भारतीय खेल जगत के पितामह हैं ध्यानचंद
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दुनिया भर में 'हॉकी के जादूगर' के नाम से मशहूर भारत के महान व कालजयी हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद सिंह की आज 108वीं जयंती है। 29 अगस्त 1905 को जन्मे ध्यानचंद को सम्मान देने के लिए भारत में हर वर्ष इस तारीख को 'राष्ट्रीय खेल दिवस' मनाया जाता है| आज के दिन खेल की दुनिया में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के जरिये देश का नाम रौशन करने वाले सभी खिलाड़ियों को राष्ट्रपति भवन में भारत के राष्ट्रपति के द्वारा 'खेल पुरस्कारों' से नवाजा जाता है जिनमें राजीव गांधी खेल-रत्न पुरस्कार, अर्जुन पुरस्कार, द्रोणाचार्य पुरस्कार, ध्यानचंद पुरस्कार, तेनजिंग नोर्गे साहसिक पुरस्कार प्रमुख हैं| इस मौके पर खिलाड़ियों के साथ-साथ उनकी प्रतिभा निखारने वाले कोचों को भी सम्मानित किया जाता है।
मेजर ध्यानचंद सिंह का जीवन परिचय
पूरी दुनिया में अपनी हॉकी का लोहा मनवाने वाले मेजर ध्यानचंद सिंह का जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद में हुआ था| भले ही उनका जन्म इलाहाबाद में हुआ हो लेकिन उन्हें पहचान झांसी से ही मिली। यहां की मिट्टी में खेलकूद कर हॉकी का पाठ पढ़ने वाले ध्यानचंद ताउम्र झांसी में ही रहे। ध्यानचंद को अपने सरकारी सेवा में कार्यरत पिता के झांसी में स्थानांतरण होने के कारण यहां आना पड़ा। यहां रेल की पटरियों के किनारे वे लकड़ी के तिरछे डंडे से बाल को नचाते घूमाते थे। चौदह वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली बार हॉकी स्टिक अपने हाथ में थामी थी|
सोलह वर्ष की आयु में वह आर्मी की पंजाब रेजिमेंट में शामिल हुए| इसके बाद भी हॉकी खेलने की लगन कम नहीं हुई। उनकी लगन देखकर सेना के सूबेदार बाले तिवारी ने ध्यानचंद को हॉकी के खेल में निपुण किया और जल्द ही उन्हें हॉकी के अच्छे खिलाड़ियों का मार्गदर्शन प्राप्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप ध्यानचंद के कॅरियर को उचित दिशा मिलने लगी|
एक बार झांसी में सेना की दो टीमों के बीच हॉकी का मैच चल रहा था, जिसमें ध्यानचंद भी बतौर दर्शक मौजूद थे। एक टीम पांच शून्य से पिछड़ रही थी तब ध्यानचंद ने कहा कि मैं होता तो इस टीम को जिता देता। हारने वाली टीम के कोच ने रिस्क लेते हुए उन्हें अपनी टीम से खिलाया और देखते ही देखते ध्यानचंद ने गोलों की झड़ी लगा दी और जो टीम पहले हार रही थी वह जीत गई। उनके खेल को देखकर टीम के अंग्रेज कोच ने कहा कि तुम तो चांद हो ध्यानचांद। इसके बाद वे ध्यान सिंह से 'ध्यानचंद' बन गए। आर्मी से संबंधित होने के कारण ध्यानचंद को 'मेजर ध्यानचंद' के नाम से पहचान मिली|
फिर तो ध्यानचंद ब्रिटिश के अधीन भारतीय सेना के नियमित सदस्य हो गए। वर्ष 1922 से लेकर 1926 के बीच ध्यानचंद केवल पंजाब रेजिमेंट और आर्मी हॉकी टूर्नामेंट में ही खेलते थे| वह न्यूजीलैंड दौरे पर जाने वाली आर्मी हॉकी टीम का हिस्सा बने| ध्यानचंद के अदभुत कौशल और उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण भारतीय आर्मी हॉकी टीम एक मैच हारने और अठ्ठारह हॉकी मैचों में जीत दर्ज करने के बाद भारत लौटी| भारत वापसी के बाद ध्यानचंद को आर्मी में लांस नायक की उपाधि प्रदान की गई|
'इंडियन हॉकी फेडरेशन' के गठन के बाद इसके सदस्यों ने पूरी कोशिश की कि वर्ष 1928 में एम्सटर्डम में होने वाले ओलंपिक खेलों में अच्छे खिलाड़ियों के दल को भेजा जाए| इसीलिए वर्ष 1925 में उन्होंने एक इंटर-स्टेट हॉकी चैंपियनशिप की शुरुआत की जिसमें पांच राज्यों (संयुक्त प्रांत, बंगाल राजपुताना, पंजाब, केंद्रीय प्रांत) की टीमों ने भाग लिया| ध्यानचंद भी आर्मी हॉकी टीम की ओर से संयुक्त प्रांत की टीम में चयनित हुए|
पहली बार वह आर्मी से बाहर किसी हॉकी मैच का हिस्सा बन रहे थे| हॉकी को पहली बार 1928 में ओलंपिक में जगह दी गई और पहले ही ओलंपिक में ध्यानचंद के खेल ने भारत को विजेता बना दिया। यहीं से उनके अंतर्राष्ट्रीय कॅरियर की शुरुआत हुई| 1932 और 1936 के ओलंपिक में भी यह करिश्मा जारी रहा। उन्होंने लगभग हर मैच में सर्वाधिक गोल करने वाले खिलाड़ी का खिताब जीता| अपने बेजोड़ और अदभुत खेल के कारण उन्होंने लगातार तीन ओलंपिक खेलों, एम्सटर्डम ओलंपिक 1928, लॉस एंजेल्स 1932, बर्लिन ओलंपिक 1936 (कैप्टैंसी) में टीम को तीन स्वर्ण पदक दिलवाए|
लॉस एंजेल्स ओलंपिक खेलों के फाइनल में भारत ने अमेरिका को 24-1 से रौंद दिया था, जो आज भी एक रिकॉर्ड है। इस मैच में ध्यानचंद ने आठ गोल किए जबकि बर्लिन ओलंपिक के फाइनल में भारत ने जर्मनी को 8-1 से करारी शिकस्त दी थी। ध्यानचंद ने सबसे ज्यादा तीन गोल किए थे। हॉकी ही एक ऐसा खेल है, जिसमें भारत ने आठ स्वर्ण सहित ग्यारह पदक जीते हैं।
जर्मनी के खिलाफ भारतीय जीत के बाद जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने जर्मन आर्मी में उच्च अधिकारी बनाने की पेशकश की लेकिन ध्यानचंद ने अपनी सभ्यता और नम्र व्यवहार का परिचय देते हुए इस ओहदे के लिए मना कर दिया| हिटलर ने ही उन्हें 'हॉकी के जादूगर' के खिताब से नवाजा था। एक बार विपक्षी टीम के खिलाड़ियों को शक हुआ कि ध्यानचंद की स्टिक में चुंबक लगी है। उनकी स्टिक तोड़ी गई लेकिन आशंका गलत साबित हुई। बाद में उसी मैच में उन्होंने टूटी स्टिक से जिताऊ गोल दागे।
1936 के बाद ध्यानचंद भारतीय टीम के मैनेजर बन गए| ध्यानचंद ने ओलंपिक खेलों में 101 गोल और अंतर्राष्ट्रीय खेलों में 300 गोल दाग कर एक ऐसा रिकॉर्ड बनाया जिसे आज तक कोई तोड़ नहीं पाया है| एम्सटर्डम हॉकी ओलंपिक मैच में 28 गोल किए गए जिनमें से ग्यारह गोल अकेले ध्यानचंद ने ही किए थे| हॉकी के क्षेत्र में प्रतिष्ठित सेंटर-फॉरवर्ड खिलाड़ी ध्यानचंद ने 42 वर्ष की आयु तक हॉकी खेलने के बाद वर्ष 1948 में हॉकी से संन्यास ग्रहण कर लिया|
इस दौरान उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं अन्य मान्यता प्राप्त हॉकी प्रतियोगिताओं में एक हजार से अधिक गोल किए। उनके गोलों की संख्या देखकर क्रिकेट के भीष्म पितामह डॉन ब्रैडमैन ने कहा था कि यह तो किसी क्रिकेटर के रनों की संख्या मालूम होती है। वर्ष 1956 में मेजर ध्यानचंद सिंह को भारत के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया| कैंसर जैसी लंबी बीमारी को झेलते हुए 3 दिसंबर वर्ष 1979 में मेजर ध्यानचंद का देहांत हो गया|
इनकी मृत्यु के बाद उनके जीवन के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारत की राजधानी दिल्ली में उनके नाम से एक हॉकी स्टेडियम का उद्घाटन किया गया| इसके अलावा भारतीय डाक सेवा ने भी ध्यानचंद के नाम से डाक-टिकट चलाई| इस महान खिलाड़ी के सम्मान में वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है। इसमें उनको चार हाथों में चार स्टिक पकड़े हुए दिखाया गया है। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के कार्यकाल में ध्यानचंद के जन्मदिवस को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया।
मेजर ध्यानचंद ने अपनी जीवनी और महत्वपूर्ण घटना वृतांत को अपने प्रशंसकों के लिए अपनी आत्मकथा गोल में सम्मिलित किए हैं| हॉकी में कॅरियर बनाने वाले युवाओं के लिए उनका जीवन और खेल दोनों ही एक मिसाल हैं| इस दिन युवाओं में खेलों के प्रति रुझान को बढ़ाने के लिए उन्हें प्रेरित भी किया जाता है|
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सपने में दिखे गुलाब तो जानिये क्या होगा आपके साथ
आज हम आपको आपके सपनो की दुनिया में लेकर चलते हैं| आपको बता दें, यदि आप रात में सोते समय सपना देखते हैं और सोचते हैं कि इस सपने का अर्थ क्या है| आज हम आपको सपनों के बारे में कुछ संक्षिप्त जानकारी देते हैं जिससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि आपने जो भी सपना देखा है उस सपने का अर्थ क्या है|
हर सपना कुछ-न कुछ कहता है। कुछ सपने निराशा देते हैं, तो कुछ जीवन में खुशियों की लहर भर देते हैं। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो उसकी पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ उसका मन और उसकी पाँचों कर्मेंद्रियाँ क्रिया शून्य हो जाती हैं और व्यक्ति का मस्तिष्क पूरी तरह शांत रहता है। उस अवस्था में व्यक्ति को एक अलौकिक अनुभव होता है, जो उसके जीवन से संबंधित होता है। उसी अनुभव को स्वप्न कहा जाता है।
प्राय: नींद में सपने सभी देखते हैं। कुछ सपने याद रह जाते हैं, कुछ याद नहीं रहते। जो सपने याद रहते हैं उनके आधार पर हम भविष्य के संबंध में अंदाजा लगा सकते हैं और यदि कोई अशुभ फल वाला स्वप्न हो तो उसका आवश्यक निदान किया जा सकता है।
अगर आप अपने सपने में गुलाब का फूल देख रहे हैं तो स्वप्न ज्योतिष के हिसाब से गुलाब का फूल देखना काफी शुभ माना गया है। आपको बता दें कि अगर आपके सपने में गुलाब दिखाई दे तो निकट भविष्य में ऑफिस में परेशानियां खत्म होंगी और कोई ऊंचा पद मिलने के योग बनेंगे। इसके अलावा घर-परिवार या मित्रों से कोई शुभ समाचार प्राप्त होगा। इतना नहीं व्यापार-व्यवसाय में पुराने नुकसान को पूरा करेंगे और अत्यधिक लाभ प्राप्त करेंगे।
इसके अलावा गर्भवती पत्नी का पति सपने में गुलाब देखे तो उसे पुत्र की प्राप्ति होने के योग बनेंगे| कोई स्त्री या लड़की सपने में गुलाब देखे तो अपने पति या प्रेमी से विवाद या समस्याएं समाप्त हो जाएंगी और प्रेम प्राप्त होगा।
वहीँ अगर विवाहित स्त्री गुलाब देखे तो उसे ससुराल में मान-सम्मान मिलेगा।
सपने में दिखे सुन्दर स्त्री तो समझो...
सपनों का हमारे जीवन काफी गहरा महत्व है। हर सपना कुछ-न कुछ कहता है। कुछ सपने निराशा देते हैं, तो कुछ जीवन में खुशियों की लहर भर देते हैं। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो उसकी पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ उसका मन और उसकी पाँचों कर्मेंद्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाएँ करना बंद कर देती हैं और व्यक्ति का मस्तिष्क पूरी तरह शांत रहता है। उस अवस्था में व्यक्ति को एक अनुभव होता है, जो उसके जीवन से संबंधित होता है। उसी अनुभव को स्वप्न कहा जाता है|
ज्योतिष के अनुसार सपनों में भी भविष्य में होने वाली घटनाओं के राज छिपे होते हैं। आज आपको बताते हैं किया अगर आपके सपने में सुन्दर स्त्री बार- बार दिखाई दे रही हैं तो समझ जाइए कि आपको शुभ फल प्राप्त होने वाला है| इसके अलावा ऐसे व्यक्ति को निकट भविष्य में कई सफलताएं होती हैं। उसके रुके हुए कार्य पूर्ण हो जाते हैं।
अगर आप बीमार हैं और तब आपके सपने में कोई सुन्दर स्त्री दिखे तो समझ जाइए कि आपकी जल्द ही बीमारी दूर होने की संभावना है । परिवार में चल रहे विवाद दूर हो जाएंगे। इसके अलावा यदि कोई कार्य बिगड़ रहा हो तो वह भी सही होने की पूरी संभावना है।
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जन्माष्टमी पर 5057 साल बाद दुर्लभ संयोग
श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पूरे देश में धूमधाम से मनाया जा रहा है| मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव की भव्य झांकियां सजाई गई हैं। जन्माष्टमी को लेकर बाजारों में भी चहल पहल देखी जा रही है| समूचे ब्रज मंडल में आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की धूम मची हुई है। चारों तरफ श्रद्धालुओं में अपने आराध्य के जन्मोत्सव को लेकर मस्ती का माहौल है। खासकर युवाओं में गजब का उत्साह दिख रहा है। यहाँ के मठ और मंदिरों की विशेष सजावट की गई है। घरों में भी विशेष पूजा-अर्चना का आयोजन किया जा रहा है।
ब्रज क्षेत्र योगीराज भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और आस्था के सरोवर में पूरी तरह सराबोर है। यूं तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व देश भर में उत्साह के साथ मनाया जाता है। लेकिन मथुरा नगरी में इसका अलग ही महत्व है। यह भगवान श्रीकृष्ण की जन्म एवं क्रीड़ास्थली है। इस मौके पर मथुरा में देश के विभिन्न प्रांतों के अलावा विदेशों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंच चुके हैं।
ज्योतिष के जानकारों की माने तो इस बार 28 अगस्त को मनाई जाने वाली जन्माष्टमी तिथि राशि और नक्षत्र के अनुसार बहुत ही खास है। आज बाल गोपाल 5239 वर्ष के हो जायेंगे| जानकारों के मुताबिक 5057 साल बाद जन्म अष्टमी पर तिथि, वार, नक्षत्र व ग्रहों के अद्भुत मेल का ऐसा संयोग बना है जो श्रीकृष्ण जन्म के समय द्वापर युग में बना था। इस लिहाज से इस बार की जन्माष्टमी विशेष फलदायी होगी। इससे पहले सन 1932 और 2000 में भी बुधवार के दिन जन्म अष्टमी पड़ी थी। उस समय तिथि और नक्षत्र का मेल नहीं था लेकिन इस बार नक्षत्र, दिन, तिथि, लग्न सभी एक साथ विद्यमान रहेंगे। अष्टमी तिथि सूर्योदय से होने के कारण वैष्णव और शैव संप्रदाय इस पर्वको एक ही दिन मनाएंगे। गीता में श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष, अष्टम तिथि, बुधवार, रोहिणी नक्षत्र एवं वृषभ के चंद्रमा की मध्य रात्रि में होना बताया गया है।
श्री कृष्ण जन्माष्टमी को अर्द्धरात्रि अष्टमी पड़ रही है। यह तिथि रोहिणी नक्षत्र में है। इसके अलावा वृष राशि पर चंद्रमा का दुर्लभ एवं पुण्य प्रदायक योग बन रहा है। निर्णय सिंधु में लिखा है कि आधी रात के समय रोहिणी में यदि अष्टमी तिथि मिल जाए तो उसमें भगवान श्री कृष्ण का पूजन करने से तीन जन्मों के पाप समाप्त हो जाते हैं। बुधवार और रोहिणी नक्षत्र का योग हो तो ऐसी जन्माष्टमी पर रखा गया व्रत सौ जन्मों का उद्धार करती है। रोहिणी नक्षत्र और बुधवार एक ही दिन है। इससे जयंती नामक योग बन रहा है। इस योग से हजारों जन्मों का पुण्य संचय हो जाता है।
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हाथी-घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
गीता की इस अवधारण द्वारा भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब जब धर्म का नाश होता है तब तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और अधर्म का नाश करके धर्म कि स्थापना करता हूँ| अत: जब असुर एवं राक्षसी प्रवृतियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं| भगवान विष्णु इन समस्त अवतारों में से एक महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा| भगवान स्वयं जिस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे उस पवित्र तिथि को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं| भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का यह उत्सव हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है| भगवान विष्णु के अवतार रूप में श्रीकृष्ण जी का अवतरण भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि कोरोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था| इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 28 अगस्त 2013 को स्मार्तों का व्रत है और वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा मनाया जाएगा|
जन्माष्टमी पूजन विधि-
जन्माष्टमी के अवसर पर महिलाएं, पुरूष व बच्चे उपवास रखते हैं और श्री कृष्ण का भजन-कीर्तन करते हैं। इस पावन पर्व में कृष्ण मन्दिरों व घरों को सुन्दर ढंग से सजाया जाता है। उत्तर प्रदेश के मथुरा-वृन्दावन के मन्दिरों में इस अवसर पर कई तरह के रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं। कृष्ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम का स्मरण करने के लिए रास लीला का भी आयोजन किया जाता है। इस त्यौहार को 'कृष्णाष्टमी' अथवा 'गोकुलाष्टमी' के नाम से भी जाना जाता है।
श्री कृष्ण का जन्म रात्रि 12 बजे हुआ था इसलिए बाल कृष्ण की मूर्ति को आधी रात के समय दूध, दही, धी, जल से स्नान कराया जाता है। इसके बाद शिशु कृष्ण का श्रृंगार कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है और उन्हें भोग लगाया जाता है। जो लोग उपवास रखते हैं वह इसी भोग को ग्रहण कर अपना उपवास पूरा करते हैं।
जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।
जन्माष्टमी की कथा-
एक बार इंद्र ने नारद जी से कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए। इंद्र की बातों को सुनकर देवर्षि ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।
नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।
ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णन कीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।
इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी ने उनके विलाप का कारण पूछा| तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।
देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।
तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।
कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।
इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।
प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।
उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।
जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।
कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा ही होगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।
कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।
हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?
नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।
अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।
अब कालियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।
तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया। इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र! कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे।
श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।
हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, सुदर्शन चक्र को लेकर गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।
जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।
गोविंदा आला रे...
पूरे उत्तर भारत में इस त्यौहार के उत्सव के दौरान भजन गाए जाते हैं नृत्य किया जाता है। मथुरा व महाराष्ट्र में जन्माष्टमी के दौरान मिट्टी की मटकियों जिन्हें लोगों की पहुंच से दूर उचाई पर बांधा जाता है, इनसे दही व मक्खन चुराने की कोशिश की जाती है। इन वस्तुओं से भरा एक मटका अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्तत: इसे फोड़ते हैं। इसके पीछे आशय यह है कि लोगों का मानना है कि भगवान श्री कृष्ण इसे ही अपने मित्रों के साथ दही और मक्खन की मटकियों को फोड़ते थे और दही, मक्खन चुरा कर खाते थे। यह उत्सव करीब सप्ताह तक चलता है।
सपने में खुद को ऐसा देखे तो समझिये आपके साथ...
हर सपना कुछ-न कुछ कहता है। कुछ सपने निराशा देते हैं, तो कुछ जीवन में खुशियों की लहर भर देते हैं। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो उसकी पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ उसका मन और उसकी पाँचों कर्मेंद्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाएँ करना बंद कर देती हैं और व्यक्ति का मस्तिष्क पूरी तरह शांत रहता है। उस अवस्था में व्यक्ति को एक अनुभव होता है, जो उसके जीवन से संबंधित होता है। उसी अनुभव को स्वप्न कहा जाता है|
आज हम आपको स्वप्न ज्योतिष से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ देने जा रहे हैं जिसके द्वारा आप स्वयं अपने भविष्य के बारे में जान सकते हैं|
अगर लड़का अपने सपने में खुद को सपने में गंजा देखते हैं तो जल्द ही आपकी तमाम परेशानियां समाप्त हो जाएंगी। बिगड़े कार्य बनते जाएंगे। यदि आप कोई परीक्षा या साक्षात्कार देने जाने वाले हैं तो उसे सफलता के पूर्ण योग बनेंगे। उम्मीद से अधिक धन प्राप्त होगा। साथ ही समाज में मान-सम्मान की प्राप्ति होगी।
वहीँ अगर कोई लड़की यही सपना देखती है तो उसको कई अशुभ फल झेलने पड़ सकते हैं। लड़कियों के लिए ऐसा सपना बुरे समय की ओर संकेत करता है। ऐसी परिस्थिति में लड़कियों को मंदिर जाकर पूजन करना चाहिए। शिवलिंग पर जल, अक्षत, कुमकुम आदि चढ़ाकर सुख और समृद्धि और बुरे समय को दूर रखने की कामना करना चाहिए।
अधिक जानकारी के लिए-
E mail : vineetverma100@gmail.com
दया, करुणा की साक्षात मूर्ति थीं मदर टेरेसा
दया, प्रेम और वात्सल्य का असली चेहरा मदर टेरेसा, जिन्होंने यूगोस्लाविया से निकल कर भारत में अपने सेवाभाव से जुड़े कार्यक्रम की शुरुआत की और विश्व भर में इसके सफल संचालन से लोगों के बीच मां का दर्जा पाया। 12 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपने हृदय की आवाज पर समाज को अपना जीवन समर्पित करने का फैसला कर लिया था। "शांति की शुरुआत मुस्कुराहट से होती है।" इस विचार में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा यानी एग्नेस गोंझा बोयाजीजू का जन्म यूगोस्लाविया के एक साधारण व्यवसायी निकोला बोयाजीजू के घर 26 अगस्त 1910 में हुआ था लेकिन रोमन कैथोलिक मदर टेरेसा का बापतिज्मा 27 अगस्त को होने की वजह से उनका वास्तविक जन्मदिन इसी दिन पूरे विश्व में मनाया जाता है।
वह 18 वर्ष की आयु में 1928 में भारत के कोलकाता शहर आईं और सिस्टर बनने के लिए लोरेटो कान्वेंट से जुड़ीं और इसके बाद अध्यापन कार्य शुरू किया। उन्होंने 1946 में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान अपने मन की आवाज पर लोरेटो कान्वेट की सुख सुविधा छोड़ बीमार, दुखियों और असहाय लोगों के बीच रह कर उनकी सेवा का संकल्प लिया।
मदर टेरेसा ने एक दशक तक कोलकाता के झुग्गी में रहने वाले लाखों दीन दुखियों की सेवा करने के बाद वहां के धार्मिक स्थल काली घाट मंदिर में एक आश्रम की शुरुआत की। लारेटो कान्वेंट छोड़ने के वक्त उनके पास सिर्फ पांच रुपये ही थे लेकिन उनका आत्मबल ही था जिससे उन्होंने 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की शुरुआत की और आज 133 देशों में इस संस्था की 4,501 सिस्टर मदर टेरेसा के बताए मार्ग का अनुसरण कर लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं।
मदर टेरेसा ने भारत में कार्य करते हुए यहां की नागरिकता के साथ सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्राप्त (1980) किया और यहां के साथ-साथ पूरे विश्व में अछूतों, बीमार और गरीबों की सेवा की। लेकिन उन्होंने कोलकाता में विशेष रूप से काम किया और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के लिए घर बनाने की शुरुआत यहीं से की। उनके आश्रम का दरवाजा हर वर्ग के लोगों के लिए हमेशा खुला रहता था।
मदर टेरेसा ने अपने कार्यक्रम के जरिए गरीब से गरीब और अमीर से अमीर लोगों के बीच भाईचारे और समानता का संदेश दिया था। उन्होंने किसी भी धर्म के लोगों के बीच कोई भेद नहीं किया। विश्व में मां का दर्जा पा चुकीं मदर टेरेसा गर्भपात के सख्त खिलाफ थीं और एक बार ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, "मैं किसी भी ऐसी महिला को कोई बच्चा गोद लेने नहीं दे सकती जिसने कभी भी अपना गर्भपात करवाया हो। ऐसी महिला बच्चे से प्यार कर ही नहीं सकती।"
समाज में दिए गए उनके अद्वितीय योगदान की वजह से उन्हें पद्मश्री (1962), नोबेल शांति पुरस्कार (1979) और मेडल ऑफ फ्रीडम (1985) प्रदान किए गए। पांच दशक से भी अधिक वर्षों तक दुखियों की सेवा से जुड़ी रहीं मदर टेरेसा ने पांच सितम्बर 1997 को दुनिया को अलविदा कह दिया। दुनिया भर के लोगों की तरह पोप जॉन पाल द्वितीय भी उनके प्रशंसकों में से एक थे। उन्हें उनकी मृत्यु के छह साल बाद ही इटली की राजधानी रोम में 'धन्य' यानी धार्मिक शब्दावली के अनुसार 'बिएटीफिकेशन' घोषित कर दिया गया। इसका तात्पर्य यह था कि वेटिकन ने यह मान लिया कि उनका व्यक्तित्व दिव्य था और उनकी प्रार्थना भर से लोगों को रोगों से मुक्ति मिल जाती है।
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मदर टेरेसा: मानव सेवा व शांति का प्रतीक
"मैं कभी भी किसी हिंसा विरोधी रैली में शामिल नहीं हो सकती| अगर आप कोई शांति मार्च का आयोजन करें तो मुझे जरूर आमंत्रित करें| मैं मानती हूं कि अगर आप जो नहीं चाहते है (हिंसा) उसके आप जो चाहते हैं (शांति) अगर उस पर केंद्रित रहें, तो आप उसे प्रचुरता में पा सकेंगे|" यह शब्द हैं उस व्यक्ति के जिसने अपना सारा जीवन मानवता की सेवा में बिता दिया| प्रेम, शान्ति और मानवता की प्रतिक मानी जाने वाली मदर टेरेसा की सोमवार को 104वीं जयंती थी| इस अवसर पर पूरे विश्व ने उन्हें याद किया|
जीवन परिचय
मेसेडोनिया की राजधानी सोप्जे में 26 अगस्त, 1910 को जन्मीं मदर टेरेसा का वास्तविक नाम अग्नेसे गोंकशे बोजशियु था| उन्होंने जीवन को मात्र आठ साल की कम उम्र में करीब से समझना शुरू कर दिया था जब उनके पिता और अल्बानियाई नेता निकोला बोजशियु का निधन हो गया| मात्र 12 साल की उम्र में ही उन्होंने खुद को 'ईश्वर की सेवा' के प्रति प्रतिबद्ध किया और वर्ष 1928 में आयरलैंड के इंस्टिट्यूट ऑफ ब्लेस्ड वर्जिन मैरी में शामिल हुईं अग्नेशे को सिस्टर मैरी टेरेसा का नाम मिला और वर्ष 1929 में उन्हें कोलकाता में सेवा के लिए भेजा गया| 24 मई, 1931 में उन्होंने नन की शपथ ली|
भारत में लगभग 15 सालों तो तत्कालीन कलकत्ता के सैंट मैरीज हाई स्कूल में पढ़ाने के बाद 10 सितंबर, 1946 को अपनी दार्जीलिंग यात्रा में उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज को अपनी दिशा बनाई और जरूरतमंदों की सेवा में आजीवन जुटने का फैसला लिया| उन्होंने अपने कंधों पर झुग्गियों में रहने वाले बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा लिया|
मिशनरी ऑफ चैरिटी
वर्ष 1950 में उन्होंने कलकत्ता में मिशनरी ऑफ चैरिटी नामक संस्था की नींव रखी जिसका उद्देश्य समाज के निचले वर्गों और जरूरतमंदों की सेवा था| इसकी स्थापना के साथ ही उन्होंने नीली किनारे वाली सफेद साड़ी की वेशभूषा को अपनाया| आज इस मिशनरी की शाखाएं दुनिया के सौ से भी अधिक देशों में है और करीब 4000 नन इससे जुड़ी हैं| इसके बाद उन्होंने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ नामक आश्रम भी खोलें जिसमें कुष्ठ रोग जैसे कई गंभीर रोगों से पीड़ित लोगों और गरीबों की सेवा वह खुद करती थीं|
नोबल शांति पुरस्कार-पद्मश्री से सम्मानित
मदर टेरेसा मानवता की सच्ची अनुयायी थीं जिसने अपना समस्त जीवन असहायों की सेवा को समर्पित किया| समाजसेवा के क्षेत्र में उनके समर्पण के लिए उन्हें वर्ष 1962 में भारत सरकार की ओर से पद्मश्री सम्मान और वर्ष 1980 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया| समाजसेवा की दिशा में इनके प्रयासों को न सिर्फ भारत बलिक पूरे विश्व ने मिसाल माना और वर्ष 1979 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया| मदर टेरेस ने सम्मान में मिली सारी राशि को गरीबों की सेवा के लिए फंड में दे दिया|
निधन
मानवता को जीवन का उद्देश्य मानने वाली इस महिला ने आजीवन सेवा, त्याग और सद्भाव के रास्ते को ही अपना मार्ग बनाए रखा| मानवता की सेवा में अपना जीवन अर्पित करने वाली मदर टेरेसा का निधन 5 सितंबर, 1997 को कोलकाता में हो गया| उन्होंने अपने वात्सल्य से पहले कोलकाता तो बाद में पूरे देश के गरीब-असहायों का दुःख दर्द मिटाया| भारत के लिए उनका प्रेम ही था जिसने उन्हें सबके दिल में जगह दिला दी|
जब पाप का अंत करने आए पूर्णावतार
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भगवान विष्णु के दस अवतारों में दो अवतार ऐसे हैं जिनका भारतीय जीवन पर गहरा असर है। ये दो अवतार श्रीरामावतार और श्रीकृष्णावतार हैं। कलाओं की दृष्टि से भगवान श्रीकृष्ण को पूर्णावतार माना गया है। भगवान श्रीकृष्ण कई मायनों भारतीय जीवन को दिशा देते हैं। असल में विष्णु का यह अवतार अपने समय के समाज से लेकर आज के आधुनिक समाज तक का दिशा-निर्देशन करता है। श्रीकृष्ण का विराट व्यक्तित्व और उनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं।
भारतीय चिंतन परंपरा की अमूल्य धरोहर और ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी 'भगवत् गीता' श्रीकृष्ण के उपदेश का संकलन माना जाता है। कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र में स्वजनों से युद्ध करने में अर्जुन की किंतर्व्य विमूढ़ता और अनाशक्ति को दूर करने के लिए भगवान ने जो कुछ कहा था वही गीता में पद्य के रूप में संकलित किया गया है।
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्र मास (भादो महीना) की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि में हुआ था। पुरा आख्यानकों और जनश्रुतियों के मुताबिक उस समय मथुरा के राजा कंस के अत्याचार से लोक जगत त्राहि-त्राहि कर रहा था। कंस का संहार करने के लिए ही भगवान विष्णु देवकी और वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे।
कथा के अनुसार, देवकी कंस की बहन थी। उनका विवाह बड़ी धूमधाम से वसुदेव के साथ हुआ था। विदा वेला में आकाशवाणी से कंस को ज्ञात हुआ कि जिस बहन के प्रति वह इतना प्रेम दिखा रहा है उसी के गर्भ से उत्पन्न होने वाला आठवां पुत्र उसका वध करेगा। इसके बाद कंस ने अपनी बहन और बहनोई को कैद कर लिया और उनकी हर संतान का वध करने लगा।
आठवीं संतान के रूप में जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तब माया के प्रभाव से सभी प्रहरी निद्रा के आगोश में समा गए और वसुदेव बालक श्रीकृष्ण को लेकर गोकुल में अपने मित्र नंद के यहां छिपा आए।
नंद की पत्नी यशोदा ने एक मृत बच्ची को जन्म दिया था जिसे वे अपने साथ लेते आए और उसे कंस को अगले दिन सौंप दिया। किंवदंती है कि सौंपे जाने से पूर्व बच्ची जीवित हो उठी थी और जैसे ही कंस ने उसे पत्थर पर पटकना चाहा, वह उसके हाथों से छूट गई और उसने अट्टहास करते हुए कहा, "तुम्हारा वध करने वाला तो गोकुल में खेल रहा है।"
यहीं से कंस और कृष्ण के बीच द्वंद्व की शुरुआत होती है जो कंस के वध तक जारी रहती है। कृष्ण जन्मोत्सव का दिन भारत में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कृष्ण जन्मभूमि मथुरा में देश-विदेश से लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। देशभर में पूरे दिन व्रत रखकर नर-नारी तथा बच्चे रात्रि 12 बजे मंदिरों में अभिषेक होने पर पंचामृत ग्रहण कर व्रत खोलते हैं। कृष्ण के जन्म स्थान मथुरा के अलावा गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर सहित देश के सभी कृष्ण मंदिरों में भव्य समारोह का आयोजन होता है।
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