आज भी विरासत के दर्जे के लिए तरस रही भगवान कृष्ण की यह नगरी

अपनी अनूठी समृद्ध परंपरा और भौतिक संपदा के संरक्षण के लिए भगवान कृष्ण की यह नगरी आज भी विरासत के दर्जे के लिए तरस रही है। दुनिया का सबसे लंबा निर्माणाधीन कृष्ण मंदिर, अनगिनत धार्मिक मंदिर, जंगल और ऐतिहासिक पवित्र तलाब देखने हर वर्ष यहां लाखों लोग आते हैं। गैर सरकारी संस्था ब्रज फाउंडेशन के रजनीश कपूर ने कहा, “ब्रज मंडल स्थित सैकड़ों पवित्र तालाब और वृक्ष कृष्ण और राधा की अठखेलियों के गवाह हैं। दुनियाभर में मौजूद करोड़ों भक्त इन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं तथा इसकी पूजा करते हैं। विरासत का दर्जा देकर इनके अस्तित्व को बचाने की जरूरत है।”

सामाजिक कार्यकर्ता राकेश हरिप्रिय ने कहा, “कई पुस्तकों में वृंदावन की चर्चा ब्रज के केंद्र के रूप में की गई है। 117 किलोमीटर के क्षेत्र में फैले वृंदावन में मौजूद अधिकांश गांवों, जलाशयों और स्थलों के जीवंत परंपराओं की चर्चा स्थानीय लोकगीतों में की गई है, जो श्रीमद् भागवत से जुड़ी है।” हर वर्ष लाखों की संख्या में दुनिया भर के वैष्णव वृंदावन आते हैं और कृष्ण तथा राधा से जुड़े मंदिरों की परिक्रमा करते हैं।

मथुरा-वृंदावन-गोवर्धन सर्किट में हर वर्ष दर्जनों मेलों और उत्सवों का आयोजन होता है, जिसमें लाखों तीर्थयात्री आते हैं। अनुमान के मुताबिक, इनकी संख्या आठ लाख से 80 लाख के बीच है। गोपी वल्लभ नामक पंडा ने कहा, “हर महीने लाखों की संख्या में तीर्थयात्री गोवर्धन परिक्रमा करते हैं।” एनजीओ फ्रेंड्स ऑफ वृंदावन के संयोजक जगन नाथ पोद्दार ने कहा, “वृंदावन में सालाना 80 लाख तीर्थयात्री आते हैं, जो ब्रज की भक्ति विरासत का जीवंत प्रदर्शन है। ये तीर्थयात्री गोवर्धन पर्वत की 21 किलोमीटर लंबी परिक्रमा सहित कई तरह की अनूठी और दिल को छू जाने वाली गतिविधियां करते हैं।”

ब्रज विधान हेरिटेज अलायंस (वीव्हीएचए) के संयोजक मधुमंगल शुक्ला ने कहा, “कला-संस्कृति में भी इस क्षेत्र का विशेष दखल है। इस इलाके में हवेली संगीत, समाज गायन, रास लीला संगीत की प्रमुखता है, जबकि चाराकूला नृत्य यहां बेहद प्रचलित है। साहित्य की बात करें, तो ब्रजभाषा में हिंदी साहित्य को महान कवियों रसखान और सूरदास ने समृद्ध किया है।” भारत के सभी दार्शनिक स्कूलों के आश्रम वृंदावन में हैं, जो इसे भारत में मौजूद किसी अन्य तीर्थस्थल की तुलना में हिंदू दर्शन का प्रमुख केंद्र बनाता है।

वृंदावन और ग्रेटर ब्रज में प्रेम से प्रेरित कई वास्तुशिल्प मौजूद हैं। वृंदावन और ब्रज राजकीय संरक्षण का भव्य इतिहास समेटे हुए है। महामंत्र या गोविंदा के रूप में कृष्ण का नाम दुनिया का सबसे ज्यादा रिकॉर्डेड और सबसे ज्यादा बार सुना गया संगीत है। पोद्दार ने कहा, “उम्मीद है मथुरा की सांसद हेमा मालिनी इस मुद्दे पर ध्यान देंगी और जल्द ही बदलाव देखने को मिलेंगे। ब्रज इलाके के विकास के लिए राज्य सरकार पहले ही अलग से एक समिति का गठन कर चुकी है।”

पोद्दार ने यह भी कहा कि इस दिशा में हालांकि किसी भी स्तर पर प्रयास नहीं हुआ है जबकि वृंदावन की जो समृद्ध विरासत है, उसे देखते हुए ऐसा बहुत पहले किया जाना चाहिए था। पोद्दार ने कहा, “वृंदावन के गांव उजड़ रहे हैं। यहां की संस्कृति भूमि माफियाओं के हाथों मर रही है। स्थानीय लोगों तक को इसकी चिंता नहीं क्योंकि वे धन की लालच में अपनी जमीन बेच देते हैं और बिल्डर इस पर फ्लैट्स बना देते हैं। इसके बाद ब्लैक मनी को व्हाइट में बदलने वाले उन्हें खरीद लेते हैं लेकिन यहां रहने कोई नहीं आता। यह बंद होना चाहिए। यह यहां की सांस्कृति विरासत पर हमला है।”

पोद्दार यह भी कहते हैं कि सांसद हेमा मालिनी का विधवाओं को लेकर दिया गया बयान सर्वादा उचित है क्योंकि यह सच को प्रदर्शित करता है। बकौल पोद्दार, “वृंदावन विधवाओं और उपेक्षित महिलाओं के लिए शरणगाह हो सकता है लेकिन यह वैश्यावृति का केंद्र नहीं हो सकता। यहां भजन-कीर्तन के लिए आना गलत नहीं लेकिन उसकी आड़ में यहां आकर कुछ और करना या करवाना गलत है।”

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बिग बॉस 8 : दिलचस्प यात्रियों के साथ बिग बॉस 008 का सफर शुरू


लगभग नौ महीनों के लम्बे इंतज़ार के बाद टीवी के सबसे चर्चित रियलिटी शो बिग बॉस सीजन 8 को एक बार फिर दर्शकों के सामने लेकर आ चुकें इस शो के पायलट सलमान खान| कल रात शो अपने पायलट सलमान खान के साथ अपने 104 दिन के सफर पर निकल चुका है| सलमान अपनी सुपरहिट फिल्म 'किक' के गाने 'हैंगओवर' और 'जुम्मे की रात' पर डांस करते हुए मंच पर आए उनके साथ खूबसूरत और ग्लैमरस एयर होस्टेज भी साथ थीं| उनके इस प्रीमियर परफॉर्मेंस को रेमो डिसूजा ने कोरियोग्राफ किया था|



इस बार बिग बॉस का थीम 'एयरोप्लेन' रखा गया है| इसलिए शो की ओपनिंग में होस्ट और पायलट सलमान खान ने वेलकम इंट्रो नहीं पायलट की तरह अनाउंसमेंट की| बिग बॉस-8 के प्रीमियर में पिछले सीजन की कंटस्टेंट और सलमान की चहेती एली अवराम भी मंच पर मौजूद थीं| प्रीमियर के दौरान सल्लू ने बड़ी गर्मजोशी से एली का स्वागत किया और प्यार से गले लगाया| एली अपनी फिल्म मिकी वायरस के डायलॉग के साथ एंट्री करती नजर आईं| सलमान ने एली के साथ खूब मस्ती की| अरमान कोहली भी मंच पर नजर आये|

बिग बॉस-8 में प्रतिभागी किसी मकान में नहीं बल्कि एक विमान में रहेंगे| यानी सभी प्रतिभागी या फिर यूं कह लें के सभी 'यात्री' विमाननुमा सेट में नजर आएंगे| बिग बॉस-8 में 12 कंटस्टेंटस है| इसके अलावा तीन सदस्यों की एक 'सीक्रेट सोसायटी' है जो घरवालों पर हुकूमत करेगी| सबसे खास बात उन्हें नॉमिनेट नहीं किया जा सकता| बिग बॉस का सीजन तो हमेशा ही सुर्ख़ियों में रहता है लेकिन इससे ज्यादा उसके प्रतिभागी चर्चा में रहते हैं| आइये डालतें हैं एक नजर बिग बॉस 008 की फ्लाइट पकड़ने वाले नए यात्रियों के बारे में|

मिनिषा लांबा
अभिनेत्री मिनिषा लांबा ने वर्ष 2005 में फिल्म 'यहां' से बॉलीवुड में करियर की शुरुआत की| 'बचना ए हसीनों', 'कॉरपोरेट', 'वेल डन अब्बा' और 'जिला गाजियाबाद' समेत कई फिल्मों में नजर आ चुकी हैं| पंजाबी और कन्नड़ फिल्मों में भी किस्मत आजमाने वाली मिनिषा अब 'बिग बॉस' के प्लेन से 3 महीने के सफर पर निकल चुकीं हैं अब देखना है कि उनका ये सफर कहाँ तक पहुँचता है



आर्य बब्बर

राज बब्बर और नादिरा बब्बर के बेटे आर्य बब्बर भी इस फ्लाइट का हिस्सा बने हैं| वर्ष 2002 में फिल्म 'अब के बरस' से हिंदी सिनेमा में करियर की शुरुआत की लेकिन हिंदी फिल्मों अपनी जगह बनाने में कामयाब नहीं रहे| पंजाबी फिल्मों में भी साख बनाने की कोशि‍श कर रहें हैं| खुद को दिल और तौर-तरीकों से पूरी तरह पंजाबी बताते हैं| सलमान ने उनसे पूछा कि वो बिग बॉस में सबसे ज्यादा क्या मिस करने वालें हैं तब आर्य ने साफ शब्दों में उनका जवाब था सेक्स और पिज्जा |



नताशा 
साल 2012 में नतासा सर्बिया से भारत आईं नताशा ने कुछ टेलीविजन विज्ञापनों में भी काम किया है। इतना ही नहीं कुछ ही महीनों पहले वह एक विज्ञापन में वह रणवीर सिंह के साथ भी नजर आई थीं। नताशा प्रकाश झा की फिल्म 'सत्याग्रह' के आइटम नंबर 'आइयो जी हमरी अटरिया में' भी नजर आई थीं। सलमान ने तो नताशा की तुलना एली से कर दी|



सोनाली राउत
वर्ष 2010 में किंगफिशर कैलेंडर का हिस्सा बनने के कारण चर्चा में आईं सोनाली ने 2014 में मैक्सि‍म मैगजीन के लिए भी मॉडलिंग की| उसके बाद रणवीर सिंह के साथ एक एड फिल्म में नजर आ चुकी हैं| हिमेश रेशमिया की फिल्म 'एक्सपोज' से बॉलीवुड में एंट्री भी ले चुकीं हैं|



सुशांत दिवगीकर
मिस्टर गे 2014' सुशांत दिवगीकर बिग बॉस सीजन 8 के खास मेहमान हैं|



उपेन पटेल
ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के सुपरमॉडल| उपेन वर्ष 2006 में आई '36 चाइना टाउन' से फिल्मी करियर की शुरुआत की थी | जब प्रेम की गजब कहानी में वो कैटरीना कैफ के साथ नजर आये थे| वर्ष 2014 में वो आखरी बार रन भोला रन में नजर आये थे|



डायांड्रा सोरेस
मॉडल, एंकर, फैशन डिजाइनर और एक्ट‍िंग करियर में दिलचस्पी रखने वाली डायांड्रा रैम्प पर अपने बॉल्ड लुक के लिए याद रखी जाती हैं| मधुर भंडारकर की फिल्म 'फैशन' में नजर आ चुकी हैं|



करिश्मा तन्ना
टीवी शो 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में इंदिरा के किरदार से फेसम हुईं करिश्मा ने 'कुसुम', 'एक लड़की अनजानी सी', 'कोई दिल में है' जैसे शो के जरिए टीवी की दुनिया में खास पहचान बनायी| उसके बाद उन्होंने बड़े परदे का रुख किया 2005 में फिल्म 'दोस्ती' से बड़े पर्दे पर एंट्री की| 2013 में 'ग्रैंड मस्ती' में नजर आई थी|



सोनी सिंह
छोटे पर्दे की जानीमानी 'वैम्प' सोनी सिंह भी इस फ्लाइट में स्वर हो चुकीं हैं| टीवी शो 'बनूं मैं तेरी दुल्हन' से करियर की शुरुआत करने वाली सोनी को 'सरस्वतीचंद्र' में कलिका के नेगेटिव रोल के लिए जाना जाता है|



प्रणीत भट्ट
'महाभारत' में शकुनी मामा के किरदार निभाने वाले परवीन भट्ट भी सफर पर हैं| खुद को सलमान खान का फैन बताते हैं|



सुकीर्ति कांडपाल
'दिल मिल गए' में डॉ. रिधि‍मा बन कर दिलों में छाने वाली सुकीर्ति इसके अलावा 'प्यार की एक कहानी', 'जर्सी नंबर-10', 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' जैसे कई चर्चि‍त शो का हिस्सा रह चुकी हैं|



गौतम गुलाटी
'दीया और बाती हम' में विक्रम राठी का किरदार निभाने वाले विक्रम ने भी उड़ान भर ली है| इसके अलावा विक्रम 'क्रेजी स्टूपिड इश्क' और 'प्यार की एक कहानी' में भी नजर आ चुके हैं| इनका सफर तो शुरू हो चुका है अब देखतें है किसका सफर मुकाम तक पहुँचता है और किसका अधूरा रहता है|



जानिए भगवान को क्यों चढ़ाते हैं अक्षत

घर हो या मंदिर आपने देखा होगा कि पूजा करते वक्त लोग भगवान को चावल यानि की अक्षत चढ़ाते हैं| क्या कभी आपने सोचा है कि आखिर क्या वजह है जो लोग भगवान को अक्षत अर्पित करते हैं?

शास्त्रों और पुराणों में बताया गया है कि अन्न और हवन यह दो साधन है जिनसे ईश्वर संतुष्ट होते हैं। मानव की तरह अन्न से देवता और पितर भी तृप्त होते हैं। इनकी तृप्ति से ही घर में खुशहाली और अन्न धन की वृद्धि होती है। इसलिए भगवान को अक्षत के रुप में अन्न अर्पित किया जाता है।

इसके अलावा शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान को वही चावल अर्पित करना चाहिए जो खंडित नहीं हो यानी अक्षत हो ताकि हम भगवान को यह बताएं कि हमारी भक्ति और आस्था में कहीं भी कोई खोट और कमी नहीं है और आप हमारी भक्ति को इसी रुप में स्वीकार करें।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि जो मुझे अर्पित किए बिना अन्न और धन का भोग करता है उसे चोर मानना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों को परलोक में चोरी के अपराध के लिए दंडित किया जाता है। इसलिए अक्षत के रुप में चावल अर्पित करके भगवान से यह प्रार्थना की जाती है कि हम जो भी अन्न धन कमाते हैं या हमारे पास जो कुछ भी है वह आपको अर्पित है। ऐसा करके हम चोरी के अपराध से मुक्त हो जाते हैं।

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वह चीखती चिल्लाती रही, प्रेत भगाने के नाम पर लुक्का बाबा उसके सिर के बाल पकड़कर पीटता रहा

बाराबंकी| उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले में एक ढोंगी बाबा ने प्रेत बाधा के नाम पर एक महिला को अमानवीय तरीके से पीटना शुरू कर दिया| महिला चीखती चिल्लाती बचाने की गुहार करती रही लेकिन बाबा उसके सिर के बाल पकड़कर पीट-पीट कर प्रेत को भगाने का दावा करता रहा|अन्त में कथित ओझा ने उस महिला के बाल उखाड़ना शुरू कर दिया| बाबा की पिटाई व बाल उखाड़ने की असहनीय पीड़ा से महिला बेहोश हो गई। बाद में ग्रामीणों के विरोध पर छुड़ाकर उसे हास्पिटल लाया गया। जहां पर उसकी गम्भीर हालत को देखते हुए ट्रॉमा सेन्टर रेफर कर दिया गया।

प्राप्त जानकारी के अनुसार , रामसनेहीघाट के इटहुआ निवासी राजेन्द्र प्रसाद रावत के पिता मनीराम की मौत एक पखवाडा पूर्व हो जाने के बाद घर में गमी के माहौल के चलते राजेन्द्र की 28 वर्षीय पत्नी कमला देवी बीमार हो गई, कई दिनों तक इलाज कराने के बावजूद कोई फायदा न होने पर कुछ लोगों ने राजेन्द्र को गांव के बाहर काशीदास की समाधि पर रहकर कथित ओझाई करने वाले लुक्का बाबा उर्फ मनोज कुमार को दिखाने की सलाह दी। 

राजेन्द्र गुरुवार की शाम अपनी पत्नी कमलादेवी को लेकर समाधि स्थल पर पहुंचा जहां पर कथित लुक्का बाबा ने शाम को करीब 7 बजे पहले धूप बत्ती सुलगा कर पूजा पाठ शुरू किया उसके बाद उसने प्रेत भगाने के नाम पर उसकी पत्नी को अमानवीय तरीके से पीटना शुरू कर दिया महिला चीखती चिल्लाती बचाने की गुहार करती रही परन्तु बाबा उसके सिर के बाल पकड़कर पीट पीट कर प्रेत को भगाने का दावा करता रहा अन्त में कथित ओझा ने कमला के बाल उखाड़ना शुरू कर दिया बाबा की पिटाई व बाल उखाड़ने की असहनीय पीड़ा से महिला बेहोश हो गई। महिला के बेहोश होने के बाद कुछ ग्रामीणों ने बाबा की हरकतों का विरोध किया और उसे छुड़ाकर एक नर्सिंग होम ले गए| जहां पर उसकी गम्भीर हालत को देखते हुए ट्रॉमा सेन्टर रेफर कर दिया गया।

गुणों की खान हैं अश्वगंधा, सफेद मूसली, शतावरी, गोखरू आदि

आपने एक कहावत सुनी होगी 'जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन'| यह बात आज वैज्ञानिकों ने भी मान ली| मनुष्य के जीवनकाल में सेक्स का अह्म स्थान होता है। खुशहाल दांपत्य जीवन के लिए अच्छी सेक्सुअल लाइफ का होना भी जरूरी है। यौन सुख के लिए लोग न जाने कितने जतन करते हैं, तरह-तरह की दवाइयां, वनस्पतियां उपयोग में लाते हैं| करें भी क्यों न क्योंकि पुरुषों और महिलाओं के लिए ताकत और ऊर्जा देने वाले उत्पादों की बाज़ार में होड़ सी जो लगी है। इसके चलते कई महत्वपूर्ण औषधीय पौधों जैसे अश्वगंधा, सफेद मूसली, शतावरी, गोखरू, आदि पर तो जैसे ‘सेक्स मेडिसिन’ का ठप्पा लगा है। तथाकथित सेक्स मेडिसिन्स के नाम पर बेची जानी वाली इन जड़ी बूटियों के अन्य महत्वपूर्ण गुण भी हैं जिन्हें दरकिनार कर दिया जाता है| 

सबसे पहले बात करते हैं शतावरी| इसकी जड़ें उंगलियों की तरह दिखाई देती हैं जिनकी संख्या लगभग सौ या सौ से अधिक होती है और इसी वजह से इसे शतावरी कहा जाता है। यह एक बेल है, जिसकी जड़ों मे सेपोनिन्स और डायोसजेनिन जैसे महत्वपूर्ण रसायन पाए जाते हैं। इसके पत्ते भी काम गुणकारी नहीं है| पत्तों का रस (लगभग दो चम्मच) दूध में मिलाकर दिन में दो बार लिया जाए तो यह शक्तिवर्धक होता है। यदि पेशाब के साथ खून आने की शिकायत हो तो शतावरी का सेवन लाभकारी होता है। प्रसूता माता को यदि दूध नहीं आ रहा हो या कम आता हो तो शतावरी की जड़ों के चूर्ण का सेवन दिन में कम से कम चार बार अवश्य करना चाहिए। जानकारों का मानना है कि शतावरी की जड़ों के चूर्ण का सेवन बगैर शक्करयुक्त दूध के साथ लगातार किया जाए तो मधुमेह के रोगियों को काफी फायदा होता है। 

इसके बाद बात करते हैं सफ़ेद मूसली की| इसे बतौर सेक्स मेडिसिन बहुत प्रचारित किया गया लेकिन इसके अन्य औषधीय गुणों पर कम ही चर्चा होती है। यदि जानकारों की माने तो यदि आपको पेशाब में जलन की शिकायत रहती है तो सफेद मूसली की जड़ों के चूर्ण के साथ इलायची मिलाकर दूध में उबालते हैं और पेशाब में जलन की शिकायत होने पर रोगियों को दिन में दो बार पीने की सलाह देते हैं। इन्द्रायण की सूखी जड़ का चूर्ण और सफेद मूसली की जड़ों के चूर्ण की समान मात्रा (1-1 ग्राम) लेकर इसे एक गिलास पानी में डालकर खूब मिलाया जाए और मरीज को प्रतिदिन सुबह दिया जाए। ऐसा सात दिनों तक लगातार करने से पथरी गलकर बाहर आ जाती है। अक्सर बदन दर्द की शिकायत करने वाले लोगों को प्रतिदिन इसकी जड़ों का सेवन करना चाहिए, फायदा होता है। तो आपने देखा कितने काम की चीज है सफ़ेद मूसली| 

अब बात करते हैं अश्वगंधा की| औषधि के रूप में मुख्यत: अश्वगंधा की जड़ों का प्रयोग किया जाता है। प्रतिदिन अश्वगंधा के चूर्ण की एक-एक ग्राम मात्रा तीन बार लेने पर शरीर में हीमोग्लोबिन, लाल रक्त कणों की संख्या में काफी इजाफा होता है और बालों का कालापन भी बढ़ता है। अश्वगंधा के प्रत्येक 100 ग्राम में 789.4 मिलीग्राम लोहा पाया जाता है। लोहे के साथ ही इसमें पाए जाने वाले मुक्त अमीनो अम्ल इसे एक अच्छा हिमोटिनिक (रक्त में लोहा बढ़ाने वाला) टॉनिक बनाते हैं। कफ तथा वात संबंधी दोषों को दूर करने की शक्ति भी इसमें होती है। थायराइड या अन्य ग्रंथियों की वृद्धि में इसके पत्तों का लेप करने से फायदा होता है। यह नींद लाने में भी सहायक होता है। इसके अलावा सड़कों व नहरों के किनारे पाये जाने वाले गोखरू के पौधे को तो देखा ही होगा आपने| यह भी गुणों का खान है| गोखरू के पौधे को पीसकर सूजन वाले स्थान पर लगाने से सूजन दूर होती है और प्रतिदिन दो बार इसके आधे कप काढ़े के सेवन से भूख मर जाती है। इससे मोटापा भी कम होता है। दमा के रोगियों को गोखरू के फल और अंजीर के फल समान मात्रा में लेना चाहिए और दिन में तीन बार लगभग पांच ग्राम मात्रा का सेवन करना चाहिए, दमा ठीक हो जाता है। तो देखा आपने कितने काम की हैं यह वनस्पतियां|

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..यहाँ स्त्री रूप में पूजे जाते हैं शुभ-लाभ के स्वामी भगवान गणेश!

अभी तक आपने भगवान भोलेनाथ को ही सुना था कि उनकी माँ दुर्गा की रूप में पूजा की जाती है| आज आपको उनके बेटे भगवान श्रीगणेश के बारे में बताने जा रहे हैं| एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान गणेश की स्त्री के रूप में पूजा की जाती है| हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश बुद्धि, श्री यानी सुख-समृद्धि और विद्या के दाता हैं। उनकी उपासना और स्वरूप मंगलकारी माने गए हैं। गणेश के इस नाम का शाब्दिक अर्थ– भयानक या भयंकर होता है। क्योंकि गणेश की शारीरिक रचना में मुख हाथी का तो धड़ पुरुष का है। सांसारिक दृष्टि से यह विकट स्वरूप ही माना जाता है। किंतु इसमें धर्म और व्यावहारिक जीवन से जुड़े गुढ़ संदेश है। 

रिद्धि-सिद्धि के दाता और शुभ-लाभ के स्वामी भगवान गणेश के अनेकों नामों में से उनका एक नाम विनायकी भी है अर्थात गणेश-लक्षणों युक्त स्त्री। धर्म शास्त्रों में गणपति को स्त्री रूप में पूजते हुए उन्हें विनायकी, गजानना, विद्येश्वरी और गणेशिनी भी कहा गया है। ये सभी नाम गणेश जी के संबंधित नामों के स्त्रीलिंग रूप हैं। हथिनी का सिर वाली स्त्री की कई प्रतिमाएं भी मिली हैं, जिनमें गणेश की तरह लंबोदर, फरसा, मोदक, अभय मुद्रा, मूषक जैसे लक्षण भी हैं। हालांकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ये स्त्री गणेश ही हैं। दरअसल, हिन्दू धर्म की तंत्र शाखा में एक योगिनी हथिनी के सिर वाली है। जबलपुर के समीप चौसठ योगिनी मंदिर और उड़ीसा के हीरापुर स्थित योगिनी मंदिर में ऐसी प्रतिमाएं देखी जा सकती हैं।

विदिशा के समीप विनायक और विनायकी के दोनों रूप एक साथ विराजित हैं। कोलकाता के संग्रहालय में वृषभमुखी अष्टभुजी दुर्गा के समीप चतुर्भुजी विनायकी की छोटी-सी प्रतिमा है। मान्यता है कि यह प्रतिमा सतना से प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त विंध्य, तमिलनाड़ु के चिदंबरम, मदुरै और सुचिंद्रम, उड़ीसा के रानीपुर झरियाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार और असम में भी ऐसी प्रतिमाएं प्राप्त होती रही हैं।

भक्तों का मानना है कि भगवान गणेश के लक्षणों से युक्त स्त्री माता पार्वती की दासी मालिनी हो सकती है, जिन्होंने एक कम प्रचलित कथा के अनुसार गणेश को गर्भ में रखा था। कहीं उन्हें शिव के एक रूप ईशान की पुत्री भी कहा गया है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, अंधकासुर के वध के लिए देवियों ने अपनी-अपनी शक्तियों का एक सम्मिलित रूप तैयार किया था। मतस्य पुराण और विष्णु धर्मत्तोर पुराण गणपित की शक्ति को योद्धा देवियों के साथ ही सूची बद्ध करते हैं। इसी शक्ति का नाम विनायकी और गणेश्वरी है। स्त्री गणेश को सप्तमातृका में से एक माना जाता है, जबिक कहीं-कहीं उन्हें नव मातृका भी कहा गया है।

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भगवान विश्वकर्मा की पूजा से होती है धन-धान्य की प्राप्ति

शिल्प और यंत्रों के देवता भगवान विश्वकर्मा की जयंती (17 सितंबर) देश के कई हिस्सों में धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे, मशीनों तथा औजारों से संबंधित कार्य करने वाले, वाहन शोरूम आदि में विश्वकर्मा की पूजा की जाती है। इस अवसर पर मशीनों और औजारों की साफ-सफाई आदि की जाती है और उन पर रंग किया जाता है।

भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षाऋतु के अंत और शरदऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं। चूंकि सूर्य की गति अंग्रेजी तारीख से संबंधित है, इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंंबर को पड़ती है। जैसे मकर संक्रांति अमूमन 14 जनवरी को ही पड़ती है। ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय: 17 सितंबर को ही पड़ती है। इसलिए विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितंबर को ही मनाई जाती है।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थीं, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा रचित ही थे। ‘सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता भी विश्वकर्मा थे। इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है। विश्वकर्मा को देवताओं के शिल्पी के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

भगवान विश्वकर्मा की महत्ता को सिद्ध करने वाली एक कथा भी है। कथा के अनुसार, काशी में धार्मिक आचरण रखने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण तो था, परंतु स्थान-स्थान पर घूमने और प्रयत्न करने पर भी वह भोजन से अधिक धन प्राप्त नहीं कर पाता था। उसके जीविकोपार्जन का साधन निश्चित नहीं था। पति के समान ही पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी।

पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा, ‘तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी अवश्य ही इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य सुनो।’ इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। तभी से विश्वकर्मा की पूजा धूमधाम से की जाने लगी।

पितृपक्ष पर विशेष: पिंडदान से पितरों की मुक्ति

पुत्र का कर्तव्य तभी सार्थक माना जाता है, जब वह अपने जीवनकाल में माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्युतिथि (बरसी) तथा महालया (पितृपक्ष) में विधिवत श्राद्ध करे| इस वर्ष श्राद्ध का पखवाड़ा (पितृपक्ष) नौ सितंबर से प्रारंभ हो रहा है| श्राद्ध की मूल कल्पना वैदिक दर्शन के कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित है| कहा गया है कि आत्मा अमर है, जिसका नाश नहीं होता| श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों और वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है|

मान्यता है कि जो लोग अपना शरीर छोड़ जाते हैं, वे किसी भी लोक में या किसी भी रूप में हों, श्राद्ध पखवाड़े में पृथ्वी पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण से तृप्त होते हैं| हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है| यों तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है, परंतु बिहार के फल्गु तट पर बसे गया में पिंडदान का बहुत महत्व है| कहा जाता है कि भगवान राम और देवी सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था|

महाभारत में लिखा है कि फल्गु तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य श्राद्धपक्ष में भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) के दर्शन करता है, वह पितरों के ऋण से विमुक्त हो जाता है| कहा गया है कि फल्गु श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन-ये तीन मुख्य कार्य होते हैं| पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि व विधान अलग-अलग है| श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं|

गया को विष्णु का नगर माना गया है| यह मोक्ष की भूमि कहलाती है| विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है| विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग में वास करते हैं| माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है| गया के पंडा देवव्रत ने बताया कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता| पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है|

किंवदंतियों के अनुसार, भस्मासुर के वंशज में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं| उसे यह वरदान तो मिला, लेकिन दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्राकृतिक नियम के विपरीत होने लगा, क्योंकि लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे|

इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से की| गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया| दैत्य गयासुर जब लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया| यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया कहलाई| गयासुर के मन से मगर लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और उसने देवताओं से फिर वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे| जो भी लोग यहां पर पिंडदान करें, उनके पितरों को मुक्ति मिले. यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने यानी पिंडदान के लिए गया आते हैं|

विद्वानों के मुताबिक, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है| प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है| पिंडदान के समय मृतक के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पदार्थ, जिसमें जौ या चावल के आंटे को गूंथकर बनाया गया गोलाकृति पिंड कहलाता है| दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है| जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता| मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं| इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है|

पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है| पितरों की श्रेणी में मृत माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं| व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं| कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था| इनमें से अब 48 ही बची हैं| हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं| इस समय इन्हीं 48 वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं| यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट के नीचे पिंडदान करना जरूरी माना जाता है|

उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर, बद्रीनाथ सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है| इनमें गया का स्थान सर्वोपरि कहा गया है| गरुड़ पुराण में कहा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाते हैं| संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवनकाल में ही कर लेते हैं| गरुड़ पुराण और मत्स्य पुराण में वर्णित है कि श्रद्धा से अर्पित वस्तुएं पितरों को उस लोक में प्राप्त होती हैं, जिसमें वे रहते हैं| लोग श्राद्ध के दौरान कौवों, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं| मान्यता है कि कुत्ता और कौवा यम के करीबी हैं और गाय वैतरणी पार कराती है| 

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जानिए श्राद्ध में क्यों नहीं इस्तेमाल करते हैं लोहे का बर्तन ?

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 9 सितम्बर से प्रारम्भ होंगे| आखिरी मातामह का श्राद्ध 24 सितम्बर को होगा। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं|

श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है| शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|

अब सबसे बड़ी बात यह कि आपने देखा होगा कि श्राद्ध में लोग पूजा के लिए तांबा अथवा कांसे के बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन किसी भी दशा में आपने लोहे के बर्तन को इस्तेमाल होते हुए नहीं देखा होगा| क्या आप जानते हैं कि लोहे के बर्तन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता है| ज्योतिष के अनुसार, लोहा प्रयोग पूजा या श्राद्घ में इसलिए नहीं होता है क्योंकि लोहा निम्न धातु है इसलिए इसे अशुद्घ माना गया है। जबकि सोना-चांदी, तांबा, पीतल और कांसा इन धातुओं को पवित्र और उत्तम माना गया है। इनके अभाव में केले के पत्ते को छोड़कर बाकि अन्य पत्तल का इस्तेमाल किया जा सकता है।

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पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व है पितृपक्ष

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। श्राद्ध महापर्व आठ सितंबर से शुरू हो रहा है। यह 23 सितंबर तक सर्वपितृ श्राद्ध तक चलेगा। 24 सिंतबर को केवल स्नान-दान की अमावस्या होगी। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं|

श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है|

शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|

पितृ पक्ष का महत्व-

देवताओ से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व होता है| वायु पुराण ,मत्स्य पुराण ,गरुण पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है| पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16 दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है| पूरे 16 दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है| पितृ श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है| भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान - दक्षिणा दी जाती है|

श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति-

आश्विन मास के कृ्ष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृ्त्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है| यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं| श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है|

श्राद्ध करते समय इन बातों का रखें विशेष ध्यान-

शास्त्रों में बताए गए विधि -विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए| श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।

1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे - गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।

2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

3 - सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है|

4 - रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।

5 - आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

6 - केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।

7 - चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

जाने पुत्र के न होने पर कौन-कौन कर सकता है श्राद्ध-

हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए| यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता- पिता करते है। इसलिए हम आप को बताते है कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है|

- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।

- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।

- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।

- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।

- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।

- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी है।

- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।

- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है। 

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गुरु बिनु ज्ञान कहाँ जग माही

'गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगौ पांय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय ' भगवान से भी ऊँचा दर्जा पाने वाले गुरुजनों के सम्मान के लिए एक दिन है व है शिक्षक दिवस | भारत में शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) के मौके पर शिक्षा क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान देने वाले कई शिक्षकों को प्रति वर्ष राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया जाता है| यह सम्मान शिक्षकों को उनके पेशे के लिए नहीं बल्कि उनकी शिक्षा देने के भावना और उनके शिक्षण के प्रति समर्पण के लिए दिया जाता है|

शिक्षक दिवस का महत्व-

'शिक्षक दिवस' कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है। लेकिन क्या आप इसके महत्व को समझते हैं। शिक्षक दिवस का मतलब साल में एक दिन बच्चों के द्वारा अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल या ‍कोई भी उपहार नहीं है और यह शिक्षक दिवस मनाने का सही तरीका भी नहीं है।

आप अगर शिक्षक दिवस का सही महत्व समझना चाहते है तो सर्वप्रथम आप हमेशा इस बात को ध्यान में रखें कि आप एक छात्र हैं, और ‍उम्र में अपने शिक्षक से काफ़ी छोटे है। और फिर हमारे संस्कार भी तो हमें यही सिखाते है कि हमें अपने से बड़ों का आदर करना चाहिए। हमको अपने गुरु का आदर-सत्कार करना चाहिए। हमें अपने गुरु की बात को ध्यान से सुनना और समझना चाहिए। अगर आपने अपने क्रोध, ईर्ष्या को त्याग कर अपने अंदर संयम के बीज बोएं तो निश्‍चित ही आपका व्यवहार आपको बहुत ऊँचाइयों तक ले जाएगा। और तभी हमारा शिक्षक दिवस मनाने का महत्व भी सार्थक होगा।

क्यों मनाते हैं शिक्षक दिवस-

शिक्षक दिवस वैसे तो पूरे विश्व में मनाया जाता है लेकिन अलग-अलग तिथियों को। भारत में यह दिवस पूर्व राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस पांच सितम्बर को मनाया जाता है। देश में शिक्षक दिवस मनाने की परम्परा तब शुरू हुई जब डॉ. राधाकृष्णन 1962 में राष्ट्रपति बने और उनके छात्रों एवं मित्रों ने उनका जन्मदिन मनाने की उनसे अनुमति मांगी।

स्वयं 40वर्षो तक शिक्षण कार्य कर चुके राधाकृष्णन ने कहा कि मेरा जन्मदिन मनाने की अनुमति तभी मिलेगी जब केवल मेरा जन्मदिन मनाने के बजाय देशभर के शिक्षकों का दिवस आयोजित करें।’ बाद से प्रत्येक वर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाने लगा।

आपको बता दें कि राधाकृष्णन का जन्म पांच सितम्बर 1888 को मद्रास (चेन्नई) के तिरुत्तानी कस्बे में हुआ था। उनके पिता वीरा समय्या एक जमींदारी में तहसीलदार थे। उनका बचपन एवं किशोरावस्था तिरुत्तानी और तिरुपति (आंध्र प्रदेश) में बीता। उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से एम.ए.की पढ़ाई पूरी की तथा ‘वेदांत के नीतिशास्त्र’ पर शोधपत्र प्रस्तुत कर पी.एचडी. की उपाधि हासिल की।

मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज के दर्शनशास्त्र विभाग में 1909 में वह व्याख्याता नियुक्त किए गए। फिर 1918 में मैसूर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने। लंदन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वह 1936 से 39 तक पूर्व देशीय धर्म एवं नीतिशास्त्र के प्रोफेसर रहे। राधाकृष्णन 1939 से 48 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

वर्ष 1946 से 52 तक राधाकृष्णन को यूनेस्को के प्रतिनिधिमंडल के नेतृत्व का अवसर मिला। वह रूस में 1949 से 52 तक भारत के राजदूत रहे। 1952 में ही उन्हें भारत का उपराष्ट्रपति चुना गया। मई 1962 से मई 1967 तक उन्होंने राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया।

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मानना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनना चाहिए जो सर्वाधिक योग्य व बुद्धिमान हों। उनका स्पष्ट कहना था कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता है और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता है, तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती है। शिक्षक को छात्रों को सिर्फ पढ़ाकर संतुष्ट नहीं होना चाहिए, शिक्षकों को अपने छात्रों का आदर व स्नेह भी अर्जित करना चाहिए। सिर्फ शिक्षक बन जाने से सम्मान नहीं होता, सम्मान अर्जित करना महत्वपूर्ण है|

आदर्श शिक्षक व दार्शनिक थे राधाकृष्णन

एक शिक्षक की दी हुई शिक्षा से ही बच्चे आगे चलकर देश के कर्णधार बनते हैं। ऐसे ही एक शिक्षक थे भारत के पूर्व राष्ट्रपति और दार्शनिक तथा शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जिनके सम्मान में उनके जन्मदिवस यानी पांच सितंबर को देश में शिक्षक दिवस मनाया जाता है।

डॉ. राधाकृष्णन महान शिक्षाविद् थे। उनका कहना था कि शिक्षा का मतलब सिर्फ जानकारी देना ही नहीं है। जानकारी और तकनीकी गुर का अपना महत्व है लेकिन बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का भी महत्व है क्योंकि इन भावनाओं के साथ छात्र उत्तरदायी नागरिक बनते हैं। डॉ.राधाकृष्णन मानते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होगा, तब तक शिक्षा को मिशन का रूप नहीं मिल पाएगा।

अपने जीवन में आदर्श शिक्षक रहे भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन का जन्म पांच सितंबर, 1888 को तमिलनाडु के तिरुतनी ग्राम में हुआ था। इनके पिता सर्वपल्ली वीरास्वामी राजस्व विभाग में काम करते थे। इनकी माता का नाम सीतम्मा था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा लूनर्थ मिशनरी स्कूल, तिरुपति और वेल्लूर में हुई। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ाई की। 1903 में युवती सिवाकामू के साथ उनका विवाह हुआ।

महान शिक्षाविद् राधाकृष्ण ने 12 साल की उम्र में ही बाइबिल और स्वामी विवेकानंद के दर्शन का अध्ययन कर लिया था। उन्होंने दर्शन शास्त्र से एम.ए. किया और 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में सहायक अध्यापक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने 40 वर्षो तक शिक्षक के रूप में काम किया।

वह 1931 से 1936 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद 1936 से 1952 तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर रहे और 1939 से 1948 तक वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर आसीन रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया।

वर्ष 1952 में उन्हें भारत का प्रथम उपराष्ट्रपति बनाया गया और भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बनने से पहले 1953 से 1962 तक वह दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति थे। इसी बीच 1954 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 'भारत रत्न' की उपाधि से सम्मानित किया। डॉ. राधाकृष्णन को ब्रिटिश शासनकाल में 'सर' की उपाधि भी दी गई थी। इसके अलावा 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा 'विश्व शांति पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था।

डॉ. राधाकृष्णन ने 1962 में भारत के सर्वोच्च, राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया। जानेमाने दार्शनिक बर्टेड रशेल ने उनके राष्ट्रपति बनने पर कहा था, "भारतीय गणराज्य ने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति चुना, यह विश्व के दर्शनशास्त्र का सम्मान है। मैं उनके राष्ट्रपति बनने से बहुत खुश हूं। प्लेटो ने कहा था कि दार्शनिक को राजा और राजा को दार्शनिक होना चाहिए। डॉ. राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाकर भारतीय गणराज्य ने प्लेटो को सच्ची श्रद्धांजलि दी है।"

वर्ष 1962 में उनके कुछ प्रशंसक और शिष्यों ने उनका जन्मदिन मनाने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने कहा, "मेरे लिए इससे बड़े सम्मान की बात और कुछ हो ही नहीं सकती कि मेरा जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए।" और तभी से पांच सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। शिक्षक दिवस के अवसर पर शिक्षकों को पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया जाता है।

डॉ. राधाकृष्णन का देहावसान 17 अप्रैल, 1975 को हो गया, लेकिन एक आदर्श शिक्षक और दार्शनिक के रूप में वह आज भी सभी के लिए प्रेरणादायक हैं। वैसे तो विश्व शिक्षक दिवस का आयोजन पांच अक्टूबर को होता है, लेकिन इसके अलावा विभिन्न देशों में अलग-अलग तारीखों पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। ऑस्ट्रेलिया में यह अक्टूबर के अंतिम शुक्रवार को मनाया जाता है, भूटान में दो मई को तो ब्राजील में 15 अक्टूबर को। कनाडा में पांच अक्टूबर, यूनान में 30 जनवरी, मेक्सिको में 15 मई, पराग्वे में 30 अप्रैल और श्रीलंका में छह अक्टूबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने वर्ष 2003 में शिक्षक दिवस पर अपने संबोधन में कहा था, "विद्यार्थी 25,000 घंटे अपने विद्यालय प्रांगण में ही बिताते हैं, इसलिए विद्यालय में ऐसे आदर्श शिक्षक होने चाहिए, जिनमें शिक्षण की क्षमता हो, जिन्हें शिक्षण से प्यार हो और जो नैतिक गुणों का निर्माण कर सकें।"

ऐसी 10 फ़िल्में जिनमें शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच प्रेमपूर्ण संबंध दिखाया गया है

शिक्षक सख्त भी हो सकते हैं और नर्म भी। वे लोगों के दिलों को भी छू सकते हैं। बॉलीवुड वर्षो से शिक्षकों के महत्व को दिखाता आ रहा है। फिल्मों में अमिताभ बच्चन, आमिर खान और नसीरुद्दीन शाह जैसे अभिनेताओं ने शिक्षक की भूमिका निभाई है।

पांच सितंबर शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में आइए, ऐसी 10 शीर्ष फिल्मों की चर्चा करें जिनमें शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच भावनात्मक, कलहपूर्ण और प्रेमपूर्ण संबंध दिखाया गया है। 'सर' (1993) : मशहूर कलाकार नसीरुद्दीन शाह ने इस फिल्म में एक जिंदादिल शिक्षक की भूमिका निभाई थी। इसमें वह अपने विद्यार्थियों पूजा भट्ट और अनिल अग्निहोत्री की बुरे समय में एक दोस्त की तरह मदद करते हैं।

'रॉकफोर्ड' (1999) : निर्देशक नागेश कुकनूर की यह फिल्म एक किशोर की कहानी है जो एक आवसीय विद्यालय में सैकड़ों छात्रों के बीच खुद को हारा हुआ महसूस करता है। उसकी दोस्ती एक शिक्षक से होती है। फिल्म में दिखाया गया है कि शिक्षक और शिष्य के अच्छे संबंधों से शिष्य का हौसला किस कदर बुलंद होता है।

'मोहब्बतें' (2000) : इस फिल्म में महानायक अमिताभ बच्चन ने सख्त प्रधानाचार्य नारायण शंकर की भूमिका निभाई है। शाहरुख खान ने एक युवा संगीत शिक्षक की भूमिका निभाई है जो अपनी नई विचारधारा से बदलाव की हवा लेकर आता है। 'मैं हूं ना' (2004) : इसमें शिक्षिका न सिर्फ पढ़ाती है, बल्कि फैशन के नुस्खे भी देती है। शिफॉन की साड़ी और डिजाइनर चोली पहने सुष्मिता सेन के किरदार ने दिखाया है कि लोग शिक्षिकाओं को किस तरह देखते हैं और शिक्षिका को अपने विद्यार्थी शाहरुख खान से प्यार हो जाता है। बोमन ईरानी और बिंदू ने इसमें मजाकिया शिक्षक का किरदार निभाया है।

'ब्लैक' (2005) : यह एक संवेदनशील शिक्षक की कहानी है जो अंधी, मूक-बधिर लड़की की मदद करता है। शिक्षक की भूमिका अमिताभ ने और शिष्या की रानी मुखर्जी ने निभाई थी। शिक्षक और शिष्य कहां तक अपनी भावनाओं को साझा करते हैं, यह इस फिल्म में भावनात्मक तरीके से दिखाया गया है।

'तारे जमीं पर' (2007) : यह डिसलेक्सिया से पीड़ित एक बच्चे की कहानी है। शिक्षक की भूमिका में आमिर खान ने दिखाया है कि ऐसे बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। '3 ईडियट्स' (2009) : इसमें एक सख्त कॉलेज प्राचार्य वीरू सहस्त्रबुद्धे को दिखाया गया जिसके लिए किताबी ज्ञान और श्रेणी ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं लेकिन एक विद्यार्थी के किरदार में आमिर खान साबित करते हैं कि जीवन पाठ्यपुस्तकों से परे है।

'पाठशाला' (2009) : फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भले ही न चली हो लेकिन इसमें शिक्षा का व्यवसायीकरण होता दिखाया गया है। संगीत शिक्षक राहुल की भूमिका में शाहिद कपूर ने दिखाया है कि किस तरह शिक्षक और छात्र मिलकर विद्यालय के प्रबंधन के खिलाफ खड़े हो सकते हैं।

'आरक्षण' (2011) : शिक्षक और छात्र के बीच संबंधों को दर्शाती यह फिल्म आरक्षण के मुद्द पर आधारित है। अमिताभ ने कॉलेज प्राचार्य प्रभाकर आनंद की भूमिका निभाई है जो बाद में सामाजिक कार्यकर्ता बन जाता है। 'स्टूडेंड ऑफ द ईयर' (2012) : करन जौहर की इस फिल्म में दिखाया गया है कि विद्यार्थी भी शिक्षक को सिखा सकते हैं। इसमें कॉलेज की वार्षिक प्रतियोगिता के कारण छात्रों की दोस्ती टूट जाती है। अंत में एक छात्र प्राचार्य ऋषि कपूर को बताता है कि प्रतियोगिता का विषय ही घातक था। तब प्राचार्य को गलती का अहसास होता है।

...यहाँ शनिदेव कोयल का रूप लेकर किये थे भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन

शनि एक ऐसा नाम है जिसे पढ़ते-सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शनि की कुदृष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातो-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई बुरा कर्म किया है तो वह शनि के प्रकोप से नहीं बच सकता है। वैसे जो भारतभर में शनि देव के कई पीठ है किंतु एक प्राचीन और चमत्कारिक पीठ है, जिनका बहुत महत्व है। उक्त पीठ पर जाकर ही पापों की क्षमा मांगी जा सकती है। जनश्रुति है कि उक्त स्थान पर जाकर लोग शनि के दंड से बच सकते हैं|

यह शक्तिपीठ है कोकिलावन शनि सिद्धपीठ| कोकिलावन शनि सिद्धपीठ उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में स्थित है। कोसी से लगभग छ: किलोमीटर दूर पश्चिम में बरसाना के पास और नन्द गांव से सटा हुआ यह पवित्र स्थान भगवान शनि देव को समर्पित है। कोकिलावन धाम का यह सुन्दर परिसर लगभग 20 एकड में फैला है। इसमें श्री शनि देव मंदिर, श्री देव बिहारी मंदिर, श्री गोकुलेश्वर महादेव मंदिर , श्री गिरिराज मंदिर, श्री बाबा बनखंडी मंदिर प्रमुख हैं।

लोक मान्यता है कि द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की इच्छा शनिदेव के मन में हुई। तो उन्होंने भगवान से नंदगांव में दर्शन पाने के लिए इजाजत मांगी। शनिदेव का भयंकर रूप देखकर नंदगांववासियों में भय की आशंका के चलते भगवान ने उन्हें नंदगांव आने की इजाजत नहीं दी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से शनिदेव ने इस स्थान पर उनके दर्शन कोयल का रूप लेकर किए थे। इसी कारण यह स्थान कोकिला वन कहलाया।

माना जाता है कि यहां आने वाले श्रद्धालु शनिदेव के कोप से राहत पाते हैं। बृज प्रदेश के निवासियों के अनुसार श्री कृष्ण ने जब शनि देव को दर्शन दिया था तब आशीर्वाद भी दिया था कि यह कोकिलावन उनका है, और जो कोकिलावन की परिक्रमा करेगा, शनिदेव की पूजा अर्चना करेगा, वह मेरे साथ ही शनिदेव की कृपा भी प्राप्त कर सकेगा।

इसलिए हर शनिवार लाखों श्रद्धालु कोकिलावन धाम की परिक्रमा करते हैं। कहते हैं कि यहां राजा दशरथ द्वारा लिखा शनि स्तोत्र पढ़ते हुए परिक्रमा करनी चाहिए इससे शनि देव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। मान्यता है कि शनिधाम कोकिला वन में बने सूर्य कुंड में स्नान के बाद शनिदेव के दर्शन करने वाले को शनिदेव की काली छाया नहीं सताती। अब जानिए कैसे पहुंचे| कोसीकलां जाने के लिए मथुरा सबसे आसान रास्ता है। मथुरा-दिल्ली नेशनल हाइवे पर मथुरा से 21 किलोमीटर दूर कोसीकलां गांव पड़ता है। कोसीकलां से एक सड़क नंदगांव तक जाती है। बस यहीं से कोकिला वन शुरू हो जाता है।

पद्मा एकादशी कल, जानिए इसे क्यों कहते हैं जलझूलनी एकादशी

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकाद्शी पदमा एकादशी के नाम से जानी जाती है| इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है| इस दिन भगवान श्री विष्णु के वामनावतार की पूजा पूजा की जाती है| यह एकादशी वामन एकादशी के नाम से भी जानी जाती है| इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी होती है| इस एकादशी के विषय में एक मान्यता है, कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्री कृ्ष्ण के वस्त्र धोये थे| इसी कारण से इस एकाद्शी को "जलझूलनी एकादशी" भी कहा जाता है| इस बार पद्मा एकादशी 5 सितम्बर दिन शुक्रवार को मनाई जायेगी|

पदमा एकादशी की व्रत विधि-

इस दिन जो व्यक्ति व्रत करता है, उसे भूमि दान करने और गौदान करने के पश्चात मिलने वाले पुन्यफलों से अधिक शुभ फलों की प्राप्ति होती है| इस व्रत में धूप, दीप,नेवैद्ध और पुष्प आदि से पूजा करने की विधि-विधान है| इस व्रत में सात कुम्भ स्थापित किये जाते है| सातों कुम्भों में सात प्रकार के अलग- अलग धान्य भरे जाते है| इनमें जो धान्य भरे जाते हैं उनमें गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौं, चावल और मसूर शामिल है|

एकादशी के एक दिन पहले यानि दशमी तिथि के दिन इनमें से किसी धान्य का सेवन नहीं करना चाहिए| कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रख पूजा की जाती है| इस व्रत को करने के बाद रात्रि में श्री विष्णु जी के पाठ का जागरण करना चाहिए| यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर, द्वादशी तिथि तक जाता है| इसलिये इस व्रत की अवधि सामान्य व्रतों की तुलना में कुछ लम्बी होती है| एकादशी तिथि के दिन पूरे दिन व्रत कर अगले दिन द्वादशी तिथि के प्रात:काल में अन्न से भरा घडा ब्राह्माण को दान में दिया जाता है|

पूजा करते समय इस मंत्र का जरुर उच्चारण करना चाहिए-

देवेश्चराय देवाय, देव संभूति कारिणे ।
प्रभवे सर्व देवानां वामनाय नमो नम: ।।

पदमा एकादशी व्रत कथा-

एक बार युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा: केशव ! कृपया यह बताइये कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके देवता कौन हैं और कैसी विधि है? भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ, जिसे ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कहा था ।

नारदजी ने पूछा : चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है ! मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिए आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? तब ब्रह्माजी ने कहा : मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे! भादों के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘पदमा’ के नाम से विख्यात है । उस दिन भगवान ह्रषीकेश की पूजा होती है । यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है । सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक प्रजा का पालन किया करते थे। उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था । उनकी प्रजा निर्भय तथा धन धान्य से समृद्ध थी । महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था । उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म में लगे रहते थे । मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देनेवाली थी । उनके राज्यकाल में प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था ।

एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई । इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी । तब सम्पूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा : नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिए । पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जल को ‘नार’ कहा है । वह ‘नार’ ही भगवान का ‘अयन’ (निवास स्थान) है, इसलिए वे ‘नारायण’ कहलाते हैं । नारायणस्वरुप भगवान विष्णु सर्वत्र व्यापकरुप में विराजमान हैं । वे ही मेघस्वरुप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है । नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है, अत: ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो ।

राजा ने कहा : आप लोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है । अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जगत जीवन धारण करता है । लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है, किन्तु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता । फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करुँगा ।

ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने गिने व्यक्तियों को साथ ले, विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये । वहाँ जाकर मुख्य मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे । एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ॠषि के दर्शन हुए । उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनि ने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी । मुनि ने राजा को आसन और अर्ध्य दिया| उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो मुनि ने राजा से आगमन का कारण पूछा ।

राजा ने कहा : भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था । फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया । इसका क्या कारण है इस बात को मैं नहीं जानता । ॠषि बोले : राजन् ! सब युगों में उत्तम यह सत्ययुग है । इसमें सब लोग परमात्मा के चिन्तन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है । इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं । किन्तु महाराज ! तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या करता है, इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते। तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो, जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय।

राजा ने कहा : मुनिवर ! एक तो वह तपस्या में लगा है और दूसरे, वह निरपराध है । अत: मैं उसका अनिष्ट नहीं करुँगा। आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये ।

ॠषि बोले : राजन् ! यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्रत करो । भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो ‘पधा’ नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी । नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो ।

ॠषि के ये वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये । उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजा के साथ भादों के शुक्लपक्ष की ‘पधा एकादशी’ का व्रत किया । इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे । पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी । उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए । ‘पदमा एकादशी’ के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढकँकर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिए । दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ।

भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥

‘बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान गोविन्द ! आपको नमस्कार है… नमस्कार है ! मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें । आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं ।’ राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

pardaphash se sabhar