दो दशक पहले से कैराना के सच से वाकिफ थे नौकरशाह!


लखनऊ: शामली के कैराना और कांधला कस्बे से एक विशेष समुदाय के लोगों के पलायन करने की खबरों ने प्रदेश की सियासत को गर्मा दिया है। कैराना में हिन्दुओं के पलायन पर सियासत सुर्ख हुई तो प्रशासन की पेशानी पर बल पड़ गए हैं। जांच में जुटी प्रशासनिक टीम के अपने दावे हैं। तर्क हैं। यह और बात है कि वह विश्वसनीय नहीं लगते। क्योंकि उनका आधार ठोस नहीं लगता। प्रशासन का कहना है कि पलायन के पीछे अर्थ का शास्त्र है। लोग व्यवसाय के चक्कर में पलायित हुए, या फिर भवन स्वामियों की मौत हो गई तो परिवारीजन व्यवसाय के लिए पड़ोसी राज्य हरियाणा अथवा दिल्ली कूच कर गए। जबकि सूत्र बता रहे हैं कि सच्चाई इसके विपरीत है। रंगदारी और हत्या की घटनाओं ने ही लोगों को अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर किया। गुंडों-बदमाशों ने पहले जुबान पर फिर मकान पर ताला लगाने को मजबूर कर दिया। पलायन पर सियासत के दावे कुछ भी हों, लेकिन सूबे की ब्यूरोक्रेसी दो दशक पहले से कैराना के सच से वाकिफ रही है। तत्कालीन डीएम विनोद शंकर चौबे ने बाकायदा शासन को गोपनीय रिपोर्ट भेजी थी, जिसमें एक जाति और धर्म विशेष के अफसरों की जिले में तैनाती नहीं करने तक के लिए कह दिया था। खौफ के संदर्भ में ऐसा ही इशारा पूर्व डीएम एसपी सिंह भी कर चुके हैं। 

कैराना का लावा भले ही अब फूटा हो, मगर जमीनी हकीकत से अफसर पहले भी अनभिज्ञ नहीं रहे हैं। शामली जब पृथक जिला नहीं था। मुख्यालय से कैराना की दूरी 50 किलोमीटर से ज्यादा रही। यही वजह है कि तहसील होने के बावजूद भी डीएम और एसएसपी के लिए कैराना के लॉ एंड ऑर्डर को बनाए रखना चुनौती बना रहा।  नकली नोट, हथियारों की तस्करी से लेकर रंगदारी, हत्या, दुष्कर्म, अवैध कब्जे और अन्य संगीन अपराधों ने यहां के जनजीवन को तबाह कर दिया। यहां अपराधियों को सियासत की पनाह मिलती रही। कृषि आधारित इस इलाके में अपराध के बाद जरायम के कारिंदे हरियाणा के पानीपत, करनाल, सोनीपत और कुरुक्षेत्र में छिपते रहे हैं। कुख्यात मुकीम काला के गुर्गों की इन्हीं शहरों से हुई गिरफ्तारी बात को पुख्ता करती है। पुलिस प्रशासन ने कैराना की हकीकत पर परदा डालते हुए सियासतदाओं की चाकरी में ही नौकरी गुजार दी। शासन तक कभी कैराना का सच पहुंच नहीं पाया। तत्कालीन डीएम विनोद शंकर चौबे ने हिम्मत की तो सूबे में बवाल खड़ा हो गया। फरवरी 1999 में चौबे ने शासन को एक गोपनीय रिपोर्ट भेजी, जिसमें जिले की कानून व्यवस्था के लिए एक जाति और विशेष धर्म के अफसरों एवं पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं करने के लिए कहा।  

यह मामला उठने के बाद सियासी दल अपना गुणा भाग लगाने में जुट गए हैं। मुद्दा भाजपा ने उठाया, तो सियासी हलकों में हलचल मच गई। हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से पलायन की परिभाषा तय कर रहा है। भाजपा इसे भुनाने में जुट गई है, तो सपा, बसपा और रालोद इसे चुनावी स्टंट बता रहे हैं। पलायन प्रकरण से आखिर किसका फायदा होगा और किसका होगा नुकसान। राजनीतिक दल भी इसकी गुणा भाग करने में लगे हुए हैं। खास बात यह है कि मुद्दा भले ही कैराना से शुरू हुआ, मगर अब कांधला भी पहुंच गया। भाजपा सांसद ने कांधला की सूची जारी कर नई बहस छेड़ दी, जिसके बाद सपा नेता इसकी खिलाफत में उतर आए और कहने लगे कि भाजपा सांसद वोटों की राजनीति में क्षेत्र का माहौल बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। क्या वास्तव में पलायन प्रकरण आगामी विधानसभा चुनाव में वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब होगा। क्योंकि शामली जिले की व्यवस्था पर गौर करें, तो यहां चुनावी समीकरण एकदम अलग रहा है। जिले की कैराना, शामली और थानाभवन विधानसभा सीटों पर अलग ही समीकरण बनता है।

ऐसे में हर राजनीतिक दल अपने जनाधार को बनाए रखने के प्रयास में है, तो भाजपा हिंदुओं को लामबंद कर सकती है। सीटवार अलग समीकरण हैं, जिसमें सपा गुर्जर और मुसलिम गठजोड़ को बनाकर रखना चाहती है। लब्बो लुआब यही है कि पलायन प्रकरण पर हर राजनीतिक दल की नजर लगी हुई है। उधर, विधायक सुरेश राण नें प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को साम्प्रदायिकता का आरोपी बताया। उन्होंने कहा कि वो गोल टोपी लगाकर आते हैं वो इस बात से आखिर क्या जताना चाहते हैं। विधायक सुरेश राणा ने कहा कि सपा सरकार ने पिछले साढ़े चार साल में 450 दंगे कराये हैं और दंगे कराने में गोल्ड मेडलिस्ट हो गई है सपा सरकार।
अब सवाल यह आखिर शामली प्रशासन ने अपने स्तर पर कोई जांच करने की जहमत क्यों नहीं उठाई? क्या बंद घरों-दुकानों के ताले भी सवालों का जवाब देने में सक्षम हैं? क्या ताले ही यह बता रहे हैं कि हमारे मालिक इस-इस कारण अन्य कहीं जा बसे हैं? सवाल और भी हैं। क्या शामली प्रशासन ने कैराना से अन्यत्र जा बसे लोगों से बात की? क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि जो लोग कैराना में रहकर ही ठीक-ठाक कमाई कर रहे थे उन्हें दूसरे शहर जाकर कारोबार करने की जरूरत क्यों पड़ी? 

बेहतर आय और जीवन की लालसा में गांव से कस्बे और फिर वहां से पड़ोस के बड़े शहर जाने की प्रवृत्ति नई नहीं है। ऐसा हर कहीं होता है, लेकिन इस क्रम में मोहल्ले वीरान नहीं होते। लगता है कि कैराना में कुछ अस्वाभाविक हुआ है। चूंकि यह अस्वाभाविक घटनाक्रम कथित सेक्युलर दलों और उनके जैसी प्रवृत्ति वालों के एजेंडे के अनुरूप नहीं इसलिए उनके पास सबसे मजबूत तर्क यही है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आ रहे हैं इसलिए भाजपा यही सब तो करेगी ही। इसमें दोराय नहीं कि भाजपा कैराना सरीखे मसलों पर विशेष ध्यान देती है, लेकिन क्या ऐसे मसलों पर अन्य किसी राजनीतिक दल को ध्यान नहीं देना चाहिए? नि:संदेह कैराना कश्मीर नहीं है, लेकिन इन दिनों कश्मीरी पंडितों की वापसी के सवाल को लेकर भाजपा पर खूब कटाक्ष हो रहे हैं?

आपको बता दें कि कैराना, भारत के ऐतिहासिक जगहों में से एक है और बेहद ही खूबसूरत है। कैराना के फिजाओं में जहां एक तरफ संगीत की मधुर लहरें तरंगित होती हैं, वहीं उसकी मिट्टी में नृत्य कला की छाप है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह क्षेत्र भारतीय शास्त्रीय संगीत के मशहूर किराना घराना के लिए जाना जाता था। जिसकी स्थापना महान शास्त्रीय गायक अब्दुल करीम खां ने की थी। ये भी मान्यता है कि अपने समय के महान संगीतकार मन्ना डे भी इस कैराना की मिट्टी का सम्मान अपने दिल में रखते थे। क्योंकि जब एक बार उन्हें वहां जाना हुआ तो वो कैराना की मिट्टी में पांव रखने से पहले उन्होनें अपना जूता उतार कर हाथ में रख लिया था।

वहीं दूसरी ओर भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी भी कैराना घराने के गायक हैं। वहीं अगर धर्म की दृष्टि से देखा जाए तो भी कैराना एक संगम से कम नहीं है। क्योंकि यहां मसहूर ईदगाह, ऐतिहासिक देवी मंदिर, जैन बाग, बारादरी नवाब तालाब आज भी मौजूद है। ऐसा इतिहास होने के बावजूद भी ये जमीन आज बंजर हो गई है। क्योंकि इस जमीन को छोड़ कर लोग जा रहे है। अब मुद्दा ये है कि ये लोग यहां से कहां जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं?


कोई टिप्पणी नहीं: