बिहार की सियासत में सत्ता संघर्ष एक दलित परिचर्चा
लखनऊ| बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और नीतीश कुमार के बीच जो सत्ता संघर्ष की होड़ लगी है, काफी दिलचस्प दिखता जा रहा है। कुर्सी की लोभ में नीतीश कुमार ही क्यों, जबकि सबसे ज्यादा जीतनराम मांझी अपनी भूमिका बनाने में अग्रणी है। वे अपने बेबाक आचरण के साथ डटे हुये है। मांझी के समर्थकगण भी अपनी अदूरदर्शिता के कारण लगातार आग में घी डालने का कार्य कर रहे है। यहां कुछेक दलित चिंतकगण अचानक मांझी जी के समर्थन में धरना-प्रदर्शन हुडदंग इत्यादि करने लगे है। यहां अनुसूचित जाति के महादलित समुदाय के लोगों का मानना है कि मांझी गरीबों के हक के लिए लड़ रहे है, नीतीश कुमार दलितों-महादलितों के विकास में बाधक है। मतलब इससे पहले ऐसा नहीं हो रहा था अचानक कुर्सी का लोभ देख गरीबी व दलित नेतृत्व लोगों को मांझी जी के अंदर दिखने लगा है। बहरहाल, महादलित समुदाय के लोग जीतन राम मांझी का रट लगाये हुये है, कोई अपना मसीहा मान रहा है, तो कोई गरीबों का नेता। नीतीश कुमार एवं जीतनराम मांझी के समर्थक प्रत्यक्ष संघर्ष पर उतारू हो गये है। माहौल को प्रभावित करने में मुख्यतः मांझी के समर्थकगणों अर्थात् अंबेडकर मिशनरी स्वयंसेवी संस्थायें, अनार्य कहे जाने वाले मूल निवासीगण अपनी आवाज को दृढ़ प्रबलता से एवं उत्साहपूर्वक मांझी जी के पक्ष में बुलंद कर हौसला आफजाई कर रहे है। कुछ लोग इस परिस्थिति को सामाजिक संघर्ष का नाम देना चाह रहे तो कुछेक को मानना है कि मांझी जी भारत के मूल निवासियों के आवाज बन गये है।
राजनैतिक पार्टियां भी इस बिगड़ती हालात को देख माहौल खराब कर रही है। जदयू पार्टी के अन्दर चल रही अन्तर्हकलह को उकसाने में विपक्षी पार्टियां; शीर्ष नेता अपनी हथकंडो के सहारे मांझी को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। यहां लोग कल तक मांझी को नीतीश का खास आदमी कहा करते थे। इस विषय को लेकर विपक्षी पार्टियों की चिन्ता सत्तारूढ़ पार्टी की चिन्ता से कहीं अधिक दिख रही है, जबकि यह एक पार्टी का आंतरिक मामला है। इस मसले का उचित निर्णायक जनता दल यूनाइटेड पार्टी की हाइकमान को ही होनी चाहिए थी मगर माहौल इतना खराब कर दिया गया है कि सत्तारूढ़ पार्टी को अपनी इस परिस्थिति पर काबू कर पाना जटिल हो गया है। ऐसी परिस्थिति पैदा करने की दोषी न नीतीश कुमार है और न ही जदयू पार्टी; बल्कि इसका जिम्मेदार स्वयं जीतन राम मांझी है। हो सकता है कि मांझी के क्रियाकलापों व कार्यों से सत्तारूढ़ पार्टी को संतोषजनक परिणाम न मिल पा रहा हो। स्वाभाविक है कि इस प्रकार परिवर्तन करना कोई भी चाहेगा।
अगर देखा जाय तो मांझी समर्थकों द्वारा इस प्रकार से गुटबाजी तोड़-फोड़ की नीति मात्र है। अब कुर्सी जाने के भय से मांझी नीतीश कुमार को स्वार्थी और अपने को स्वावलम्बी साबित कर रहे है। नीतीश कुमार पर विपक्षीगण यह आरोप लगा रहे है कि अपनी कुर्सी फिर से पाने के कारण मांझी को हटाने का षडयन्त्र रचा गया। यहां कुछ लोगों को बड़ा-बेजोड़ तर्क है कि मांझी जी बहुत अच्छा कार्य कर रहे थे वे अपने पारंपरिक संस्कृति को समाज के प्रति बढ़ावा दे रहे थे। जबकि अम्बेडकर मिशनरी स्वयंसेवी दलित संस्थाए इस संस्कृति का विरोध कर आधुनिक वैज्ञानिक संस्कृति को समाज के लिए हितकर मानती है। खैर, जब मांझी जी कार्य अच्छा कर रहे थे तो क्या जदयू पार्टी की सहमति बगैर हीं।
गौरतलब है कि विगत लोकसभा चुनाव के परिणामों से विक्षुब्ध होकर जदयू ने एक ऐसा चेहरा लाने की कोशिश की जो दलित नेतृत्व को अच्छा से निर्वहन कर सके। चाहे वह वोट बैंक की शर्त ही क्यों न हो या फिर दलित समाज के विकास को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय। फलस्वरूप जीतनराम मांझी को जदयू ने ढूंढ निकाला और मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया। अब मुख्यमंत्री का बागडोर संभालने के बावजूद भी मांझी अनुसूचित जाति के भावनाओं को नहीं समझ पाये। यहां बता दे कि जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री पद ग्रहण के समय से लेकर आज तक अनुसूचित जाति समूह के लोगों का ध्यान ‘‘दलित-महादलित’’ प्रकरण को खत्म करने पर केन्द्रित था। फिर भी उन्होंने कोई निर्णय नहीं लिया, उस समय से लेकर आज तक मांझी इस प्रकरण के प्रति अपनी संवेदन शून्यता का परिचय दिया। जबकि मांझी जानते थे कि दलित-महादलित प्रकरण बिल्कुल निराधार है। अब मांझी अनुसूचित जातियों के बड़ा हितैषी बन रहे है। मैं उन तमाम दलित बुद्धिजीवियों से पूछना चाहूंगा कि आखिर इतनी गंभीर मुद्दा अर्थात गैर संवैधानिक तरीके से लागू किया गया ‘‘दलित-महादलित’’ प्रकरण पर मांझी अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में चर्चा तक नहीं की कि क्या उचित है, क्या अनुचित है; आखिर क्यों?
मांझी सिर्फ अनाप-शनाप की बातों में लोगों को उलझाते रहे, समाज को विकास की राहों पर लाने की जगह ट्रेडिशनल कल्चर अर्थात् शराब पीने, मांस खाने जैसे दलित विरोधी बयान ही इनके मुख से निकलते रहे परन्तु दलित उत्थान के लिए एक कदम भी आगे नहीं आये। आज वे कह रहे है कि मैं रबर स्टाम्प नहीं बनना चाहता जबकि एक मुख्यमंत्री कभी रबर स्टाम्प नहीं हो सकता अगर होता है तो उसी समय अपनी कर्मठता का परिचय श्री मांझी क्यों नहीं दिये। अब तो यहीं कहा जायेगा कि कुर्सी के लालच में मांझी एक नेता के रूप में संघर्ष कर रहे है, जिससे कि उनकी कुर्सी बनी रहे। अब इस स्थिति में मांझी को छोड़ देने के अलावा नीतीश कुमार के पास कोई अन्य विकल्प था ही नहीं। यहां सत्तारूढ़ पार्टी भली-भांति जानती है कि इसी सत्र में आगमी बिहार विधानसभा चुनाव का होना सुनिश्चित है फिर भी इस प्रकार का निर्णय लेना पार्टी की मजबूरी नहीं तो और क्या। सभी जानते है कि ऐसी निर्णय से सियासी महकमों में भूचाल आ सकता है, दलित समाज के वोट बैंक पर प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में जदयू व नीतीश कुमार को दोषी करार देना बेईमानी होगा। इससे पहले क्या नीतीश कुमार को कुर्सी की लालच नहीं थी जो कि अब होगी, वो भी सरकार की समयावधि के अन्तिम समय में, निश्चित ही मांझी के कर्तव्यहीनता का परिणाम है।
दलित समाज के प्रति सहानुभूति का संदेश देने की कोशिश में जदयू तथा नीतीश कुमार स्वयं ही ‘‘दलित-महादलित’’ प्रकरण को लागू कर फंसे हुये नजर आ रहे है। हां, यह सत्य है कि दलित-महादलित फैक्टर को लेकर भारत के सम्पूर्ण अनुसूचित जाति के लोग नीतीश कुमार के प्रति आक्रोशित व नाराज है। नाराजगी का मुख्य कारण भी यहीं है। यदि इस प्रकरण को जदयू पार्टी गंभीरता से लेती तो कतई दलित-महादलित प्रकरण लागू नहीं किया जाता। सत्ता रूढ़ पार्टी इस प्रकरण को लागू करते समय काफी सहज समझी ये नहीं ध्यान दिया कि इस प्रकरण का परिणाम क्या होने वाला है। यदि जदयू सरकार यह सोंचती तो शायद उनको विगत लोकसभा चुनाव के परिणामों से मुंह नहीं खानी पड़ती। यदि अब भी इस प्रकरण को जदयू भंग नहीं करती है तो विगत चुनाव परिणामों के भांति ही आगामी विधानसभा चुनाव के परिणाम देखना पड़ सकता है। सत्तारूढ़ जदयू अनुसूचित जाति के लोगों को दो भागों में विभक्त कर दलित-महादलित का नया नाम दिया, जो कि असंवैधानिक है। यह भी है कि किस आधार पर नीतीश कुमार ने दलित-महादलित को दो भागों में बंटवारा किया, यह कितना न्यायप्रिय है? देखा जाय तो जदयू सरकार ने साधारण विधी द्वारा अनुसूचित जातियों में सामाजिक रूप से पिछड़ा अर्थात अविकसित को महादलित का नामकरण कर दिया तथा सामाजिक रूप से विकसित को दलित का नाम दिया गया। इस प्रकार यह प्रणाली अनुचित है। नीतीश कुमार इस प्रकरण की गहराई में न जाकर सिर्फ मौखिक आधार पर ही अनुसूचित जातियों का चयन किया। यहां पार्टी ने अपनी जज्बाती इरादों के कारण अदूरदर्शिता का भी परिचय दी है।
यदि जाति आधारित न होकर आर्थिक आधार पर दलित-महादलित का वर्गीकरण किया जाता तो भी लोागें को समझ आता; हालांकि यह प्रकरण लागू कारना ही असंवैधानिक एवं निन्दनीय है। यदि दलित-महादलित प्रकरण लागू किया भी गया तो इसका कोई ठोस आधार नही है चूकि जिनको महादलित की श्रेणी में होनी चााहिए वे दलित की श्रेणी में है, जिन्हे दलित की श्रेणी में होनी चााहिए वे महादंिलत के श्रेणी में हैं। इस नियम के अनुसार सिर्फ महानलिदों को ही अधिकतम सरकारी सुविघायें दी जा रही दंिलत बेचारे वंचित है। एक तरफ महादलित सुविधाओं का लाभ ले रहे है, तो दूसरी तरफ एक गरीब दलित निराश हो रहा है। इस स्थिति में एक दूसरों के प्रति भेदभाव द्वेष की भावना पनपना स्वाभाविक है। दलित एकजुटता के प्रति यह प्रकरण घातक है। इस स्थिति में दलित शुभचिंतको, बुद्विजीवियों के मन में ढेस पहुंचना जायज है। शायद इसी वजह से आज अनुसूचित जाति के लोग नीतीश कुमार एवं जदयू पार्टी के प्रति नाराज है। यहां सभी मान रहे है कि नीतीभ कुमार दलित समाज में फुट डालों और राज करो की नीति अपनाई है। जदयू राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने इस पर ध्यान नहीं दिया। अब इस दलित महादलित प्रकरण को खत्म करने की असमंजसता जोे पार्टी के अंदर दिखाई दे रही है उसका सामाधान पार्टी किस प्रकार से करती है कहना मुश्किल है। ऐसा तो नहीं इस प्रकरण को खत्म करने के लिए जदयू अंदर से भयभीत हो रही हो कि कहीं ऐसा न हो जाय कि लाभान्वित परिवार भी पार्टी से मोह-माया तोड़ दे। प्रकरण को भंग हो जाने से लाभान्वितों की पार्टी के प्रति क्या प्रतिक्रिया रहेगी, इसी दुविधा भरी मुश्किलों में फंसे है नीतीश कुमार।
अब; इधर दोनों नेता जीतन राम मांझी एवम् नीतीश कुमार विघानसभा में बहुमत का दावा कर रहे है। कानूनी दांव-पेंच चल रहे है जिससे संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा हो गई है। यहां यह भी देखना है कि दोनों के बीच बहुमत के फैसले का संवैधानिक तरीका क्या है। जीतन राम मांझी की हठधर्मिता के कारण मामला और पेचीदा होता जा रहा है। यदि कार्य अवधि से पहले ही सरकार गिरने की फिराक चल रही है तो इससे प्रदेश को क्षति होगी। इससे जनता की भावनाओं पर भी ठेस पंहुचेगी चूंकि जदयू पूर्ण बहुमत की सरकार है। खैर इस रणनीति में श्री मांझी जी किसी दूसरे के इशारों पर कहीं न कहीं तो अपनी दृढ़ता का अंजाम दे रहे है। यदि वे इस रणनीति में सफल हो भी गए तो क्या वे दलितों के प्रति अपनी दृढ़ता रख पायेंगे। उस समय भी तो तमाम गढबंघनो की गांठ के बोझ उनको हिला कर रख देगी। मानता हूं कि मांझी जी कि संवेदनायें दलितो, शोषितों की भावनाओं जुड़ी है मगर समाज का विकास भावनाओं से नहीं होता।
कुल मिलाकर यदि लोग जीतन राम मांझी के क्रिया-कलापों, कार्यों से खुश होकर स्वीकारते है वही दूसरी तरफ नीतीश कुमार व जदयू को नकारते है तो निश्चित रूप से भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नया ऐतिहासिक अध्याय जुड़ेगा कि को कोई भी पार्टी अध्यक्ष अपनी भावनाओं व वोटों की राजनीति से प्रेरित होकर शासकीय कुर्सी का बागडोर नहीं देगा।
प्रस्तुतकर्ता
राजू पासवान ‘‘राज’’
सामाजिक कार्यकर्ता
9450887493
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