गुरु नानक एक जगह से दूसरी जगह बराबर घूमते रहते थे। एक बार वे घूमते-फिरते मक्का जा पहुंचे। वहां पर वे मस्जिद में बेफिक्री के साथ सोए हुए थे। नमाज का वक्त था। संयोग से उनके पांव काबा की ओर थे। वहां के बड़े मुल्ला ने उनको इस तरह लेटे हुए देखा तो आग बबूला हो गया और उनके पास जाकर उन्हें झकझोरते हुए बोला, "अरे काफिर, तुम्हें कुछ पता भी है कि कैसे सोना चाहिए। खुदा की तरफ पांव किए सोए हो। बड़े बदतमीज हो। उठो और खुदा से अपने गुनाह के लिए माफी मांगो।"
गुरु नानक ने हंसते हुए कहा, "मौलवी साहब, आप बजा फरमाते हैं, मुझे सचमुच ही तमीज नहीं कि खुदा की ओर पांव करके नहीं सोना चाहिए। लेकिन मेहरबानी करके आप ही मेरे पांव उस तरफ कर दीजिए, जिस तरफ खुदा न हो।"
मौलवी नसीहत देने की बात भूलकर पानी-पानी हो गया।
धरती का रस :
एक राजा था। एक बार वह सैर करने के लिए अपने शहर से बाहर गया। लौटते समय देर हो गई तो वह एक किसान के खेत में विश्राम करने के लिए ठहर गया। किसान की बूढ़ी मां खेत में मौजूद थी। राजा को प्यास लगी तो उसने बुढ़िया से कहा, "बुढ़िया माई, प्यास लगी है, थोड़ा-सा पानी दे।"
बुढ़िया ने सोचा, एक पथिक अपने घर आया है, चिलचिलाती धूप का समय है, इसे सदा पानी क्या पिलाऊंगी। यह सोचकर उसने अपने खेत में गन्ना तोड़ लिया और उसे निचोड़कर एक गिलास रस निकाल कर राजा के हाथ में दे दिया। राजा गóो का वह मीठा और शीतल रस पीकर तृप्त हो गया। उसने बुढ़िया से पूछा, "माई! राजा तुमसे इस खेत का लगान क्या लेता है?"
बुढ़िया बोली, "इस देश का राजा बड़ा दयालु है। बहुत थोड़ा लगान लेता है। मेरे पास बीस बीघा का खेत है। उसका साल में एक रुपया लेता है।"
राजा के मन में लोभ आया। उसने सोचा, बीस बीघा के खेत का लगान एक रुपया ही क्यों हो! उसने मन में तय किया कि शहर पहुंचकर इस बारे में मंत्री से सलाह करके खेतों का लगान बढ़ाना चाहिए। यह विचार करते-करते उसकी आंख लग गई।
कुछ देर बाद वह उठा तो उसने बुढ़िया माई से फिर गóो का रस मांगा। बुढ़िया ने फिर एक गन्ना तोड़ा और उसे निचोड़ा, लेकिन इस बार बहुत कम रस निकला। मुश्किल से चौथाई गिलास भरा होगा। बुढ़िया ने दूसरा गन्ना तोड़ा। इस तरह चार-पांच गन्नों को निचोड़ा, तब जाकर गिलास भरा।
राजा यह दृश्य देख रहा था। उसने किसान की बूढ़ी मां से कहा, "माई, पहली बार तो एक गóो से ही पूरा गिलास भर गया था, इस बार वही गिलास भरने के लिए चार-पांच गóो तोड़ने पड़े, इसका क्या कारण है?"
किसान की मां बोली, "यह बात तो मेरी समझ में भी नहीं आती। धरती का रस तो तब सूखा करता है जब राजा की नीयत में फर्क, उसके मन में लोभ आ जाता है। बैठे-बैठे इतनी ही देर में ऐसा कैसे हो गया! फिर हमारे राजा तो प्रजा की भलाई करने वाले, न्यायी और धरम बुद्धिवाले हैं। उनके राज्य में धरती का रस कैसे सूख सकता है।"
बुढ़िया का इतना कहना था कि राजा को चेत हो गया कि राजा का धर्म प्रजा का पोषण करना है, शोषण करना नहीं और उसने तत्काल लगान न बढ़ाने का निर्णय कर लिया।
..और मौलवी की आंखें खुल गईं :
एक स्त्री शाम को अभिसार के लिए अपने घर से निकली। वह इतनी मस्त हो रही थी कि उसके पांव सीधे नहीं पड़ रहे थे और न उसे अपना-पराया ही कुछ सूझ रहा था। रास्ते में मस्जिद के बड़े मौलवी अपना मुसल्ला बिछाए उस पर नमाज पढ़ रहे थे। अनजाने में वह नमाज के लिए बिछे मुसल्ले को रौंदती हुई निकल गई। मौलवी को बड़ा गुस्सा आया, लेकिन वह उस समय कुछ बोले नहीं, क्योंकि बोलने से नमाज में खलल पड़ने का डर था।
नमाज पूरी होने पर भी वह वहीं बैठे रहे और इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि वह स्त्री वापस आए तो उसे उलाहना दें, धमकाएं और आगे के लिए नसीहत दें। कुछ देर बाद वह स्त्री वापस आई तो मौलवी ने कहा, "भली मानस, तुम्हें दीखता नहीं, मैं खुदा की इबादत कर रहा था और तुम मेरे नमाज के लिए बिछाए हुए मुसल्ले को रौंदती, उसे नापाक करके आगे बढ़ गईं! तुम्हारी आंखें फूटी तो नहीं हैं! जरा देखकर चला करो।"
स्त्री ठहाका मारकर हंसी। बोली, "मौलवी साहब, खता माफ हो, लेकिन मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं कि अगर आप खुदा की इबादत कर रहे थे तो आपको यह सूझ कैसे पड़ा कि कौन आया था और कौन गया था? इबादत करने वाला तो उसे कहते हैं, जिसके लिए यह कहा जा सके कि "तन की कछु न सम्हार।"
इतना सुनते ही मौलवी की आंखें खुल गईं।
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