चाहती हैं आकर्षक व पतली कमर तो करें यह उपाय

आज कल अपनी व्यस्त दिनचर्या के कारण आम आदमी के पास व्यायाम करने का वक्त नहीं होता है| यही वजह है कि उसका मोटापा दिन प्रतिदिन बढता जाता है| अकसर लोग वजन कम करने में लगे रहते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं वजन कम करने से भी ज्यादा जरूरी होता है, आपका कमर और पेट को कम करना। आपको पता है कि आप अपने वजन को तो कम कर सकते हैं लेकिन जो सबसे बड़ी समस्या है वह है कमर और पेट की चर्बी को हटाना| 

आपको बता दें कि कुछ लोग मोटे नहीं होते लेकिन उनके पेट के आसपास काफी चर्बी जमा हो जाती है जिससे वे काफी परेशान रहते हैं| खासकर लड़कियां कमर और पेट के आसपास जमी चर्बी के कारण टाइट फिटिंग के कपड़े नहीं पहन पातीं, यदि वे ऐसा करती भी हैं तो ये लुक उनकी पर्सनैलिटी को सूट नहीं करता। आज आपको कुछ ऐसे टिप्स बताने जा रहे हैं जिसे आप अपने पेट और कमर की बढ़ी हुई चर्बी को कम कर सकते हैं| 

अपनी कमर और पेट की बढ़ी हुई चर्बी को कम करने के लिए आपको रोजाना सुबह सैर करनी चाहिए इसके आलावा खाने के बाद तुरंत बिस्तर पर न जा करके थोड़ी देर जरुर टहलें| क्योंकि टहलने से आपकी अतिरिक्त कैलोरी कम हो सकती है| इसके अलावा यदि आप जंकफूड खूब खाते हैं या फिर आपको तैलीय खाना बहुत पसंद है तो आपको चाहिए आप ऐसे खाने से बिल्कुल परहेज करें। सामान्य आटे के बजाय जौ और चने के आटे को मिलाकर चपाती खांए, इससे आप जल्द ही स्लिम ट्रि‍म होंगे।

यदि आप चाय पीने के बहुत शौकीन हैं तो आप दूध की चाय पीने के बजाय एंटीऑक्सीडेंट भरपूर ग्रीन टी, लेमन टी या फिर ब्लैक टी लें। दरअसल, दूध की चाय पीने से आपके मोटापा बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा आपको चाहिए कि आप रोजाना सुबह पानी के साथ शहद का सेवन करें। इससे आप जल्द ही कमर और पेट को कम करेंगे। 

आपको चाहिए कि आप सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास जरूर करें। आप चाहे तो सप्ताह में एक दिन तरल पदार्थों पर भी रह सकते हैं। इसमें आप पानी, नींबू पानी, दूध, जूस, सूप इत्यादि चीजों को प्राथमिकता देंगे। इसके अलावा कमर और पेट कम करने के लिए आपको नियमित रूप से सुबह उठकर योग करना चाहिए, ऐसे में आपको कुछ ऐसे आसनों को शामिल करना होगा जिनसे आपके पेट और कमर को कम करने में मदद मिलें। वैसे भी आप योग से निरोग रह सकते है, आपको रोजाना सूर्य नमस्कार की सभी क्रियाएं, सर्वांगासन, भुजंगासन, वज्रासन, पदमासन, शलभासन इत्यादि को करना चाहिए।

पहाड़ों की वादियों का रोमांचक सफ़र


पूरे साल के काम, पढ़ाई, भाग दौड़ के बाद हर इन्सान गर्मियों की छुट्टियों का इंतजार करता है। मन इस भाग-दौड़ से दूर कहीं सुकून की जिंदगी तलाशता है। अपने परिवार के साथ गर्मी के तपिश से दूर ठंडी-ठंडी जगहों पर आनंद लेने का मन भला किसका नहीं करता होगा। अगर आप भी ऐसा ही कुछ सोच रहें हैं तो हिमालय की विभिन्न पर्वत श्रृंखलाओं में एक के बाद एक अनेक ऐसे स्थल मौजूद हैं, जहां से लौटने का भी मन नहीं होता। एक स्थान देखिए दूसरे की ओर बढ़ जाइए। जहां आपको प्रकृति का एक और नया रूप नजर आएगा। इन अद्भुत नजारों से किसी का मन नहीं भरता। 

कुल्लू 

कुल्लू घाटी में पर्वतीय स्थलों की इस लंबी श्रृंखला की शुरुआत वैसे कश्मीर की मनोरम घाटियों से होती है। कश्मीर की खूबसूरती के बाद कुल्लू घाटी एवं मनाली का प्राकृतिक सौंदर्य के मामले में पहला स्थान है। कुल्लू घाटी को तो देवताओं की घाटी ही कहा जाता है। ब्यास नदी के दोनों ओर बसा कुल्लू शहर घाटी के मध्य स्थित है। कुल्लू के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में सुल्तानपुर पैलेस, रघुनाथ मंदिर, बिजली महादेव मंदिर, जगन्नाथी देवी, बशेश्वर महादेव मंदिर कैसधर, रायसन और देव टिब्बा प्रमुख नाम हैं। इन स्थानों पर देवदार के जंगल स्थित हैं और बर्फीले झीलों से ट्रैकिंग के द्वारा पहुँचा जा सकता है। कुल्लू आकर यात्रियों को ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क में वन्य जीवन की एक विस्तृत विविधता को देखने का मौका मिलता है जो पशुओं के 180 से अधिक प्रजातियों का घर है।

कुल्लू ट्रैकिंग, पर्वतारोहण, लंबी पैदल यात्रा, पैराग्लाइडिंग, और रिवर राफ्टिंग जैसी विभिन्न साहसिक खेलों के लिए भी जाना जाता है। लोकप्रिय ट्रैकिंग ट्रेल्स लद्दाख घाटी, जांस्कर घाटी, लाहौल और स्पीति हैं। साहसिक खेल पैराग्लाइडिंग के लिए कुल्लू भारत में प्रसिद्ध है। यहाँ आदर्श लांच साइटें सोलंग, महादेव, और बीर हैं।

कैसे पहुँचे 
कुल्लू वायुमार्ग, रेलवे, और सड़क मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है। यहां से निकटतम हवाई बेस भुटार हवाई अड्डा है, जो लोकप्रिय रूप में कुल्लू मनाली हवाई अड्डे के जाना जाता है। कुल्लू शहर से सिर्फ 10 किमी दूर पर स्थित हवाई अड्डा दिल्ली, शिमला, चंडीगढ़, पठानकोट, धर्मशाला और जैसे प्रमुख भारतीय शहरों के साथ जुड़ा हुआ है। यहां से निकटतम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा दिल्ली है जो अन्य देशों के पर्यटकों को गंतव्य से जोड़ता है। कुल्लू के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन जोगिंदर नगर रेलवे स्टेशन, शहर से 125 किलोमीटर दूर स्थित है। रेलवे स्टेशन वाया चंडीगढ़ अन्य स्थानों के साथ जुड़ा हुआ है। सड़क मार्ग से स्टेट परिवहन निगम की बसें पास के स्थानों के कुल्लू से जोड़ती हैं जबकि हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम चंडीगढ़, शिमला, दिल्ली और पठानकोट से कुल्लू के लिए कई डीलक्स बसें चलाता है। गर्मी के एक आदर्श गंतव्य के रूप में कुल्लू का मौसम हमेशा सुखद रहता है। 

मन लुभावन शिमला 

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला समुद्र तल से 2215 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है आजादी से पूर्व यह शहर अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। शिमला की बात ही निराली है खूबसूरत वादियों के साथ ऐतिहासिक इमारतों का का ताल-मेल वाकई जबर्दस्त है। शिमला में पहुँचने की आसानी और अनेक आकर्षक स्थलों के कारण शिमला भारत का सबसे प्रसिद्ध हिल स्टेशन है। हिमालय पर्वत की निचली श्रृंखलाओं में अवस्थित शिमला शहर देवदार, चीड़ और माजू के जंगलों से घिरा है। इसके उत्तर में बर्फ़ से ढकी पर्वत श्रृंखलाएँ है। यहाँ घाटी का सुंदर दृश्‍य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वत की चोटियाँ चारों ओर दिखाई देती है। 12 किलोमीटर की दूरी में फैले शिमला शहर में पहाड़ी ढलानों पर बने मकानों और खेतों, देवदार, चीड़ और माजू के जंगलों से घिरा शिमला बहुत आकर्षक दिखाई देता है। कालका से धीमी रफ्तार से चलती छोटी रेलगाड़ी से यहाँ आना सुखद महसूस होता है। शिमला की घाटियों में बहते झरने और मैदान शिमला की शोभा बढ़ाते हैं। शहर के भीतर अनूठे कॉटेज और शानदार रास्तों में औपनिवेशिक प्रभाव देखा जा सकता है। शिमला में ख़रीदारी, खेलकूद और मनोरंजन के विभिन्न विकल्प मौजूद हैं। यहाँ ठण्‍डी हवाएँ बहती रहती है। शिमला का सुखद मौसम, आसानी से पहुँच और ढेरों आकर्षण इसे उत्तर भारत का एक सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय स्‍थान बना देते हैं।

कैसे पहुँचे 

दिल्ली और चंडीगढ़ से शिमला के लिए नियमित बसें चलती हैं। रेलमार्ग से दिल्ली से कालका तक पहुंचा जा सकता है। कालका से आठ घंटे का सफर तय कर शिमला पहुचा जा सकता है। शिमला-कालका के मध्य टॉय ट्रेन द्वारा पहाड़ी मार्ग तय करने का अपना अलग आनंद है। कालका देश के अनेक शहरों से रेलमार्ग से जुड़ा है। शिमला वैसे हवाई मार्ग द्वारा भी जुड़ा है। इसके अलावा चंडीगढ़ भी यहां से निकटतम हवाई अड्डा है।

शोर शराबे से दूर नाहन 

खरीदारी करना, छोटे-छोटे होटलों में रुकना, ऊँची नीची ढ़लानों से होकर अपना सफ़र तय करना, कभी थकना, कभी बैठना ये तो हर यात्रा का अंग होता है। इन सब के बाद मन होता है कि कोई ऐसी जगह हो जहाँ सुकून से बैठने का दिल करे, तो हम आपको बतातें हैं, ऐसी जगह है नाहन। चंडीगढ़ से 90 किलोमीटर दूर शिवालिक पहाड़ियों में समुद्र तल से 933 मीटर ऊंचाई पर 1621 में बसा शहर नाहन। यहां के मंदिर, बाग एवं यहां का रानीताल दर्शनीय स्थान है। सीधे नाहन पहुंचना हो तो अंबाला होकर आसानी से पहुंच सकते हैं। वहां से यह 64 किमी दूर है नाहन। नाहन से 45 किमी की दूरी पर रेणुका झील है। अप्रतिम सौंदर्य वाली यह झील पर्यटकों को जैसे सम्मोहित ही कर लेती है। इसी क्षेत्र में रेणुका अभ्यारण्य भी देखने योग्य स्थल है। दूसरी ओर पोंटा साहिब भी लगभग 45 किमी दूर है। सिक्खों के इस पवित्र स्थल का संबंध दशम गुरु गोविंद सिंह जी के जीवन से रहा है। पोंटा से अगर चाहें तो पर्यटक देहरादून होकर वापस लौट सकते हैं अथवा उत्तरांचल के पर्वतीय स्थलों की सैर कर सकते हैं। 

कैसे पहुँचे 

नाहन के लिए अंबाला एवं चंडीगढ़ से बस सेवा उपलब्ध है तथा पोंटा के लिए देहरादून से भी बस या टैक्सी द्वारा जा सकते हैं।

पर्वतों की रानी मसूरी

प्रकृति की गोद में सुकून का पल देने वाली मसूरी देहरादून से 35 किमी की दूरी पर स्थित है। मसूरी का सौंदर्य सैलानियों को इस कदर प्रभावित करता है कि इसे पर्वतों की रानी भी कहा जाता है। मसूरी के बारे में कहा जाता है कि यहां पुराने डाक बंगले और प्राचीन मंदिर बहुसंख्‍या में हैं। गढ़वाल पर्वत श्रृंखला पर समुद्र तल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मसूरी हनीमून कपल्‍स के लिए वाकई किसी स्‍वर्ग से कम नहीं। यहां से दूर तक फैले पर्वतीय दृश्य नजर आते हैं। रोपवे द्वारा गनहिल पर पहुंचकर दूरबीन के जरिये अनेक हिमाच्छादित शिखर देखे जा सकते हैं। इनके अलावा लाल टिब्बा, हैप्पी वैली, म्युनिसिपल गार्डन देखने योग्य अन्य स्थान हैं। करीब 11 किमी दूर केंप्टी फॉल भी यहां का खास आकर्षण है। यहां के हरे-भरे वनों की खूबसूरती को परखना हो तो आप धनोल्टी पहुंच सकते हैं। मसूरी से अगर आप ऋषिकेश पहुंच जाएं तो आपके पास अनेक विकल्प हो सकते हैं। दरअसल ऋषिकेश उत्तरांचल के चार धामों का प्रवेश द्वार है। यहां से तीर्थ यात्रा बसों द्वारा या टैक्सी करके आप बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री की यात्रा कर सकते हैं। जिसके लिए लगभग एक सप्ताह का समय होना चाहिए। ध्यान रहे इसमें यमुनोत्री एवं केदारनाथ में 13-14 किमी की पैदल यात्रा भी शामिल है। ऋषिकेश अपने आपमें एक धार्मिक नगरी है। यहां लक्ष्मण झूला, शिवानंद झूला, स्वर्गाश्रम, परमार्थ निकेतन आदि अनेक स्थल दर्शनीय हैं।

कैसे पहुँचे 

देहरादून और देश के अन्‍य हिस्‍सों से मसूरी के लिए कई निजी बसें और सरकारी बसें चलती हैं। पर्यटक, नई दिल्‍ली और नैनीताल जैसे नजदीकी स्‍थानों से प्राइवेट डीलक्‍स बस की सुविधा का लाभ भी उठा सकते हैं। मसूरी का सबसे नजदीकी रेलवे स्‍टेशन देहरादून रेलवे स्‍टेशन है जो मात्र 60 किमी. की दूरी पर स्थित है। यह रेलवे जंक्‍शन, भारत के कई हिस्‍सों से भली प्रकार से जुड़ा हुआ है। पर्यटक देहरादून रेलवे स्‍टेशन से मसूरी के लिए टैक्‍सी किराए पर ले सकते हैं। आप हवाई यात्रा की सुविधा का भी इस्तेमाल कर सकतें हैं। देहरादून का जॉली ग्रांट हवाई अड्डा, मसूरी से लगभग 60 किमी. की दूरी पर स्थित सबसे नजदीकी एयरबेस है। यह एयरपोर्ट, दिल्‍ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे से अच्‍छी तरह जुडा हुआ है। पर्यटक, एयरपोर्ट से गंतव्‍य स्‍थल तक पहुंचने के लिए टैक्‍सी हॉयर कर सकते हैं।

चार धाम यात्रा : त्याग, तपस्या और भक्ति का अनूठा संगम


श्रद्धालुओं के लिए हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुरूपदृश्य प्रस्तुत करता है। इसका उल्लेख पौराणिक कथाओं में भी मिलता है| कपिलस्थान, गंगाद्वार और मायापुरी के नाम से भी किया गया है| हरिद्वार उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा के लिए प्रवेश द्वार है| इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते है। हर यानी शिव और हरि यानी विष्णु।


उत्तराखंड की चार धाम यात्रा की उत्‍पत्ति के संबंध में कोई निश्चित मान्‍यता या साक्ष्‍य उपलब्‍ध नहीं है। लेकिन चार धाम भारत के चार धार्मिक स्‍थलों का एक परिधि है। इस पवित्र परिधि के अंतर्गत भारत के चार दिशाओं के महत्‍वपूर्ण मंदिर आते हैं। ये मंदिरें हैं-पुरी रामेश्वरम, द्वारका और बद्री नाथ इन मंदिरों को 8वीं शदी में आदि शंकराचार्य ने एक सूत्र में पिरोया था। इन चारों मंदिरों में से किसको परम स्‍थान दिया जाए इस बात का निर्णय करना संभव नहीं है। लेकिन इन सब में बद्रीनाथ सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण और अधिक तीर्थयात्रियों द्वारा दर्शन करने वाला मंदिर है।



इसके अलावा हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम मंदिरों में भी बद्रीनाथ ज्‍यादा महत्‍व वाला और लोकप्रिय है। इस छोटे चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ (शिव मंदिर), यमुनोत्री एवं गंगोत्री (देवी मंदिर) शमिल हैं। यह चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। बीसवीं शताब्दी के मध्‍य में हिमालय की गोद में बसे इन चारों तीर्थस्‍थलों को छोटा' विशेषण दिया गया जो आज भी यहां बसे इन देवस्‍थानों को परिभाषित करते हैं। चार धाम के यात्रा की यह डगर कहीं आसान तो कहीं बहुत कठिन है लेकिन इस यात्रा के बाद मनुष्य को जो आनद की अनुभूति होती है वो सारे थकान को दूर कर देती है । 



भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ हिंदुओं के सबसे पवित्र स्‍थान हैं। धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो पुण्‍यात्‍मा यहां का दर्शन करने में सफल होते हैं उनका न केवल इस जन्म का पाप धुल जाता है वरन वे जीवन-मरण के बंधन से भी मुक्‍त हो जाते हैं। इस स्‍थान के संबंध में यह भी कहा जाता है कि यह वही स्‍थल है जहां पृथ्‍वी और स्‍वर्ग एकाकार होते हैं। तीर्थयात्री इस यात्रा के दौरान सबसे पहले यमुनोत्री (यमुना) और गंगोत्री (गंगा) का दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारेश्‍वर पर जलाभिषेक करते हैं। इन तीर्थयात्रियों के लिए परंपरागत मार्ग इस प्रकार है-



हरिद्वार - ऋषिकेश- देव प्रयाग - टिहरी - धरासु -युमुनोत्री- उत्तरकाशी- गंगोत्री - त्रियुगनारायण - गौरिकुंड -केदारनाथ 



यह मार्ग परंपरागत हिंदू धर्म में होने वाले पवित्र परिक्रमा के समान है। जबकि केदारनाथ जाने के लिए दूसरा मार्ग ऋषिकेश से होते हुए देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, अगस्‍तमुनी, गुप्‍तकाशी और गौरिकुंड से होकर जाता है। केदारनाथ के समीप ही मंदाकिनी का उद्गम स्‍थल है। मंदाकिनी नदी रूद्रप्रयाग में अलकनंदा नदी में जाकर मिलती है।



यमुनोत्री 



बंदरपूंछ के पश्चिमी छोर पर पवित्र यमुनोत्री का मंदिर स्थित है। परंपरागत रूप से यमुनोत्री चार धाम यात्रा का पहला पड़ाव है। हनुमान चट्टी से 13 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद यमुनोत्री पहुंचा जा सकता है। यहां पर स्थित यमुना मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं शताब्दी में करवाया था। यह मंदिर (3,291 मी.) बांदरपूंछ चोटि (6,315 मी.) के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना सूर्य की बेटी थी और यम उनका बेटा था। यही वजह है कि यम अपने बहन यमुना में श्रद्धापूर्वक स्‍नान किए हुए लोगों के साथ सख्‍ती नहीं बरतता है। यमुना का उदगम स्‍थल यमुनोत्री से लगभग एक किलोमीटर दूर 4,421 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री ग्‍लेशियर है।


यमुनोत्री मंदिर के समीप कई गर्म पानी के सोते हैं जो विभिन्‍न पूलों से होकर गुजरती हैं। इनमें से सूर्य कुंड प्रसिद्ध है। कहा जाता है अपनी बेटी को आर्शीवाद देने के लिए भगवान सूर्य ने गर्म जलधारा का रूप धारण किया। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं, जिससे यह पक जाता है। तीर्थयात्री पके हुए इन पदार्थों को प्रसादस्‍वरूप घर ले जाते हैं। सूर्य कुंड के नजदीक ही एक शिला है जिसको 'दिव्‍य शिला' के नाम से जाना जाता है। तीर्थयात्री यमुना जी की पूजा करने से पहले इस दिव्‍य शिला का पूजन करते हैं।



इसके नजदीक ही 'जमुना बाई कुंड' है, जिसका निर्माण आज से कोई सौ साल पहले हुई थी। इस कुंड का पानी हल्‍का गर्म होता है जिसमें पूजा के पहले पवित्र स्‍नान किया जाता है। यमुनोत्री के पुजारी और पंडा पूजा करने के लिए गांव खरसाला से आते हैं जो जानकी बाई चट्टी के पास है। यमुनोत्री मंदिर नवंबर से मई तक खराब मौसम की वजह से बंद रहता है। मंदिर के खुलने का समय: मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलता है और यामा द्वितीया या भाई दूज या दीवाली के दो दिन बाद (नवंबर) को बंद होता है। मंदिर सु‍बह 6 बजे से लेकर शाम 8 बजे तक खुला रहता है। आरती सु‍बह में 6:30 बजे और शाम में 7:30 बजे होती है। साथ ही जन्माष्टमी और दिवाली के अवसर पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। 



गंगोत्री 



समुद्र तल से 9,980 फीट की ऊँचाई पर स्थित चार धाम यात्रा का दूसरा पड़ाव गंगोत्री। गंगोत्री से ही भागीरथी नदी निकलती है। गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्‍यात्मिक रूप से महत्‍वपूर्ण नदी गंगा का उद्गगम स्‍थल भी है। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी रखा गया। कथाओं में यह भी कहा गया है कि राजा भागीरथ ने ही तपस्‍या करके गंगा को पृथ्‍वी पर लाए थे। गंगा नदी गोमुख से निकलती है। ऐसा माना जाता है कि 18वीं शदी में गोरखा कैप्‍टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्‍मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्‍थरों से निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग 20 फीट है। मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने 1935 में इस मंदिर का पुनरुद्धार किया। फलस्‍वरूप मंदिर की बनावट में राजस्‍थानी शैली की झलक मिल जाती है। मंदिर के समीप 'भागीरथ शिला' है जिसपर बैठकर उन्‍होंने गंगा को पृथ्‍वी पर लाने के लिए कठोर तपस्‍या की थी। इस मंदिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्‍वती, अन्‍नपुर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।


हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्‍ड दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्‍नान आदि के लिए जाते हैं। तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्‍वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है। मंदिर का समय: सुबह 6.15 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 9.30 तक (गर्मियों में)। सुबह 6.45 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 7 बजे तक (सर्दियों में)।



केदारनाथ





केदारनाथ समुद्र तल से 11,746 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदाकिनी नदी के उद्गगम स्‍थल के समीप है। यमुनोत्री से केदारनाथ के ज्‍योतिर्लिंग पर जलाभिषेक को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। वायुपुराण के अनुसार भगवान विष्‍णु मानव जाति की भलाई के लिए पृथ्वि पर निवास करने आए। उन्‍होंने बद्रीनाथ में अपना पहला कदम रखा। इस जगह पर पहले भगवान शिव का निवास था। लेकिन उन्‍होंने नारायण के लिए इस स्‍थान का त्‍याग कर दिया और केदारनाथ में निवास करने लगे। इसलिए पंच केदार यात्रा में केदारनाथ को अहम स्‍थान प्राप्‍त है। साथ ही केदारनाथ त्‍याग की भावना को भी दर्शाता है।


यह वही जगह है जहां आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्‍होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल(मुख्‍य पुरोहित) नियुक्‍त किया था। वर्तमान में केदारनाथ मंदिर 337वें नंबर के रावल द्वारा उखीमठ, जहां जाड़ों में भगवान शिव को ले जाया जाता है, से संचालित हो रहा है। इसके अलावा गुप्‍तकाशी के आसपास निवास करनेवाले पंडित भी इस मंदिर के काम-काज को देखते हैं। प्रशासन के दृष्टिकोण इस स्‍थान को इन पंडितों के मध्‍य विभिन्‍न भागों में बांट दिया गया है। ताकि किसी प्रकार की परेशानी पैदा न हो।



केदारखण्ड में द्वादश (बारह) ज्योतिर्लिंग में आने वाले केदारनाथ दर्शन के सम्बन्ध में लिखा है कि जो कोई व्यक्ति बिना केदारनाथ भगवान का दर्शन किये यदि बद्रीनाथ क्षेत्र की यात्रा करता है, तो उसकी यात्रा निष्फल अर्थात व्यर्थ हो जाती है-



अकृत्वा दर्शनं वैश्वय केदारस्याघनाशिन:।
यो गच्छेद् बदरीं तस्य यात्रा निष्फलतां व्रजेत्।।



श्री केदारनाथ जी का मन्दिर पर्वतराज हिमालय की 'केदार' नामक चोटी पर अवस्थित है। इस चोटी की पूर्व दिशा में कल-कल करती उछलती अलकनंदा नदी के परम पावन तट पर भगवान बद्री विशाल का पवित्र देवालय स्थित है तथा पश्चिम में पुण्य सलिला मन्दाकिनी नदी के किनारे भगवान श्री केदारनाथ विराजमान हैं। अलकनन्दा और मंदाकिनी उन दोनों नदियों का पवित्र संगम रूद्र प्रयाग में होता है और वहाँ से ये एक धारा बनकर पुन: देवप्रयाग में ‘भागीरथी-गंगा ’ से संगम करती हैं। देवप्रयाग में गंगा उत्तराखण्ड के पवित्र तीर्थ 'गंगोत्री' से निकलकर आती है। देवप्रयाग के बाद अलकनन्दा और मंदाकिनी का अस्तित्त्व विलीन होकर गंगा में समाहित हो जाता है तथा वहीं गंगा प्रथम बार हरिद्वार की समतल धरती पर उतरती हैं। भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्री क्षेत्र में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। इसी आशय को शिव पुराण के कोटि रुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है-



तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते।
जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।।
दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च।
केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।



शिव पुराण में दिए गए कथा के अनुशार भगवान विष्णु के नर और नारायण नामक दो अवतार हुए हैं। नर और नारायण इन दोनों ने पवित्र हिमालय के बदरिकाश्रम में बड़ी तपस्या की थी। उन्होंने पार्थिव (मिट्टी) का शिवलिंग बनाकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उसमें विराजने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की। पार्थिव लिंग में शिव के विद्यमान होने पर दोनों (नर व नारायण) ने शास्त्र-विधि से उनकी पूजा-अर्चना की। प्रतिदिन निरन्तर शिव का पार्थिव-पूजन करना और उनके ही ध्यान में मग्न रहना उन तपस्वियों की संयमित दिनचर्या थी। बहुत दिनों के बाद उनकी आराधना से सन्तुष्ट परमेश्वर शंकर भगवान ने कहा कि मैं तुम दोनों पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम लोग मुझसे वर माँगो। भगवान शंकर की बात सुनकर प्रसन्न नर और नारायण ने जनकल्याण की भावना से कहा- 'देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं, तो आप अपने स्वरूप से पूजा स्वीकार करने हेतु सर्वदा के लिए यहीं स्थित हो जाइए।'



जगत का कल्याण करने वाले भगवन शंकर उन दोनों तपस्वी-बन्धुओं के अनुरोध को स्वीकारते हुए हिमालय के केदारतीर्थ में ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गये। उन दोनों अनन्य भक्तों से पूजित हो सम्पूर्ण भय और दु:ख का नाश करने हेतु तथा अपने भक्तों को दर्शन देने की इच्छा से केदारेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव वहाँ सदा ही विद्यमान रहते हैं। भगवान केदारनाथ दर्शन-पूजन करने वाले को सुख-शान्ति प्रदान करते हैं। नर-नारायण की तपस्या के आधार पर विराजने वाले केदारेश्वर की जिसने भी भक्तिभाव से पूजा की, उसे स्वप्न में भी दु:ख और कष्ट के दर्शन नहीं हुए। शिव का प्रिय भक्त केदारलिंग के समीप शिव का स्वरूप अंकित कड़ा चढ़ाता है, वह उस वलय से सुशोभित भगवान शिव का दर्शन करके इस भवसागर से पार हो जाता है अर्थात वह जीवनमुक्त हो जाता है।



केदारनाथ मंदिर न केवल आध्‍यात्‍म के दृष्टिकोण से वरन स्‍थापत्‍य कला में भी अन्‍य मंदिरों से भिन्‍न है। यह मंदिर कात्‍युरी शैली में बना हुआ है। यह पहाड़ी के चोटि पर स्थित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्‍थरों का प्रयोग बहुतायत में किया गया है। इसका छत लकड़ी का बना हुआ है जिसके शिखर पर सोने का कलश रखा हुआ है। मंदिर के बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी का विशालकाय मूर्ति बना हुआ है।



केदारनाथ मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है - पहला, गर्भगृह। दूसरा, दर्शन मंडप, यह वह स्‍थान है जहां पर दर्शानार्थी एक बड़े से हॉल में खड़ा होकर पूजा करते हैं। तीसरा, सभा मण्‍डप, इस जगह पर सभी तीर्थयात्री जमा होते हैं। तीर्थयात्री यहां भगवान शिव के अलावा ऋद्धि सिद्धि के साथ भगवान गणेश, पार्वती, विष्‍णु और लक्ष्‍मी, कृष्‍ण, कुंति, द्रौपदि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की पूजा अर्चना भी की जाती है।



मंदिर खुलने का समय : केदारनाथ जी का मन्दिर आम दर्शनार्थियों के लिए प्रात: 7:00 बजे खुलता है। दोपहर एक से दो बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। पुन: शाम 5 बजे जनता के दर्शन हेतु मन्दिर खोला जाता है।



बद्रीनाथ 



बद्रीनाथ नर और नारायण पर्वतों के मध्‍य स्थित है, जो समुद्र तल से 10,276 फीट (3,133मी.) की ऊंचाई पर स्थित है। अलकनंदा नदी इस मंदिर की खूबसुरती में चार चांद लगाती है। ऐसी मान्‍यता है कि भगवान विष्‍णु इस स्‍थान ध्‍यनमग्‍न रहते हैं। नारद जो इन दोनों का अनन्‍य भक्‍त हैं उनकी आराधना भी यहां की जाती है। कालांतर में जो मंदिर बना हुआ है उसका निर्माण आज से ठीक दो शताब्‍दी पहले गढ़वाल राजा के द्वारा किया गया था। यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग 15 मीटर है। जिसके शिखर पर गुंबद है। इस मंदिर में 15 मूर्तियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में विष्‍णु के साथ नर और नारायण ध्‍यान की स्थिति में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था जिसका पुनरूद्धार बाद में आदि शंकराचार्य ने 8वीं शदी में किया। इस मंदिर में नर और नारायण के अलावा लक्ष्‍मी, शिव-पार्व‍ती, और गणेश की मूर्ति भी है।



भू-स्‍खलन के कारण यह मंदिर अक्‍सर क्षतिग्रस्‍त हो जाता है। इस वजह से इसका आधुनिकीकरण भी बार-बार किया गया है। लेकिन सिंह द्वार जो इस मंदिर का मुख्‍य द्वार भी है, इसके बन जाने के बाद इसकी खूबसूरती में चार चांद लग गया है। इस मंदिर के तीन भाग हैं- गर्भगृह, दर्शन मंडप (पूजा करने का स्‍थान) और सभा गृह (जहां श्रद्धालु एकत्रित होते हैं)। वेदों और ग्रंथों में वद्रीनाथ के संबंध में कहा गया है कि, 'स्‍वर्ग और पृथ्‍वी पर अनेक पवित्र स्‍थान हैं, लेकिन बद्रीनाथ इन सबों में सर्वोपरि है।'



बद्रीनाथ नाम पड़ने की कथा 



जब भगवान विष्णु योग ध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत ही ज्यादा हिम पात होने लगा। भगवान विष्णु बर्फ में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का ह्रदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर(बद्री) के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगी। भगवान विष्णु को धूप वर्षा और हिम से बचाने लगी। कई वर्षों बाद जब भगवान् विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि माता लक्ष्मी बर्फ से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा की हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा। और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बद्रीनाथ पड़ा। जहाँ भगवान बद्री ने तप किया तह वो ही जगह आज तप्त कुण्ड के नाम से जानी जाती है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।


बद्रीनाथ में तथा इसके समीप अन्य दर्शनीय स्थल हैं-



अलकनंदा के तट पर स्थित गर्म कुंड- तप्त कुंड
धार्मिक अनुष्टानों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक समतल चबूतरा- ब्रह्म कपाल
पौराणिक कथाओं में उल्लिखित सांप(साँपों का जोड़ा)
शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड – शेषनेत्र
चरणपादुका- जिसके बारे में कहा जाता है कि यह भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं;(यहीं भगवान विष्णु ने बालरूप में अवतरण किया था। )
बद्रीनाथ से नज़र आने वाला बर्फ़ से ढंका ऊँचा शिखर नीलकंठ, जो 'गढ़वाल क्वीन' के नाम से जाना जाता है।
माता मूर्ति मंदिर:- जिन्हें बद्रीनाथ भगवान जी की माता के रूप में पूजा जाता है।
माणा गाँव: इसे भारत का अंतिम गाँव भी कहा जाता है।
वेद व्यास गुफा,गणेश गुफा: यहीं वेदों और उपनिषदों का व्याख्यान और लेखन हुआ था।
भीम पुल: भीम ने सरस्वती नदी को पार करने हेतु एक भरी चट्टान को नदी के ऊपर रखा था जिसे भीम पुल के नाम से जाना जाता है।
वसु धारा: यहाँ अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी। ये जगह माणा से ८ किलोमीटर दूर है। कहते हैं की जिसके ऊपर इसकी बूंदे पड़ जाती हैं उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वो पापी नहीं होता है।
लक्ष्मी वन: ये वन लक्ष्मी माता के वन के नाम से प्रसिद्ध है।
सतोपंथ(स्वर्गारोहिणी): इसी जगह से राजा युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग को प्रस्थान किये थे।
अलकापुरी: अलकनंदा न उद्गम स्थान। इसे धन के देवता कुबेर का भी निवास स्थान माना जाता है।
सरस्वती नदी: पूरे भारत में सिर्फ माणा गाँव में ही ये नदी प्रकट रूप में है।
भगवान विष्णु के तप से उनकी जंघा से एक अप्सरा उत्पन्न हुई जो उर्वशी नाम से विख्यात हुई। बद्रीनाथ कसबे के समीप ही बामणी गाँव में उनका मंदिर है।
एक विचित्र सी बात है... जब भी आप बद्रीनाथ जी के दर्शन करें तो उस पर्वत(नारायण पर्वत) की चोटी की और देखेंगे तो पाएंगे की मंदिर के ऊपर पर्वत की चोटी शेषनाग के रूप में व्यवष्ठिथ है। शेष नाग के प्राकर्तिक फन साफ़ साफ़ देखे जा सकते हैं।



आने जाने की व्यवस्था 





इन चार धामों की यात्रा की शुरुआत प्रमुख रुप से तीर्थ नगरी हरिद्वार से गंगा स्नान के साथ होती है। यहां से चार धामों की यात्रा का दायरा लगभग 15000 किलोमीटर है। सरकारी नियमों के अनुसार चार धाम की यात्रा दस दिन, तीन धाम की यात्रा आठ दिन, दो धाम की यात्रा छ: दिन और एक धाम की यात्रा एक दिन में पूरी हो जाना चाहिए। हालांकि वर्तमान में टिहरी बांध के निर्माण के बाद से यमुनोत्री और गंगोत्री धाम की दूरी लगभग 20 से 25 किलोमीटर ज्यादा हुई है। किंतु पूर्व की तुलना में यमुनोत्री तक पहुंचने का सड़क मार्ग अब लगभग 10 किलोमीटर कम हो गया है। पहले जहां बस या निजी वाहन हनुमान चट्टी तक ही पहुंच पाते थे, किंतु सड़क निर्माण के बाद यह जानकी चट्टी तक चले जाते हैं। जिससे अब यात्रा में अब लगभग चार या पांच किलोमीटर ही पैदल चलना होता है, जो पूर्व मे लगभग 15 किलोमीटर तक पैदल मार्ग था। इसके कारण चार धाम की यात्रा में भी एक या दो दिन की बचत हो जाती है। गंगोत्री तक भी सड़क मार्ग बना है। केदारनाथ की यात्रा की शुरुआत गौरीकुंड से होती है। यह यात्रा लगभग 15 से 20 किलोमीटर की पैदल यात्रा है। बद्रीनाथ धाम की यात्रा तुलनात्मक रुप से सुविधाजनक है। प्रशासनिक स्तर पर चार धाम यात्रा में तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए हर स्तर पर चाक-चौबंद व्यवस्था की जाती है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए भी आपातकालीन सुरक्षा इंतजाम किए जाते हैं। यात्रियों को सभी मूलभूत सुविधाएं जैसे आवागमन, वाहन व्यवस्था, रहने, ठहरने, खान-पान, जल, चिकित्सा, नित्यकर्मों के लिए सुलभ स्थानों की पूरी व्यवस्था सरकार और स्थानीय धार्मिक सेवा संस्थाओं की ओर से की जाती है। विशेषकर महिलाओं, बच्चों और बुजूर्गों की सुविधा का विशेष ध्यान रखा जाता है। अधिक मास के कारण इस वर्ष यह तीर्थ यात्रा घटकर पांच माहों की रह गई है। चार धाम यात्रा के लिए हरिद्वार पहुंचने के लिए भारत के सभी प्रमुख शहरों से रेल, सड़क, वायु मार्ग से आवागमन के साधन उपलब्ध है।


वैसे चार धाम यात्रा पर आने के लिए दिल्ली से हरिद्वार और ऋषिकेश तक ही ट्रेन सुविधा उपलब्ध है। यदि आप कुमाऊं की ओर से चार धाम यात्रा पर आना चाहते हैं, तो काठगोदाम से सीधे हरिद्वार-ऋषिकेश तक ट्रेन से पहुँच सकतें हैं। टैक्सी की सुविधा हर छोटे-बडे़ कस्बे में उपलब्ध है। हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, गोपेश्वर, जोशीमठ, टिहरी, उत्तरकाशी समेत तमाम अन्य स्थानों से आसानी से टैक्सी मिल जाती है। उत्तराखंड परिवहन निगम की सीमित बस सेवा यात्रा रूट पर उपलब्ध हैं। अगर आप चाहें तो चौपर की भी सुविधा प्राप्त कर सकतें हैं। 



चार धाम यात्रा के लिए कुछ दिशा निर्देश 



1: यात्रा पर आने से पूर्व अपना पूर्ण स्वास्थ्य परीक्षण करा ले, साथ ही चिकित्सक द्वारा लिखी गई दवा पर्ची व दवाईयां पर्याप्त मात्रा में रखे। राज्य के भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए गर्म कपड़े भी साथ में रखे। पर्वतीय और ऊंचाई वाला क्षेत्र होने के कारण हृदयरोग, स्वांस रोग, मधुमेह एवं अन्य हाई एल्टीटयूड संबंधी रोग के रोगी अधिक सावधानी बरतें। धूम्रपान व मादक पदार्थों का सेवन न करें। चारधाम यात्रा के दौरान यदि यात्रियों में कुछ विशेष लक्षण उत्पन्न हो, तो तत्काल चारधाम यात्रा मार्ग में उपलब्ध चिकित्सा सेवाओं का लाभ प्राप्त करें। किसी भी प्रकार की आकस्मिकता होने पर 108 व 100 नम्बर पर सम्पर्क करें। लक्षणों में सांस फूलना, छाती में दर्द होना, दिल की धड़कन तेज होना, बेहोशी व चक्कर आना, मितली, उल्टी आना, सिरदर्द व घबराहट का होना तथा हाथ पांव व होंठों का नीला पड़ना शामिल है।



2 : यदि आप एटीएम के भरोसे चारधाम को आ रहे हैं तो सचेत हो जाएं। यहां एटीएम मशीनें कभी भी धोखा दे सकती हैं। आए दिन एटीएम में तकनीकी खराबी और नकदी खत्म होने से उपभोक्ताओं को बैरंग लौटना पड़ता है। खाते से धनराशि कटने के बावजूद एटीएम के धन न उगलने की शिकायत भी आम होती जा रही है।


रावण वध के पाप से मुक्ति के लिए भगवान राम ने यहाँ किया था यज्ञ

गुजरात की राजधानी अहमदाबाद से करीब 100 किमी की दूरी पर एक ऐसा प्राचीन मंदिर जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने लंकापति रावण के वध के पाप से मुक्ति के पाने के लिए यज्ञ किया था, क्या आपको पता है यदि नहीं तो आज हम आपको उस प्राचीन मंदिर के बारे में बताते हैं| आपको बता दें अहमदाबाद से 100 किमी की दूरी पर मोढेरा में बहुत ही खूबसूरत प्राचीन सूर्य मन्दिर है। इस मन्दिर को 11वीं सदी में राजा भीमदेव सोलंकी ने बनवाया था। 

यह सूर्य मंदिर पशुपवती नदी के तट पर स्थित है| इस मंदिर की ख़ास बात यह है कि इस मंदिर की पवित्रता और भव्यता का वर्णन स्कन्द और ब्रम्ह पुराण में भी देखने को मिलता है| आपको बता दें कि मोढेरा का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। मोढ़ लोग मोढेश्वरी माँ के आनुयाई है जो अंबे माँ के अठारह हाथ वाले स्वरूप की उपासना करते हैं। इस तरह मोढेरा मोढ़ वैश्य व मोढ़ ब्राह्मण की मातृभूमि है। इस स्थान पर बहुत से देवी-देवताओं के चरण पड़े हैं। मान्यता है कि इस स्थान पर ही यमराज (धर्मराज) ने 1000 साल तक तपस्या की थी जिनका तप देखकर इंद्र को अपने आसन का खतरा महसूस हुआ, लेकिन यमराज ने कहा कि वे तो शिव को प्रसन्न करने के लिए तप कर रहे हैं। शिव ने प्रसन्न होकर यमराज से कहा कि आज से इस स्थान का नाम तुम्हारे नाम यमराज (धर्मराज) पर धर्मारण्य होगा। 

स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार भगवान राम भी इस स्थान पर आए थे। मान्यता अनुसार जब भगवान राम इस नगर में यज्ञ करने हेतु आए थे तब एक स्थानीय महिला रो रही थी। सभी ने रोने का कारण जानना चाहा, लेकिन महिला ने कहा कि मैं सिर्फ प्रभु श्रीराम को ही कारण बताऊँगी।

राम को जब यह पता चला तो उन्होंने उस महिला से कारण जानना चाहा। महिला ने बताया कि इस स्थान से यहाँ के मूल निवासी वैश्य, ब्राह्मण आदि पलायन करके चले गए हैं उन्हें वापस लाने का उपाय करें। तब श्रीराम ने इस नगर को पुनः बसाया व सभी पलायन किए हुए लोगों को वापस बुलाया और नगर की रक्षा का भार हनुमानजी को दिया। लेकिन धर्मारण्य की खुशियाँ ज्यादा दिनों तक न रह सकी। कान्यकुब्ज राजा कनोज अमराज ने यहाँ की जनता पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। धर्मारण्य की जनता ने राजा को समझाया कि हनुमानजी इस नगरी के रक्षक है आप उनके प्रकोप से डरें, लेकिन राज ने जनता की बात न मनी। राजा से त्रस्त होकर फिर कुछ लोग कठिन यात्रा कर रामेश्वर पहुँचे। जहाँ हनुमानजी से अनुरोध किया और धर्मारण्य कि रक्षा करने का प्रभु श्रीराम का वचन याद दिलाया। हनुमानजी ने वचन की रक्षा करते हुए राजा को सबक सिखाया और नगर की रक्षा की।

मोढेरा सूर्य मंदिर निर्माण-

यहां के राजा सोलंकी सूर्यवंशी माने जाते थे, जिस कारण उन्होंने यहां पर इस विशाल सूर्य मंदिर की स्थापना की थी सूर्य भगवान इनके कुलदेवता के रूप में पूजे जाते थे यह राजा इस मंदिर में वह अपने आद्य देवता की आराधना किया करते थे| यह मंदिर भारत के प्रमुख सूर्य मंदिरों की श्रेणी में आता है| मोढेरा का यह सूर्य मंदिर शिल्पकला का अदभुत उदाहरण प्रस्तुत करता है इस संपूर्ण मंदिर के निर्माण में अनेक महत्वपूर्ण बातों को देखा जा सकता है| 

एक तो इस मंदिर के निर्माण में ईरानी शैली का उपयोग देखा जा सकता है, और दूसरा यह कि राजा भीमदेव ने इस मंदिर को दो हिस्सों में बनवाया था जिसके प्रथम भाग में गर्भगृह तथा द्वितीय भाग में सभामंडप है, मन्दिर का गर्भग्रह काफी बडा है| मंदिर के सभामंडप में 52 स्तंभ हैं जिन पर उत्कृष्ट कारीगरी की गई है इन स्तंभों पर देवी-देवताओं के चित्रों, रामायण, महाभारत के प्रसंगों को उकेरा गया है| इस मन्दिर का स्थापत्य बहुत ही उत्तम है मंदिर का निर्माण इस प्रकार से किया गया है कि सूर्योदय होने पर सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करती है इस मंदिर में विशाल कुंड स्थित है जिसे सूर्यकुंड तथा रामकुंड कहा जाता है| 

संवत् 1356 में गुजरात के अंतिम राजपूत राजा करण देव वाघेला के अलाउदीन खिलजी से हारने के बाद मुगलों ने गुजरात पर कब्जा कर लिया। अलाउदीन खिलजी ने मोढेरा पर भी आक्रमण किया परन्तु यहाँ के उच्च वर्ग के लोग लड़ाई में भी पारंगत थे तो उन्होंने अलाउदिन खिलजी का डट के मुकाबला किया। लेकिन खिलजी के एक षड़यंत्र में वे फँस गए और मोढेरा पर खिलजी ने कब्जा कर नगर व सूर्य मंदिर को क्षति पहुँचाई।

वर्तमान धर्मारण्य (मोढेरा) में मातंगि के विशाल मन्दिर के अलावा कुछ नहीं है यहाँ के मूल निवासी अपना यह मूल स्थान छोड़ कर दूर बस गए हैं। मंदिर जीर्णोद्धार का कार्य माँ के भक्तों के सहयोग से प्रगति पर है। गुजरात के विकास के साथ ही यहाँ की सड़कों का भी विकास हुआ है जिस कारण यहाँ पहुँचना अब सुगम हो गया है।

धर्मराज-चित्रगुप्त के इस मंदिर में चढ़ता है कागज, कलम व दवात




कहते हैं कि विधाता ने जिसके भाग्य में जो लिख दिया उसे न तो कोई मिटा सकता है ना ही बदल सकता है, लेकिन उज्जैन में एक ऐसा मंदिर जिसमें चढ़ावा चढ़ाने मात्र से ही भक्तों के भाग्य बदल जाते है| इस मंदिर की ख़ास बात यह है कि यहाँ प्रसाद व फल-फूल या जल नहीं चढ़ाया जाता है| अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इस मंदिर में क्या चढ़ाया जाता है| तो आपको बता दे कि यहाँ प्रसाद व जल नहीं बल्कि कागज़, कलम और दवात चढ़ाई जाती है| यह सुनकर आपको आश्चर्य जरुर हो रहा होगा लेकिन यह सच है| आपको बता दें कि यह स्थान मध्य प्रदेश में महाकाल की नगरी उज्जैन में है, जहां भगवान चित्रगुप्त और धर्मराज एक साथ मिलकर अपने भक्तों की मनोकामनाओं को पूरा करते हैं|

उज्जैन नगरी के यमुना तलाई के किनारे एक मंदिर में चित्रगुप्त एवं धर्मराज एक साथ विराजमान हैं। इस मंदिर की यह मान्यता है कि यहाँ कागज़, कलम और दवात चढाने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं| यही वजह है कि इस मंदिर में जो भी श्रद्धालु दर्शनों के लिए आता है तो उसके हाथ में फल, फूल, माला व मिठाई न होकर कागज़, कलम व दवात होती है|

इस मंदिर में विराजमान भगवान चित्रगुप्त और धर्मराज के बारे में अलग- अलग कथाएं प्रचलित हैं| चित्रगुप्त के बारे में यह मान्यता है कि इनकी उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा जी के हजारों साल के तप से हुई है। बात उस समय की है जब महाप्रलय के बाद सृष्टि की उत्पत्ति होने पर धर्मराज ने ब्रह्मा से कहा कि इतनी बड़ी सृष्टि का भार मैं संभाल नहीं सकता।

ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए कई हजार वर्षो तक तपस्या की और उसके फलस्वरूप ब्रह्मा जी के सामने एक हाथ में पुस्तक तथा दूसरे हाथ में कलम लिए दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। जिनका नाम ब्रह्मा जी ने चित्रगुप्त रखा।

ब्रह्मा जी ने चित्रगुप्त से कहा कि आपकी उत्पत्ति मनुष्य कल्याण और मनुष्य के कर्मो का लेखा जोखा रखने के लिए हुई है अत: मृत्युलोक के प्राणियों के कर्मो का लेखा जोखा रखने और पाप-पुण्य का निर्णय करने के लिए आपको बहुत शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए आप महाकाल की नगरी उज्जैन में जाकर तपस्या करें और मानव कल्याण के लिए शक्तियां अर्जित करे।

कहा जाता है कि ब्रह्मा जी के आदेश पर चित्रगुप्त ने उज्जैन में हजारों साल तक तपस्या कर मानव कल्याण के लिए सिद्घियां एव शक्तियां प्राप्त की।

वहीँ, धर्मराज के बारे में एक कथा है किधर्मराज भैया दूज पर बहन यमुना से राखी बंधवाने के लिए मृत्युलोक आये थे| उसके बाद वह वापस न जाकर यहीं विराजमान हो गए| यह भी कहा जाता है कि धर्मराज के राखी बंधवाने के बाद से ही भैयादूज मनाया जाने लगा | आज भी यहाँ चित्रगुप्त और धर्मराज मंदिर के सामने यमुना सागर स्थित है| यमुना सागर के बारे में कहा जाता है कि इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है|

इसी तालाब का पानी पीकर राजा सूरजसेन को मिला था जीवनदान

मध्य प्रदेश का एक प्रमुख शहर है ग्वालियर| ग्वालियर अपने पुरातन ऎतिहासिक संबंधों, दर्शनीय स्थलों और एक बड़े सांस्कृतिक, औद्योगिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में जाना जाता है। इसीलिए यहाँ हर वर्ष यहाँ देश- विदेश से हज़ारों की संख्या में पर्यटक आते हैं| इस शहर को उसका नाम उस ऐतिहासिक पत्थरों से बने क़िले के कारण दिया जाता है, जो एक अलग-थलग, सपाट शिखर वाली 3 किलोमीटर लंबी तथा 90 मीटर ऊँची पहाड़ी पर बना है। लेकिन क्या आप जानते है इस शहर का नाम ग्वालियर कैसे पड़ा?

जनश्रुति के अनुसार, आठवीं शताब्दी में एक राजा हुए सूरजसेन| एक दिन राजा जंगल में रास्ता भटक गए तो उन्हें जोरों की प्यास लगी| पानी की तलाश में राजा सूरजसेन इधर-धरा भटक रहे थे कि अचानक उनकी भेंट एक संत से हो गई जिसका नाम था ग्वालिपा| सूरजसेन उस संत से मिलकर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने संत से कहा कि महत्मन मैं बहुत प्यासा हूँ| इस पपर संत राजा को एक तालाब के पास ले गया| तालाब का पानी पीकर राजा सूरजसेन ने अपनी प्यास बुझाई| उस तालाब का पानी पीकर कुष्ठ रोग से पीड़ित राजा को जीवनदान मिल गया| जिस तालाब में पानी पीने से राजा को जीवनदान मिला उसी तालाब को आज सूरजकुंड के नाम से जाना जाता है|

जीवनदान मिलने के बाद जब राजा ने उस संत को कुछ देने के लिए कहा तो संत ने कहा महाराज जंगल में इस पहाड़ी पर साधना कर रहे कई साधुओं के यज्ञ में जंगली जानवर विघ्न पैदा करते हैं, इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए पहाड़ी पर एक दीवार बनवा दो। इसके बाद सूरज सेन ने किले के अंदर एक महल बनवाया, जिसका नाम संत गालिप से प्रभावित होकर उनके नाम पर ग्वालियर रखा। 

यह शहर सदियों से राजपूतों की प्राचीन राजधानी रहा है, चाहे वे प्रतिहार रहे हों या कछवाहा या तोमर। इस शहर में इनके द्वारा छोडे ग़ये प्राचीन चिह्न स्मारकों, क़िलों, महलों के रूप में मिल जाएंगे। सहेज कर रखे गए अतीत के भव्य स्मृति चिह्नों ने इस शहर को पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बनाता है। यह नगर सामंती रियासत ग्वालियर का केंद्र था। जिस पर 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मराठों के सिंधिया वंश का शासन था। रणोजी सिंधिया द्वारा 1745 में इस वंश की बुनियाद रखी गई और महादजी (1761-94) के शासनकाल में यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा।

यहाँ टीले से आती है घंटियों की आवाज़!

आपने वाद्य यंत्रों से निकलता संगीत तो बहुत सुना होगा लेकिन क्या कभी पत्थरो से संगीत निकलता सुना है? शायद नहीं! लेकिन ये सच है दुनिया का सबसे अद्भुत करिश्मा हो रहा है छत्तीसगढ़ के बस्तर में जहाँ पत्थरों से निकलती है घंटियों की आवाज| यह सुनकर हर कोई अचरज में पड़ जाता है इसके पीछे क्या वजह है कोई नहीं जानता लेकिन श्रद्धालु इसे मां दंतेश्वरी का आशीर्वाद मानते हैं| इसके अलावा यहाँ एक ऐसा तालाब है जो कभी सूखता ही नहीं| माना जाता है कि यहाँ बहुत बड़ा खजाना है जिसकी रक्षा नाग- नागिन का जोड़ा करता है|

तो आइये जाने इस टीले और तालाब का क्या है रहस्य, बताते हैं कि एक बार बस्तर के राजा प्रवीर चंद भंजदेव की नानी श्याम कुमारी देवी अपने महाराज से रुष्ट हो गई और उन्होंने अपने महारज समेत अपने राजपाट का परित्याग कर दिया| उसके बाद चंद सैनिकों को लेकर रानी श्याम कुमारी देवी इसी गाँव में आकर बस गई| उनके आने से ही इस गाँव का नाम शामपुर पड़ गया| यहाँ आकर रानी श्याम कुमारी ने अपने कुलगुरु भैरम देव की स्थापना की जो आज एक टीले के रूप में हो गया है| 

एक दिन मां दंतेश्वरी ने रानी श्याम कुमारी देवी के सपनों में आकर उन्हें दर्शन दिया| मां दंतेश्वरी के दर्शन पाकर रानी बहुत खुश हुई| पेयजल की व्यवस्था के लिए रानी ने अपने सैनिकों को एक तालाब खोदने का आदेश दिया और सैनकों ने एक ही रात में इस पहाड़ पर एक तालाब खोद डाला| बताते हैं कि तब से लेकर आज तक इस तालाब में कभी पानी की कमी नहीं हुई हमेशा भरा रहता है| इसके पीछे मां दंतेश्वरी का आशीर्वाद बताया जा रहा है| 

यहाँ के एक पुजारी ने बताया है कि पिछले 60-70 वर्षो से उनके पूर्वज इस मंदिर में पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। पुजारी ने बताया कि जब यहाँ रानी श्याम कुमारी जब रूठकर आईं थी तो अपने साथ कुछ सैनिकों को ले आईं थी जो जब कहीं दूर जाते तो पत्थरो को टक्कर मारती तो उससे उत्पन होती ध्वनि जो घंटियों के समान बजती है। सैनिक इसे सुनकर वापस लौट आते थे। 

रानी श्याम कुमारी देवी के सपने में आकर मां ने उन्हें राजमहल लौट जाने की सलाह दी लेकिन वह दोबारा राजमहल लौट कर नहीं गई| आज भी मंदिर के पास पत्थरों में मां दंतेश्वरी के पदचिन्ह साफ देखे जा सकते हैं। एक बार की बात है कि यहाँ कुछ ग्रामीण तालाब की खुदाई करने लगे तो अचानक तालाब से खजाना निकलने लगा| कहते हैं कि यहाँ महारानी द्वारा लाया गया खजाना भी दबा है। जिसकी रक्षा नाग-नागिन का एक जोड़ा करता है जो अक्सर लोगों को तालाब के आस-पास दिखता है| कहते हैं कि इस तालाब में स्नान करके भैरमदेव की पूजा-अर्चना करने के पश्चात यदि कोई मनुष्य 11 बार इस पत्थर को बजाता है तो उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं|

यहाँ आज भी मौजूद हैं श्रीराम के पदचिह्न्!

छत्तीसगढ़ भगवान श्रीराम का ननिहाल माना जाता है। अपने वनवास के दौरान कुछ समय उन्होंने यहां बिताए थे। श्रीराम की माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर भी यही मौजूद हैं। 

अविभाजित रायपुर जिले के कसडोल विकासखंड अंतर्गत गिधौरी के विश्राम वट में भगवान श्रीराम ने अपने 14 वर्ष के वनवास के दौरान आकर विश्राम किया था। यहां उनके पदचिह्न् आज भी मौजूद हैं जिसकी पूजा की जाती है। माघ पूर्णिमा के दिन यहां बड़ी संख्या में लोग आते हैं और इसके बाद ही शिवरीनारायण के मंदिर का दर्शन करने जाते हैं। 

भगवान श्रीराम अपने वनवास के दौरान रतनपुर के राम टेकरी के बाद शिवरीनारायण आए थे। वहां सौरिन दाई के जूठे बेर खाए थे। उसी स्थान पर प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के अवसर पर 15 दिनों का मेला लगता है। 

श्रीराम शिवरीनारायण से महानदी पार कर गिधौरी के महानदी वटवृक्ष के पास विश्राम किया जाता है। इसे विश्राम वट के नाम से जाना जाता है। यहां पर भगवान श्रीराम का पदचिह्न् हैं, जिसकी पूजा की जाती है। पहले विश्राम वट के पास सिर्फ पदचिह्न् था, अब वहां पर एक मंदिर बना दिया गया है।

गिधौरी के सुधीराम वर्मा ने बताया कि यहां श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान न्यास नई दिल्ली से शोधकर्ता डा. राम अवतार शर्मा आए थे, उन्होंने भगवान श्रीराम के वनगमन स्थल की सूची पर शोध किया है। उनकी सूची में इस स्थल का 92 वां स्थान है। 

इस सूची में छत्तीसगढ़ के रतनपुर रामटेकरी को 90, पैसर घाट 91, लक्ष्मणेश्वर 93, शिवरीनारायण 94, सिरपुर 96 नंबर पर है। इसी रास्ते से भगवान श्रीराम रामेश्वरम गए थे। इसका सूची में 232वां स्थान है। राम गमन शोध संस्थान भी इस दिशा में लगातार शोध कर रही हैं।

पर्दाफाश से साभार