यहां छुट्टियाँ मनाने के लिए टूरिस्टों की अच्छी-खासी भीड़ रोमांच का मज़ा लेने आती है।

भ्रमण स्थल :- औली में वैसे तो देखने लायल बहुत सी जगह हैं मगर दयारा बुग्याल, मुंडाली और मुनस्यारी कुछ खास स्थल है जो औली को और भी खूबसूरत बना देते है | 

1. दयारा बुग्याल :- यह जगह 3048 ऊंचाई पर स्थित एक चरागाह है, जहां की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है। यहां स्कीइंग की बेहतर सुविधा उपलब्ध है। यहां से हिमालय का दृश्य भी दिखाई देता है| यह दृश्य इतना मार्मिक दिखाई देता है कि आप एकटक इस नजारे को देखते रह जाएंगे। यहां भाटवारी और स्थानीय घरों में ठहरने की व्यवस्था भी हो जाती है।

2. मुंडाली:- यह देहरादून से 129 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिमालय की बर्फ से ढंकी चोटियों और गहरी खाइयों का बेहद रोमांचक नजारा यहां से आसानी से देखा जा सकता है। स्कीइंग करने के लिए यहां पर अच्छा स्लोप है।

3. मुनस्यारी:- यह स्थल उत्तराखंड और नेपाल की सीमा से लगा हुआ है ,जो की 2135 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थल मिलम, नामिक तथा रालिम ग्लेशियर के लिए आधार कैंप है। गढ़वाल और कुमांयु में औली तो मुख्य स्कीइंग स्थल है | इसके साथ ही आप पाएंगे की यहां और भी बहुत से विंटर स्पोर्ट प्लेसेज हैं। जैसे गढ़वाल में कुश कल्याण तथा उत्तरकाशी जिले में केदार कांठा,टिहरी गढ़वाल जिले में पनवाली और मत्या, चमोली में बेड़नी बुग्याल, कुमायूं के पिथौरागढ़ जिले में चिपलाकोट घाटी आदि। 

तो फिर अब इंतज़ार किस बात का है, उठिए और अपनी पैकिंग कर तैयार हो जाइये भारत के स्विट्जरलैंड की आबो-हवा में खो जाने के लिए। पैकिंग करते वक़्त औली के मौसम का खास ख्याल रखना बिल्कुल भी मत भूलियेगा और सर्दी के कपड़े अवश्य रख लीजियेगा ताकि आपके आनंद में कोई कमी न आये।

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33 की हुईं करीना, आइए नजर डालते हैं करीना की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों पर...

बॉलीवुड अदाकारा बेबो यानी करीना कपूर शनिवार को 33 साल की हो गईं। खूबसूरत करीना ने 'जब वी मेट' और 'ओमकारा' जैसी फिल्मों के जरिए खुद को साबित किया है। आइए नजर डालते हैं करीना की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों पर.. 

'रिफ्यूजी' (200) : इस फिल्म में करीना की नैसर्गिक सुंदरता नजर आई है। निर्देशक जे.पी.दत्ता ने अपने दोस्त रणधीर से किया वादा पूरा किया कि वह उनकी बेटी की शुरुआत ऐसे करेंगे कि लोग हमेशा याद रखेंगे। पाकिस्तान सीमा पार करने वाली लड़की के किरदार में करीना ने हमें नूतन, मधुबाला और नर्गिस जैसी अदाकाराओं की याद दिला दी थी।

'अशोका' (2001) : संतोष सिवान निर्देशित इस ऐतिहासिक फिल्म में करीना योद्धा राजकुमारी कौरवकी के रूप में नजर आईं। उन्होंने हर दृश्य में जोश भर दिया। 

'चमेली' (2004) : मनीष मल्होत्रा के परिधानों में बारिश में नाचती करीना इस फिल्म में काफी खूबसूरत लगी थीं। फिल्म में चमेली का किरदार निभाने वाली करीना ने काफी अच्छा अभिनय किया था।

'युवा' (2004) : मणि रत्नम की युवा में करीना ने ऐसी लड़की किरदार किया है जो सनकी, भावुक और अपने भविष्य को लेकर अस्थिर है। लेकिन वह विरोध प्रदर्शनों में दिलचस्पी रखती है। जया बच्चन को इसमे करीना बेहद अच्छी लगी थीं।

'देव' (2004) : गोविंद निहलानी की इस फिल्म में करीना का किरदार 2002 के गुजरात दंगों में बेकरी में 14 लोगों की मौत के खिलाफ प्रमाण देने वाली जहीरा शेख से प्रेरित था। करीना इसमें बिना मेकअप के नजर आई हैं।

'फिदा' (2004) : करीना ने अभी तक करियर में इसी फिल्म में नकारात्मक भूमिका निभाई है। उन्होंने ईष्र्यालु पति की दुखी और असुरक्षित पत्नी की भूमिका में जबरदस्त अभिनय किया।

'जब वी मेट' (2007) : चंचल और बातूनी लड़की के तौर पर करीना को सभी ने पसंद किया। एक भाग में करीना चंचल और बातूनी हैं तो दूसरे भाग में गंभीर और शांत नजर आती हैं। इस फिल्म में भी वह काफी खूबसूरत नजर आई हैं। 

'हीरोइन' (2012) : मधुर भंडारकर की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भले ही न चली हो लेकिन एक अभिनेत्री के किरदार को करीना ने बखूबी निभाया है। फिल्म एक हीरोइन की जिंदगी के उतार-चढ़ाव की कहानी है।

'तलाश' (2012) : इसमें करीना ने भूत की भूमिका निभाई है। फिल्म में करीना के अभिनय की काफी सराहना की गई थी।

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उप्र में ईमानदार अफसर झेल रहे दबाव

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) के कार्यकर्ताओं और मंत्रियों की कार्यशैली ईमानदार अधिकारियों के लिए परेशानी का सबब बन रही है। ईमानदारी एवं निष्ठा से काम करने वाले अधिकारी राजनीतिक दबाव की वजह से परेशान हैं। अनुचित दबाव से बचने के लिए अधिकारी राज्य को छोड़कर अन्यत्र प्रतिनियुक्ति चाहते हैं। 

सूबे के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) अरुण कुमार द्वारा केंद्रीय प्रतिनिुक्त पर भेजे जाने की मांग करने के बाद एक बार फिर यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या उप्र में ईमानदार अधिकारियों के काम करने लायक माहौल रह गया है? ताजा मामले के मुताबिक, सूबे के तेज तर्रार आईपीएस अधिकारी अरुण कुमार ने पुलिस महानिदेशक देवराज नागर और शासन को पत्र लिखकर प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए कार्यमुक्त करने की मांग की है। 

इस बीच शासन की तरफ से आधिकारिक तौर पर यह बताया गया है कि वह छुट्टी पर चले गए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि मुजफ्फनगर हिंसा के बाद ऐसे हालात बने हैं जिसके बाद अरुण कुमार को यह कदम उठाना पड़ा है। सूत्र बताते हैं कि हिंसा के दौरान उनकी एक नहीं चलने दी गई, जिसके बाद उन्होंने नाराज होकर यह कदम उठाया है। सूबे के अधिकारियों की ओर से हालांकि हवाला यह दिया जा रहा है कि अरुण कुमार ने दो महीने पहले ही प्रतिनियुक्ति को लेकर पत्र लिखा था, लेकिन दो सितंबर को अरुण कुमार की ओर से भेजे गए रिमाइंडर के बाद इस मामले ने अब तूल पकड़ लिया है।

अरुण कुमार के अलावा ताजा मामला गोंडा का है। यहां के सपा नेताओं ने जिलाधिकारी डा. रोशन जैकब के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है। सपा के जिला अध्यक्ष ने जिलाधिकारी पर आरोप लगाया है कि वह तानाशाही रवैया अपना रही है। अब यह मामला अखिलेश के दरबार में पहुंच गया है। 

इस बीच जिलाधिकारी जैकब ने कहा कि उन पर लग रहे आरोप निराधार हैं और सौहार्द्र कायम करने के लिए वह प्रतिबद्ध हैं। इससे पूर्व नोएडा के सपा नेता और कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त नरेश भाटी के दबाव में ही सपा सरकार को महिला आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित करना पड़ा था। भाटी का बयान भी तब विवाद का कारण बना था और सरकार की काफी किरकिरी हुई थी।

अरुण कुमार के अलावा अमृत अभिजात, पार्थसारथी सेन और नीरज गुप्ता जैसे वरिष्ठ अधिकारी भी लंबी छुट्टी पर चले गए। सूबे पूर्व महानिदेशक के.एल. गुप्ता ने कहा, "मैं जब सूबे का पुलिस महानिदेशक था तब ईमानदार अधिकारियों को काम करने की पूरी छूट थी और तब किसी नेता का हस्तक्षेप नहीं होता था, लेकिन अब क्या स्थितियां हैं यह तो अंदर काम कर रहे अधिकारी ही बता सकते हैं।"

अरुण कुमार की प्रतिनियुक्ति पर जाने की खबरों के बारे में पूछे जाने पर गुप्ता ने कहा, "यह कोई नई बात नहीं है। अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर हमेशा से ही केंद्र में जाते रहे हैं, लेकिन वह किन परिस्थतियों में जा रहे हैं यह तो वही बता सकते हैं।" सूबे के कद्दावर मंत्री आजम खान ने भी कुछ दिनों पहले प्रमुख सचिव (स्वास्थ्य) प्रबीर कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। उन्होंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर प्रबीर कुमार पर सांप्रदायिक मानसिकता वाला होने के आरोप लगाए थे।

सूबे में अधिकारियों के काम करने लायक महौल पर विपक्षी भी लगातार सवाल उठा रहे हैं। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि उप्र में अधिकारियों के काम करने लायक माहौल ही नहीं बन पा रहा है। सरकार सारे अधिकारियों पर साजिश रचने का आरोप लगा रही है। ऐसे में सूबे का काम कैसे चलेगा, यह बड़ा सवाल है।

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पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व है पितृपक्ष

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 20 सितम्बर से प्रारम्भ होंगे| आखिरी मातामह का श्राद्ध 4 अक्टूबर को होगा। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं| 

श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है|

शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|

पितृ पक्ष का महत्व-

देवताओ से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व होता है| वायु पुराण ,मत्स्य पुराण ,गरुण पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है| पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16 दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है| पूरे 16 दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है| पितृ श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है| भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान - दक्षिणा दी जाती है| 

श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति- 

आश्विन मास के कृ्ष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृ्त्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है| यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं| श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है|

श्राद्ध करते समय इन बातों का रखें विशेष ध्यान-

शास्त्रों में बताए गए विधि -विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए| श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।

1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे - गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।

2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

3 - सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है| 

4 - रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।

5 - आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

6 - केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।

7 - चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

जाने पुत्र के न होने पर कौन-कौन कर सकता है श्राद्ध-

हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए| यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता- पिता करते है। इसलिए हम आप को बताते है कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है| 

- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।

- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।

- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।

- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।

- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।

- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी है।

- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।

- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है।

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यहाँ पुरखों के मोक्ष के लिए 'कौआ भोज'

इसे अंधविश्वास माना जाए या फिर कुछ और कि आम दिनों में घर की खपरैल पर 'कौआ' की हाजिरी को बुंदेली अशुभ मान इन्हें 'हाड़ी' कह कर दुत्कारते हैं, पर पितृ पक्ष में एक पखवाड़ा इन्हीं कौओं से 'दाई-बाबा' का रिश्ता कायम कर पूर्वजों के श्राद्ध में 'कौआ भोज' आयोजित करते हैं। लोगों का मानना है कि पूर्वज कौआ का भी जन्म ले सकते हैं और 'कौआ भोज' से पुरखों को मोक्ष की प्राप्ति होगी। 

वैसे बुंदेलखंड में कई ऐसी पुरानी परम्पराएं आज भी चल रही हैं, जो अंधविश्वास की ओर इशारा करती हैं। अब आप पितृपक्ष में पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को ही ले लीजिए। आम दिनों में घर की चौखट या खपरैल पर कौआ के बैठने को यहां के वाशिंदे अशुभ मानते हैं और उसे 'हाड़ी' कह कर दुत्कार कर भगा देते हैं, लेकिन एक पखवाड़ा चलने वाले पितृपक्ष में इन्हीं कौवों से 'दाई-बाबा' (दादा-दादी) का रिश्ता कायम कर उनकी खातिरी में 'कौआ भोज' तक आयोजित करते चले आ रहे हैं। 

बुजुर्ग लोगों का मानना है कि पूर्वज कौआ का भी जन्म ले सकते हैं, कौवों को भोजन कराने से पुरखों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जल्दी ही उनका मानव के रूप में जन्म भी हो जाता है। खास बात यह है कि श्राद्ध की पूर्वसंध्या पर घर की बुजुर्ग महिला अपने आंगन से ऊंची आवाज लगाकर 'दाई-बाबा' को भोज में शामिल होने का आमंत्रण देती हैं और वही महिला श्राद्ध की सुबह कई प्रकार के पकवान बनाकर घर की खपरैल पर रख देती हैं, जिसे झुंड में पहुंचे कौआ खाते हैं। 

यहां यह बताना जरूरी है कि बुंदेलखंड में गंगापारी कम और सामान्य प्रजाति के कौआ ज्यादा पाए जाते हैं, अगर श्राद्ध के दिन एक भी गंगापारी कौआ इस भोज में शामिल हो गया तो उस परिवार के सदस्य इसलिए बेहद खुश होते हैं कि उनका पूर्वज मोक्ष प्राप्त कर वापस आया है।

इस पुरानी परम्परा के बारे में बांदा जनपद के पनगरा गांव में कई सालों से पितृ पक्ष के क्रियाकर्म कराते आ रहे बुजुर्ग ब्राह्मण पंडित बद्री प्रसाद दीक्षित बताते हैं, "किसी भी धर्मग्रंथ में पूर्वजों के श्राद्ध में कौआ भोज कराने का उल्लेख नहीं है, पर 84 लाख योनि में कौआ भी आता है। कर्मो के आधार पर अगला जन्म होना बताया जाता है, हो सकता है कि किसी का पूर्वज कौआ योनि में जन्म ले लिया हो।" वह बताते हैं कि श्राद्ध के दिन पुण्यदान और भोज कराने की परम्परा चली आ रही है, इसलिए इस पक्षी को भी आमंत्रित किया जाता है। 

इसी गांव की पिछड़े वर्ग की बुजुर्ग महिला सहदेइया (78) बताती हैं कि वह अपने पूर्वजों के श्राद्ध में कई साल से कौवों को भोज में आमंत्रित करती आई है, यह परम्परा कब और कैसे शुरू हुई उसे नहीं मालूम। लेकिन शिक्षित वर्ग इस परम्परा को बकवास और अंधविश्वास मानता है।

इसी गांव के बलराम दीक्षित का कहना है, "गैर शिक्षित समाज में बेमतलब की परम्पराएं थोपी गई हैं, जिनका कुछ भी सामाजिक आशय नहीं है। मरणोपरांत किसका जन्म कहां और किस रूप में हुआ, किसी को पता नहीं है।" यह भले ही अंधविश्वास से जुड़ी परम्परा हो, लेकिन बुंदेलखंड में पूर्वजों का श्राद्ध करने वाला शिक्षित और गैर शिक्षित दोनों वर्ग इस अनूठे भोज का आयोजन करवाता है।

श्राद्ध है पितृऋण से मुक्ति का द्वार

हिन्दू धर्म और वैदिक मान्यताओं के अनुसार अश्विन के श्राद्ध पक्ष के रूप में पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवनकाल में जीवित माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी बरसी तथा महालया (पितृपक्ष) में उनका विधिवत श्राद्ध करे। 

आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अश्विन की अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। तमिलनाडु में इसे आदि अमावसाई, केरल में करिकड़ा वावुबली और महाराष्ट्र में पितृ पंधरवड़ा नाम से जाना जाता है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है। इस वर्ष 20 सितम्बर से पितृपक्ष प्रारम्भ हो रहा है। 

मान्यता है कि जो लोग अपने शरीर को छोड़कर चले जाते है, वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, श्राद्ध पक्ष में वे पृथ्वी पर आते हैं और उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध होता है।

हिन्दु मान्यताओं के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है। ऐसे तो देश के कई स्थानों पर पिंडदान किया जाता है लेकिन बिहार के गया में पिंडदान का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्गवास करते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है।

किंवदंतियों के अनुसार भस्मासुर के वंशज गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं। इस वरदान के मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्राकृतिक नियम के विपरीत होने लगा। लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे। 

इससे बचने के लिए देवताओं ने गयासुर से यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया बनी। परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे। जो भी लोग यहां पर किसी के तर्पण की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने के लिए पिंडदान के लिए गया आते हैं।

विद्वानों के मुताबिक किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक के निमित अर्पित किए जाने वाले पदार्थ की बनाई गई गोलाकृति पिंड होती है। इसे जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाया जाता है।

श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेउ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन कराया जाता है।

पंडों के मुताबिक शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों के श्रेणी में आते हैं। 

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं, जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। वैसे कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्ष्यवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख हैं। 

उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरूक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर, बद्रीनाथ सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन गया का स्थान इनमें सवरेपरी कहा गया है। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर रखा जाने वाला एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाता है।

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अक्षयवट में पिंडदान करने से ही पूरा होता है श्राद्ध

मनुष्य के जीवन में ही नहीं मृत्यु के बाद भी प्रकृति प्रदत वस्तुओं का अलग महत्व है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पीपल, वट, तुलसी सहित कई अन्य वृक्षों की पूजा की जाती है तथा इनमें देवताओं का निवास भी बताया जाता है। गया का अक्षयवट भी एक ऐसी वेदी है, जहां पिंडदान किए बिना श्राद्ध पूरा नहीं होता। 

पितरों (पूर्वजों) की आत्मा की शांति तथा उनके उद्धार (मुक्ति) के लिए किए जाने वाले पिंडदान के लिए बिहार के गया को विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थल माना गया है। आत्मा, प्रेतात्मा तथा परमात्मा में विश्वास रखने वाले लोग अश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से पूरे पितृपक्ष की समाप्ति तक गया में आकर पिंडदान करते हैं। 

पितृपक्ष के अंतिम दिन या यूं कहा जाए कि गया के माड़नपुर स्थित अक्षयवट स्थित पिंडवेदी पर श्राद्धकर्म कर पंडित द्वारा दिए गए 'सुफल' के बाद ही श्राद्धकर्म को पूर्ण या सफल माना जाता है। 

यह परम्परा त्रेता युग से ही चली आ रही है। श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की नगरी गया से थोड़ी दूर स्थित माढ़नपुर स्थित अक्षयवट के बारे में कहा जाता है कि इसे खुद भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर रोपा था। इसके बाद मां सीता के आशीर्वाद से अक्षयवट की महिमा विख्यात हो गई। 

गया के प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर और ब्रह्मयोनि पर्व के साथ-साथ शक्तिपीठ महामाया मंगला गौरी, माहेश्वर मंदिर, मधुकुल्या तीर्थवेदी प्रमुख हैं। प्रसिद्ध पंडा राजगोपाल कहते हैं कि प्राचीन में गया के पंचकोश में 365 वेदियां थीं, परंतु कालांतर में इनकी संख्या कम होती गई और आज यहां 45 वेदियां हैं जहां पिंडदान किया जाता है। 

मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्री राम, लक्ष्मण और सीता के साथ गया में श्राद्धकर्म के लिए आए थे। इसके बाद राम और लक्ष्मण सामान लेने चले गए। इतने में राजा दशरथ प्रकट हो गए और सीता को ही पिंडदान करने के लिए कहकर मोक्ष दिलाने का निर्देश दिया। माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। 

जब भगवान राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ। तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली। 

क्रुद्ध सीता ने तभी फल्गु को बिना पानी की नदी (अंत:सलिला), गाय के गोबर को शुद्ध तथा केतकी फूल को शुभकार्यो से वंचित होने का श्राप दे दिया। अक्षयवट को अक्षय रहने का आर्शीवाद दे दिया। 

एक पंडे ने बताया कि धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक अक्षयवट के निकट भोजन करने का भी अपना अलग महत्व है। अक्षयवट के पास पूर्वजों को दिए गए भोजन का फल कभी समाप्त नहीं होता। वे कहते हैं कि पूरे विश्व में गया ही एक ऐसा स्थान है, जहां सात गोत्रों में 121 पीढ़ियों का पिंडदान और तर्पण होता है। 

यहां पिंडदान में माता, पिता, पितामह, प्रपितामह, प्रमाता, वृद्ध प्रमाता, प्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्ध प्रमातामही, पिताकुल, माताकुल, श्वसुर कुल, गुरुकुल, सेवक के नाम से किया जाता है। गया श्राद्ध का जिक्र कर्म पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण, वाल्मीकि रामायण, भागवत पुराण, महाभारत सहित कई धर्मग्रंथों में मिलता है।

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पितरों की मुक्ति के लिए प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान जरुरी

पितृपक्ष के प्रारम्भ होते ही पिंडदान के लिए उत्तम माने जाने वाले बिहार के गया में लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति व मुक्ति के लिए पिंडदान करने आने लगते हैं। वे पिंडदान के लिए विश्व प्रसिद्ध गया में प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान करना नहीं भूलते। 

आत्मा और प्रेतात्मा में विश्वास रखने वाले लोग आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से पूरे पितृपक्ष की समाप्ति तक गया में आकर पिंडदान करते हैं। मान्यता है कि प्रेतशिला में पिंडदान के बाद ही पितरों को प्रेतात्मा योनि से मुक्ति मिलती है। 

गया में पुराने समय में 365 वेदियां थी जहां लोग पिंडदान किया करते थे लेकिन वर्तमान समय में यहां 45 वेदियां हैं जहां लोग पिंडदान कर अपने पुरखों का श्राद्ध करते हैं। इन्हीं 45 वेदियों में से एक है प्रेतशिला वेदी। 

मान्यता है कि जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें दोबारा जन्म नहीं मिला, ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में लिप्त आत्माओं के लिए अंतिम बार उनकी मृत्यु के एक वर्ष पश्चात गया में मुक्ति तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता है। 

गया शहर से लगभग चार किलोमीटर दूर प्रेतशिला तक पहुंचने के लिए 873 फीट ऊंचे प्रेतशिला पहाड़ी के शिखर तक जाना पड़ता है। ऐसे तो सभी श्रद्धालु पिंडदान करने यहां पहुंचते हैं लेकिन शारीरिक रूप से कमजोर लोगों के लिए इतनी ऊंचाई पर वेदी के होने के कारण वहां तक पहुंचना मुश्किल होता है। वेदी तक पहुंचने के लिए यहां पालकी की व्यवस्था भी है जिस पर सवार होकर शारीरिक रूप से कमजोर लोग यहां तक पहुंचते हैं। 

पंडा पूर्णेश्वर ने बताया कि प्रेतशिला वेदी के पास विष्णु भगवान के चरणों के निशान हैं और इस वेदी के पास पत्थरों में दरार है। मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। उन्होंने बताया कि सभी वेदियों पर तिल, गुड़, जौ आदि से पिंड दिया जाता है लेकिन यहां तिल मिश्रित सत्तु से पिंडदान होता है। उन्होंने बताया कि मृत्यु के बाद प्रेतयोनि में प्रवेश कर अपने ही घर में लोगों को तंग करने वाले पूर्वजों के यहां पिंडदान से उन्हें शांति मिल जाती है और वे मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। 

उन्होंने बताया कि पहले प्रेतशिला का नाम प्रेतपर्वत हुआ करता था लेकिन भगवान राम के यहां आकर पिंडदान करने के बाद इस स्थान का नाम प्रेतशिला हुआ। प्रेतशिला में पिंडदान के पूर्व ब्रह्म कुंड में स्नान-तर्पण करना होता है। गया में पिंडदान करने आए गोरखपुर के अश्विनी शुक्ल कहते हैं कि अगर हमारे पिंडदान से सभी पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है तो यह सभी का कर्तव्य है कि वे यहां आकर अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए पिंडदान करें। उन्होंने कहा कि मरने के बाद कौन कहां जाता है यह गूढ़ रहस्य है, लेकिन पिंडदान आवश्यक है और वह उसका पालन करने यहां आए हैं।

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यहाँ पुरखों के मोक्ष के लिए होता है 'मत्स्य भोज'

इलाका एक, परम्पराएं अलग-अलग। यह आलम है बुंदेलखंड का। पितृपक्ष में एक इलाके के लोग पुरखों के मोक्ष के लिए 'कौआ भोज' करते हैं तो वहीं एक इलाका ऐसा भी है, जहां के लोग बेतवा नदी में 'मत्स्य भोज' आयोजित कर अपने पुरखों के मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं। यहां लोक मान्यता है कि पुरखे 'मत्स्यावतार' में आकर दर्शन देते हैं और मछलियों को आटे की पिंडी दान करने से उनका 'मानवावतार' होगा। ककरीले-पथरीले बुंदेलखंड में कई पुरानी परम्पराएं ऐसी हैं जो अंधविश्वास की ओर इशारा करती हैं। यहां के रीति-रिवाज भी जुदा हैं। अब आप पितृपक्ष को ही ले लीजिए, धर्मनगरी चित्रकूट के आस-पास के बांदा और महोबा व हमीरपुर में पुरखों के मोक्ष के लिए श्राद्ध के दिन 'कौआ भोज' आयोजित करने की सदियों पुरानी परम्परा चली आ रही है तो जालौन जिले के उरई इलाके में लोग श्राद्ध के दिन परासन गांव के बेतवा नदी के घाट पर तड़के पहुंचकर 'मत्स्य भोज' कराते हैं। 

इस इलाके में लोक मान्यता है कि पूर्वज यहां 'मत्स्यावतार' में आकर दर्शन देते हैं और नदी की भारी भरकम मछलियों को पानी में गुंथे आटे की पिंडी दान करने से पुरखे 'मत्स्यावतार' से मुक्त होकर 'मानवावतार' में शीघ्र जन्म लेते हैं।

परासन गांव को महाभारत कालीन महर्षि पाराशर का जन्म स्थान माना जा रहा है। यह गांव बुंदेलखंड के जालौन जनपद के उपजिला उरई में आटा रेलवे स्टेशन की कुछ दूरी पर बेतवा नदी के किनारे बसा हुआ है। यहां आस-पास के दर्जनभर गांवों के लोग एक पखवाड़े तक चलने वाले पितृपक्ष में रोजाना अपने पूर्वजों के श्राद्ध के दिन तड़के पहुंचकर जलतर्पण के बाद मछलियों को गुंथा आटा खिलाते हैं। इलाकाई लोगों का मानना है कि पुरखे यहां पखवाड़ा भर 'मत्स्यावतार' में हाजिर में होकर अपने वंश को दर्शन देते हैं। 

इस गांव के रहने वाले पंडित किशनलाल बताते हैं, "इस क्षेत्र की यह बहुत पुरानी परम्परा है। तड़के से ही बेतवा नदी के घाट पर जलतर्पण के बाद पूर्वजों के मोक्ष के लिए 'मत्स्य भोज' कराने की होड़ लग जाती है। लोग अपने साथ घरों से सूखा आटा लेकर आते हैं और नदी के पानी में गूंथ पिंडी बनाकर मछलियों को खिलाते हैं।"

वह कहते हैं कि इस परम्परा की शुरुआत के बारे में कोई अभिलेखीय साक्ष्य मौजूद नहीं है, पर लोक मान्यता है कि पुरखे यहां पितृपक्ष में 'मत्स्यावतार' में आते हैं और अपने वंश को दर्शन और आशीर्वाद देते हैं। बकौल किशनलाल, "मत्स्य भोज कराने से पूर्वज मत्स्यावतार से मुक्त होकर मानवावतार में शीघ्र जन्म लेने की मान्यता प्रचलित है।" इसी गांव के पूर्व जिला पंचायत सदस्य करन सिंह बताते हैं कि लोक मान्यता कुछ भी हो, पर पितृपक्ष में इस घाट में हजारों की तादाद में भारी भरकम मछलियां मौजूद रहती हैं और उनका शिकार करने पर प्रतिबंध लगा रहता है, जबकि सालभर एक भी मछली नहीं दिखाई देती।

उरई से समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक दयाशंकर वर्मा कहते हैं, "यह अंधविश्वास से जुड़ी आस्था है, आस्था ही परम्परा में बदल जाती है जिसके सामाजिक रूप को दरकिनार नहीं किया जा सकता।" कुल मिलाकर पितृपक्ष में कहीं 'कौआ भोज' तो कहीं 'मत्स्य भोज' आयोजित कर बुंदेली अपने पुरखों को मोक्ष दिलाने की कामना करते हैं, जबकि तल्ख सच्चाई यह है कि कई परिवारों में तमाम जीवित बुजुर्ग दो वक्त की रोटी को तरस रहे हैं, उन्हें उनके बेटे एक बूंद पानी तक देने को तैयार नहीं हैं।

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श्राद्ध के लिए सर्वोत्तम स्थान है गया

वैदिक परंपरा और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना एक महान और उत्कृष्ट कार्य है। मान्यता के मुताबिक पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवन काल में जीवित माता-पिता की सेवा करें और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्यु तिथि (बरसी) तथा महालय (पितृपक्ष) में उसका विधिवत श्राद्ध करें। 

अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने की अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। इस वर्ष 20 सितंबर से पितृपक्ष प्रारंभ हो रहा है। मान्यता के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है। 

ऐसे तो देश के हरिद्वार, गंगासागर, कुरूक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर सहित कई स्थानों में भगवान पितरों को श्रद्धापूर्वक किए गए श्राद्ध से मोक्ष प्रदान कर देते हैं, लेकिन गया में किए गए श्राद्ध की महिमा का गुणगान तो भगवान राम ने भी किया है। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था। 

आचार्यो के मुताबिक जनमानस में यह आम धारणा है कि एक परिवार से कोई एक ही 'गया' करता है। गया करने का मतलब है कि गया में पितरों को श्राद्ध करना, पिंडदान करना। गरूड़ पुराण में लिखा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनते जाते हैं। 'गृहाच्चलितमात्रस्य गयायां गमनं प्रति। स्वर्गारोहणसोपानं पितृणां तु पदे-पदे।'

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग चले जाते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है। 

गया के पंडा रामानंद कहते हैं कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता। पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है। ऐसे तो प्रतिपदा से पिंडदान किया जाता है परंतु पूर्णिमा से भी कई लोग पिंडदान करने लगते हैं। 

पौराणिक मान्यताओं और किवंदंतियों के अनुसार भस्मासुर के वंश में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं। इस वरदान के मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और प्राकृतिक नियम के विपरीत सब कुछ होने लगा। लेाग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे। 

इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से मांगी। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं के यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। 

यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया बनी परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने (मुक्ति) वाला बना रहे। जो भी लोग यहां पर किसी का तर्पण करने की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने के लिए पिंडदान के लिए गया आते हैं। 

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थी जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। पिंडदान के लिए प्रतिवर्ष गया में देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं।

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