'ठक-ठक' गिरोह से बचकर रहिए नहीं तो....

अपनी कार में बैठे हुए आप लाल बत्ती के हरा होने का इंतजार कर रहे हों या किसी बाजार एवं भीड़ भरे इलाके में कार खड़ी कर उसके अंदर बैठे किसी का इतजार कर रहे हो, और कोई अनजान व्यक्ति आपकी कार का सीसा ठकठकाए तो भूलकर भी खोलिए मत। वरना आप राष्ट्रीय राजधानी में सक्रिय 'ठक-ठक' गिरोह का शिकार हो सकते हैं। 

राष्ट्रीय राजधानी में सक्रिय यह 'ठक-ठक' गिरोह आपका ध्यान चूकते ही कार में से आपकी मूल्यवान वस्तुएं लूट या चुरा सकता है। पुलिस ने बताया कि नई दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में इस तरह के कई गिरोह सक्रिय हैं, और इस वर्ष अब तक काफी लोगों को लूट चुके हैं।

जनवरी से लेकर 15 सितंबर तक यह गिरोह ऐसी कई लूट की वारदातों को अंजाम दे चुका है, जिनमें करोल बाग से एक कार से 40 लाख रुपये से ज्यादा की चोरी, चांदनी चौक के एक व्यापारी से 60 लाख रुपये से ज्यादा की नकदी लूट और सफदरजंग के एक जौहरी से उत्तर प्रदेश के मुरादनगर से 50 लाख रुपयों के जवाहरातों की लूट शामिल है।

चांदनी चौक के व्यापारी मृदुल जैन ने अपने साथ हुई लूट की घटना के बारे में बताया कि वह उप्र के मेरठ से अपनी कार से आ रहे थे कि 14 एवं 15 वर्ष की आयु के दो किशोरों ने उनकी कार का शीशा खटखटा कर उन्हें बताया कि उनकी कार से तेल रिस रहा है।

मृदुल ने बताया, "जब मैं तेल के रिसाव की जांच के लिए कार से उतरा, इसी दौरान कार की पिछली सीट पर रखा 60 लाख रुपयों से भरा मेरा बैग चोरी हो गया। दोनों किशोर भी गायब थे।"
पुलिस उपायुक्त (दक्षिण) बी. एस. जायसवाल ने बताया, "दक्षिणी दिल्ली पुलिस ने मई महीने में दोनों किशोरों को धर दबोचा। दोनों ने इस तरह के कई मामलों में अपनी संलिप्तता स्वीकार कर ली।"

सितंबर की शुरुआत में दिल्ली पुलिस ने विभिन्न स्थानों से अलग-अलग गैंग के तीन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। पुलिस उपायुक्त (दक्षिणी पूर्व) पी. करुणाकरन ने बताया, "गिरफ्तार संदिग्धों में एक बात समान पाई गई कि वे सभी तमिलनाडु के त्रिची के रहने वाले हैं।"

लूट एवं चोरी की वारदातों को अंजाम देने वाले इन गिरोहों को 'ठक-ठक' गिरोह नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि वे पहले कार का शीशा खटखटाते हैं, फिर शीशा खुलने पर कार मालिक को पता चलने से पहले कार में पड़ी मूल्यवान वस्तुएं चुरा ले जाते हैं।

अतिरिक्त पुलिस आयुक्त कुलवंत सिंह ने बताया कि वे किसी संगठित गिरोह का हिस्सा नहीं हैं। उन्होंने बताया कि वे पिछले आठ वर्षो से राजधानी में सक्रिय हैं और उनकी संख्या का सही-सही पता तो नहीं है, लेकिन वे हजारों की संख्या में हो सकते हैं।
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कुत्ते ने रक्तदान कर बचाई बिल्ली की जान

अभी तक आपने केवल मनुष्यों को ही रक्तदान करते हुए सुना होगा, लेकिन यदि आपसे कोई जानवर को रक्तदान करने की बात कहे तो शायद आपको उसकी बात पर विश्वास न हो लेकिन एक ऐसी खबर आ रही है जिसे सुनकर आप भी हैरान हो जायेंगे खबर है न्यूजीलैंड की जहाँ एक बिल्ली को बचाने के लिए एक कुत्ते ने रक्तदान किया| 

प्राप्त जानकारी के अनुसार, न्यूजीलैंड में एक लैब्रोडोर नस्ल के कुत्ते ने बिल्ली को बचाने के लिए रक्त दिया। हालांकि कुत्ते और बिल्ली का कोई रिश्ता नहीं होता है ऐसे में कुत्ते ने उस समय बिल्ली को खून देकर जान बचाई जिस समय वह जिंदगी और मौत की घड़ी में जूझ रही थी| पशु चिकित्सक का कहना है कि बिल्ली ने गलती से चूहे मारने की दवा खा ली थी, जिससे उसकी हालत एकदम खराब हो गयी थी। 

बिल्ली की मालकिन किम ने बताया कि रोरी यानि की बिल्ली की तबियत बिल्कुल बिगड़ती ही जा रही थी, हमारे पास बिल्कुल भी वक्त नहीं था कि हम एक बिल्ली का खून लें और उसे लैब में मैच करवाकर रोरी को दें तभी मैनें अपने दोस्त से बात की जिनके पास लैब्रोडोर प्रजाति का कुत्ता है। उस कुत्ते के रक्त को टेस्ट करके बिल्ली को चढ़ाया गया और बिल्ली ठीक हो गयी।
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एक कामाख्या झारखंड में भी


नवरात्र यानी दुर्गापूजा शुरू हो गई है। शक्ति स्वरूपा देवी मां की पूजा के लिए श्रद्धालु देश के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में पहुंच रहे हैं। ऐसी ही एक शक्तिपीठ झारखंड के गोड्डा जिले में है जिसे मां योगिनी स्थल नाम से जाना जाता है। 

पथरगामा प्रखंड में स्थित मां योगिनी मंदिर तंत्र साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। तंत्र विद्या के साधक इस प्राचीन मंदिर को असम केकामाख्या मंदिर के समकक्ष मानते हैं।

शिव पुराण के अनुसार, पति भगवान शंकर के अपमान से आहत सती के अग्निकुंड में कूदने के बाद उनके जलते शरीर को लेकर जब शिव तांडव करने लगे थे तब भगवान विष्णु ने अपने चक्र सुदर्शन से सती के शव को विच्छिन्न किया था। सती के अंग विभिन्न जगहों पर गिरे और मान्यता है कि उनकी बाईं जांघ यहीं गिरी थी। लेकिन इस सिद्धस्थल को गुप्त रखा गया था।

विद्वानों के मुताबिक, हमारे पुराणों में 51 सिद्धपीठों का वर्णन है, लेकिन योगिनी पुराण के अनुसार वास्तव में 52 सिद्धपीठ हैं।

मंदिर में साधना कर रहे पंडित देव ज्योति हलधर बताते हैं कि शहर की गहमागहमी से दूर यह मंदिर तंत्र साधना के लिए कामाख्या मंदिर के समकक्ष है। दोनों मंदिरों में पूजा के विधि-विधान एक सामान हैं। वहां के मंदिर में भी तीन दरवाजे हैं और यहां के मंदिर में भी वैसा ही है। कामाख्या मंदिर की तरह योगिनी मंदिर में भी पिंड की पूजा होती है।

वे कहते हैं कि योगिनी मां अष्टमालिका की सहचरणी हैं। नवरात्र और काली पूजा की रात में यहां विशेष मंत्र सिद्धि के लिए सैकड़ों तांत्रिक आते हैं। माना जाता है कि वास्तु और ग्रह-नक्षत्र के अनुसार मां की अराधना की जाए तो मंत्र सिद्धि आसानी से प्राप्त हो जाती है।

गोड्डा जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर की दूरी पर बारकोपा स्थित मां योगिनी मंदिर का काफी पुराना इतिहास रहा है। ऐतिहासिक और धार्मिक पुस्तकों के अनुसार, द्वापरकालीन इस मंदिर में पांडवों ने अपने अज्ञातवास के कई दिन यहां गुजारे थे, जिसकी चर्चा महाभारत में भी की गई है। तब यह मंदिर गुप्त योगिनी के नाम से प्रसिद्ध था।

पथरगामा के एक बुजुर्ग बताते हैं कि पहले यहां नर बलि दी जाती थी जिसे अंग्रेजों के शासन काल में बंद करवाया गया था। वे कहते हैं कि मंदिर के सामने स्थित वटवृक्ष काफी पुराना है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार, साधक पहले इस वटवृक्ष पर बैठकर साधना किया करते थे।

पुजारी आशुतोष बताते हैं कि इस मंदिर में प्रतिदिन 400 से 500 श्रद्धालु पहुंचते हैं, परंतु नवरात्र के दिनों में भक्तों की भीड़ बढ़ जाती है। मान्यता है कि यहां सच्चे मन से आने वाले लोगों की पीड़ा मां दूर करती हैं। योगिनी पुराण के मुताबिक, मां योगिनी सभी देवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

इस मंदिर की विशेषता है उसका गर्भगृह। 354 सीढ़ियां ऊपर चढ़ने पर पहाड़ पर मां का गर्भगृह दिखाई देता है। गर्भगृह के अंदर जाने के लिए एक गुफा से होकर गुजरना पड़ता है। बाहर से देखने पर गुफा में अंधेरा नजर आता है, लेकिन प्रवेश करते ही प्रकाश ही प्रकाश नजर आता है, जबकि गुफा के अंदर बिजली की व्यवस्था नहीं है। श्रद्धालु इसे चमत्कार मानते हैं।

बाहर से गुफा का द्वार और अंदर चारों तरफ नुकीले पत्थरों को देखकर लोग अंदर जाने से घबराते हैं, लेकिन देखा गया है कि मोटा से मोटा व्यक्ति भी इस संकरी गुफा में आसानी से प्रवेश कर जाता है और मां का जयकारा लगाते हुए सकुशल निकल आता है। गुफा के अंदर टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता है। अंदर गर्भगृह में भी कई साधु अपनी साधना में लीन रहते हैं।

स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि पांच दशक पूर्व तक यहां लोगों की कम आवाजाही थी। घने जंगल के बीच मंदिर होने के कारण काफी कम लोग यहां पहुंचते थे, लेकिन अब यहां लोगों की भीड़ लगी रहती है। कहा जाता है कि एक साधक ने यहां आकर गुफा में गर्भगृह होने का खुलासा किया था।

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क्या नेताओं की भी होनी चाहिए सेवानिवृत्ति उम्र?

क्या नेताओं को भी एक निश्चित उम्र के बाद सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद जनप्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने के बाद छात्रों, युवा पेशेवरों और कारोबारियों के बीच इस सवाल का उत्तर हां है। 

चिकित्सा पेशे से जुड़े ए. हैरिस ने कहा, "हां, हर लिहाज से, चुनावी राजनीति के लिए सेवानिवृत्ति की उम्र तय की जानी चाहिए और जितनी जल्दी यह काम हो जाए उतना ही अच्छा रहेगा।" उन्होंने कहा कि बुजुर्गो में मतिभ्रम और दिमाग से संबंधित क्षीणता (बेकार होना या आकार में कम होना) आम बात है।

सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले महीने व्यवस्था दी कि किसी भी अदालत से दोषी करार दिए जाने के बाद जनप्रतिनिधि को अयोग्य करार दिया जाए भले ही संबंधित जनप्रतिनिधि की अपील ऊपर की अदालत में लंबित क्यों न हो। ऐसे नेता को छह वर्षो तक चुनाव लड़ने से भी प्रतिबंधित किया जाए। 

इस फैसले के बाद कांग्रेस के राज्यसभा सांसद रशीद मसूद ऐसे पहले जनप्रतिनिधि हैं जिन्हें अपनी सदस्यता खोनी पड़ेगी। उन्हें भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषी ठहराया गया है। इसके बाद पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी ठहराए गए। सेंटर फॉर डेवलपमैंट के काम करने वाले जे. मुरलीधरन ने हालांकि कहा कि राजनीति कोई पेशा नहीं है, बल्कि सेवा है। अत: किसी के दिमागी रूप से और शारीरिक रूप से स्वस्थ होने पर उम्र कोई मुद्दा नहीं रह जाता।

राज्य सरकार के कर्मचारी 56 वर्ष की उम्र होने पर सेवानिवृत्त हो जाते हैं, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र में 58 और केंद्र सरकार के कर्मचारी 60 वर्ष की उम्र होने पर सेवा से मुक्त हो होते हैं। एक पेशेवर पाठ्यक्रम के छात्र जी. एस. विवेक ने कहा, "जब सभी की सेवानिवृत्ति की उम्र होती है तो नेताओं की भी उम्र तय होनी चाहिए। हम बार-बार एक ही चेहरे को देखते रहते हैं।" उन्होंने कहा, "बदलाव का सदैव स्वागत है।"
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बेगम अख्तर: सुरीले सफर की दिलकश मुसाफिर

भारत में ऐसे कई गायक हुए हैं जिनकी दशकों पहले की आवाज का जादू आज भी कायम है, ऐसी ही एक गायिका थीं बेगम अख्तर। सात अक्टूबर, 1914 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में जन्मी प्रतिभाशाली अख्तरी बाई, यानी, बेगम अख्तर आगे चलकर 'मल्लिका-ए-गजल' कहलाई और पद्मभूषण से सम्मानित हुईं। 

कौन जानता था कि वह अपनी मखमली आवाज में गजल, ठुमरी, ठप्पा, दादरा और ख्याल पेश कर संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करेंगी और देश की विख्यात गायिका बनेगी। बेगम अख्तर का वास्तविक नाम 'अख्तरी बाई फैजाबादी' था। वह एक कुलीन परिवार से ताल्लुक रखती थीं। बेहद कम उम्र में उन्होंने संगीत सीखने में रुचि दिखाई। उन्हें उस जमाने के विख्यात संगीत उस्ताद अता मुहम्मद खान, अब्दुल वाहिद खान और पटियाला घराने के उस्ताद झंडे खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत की दीक्षा दिलाई गई। 

अख्तरी बाई फैजाबादी उर्फ बेगम अख्तर ने 15 वर्ष की छोटी उम्र में मंच पर अपनी पहली प्रस्तुति दी थी। यह कार्यक्रम वर्ष 1930 में बिहार में आए भूकंप के पीड़ितों के लिए आर्थिक मदद जुटाने के लिए आयोजित किया गया था, जिसकी मुख्य अतिथि प्रसिद्ध गायिका सरोजनी नायडू थीं। वह बेगम अख्तर की गायिकी से इस कदर प्रभावित हुईं कि उन्हें उपहार स्वरूप एक साड़ी भेंट की।

उस कार्यक्रम में बेगम ने गजल 'तूने बूटे हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई, ताकता तेरी सूरत हरेक तमाशाई' और दादरा 'सुंदर साड़ी मोरी मायके मैलाई गई' से समां बांधा था। वर्ष 1945 में लखनऊ के एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से निकाह के बाद अख्तरी बाई को बेगम अख्तर के नाम से जाना गया।

'दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे..', 'कोयलिया मत कर पुकार करेजा लगे कटार'.., 'छा रही घटा जिया मोरा लहराया है' जैसे गीत उनके प्रसिद्ध गीतों में शामिल हैं। शकील बदायूंनी की गजल 'ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया' उनकी सबसे मशहूर गजल है।

बेगम साहिबा ने वर्ष 1930 और 1940 में कुछ हिंदी फिल्मों जैसे 'एक दिन की बादशाहत', 'नल दमयंती' (1933), 'अमीना', 'मुमताज बेगम' (1934), 'जवानी का नशा' (1935), 'नसीब का चक्कर' (1936) जैसी फिल्मों में अभिनय भी किया। महबूब खान की 'रोटी' (1942) उनकी प्रसिद्ध फिल्म थी। इसमें उन्होंने छह गीत गाए थे।

मलिका-ए-गजल की मखमली आवाज आम-ओ खास को अपना दीवाना बना चुकी थी। शास्त्रीय गायक पंडित जसराज स्कूल के दिनों से ही उनके जबर्दस्त प्रशंसक रहे हैं। इस बात का खुलासा उन्होंने स्वयं एक साक्षात्कार में किया है।

कला क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने बेगम अख्तर को संगीत नाटक अकादमी (1972), पद्मश्री (1968) और पद्मभूषण (1975) से सम्मानित किया। 30 अक्टूबर, 1974 को बेगम अख्तर ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, "वह एकमात्र ऐसी गायिका थीं, जो गजल गायन में लफ्जों का हमेशा सही उच्चारण करती थीं।" वह अपने प्रशंसकों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेंगी।
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भगवती दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम है चंद्रघंटा, आज करें इनकी पूजा

भगवती दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम है चंद्रघंटा | नवरात्रि के तीसरे दिन आदि-शक्ति माँ दुर्गा के तृतीय स्वरूप माँ चंद्रघंटा की पूजा की जाती है| माँ का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। माँ चन्द्रघण्टा अपने भक्तों की सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं और इनकी कृपा से समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं । इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्ज्वल है, इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक चडंध्वनि से दानव, अत्याचारी, दैत्य, राक्षस डरते रहते हैं। चंद्रघंटा की कृपा से साधक को अलौकिक दर्शन होते हैं, दिव्य सुगन्ध और विविध दिव्य ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं । माँ चन्द्रघंटा की कृपा से साधक के इनकी अराधना सद्य: फलदायी है। इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, अत: भक्तों के कष्ट का निवारण ये शीघ्र कर देती हैं । इनका वाहन सिंह है, अत: इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेत-बाधादि से रक्षा करती है । दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका स्वरूप दर्शक और अराधक के लिए अत्यंत सौम्यता एवं शान्ति से परिपूर्ण रहता है । 

माँ चंद्रघंटा का उपासना मंत्र- 

समस्त भक्त जनों को देवी चंद्रघंटा की वंदना करते हुए कहना चाहिए ” या देवी सर्वभूतेषु चन्द्रघंटा रूपेण संस्थिता. नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:”.. 

अर्थात देवी ने चन्द्रमा को अपने सिर पर घण्टे के सामान सजा रखा है उस महादेवी, महाशक्ति चन्द्रघंटा को मेरा प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है| इस प्रकार की स्तुति एवं प्रार्थना करने से देवी चन्द्रघंटा की प्रसन्नता प्राप्त होती है|

देवी चंद्रघंटा की पूजन विधि-

माँ चंद्रघंटा की जो व्यक्ति श्रद्धा एवं भक्ति भाव सहित पूजा करता है उसे मां की कृपा प्राप्त होती है जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है| मां के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है जिससे वह जहां भी होते हैं वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है, इनके घंटे की ध्वनि सदैव भक्तों की प्रेत-बाधा आदि से रक्षा करती है तथा उस स्थान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है|

तीसरे दिन की पूजा का विधान भी लगभग उसी प्रकार है जो दूसरे दिन की पूजा का है. इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी-देवता, तीर्थों, योगिनियों, नवग्रहों, दशदिक्पालों, ग्रम एवं नगर देवता की पूजा अराधना करें फिर माता के परिवार के देवता, गणेश, लक्ष्मी, विजया, कार्तिकेय, देवी सरस्वती एवं जया नामक योगिनी की पूजा फिर देवी चन्द्रघंटा उसके बाद भगवान शंकर और ब्रह्मा की पूजा करते हैं|

माँ भगवती चन्द्रघंटा का ध्यान-

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।

सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥

मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।

खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥

पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।

मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥

प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।

कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥

माँ भगवती चन्द्रघंटा का स्तोत्र पाठ-

आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।

अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥

चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।

धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥

नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।

सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥

माँ भगवती चन्द्रघंटा का कवच मंत्र -

रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।

श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥

बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं।

स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥

कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥
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नवरात्रि के दूसरे दिन करें माँ ब्रम्ह्चारिणी की पूजा

नवरात्रि के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना का विधि विधान है| माँ ब्रह्मचारिणी का स्वरूप उनके नाम अनुसार ही तपस्विनी है| देवी दुर्गा का यह दूसरा रूप भक्तों और सिद्धों को अकाट्य फल देने वाला है| भगवती दुर्गा का द्वितीय रूप माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा इस वर्ष 6 अक्टूबर दिन रविवार को होगी| इनका नाम ब्रह्मचारिणी इसलिए पड़ा क्योंकि इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इसी कारण ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं| कहा जाता है कि ब्रह्मचारिणी देवी, ज्ञान, वैराग्य, और ध्यान की देवी हैं। इनकी पूजा से विद्या के साथ साथ ताप, त्याग, और वैराग्य की प्राप्ति होती है। जब मानसपुत्रों से सृष्टि का विस्तार नहीं हो पाया था तो ब्रह्मा की यही शक्ति स्कंदमाता के रूप में आयी। स्त्री को इसी कारण सृष्टि का कारक माना जाता है। माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा से मनुष्य को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है, तथा जीवन की अनेक समस्याओं एवं परेशानियों से छुटकारा मिलता है|


माँ ब्रह्मचारिणी की पूजन विधि-


भगवती दुर्गा की नौ शक्तियों में से द्वितीय शक्ति देवी ब्रह्मचारिणी का है| ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली अर्थात तप का आचरण करने वाली मां ब्रह्मचारिणी| माँ ब्रह्मचारिणी साक्षात ब्रह्म का स्वरूप हैं| माँ ब्रह्मचारिणी को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे तपश्चारिणी, अपर्णा और उमाइस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में स्थित होता है| इस चक्र में अवस्थित साधक मां ब्रह्मचारिणी जी की कृपा और भक्ति को प्राप्त करता है| यह देवी शांत और निमग्न होकर तपस्या में लीन हैं| इनके मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है जो तीनों लोको को उजागर कर रहा है| माँ ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बायें हाथ में कमण्डल होता है|

सर्वप्रथम हमने जिन देवी-देवताओ एवं गणों व योगिनियों को कलश में आमत्रित किया है उनकी फूल, अक्षत, रोली, चंदन, से पूजा करते हैं | उन्हें दूध, दही,शक्कर, घी, व शहद से स्नान करायें व देवी को जो कुछ भी प्रसाद अर्पित कर रहे हैं उसमें से एक अंश इन्हें भी अर्पण करते हैं| प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारी भेंट कर इनकी प्रदक्षिणा करते हैं| उसके पश्चात घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करते हैं | कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करते हैं| इनकी पूजा के पश्चात मॉ ब्रह्मचारिणी की करते हैं|

माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा करते समय अपने हाथों में एक पुष्प लेकर माँ भगवती की ऊपर लिखे मंत्र के साथ प्रार्थना करते हैं | इसके पश्चात माँ को पंचामृत स्नान करते हैं| और फिर भांति भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें देवी को अरूहूल का फूल या लाल रंग का एक विशेष फूल और कमल की माला पहनाये क्योंकि माँ को काफी पसंद है| अंत में इस मंत्र के साथ “आवाहनं न जानामि न जानामि वसर्जनं, पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरी..माँ ब्रम्ह्चारिणी से क्षमा प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए| इसके साथ ही देवी की जल्द प्रसन्नता हेतु भगवान् भोले शंकर जी की पूजा अवश्य करनी चाहिए| क्योंकि भोलेनाथ को पति रूप में प्राप्त करने के लिए माता ने महान व्रत किया था| 

सबसे अंत में ब्रह्मा जी के नाम से जल, फूल, अक्षत, सहित सभी सामग्री हाथ में लेकर “ॐ ब्रह्मणे नम:” कहते हुए सामग्री भूमि पर रखें और दोनों हाथ जोड़कर सभी देवी देवताओं को प्रणाम करते हैं|


देवी ब्रह्मचारिणी कथा -


माँ ब्रह्मचारिणी हिमालय और मैना की पुत्री हैं| इन्होंने देवर्षि नारद जी के कहने पर भगवान शंकर की ऐसी कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें मनोवांछित वरदान दिया था| जिसके फलस्वरूप यह देवी भगवान भोले नाथ की वामिनी अर्थात पत्नी बनी| जो व्यक्ति अध्यात्म और आत्मिक आनंद की कामना रखते हैं उन्हें इस देवी की पूजा से सहज यह सब प्राप्त होता है| माँ भगवती का द्वितीय स्वरुप योग साधक को साधना के केन्द्र के उस सूक्ष्मतम अंश से साक्षात्कार करा देता है जिसके पश्चात व्यक्ति की ऐन्द्रियां अपने नियंत्रण में रहती और साधक मोक्ष का भागी बनता है| इस देवी की प्रतिमा की पंचोपचार सहित पूजा करके जो साधक स्वाधिष्ठान चक्र में मन को स्थापित करता है उसकी साधना सफल हो जाती है और व्यक्ति की कुण्डलनी शक्ति जागृत हो जाती है| दुर्गा पूजा में नवरात्रे के नौ दिनों तक देवी धरती पर रहती हैं अत: यह साधना का अत्यंत सुन्दर और उत्तम समय होता है| इस समय जो व्यक्ति भक्ति भाव एवं श्रद्धा से दुर्गा पूजा के दूसरे दिन मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करते हैं उन्हें सुख, आरोग्य की प्राप्ति होती है| देवी ब्रह्मचारिणी का भक्त जीवन में सदा शांत-चित्त और प्रसन्न रहता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं सताता है|


ब्रह्मचारिणी मंत्र-


या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।

देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

माँ भगवती द्वितीय ब्रम्ह्चारिणी का ध्यान-

वन्दे वांछित लाभायचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
जपमालाकमण्डलु धराब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम।

धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥


माँ भगवती ब्रम्ह्चारिणी का स्तोत्र पाठ -


तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥


माँ भगवती ब्रम्ह्चारिणी कवच-


त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
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दुर्गा पूजा: प्रतिमाओं को मिल रहा आधुनिक रूप

नवरात्र आरंभ हो गया है और दुर्गा पंडालों की साज-सज्जा अपने अंतिम दौर में है। इसके साथ ही यहां की कुम्हारटोली के मूर्तिकार दुर्गा की प्रतिमाओं को आधुनिक रूप दे रहे हैं। समय बहुत कम है, इसलिए प्रतिमाओं पर उनकी कुशल और सधी हुई उंगलियां तेजी से चलने लगी हैं। 

उत्तरी कोलकाता के कुम्हारटोली इलाके के मूर्तिकार मिट्टी और पुआल से रची जाने वाली इस प्राचीन कला के साथ कई प्रयोग भी कर रहे हैं, और बदलते युग की मांग को देखते हुए दुर्गा के साथ-साथ गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियों को आधुनिक स्वरूप में ढाल रहे हैं।

सजीव सी लगने वाली इन मूर्तियों को मूर्तिकार रंगों, साड़ियों, गहनों से सजाने में लगे हुए हैं, ताकि उन्हें पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों और यहां तक की अन्य राज्यों में भी भेजा जा सके। विदेशों को जाने वाली मूर्तियां सप्ताह भर पहले ही भेजी जा चुकी हैं।

यहां की घुमावदार पेचीदा गलियों में बांस और कंक्रीट से बनी अपनी कार्यशालाओं में सदियों से मूर्ति निर्माण का कार्य करते चले आ रहे पाल समुदाय के मूर्तिकारों ने मूर्ति निर्माण में इस्तेमाल होने वाले परंपरागत रंगों, मूर्तियों की सज्जा में इस्तेमाल होने वाली अन्य सामग्रियों एवं मूर्ति की संरचना में काफी परिवर्तन किया है।

मूर्तिकार सोंटू डे ने बताया, "इस वर्ष सिरेमिक मूर्तियों की भारी मांग है। ये मूर्तियां चमकीली होती हैं जो रोशनी में चमक उठती हैं और मूर्ति को बहुत आकर्षक बनाती हैं। यह एक तरह का रंग है जिसे हम मिट्टी के ऊपर लगाते हैं।" मूर्ति निर्माण में अपने आधुनिक प्रयोगों के कारण गुमनामी के अंधेरों से निकलकर मूर्तिकार के रूप में प्रसिद्धि पाने वाले इन मूर्तिकारों ने इस वर्ष बॉलीवुड से प्रेरित मूर्तियां भी बनाई हैं।

बॉलीवुड के नए नायकों की भांति मूर्तियों के ग्राहक इन मूर्तिकारों से महिषासुर के तराशे हुए बदन और दुर्गा की आठ भुजाओं वाली मूर्ति बनाने की मांग की है। वहीं दुर्गा के परंपरागत घुंघराले बालों के बजाय अब रेशम जैसे नर्म कृत्रिम केशों ने इन मूर्तियों को एकदम नया स्वरूप प्रदान किया है।

डे ने बताया, "कुछ ग्राहकों ने कंधे तक बालों वाली मूर्तियों की भी मांग की है, जबकि कुछ ने भूरे बालों वाली दुर्गा मूर्तियों की मांग की है।" एक अन्य मूर्तिकार ने बताया, "ज्यादातर मूर्तियां तो परंपरागत स्वरूप वाली ही हैं, लेकिन कुछ ने टीवी के प्रभाव में एक छरहरी काया वाली मूर्तियों की मांग भी की है।"

आधुनिक मूर्तियों में इन तमाम बदलावों के बावजूद आज भी हानिकारक सीसायुक्त रंगों के उपयोग में कोई बदलाव नहीं आया है। कुम्हारटोली मूर्तिशिल्प संस्कृति समिति के प्रवक्ता बाबू पाल ने कहा, "सरकार ही जब सीसा रहित रंगों की कीमतें कम करने में असफल रही है, तो हम इसे कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं? हम ज्यादातर सीसायुक्त रंगों का ही इस्तेमाल करते हैं।"

मूर्तिशिल्पियों एवं विसर्जन के बाद जलीय जीवजगत के लिए बेहद हानिकारक इन रंगों का इस्तेमाल लंबे समय से पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।

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आज करें माँ शैलपुत्री की पूजा

मां दुर्गा शक्ति की उपासना का पर्व नवरात्र के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है| इस वर्ष नवरात्रि का आरंभ 5 अक्टूबर को होगा| मां दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के रूप में जानी जाती हैं| शैलपुत्री पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं| इसी वजह से मां के इस स्वरूप को शैलपुत्री कहा जाता है। 

माँ भगवती शैलपुत्री का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है| इस स्वरूप का पूजन नवरात्री के प्रथम दिन किया जाता है| सभी देवता, राक्षस, मनुष्य आदि इनकी कृपा-दृष्टि के लिए लालायित रहते हैं| किसी एकांत स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं और उस पर कलश स्थापित करें | मूर्ति स्थापित कर, कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पा‌र्श्व में त्रिशूल बनाएं| माँ शैलपुत्री के पूजन से योग साधना आरंभ होती है| जिससे नाना प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं |

शैलपुत्री पूजा विधि-

नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है| पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है| दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं| माँ शैलपुत्री की पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों, दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों का कलश पर विराजने के लिए प्रार्थना कर आवाहन किया जाता है | कलश में सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है|

कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती हैI “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते” मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं|

कलश स्थापना के बाद देवी दु्र्गा जिन्होंने दुर्गम नामक प्रलयंकारी असुर का संहार कर अपने भक्तों को उसके त्रास से यानी पीड़ा से मुक्त कराया उस देवी का आह्वान किया जाता है कि ‘हे मां दुर्गे' हमने आपका स्वरूप जैसा सुना है उसी रूप में आपकी प्रतिमा बनवायी है आप उसमें प्रवेश कर हमारी पूजा अर्चना को स्वीकार करें| माँ देवी दुर्गा ने महिषासुर को वरदान दिया था कि तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों हुई है इस हेतु तुम्हें मेरा सानिध्य प्राप्त हुआ है अत: मेरी पूजा के साथ तुम्हारी भी पूजा की जाएगी इसलिए देवी की प्रतिमा में महिषासुर और उनकी सवारी शेर भी साथ होता है|

माँ दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है| प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है|इस प्रकार दुर्गा पूजा की शुरूआत हो जाती है प्रतिदिन संध्या काल में देवी की आरती के समय “जग जननी जय जय” और “जय अम्बे गौरी” के गीत भक्तजनो को गाना चाहिए|

शैलपुत्री मंत्र-

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृतशेखराम्।

वृषारूढ़ा शूलधरां यशस्विनीम्॥

माँ शैलपुत्री का ध्यान :-


वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।

वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥

पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥

पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥

प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।

कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

माँ शैलपुत्री का स्तोत्र पाठ-

प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।

धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥

त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।

सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥

चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।

मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

माँ शैलपुत्री का कवच-

ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।

हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥

श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।

हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।

फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥

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दशहरा : बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक

अश्विन शुक्ल पड़िवा (कलश स्थापन) से शुरू होकर दशमी तिथि तक देशभर में मनाया जाने वाला त्योहार देवी दुर्गा शक्ति पूजन का पर्व विजयदशमी बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। पूरे देश में मनाए जाने के कारण यह देश का प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार में 10 दिनों तकदेवी पूजन और रामलीला साथ-साथ चलती है। माना जाता है कि अयोध्या के राजा रामचंद्र ने अपनी धर्मपत्नी का हरण करने वाले रावण को इसी दिन धराशायी किया था। लंका पर आक्रमण से लेकर रावण वध तक दस दिनों तक युद्ध चला था। शक्ति की देवी दुर्गा के उपासक राम ने लगातार देवी की उपासना की और अंत में युद्ध में विजय प्राप्त की थी। उसी युद्ध की याद में यह त्योहार आज भी दस दिनों तक मनाया जाता है और अंत में रावण का पुतला दहन करने का रिवाज है।

इस त्योहार की अवधि में उत्तर भारत में विभिन्न जगहों पर रामलीलाओं का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जाता है। रामलीला के आखिरी दिन रावण वध का रिवाज है। किशोर वय के लड़कों को राम और लक्ष्मण के वेश में खुले मैदान में खड़े किए गए रावण मेघनाद के पुतले के सामने लाया जाता है और अग्नि बाण से उसके पुतले को जलाया जाता है।

दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई कल्पनाएं की गई हैं। भारत के कतिपय भागों में नए अन्नों की हवि (आहुति) देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टांगने तथा गेहूं आदि को कानों मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। 

कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। संभवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से संबंधित है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। 

पौराणिक मान्यताएं : इस अवसर पर कहीं-कहीं भैंसे या बकरे की बलि दी जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों जैसे बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे और हौदों से युक्त हाथी दौड़ते थे तथा उछ्लकूद करते हुए घोड़ों की सवारियां राजधानी की सड़कों पर निकलती थीं और जुलूस निकाला जाता था। प्राचीन एवं मध्य काल में घोड़ों, हाथियों, सैनिकों एवं स्वयं का नीराजन उत्सव राजा लोग करते थे।

दशहरा का संबंध देवी के विविध रूपों से भी है। नौ दिनों तक देवी के नौ रूपों की पूजा का विधान है। इससे इस त्योहार का संबंध शक्ति से जुड़ता है। अंतिम दिन महिषासुर मर्दनी की पूजा की जाती है। दुर्गा को शक्ति और युद्ध की देवी माना गया है इसलिए इस दिन शस्त्र की पूजा का भी विधान है। 

दस दिनों तक देवी के उपासक विभिन्न उपक्रमों से देवी की उपासना करते हैं। कुछ भक्त अपने शरीर पर कलश स्थापना कर दस दिनों तक कठिन तप की तरह उपासना करते हैं। दसवें दिन देवी के विदा होने का दिन होता है। पश्चिम बंगाल में दसवें दिन स्त्रियां 'सिंदूर खेला' कर देवी को विदा करती हैं। किसी बड़े तालाब या नदी में देवी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।
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शक्ति की उपासना का पर्व है नवरात्र

हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष शारदीय नवरात्रि 5 अक्टूबर आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होगी| इस दिन स्वाती नक्षत्र, विष्कुम्भ योग होगा| प्रतिपदा तिथि के दिन शारदिय नवरात्रों का पहला नवरात्र होगा| माता पर श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह दिन विशेष रहेगा| इस बार नवरात्रि पूरे नौ दिन के होंगे| शनिवार को नवरात्र के मंगल कलश की स्थापना होगी। 13 अक्टूबर मंगलवार को नवरात्र पूर्ण हो जाएंगे।

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

नव दुर्गा-

श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण -

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है| देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है।

नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है।कहीं-कहीं इन्हें कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है| जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है।

आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्रि:-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।


घट स्थापना मुहूर्त-


नवरात्र में तिथि वृद्धि सुखद संयोग माना जाता है। नवरात्र के प्रथम दिन घट स्थापना के साथ दैनिक पूजा भी बहुत सरल विधि से की जा सकती है| घट स्थापना का समय 5 अक्टूबर दिन शनिवार को आश्विन शुक्ल की प्रतिपदा के दिन प्रातः काल 08:05 मिनट से सुबह 9 बजे तक रहेगा| उसके बाद दोपहर 12:03 मिनट से लेकर 12 बजकर 50 मिनट तक के मध्य में


घट स्थापना विधि-


आचार्य विजय कुमार ने कहा है कि नवरात्र पूजन में कई लोग घट व नारियल स्थापना उन्होंने कलश स्थापना की सही विधि घट सही तरीके से न करने से शुभ की जगह अशुभ फल प्राप्त होता है। आपको बता दें कि मंदिर के उत्तर पूर्व दिशा के मध्य में स्थित ईशान कोण में मिट्टी या धातु के पात्र में साख लगाएं। इसके बाद पात्र में घट (कलश) की स्थापना करें। घट धातु का ही होना चाहिए, तांबे या पीतल धातु का शुभ होता है। घट को मौली बांधे, उसमें जल, चावल, पंचरतनी, चुटकी भर तुलसी की मिट्टी, स्र्वोष्धी, तिलक, फूल व द्रूवा व सिक्के डाल कर आम के नौ पत्ते रख कर उस पर चावल से भरे दोने से ढक सभी देवी-देवताओं का ध्यान कर उनका आह्वान करें।

इसके बाद चावलों के ऊपर नारियल का मुख अपनी और इस तरह रखें कि उसे देखने पर साधक की नजरें सीधे मुख पर पड़े। शास्त्रों में वर्णित श्लोक के मुताबिक 'अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊ‌र्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभम संमुख्यम नारीकेलम' के अनुसार स्थापना के दौरान नारियल का मुख नीचे रखने से शत्रु बढ़ते हैं, ऊपर रखने से रोग में वृद्धि, पूर्व दिशा में करने से धन हानि होती है। इसलिए नारियल का मुख अपनी तरफ रख ही उसकी स्थापना करनी चाहिए। नारियल जिस तरफ से पेड़ पर लगा होता है, वह उसका मुख वह होता और उसका ठीक उल्टा हिस्सा नुकीला होता है।

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चारा से बेचारा तक लालू का सफ़र

चारा घोटाले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू यादव को सजा सुनाई जा चुकी है| लालू को 5 साल जेल की सजा के साथ 25 लाख का जुर्माना भी लगाया गया है| 

ऐसे में एक बार फिर चारा घोटाला चर्चा में है,हम में से कई ऐसे हैं जिनको इस घोटाले के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता ऐसे में हम आपको साल दर साल के हिसाब से बता रहे हैं इस चर्चित घोटाले के बारे में .....

27 जनवरी 1996: पशुओं के चारा घोटाले के रूप में सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की लूट सामने आयी। चाईबासा ट्रेजरी से इसके लिये गलत तरीके से 37.70 करोड़ रुपए निकाले गये थे।

11 मार्च, 1996: पटना उच्च न्यायालय ने चारा घोटाले की जाँच के लिये सीबीआई को निर्देश दिये।

19 मार्च, 1996: उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश की पुष्टि करते हुए हाईकोर्ट की बैंच को निगरानी करने को कहा।

27 जुलाई, 1997: सीबीआई ने मामले में राजद सुप्रीमो पर फंदा कसा।

30 जुलाई 1997: लालू प्रसाद ने सीबीआई अदालत के समक्ष समर्पण किया।

19 अगस्त 1998: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की आय से अधिक की सम्पत्ति का मामला दर्ज कराया गया।

4 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद यादव के खिलाफ आरोप पत्र दर्ज हुआ और राबड़ी देवी को सह-आरोपी बनाया गया।

5 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी का समर्पण, राबड़ी देवी को मिली जमानत।

9 जून, 2000: अदालत में लालू प्रसाद के खिलाफ आरोप तय किये।

अक्टूबर 2001: सुप्रीम कोर्ट ने झारखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद मामले को नये राज्य में ट्रांसफर कर दिया। इसके बाद लालू ने झारखण्ड में आत्मसमर्पण किया।

18 दिसम्बर 2006: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में क्लीन चिट दी।

2000 से 2012 तक: मामले में करीब 350 लोगों की गवाही हुई। इस दौरान मामले के कई गवाहों की भी मौत हो गयी।

17 मई 2012: सीबीआई की विशेष अदालत में लालू यादव पर इस मामले में कुछ नये आरोप तय किये। इसमें दिसम्बर 1995 और जनवरी 1996 के बीच दुमका कोषागार से 3.13 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी पूर्ण निकासी भी शामिल है।

17 सितम्बर 2013: रांची की विशेष अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा।

30 सितम्बर 2013: राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव दोषी करार।

3 अक्तूबर 2013 : लालू प्रसाद यादव को 5 साल जेल की सजा के साथ 25 लाख का जुर्माना|

बात जुलाई, 1997 की है जब लालू ने जनता दल से अलग अपनी राष्ट्रीय जनता दल खड़ी कर दी| गिरफ्तारी तय हो जाने के बाद लालू ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दिया और पत्नी राबड़ी को मुख्यमन्त्री बनाने का निर्णय लिया। जब राबड़ी के विश्वास मत हासिल करने में समस्या आयी तो कांग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने उनको अपना सहारा दिया।

वर्ष 1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार बनी। वर्ष 2000 में विधानसभा चुनाव हुआ तो राजद अल्पमत में आ गया। सात दिनों के लिये नीतीश कुमार की सरकार बनी। एक बार फिर राबड़ी बिहार की मुख्यमन्त्री बनीं। इस बार कांग्रेस के 22 विधायक सरकार में मन्त्री बने। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू किंग मेकर की भूमिका में आये और रेलमन्त्री बने। अगले ही वर्ष 2005 में बिहार से राजद सरकार की विदाई हो गयी और 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद के सिर्फ चार सांसद जीत सके। इसका अंजाम यह हुआ कि लालू को केन्द्र सरकार में जगह नहीं मिली।

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71 की हुई आशा पारेख

बीते जमाने की मशहूर अदाकारा आशा पारेख का आज 71 वां जन्मदिन है। आशा पारेख तमाम सुपर हिट फिल्मे दी। साठ और सत्तर के दिनों में स्टाईल आईकॉन मानी जाने वाली आशा परेख को करियर के शुरुआत में हर निर्माता-निर्देशक ने उन्हें ना कहते रहे। आशा पारेख ने जब फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा ही था तब निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट ने उन्हें अपनी फिल्म गूंज उठी शहनाई में काम देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उनमें स्टार अपील नहीं है। बाद में उन्होंने आशा की जगह अपनी फिल्म में नई अभिनेत्री अमीता को काम करने का अवसर दिया। 

मुंबई में एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में 02 अक्तूबर 1942 को जन्मी आशा पारेख ने अपने सिने करियर की शुरूआत बाल कलाकार के रुप में 1952 में प्रदर्शित फिल्म ‘आसमान’ से की। इस बीच निर्माता-निर्देशक विमल राय एक कार्यक्रम के दौरान आश पारेख के नृत्य को देखकर काफी प्रभावित हुए और उन्हें अपनी फिल्म ‘बाप बेटी’ में काम करने का प्रस्ताव दिया।हीरोइन के रूप में उनकी पहली फिल्म थी 'दिल देके देखो', जो सफल हुई थी। लगभग सत्तर फिल्मों में बतौर अभिनेत्री काम कर चुकीं आशा पारेख की सारी फिल्में बेहद पसंद की गई, जिनमें 'जब प्यार किसी से होता है', 'घराना', 'फिर वही दिल लाया हूं', 'मेरी सूरत तेरी आंखें', 'भरोसा', 'मेरे सनम', 'तीसरी मंजिल', 'लव इन टोक्यो', 'दो बदन', 'आये दिन बहार के', 'उपकार', 'शिकार', 'साजन', 'आया सावन झूम के', 'पगला कहीं का', 'कटी पतंग', 'आन मिलो सजना', 'मेरा गांव मेरा देश', 'कारवां', 'समाधि', 'जख्मी', 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' सुपरहिट फिल्मे शामिल हैं। 

वर्ष 1972 में 'कटी पतंग' के लिए इन्हें बेस्ट ऐक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड और फिल्मों में योगदान के लिए फिल्मफेयर का ही लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड वर्ष 2002 में मिला। इनके योगदान के लिए आइफा ने भी 2006 में स्पेशल अवार्ड से सम्मानित किया। हिंदी फिल्मो के अलवा आशा पारेख ने गुजराती, पंजाबी और कन्नड़ फिल्मों में भी काम किया। खूबसूरत 'मिस नीता' के ग्लैमरस किरदार से मशहूर पारेख ने कई गंभीर फिल्मों में गंभीर चरित्र भी निभाए हैं। 

उनकी 10 लोकप्रिय और सफल फिल्मों में शामिल हैं :

'भरोसा' (1963) : ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित सरल कहानी में आशा पारेख ने अभिनेता गुरुदत्त के साथ काम किया है। फिल्म में दोनों कलाकारों के उम्दा अभिनय के अलावा 'वो दिल कहां से लाऊं' जैसे लोकप्रिय गीत भी शामिल थे।

'दो बदन' (1966) : राज खोसला की फिल्म में पारेख ने एक ऐसी युवती के चरित्र को गंभीरता और जीवंतता के साथ निभाया, जिसका प्रेमी हादसे में अंधा हो जाता है और वर्ग विभाजित समाज दोनों प्रेमियों को एक-दूसरे से अलग कर देता है।

'तीसरी मंजिल' (1966) : रहस्य रोमांच से भरपूर फिल्म में पारेख ने शम्मी कपूर के साथ काम किया था, जिसमें वह अपनी मृत बहन के कातिल की तलाश करती हैं। फिल्म में पारेख के जिंदादिल किरदार और अभिनय ने उन्हें एकदम से लोगों की नजरों के केंद्र में ला खड़ा किया।

'बहारों के सपने' (1967) : फिल्म में सुपरस्टार राजेश खन्ना की प्रेमिका की भूमिका में सीधी सादी गंभीर स्वभाव की युवती के किरदार ने दर्शकों को खासा चौंका दिया था, क्योंकि तब तक उनकी छवि चुलबुली और ग्लैमरस नायिका की बन चुकी थी।

'चिराग' (1969) : इस फिल्म में पारेख ने एक दृष्टिहीन महिला का किरदार निभाया था, जिसका अपने पति (सुनील दत्त) से अलगाव हो चुका है। फिल्म का गीत 'तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है' बेहद मशहूर और लोकप्रिय हुआ था।

'कटी पतंग' (1970) : फिल्म में एक विधवा स्त्री का किरदार निभाने से शर्मिला टैगोर के मना कर देने पर निर्देशक शक्ति सामंता ने इस भूमिका में आशा पारेख को लिया था। आशा ने भाग्य की मारी स्त्री के भावुकता भरे किरदार से लोगों का दिल तो जीता ही था, कई अवार्ड भी अपने नाम किए थे।

'नादान' (1971) : फिल्म में पारेख ने एक टॉम ब्वॉय युवती का किरदार निभाया था, जिसे फिल्म के नायक (नवीन निश्चल) के संपर्क में आने के बाद अपने महिला होने का एहसास होता है। 

'कारवां' (1971) : यह फिल्म पारेख के करियर की सफलतम फिल्म थी, जिसमें उन्होंने आखिरी बार नासिर हुसैन के साथ काम किया था।

'मैं तुलसी तेरे आंगन की' (1979) : राज खोसला की इस फिल्म की मुख्य नायिका नूतन थीं और पारेख की भूमिका फिल्म में सिर्फ 20 मिनट लंबी थी, जिसके बावजूद उन्होंने फिल्म में अपने अभिनय से गहरा प्रभाव छोड़ा था।

'बिन फेरे हम तेरे' (1979) : इस फिल्म में पारेख को एक ठेठ भारतीय स्त्री का किरदार निभाने का मौका मिला जो जीवन के कई अच्छे-बुरे दौर से गुजरी। एक तवायफ, एक विधवा और फिर अपनी संतान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाली मां तक का बहुआयामी किरदार पारेख ने इस एक फिल्म में जीवंत कर दिखाया।

आशा पारेख के अभिनय और प्रतिभा की बात करते हुए इससे ज्यादा क्या बोला जा सकता है कि 'आज की मुलाकात बस इतनी' (भरोसा)।