कृष्णभागिनी द्रौपदी के समान हैं यमराज की बहन यमुना

जीवनदायिनी नदियों पर केंद्रित आलेख का आज हम तीसरा भाग प्रस्तुत करने जा रहे हैं| आज हम बात करते हैं यमराज की बहन यमुना की| हिमालय तो भव्यता का भंडार है। जहां-तहां भव्यता को बिखेरकर भव्यता की भव्यता को कम करते रहना ही मानो हिमालय का व्यवसाय है। फिर भी ऐसे हिमालय में एक ऐसा स्थान है, जिसकी ऊर्जस्विता हिमालय-वासियों का भी ध्यान खींचती है। यह है यमराज की बहन यमुना का उद्गम-स्थान। 

ऊंचाई से बर्फ पिघलकर एक बड़ा प्रपात गिरता है। इर्द-गिर्द गगनचुम्बी नहीं, बल्कि गगनभेदी पुराने वृक्ष आड़े गिरकर गल जाते हैं। उत्तुंग पहाड़ यमदूतों की तरह रक्षण करने के लिए खड़े हैं। कभी पानी जमकर बर्फ के जितना ठंडा पानी बन जाता है। ऐसे स्थान में जमीन के अंदर से एक अद्भुत ढंग से उबलता हुआ पानी उछलता रहता है। जमीन के भीतर से ऐसी आवाज निकलती है मानो किसी वाष्पयंत्र से क्रोधायमान भाप निकल रही हो और उन झरनों से सिर से भी ऊंची उड़ती बूंदें सर्दी में भी मनुष्य को झुलसा देती हैं। 

ऐसे लोक-चमत्कारी स्थान में शुद्ध जल से स्नान करना असंभव-सा है। ठंडे पानी में नहाएं तो ठंडे पड़ जाएंगे और गरम पानी में नहाएं तो वहीं के वहीं आलू की तरह उबलकर मर जाएंगे। इसीलिए वहां मिश्रजल के कुंड तैयार किए गए हैं। एक झरने के ऊपर एक गुफा है। उसमें लकड़ी के पटिये डालकर सो सकते हैं। हां, रातभर करवट बदलते रहना चाहिए, क्योंकि ऊपर की ठंड और नीचे की गरमी, दोनों एक-सी अस' होती है।

दोनों बहनों में गंगा से यमुना बड़ी, प्रौढ़ और गंभीर है, कृष्णभागिनी द्रौपदी के समान कृष्णवर्णा और मानिनी है। गंगा तो मानो बेचारी मुग्ध शकुंतला ही ठहरी, पर देवाधिदेव ने उसको स्वीकार किया, इसलिए यमुना ने अपना बड़प्पन छोड़कर, गंगा को ही अपनी सरदारी सौंप दी। ये दोनों बहनें एक-दूसरे से मिलने के लिए बड़ी आतुर दिखाई देती हैं। 

हिमालय में तो एक जगह दोनों करीब-करीब आ जाती हैं, किंतु विघ्नसंतोषी की तरह ईष्र्यालु दंडाल पर्वत के बीच में आड़े आने से उनका मिलन वहां नहीं हो पाता। एक काव्यहृदयी ऋषि यमुना के किनारे रहकर हमेशा गंगा स्नान के लिए जाया करता था, किंतु भोजन के लिए वापस यमुना के ही घर आ जाता था। जब वह बूढ़ा हुआ तब उसके थके-मांदे पांवों पर तरस खाकर गंगा ने अपना प्रतिनिधिरूप एक छोटा-सा झरना यमुना के तीर पर ऋषि के आश्रम के पास भेज दिया। आज भी वह छोटा सा सफेद प्रवाह उस ऋषि का स्मरण करता हुआ वहां बह रहा है।

देहरादून के पास भी हमें आशा होती है कि ये दोनों एक-दूसरे से मिलेंगी। किंतु नहीं, अपने शैत्य-पाचनत्व से अंतर्वेदी के समूचे प्रदेश को पुनीत करने का कर्तव्य पूरा करने से पहले उन्हें एक-दूसरे से मिलकर फुरसत की बातें करने की सूझती ही कैसे? गंगा तो उत्तरकाशी, टिहरी, श्रीनगर, हरिद्वार, कन्नौज, ब्रह्मावर्त, कानपुर आदि पुराण पवित्र और इतिहास प्रसिद्ध स्थानों को अपना दूध पिलाती हुई दौड़ती है, जबकि यमुना कुरुक्षेत्र और पानीपत के हत्यारे भूमि-भाग को देखती हुई भारतवर्ष की राजधानी के पास आ पहुंचती है। 

यमुना के पानी में साम्राज्य की शक्ति होना चाहिए। उसके स्मरण-संग्रहालय में पांडवों से लेकर मुगल-साम्राज्य तक को गदर के जमाने से लेकर स्वामी श्रद्धानंदजी की हत्या तक का सारा इतिहास भरा पड़ा है। दिल्ली से आगरे तक ऐसा मालूम होता है, मानो बाबर के खानदान के लोग ही हमारे साथ बातें करना चाहते हों। दोनों नगरों के किले साम्राज्य की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि यमुना की शोभा निहारने के लिए ही मानो बनाए गए हैं। मुगल साम्राज्य के नगाड़े तो कब के बंद हो गए, किंतु मथुरा-वृंदावन की बांसुरी अब भी बज रही हैं।

यमुना और मथुरा-वृंदावन :

मथुरा-वृंदावन की शोभा कुछ अपूर्व ही है। यह प्रदेश जितना रमणीय है, उतना ही समृद्ध है। हरियाने की गाएं अपने मीठे, सरस, सकस दूध के लिए हिंदुस्तान में मशहूर हैं। यशोदा मैया ने या गोपराजा नन्द ने खुद यह स्थान पसंद किया था, इस बात को तो मानो यहां की भूमि भूल ही नहीं सकती। मथुरा-वृंदावन तो हैं बालकृष्ण की क्रीड़ा-भूमि, वीर कृष्ण की विक्रम भूमि। द्वारकावास को यदि छोड़ दें तो श्रीकृष्ण के जीवन के साथ अधिक से अधिक सहयोग कालिन्दी ने ही किया है। 

जिस यमुना ने कालियामर्दन देखा, उसी यमुना ने कंस का शिरोच्छेद भी देखा। जिस यमुना ने हस्तिानापुर के दरबार में श्रीकृष्ण की सचिव-वाणी सुनी, उसी यमुना ने रण-कुशल श्रीकृष्ण की योगमूर्ति कुरुक्षेत्र पर विचरती निहारी। जिस यमुना ने वृंदावन की प्रणय-बांसुरी के साथ अपना कलरव मिलाया, उसी यमुना ने कुरुक्षेत्र पर रोमहर्षक गीतावाणी को प्रतिध्वनित किया। 

यमराज की बहन का भाईपन तो श्रीकृष्ण को ही शोभा दे सकता है। जिसने भारतवर्ष के कुल का कई बार संहार देखा है, उस यमुना के लिए पारिजात के फूल के समान ताजबीवी का अवसान कितना मर्मभेदी हुआ होगा? फिर भी उसने प्रेमसम्राट शाहजहां के जमे हुए संगमरमरी आंसुओं को प्रतिबिंबित करना स्वीकार कर लिया है।

भारतीय काल से मशहूर वैदिक नदी चर्मण्वती से करभार लेकर यमुना ज्योंही आगे बढ़ती है, त्योंही मध्ययुगीन इतिहास की झांगी करानेवाली नन्ही-सी सिंधु नदी उसमें आ मिलती है।

अब यमुना अधीर हो उठी है। कई दिन हुए, बहन गंगा के दर्शन नहीं हुए। ऐसी बातें पेट में समाती नहीं हैं। पूछने के लिए असंख्य सवाल भी इकट्ठे हो गए हैं। कानपुर और कालपी बहुत दूर नहीं हैं। यहां गंगा की खबर पाते ही खुशी से वहां की मिश्री से मुंह मीठा बनाकर यमुना ऐसी दौड़ी कि प्रयागराज में गंगा के गले से लिपट गई। क्या दोनों का उन्माद! 

मिलने पर भी मानो उनको यकिन नहीं होता कि वे मिली हैं। भारतवर्ष के सब के सब साधु संत इस प्रेम संगम को देखने के लिए इकट्ठे हुए हैं, पर इन बहनों को उसकी सुध-बुध नहीं है। आंगन में अक्षयवट खड़ा है। उसकी भी इन्हें परवा नहीं है। बूढ़ा अकबर छावनी डाले पड़ा है, उसे कौन पूछता है? और अशोक का शिलास्तंभ लाकर खंडा करें तो भी क्या ये बहनें उसकी ओर नजर उठाकर देखेंगी?

प्रेम का यह संगम-प्रवाह बहता रहता है और उसके साथ कवि-सम्राट् कालिदास की सरस्वती भी अखंड बह रही है! -

क्वचित् प्रभा लेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिरिवानुविद्धा।

अन्यत्र माला सित-पंकजानाम् इन्दीवर्रै उत्खचितान्तरेव।।

क्वचित्खगानां प्रिय-मानसानां कादम्ब-संसर्गवतीव पंक्ति:।

अन्यत्र कालागुरु-दत्तपत्रा भक्ति भुवशचन्दन-कल्पितेव।।

क्वचित् प्रभा चांद्रमसी तमोभिश्छायाविलीनै: शबलीकृतेव।

अन्यत्र शुभ्रा शरद्अभ्रलेखा-रन्ध्रष्विवालक्ष्यनभ: प्रदेशा।।

क्वचित च कृष्णोरग-भूषणेव भस्मांग-रागा तनरू ईश्वरस्य।

पश्यानवद्यांगि! विभाति गंगा भिन्नप्रवाहा यमुनारतंगै:।।

अर्थात् - हे निर्दोष अंगवाली सीते, देखो, इस गंगा के प्रवाह में यमुना की तरंगे धंसकर प्रवाह को खंडित कर रही है। यह कैसा दृश्य है! मालूम होता है, मानो कहीं मोतियों की माला में पिरोये हुए इंद्रनीलमणि मोतियों की प्रभा को कुछ धुंधला कर रहे हैं। कहीं ऐसा दीखता है, मानो सफेद कमल के हार में नील कमल गूंथ दिये गए हों। कहीं मानो मानसरोवर जाते हुए श्वेत चंदन से लीपी हुई जमीन पर कृष्णागरु की पत्र रचना की गई हो। कहीं मानो चंद्र की प्रभा के साथ छाया में सोए हुए अंधकार की क्रीड़ा चल रही हो; कहीं शरदऋतु के शुभ्र मेघों की पीछे से इधर-उधर आसमान दीख रहा हो और कहीं ऐसा मालूम होता है, मानो महादेवजी के भस्म-भूषित शरीर पर कृष्ण सर्पो के आभूषण धारण करा दिए हों।

कैसा सुंदर दृश्य! ऊपर पुष्पक विमान में मेघ श्याम रामचंद्र और धवल-शीला जानकी चौदह साल के वियोग के पश्चात् अयोध्या में पहुंचने के लिए अधीर हो उठे हैं और नीचे इंदीवर-श्यामा कालिंदी और सुधा-जला जाह्न्वी एक दूसरे का परिरंभ छोड़े बिना सागर में नामरूप को छोड़कर विलीन होने के लिए दौड़ रही है। इस पावन दृश्य को देखकर स्वर्ग में सुमनों की पुष्प-वृष्टि हुई होगी और भूतल पर कवियों की प्रतिभा-सृष्टि के फुहारे उड़े होंगे।

कहीं तपस्विनी कन्या तो कहीं कुलवधू की तरह सौभाग्यवती दिखती हैं 'माँ गंगा'

जीवनदायिनी नदियों पर केंद्रित आलेख का आज हम दूसरा भाग प्रस्तुत करने जा रहे हैं| आज हम बात करते हैं पतित पावनी गंगा मैया की| गंगा कुछ भी न करती, सिर्फ देवव्रत भीष्म को ही जन्म देती, तो भी आर्यजाति की माता के तौर पर वह आज प्रख्यात होती। पितामह भीष्म की टेक, उनकी निस्पृहता, ब्रह्मचर्य और तत्वज्ञान हमेशा के लिए आर्यजाति का आदरपात्र ध्येय बन चुका है। हम गंगा को आर्य-संस्कृति के ऐसे आधारस्तंभ महापुरुष की माता के रूप में पहचानते हैं।

नदी को यदि कोई उपमा शोभा देती है, तो वह माता की ही। नदी के किनारे रहने से अकाल का डर तो रहता ही नहीं। मेघराज जब धोखा देते हैं तब नदीमाता ही हमारी फसल पकाती है। नदी का किनारा यानी शुद्ध और शीतल हवा। नदी के किनारे-किनारे घूमने जाएं तो प्रकृति के मातृवात्सल्य के अखंड प्रवाह का दर्शन होता है। नदी बड़ी हो और उसका प्रवाह धीर-गंभीर हो, तब तो उसके किनारे पर रहने वालों की शानो-शौकत उस नदी पर ही निर्भर करती है

सचमुच, नदी जनसमाज की माता है। नदी किनारे बसे हुए शहर की गली-गली में घूमते समय एकाध कोने से नदी का दर्शन हो जाए, तो हमें कितना आनंद होता है! कहां शहर का वह गंदा वायुमंडल और कहां नदी का यह प्रसन्न दर्शन! दोनों के बीच का फर्क फौरन ही मालूम हो जाता है। नदी ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर का स्मरण कराने वाली देवी है। यदि गुरु का वंदन करना आवश्यक है तो नदी का भी वंदन करना उचित है।

यह तो हुई सामान्य नदी की बात, किंतु गंगा मैया तो आर्य-जाति की माता है। आर्यो के बड़े-बड़े साम्राज्य इसी नदी के तट पर स्थापित हुए हैं। कुरु-पांचाल देश का अंग-वंगादि देशों के साथ गंगा ने ही संयोग किया है। आज भी हिंदुस्तान की आबादी गंगा के तट पर ही सबसे अधिक है। जब हम गंगा का दर्शन करते हैं तब हमारे ध्यान में फसल से लहलाते सिर्फ खेत ही नहीं आते, न सिर्फ माल से लदे जहाज ही आते हैं, बल्कि वाल्मीकि का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक, समुद्रगुप्त या हर्ष - जैसे सम्राटों के पराक्रम और तुलसीदास या कबीर जैसे संतजनों के भजन-इन सबका एक साथ ही स्मरण हो आता है। गंगा का दर्शन तो शैत्य-पावनत्व का हार्दिक तथा प्रत्यक्ष दर्शन है।

किंतु गंगा के दर्शन का एक ही प्रकार नहीं है। गंगोत्री के पास के हिमाच्छादित प्रदेशों में इसका खिलाड़ी कन्यारूप, उत्तरकाशी की ओर चीड़-देवदार के काव्यमय प्रदेश में मुग्धा रूप, देवप्रयाग के पहाड़ी और संकरे प्रदेश में चमकीली अलकनंदा के साथ इसकी अठखेलियां, लक्ष्मण-झूले की विकराल दंष्ट्रा में से छूटने के बाद हरिद्वार के पास अनेक धाराओं में स्वच्छंद विहार, कानपुर से सटकर जाता हुआ उसका इतिहास-प्रसिद्ध प्रवाह, प्रयाग के विशाल तट पर हुआ उसका कालिंदी के साथ का त्रिवेणी-संगम यानी हरेक की शोभा कुछ निराली ही है। एक दृश्य देखने पर दूसरे की कल्पना नहीं हो सकती। हरेक का सौंदर्य अलग, भाव अलग, वातावरण अलग और माहात्म्य अलग!

प्रयाग से गंगा अलग ही स्वरूप धारण कर लेती है। गंगोत्री से लेकर प्रयाग तक की गंगा वर्धमान होते हुए भी एकरूप मानी जाती है। किंतु प्रयाग के पास उससे यमुना आकर मिलती है। यमुना का तो पहले से ही दोहरा पाट है। वह खेलती है, कूदती है, किंतु क्रीड़ासक्त नहीं मालूम होती। गंगा शकुंतला जैसी तपस्वी कन्या दिखती है। काली यमुना द्रौपदी-जैसी मानिनी राजकन्या मालूम होती है।

शर्मिष्ठा और देवयानी की कथा जब सुनते हैं, तब भी प्रयाग के पास गंगा और यमुना के बड़ी कठिनाई के साथ मिलते हुए शुक्ल-कृष्ण प्रवाहों का स्मरण हो आता है। हिंदुस्तान में अनगिनत नदियां हैं, इसलिए संगमों का भी कोई पार नहीं है। इन सभी संगमों में हमारे पुरखों ने गंगा-यमुना का यह संगम सबसे अधिक पसंद किया है और इसीलिए उसका 'प्रयागराज' जैसा गौरवपूर्ण नाम रखा है। हिंदुस्तान में मुगलों के आने के बाद जिस प्रकार हिंदुस्तान के इतिहास का रूप बदला, उसी प्रकार दिल्ली-आगरा और मथुरा-वृंदावन के समीप से आते हुए यमुना के प्रवाह के कारण गंगा का स्वरूप भी प्रयाग के बाद बिल्कुल ही बदल गया है।

प्रयाग के बाद गंगा कुलवधू की तरह गंभीर और सौभाग्यवती दिखती है। इसके बाद उसमें बड़ी-बड़ी नदियां मिलती जाती हैं। यमुना का जल मथुरा-वृंदावन से श्रीकृष्ण के संस्मरण अर्पण करता है, जबकि अयोध्या होकर आनेवाली सरयू आदर्श राजा रामचंद्र के प्रतापी किंतु करुण जीवन की स्मृतियां लाती है।

दक्षिण की ओर से आनेवाली चंबल नदी रतिदेव के यज्ञ-याग की बातें करती है, जबकि महान कोलाहल करता हुआ सोनभद्र गज-ग्राह के दारुण द्वंद्वयुद्ध की झांकी कराता है। इस प्रकार हृष्ट-पुष्ट बनी हुई गंगा पाटलिपुत्र के पास मगध साम्राज्य जैसी विस्तीर्ण हो जाती है। फिर भी गंडकी अपना अमूल्य कर-भार लाते हुए हिचकिचाई नहीं। 

जनक और अशोक की, बुद्ध और महावीर की प्राचीन भूमि से निकलकर आगे बढ़ते समय गंगा मानो सोच में पड़ जाती है कि अब कहां जाना चाहिए। जब इतनी प्रचंड वारि-राशि अपने अमोघ वेग से पूर्व की ओर बह रही ही हो, तब उसे दक्षिण की ओर मोड़ना क्या कोई आसान बात है? फिर भी वह उस ओर मुड़ गई है। दो सम्राट या दो जगद्गुरु जैसे एकाएक एक दूसरे से नहीं मिलते, वैसा ही गंगा और ब्रह्मपुत्र का हाल है। 

ब्रह्मपुत्र हिमालय के उस पार का सारा पानी लेकर असम से होती हुई पश्चिम की ओर आती है, और गंगा इस ओर से पूर्व की ओर बढ़ती है। उनकी आमने-सामने भेंट कैसे हो? कौन किसके सामने पहले झुके? कौन किसे पहले रास्ता दे? अंत में दोनों ने तय किया कि दोनों को 'दाक्षिण्य' धारण कर सरित्पति के दर्शन के लिए जाना चाहिए और भक्ति नम्र होकर जाते-जाते जहां संभव हो, रास्ते में एक-दूसरे से मिल लेना चाहिए।

इस प्रकार गोआलंदो के पास जब गंगा और ब्रह्मपुत्र का विशाल जल आकर मिलता है, तब मन में संदेह पैदा होता है कि सागर और क्या होता होगा? विजय प्राप्त करने के बाद कसी हुई खड़ी सेना भी जिस प्रकार अव्यवस्थित हो जाती है और विजयी वीर मन में जो आए वहां-वहां घूमते हैं उसी प्रकार का हाल इसके बाद इन दो महान नदियों का होता है। अनेक मुखों द्वारा वे सागर से जाकर मिलती हैं। हरेक प्रवाह का नाम अलग-अलग है और कुछ प्रवाहों के तो एक से भी अधिक नाम हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र एक होकर पद्मा का नाम धारण करती हैं। यही आगे जाकर मेघना के नाम से पुकारी जाती है

यह अनेकमुखी गंगा कहां जाती है? सुंदरवन में बेंत के झुंड उगाने? या सागर-पुत्रों की वासना को तृप्त कर उनका उद्धार करने? आज जाकर आप देखेंगे तो यहां पुराने काव्य का कुछ भी शेष नहीं होगा। जहां देखो, वहां पटसन की बोरियां बनाने वाली मिलें दीख पड़ेंगीं। जहां से हिंदुस्तानी कारीगरी की असंख्य वस्तुएं हिंदुस्तानी जहाजों से लंका या जावा द्वीप तक जाती थीं, उसी रास्ते अब विलायती और जापानी अगिन-बोटें, विदेशी कारखानों में बना हुआ भद्दा माल हिंदुस्तान के बाजारों में भर डालने के लिए आती हुई दिखाई देती हैं। गंगा मैया पहले ही की तरह हमें अनेक प्रकार की समृद्धि प्रदान करती जाती है, किंतु हमारे निर्बल हाथ उसे उठा नहीं सकते!

हर नदी कुछ कहती है, जानिए उनकी कहानी हमारी जुबानी

काका कालेलकर के नाम से चर्चित गांधीवादी समाज सुधारक दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर ने आजादी से पूर्व और उसके आसपास हिमालय से निकलने वाली नदियों के संदर्भ में काफी कुछ लिखा है। जीवनदायिनी नदियों पर केंद्रित उनके आलेख आज से हम क्रमिक रूप से प्रस्तुत करने जा रहे हैं:- पार्वती और सरोजा

चंद नदियां पहाड़ों से निकलती हैं और चंद सरोवरों से निकलकर बहने लगती हैं। पर्वतों से जन्म पानेवाली नदियों को पार्वती या शैलजा कहते हैं। जो सरोवरों से जन्म लेती हैं, वे हैं सरोजा। हिमालय के उस पार दो बहुत बड़े और अत्यंत पवित्र सरोवर हैं। एक का नाम है मानस-सरोवर, दूसरे का राकसताल या रावण-हृद। इन सरोवरों से निकलनेवाली नदियों को सरोजा ही कहना पड़ेगा।

देखा जाए तो हिमालय की सभी नदियों को पार्वती नाम दिया जा सकता है। नदियां यानी अप्सरा। पहाड़ों से अप् यानी पानी जब सरने लगता है, यानी बहने लगता है, दौड़ने लगता है, तब उस प्रवाह को जिस तरह हम आप-गा या नदी कहते हैं, उसी प्रकार उसे 'अप्सरा' कहने में भी कोई आपत्ति नहीं है। पार्वती और सरोजा अप्सराओं के दो स्वतंत्र कुल कहे जा सकते हैं। 

हिमालय कहते ही जिस तरह गंगा और यमुना ये दोनों प्रमुख नदियां पहले ध्यान में आती हैं, उसी प्रकार हिमालय का आदरपूर्वक चक्कर काटकर, हिमालय के उत्तर की तरफ का सारा पानी, एक बूंद भी बेकार न जाने देने तथा दक्षिण की ओर हिंदुस्तान में लाकर छोड़ने वाली इन नदियों का भी स्मरण हुए बिना नहीं रहता। इन्हें नदियों के बजाय नद कहना ठीक रहेगा। 

सिंधु और ब्रह्मपुत्र- ये दो नद मानस-सरोवर और रावण-हृद के परिसर में से निकलकर दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहने लगते हैं। सिंधु-नद पश्चिम की ओर जाकर, हिमालय का चक्कर काटकर, हिंदुस्तान में ही (अब पाकिस्तान में) दक्षिण की ओर बहने लगता है। ब्रह्मपुत्र, जिसका तिब्बती नाम 'सांग्पो' है, पूर्व तरफ दूर तक दौड़ लगाकर फिर एक गहन कांतर (अरण्य) में प्रवेश करता है और असम में प्रकट होता है। यह प्रदेश सचमुच देखने लायक है। 

हाथ की उंगलियां फैलाने पर उनका जिस प्रकार पंखे का आकार बनता है, उसी प्रकार असम प्रदेश में सदिया गांव के आसपास लोहित, डिहंग, सुबनसेखी आदि अनेक नदियों के प्रवाह, पंखे की उंगलियों के समान, ब्रह्मपुत्र में आकर मिलते हैं।

वहां पंजाब की तरफ स्वात, क्रुमू (काबुल) आदि नदियों का पानी साथ लेकर सिंधुनद पंजाब में प्रवेश करता है और फिर कश्मीर या मिट्टनकोट तक झेलम, चिनाब, रावी, व्यास और सतलज नदियों के पानी से बनने वाला पंचनद कब आकर अपने सतलज इन नदियों के पानी से बननेवाला पंचनद कब आकर अपने में समा जाता है, इसकी राह देखता दौड़ता है। यह संगम भी अद्भुत रम्य है। आज हमने सिंधु और ब्रह्मपुत्र दोनों नाम स्त्रीलिंग बना दिए हैं और ब्रह्मपुत्र को 'ब्रह्मापुत्रा' कहने लगे हैं।

कुछ भी हो, इतने बड़े प्रचंड हिमालय को मानो अपने भुजपाश में लेने के लिए भारतमाता ने सिंधु और ब्रह्मपुत्र, ये अपने दो बाहु लंबे फैलाकर सिर एकमेक कर जोड़ दिए हैं। उनके इस भव्य काव्य का चिंतन करते मानवीय मन करीब-करीब समाधिस्थ हो जाता है। सिंधु और ब्रह्मपुत्र -ये प्रौढ़ कन्यकाएं हिमालय का चक्कर काटती हैं। इसके विपरीत उनकी दो अल्हड़ लड़कियां कहती हैं, "हम आदर-वादर कुछ नहीं जानतीं। हमें हिमालय के उस पार का जल लेकर हिंदुस्तान में प्रवेश करना है। पिताजी को हमें राह देनी ही पड़ेगी।"

छोटी और लाडली लड़कियां हमेशा शरीर (ऊधम मचाने वाली) ही होती हैं। उन्होंने अपना सीधा मार्ग ढूढ़ निकालकर, वृद्ध हिमालय को बिल्कुल आर-पार छेदकर, दक्षिण की तरफ आने का निश्चय किया। अपत्य-वत्सल हिमालय करता भी क्या? उनकी बात मान गया और दबकर उसने लड़कियों को राह दे दी। सतलज और घाघरा ही हैं वे दो लड़कियां। इनका उद्गम भी मानस-सरोवर और रावण हृद के परिसर में ही होता है। घाघरा को ही 'रामायण' में सरयू कहा गया है। इसका उद्गम भी उसके नाम के अनुसार सम्भवत: किन्ही सरोवरों में से ही हुआ है।

मैंने हिमालय क्षेत्र का सारा प्रदेश किसी न किसी समय आंखभर देख लिया है। हिमालय के वाक्य में अबट्टाबाद और कश्मीर-श्रीनगर से लेकर ठेठ उत्तर-पूर्व की तरफ सदिया और परशुराम कुंड तक का सारा प्रदेश मैंने अपनी आंखों से देख लिया है। जहां मेरे पैर या आंखें पहुंच नहीं पाईं, वहां कल्पना की मदद से विहंगावलोकन किया है और अब तो इस काम में फोटोग्राफी की उत्कृष्ट सहायता होती रहती है। इस प्रदेश में असंख्य नदियां वक्र गतियों से बहती रहती हैं। जगह न मिले या बहुत संकरी हो, तो वह कुछ ऐसी चिढ़ जाती हैं कि उनका वह हुलिया देखकर दिल में प्रेम ही उमड़ आता है!

समतल भूमि पर आहिस्ता, बिल्कुल शांति से बहने वाली नदियां हिंदुस्तान में असंख्य हैं। उनकी शोभा अलग प्रकार की है। उनका दर्शन करने के लिए हमें किसान की दृष्टि धारण करनी चाहिए और जरूरत के मुताबिक छोटी-बड़ी नहरें निकालने का पुरुषार्थ भी करना चाहिए; लेकिन हिमालयीन नदियों की बात अलग है। उनके किनारे पहुंचकर उनके पवित्र जल का आचमन करने के लिए भी 200-400 फुट नीचे उतरना पड़ता है। फिर, कहां की खेती और कहां की नहरें!

कोई ऐसा न मान बैठे कि सिंधु और ब्रह्मपुत्र, गंगा और यमुना, सरयू और सतलज के नाम लेने पर हिमालय की मुख्य नदियां पूरी हुईं। बिहार की पुरानी और नई दो नदियों-गंडक और तूफानी कोसी - इनका नाम भी आदर के साथ ही लेना पड़ता है, लेकिन मेरी अत्यंत प्रिय नदी है तीस्ता। यह नदी सिक्किम की तरफ के कांचन-जोंगा या पंचहिमाकर पर्वत के हिम-प्रपात से बनती है और दक्षिण की तरफ बहते-बहते ब्रह्मपुत्र में आ मिलती है। इसमें आकर मिलने वाली रंगपो और रंगीत आदि अनेक नदियों के संगम मैंने देखे हैं।

नदियों का संगम यानी दो भिन्न रंगों का विलास। यह बात मानो निश्चित ही हो गई है। दो नदियों का जल एकमेक से मिल जाने से पहले बहुत समय तक खेल करता रहता है। गंगा-यमुना के मिलनोत्सव का वर्णन कालिदास ने इतना लंबा-चौड़ा किया है कि हमें महसूस होने लगता है कि मानो हम एक नदी में ही तैर रहे हों।

गंगा के बारे में भारतीयों की भक्ति ध्यान में रखकर हम उसे भारतमाता कहते हैं, लेकिन वास्तव में वह भारतीयों के पुरुषार्थ से बनी हुई भारतकन्या है। गंगा, यानी भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी आदि अनेक प्रवाहों के अनेक संगम। हरेक संगम को 'प्रयाग' कहा जाता है। ऐसी गंगा का जब यमुना के साथ संगम होता है, तब उस स्थान को हमारे पुरखाओं ने प्रयागराज का गौरवपूर्ण नाम दिया है।

हमारी नदियां- यानी हमारा पौराणिक इतिहास और इतिहास-कालीन पुरुषार्थ। हिमालय की तमसा का नाम लेते ही विश्वमित्र का स्मरण होगा ही। यमुना कहते ही वृंदावन-विहारी श्रीकृष्ण और कुरुक्षेत्र पर गीतागायक जगद्गुरु उभय विभूतियों का स्मरण होना अपरिहार्य है। 

सरयू, यानी प्रभु रामचंद्र की करुण कथा। सप्तसिंधु के किनारे वैदिक आर्यो ने महान पुरुषार्थ किए। युद्ध और यज्ञ उनके पुरुषार्थ की दो धाराएं थीं और गंगा तो भागीरथ से लेकर ठेठ कबीर तक भारतीय संस्कृति के सब प्रतिनिधियों की प्रवृत्तियों का प्रवाह। बिलकुल दूर उत्तर-पूर्व ईशान में लोहित ब्रह्मपुत्र के उद्गम के पास जाने पर वहां परशुराम का कुंड देखने को मिलता है। 

जब इक्कीस बार ब्राह्मण-क्षत्रियों का आत्मघातक झगड़ा चला, पर थक जाने के बाद इस स्थान पर परशुराम के हाथ से उसकी कुल्हाड़ी छूट गई और उसको शांति मिली। गीता का उपदेश सुनानेवाली यमुना के किनारे शांति का वही पाठ गांधीजी के बलिदान के रूप में आज हमें सुनाई देता है।

हिमालय के हिमधवल शिखरों ने शांति का जो सूचन किया, उसे ही ऋषि-मुनियों ने हिमालय के अपने आश्रमों में बैठकर किए हुए चिंतन में विकसित किया और उसी निर्वैरता के, अहिंसा के संदेश को अनेक युद्धों के अंत में भारतीयों ने अपने विषादपूर्ण अंत:करणों में अनुभव किया। हिमालय की सब नदियां इस विविध शांति की साक्षी हैं और हमें अपना इतिहास सिद्ध शांति-गीत अखंड रूप से सुना रही हैं।

जन्माष्टमी विशेष: घर- घर जन्मेंगे नन्द गोपाल



यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥


गीता की इस अवधारण द्वारा भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब जब धर्म का नाश होता है तब तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और अधर्म का नाश करके धर्म कि स्थापना करता हूँ| अत: जब असुर एवं राक्षसी प्रवृतियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं| भगवान विष्णु इन समस्त अवतारों में से एक महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा| भगवान स्वयं जिस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे उस पवित्र तिथि को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं| भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का यह उत्सव हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है| भगवान विष्णु के अवतार रूप में श्रीकृष्ण जी का अवतरण भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि कोरोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था| इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 9 अगस्त 2012 को स्मार्तों का व्रत है और 10 अगस्त 2012 को वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा मनाया जाएगा| 

जन्माष्टमी पूजन विधि-

जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर महिलाएं, पुरूष व बच्चे उपवास रखते हैं और श्री कृष्ण का भजन-कीर्तन करते हैं। इस पावन पर्व में कृष्ण मन्दिरों व घरों को सुन्‍दर ढंग से सजाया जाता है। उत्‍तर प्रदेश के मथुरा-वृन्‍दावन के मन्दिरों में इस अवसर पर कई तरह के रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं। कृष्‍ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम का स्‍मरण करने के लिए रास लीला का भी आयोजन किया जाता है। इस त्‍यौहार को 'कृष्‍णाष्‍टमी' अथवा 'गोकुलाष्‍टमी' के नाम से भी जाना जाता है।

श्री कृष्ण का जन्म रात्रि 12 बजे हुआ था इसलिए बाल कृष्‍ण की मूर्ति को आधी रात के समय दूध, दही, धी, जल से स्‍नान कराया जाता है। इसके बाद शिशु कृष्ण का श्रृंगार कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है और उन्हें भोग लगाया जाता है। जो लोग उपवास रखते हैं वह इसी भोग को ग्रहण कर अपना उपवास पूरा करते हैं।

जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।

जन्माष्टमी की कथा-

एक बार इंद्र ने नारद जी से कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए। इंद्र की बातों को सुनकर देवर्षि ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।

नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।

ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णन कीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी ने उनके विलाप का कारण पूछा| तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।

देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।

तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।

कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।

इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।

प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।

उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।

जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।

कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा ही होगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।

कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।

हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।

अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।

अब कालियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।

तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया। इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र! कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे। 

श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।

हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, सुदर्शन चक्र को लेकर गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।

जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।

गोविंदा आला रे...

पूरे उत्‍तर भारत में इस त्‍यौहार के उत्‍सव के दौरान भजन गाए जाते हैं नृत्‍य किया जाता है। मथुरा व महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान मिट्टी की मटकियों जिन्हें लोगों की पहुंच से दूर उचाई पर बांधा जाता है, इनसे दही व मक्‍खन चुराने की कोशिश की जाती है। इन वस्‍तुओं से भरा एक मटका अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्‍तत: इसे फोड़ते हैं। इसके पीछे आशय यह है कि लोगों का मानना है कि भगवान श्री कृष्ण इसे ही अपने मित्रों के साथ दही और मक्खन की मटकियों को फोड़ते थे और दही, मक्खन चुरा कर खाते थे। यह उत्सव करीब सप्ताह तक चलता है।

रक्षाबंधन: भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक

क्षाबंधन हिन्दुओं का सबसे प्रमुख त्यौहार है| श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई बहन के प्यार का प्रतीक है| इस दिन सभी बहने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और भाई की लम्बी उम्र की कामना करती हैं| भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है| इस वर्ष यह त्यौहार 2 अगस्त दिन गुरूवार को मनाया जायेगा| 

रक्षा बंधन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक होकर चारों ओर अपनी छटा को बिखेरता सा प्रतीत होता है| सात्विक एवं पवित्रता का सौंदर्य लिए यह त्यौहार सभी जन के हृदय को अपनी खुशबू से महकाता है| इतना पवित्र पर्व यदि शुभ मुहूर्त में किया जाए तो इसकी शुभता और भी अधिक बढ़ जाती है|

रक्षाबंधन का मुहूर्त-

धर्म ग्रंथों में सभी त्यौहार को मनाने के लिए कुछ विशेष समय का निर्धारण किया गया है जिन्हें शुभ मुहूर्त समय कहा जाता है, इन शुभ समय पर मनाए जाने पर अनिष्ट का भाव नहीं रहता है| रक्षाबंधन का शुभ मुहूर्त भी शास्त्रों में निहित है, शास्त्रों के अनुसार भद्रा समय में श्रावणी और फाल्गुणी दोनों ही नक्षत्र समय अवधि में राखी नहीं बांधनी चाहिए क्योंकि इस समय राखी बांधना मना है| यह माना जाता है कि इस नक्षत्र में राखी बांधने से अहित होता है| इसलिए राखी शुभ मुहूर्त में ही बांधनी चहिये-

इस वर्ष पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 1 अगस्त 2012 को सुबह 10 बजकर 59 मिनट से हो जाएगा| परन्तु सुबह 10 बजकर 59 मिनट से से रात्रि 9 बजकर 59 तक भद्राकाल रहेगा| इसलिए यह त्यौहार इसदिन न मनाकर अगले दिन 2 अगस्त को मनाया जाएगा| 2 अगस्त के दिन पूर्णिमा तिथि सुबह 8 बजकर 58 तक रहेगी| इसलिए इस दौरान राखी बांधना शुभ रहेगा| 

किस तरह से बांधें राखी-

रक्षासूत्र के लिए उचित मुहूर्त की चाह हर किसी को होती है| इस त्यौहार की ख़ास बात यह है कि राखी के साथ कुमकुम, हल्दी, चावल, दीपक, अगरबती, मिठाई का उपयोग किया जाता है| कुमकुम, हल्दी और चावल से पहले भाई को टीका करें उसके बाद उसकी आरती फिर भाई की दाहिनी कलाई रक्षासूत्र बांधें| राखी बांधते समय बहनें निम्न मंत्र का उच्चारण करें, इससे भाईयों की आयु में वृ्द्धि होती है. “येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: | तेन त्वांमनुबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल ||”

इस दिन व्यक्ति को चाहिए कि उसे उस दिन प्रात: काल में स्नान आदि कार्यों से निवृ्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए| इसके बाद अपने इष्ट देव की पूजा करने के बाद राखी की भी पूजा करें साथ ही पितृरों को याद करें व अपने बडों का आशिर्वाद ग्रहण करें|

पौराणिक प्रसंग-

भाई बहन का यह पावन पर्व आज से ही नहीं बल्कि युगों-युगों से चलता चला आ रहा है भविष्य पुराण में भी इसका व्याख्यान किया गया है| एक बार दानवों और देवताओं में युद्ध शुरू हुआ| दानव देवताओं पर भारी पड़ने लगे तब इन्द्र घबराकर वृहस्पतिदेव के पास गए| वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। 

इसके अलावा स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राम्हण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश,पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है। 

कहा जाता है कि जब बलि रसातल चला गया तो उसने अपने तप से भगवान को रात- दिन अपने पास रहने का वचन ले लिया| भगवान विष्णु के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को देवर्षि नारद ने एक उपाय सुझाया| नारद के उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी राजा बलि के पास गई और उन्हें राखी बांधकर अपना भाई बना लिया| उसके बाद अपने पति भगवान विष्णु और बलि को अपने साथ लेकर वापस स्वर्ग लोक चली गईं| उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से आन मिली।

पौराणिक युग के साथ साथ एतिहासिक युग में भी यह त्यौहार काफी प्रचलित था कहते हैं कि राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तब महिलाएं उनके मस्तक पर कुमकुम का टीका लगाती थी और हाथ में रेशम का धागा बांधती थी| महिलाओं को यह विश्वास होता था कि उनके पति विजयी होकर लौटेंगे|

मेवाड़ की महारानी कर्मवती के राज्य पर जब बहादुर शाह जफ़र द्वारा हमला की सूचना मिली तब रानी ने अपनी कमजोरी को देखते हुए मुग़ल शासक हुमायूँ को राखी भेजी। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए रानी कर्मवती और उसके राज्य की रक्षा की। कहते है सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया। इस तरह से तमाम येसे प्रसंग हैं जो भ्रात्र स्नेह से जुड़े हुए हैं|

कहाँ किस नाम से जाना जाता है यह त्यौहार-

रक्षाबंधन का यह त्यौहार अलग- अलग राज्यों में अलग- अलग नामों से जाना जाता है| उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।

इसके अलावा महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से जाना जाता है| इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। वहीँ, अगर राजस्थान की बात करें तो रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और केवल भगवान को बांधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है। 
जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट(पूजास्थल) बनाकर मंत्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनाई जाती है। राखी में कच्चे दूध से अभिमंत्रित करते हैं और इसके बाद भोजन का प्रावधान है।

तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्णण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। 

विनीत वर्मा की एक रिपोर्ट-