चाहते हैं सुख-समृद्धि तो करें श्रीगणेश के इन रूपों की पूजा

हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश बुद्धि, श्री यानी सुख-समृद्धि और विद्या के दाता हैं। उनकी उपासना और स्वरूप मंगलकारी माने गए हैं। गणेश के इस नाम का शाब्दिक अर्थ – भयानक या भयंकर होता है। क्योंकि गणेश की शारीरिक रचना में मुख हाथी का तो धड़ पुरुष का है। सांसारिक दृष्टि से यह विकट स्वरूप ही माना जाता है। किंतु इसमें धर्म और व्यावहारिक जीवन से जुड़े गुढ़ संदेश है।

धार्मिक आस्था से श्री गणेश विघ्नहर्ता है। इसलिए माना जाता है कि वह बुरे वक्त, संकट और विघ्नों का भयंकर या विकट स्वरूप में अंत करते हैं। आस्था से जुड़ी यही बात व्यावहारिक जीवन का एक सूत्र बताती है कि धर्म के नजरिए से तो सज्जनता ही सदा सुख देने वाली होती है, लेकिन जीवन में अनेक अवसरों पर दुर्जन और तामसी वृत्तियों के सामने या उनके बुरे कर्मों के अंत के लिये श्री गणेश के विकट स्वरूप की भांति स्वभाव, व्यवहार और वचन से कठोर या भयंकर बनकर धर्म की रक्षा जरूर करना चाहिए।

शास्त्रों में हर माह श्री गणेश के अलग-अलग मंगलकारी रूपों की पूजा करने का विधान बताया गया है। तो आइये जाने किस माह में गणेश जी के किस रूप की पूजा करनी चाहिए-

चैत्र माह:- हिंदी पञ्चांग के अनुसार प्रथम माह चैत्र माह होता है इस माह में भगवान गणेश वासुदेव रुप की पूजा करने व ब्राह्मण भोजन व सोने के दान का महत्व है।

वैशाख माह - वैसाख मास में श्री गणेश संकर्षण रूप की पूजा करनी चाहिए और ब्राह्मण भोजन के साथ शंख दान का महत्व है।

ज्येष्ठ माह - ज्येष्ठ माह में श्री गणेश के प्रद्युम्र रूप की पूजा करनी चाहिए और ब्राह्मण भोजन और फल दान का महत्व है।

आषाढ़ माह - आषाढ़ मास में श्री गणेश के अनिरुद्ध रूप की पूजा करनी चाहिए और ब्राह्मण भोजन और पात्र या बर्तन दान का महत्व है।

श्रावण माह - इस मास में भगवान शंकर की उपासना के शुभ काल सावन में उनके ही पुत्र गणेश के बहुला रूप में पूजा की जाती है।

भाद्रपद माह - इस मास में श्री गणेश की सिद्धि विनायक रुप में पूजा की जाती है।

आश्विन माह - आश्विन माह में श्री गणेश के कपर्दीश रूप की पूजा होती है।

कार्तिक माह - कार्तिक माह में भगवान गणेश के वरद विनायक रूप की पूजा की जाती है।

मार्गशीर्ष माह - इस माह में गजानन रूप की पूजा का महत्व है।

पौष माह - इस माह में भगवान गणेश के विघ्र विनायक रूप की पूजा की जाती है।

माघ माह - माघ मास में श्री गणेश के संकटनाशक रूप की पूजा कर संकट व्रत की शुरुआत की जाती है।

फाल्गुन माह - इस माह में भगवान गणपति के ढुंढिराज रूप की पूजा की जाती है।

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इस तरह से गणेशजी कहलाये विघ्नेश्वर

बहुधा लोग किसी कार्य में प्रवृत्त होने के पूर्व संकल्प करते हैं और उस संकल्प को कार्य रूप देते समय कहते हैं कि हमने अमुक कार्य का श्रीगणेश किया। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: लिखते हैं। यहां तक कि पत्रादि लिखते समय भी 'ऊँ' या श्रीगणेश का नाम अंकित करते हैं। 

श्रीगणेश को प्रथम पूजन का अधिकारी क्यों मानते हैं? लोगों का विश्वास है कि गणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं- इसलिए विनायक के पूजन में 'विनायको विघ्नराजा-द्वैमातुर गणाधिप' स्त्रोत पाठ करने की परिपाटी चल पड़ी है। यहां तक कि उनके नाम से गणेश उपपुराण भी है। पुराण-पुरुष गणेश की महिमा का गुणगान सर्वत्र क्यों किया जाता है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

इस संबंध में एक कहानी प्रचलित है। एक बार सभी देवों में यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर सर्वप्रथम किस देव की पूजा होनी चाहिए। सभी देव अपने को महान बताने लगे। अंत में इस समस्या को सुलझाने के लिए देवर्षि नारद ने शिव को निणार्यक बनाने की सलाह दी। शिव ने सोच-विचारकर एक प्रतियोगिता आयोजित की- जो अपने वाहन पर सवार हो पृथ्वी की परिक्रमा करके प्रथम लौटेंगे, वे ही पृथ्वी पर प्रथम पूजा के अधिकारी होंगे।

सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। गणेश जी ने अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहे। कार्तिकेय अपने मयूर वाहन पर आरूढ़ हो पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे और दर्प से बोले, "मैं इस स्पर्धा में विजयी हुआ, इसलिए पृथ्वी पर प्रथम पूजा पाने का अधिकारी मैं हूं।"

शिव अपने चरणें के पास भक्ति-भाव से खड़े विनायक की ओर प्रसन्न मुद्रा में देख बोले, "पुत्र गणेश तुमसे भी पहले ब्रह्मांड की परिक्रमा कर चुका है, वही प्रथम पूजा का अधिकारी होगा।" 

कार्तिकेय खिन्न होकर बोले, "पिताजी, यह कैसे संभव है? गणेश अपने मूषक वाहन पर बैठकर कई वर्षो में ब्रह्मांड की परिक्रमा कर सकते हैं। आप कहीं तो परिहास नहीं कर रहे हैं?" "नहीं बेटे! गणेश अपने माता-पिता की परिक्रमा करके यह प्रमाणित कर चुका है कि माता-पिता ब्रह्मांड से बढ़कर कुछ और हैं। गणेश ने जगत् को इस बात का ज्ञान कराया है।" इतने में बाकी सब देव आ पहुंचे और सबने एक स्वर में स्वीकार कर लिया कि गणेश जी ही पृथ्वी पर प्रथम पूजन के अधिकारी हैं।

गणेश जी के सम्बंध में भी अनेक कथाएं पुराणों में वर्णित हैं। एक कथा के अनुसार शिव एक बार सृष्टि के सौंदर्य का अवलोकन करने हिमालयों में भूतगणों के साथ विहार करने चले गए। पार्वती जी स्नान करने के लिए तैयार हो गईं। सोचा कि कोई भीतर न आ जाए, इसलिए उन्होंने अपने शरीर के लेपन से एक प्रतिमा बनाई और उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके द्वार के सामने पहरे पर बिठाया। उसे आदेश दिया कि किसी को भी अंदर आने से रोक दे। वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा।

इतने में शिव जी आ पहुंचे। वह अंदर जाने लगे। बालक ने उनको अंदर जाने से रोका। शिव जी ने क्रोध में आकर उस बालका का सिर काट डाला। स्नान से लौटकर पार्वती ने इस दृश्य को देखा। शिव जी को सारा वृत्तांत सुनाकर कहा, "आपने यह क्या कर डाला? यह तो हमारा पुत्र है।"

शिव जी दुखी हुए। भूतगणों को बुलाकर आदेश दिया कि कोई भी प्राणी उत्तर दिशा में सिर रखकर सोता हो, तो उसका सिर काटकर ले आओ। भूतगण उसका सिर काटकर ले आए। शिव जी ने उस बालक के धड़ पर हाथी का सिर चिपकाकर उसमें प्राण फूंक दिए। तवसे वह बालक 'गजवदन' नाम से लोकप्रिय हुआ। 

दूसरी कथा भी गणेश जी के जन्म के बारे में प्रचलित है। एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनके एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा शिव जी को बताई। इस पर शिव जी ने उन्हें पुष्पक व्रत मनाने की सलाह दी।

पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। निश्चित तिथि पर यज्ञ का शुभारंभ हुआ। यज्ञमंडल सभी देवी-देवताओं के आलोक से जगमगा उठा। शिव जी आगत देवताओं के आदर-सत्कार में संलग्न थे, लेकिन विष्णु भगवान की अनुपस्थिति के कारण उनका मन विकल था। थोड़ी देर बाद विष्णु भगवान अपने वाहन गरुड़ पर आरूढ़ हो आ पहुंचे। सबने उनकी जयकार करके सादर उनका स्वागत किया। उचित आसन पर उनको बिठाया गया।

ब्रह्माजी के पुत्र सनतकुमार यज्ञ का पौरोहित्य कर रहे थे। वेद मंत्रों के साथ यज्ञ प्रारंभ हुआ। यथा समय यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ। विष्णु भगवान ने पार्वती को आशीर्वाद दिया, "पार्वती! आपकी मनोकामना पूर्ण होगी। आपके संकल्प के अनुरूप एक पुत्र का उदय होगा।" 

भगवान विष्णु का आशीर्वाद पाकर पार्वती प्रसन्न हो गई। उसी समय सनतकुमार बोल उठे, "मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाता, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।"

"कहिए पुरोहित जी, आप कैसी दक्षिणा चाहते हैं?" पार्वती जी ने पूछा।

"भगवती, मैं आपके पतिदेव शिव जी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।"

पार्वती तड़पकर बोली, "पुरोहित जी, आप पेरा सौभाग्य मांग रहे हैं। आप जानते ही हैं कि कोई भी नारी अपना सर्वस्व दान कर सकती है, परंतु अपना सौभाग्य कभी नहीं दे सकती। आप कृपया कोई और वस्तु मांगिए।"

परंतु सनतकुमार अपने हठ पर अड़े रहे। उन्होंने साफ कह दिया कि वे शिव जी को ही दक्षिणा में लेंगे, दक्षिणा न देने पर यज्ञ का फल पार्वती जी को प्राप्त न होगा।

देवताओं ने सनतकुमार को अनेक प्रकार से समझाया, पर वे अपनी बात पर डटे रहे। इस पर भगवान विष्णु ने पार्वती जी को समझाया, "पार्वती जी! यदि आप पुरोहित को दक्षिणा न देंगी तो यज्ञ का फल आपको नहीं मिलेगा और आपकी मनोकामना भी पूरी न होगी।"

पार्वती ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "भगवान! मैं अपने पति से वंचित होकर पुत्र को पाना नहीं चाहती। मुझे केवल मेरे पति ही अभीष्ट हैं।"

शिव जी ने मंदहास करके कहा, "पार्वती, तुम मुझे दक्षिणा में दे दो। तुम्हारा अहित न होगा।" पार्वती दक्षिणा में अपने पति को देने को तैयार हो गई, तभी अंतरिक्ष से एक दिव्य प्रकाश उदित होकर पृथ्वी पर आ उतरा। उसके भीतर से श्रीकृष्ण अपने दिव्य रूप को लेकर प्रकट हुए। उस विश्व स्वरूप के दर्शन करके सनतकुमार आह्रादित हो बोले, "भगवती! अब मैं दक्षिणा नहीं चाहता। मेरा वांछित फल मुझे मिल गया।"

श्रीकृष्ण के जयनादों से सारा यज्ञमंडप प्रतिध्वनित हो उठा। इसके बाद सभी देवता वहां से चले गए। थोड़ी ही देर बाद एक विप्र वेशधारी ने आकर पार्वती जी से कहा, "मां, मैं भूखा हं, अन्न दो।" पार्वती जी ने मिष्टान्न लाकर आगंतुक के समाने रख दिया। चंद मिनटों में ही थाल समाप्त कर द्विज ने फिर पूछा, "मां, मेरी भूख नहीं मिटी, थोड़ा और खाने को दो।" वह ब्राह्मण बराबर मांगता रहा, पार्वती जी कुछ-न-कुछ लाकर खिलाती रहीं, फिर भी वह संतुष्ट न हुआ। कुछ और मांगता रहा।

पार्वती जी की सहनशीलता जाती रही। वह खीझ उठीं, शिव जी के पास जाकर शिकायती स्वर में बोलीं, "देव, न मालूम यह कैसा याचक है। ओह, कितना खिलाया, और मांगता है। कहता है कि उसका पेट नहीं भरा। मैं और कहां से लाकर खिला सकती हूं।" शिव जी को उस याचक पर आश्चर्य हुआ। उस देखने के लिए पहुंचे, पर वहां कोई याचक न था। पार्वती चकित होकर बोली, "अभी तो यहीं था, न मालूम कैसे अदृश्य हो गया"

शिव जी ने मंदहास करते हुए कहा, "देवि, वह कहीं नहीं गया। वह यहीं है, तुम्हारे उदर में। वह कोई पराया नहीं, साक्षात् तुम्हारा ही पुत्र गणेश है। तुम्हारे मनोकामना पूरी हो गई है। तुम्हें पुष्पक यज्ञ का फल प्राप्त हो गया है।" इस प्रकार भगवान शिव के अनुग्रह से गणेश जन्म धारण करके गणाधिपति बन गए। समस्त विश्व के संकट दूर करते हुए विघ्नेश्वर कहलाए।

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जाने कहाँ है भगवान गणेश का असली मस्तक

धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि उनका मुख हाथी का है| क्या आपको पता है कि भगवान श्रीगणेश का सिर कटने के बाद हाथी के बच्चे का मुख लगा लेकिन उनका असली सिर कहाँ गया? इसके बारे में आज आपको एक रोचक जानकारी देते हैं| 

ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि जब गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया। 

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया| 

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।

ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से भी धर्म परंपराओं में संकट चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।

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इस तरह मोदक बना गणेश का प्रिय

हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य देवता माना गया है| इसलिए सभी देवताओं में गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती है आपने यदि श्री गणेश तस्वीर पर ध्यान दिया होगा तो उनके हाथ में उनका प्रिय भोजन मोदक जरुर रहता है| क्या आपको पता है कि गणेश जी अन्य भोग की जगह मोदक इतना क्यों पसंद है? 

शास्त्रों में कहा गया है कि गजानन का एक दांत परशुराम जी के साथ हुए युद्ध में टूट गया था| दांत के टूट जाने से उन्हें अन्य चीजों को खाने में तकलीफ होती थी क्योंकि उन्हें चबाना पड़ता था लेकिन मोदक को चबाना नहीं पड़ता है ऐसा इसलिए क्योंकि मोदक बहुत मुलायम होता है|

भगवान गणेश को मोदक इसलिए भी पसंद हो सकता है कि मोदक प्रसन्नता प्रदान करने वाला मिष्टान है। मोदक के शब्दों पर गौर करें तो 'मोद' का अर्थ होता है हर्ष यानी खुशी। भगवान गणेश को शास्त्रों में मंगलकारी एवं सदैव प्रसन्न रहने वाला देवता कहा गया है। 

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में गणेश जी को मोदक प्रिय होने की जो कथा मिलती है उसके अनुसार मोदक का निर्माण अमृत से हुआ है। देवताओं ने एक दिव्य मोदक माता पार्वती को दिया। गणेश जी ने मोदक के गुणों का वर्णन माता पार्वती से सुना तो मोदक खाने की इच्छा बढ़ गयी। अपनी चतुराई से गणेश जी ने माता से मोदक प्राप्त कर लिया। गणेश जी को मोदक इतना पसंद आया कि उस दिन से गणेश मोदक प्रिय बन गये।

त्रेता युग के प्रथम अवतार थे वामन

विभिन्न युगों में विष्णु के जिन 10 अवतारों का वर्णन किया गया है, उनमें वामन अवतार पांचवें और त्रेता युग के पहले अवतार थे। साथ ही बौने ब्राह्मण के रूप में यह विष्णु के पहले मानव रूपी अवतार भी थे। दक्षिण भारत में इस अवतार को उपेंद्र के नाम से भी जाना जाता है। वामन, ऋषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे। वह आदित्यों में बारहवें थे। मान्यता है कि वह इंद्र के छोटे भाई थे।

भागवत कथा के अनुसार, असुर राज बली अत्यंत दानवीर थे। दानशीलता के कारण बली की कीर्ति पताका के साथ-साथ प्रभाव इतना विस्तृत हो गया कि उन्होंने देवलोक पर अधिकार कर लिया। देवलोक पर अधिकार करने के कारण इंद्र की सत्ता जाती रही।

विष्णु ने देवलोक में इंद्र का अधिकार पुन: स्थापित करने के लिए यह अवतार लिया। बली, विरोचन के पुत्र तथा प्रहलाद के पौत्र थे। यह भी कहा जाता है कि अपनी तपस्या तथा शक्ति के माध्यम से बली ने तीनों लोकों पर आधिपत्य हासिल कर लिया था।

विष्णु वामन रूप में एक बौने ब्राह्मण का वेष धारण कर बली के पास गए और उनसे अपने रहने के लिए तीन कदम के बराबर भूमि दान में मांगी। उनके हाथ में एक लकड़ी का छाता था। असुर गुरु शुक्राचार्य के चेताने के बावजूद बली ने वामन को वचन दे डाला।

वामन ने अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि पहले ही कदम में पूरा भूलोक (पृथ्वी) नाप लिया। दूसरे कदम में देवलोक नाप लिया। इसके पश्चात ब्रह्मा ने अपने कमंडल के जल से भगवान वामन के पांव धोए। इसी जल से गंगा उत्पन्न हुईं। तीसरे कदम के लिए कोई भूमि बची ही नहीं। वचन के पक्के बली ने तब वामन को तीसरा कदम रखने के लिए अपना सिर प्रस्तुत कर दिया।

वामन बली की वचनबद्धता से अति प्रसन्न हुए। चूंकि बली के दादा प्रह्लाद, विष्णु के परम भक्त थे इसलिए वामन (विष्णु) ने बली को पाताल लोक देने का निश्चय किया और अपना तीसरा कदम बली के सिर पर रखा जिसके फलस्वरूप बली पाताल लोक में पहुंच गए।

एक और कथा के अनुसार, वामन ने बली के सिर पर अपना पैर रखकर उनको अमरत्व प्रदान कर दिया। विष्णु अपने विराट रूप में प्रकट हुए और राजा को महाबली की उपाधि प्रदान की, क्योंकि बली ने अपनी धर्मपरायणता तथा वचनबद्धता के कारण अपने आप को महात्मा साबित कर दिया था।

विष्णु ने महाबली को आध्यात्मिक आकाश जाने की अनुमति दे दी जहां उनका अपने सद्गुणी दादा प्रहलाद तथा अन्य दैवीय आत्माओं से मिलना हुआ। वामनावतार के रूप में विष्णु ने बली को यह पाठ दिया कि दंभ तथा अहंकार से जीवन में कुछ हासिल नहीं होता है और यह भी कि धन-संपदा क्षणभंगुर होती है। ऐसा माना जाता है कि विष्णु के दिए वरदान के कारण प्रति वर्ष बली धरती पर अवतरित होते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी प्रजा खुशहाल है।

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आज घर-घर में स्थापित होंगे पार्वती नंदन गणेश

पार्वती नंदन व रिद्दी सिद्धी के दाता गणेशजी का जन्मोत्सव 'गणेश चतुर्थी' के अवसर पर पूरे देश में धूम मची हुई है। गणपति धाम व गणेश जी के प्रमुख मंदिरों में जहां भव्य सजावट का दौर जारी रहा वहीं उनके दर्शन के लिए भक्तों की लम्बी कतार भी देखी गई।

यह त्यौहार महाराष्ट्र और गोवा में कोंकणी लोगों का सबसे ज्यादा लोकप्रिय त्यौहार है, जिसे वह बड़ी धूम-धाम और श्रद्धा के साथ मानते हैं। इसके साथ ही गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश के अलावा भारत के सभी राज्यों में इस त्यौहार में बड़ी धूम रहती है।

भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को ही 'श्री गणेश चतुर्थी' कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को गणेश भगवान का जन्म हुआ था। भारतीय संस्कृति के अनुसार गणेश भगवान की पूजा बुद्धि, समृद्धि, सौभाग्य और किसी भी शुभ कार्य के करने को करने से पहले की जाती है। गणेश जी को बुद्धि के देवता और विघ्नों का विनाशक माना जाता है। चूहे की सवारी करने वाले गणेश जी का प्रिय भोग लड्डू है। गणेश जी का विवाह ऋद्धि तथा सिद्धि नामक दो स्त्रियों के साथ हुआ है।

गणेश भगवान का जन्म-

एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया।

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।

गणेश चतुर्थी के अवसर पर भगवान गणेश की स्थापना की जाती है। सभी भक्तगण गणेश जी का उपवास रखते हैं। इस दिन घरों व मंदिरों में गणेश जी की मूर्ति स्थापित की जाती है। कई दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं और गणेश भगवान की पूजा-अर्चना में शामिल होते हैं। दस दिन चलने वाले इस उत्सव के बाद गणेश भगवान की प्रतिमा को विसर्जित किया जाता है।

गणेश चतुर्थी कथा- 

श्री गणेश चतुर्थी व्रत को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलन में है| कथा के अनुसार एक बार भगवान शंकर और माता पार्वती नर्मदा नदी के निकट बैठे थें| वहां देवी पार्वती ने भगवान भोलेनाथ से समय व्यतीत करने के लिये चौपड खेलने को कहा| भगवान शंकर चौपड खेलने के लिये तो तैयार हो गये| परन्तु इस खेल मे हार-जीत का फैसला कौन करेगा?

इसका प्रश्न उठा, इसके जवाब में भगवान भोलेनाथ ने कुछ तिनके एकत्रित कर उसका पुतला बना, उस पुतले की प्राण प्रतिष्ठा कर दी और पुतले से कहा कि बेटा हम चौपड खेलना चाहते है| परन्तु हमारी हार-जीत का फैसला करने वाला कोई नहीं है| इसलिये तुम बताना की हम मे से कौन हारा और कौन जीता|

यह कहने के बाद चौपड का खेल शुरु हो गया| खेल तीन बार खेला गया, और संयोग से तीनों बार पार्वती जी जीत गई| खेल के समाप्त होने पर बालक से हार-जीत का फैसला करने के लिये कहा गया, तो बालक ने महादेव को विजयी बताया| यह सुनकर माता पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने क्रोध में आकर बालक को लंगडा होने व कीचड़ में पडे रहने का श्राप दे दिया| बालक ने माता से माफी मांगी और कहा की मुझसे अज्ञानता वश ऎसा हुआ, मैनें किसी द्वेष में ऎसा नहीं किया| बालक के क्षमा मांगने पर माता ने कहा की, यहां गणेश पूजन के लिये नाग कन्याएं आयेंगी, उनके कहे अनुसार तुम गणेश व्रत करो, ऎसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगें, यह कहकर माता, भगवान शिव के साथ कैलाश पर्वत पर चली गई|

ठीक एक वर्ष बाद उस स्थान पर नाग कन्याएं आईं| नाग कन्याओं से श्री गणेश के व्रत की विधि मालूम करने पर उस बालक ने 21 दिन लगातार गणेश जी का व्रत किया| उसकी श्रद्धा देखकर गणेश जी प्रसन्न हो गए और श्री गणेश ने बालक को मनोवांछित फल मांगने के लिये कहा| बालक ने कहा कि हे विनायक मुझमें इतनी शक्ति दीजिए, कि मैं अपने पैरों से चलकर अपने माता-पिता के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंच सकूं और वो यह देख प्रसन्न हों| 

बालक को यह वरदान दे, श्री गणेश अन्तर्धान हो गए| बालक इसके बाद कैलाश पर्वत पर पहुंच गया और अपने कैलाश पर्वत पर पहुंचने की कथा उसने भगवान महादेव को सुनाई| उस दिन से पार्वती जी शिवजी से विमुख हो गई| देवी के रुष्ठ होने पर भगवान शंकर ने भी बालक के बताये अनुसार श्री गणेश का व्रत 21 दिनों तक किया| इसके प्रभाव से माता के मन से भगवान भोलेनाथ के लिये जो नाराजगी थी वह समाप्त हो गई| 

यह व्रत विधि भगवन शंकर ने माता पार्वती को बताई| यह सुन माता पार्वती के मन में भी अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई| माता ने भी 21 दिन तक श्री गणेश व्रत किया और दुर्वा, पुष्प और लड्डूओं से श्री गणेश जी का पूजन किया| व्रत के 21 वें दिन कार्तिकेय स्वयं पार्वती जी से आ मिलें| उस दिन से श्री गणेश चतुर्थी का व्रत मनोकामना पूरी करने वाला व्रत माना जाता है|

अमर सुहाग की कामना का पर्व है 'तीज'

भारतीय महिलाएं अपने पति की दीर्घायु और उनकी रक्षा के लिए वर्ष भर कोई न कोई व्रत करती रहती हैं। भादौं महीने में मनाई जाने वाली तीज इन पर्वो में प्रमुख मानी जाती है। देशभर में, खासकर उत्तरी हिस्सों में इन दिनों तीज पर्व की खूब चहल-पहल है। 

जब तीज की बात हो तो पूजा के साथ ही डिजायनर साड़ियां, मेहंदी और सोलह श्रृंगार के साथ विशेष प्रकार से बनाने वाले प्रसाद 'पिड़ुकिया' की बात न हो ऐसा कैसे हो सकता है। तीज पर्व की पहचान महिलाओं के सोलह श्रृंगार से होती है।

पूरे बिहार के बाजारों में तीज की रौनक छा गई है तो घरों से पिडुकिया और ठेकुआ की भीनी-भीनी खुशबू भी आने लगी है। वैसे तो श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को भी तीज मनाई जाती है, जिसे छोटी तीज या 'श्रावणी तीज' कहा जाता है, परंतु भादौं महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाए जाने वाले पर्व को बड़ी तीज तथा 'हरितालिका तीज' कहा जाता है। इस वर्ष यह पर्व रविवार को मनाया जाएगा।

पूर्व में यह पर्व केवल बिहार, झारखंड, उतर प्रदेश के कुछ इलाकों में मनाई जाता था, मगर अब यह पर्व देश के करीब-करीब सभी राज्यों में मनाया जाने लगा है। महिलाएं इस दिन उपवास रखकर रात को शिव-पर्वती की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा करती हैं और पति के दीर्घायु होने की कामना करती हैं।

इस पर्व में वैसे तो कई प्रकार के पकवान बनाकर प्रसाद अर्पण किए जाते है परंतु एक खास प्रकार से बनाए गए प्रसाद 'पिडुकिया' भगवान को प्रसाद के रूप में चढ़ाने की पुरानी परंपरा रही है। आमतौर पर घर में मनाए जाने वाले इस पर्व में महिलाएं एक साथ मिलकर प्रसाद बनाती हैं।

पिडुकिया बनाने में घर के बच्चे भी सहयोग करते हैं। पिडुकिया मैदा से बनाया जाता है, जिसमें खोया, सूजी, नारियल और बेसन अंदर डाल दिया जाता है। पूजा के बाद आस-पड़ोस के घरों में प्रसाद बांटने की भी परंपरा है, जिस कारण किसी भी घर में बड़ी मात्रा में प्रसाद बनाए जाते हैं।

पंडित महदेव मिश्र कहते हैं कि भादौं महीने के शुक्ल पक्ष के तृतीया तिथि को यह पर्व मनाया जाता है तथा हस्त नक्षत्र के दौरान पूजा की जाती है। वे कहते हैं कि इस पर्व के दिन जो सुहागिन स्त्री अपने अखंड सौभाग्य और पति और पुत्र के कल्याण के लिए व्रत रखती है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

वे बताते हैं कि धार्मिक मान्यता है कि पार्वती की तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने तीज के ही दिन पार्वती को अपनी पत्नी स्वीकार किया था। इस कारण सुहागन स्त्रियों के साथ-साथ कई क्षेत्रों में कुंवारी लड़कियां भी यह पर्व करती हैं।

पटना के बोरिंग रोड में इस पर्व के मौके पर साड़ी मार्केट और ब्यूटी पार्लरों में महिलाओं की खासी भीड़ है। बोरिंग रोड के बाजार में खरदारी कर रही नीतू कहती हैं कि सभी महिलाओं को पूरे वर्ष तीज पर्व का इंतजार रहता है। 

वे कहती हैं कि मान्यता है कि इस पर्व में पूजा करने के पूर्व महिलाएं सोलह श्रृंगार कर तैयार हों और फिर पूजा करें। एक पखवाड़े पूर्व से ही इस पर्व की तैयारी में लोग जुट जाते हैं। मेहंदी की दुकानों में इस पर्व को लेकर महिलाओं की कतार लगी हुई है। 

पटना के केशव पैलेस स्थित एक कपड़ा दुकानदार के. निर्मल कहते हैं कि पिछले दिनों टेलीविजन धारावाहिकों को देखकर इन दिनों साड़ियों का क्रेज बढ़ा है। इन धारावाहिकों में पहनी गई जैसी साड़ियों की कीमत चार हजार से लेकर 10 हजार रुपये तक है। ये साड़ियां महिलाएं खूब पसंद कर रही हैं। 

वे कहते हैं कि शिफोन प्रिंटेड पर पैच बार्डर विद कन्ट्रास्ट ब्लाउज खूब बिक रहे हैं। इसके बाद महिलाओं की पसंद रानी और शॉकिंग रेड कलर है।

इधर, पटना के ब्यूटी पार्लरों में भी 15 दिन पूर्व से ही महिलाओं की भीड़ जुट रही है। कई ब्यूटी पार्लरों ने तो तीज के मौके पर महिलाओं को आकर्षित करने के लिए खास पैकेज का भी ऐलान कर दिया है।

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अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति का व्रत है हरितालिका तीज

हमारे देश में महिलाएं अपने सुहाग की रक्षा के लिए तरह-तरह के व्रत करती हैं। हरितालिका तीज का व्रत उनमें से सबसे प्रमुख है| हरितालिका तीज व्रत भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृ्तिया को किया जाता है| कहीं- कहीं इसे कजरी तीज के नाम से भी जाना जाता है| इस व्रत को 'हरितालिका' इसलिये कहा जाता है क्योंकि पार्वती कि सखी उन्हें पिता और प्रदेश से हर कर जंगल में ले गयी थी। 'हरित' अर्थात हरण करना और 'तालिका' अर्थात सखी। इस व्रत को विशेष रुप से विवाहित स्त्रियों के द्वारा किया जाता है| इस दिन उपवास कर भगवान शंकर-पार्वती की बालू से मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है| सुंदर वस्त्र धारण किये जाते है तथा कदली स्तम्भों से घर को सजाया जाता है| इसके बाद मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है| इस व्रत को करने वालि स्त्रियों को पार्वती के समान सुख प्राप्त होता है| इस वर्ष यह त्यौहार 8 सितम्बर दिन रविवार को मनाया जायेगा| 

हरितालिका तीज व्रत विधि-

इस व्रत में कुछ ना खाने-पीने की वजह से ही इसका नाम हरितालिका तीज पड़ा। व्रती स्त्री को पहले नित्य कर्म स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त हो प्रसन्नतापूर्वक वस्त्राभूषणों से श्रृंगार कर व्रत का संकल्प लेना चाहिए, व्रत के दौरान किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए, किसी प्रकार के तामसिक आहार व अन्न, चाय, दूध, फल, रस (जूस) आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। 

प्रात: स्नान आदि करने के बाद, व्रत का संकल्प लिया जाता है और भगवान शंकर व माता पार्वती जी की पूजा की जाती है| इस व्रत को निर्जल रहकर किया जाता है| व्रत के दिन माता का पूजन धूप, दीप व फूलों से करना चाहिए| अंत में व्रत की कथा सुनी जाती है और घर के बडों से आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है|

हरितालिका व्रत कथा-

कहते हैं कि इस व्रत के माहात्म्य की कथा भगवान् शिव ने पार्वती जी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण करवाने के उद्देश्य से इस प्रकार से कही थी- "हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इस अवधि में तुमने अन्न ना खाकर केवल हवा का ही सेवन के साथ तुमने सूखे पत्ते चबाकर काटी थी। माघ की शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश कर तप किया था। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में पंचाग्नी से शरीर को तपाया। श्रावण की मुसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न जल ग्रहन किये व्यतीत किया। तुम्हारी इस कष्टदायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ होते थे। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराज़गी को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे।

तुम्हारे पिता द्वारा आने का कारण पूछने पर नारदजी बोले - 'हे गिरिराज! मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर वह उससे विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ।' नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले- 'श्रीमान! यदि स्वंय विष्णुजी मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर कि लक्ष्मी बने।'

नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया। परंतु जब तुम्हे इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हारे दुःख का ठिकाना ना रहा। तुम्हे इस प्रकार से दुःखी देखकर, तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछने पर तुमने बताया कि - 'मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है। मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ। अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा।' तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी। उसने कहा - 'प्राण छोड़ने का यहाँ कारण ही क्या है? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिये। भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करे। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो भगवान् भी असहाय हैं। मैं तुम्हे घनघोर वन में ले चलती हूँ जो साधना थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हे खोज भी नहीं पायेंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।'

तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हे घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। वह सोचने लगे कि मैंने तो विष्णुजी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया है। यदि भगवान् विष्णु बारात लेकर आ गये और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा, ऐसा विचार कर पर्वतराज ने चारों ओर तुम्हारी खोज शुरू करवा दी। इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं। भाद्रपद तृतीय शुक्ल को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया। रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया। तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर मांगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - 'मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिये। 'तब 'तथास्तु' कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया।

प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया। उसी समय गिरिराज अपने बंधु - बांधवों के साथ तुम्हे खोजते हुए वहाँ पहुंचे। तुम्हारी दशा देखकर अत्यंत दुःखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पुछा। तब तुमने कहा - 'पिताजी, मैंने अपने जीवन का अधिकांश वक़्त कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या के केवल उद्देश्य महादेवजी को पति के रूप में प्राप्त करना था। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ। चुंकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय कर चुके थे, इसलिये मैं अपने आराध्य की तलाश में घर से चली गयी। अब मैं आपके साथ घर इसी शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह महादेवजी के साथ ही करेंगे। पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार करली और तुम्हे घर वापस ले गये। कुछ समय बाद उन्होने पूरे विधि - विधान के साथ हमारा विवाह किया।"

भगवान् शिव ने आगे कहा - "हे पार्वती! भाद्र पद कि शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका। इस व्रत का महत्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूँ।" भगवान् शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।

अगर आपने सपने में इन चीजों को देखा है तो जानिए क्या होगा आपके साथ...

आज हम आपको आपके सपनो की दुनिया में ले चल रहे हैं, आपको बता दें कि अगर आप रात में सोते समय जो भी सपना देखते हैं और सोचते होंगे कि इस सपने का मतलब क्या है| आज हम आपको सपनों के बारे में कुछ संछिप्त जानकारी देते हैं जिससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि आपने जो भी सपना देखा है उस सपने का क्या मतलब है| 

आपको बता दें कि कुछ सपने व्यक्ति अपने सपने में धन लाभ, विवाह, पत्नी, संतान, मृत्यु तथा उन्नति आदि कई बातों के बारे में पूर्व में सूचित कर देते हैं। 

जो व्यक्ति सपने में सफेद घोड़े अथवा सफेद बैल के रथ पर सवारी करता है तो उसे जल्दी ही प्रमोशन मिल जाता है, वहीँ अगर स्वप्न में किसी नगर को सेना लेकर घेरता है उसे शीघ्र ही मंत्री पद मिलता है।

जिसको स्वप्न में कस्तूरी व चंदन अपने शरीर पर लगाता है उसकी मान, प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है तथा मनचाही जगह स्थानांतरण भी हो जाता है, वहीँ जो व्यक्ति स्वप्न में विष्ठा(मल) खाता है या शरीर पर लगा हुआ देखता है उसे उच्चाधिकार प्राप्त होता है।

जो व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को फटे-पुराने वस्त्र में देखता है उसे व्यापार में अप्रत्याशित लाभ होता है, वहीँ स्वप्न में जो अपनी मां को आलिंगन करता है। उसे धन लाभ तथा पद वृद्धि दोने के योग होते हैं।

जो व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है उसे कार्यस्थल पर मान-सम्मान मिलता है, वहीँ स्वप्न में जिसे चमकती तलवार, छुरी अथवा शंख दिखाई देता है उसे राज्य पद की प्राप्ति होती है।

जो व्यक्ति स्वप्न में लाल वस्त्र धारण करता है। कार्यस्थल पर उसकी प्रशंसा होती है तथा प्रमोशन भी शीघ्र ही हो जाता है, वहीँ स्वप्न में जिसे सागर की लहरों की आवाज सुनाई देती है उसके व्यापार में शीघ्र लाभ होता है।

स्वप्न में यदि कोई गाय, बैल, पक्षी व हाथी पर चढ़कर समुद्र को पार करता है तो वह शीघ्र ही अपने क्षेत्र में राजा के समान हो जाता है, वहीँ जो व्यक्ति घोड़े पर सवार होकर दूध पीता है उसे राज्य पद मिलता है।

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सपा दूसरे राज्यों में भी तलाश रही सियासी जमीन

लोकसभा चुनाव में दिल्ली की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने को आतुर समाजवादी पार्टी (सपा) ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सीमाओं से परे अन्य सूबों में अपना जनाधार बढ़ाने की कयावद तेज कर दी है। सपा ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर लोकसभा चुनाव में 'किंगमेकर' बनने के साथ अपने ऊपर लगे 'क्षेत्रीय दल' के ठप्पे को भी हटाना चाहती है। 

सपा की बड़ी योजना दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों के अखाड़े में उतरकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने और झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक में जनाधार बढ़ाने की है, ताकि इसका फायदा वह लोकसभा चुनाव में उठा सके। राष्ट्रीय राजनीति में काफी दखल रखने और लोकसभा सदस्यों की संख्या के हिसाब से देश की सबसे बड़ी चार पार्टियों में शामिल होने के बावजूद सपा को अभी तक राष्ट्रीय दल का दर्जा प्राप्त नहीं है और वह एक राज्यस्तरीय दल ही है। 

सपा सूत्रों के मुताबिक, पार्टी के रणनीतिकारों की योजना अन्य राज्यों में सपा का दखल बढ़ाकर लोकसभा में किंगमेकर की भूमिका अदा करने के साथ पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा दिलाने की है। उत्तर प्रदेश की भौगोलिक परिधि से परे दूसरे राज्यों में दखल बढ़ाने की योजना के तहत ही सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लगातार दौरे कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के बाद इसी मंशा से अखिलेश यादव ने झारखंड का दो दिन का दौरा किया और गुरुवार को रांची में एक कार्यकर्ता सम्मेलन में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर हमला बोलकर झारखंड के लोगों को रिझाने की कोशिश की।

अखिलेश ने साफ किया कि आगामी लोकसभा चुनाव में सपा झारखंड सहित अन्य प्रदेशों में संगठन खड़ा करेगी। इसके लिए लगातार स्थानीय नेताओं द्वारा सम्मेलन आयोजित कर सपा की नीतियों का प्रसार किया जाएगा। उन्होंने कहा कि जिन संसदीय क्षेत्रों में पार्टी का संगठन मजबूत दिखेगा वहां सपा अपने उम्मीदवार खड़े करेगी।

सूत्रों के मुताबिक, तीसरे मोर्चे की संभावनाओं के मद्देनजर सपा लोकसभा चुनाव में एक बड़ी ताकत बनना चाहती है। तीसरा मोर्चा बनने की स्थिति में सपा के पास अगर 40 से 50 सीटें रहीं तो वह गठबंधन सरकार की अगुवा तो रहेगी ही, साथ ही उसके नेता मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने के सपने को भी पंख लग जाएंगे।

सपा के प्रवक्ता एवं उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री राजेंद्र चौधरी ने कहा कि सपा की नीतियों के प्रति अब देशव्यापी उत्सुकता है। कई राज्यों में इसके संगठन का विस्तार हुआ है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, राजस्थान झारखंड एवं मध्य प्रदेश का दौरा कर सपा के वरिष्ठ नेता वहां पार्टी संगठन को नई गति दे आए हैं। वहां हुई विशाल सभाओं से संकेत मिलता है कि सपा की लोकप्रियता कितनी तेजी से बढ़ रही है। 

चौधरी ने कहा कि जनता मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से त्रस्त है। भाजपा और कांग्रेस के पास इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। जनता अब अपने सवालों के जवाब चाहती है और विकल्प के रूप में तीसरी ताकतों की ओर आशा भरी निगाहों से देख रही है।

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प्रेम कहानी की याद में बरसाते हैं पत्थर

 भले ही युग बदल गया हो, मगर परंपराएं अब भी बरकरार हैं। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में लगने वाला गोटमार मेला परंपरा का एक प्रमाण है। एक प्रेम कहानी की याद में लगने वाले इस मेले में लड़के और लड़की पक्ष से नाता रखने वाले गांव के लोग एक-दूसरे पर जमकर पत्थर बरसाते हैं और उन्हें इस पत्थर मार युद्घ में किसी की जान लेने से भी परहेज नहीं होता। 

छिंदवाड़ा जिले के पांढुर्ना में हर साल पोला त्योहार के बाद गोटमार मेला लगता है। किंवदंती है कि जाम नदी के दोनों ओर बसे पांढुर्ना व सावरगांव के बीच एक प्रेम कहानी को लेकर युद्घ हुआ था। सावरगांव की लड़की को पांढुर्ना के लड़के से मोहब्बत थी। 

किंवदंती के मुताबिक पांढुर्ना का लड़का जब अपनी प्रेमिका को सावरगांव से लेकर लौट रहा था, तभी उस पर सावरगांव के लोगों ने अपनी इज्जत से जोड़कर प्रेमीयुगल पर पत्थरों से हमला कर दिया। प्रेमी जोड़े को जान बचाने के लिए जाम नदी में शरण लेनी पड़ी और पांढुर्ना के लोग अपने गांव के लड़के के बचाव में सामने आकर पत्थर चलाने लगते हैं। बाद में प्रेमी युगल को गंभीर हालत में चंडी के मंदिर में लाकर विवाह कराया जाता है। इसी कहानी की याद में हर साल पोला के अगले दिन गोटमार मेला लगता है। 

इस मेले के दौरान जाम नदी के बीच में एक झंडा लगाया जाता है और सावरगांव व पांढुर्ना के लोग नदी के दोनों ओर जमा होकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। जो झंडे पर कब्जा कर लेता है, उसे ही विजेता माना जाता है। पिछले सालों में इस पत्थरबाजी में कई लोगों की जान भी जा चुकी है। क्षेत्रीय जानकार अनंत जोशी बताते है कि यह परंपरा वषरें से चली आ रही है और इसको लेकर किंवदंती भी है। कहा जाता है कि एक प्रेम कहानी को लेकर पत्थर युद्घ हुआ था, यह कब हुआ था इसका कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। प्रशासन ने इसे रोकने की भी कोशिश की मगर लोगों की अस्था से जुड़ा मामला होने के कारण इस पर रोक नहीं लग पाई है। 

इस गोटमार मेले में कम से कम लोग आहत हों इसके लिए जिला प्रशाासन ने कई बार कोशिश की। एक बार तो मेला स्थल के इर्द गिर्द से पत्थरों को भी हटा दिया गया था और लोगों को सलाह दी गई थी कि वे रबर की गेंद का इस्तेमाल करें मगर बात नहीं बनी। प्रशासन ने इस बार भी आयोजन स्थल पर निषेधाज्ञा लागू कर दी है, साथ ही लोगों को सलाह दी गई है कि वे परंपरा को तो निभाएं मगर किसी को ज्यादा नुकसान न पहुंचे इसका ध्यान रखें। अनुविभागीय अधिकारी राजस्व एस. सी. गंगवानी ने बताया है कि प्रशासन ने किसी अनहोनी को रोकने के पुख्ता इंतजाम किए हैं। बड़े पत्थरों की बजाय छोटे पत्थरों के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है। साथ ही चिकित्सा के भी इंतजाम किए गए हैं, ताकि घायलों का मौके पर ही इलाज किया जा सके। 

गंगवानी ने बताया है कि मेले में आने वाले लोग पत्थरबाजी में कम से कम शामिल हों, इसके लिए प्रशासन ने दूसरे खेलों का भी आयोजन किया है। इसके अलावा सुरक्षा के भी पुख्ता इंतजाम किए गए हैं। परंपरा के नाम पर खून बहाने का यह खेल शुक्रवार छह सितंबर को फिर खेला जा रहा है। प्रशासन की कोशिश कम से कम लोगों को आहत होने देने की है, वहीं सावरगांव व पांढुर्ना के लोगों में जीत की होड़ मची है।

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सपने में दिखे सांप तो समझ जाएँ, कुंडली में हो सकता है काल सर्प दोष

जिस जातक की कुंडली में काल सर्प योग होता है, उसके जीवन में अनेक प्रकार की बाधाओं, हानि-परेशानी, दिक्कतों का सामना करना पडता है| जैसे, विवाह, सन्तान में विलम्ब, दाम्पत्य जीवन में असंतोष, मानसिक अशांति, स्वास्थय हानि, धनाभाव एवं प्रगति में रूकावट आदि| आज आपको बताते हैं कि आप कैसे जान सकते हैं कि आपकी कुंडली में काल सर्प योग है| अगर आपको सपने में सर्प दिखाई देता है तो निश्चित ही आपकी कुंडली में कालसर्प योग होगा।

अगर आप सपने में यह देखते हैं तो समझ जाइए कि आपकी कुंडली में काल सर्प योग है-

सोते हुए सर्प को अपने शरीर की तरफ आते देख घबरा जाना।

सांप के जोड़े को हाथ पैरों में लिपटा हुआ देखना।

पानी पर तैरता हुआ सांप देखना।

सपने में असंख्य सांप दिखाई देना। 

सपने में सांप को उड़ता हुआ देखना।

काल सर्प दोष के निवारण के लिए बारह ज्योतिर्लिंग के अभिषेक एवं शांति का विधान बताया गया है। यदि द्वादश ज्योतिर्लिंग में से केवल एक नासिक स्थित त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग का नागपंचमी के दिन अभिषेक, पूजा की जाए तो इस दोष से हमेशा के लिए मुक्ति मिलती है।

लेकिन हम आपको आज एक ऐसा करने में असमर्थ हैं तो करें ये सरल उपाय-

उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचंद्रेश्वर मंदिर (जो केवल नागपंचमी के दिन ही खुलता है) के दर्शन करें। सर्प सूक्त से उनकी आराधना करें। दुग्ध,शकर, शहद से स्नान व अभिषेक करें। यदि शुक्ल यजुर्वेद में वर्णित भद्री द्वारा नागपंचमी के दिन महाकालेश्वर की पूजा की जाए तो इस दोष का शमन होता है।

कालसर्प योग शांति के लिए नागपंचमी के दिन व्रत करें और काले पत्थर की नाग देवता की एक प्रतिमा बनवा कर उसकी किसी मन्दिर में प्रतिष्ठा करवा दें| इसके आलावा काले नाग-नागिन का जो़ड़ा सपेरे से मुक्त करके जंगल में छो़ड़ें।

ताँबा धातु की एक सर्पमूर्ति बनवाकर अपने घर के पूजास्थल में स्थापित करें, एक वर्ष तक नित्य उसका पूजन करने के बाद उसे किसी नदी/तालाब इत्यादि में प्रवाहित कर दें|

श्रावण कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि अर्थात नागपंचमी को उपवास रखें और उस दिन सर्पाकार सब्जियाँ खुद न खाकर, न अपने हाथों काटकर बल्कि उनका किसी भिक्षुक को दान करें|

नागपंचमी के दिन रुद्राक्ष माला से शिव पंचाक्षर मंत्र ॐ नमः शिवाय का जप करने से भी इसकी शांति होती है और इस दिन बटुक भैरव यंत्र को पूजास्थल पर रखने से भी इसका शमन होता है।

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गुरु बिनु ज्ञान कहाँ जग माही

गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगौ पांय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय ' भगवान से भी ऊँचा दर्जा पाने वाले गुरुजनों के सम्मान के लिए एक दिन है व है शिक्षक दिवस | भारत में शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) के मौके पर शिक्षा क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान देने वाले कई शिक्षकों को प्रति वर्ष राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया जाता है| यह सम्मान शिक्षकों को उनके पेशे के लिए नहीं बल्कि उनकी शिक्षा देने के भावना और उनके शिक्षण के प्रति समर्पण के लिए दिया जाता है| 

शिक्षक दिवस का महत्व-

'शिक्षक दिवस' कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है। लेकिन क्या आप इसके महत्व को समझते हैं। शिक्षक दिवस का मतलब साल में एक दिन बच्चों के द्वारा अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल या ‍कोई भी उपहार नहीं है और यह शिक्षक दिवस मनाने का सही तरीका भी नहीं है।

आप अगर शिक्षक दिवस का सही महत्व समझना चाहते है तो सर्वप्रथम आप हमेशा इस बात को ध्यान में रखें कि आप एक छात्र हैं, और ‍उम्र में अपने शिक्षक से काफ़ी छोटे है। और फिर हमारे संस्कार भी तो हमें यही सिखाते है कि हमें अपने से बड़ों का आदर करना चाहिए। हमको अपने गुरु का आदर-सत्कार करना चाहिए। हमें अपने गुरु की बात को ध्यान से सुनना और समझना चाहिए। अगर आपने अपने क्रोध, ईर्ष्या को त्याग कर अपने अंदर संयम के बीज बोएं तो निश्‍चित ही आपका व्यवहार आपको बहुत ऊँचाइयों तक ले जाएगा। और तभी हमारा शिक्षक दिवस मनाने का महत्व भी सार्थक होगा।

क्यों मनाते हैं शिक्षक दिवस-

शिक्षक दिवस वैसे तो पूरे विश्व में मनाया जाता है लेकिन अलग-अलग तिथियों को। भारत में यह दिवस पूर्व राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस पांच सितम्बर को मनाया जाता है। देश में शिक्षक दिवस मनाने की परम्परा तब शुरू हुई जब डॉ. राधाकृष्णन 1962 में राष्ट्रपति बने और उनके छात्रों एवं मित्रों ने उनका जन्मदिन मनाने की उनसे अनुमति मांगी।

स्वयं 40वर्षो तक शिक्षण कार्य कर चुके राधाकृष्णन ने कहा कि मेरा जन्मदिन मनाने की अनुमति तभी मिलेगी जब केवल मेरा जन्मदिन मनाने के बजाय देशभर के शिक्षकों का दिवस आयोजित करें।’ बाद से प्रत्येक वर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाने लगा।

आपको बता दें कि राधाकृष्णन का जन्म पांच सितम्बर 1888 को मद्रास (चेन्नई) के तिरुत्तानी कस्बे में हुआ था। उनके पिता वीरा समय्या एक जमींदारी में तहसीलदार थे। उनका बचपन एवं किशोरावस्था तिरुत्तानी और तिरुपति (आंध्र प्रदेश) में बीता। उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से एम.ए.की पढ़ाई पूरी की तथा ‘वेदांत के नीतिशास्त्र’ पर शोधपत्र प्रस्तुत कर पी.एचडी. की उपाधि हासिल की। 

मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज के दर्शनशास्त्र विभाग में 1909 में वह व्याख्याता नियुक्त किए गए। फिर 1918 में मैसूर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने। लंदन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वह 1936 से 39 तक पूर्व देशीय धर्म एवं नीतिशास्त्र के प्रोफेसर रहे। राधाकृष्णन 1939 से 48 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

वर्ष 1946 से 52 तक राधाकृष्णन को यूनेस्को के प्रतिनिधिमंडल के नेतृत्व का अवसर मिला। वह रूस में 1949 से 52 तक भारत के राजदूत रहे। 1952 में ही उन्हें भारत का उपराष्ट्रपति चुना गया। मई 1962 से मई 1967 तक उन्होंने राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया।

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मानना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनना चाहिए जो सर्वाधिक योग्य व बुद्धिमान हों। उनका स्पष्ट कहना था कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता है और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता है, तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती है। शिक्षक को छात्रों को सिर्फ पढ़ाकर संतुष्ट नहीं होना चाहिए, शिक्षकों को अपने छात्रों का आदर व स्नेह भी अर्जित करना चाहिए। सिर्फ शिक्षक बन जाने से सम्मान नहीं होता, सम्मान अर्जित करना महत्वपूर्ण है|