घर के उत्तर दिशा में लगायें भगवान शंकर की फोटो, फिर देखें चमत्कार

धर्म शास्त्रो में भगवान शिव को जगत पिता बताया गया हैं, क्योकि भगवान शिव सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म हैं। हिंदू संस्कृति में शिव को मनुष्य के कल्याण का प्रतीक माना जाता हैं। शिव शब्द के उच्चारण या ध्यान मात्र से ही मनुष्य को परम आनंद प्रदान करता हैं। भगवान शिव भारतीय संस्कृति को दर्शन ज्ञान के द्वारा संजीवनी प्रदान करने वाले देव हैं। आपको बता दें कि भगवान भोलेनाथ, जिनका न आदि है और न ही अंत|

वास्तु के मुताबिक, घर में देवी देवताओं का चित्र लगाने से कई शुभ प्रभाव प्राप्त होते हैं। घर का वातावरण शुद्ध और पवित्र बना रहता है। घर के सदस्यों के विचार भी अच्छे बने रहते हैं। 
आज हम आपको बताते हैं कि देवाधि देव महादेव की फोटो घर में कहाँ लगाने से आपके लिए फलदाई रहेगा| भगवान शिव की फोटो वहाँ लगाना चाहिए जिसके प्रभाव से हमें सभी सुख-समृद्धि की वस्तुओं की भी प्राप्ति होती हो।

आपको बता दें कि भोलेनाथ का फोटो घर में उत्तर दिशा की ओर किसी साफ और स्वच्छ दीवार पर लगाना चाहिए। उत्तर दिशा शिवजी की प्रिय दिशा मानी गई है। उत्तर दिशा में ही कैलाश पर्वत है और इसे महादेव का निवास स्थान बताया जाता है। इसी वजह से उत्तर दिशा में ही शिवजी का फोटो लगाने पर सर्वश्रेष्ठ परिणाम प्राप्त होते हैं।

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जाने घर में भगवान को चढ़े फल- फूलों का क्या करें

हर किसी के घर में मंदिर होता है चाहे वह बड़ा हो या फिर छोटा, खैर छोटे बड़े से क्या लेना देना मंदिर तो मंदिर होता है भगवान मंदिर में नहीं आपके ह्रदय में वास करते हैं| आज हम आपको बताते हैं कि मंदिर में जो आप फुल पट्टी चढाते हैं तो उन्हें कब और किस समय मंदिर से बाहर करना चाहिए|

देवी-देवताओं पूजा के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बताए गए हैं। इन नियमों का पालन करना सभी श्रद्धालुओं के लिए अनिवार्य माना गया है। विधिवत पूजन के साथ ही भक्त को देवी-देवताओं की कृपा तुरंत प्राप्त हो जाती है और मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

आपको बता दें कि घर में भगवान को फूल-फल आदि चढ़ाए जाते हैं, उसके बाद सामान्यत: भगवान को चढ़ाए गए फूल जब मुरझा जाए तो उन्हें उतारकर बहती नदी के प्रवाहित कर दिया जाता है जो कि अनुचित है। विद्वानों के अनुसार जल को दूषित करना पाप माना जाता है। ऐसे में इन हार-फूल को भगवान की प्रतिमा से उतारकर अपने माथे लगाना चाहिए, इसके बाद इन्हें किसी ऐसे स्थान पर डाल देना चाहिए जहां ये किसी के पैरों में आए और इन फूलों का अपमान न हो। 

हार-फूल आदि को किसी पेड़ की जड़ों में डाला जा सकता है जिससे इनका उपयोग खाद के रूप हो जाए और उस पेड़ को लाभ प्राप्त हो। भगवान को अर्पित की गई सभी वस्तुएं पवित्र हो जाती हैं और किसी भी प्रकार इनका अपमान किया जाना, सीधे-सीधे भगवान का ही अनादर करने के समान है। प्रसाद आदि अधिक समय तक नहीं रखना चाहिए, इसे अन्य भक्तों में वितरित कर देना चाहिए। 

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वैशाख में प्याऊ लगाने से होती है विष्णुलोक की प्राप्ति

हिंदू मान्यता का पोषक धर्म सिंधु ग्रंथ में वैशाख मास के स्नान, दान, तप,व्रत कथा आदि के श्रवण-मनन का विशेष महत्व बताया गया है। बारह महीनों में माघ, वैशाख और कार्तिक मास की विशेष महिमा बताई गई है। 

ग्रंथों के अनुसार जो मनुष्य वर्ष भर धर्म, कर्म, दान, तप, व्रत और नियमों का पालन नहीं कर पाते वे वैशाख संयुक्त अघिक मास में सकल धर्म का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। 

आपको बता दें कि वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। 

धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वयं ब्रह्माजी ने वैशाख को सब मासों से उत्तम मास बताया है। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला इसके समान दूसरा कोई मास नहीं है। जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान विष्णु विशेष स्नेह करते हैं। सभी दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थों में जो फल मिलता है। उसी को मनुष्य वैशाख मास में केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। 

जो जलदान नहीं कर सकता यदि वह दूसरों को जलदान का महत्व समझाए तो भी उसे श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य इस मास में प्याऊ लगता है वह विष्णुलोक में स्थान पाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि जिसने वैशाख मास में प्याऊ लगाकर थके-मांदे मनुष्यों को संतुष्ट किया है, उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को संतुष्ट कर लिया।

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वैशाख मास में गंगा स्नान करने से होती हैं भगवान विष्णु की कृपा

आपको पता है चैत्र शुक्ल पूर्णिमा से वैशाख मास स्नान आरंभ हो जाता है। यह स्नान पूरे वैशाख मास तक चलता है। इस बार वैशाख मास स्नान 6 अप्रैल, शुक्रवार से प्रारंभ हो चुका है। धर्म ग्रंथों में वैशाख मास को अन्य मासों में सबसे उत्तम माना गया है| पुराणों में भी कहा गया है कि वैशाख मास में जो व्यक्ति सूर्योदय से पहले गंगा स्नान करता है , वह भगवान विष्णु का कृपापात्र होता है।

वैशाख व्रत महात्म्य की कथा सुनना चाहिए तथा ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। व्रती को एक समय भोजन करना चाहिए। वैशाख मास में जलदान का विशेष महत्व है। इस मास में प्याऊ की स्थापना करवानी चाहिए। पंखा, खरबूजा एवं अन्य फल, नवीन अन्न आदि का दान करना चाहिए।

वैशाख मास में क्यों जरुरी माना गया है गंगा स्नान-

क्या आपको पता है कि वैशाख मास में क्यों गंगा स्नान को महत्व दिया गया है? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं कि आखिर वैशाख मास में क्यों गंगा स्नान करना चाहिए|

आपको बता दें कि हिन्दू धर्म में गंगा को मां का दर्जा दिया गया है। यह देव नदी भी मानी गई है। क्योंकि पौराणिक मान्यताओं में गंगा स्वर्ग से भू-लोक में जगत कल्याण के लिए राजा भगीरथी के घोर तप से आई। इस दौरान गंगा के अलौकिक वेग को भगवान शंकर ने अपनी जटाओं से काबू किया। यही कारण है कि युग-युगान्तर से गंगा पावन और मोक्ष देने वाली मानी जाती है। वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि गंगा का जल पवित्र और रोगनाशक है। 

यही कारण है कि धर्म में आस्था रखने वाले अनेक लोग गंगा स्नान की गहरी चाहत रखते हैं। खासतौर पर हिन्दू माह वैशाख में तो गंगा स्नान महापापों का नाश करने वाला भी माना गया है। इसलिए गंगा स्नान करना चाहिए|

वैशाख मास में स्नान का महत्व-

कार्तिक मास में एक हज़ार बार यदि गंगा स्नान करें और माघ मास में सौ बार स्नान करें, वैशाख मास में नर्मदा में करोड़ बार स्नान करें तो उन स्नानों का जो फल होता है वह फल प्रयाग में कुम्भ के समय पर स्नान करने से प्राप्त होता है।

इस मास में प्रात: स्नान का विधान है।

विशेष रूप से इस अवसर पर पवित्र सरिताओं में स्नान की आज्ञा दी गयी है। इस सम्बन्ध में पद्म पुराण का कथन है कि वैशाख मास में प्रात: स्नान का महत्त्व अश्वमेध यज्ञ के समान है। इसके अनुसार शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगाजी का पूजन करना चाहिए, क्योंकि इसी तिथि को महर्षि जह्नु ने अपने दक्षिण कर्ण से गंगा जी को बाहर निकाला था।

शनिवार को लोहे के बर्तन में बनाये खाना, बनी रहेगी शनिदेव की कृपा

कठोर न्यायाधीश कहे जाने वाले शनि देव के कोप से सभी भलीभांति परिचित हैं क्योंकि शनि देव बुरे कर्मों का न्याय बड़ी कठोरता से करते हैं। शनि की बुरी नजर किसी भी राजा को रातों-रात भिखारी बना सकती है और यदि शनि शुभ फल देने वाला हो जाए तो कोई भी भिखारी राजा के समान बन सकता है।

क्या आपको पता है कि शनि की साढ़ेसाती क्या होती है, अगर नहीं पता हैं तो आज हम आपको बताते हैं कि क्या होती है शनि के साढ़ेसाती| आपको बता दें कि जन्म राशि (चन्द्र राशि) से गोचर में जब शनि द्वादश, प्रथम एवं द्वितीय स्थानों में भ्रमण करता है, तो साढ़े -सात वर्ष के समय को शनि की साढ़ेसाती कहते हैं।

एक साढ़ेसाती तीन ढ़ैया से मिलकर बनती है। क्योंकि शनि एक राशि में लगभग ढ़ाई वर्षों तक चलता है। प्रायः जीवन में तीन बार साढ़ेसाती आती है। प्राचीन काल से सामान्य भारतीय जनमानस में यह धारणा प्रचलित है कि शनि की साढ़ेसाती बहुधा मानसिक, शारीरिक और आर्थिक दृष्टि से दुखदायी एवं कष्टप्रद होती है। शनि की साढ़ेसाती सुनते ही लोग चिन्तित और भयभीत हो जाते हैं। साढ़ेसाती में असन्तोष, निराशा, आलस्य, मानसिक तनाव, विवाद, रोग-रिपु-ऋण से कष्ट, चोरों व अग्नि से हानि और घर-परिवार में बड़ों-बुजुर्गों की मृत्यु जैसे अशुभ फल होते हैं।

आज आपको बताते हैं कि शनि की साढ़ेसाती से कैसे बचा जा सकता है| आपको बता दें कि शनिवार शनि के निमित्त विशेष पूजा अर्चना करने पर उनका कृपा जल्दी ही प्राप्त हो जाती है। इसके साथ ही शनि की प्रिय धातु है लौहा। अत: लौहे के बर्तनों का उपयोग करने पर भी शनि की कृपा प्राप्त होती है। शनिवार के दिन एक समय लौहे के बर्तन में भोजन किया जा सकता है। बर्तन एकदम साफ और स्वच्छ होने चाहिए।

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इस अनोखी ट्रिक से स्वयं जाने अपना भविष्य

आँखें दिल की जुबां होती हैं आज हम आपको आँखों के बारे में एक ऐसी ट्रिक बताएँगे जिसके द्वारा आप स्वयं किसी का भविष्य जान सकते हैं| आप सोच रहे होंगे कि यह कैसे संभव हो सकता है| जी यह संभव है 

तो आइये जाने आँखों के द्वारा कैसे किसी का भविष्य जान सकते हैं-

आपको बता दें कि आप किसी भी व्यक्ति की आँखों की पलकों को गौर से देखें और यह देखें कि वह व्यक्ति कितनी कितनी देर में पलक झपकत है| 

यदि कोई व्यक्ति पांच सेकंड में पलक झपकाता है तो समझिये वह व्यक्ति जीवन से परेशान वैभव व समृद्धि हीन होता है, वहीँ जिन व्यक्तियों की पलकें दस सेकंड में झपकती हैं तो समझ जाइए कि वह व्यक्ति हमेशा दूसरों पर आश्रित रहने वाला होगा और अपना काम स्वयं न करकर दूसरों से करवाकर अधिक खुशी महसुस करते हैं।

इसके अलावा जिन व्यक्तियों की पन्द्रह सेकंड में पलकें झपकती हैं तो समझिये कि ऐसे व्यक्ति तेजी से निर्णय लेने वाले और चतुर होते हैं। वहीँ, जिनकी पलकें बीस सेकंड में झपकती हैं तो ऐसे व्यक्ति स्थिरबुद्धि वाले और प्रभावशाली होते हैं।

इसके अलावा पच्चीस सेकंड या इससे अधिक समय में पलकें झपकाने वाले व्यक्तियों में किसी को सम्मोहित करने की क्षमता अधिक होती है।

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प्रदोष व्रत से पूरी होती हैं सभी मुरादें

ष व्रत कलियुग में अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करनेवाला होता है। माह की त्रयोदशी तिथि में सायं काल को प्रदोष काल कहा जाता है। मान्यता है कि प्रदोष के समय महादेवजी कैलाश पर्वत के रजत भवन में इस समय नृत्य करते हैं और देवता उनके गुणों का स्तवन करते हैं। जो भी लोग अपना कल्याण चाहते हों यह व्रत रख सकते हैं। प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है। सप्ताह केसातों दिन के प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्व है।

आपको बता दें कि अगर आप-

- रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा नीरोग रहेंगे ।
-सोमवार के दिन व्रत करने से आपकी इच्छा फलितहोती है ।
-मंगलवार कोप्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं।
-बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होतीहै।
-बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है। शुक्र प्रदोष व्रत सेसौभाग्य की वृद्धि होती है।
-शनि प्रदोष व्रत से पुत्र की प्राप्ति होती है।

प्रदोष व्रत के नियम-

प्रदोष व्रत में बिना जल पिए व्रत रखना होता है। सुबह स्नान करके भगवान शंकर, पार्वती और नंदी को पंचामृत व गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची भगवान को चढ़ाएं। शाम के समय पुन: स्नान करके इसी तरह शिवजी की पूजा करें। शिवजी की षोडशोपचार पूजा करें। जिसमें भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजा करें। 

इसके अलावा भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। आठ बार दीपक रखते समय प्रणाम करें। शिव आरती करें। शिव स्त्रोत, मंत्र जप करें । रात्रि में जागरण करें। इस प्रकार समस्त मनोरथ पूर्ति और कष्टों से मुक्ति के लिए व्रती को प्रदोष व्रत के धार्मिक विधान का नियम और संयम से पालन करना चाहिए। 

प्रदोष व्रत का महत्व-

प्रदोष व्रत हर महीने में दो बार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को प्रदोष व्रत कहते हैं। यदि इन तिथियों को सोमवार होतो उसे सोम प्रदोष व्रत कहते हैं, यदि मंगल वार होतो उसे भौम प्रदोष व्रत कहते हैं और शनिवार होतो उसे शनि प्रदोष व्रत व्रत कहते हैं। विशेष कर सोमवार, मंगलवार एवं शनिवार के प्रदोष व्रत अत्याधिक प्रभावकारी माने गये हैं। साधारण तौर पर अलग-अलग जगह पर द्वाद्वशी और त्रयोदशी की तिथि को प्रदोष तिथि कहते हैं। इस दिन व्रत रखने का विधान हैं।

प्रदोष व्रत का महत्व कुछ इस प्रकार का बताया गया हैं कि यदि व्यक्ति को सभी तरह के जप, तप और नियम संयम के बाद भी यदि उसके गृहस्थ जीवन में दुःख, संकट, क्लेश आर्थिक परेशानि, पारिवारिक कलह, संतानहीनता या संतान के जन्म के बाद भी यदि नाना प्रकार के कष्ट विघ्न बाधाएं, रोजगार के साथ सांसारिक जीवन से परेशानिया खत्म नहीं हो रही हैं, तो उस व्यक्ति के लिए प्रति माह में पड़ने वाले प्रदोष व्रत पर जप, दान, व्रत इत्यादि पूण्य कार्य करना शुभ फलप्रद होता हैं।

ज्योतिष कि द्रष्टि से जो व्यक्ति चंद्रमा के कारण पीडित हो उसे वर्ष भर प्रदोष व्रतों पर चहे वह किसी भी वारको पडता हो उसे प्रदोष व्रत अवश्य करना चाहिये। प्रदोष व्रतों पर उपवास रखना, लोहा, तिल, काली उड़द, शकरकंद, मूली, कंबल, जूता और कोयला आदि दान करने से शनि का प्रकोप भी शांत हो जाता हैं, जिस्से व्यक्ति के रोग, व्याधि, दरिद्रता, घर कि अशांति, नौकरी या व्यापार में परेशानी आदि का स्वतः निवारण हो जाएगा।

भौम प्रदोष व्रत एवं शनि प्रदोष व्रत के दिन शिवजी, हनुमानजी, भैरव कि पूजा-अर्चना करना भी लाभप्रद होता हैं।

गुरुवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत विशेष कर पुत्र कामना हेतु या संतान के शुभ हेतु रखना उत्तम होता हैं। संतानहीन दंपत्तियों के लिए इस व्रत पर घरमें मिष्ठान या फल इत्यादि गाय को खिलाने से शीघ्र शुभ फलकी प्राप्ति होति हैं। संतान कि कामना हेतु 16 प्रदोष व्रत करने का विधान हैं, एवं संतान बाधा में शनि प्रदोष व्रत सबसे उत्तम मनागया हैं।

संतान कि कामना हेतु प्रदोष व्रत के दिन पति-पत्नी दोनो प्रातः स्नान इत्यादि नित्य कर्म से निवृत होकर शिव, पार्वती और गणेशजी कि एक साथमें आराधना कर किसी भी शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर जल भिषेक, पीपल के मूल में जल चढ़ाकर सारे दिन निर्जल रहने का विधान हैं।

प्रदोष कथा-

इस व्रत के महात्म्य को गंगा के तट पर किसी समय वेदों के ज्ञाता और भगवान के भक्त श्री सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को सुनाया था। सूत जी ने कहा है कि कलियुग में जब मनुष्य धर्म के आचरण से हटकर अधर्म की राह पर जा रहा होगाहर तरफ अन्याय और अनचार का बोलबाला होगा। मानव अपने कर्तव्य से विमुख होकर नीच कर्म में संलग्न होगा उस समय प्रदोष व्रत ऐसा व्रत होगा जो मानव कोशिव की कृपा का पात्र बनाएगा और नीच गति से मुक्त होकर मनुष्य उत्तम लोकको प्राप्त होगा।सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को यह भी कहा कि प्रदोष व्रत से पुण्य से कलियुग में मनुष्य के सभी प्रकार के कष्ट और पापनष्ट हो जाएंगे। यह व्रत अति कल्याणकारी हैइस व्रत के प्रभाव से मनुष्यको अभीष्ट की प्राप्ति होगी। इस व्रत में अलग अलग दिन के प्रदोष व्रत सेक्या लाभ मिलता है यह भी सूत जी ने बताया। सूत जी ने सौनकादि ऋषियों कोबताया कि इस व्रत के महात्मय को सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता सती कोसुनाया था। मुझे यही कथा और महात्मय महर्षि वेदव्यास जी ने सुनाया और यहउत्तम व्रत महात्म्य मैने आपको सुनाया है।प्रदोष व्रत विधानसूत जी ने कहा है प्रत्येक पक्ष कीत्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहते हैं। सूर्यास्त के पश्चात रात्रि केआने से पूर्व का समय प्रदोष काल कहलाता है। इस व्रत में महादेव भोले शंकरकी पूजा की जाती है। इस व्रत में व्रती को निर्जल रहकर व्रत रखना होता है।प्रात: काल स्नान करके भगवान शिव की बेल पत्र, गंगाजल अक्षत धूप दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुन: स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी कीपूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।

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....ऐसे हुआ वीर हनुमान का जन्म

कलियुग में बहुत जल्दी प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं हनुमान जी। आपको बता दें कि जीवन में जब भी कोई अत्यधिक मुश्किल प्रतीत हो रहा हो या लाख कोशिशों के बाद भी वह पूर्ण नहीं हो पा रहा हो या बार-बार बाधाएं उत्पन्न हो रही हों तब हनुमानजी को प्रसन्न कर उन रुकावटों को दूर किया जा सकता है।

हनुमान जी को हिन्दु धर्म में कष्त विनाशक और भय नाशक देवता के रूप में जाना जाता है| हनुमान जी अपनी भक्ति और शक्ति के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं| सारे पापों से मुक्त करने ओर हर तरह से सुख-आनंद एवं शांति प्रदान करने वाले हनुमान जी की उपासना लाभकारी एवं सुगम मानी गयी है। पुराणों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी मंगलवार, स्वाति नक्षत्र मेष लग्न में स्वयं भगवान शिवजी ने अंजना के गर्भ से रुद्रावतार लिया।

क्या आप जानते हैं कि हनुमान जी का जन्म कैसे हुआ अगर नहीं जानते हैं तो आज हम आपको बताते हैं कि कैसे जन्मे पवनसुत हनुमान-

आपको बता दें कि हनुमान के जन्म के संबंध में धर्मग्रंथों में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार-

भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए। हनुमान जी सब विद्याओं का अध्ययन कर पत्नी वियोग से व्याकुल रहने वाले सुग्रीव के मंत्री बन गए।

उन्होंने पत्नीहरण से खिन्न व भटकते रामचंद्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराई। सीता की खोज में समुद्र को पार कर लंका गए और वहां उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखाए। हनुमान ने राम-रावण युद्ध ने भी अपना पराक्रम दिखाया और संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण के प्राण बचाए। अहिरावण को मारकर लक्ष्मण व राम को बंधन से मुक्त कराया। 

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जानिए मनोकामना की पूर्ति हेतु कौन सी हनुमान प्रतिमा का पूजन करें

नई दिल्ली| हिन्दू पंचांग के अनुसार हनुमान जयंती प्रतिवर्ष चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है| इस बार हनुमान जयन्ती 6 अप्रैल शुक्रवार को है| मान्यता है कि इसी पावन दिवस को भगवान राम की सेवा करने के उद्येश्य से भगवान शंकर के ग्यारहवें रूद्र ने वानरराज केसरी और अंजना के घर पुत्र रूप में जन्म लिया था| इस दिन यदि कोई श्रद्धापूर्वक केसरीनंदन की पूजा करता है तो प्रभु उसके सभी अनिष्टों को दूर कर देते हैं और उसे सब प्रकार से सुख, समृद्धि और एश्वर्य प्रदान करते हैं

आज हम आपको बताते हैं कि हनुमान जयंती के शुभ अवसर पर अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु कौन सी हनुमान प्रतिमा का पूजन करना लाभप्रद रहेगा।

राम भक्त हनुमान स्वरुप -

राम भक्ति में मग्न हनुमानजी की उपासना करने से जीवन के महत्व पूर्ण कार्यो में आ रहे संकटो एवं बाधाओं को दूर करती हैं एवं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु आवश्यक एकाग्रता व अटूट लगन प्रदान करने वाली होती है।

संजीवनी पहाड़ लिये हनुमान स्वरुप -

संजीवनी पहाड़ उठाये हुए हनुमानजी की उपासना करने से व्यक्ति को प्राणभय, संकट, रोग इत्यादी हेतु लाभप्रद मानी गई हैं। विद्वानो के मत से जिस प्रकार हनुमानजी ने लक्षमणजी के प्राण बचाये थे उसी प्रकार हनुमानजी अपने भक्तो के प्राण की रक्षा करते हैं एवं अपने भक्त के बडे से बडे संकटो को संजिवनी पहाड़ की तरह उठाने में समर्थ हैं।

ध्यान मग्न हनुमान स्वरुप -

हनुमानजी का ध्यान मग्न स्वरुप व्यक्ति को साधना में सफलता प्रदान करने वाला, योग सिद्धि या प्रदान करने वाला मानागया हैं।


रामायणी हनुमान स्वरुप -

रामायणी हनुमानजी का स्वरुप विद्यार्थीयो के लिये विशेष लाभ प्रद होता हैं। जिस प्रकार रामायण एक आदर्श ग्रंथ हैं उसी प्रकार हनुमानजी के रामायणी स्वरुप का पूजन विद्या अध्यन से जुडे लोगो के लिये लाभप्रद होता हैं।

हनुमानजी का पवन पुत्र स्वरुप-

हनुमानजी का पवन पुत्र स्वरुप के पूजन से आकस्मिक दुर्घटना, वाहन इत्यादि की सुरक्षा हेतु उत्तम माना गया हैं।

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घर आये भिखारी को कभी खाली हाथ नहीं भेजना चाहिए

अगर आपके दरवाजे पर कोई भिखारी आये तो उसे कभी भी खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए क्योंकि हिन्दू धर्म में भिखारी को भी नारायण ही माना गया है। इन्हें दरिद्र नारायण कहा जाता है। 

शास्त्रों अनुसार भगवान हमारी समय-समय पर परीक्षा लेते हैं। पुराने समय में भी कई ऐसे प्रसंग मिलते हैं जहां भगवान भिक्षुक बनकर भक्त की परीक्षा लेने पहुंचे। भगवान हमेशा ही भक्तों की श्रद्धा को परखने के लिए नए वेश धारण करते हैं। 

इसके अलावा शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि ऐसे जरूरतमंदों की दुआओं का अच्छा प्रभाव पड़ता है। गरीबों की दुआएं हमें बुरे समय से बचाती है। साथ ही हमारे पुण्यों में बढ़ोतरी करती है जिसके प्रभाव से हमारे कई रुके हुए कार्य पूर्ण हो जाते हैं। इसलिए कभी भी घर आये भिखारी को घर से खाली हाथ नहीं भेजना चाहिए|

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'धोबिनिया दइ दे आपन सुहाग, हमार बन्नी हाथ जोरे खड़ी..'

'धोबिनिया दइ दे आपन सुहाग, हमार बन्नी हाथ जोरे खड़ी..' यह बुंदेलखण्ड का एक ऐसा वैवाहिक मंगल गीत है जो कन्या को 'सुहागिन' बनाते वक्त गाया जाता है। हिंदू रीति-रिवाज के इस वैवाहिक बंधन में अगड़ों, पिछड़ों और अनुसूचित वर्ग की सात कौमों के मिलन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दलित वर्ग की महिला के 'जूठे सुहाग' से ही कन्याएं 'सुहागिन' बनती हैं। 

राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारणों से भले ही समाज में छुआछूत, भेदभाव और वैचारिक मतभेदों की गहरी खाई हो, पर वैवाहिक बंधन से जुड़ी इस रस्म के दौरान मंडप में एक ऐसा अद्भुत संगम देखने को मिलता है जो कुछ पल के लिए समाज को एक सूत्र में बांधकर बराबरी का दर्जा देने में सफल है। वैवाहिक मंडप में दूर-दूर तक छुआछूत या भेदभाव का किसी से कोई सरोकार नहीं होता। 

हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों से सम्पन्न होने वाली वैवाहिक रस्मों में सबसे बड़ी भूमिका समाज के अनुसूचित वर्ग की उस महिला की होती है, जो अपना जूठा सुहाग (मांग में भरा सिंदूर) कन्या की मांग में भरकर उसे 'सुहागिन' बनाती है। 

"हिंदू समाज के वैवाहिक कार्यक्रमों में समाज के सात वर्गो की भूमिका अलग-अलग लेकिन अहम होती है। ये सभी लोग पूरे वैवाहिक कार्यक्रम में सभी रस्में पूरी कराकर शादी का गवाह बनते हैं। इस सबके बावजूद एक महत्वपूर्ण अवसर ऐसा भी आता है जब अनुसूचित जाति की एक महिला अपनी मांग में भरे सिंदूर से कन्या को 'सुहागिन' बनाती है। इस रस्म के बाद ही वर-कन्या के सात फेरों की रस्म पूरी की जाती है।"

"कन्या में देवी दुर्गा, चंडी व काली जैसी सात देवियों का तेज मौजूद रहता है। कन्या के तेज को कम करने के लिए इस बिरादरी की महिला के 'जूठे सुहाग' से 'सुहागिन' बनाने का रिवाज है, ताकि कन्या को छूने से वर का अनिष्ट न हो।"

पशु कयों करते हैं जुगाली ?

आपने अक्सर देखा होगा कि गाय, भैंस, ऊंट, भेड़, बकरी इत्यादि जानवर घास-फूस पेड़ों की पत्तियां इत्यादि अपना भोजन जल्दी-जल्दी खा लेते हैं और उसके बाद आराम से बैठकर अपना मुंह चलाते रहते हैं। गाय, भेड़, बकरी आदि के ऊपर के जबड़े में दांत नहीं होते लेकिन इनके मसूढ़े बहुत सख्त होते हैं और नीचे के जबड़े के दांतों तथा ऊपर के जबड़ों द्वारा ही ये जानवर अपने भोजन को मुंह में ले 
जाते हैं।
भोजन खाने के बाद ये पशु खाए हुए भोजन को आराम से पेट से दोबारा मुंह में लाते हैं और उसे अच्छी तरह से चबाते हैं। भोजन चबाने की इसी क्रिया को ‘जुगाली’ कहा जाता है। चबाए हुए भोजन को ये जानवर फिर पेट में ले जाते हैं जहां यह बहुत आसानी से पच जाता है। जो जानवर जुगाली करते हैं उन्हें ‘रुमीनेंट’ कहा जाता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि 
जानवर जुगाली क्यों करते हैं और 
इन्हें जुगाली करने की आदत 
कैसे पड़ी?


कई हजार वर्ष पूर्व, जब मनुष्य ने इन जानवरों को पालतू नहीं बनाया था, ये जंगलों में घूमा करते थे। जंगल में शेर, चीता तथा मांस भक्षण करने वाले दूसरे जानवर भी अपने भोजन की तलाश में घूमते थे। इन भयानक जानवरों से खुद को बचाने के लिए ही ये जानवर घास और पेड़ों की पत्तियों को जल्दी-जल्दी निगल कर किसी सुरक्षित स्थान की ओर भाग निकलते थे और सुरक्षित स्थान पर पहुंच कर निङ्क्षश्चत होकर जल्दी-जल्दी निगले हुए भोजन को जुगाली करके पचाते थे। इस प्रकार इन जानवरों में जुगाली की यह आदत विकसित होती गई।
इन पशुओं के पेट की बनावट बड़ी जटिल होती है। इनका पेट चार भागों में बंटा होता है। पहले भाग को ‘पाऊच’ दूसरे को ‘रेटीकुलम’ या ‘हनीकॉम बैग’, तीसरे को ‘ओमासम’ या ‘मेनीप्लाइज’ तथा चौथे भाग को ‘एबोमासम’  या ‘टू-स्टमक’ कहा जाता है। इनमें से केवल ऊंट ही ऐसा जानवर है जिसके पेट में इनमें से तीसरा भाग नहीं होता। निगला हुआ भोजन सबसे पहले पेट के प्रथम भाग में जाता है। यह हिस्सा दूसरे भाग की अपेक्षा बड़ा होता है। यहां पहुंच कर निगला हुआ भोजन पेट में स्रावित एंजाइमों से मुलायम हो जाता है। उसके बाद भोजन यहां से पेट के दूसरे हिस्से में पहुंचता है। इस हिस्से में भोजन जुगाली करने लायक हो जाता है। इसके बाद जानवर अपने किए हुए भोजन को मुंह में लाकर काफी देर तक  चबाते रहते हैं। जुगाली की क्रिया पूरी होने के उपरांत भोजन पेट के  तीसरे भाग में पहुंच जाता है। पेट के तीसरे हिस्से में इसमें कुछ और पाचक रस मिल जाते हैं और अंत में यह भोजन पेट की मांसपेशियों द्वारा पचने के लिए आमाशय में भेज दिया जाता है। इस तरह भोजन के पचने की क्रिया पूरी हो जाती है।

चैत्र नवरात्रि में कन्या पूजन का महत्व

चैत्र मास की नवरात्रि शुक्रवार को प्रारंभ हो गई है, नवरात्रि के साथ ही भारतीय नववर्ष का भी आरंभ हो गया है| बासंतिक नवरात्रि पर्व के इन नौ दिनों के दौरान आदिशक्ति सृष्टि रचियता माता जगदम्बा के नौ विभिन्न रूपों की आराधना की जाती है|

हिन्दू वर्ष के आरम्भ में अर्थात चैत्र माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस से नवरात्रि का आरंभ होता है इसे बासंतिक नवरात्रि कहते हैं| ये नवरात्र शीत ऋतु बीतने और ग्रीष्म ऋतु आरम्भ होने वाली होती है उस दौरान आती है| नवरात्रि के नौ दिन वर्ष के सर्वाधिक शुद्ध एवं पवित्र दिवस माने गए हैं| वर्ष के इन नौ और नौ अर्थात् 18 दिनों का भारतीय धर्म एवं दर्शन में विशेष ऐतिहासिक महत्व है और इन्हीं दिनों में बहुत सी दिव्य घटनाओं के घटने की जानकारी हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों में मिलती है|

धर्म ग्रंथों के अनुसार तीन वर्ष से लेकर नौ वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती है। शास्त्रों के अनुसार एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य, दो की पूजा से भोग और मोक्ष, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ व काम, चार की पूजा से राज्यपद, पांच की पूजा से विद्या, छ: की पूजा से छ: प्रकार की सिद्धि, सात की पूजा से राज्य, आठ की पूजा से संपदा और नौ की पूजा से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। कन्या पूजन की विधि इस प्रकार है-

पूजन विधि-

कन्या पूजन में तीन से लेकर नौ साल तक की कन्याओं का ही पूजन करना चाहिए इससे कम या ज्यादा उम्र वाली कन्याओं का पूजन वर्जित है। अपने सामथ्र्य के अनुसार नौ दिनों तक अथवा नवरात्रि के अंतिम दिन कन्याओं को भोजन के लिए आमंत्रित करें। कन्याओं को आसन पर एक पंक्ति में बैठाएं। ऊँ कुमार्यै नम: मंत्र से कन्याओं का पंचोपचार पूजन करें। इसके बाद उन्हें रुचि के अनुसार भोजन कराएं। भोजन में मीठा अवश्य हो, इस बात का ध्यान रखें। भोजन के बाद कन्याओं के पैर धुलाकर विधिवत कुंकुम से तिलक करें तथा और यथाशक्ति दक्षिणा देकर विदा करें|