भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध माना गया है| कहते हैं कि इस रात जो व्यक्ति चंद्रमा को जाने-अन्जाने देख लेता हैं उसे मिथ्या कलंक लगता हैं। उस पर झूठा आरोप लगता हैं। क्या आपको पता है ऐसा क्यों होता है?
शास्त्रों के अनुसार, एक बार जरासन्ध के भय से भगवान कृष्ण समुद्र के बीच नगर बनाकर वहां रहने लगे। भगवान कृष्ण ने जिस नगर में निवास किया था वह स्थान आज द्वारिका के नाम से जाना जाता हैं। उस समय द्वारिका पुरी के निवासी से प्रसन्न होकर सूर्य भगवान ने सत्रजीत यादव नामक व्यक्ति अपनी स्यमन्तक मणि वाली माला अपने गले से उतारकर दे दी। यह मणि प्रतिदिन आठ सेर सोना प्रदान करती थी। मणि पातेही सत्रजीत यादव समृद्ध हो गया। भगवान श्री कृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने सत्रजीत
से स्यमन्तक मणि पाने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन सत्रजीत ने मणि श्री कृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजीत को दे दी। एक दिन प्रसेनजीत शिकार पर गया जहां एक शेर ने प्रसेनजीत को मारकर मणि ले ली। यही रीछों के राजा और रामायण काल के जामवंत ने शेर को मारकर मणि पर कब्जा कर लिया था। कई दिनों तक प्रसेनजीत शिकार से घर न लौटा तो सत्रजीत को चिंता हुई और उसने सोचा कि श्रीकृष्ण ने ही मणि पाने के लिए प्रसेनजीत की हत्या कर दी। इस प्रकार सत्रजीत ने पुख्ता सबूत जुटाए बिना ही मिथ्या प्रचार कर दिया कि श्री कृष्ण ने प्रसेनजीत की हत्या करवा दी हैं। इस लोकनिंदा से आहत होकर और इसके निवारण के लिए श्रीकृष्ण कई दिनों तक एक वन से दूसरे वन भटक कर प्रसेनजीत को खोजते रहे और वहां उन्हें शेर द्वारा प्रसेनजीत को मार डालने और रीछ द्वारा मणि ले जाने के चिह्न मिल गए। इन्हीं चिह्नों के आधार पर श्री कृष्ण जामवंत की गुफा में जा पहुंचे जहां जामवंत की पुत्री मणि से खेल रही थी।
उधर जामवंत श्री कृष्ण से मणि नहीं देने हेतु युद्ध के लिए तैयार हो गया। सात दिन तक जब श्री कृष्ण गुफा से बाहर नहीं आए तो उनके संगी साथी उन्हें मरा हुआ जानकार विलाप करते हुए द्वारिका लौट गए। 21 दिनों तक गुफा में युद्ध चलता रहा और कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। तब जामवंत को भान हुआ कि कहीं ये वह अवतार तो नहीं जिनके दर्शन के लिए मुझे रामचंद्र जी से वरदान मिला था। तब जामवंत ने अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में श्रीकृष्ण को दे दी। उधर कृष्ण जब मणि लेकर लौटे तो उन्होंने सत्रजीत को मणि वापस कर दी। सत्रजीत अपने किए पर लज्जित हुआ और अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।
कुछ ही समय बाद अक्रूर के कहने पर ऋतु वर्मा ने सत्रजीत को मारकर मणि छीन ली। श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ उनसे युद्ध करने पहुंचे। युद्ध में जीत हासिल होने वाली थी कि ऋतु वर्मा ने मणि अक्रूर को दे दी और भाग निकला। श्रीकृष्ण ने युद्ध तो जीत लिया लेकिन मणि हासिल नहीं कर सके। जब बलराम ने उनसे मणि के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मणि उनके पास नहीं। ऐसे में बलराम खिन्न होकर द्वारिका जाने की बजाय इंद्रप्रस्थ लौट गए। उधर द्वारिका में फिर चर्चा फैल गई कि श्रीकृष्ण ने मणि के मोह में भाई का भी तिरस्कार कर दिया। मणि के चलते झूठे लांछनों से दुखी होकर श्रीकृष्ण सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है। तब नारद जी आए और उन्होंने कहा कि हे कृष्ण तुमने भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन किये थे और इसी कारण आपको मिथ्या कलंक झेलना पड़ रहा हैं।
श्रीकृष्ण चंद्रमा के दर्शन कि बात विस्तार पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण को कलंक वाली यह कथा बताई थी। एक बार भगवान श्रीगणेश ब्रह्मलोक से होते हुए लौट रहे थे कि चंद्रमा को गणेशजी का स्थूल शरीर और गजमुख देखकर हंसी आ गई। गणेश जी को यह अपमान सहन नहीं हुआ। उन्होंने चंद्रमा को शाप देते हुए कहा, 'पापी तूने मेरा मजाक उड़ाया हैं। आज मैं तुझे शाप देता हूं कि जो भी तेरा मुख देखेगा, वह कलंकित हो जायेगा।
गणेशजी शाप सुनकर चंद्रमा बहुत दुखी हुए। गणेशजी शाप के शाप वाली बाज चंद्रमा ने समस्त देवताओं को सोनाई तो सभी देवताओं को चिंता हुई। और विचार विमर्श करने लगे कि चंद्रमा ही रात्री काल में पृथ्वी का आभूषण हैं और इसे देखे बिना पृथ्वी पर रात्री का कोई काम पूरा नहीं हो सकता। चंद्रमा को साथ लेकर सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुचें। देवताओं ने ब्रह्माजी को सारी घटना विस्तार से सुनाई उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजी बोले, चंद्रमा तुमने सभी गणों के अराध्य देव शिव-पार्वती के पुत्र गणेश का अपमान किया हैं। यदि तुम गणेश के शाप से मुक्त होना चाहते हो तो श्रीगणेशजी का व्रत रखो। वे दयालु हैं, तुम्हें माफ कर देंगे।
चंद्रमा गणेशजी को प्रशन्न करने के लिये कठोर व्रत-तपस्या करने लगे। भगवान गणेश चंद्रमा की कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और कहा वर्षभर में केवल एक दिन भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को जो तुम्हें देखेगा, उसे ही कोई मिथ्या कलंक लगेगा। बाकी दिन कुछ नहीं होगा। केवल एक ही दिन कलंक लगने की बात सुनकर चंद्रमा समेत सभी देवताओं ने राहत की सांस ली। उसी दिन से गणेश चतुर्थी यानि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध माना गया है|
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