शरद पूर्णिमा को रात्री जागरण करने से लक्ष्मी और ऐश्वर्य की प्राप्ति

आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है ऐसा इसलिए क्योंकि शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचाया था। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। इस बार शरद पूर्णिमा 18 अक्टूबर,को है। 

पौराणिक मान्यताएं एवं शरद ऋतु, पूर्णाकार चंद्रमा, संसार भर में उत्सव का माहौल। इन सबके संयुक्त रूप का यदि कोई नाम या पर्व है तो वह है 'शरद पूनम'। वह दिन जब इंतजार होता है रात्रि के उस पहर का जिसमें 16 कलाओं से युक्त चंद्रमा अमृत की वर्षा धरती पर करता है। वर्षा ऋतु की जरावस्था और शरद ऋतु के बाल रूप का यह सुंदर संजोग हर किसी का मन मोह लेता है। सम्पूर्ण वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा ही षोडस कलाओं का होता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं जो कई बिमारियों का नाश कर देती हैं। 

आपको बता दें की एक यह भी मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। शरद पूर्णिमा के बाद से मौसम में परिवर्तन की शुरुआत होती है और शीत ऋतु का आगमन होता है।

कहते हैं कि इस दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। शरद पूर्णिमा के दिन शाम को खीर, पूरी बनाकर भगवान को भोग लगाएँ । भोग लगाकर खीर को छत पर रख दें और रात को भगवान का भजन करें। चाँद की रोशन में सुईं पिरोएँ । अगले दिन खीर का प्रसाद सबको देना चाहिए । 

इस दिन प्रात:काल आराध्य देव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करें । आसन पर विराजमान कर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करनी चाहिए| सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर घी के 100 दीपक जलाए। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूंगी।

इस प्रकार यह शरद पूर्णिमा, कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं मां लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।
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यहां हिंदू करते हैं मजार की देखभाल

छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में सांप्रदायिक सौहाद्र्र का अनूठा उदाहरण है जलाउद्दीन बगदाद वाले बाबा की मजार। इस मजार की पूरी देख-रेख यहां के लिए बनी हिन्दुओं की समिति करती है। पिनकापार गांव में एकमात्र मुस्लिम परिवार निवास करता है। मुस्लिम परिवार भी हिन्दुओं की इस धार्मिक आस्था से बेहद प्रसन्न है। 

गांव में बने मजार का पिछले 100 वर्षो से यहां के हिंदू पूरी शिद्दत से देखभाल करते आ रहे हैं। इसके लिए कमेटी बनाई गई है। कमेटी जलाउद्दीन बगदाद वाले बाबा के नाम से लोकप्रिय मजार को पूरी तरह सुरक्षित रखने के लिए पहले अस्थाई शेड बनाना चाहते हैं। इसीलिए वे गांव के लोगों से धन संग्रह कर रहे हैं। 

यहां की आबादी करीब 450 परिवारों की है, जिसमें एक मात्र मुस्लिम परिवार है। शुरुआत में परकोटे का निर्माण दाऊ शशि देशमुख ने कराया। प्रत्येक शुक्रवार को 20 से अधिक हिंदू परिवार मजार पर अगरबत्ती व धूप से इबादत करते हैं। 

90 साल के प्रेमलाल देवांगन, झाड़ूराम सारथी व बसंत देशमुख ने बताया कि 1905 में मजार मिट्टी की बनी थी, जिसे चूना व पत्थर से पक्का कर दिया गया। वे मजार निर्माण का सही समय नहीं बता पाए, पर उनका कहना है कि किसी भी तरह की परेशानी आने पर यहां आकर फरियाद करते रहे हैं तो लाभ मिलता है। इसीलिए लोगों का मजार के प्रति विश्वास बढ़ता गया। 

बुजुर्गों का कहना है कि 1890 में यहां करीब 70 मुस्लिम परिवार रहते थे। अब एक ही मुस्लिम परिवार सत्तार खां ही रहते हैं। बताया गया कि एक दशक पहले हिंदुओं के सहयोग से महबूब खां ताजिया निकाला करते थे। जबसे उनकी मृत्यु हुई, तब से ताजिया निकलनी बंद हो गई है।

पिनकापार से करीब 12 किलोमीटर दूर ग्राम जेवरतला है। यहां के निवासी धनराज ढोबरे (मराठा) पिछले 26 सालों से प्रत्येक शुक्रवार को मजार आ रहे हैं। ढोबरे का कहना है कि यहां आने पर उन्हें सुकून मिलता है। 

इसी तरह से बीस साल से इतवारी रजक भी मजार पर आ रहे हैं। रजक ने अपने होटल में मजार के विस्तार के लिए दानपात्र रखा है। सालों से हर शुक्रवार को आने वालों में मुजगहन के नकुल सिन्हा, संतोष देवांगन, इंदू भूआर्य, जाग्रत देवांगन, ओमप्रकाश कोसमा व कु.शशि साहू हैं। अब तो यहां आसपास के गांव से भी हिन्दू इबादत के लिए पहुंचने लगे हैं।
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65 साल की हुई 'ड्रीम गर्ल' हेमा मालिनी

अपनी बेमिसाल खूबसूरती के लिए बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान रखने वाली बेहद अनुभवी और प्रतिभाशाली ऐक्ट्रेस हेमा मालिनी आज 65 साल की हो गई हैं। जीवन के सातवें दशक में प्रवेश कर चुकी हेमामालिनी आज भी जवां लोगों की पसंदीदा ऐक्ट्रेस बनी हुई हैं| अपने 40 साल के फिल्मी करियर में हेमा मालिनी ने 150 फिल्मों में काम किया।

भले ही उनकी उम्र ने 65 का आकंड़ा पार कर लिया हो लेकिन खूबसूरती के मामले में आज भी कोई हेमा के टक्कर का नहीं है| आज भी जब वह अपनी बेटियों अहाना और ईशा के साथ खड़ी होती हैं तो वह उनकी मां नहीं बल्कि उनकी बड़ी बहन लगती है। बॉलीवुड ने उन्हें उनकी खूबसूरत की वजह से ही 'ड्रीम गर्ल' का खिताब दिया गया। हेमा मालिनी बेहतरीन अभिनय के अलावा शास्त्रीय नृत्य में भी पारंगत हैं।

हेमा मालिनी का जन्म 16 अक्टूबर 1948 को अम्मनकुंडी तमिलनाडु में वीएसआर चक्रवर्ती और जया चक्रवर्ती के आयंगर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। हेमा के पिता वी एस आर चक्रवर्ती तमिल फिल्मों के निर्माता थे। फिल्मी परिवेश में पली-बढ़ी हेमामालिनी ने चेन्नई के आध्र महिला सभा से अपनी पढ़ाई पूरी की। 'सपनों का सौदागर' की नायिका के रूप में हिंदी फिल्मों को उसकी 'ड्रीम गर्ल' की पहली झलक मिली। धीरे-धीरे हेमा मालिनी का जादू हिंदी फिल्म दर्शकों के सिर चढ़कर बोलने लगा और उनका नाम शीर्ष अभिनेत्रियों की सूची में सबसे ऊपर शुमार हो गया।

लगभग तीन दशक तक हेमामालिनी के अभिनय का जादू उस दौरान की अभिनेत्रियों पर हावी रहा। 'सीता और गीता' की सफलता से वह बॉलीवुड की नंबर वन हीरोइन बन गई। फिल्म 'शोले' में उनके बसंती वाले किरदार को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं। बेस्ट एक्ट्रेस के लिए वह 11 बार नॉमिनेट हुई और वर्ष 1972 में उन्होंने यह खिताब जीता। वर्ष 2000 में फिल्मफेयर लाइफटाइम एचिवमेंट अवार्ड और पद्मश्री अवार्ड से भी वह सम्मानित हुईं।

हेमा मालिनी बेहतरीन अभिनय के अलावा शास्त्रीय नृत्य में भी पारंगत हैं। भरतनाट्मय नृत्य शैली में वह महारत हासिल रखती हैं। उन्होंने अपने नृत्य के दौरान मां दुर्गा का जो किरदार अदा किया है उसके लिए वह अपनी अलग पहचान रखती हैं। इसी अनोखी अदा की वजह से उन्होंने एक टीवी सीरियल 'जय माता की' में मां दुर्गा का किरदार निभाया जिसके लिए उन्हें काफी सराहना मिली।

त्याग और इंसानियत का पर्व है बकरीद

दुनिया में कोई भी कौम ऐसी नहीं है जो कोई एक खास दिन त्यौहार के रूप में न मनाती हो। इन त्योहारों में एक तो धार्मिक आस्था विशेष रूप से देखने को मिलती है दूसरा अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का अवसर मिलता है। अगर मुसलमानों के पास ईद है तो हिंदुओं के पास दीपावली है। ईसाइयों की ईद बड़ा दिन अर्थात क्रिसमस है तो सिखों की ईद गुरु पर्व है। इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। इसे मीठी ईद और छोटी ईद भी कहा जाता है। यह त्यौहार रमजान के 30 रोजे रखने के बाद मनाया जाता है। दूसरा है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं। इस बार ईद-उल-जुहा 16 अक्टूबर दिन बुधवार को मनाया जायेगा|

ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में बकरीद का त्यौहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्यौहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है।

कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा। वैसे बकरीद शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में 'बक़र' का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह (कुर्बान) किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे 'बकरीद' कहते हैं। वास्तव में कुर्बानी का असल अर्थ ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो। जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की कुर्बानी दी। यहां तक कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत की और बेटा जिंदा रहा। हजरत इब्राहीम चूंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे इसलिए उनको 'खलीलुल्लाह' की पदवी भी दी गई है। कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जिलहिज्जा (अर्थात हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है। कुरान में लिखा है, "हमने तुम्हें हौज-ए-कौसर दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।"

वैसे तो इस पावन पर्व की नींव अरब में पड़ी, मगर तुजक-ए-जहांगीरी में लिखा है : "जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंदहार इस्फाहान, बुख़ार, .खोरासां, बगदाद, और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का आगमन भारत से पहले हुआ। बादशाह सलामत जहांगीर अपनी रिआया के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे। गैर मुसलिमों के दिल को चोट न पहुंचे इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिंदू बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे। बड़ी चहल-पहल रहती थी। बादशाह सलामत इनाम-इकराम भी खूब देते थे। मुगल बादशाहों ने कुर्बानी के लिए गाय कुर्बान की सख्त मनाही की थी क्योंकि हमारे देश में गाय को गोमाता के नाम से माना जाता है। यह करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ी है इसलिए सरकार ने गाय की कुर्बानी करने पर पाबंदी लगायी है।

बकरीद वास्तव में न सिर्फ अकबर व जहांगीर के समय धूम धाम से मनाया जाता था बल्कि आज भी ईद-उल- जुहा का जो असली मनोरंजन है, वह भारत में ही देखने को मिलता है। ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है।

आइये एक नज़र ईद-उल-जुहा के इतिहास पर डालें। ईद-उल-जुहा का इतिहास बहुत पुराना है जो हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम आज से कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। इब्राहीम ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी उनके दुश्मन हो गए। हजरत इब्राहीम का ज्यादातर जीवन रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में जनसेवा में बीता। संतानहीन होने के कारण उन्होंने एक संतान प्राप्ति के लिए खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की थी जो सुनी गई और उन्हें चांद सा बेटा हुआ। उन्होंने अपने इस फूल से बेटे का नाम इस्माईल रखा। जब इस्माईल की उम्र 11 साल से भी कम थी तो एक दिन हजरत इब्राहीम ने एक ख़्वाब देखा, जिसमें उन्हें यह आदेश हुआ कि खुदा की राह में सबसे प्यारी चीज कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। इतना होने पर हजरत इब्राहीम समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और उन्होंने अपनी पत्नी हाजरा से अपने प्यारे लाडले को नहला-धुलाकर कुर्बानी के लिए तैयार करने को कहा। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं।

हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम बुढ़ापे में रेगिस्तान में पत्नी और बच्चे को छोड़ आए। बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर उस बीहड़ रेगिस्तान में पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने लगा। यह देखकर हजरत जिब्रईल ने हुक्म दिया कि फौरन चश्मा अर्था तालाब जारी हो जाए। पानी का फव्वारा हजरत इस्माईल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माईल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब हाजरा को यह पता चला कि अल्लाह के नाम पर उनके प्यारे बेटे का गला उनके पिता द्वारा ही काटा जाएगा, तो हाजरा स्तब्ध हो गईं। मानों वह मां नहीं, कोई पत्थर की मूरत हों। जब हजरत इब्राहीम अपने प्यारे बेटे इस्माईल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो शैतान (इबलीस) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके। हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे हुए बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद रहा है और उसकी जगह जन्नत से एक दुम्बा भेजा गया और उसकी कुर्बानी हुई। यह देखकर हजरत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से जिलहिज्जा के महीने में जानवर की बलि देने की परंपरा चली आ रही है।

बॉलीवुड को प्रिय है राजस्थान का चोमू महल

राजस्थान के चोमू में स्थित 300 सालों से भी पुराना महल फिल्म निर्माताओं के लिए पसंदीदा बन गया है। 'भूलभुलैया' में विद्या बालन और 'बोल बच्चन' में अभिषेक बच्चन ने इसी चोमू किले में शूटिंग की थी, और अब यह किला हेरिटेज होटल में तब्दील हो चुका है।

चोमू महल के महाप्रबंधक शुभाशीष बनर्जी ने बताया, "चोमू महल का इतिहास 300 साल से भी पुराना है और अब बॉलीवुड यहां शूटिंग के लिए लालायित है।" उन्होंने कहा कि 'भूलभुलैया' और 'बोल बच्चन' दोनों ही काफी सफल हुई थी। बनर्जी ने बताया, "यहां 'डर्टी पॉलिटिक्स' फिल्म की शूटिंग भी हुई है जो इसी साल प्रदर्शित होने वाली है।"

उन्होंने बताया कि यहां 'लोफर', 'गुलाल' और 'क्वीन्स (द डेस्टिनी ऑफ डांस)' जैसी फिल्मों की शूटिंग भी हुई है। 1598 में करण सिंह ने इसका निर्माण कार्य शुरू कराया था। बनर्जी ने बताया कि फिल्मों के अलावा यहां टीवी धारावाहिकों की शूटिंग भी हुई है। उन्होंने कहा, "यहां पर 'रतन का स्वयंवर' और 'झांसी की रानी' जैसे धारावाहिकों की शूटिंग भी हुई है।"

लेकिन अब एक साल तक इसमें शूटिंग नहीं हो पाएगी। बनर्जी ने बताया, "बॉलीवुड हमसे शूटिंग के लिए होटल किराए पर देने का निवेदन कर रहा है, लेकिन हम उन्हें ऑफ सीजन में ही होटल दे सकते हैं।" पुराने दिनों में यह किला सेना प्रमुखों का निवास स्थान रहा है। करण सिंह के बाद उनके बड़े बेटे सुख सिंह राजा बने और किले और महल के बाकी हिस्से का निर्माण कराया। महल में खूबसूरती से बनाए गए कमरे राज्य की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं। इसके बड़े बरामदों में से एक को 'भूलभुलैया' में दिखाया गया था। 
महल की अधिकतर कलाकृतियां बरकरार हैं, जो शाहीपन का एहसास कराती हैं। उदाहरण के लिए होटल का महाराजा कमरा, इसकी चांदी की चारपाई और खूबसूरती और चांदी के नक्काशीदार फर्नीचर इसे भव्य और वैभवशाली बनाते हैं। महल की नक्काशीदार दीवारें पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। ये फिल्मों के लिए एक दम सही पृष्ठभूमि हैं। किले की वीरता की कहानियां अब इतिहास के पन्नों में हैं लेकिन किला अब बॉलीवुड को अपनी ओर आकर्षिक कर रहा है। यह खूबसूरत और शाही महल अगर फिल्मों में देखना आपके लिए काफी नहीं है तो महल में आइए और शाही शान-ओ-शौकत का आनंद उठाइए।

कैसे जाएं : चोमू राजस्थान की राजधानी जयपुर से सिर्फ 30 किलोमीटर की दूरी पर है। हवाई मार्ग से दिल्ली से जयपुर का रास्ता मात्र आधा घंटे का है।

महल के कमरों के किराए 6,000 रुपये प्रति दिन से शुरू हैं। 

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दतिया भगदड़ : दामन बचाने में जुटी सरकार

मध्य प्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ हादसे ने हर किसी को हिलाकर रख दिया है। अगर कोई नहीं हिला है तो वह है सरकार और प्रशासनिक अमला। यही कारण है कि 111 लोगों की मौत हो जाने के बाद भी सरकारी मशीनरी को बचाने के लिए सभी लामबंद हो गए हैं। उनका स्वर एक है और वे हादसे के लिए पुल टूटने की अफवाह को ही मूल वजह बताने में तुले हुए हैं।

रतनगढ़ के देवी मंदिर में हर साल हजारों लोग नवरात्रि, दीपावली और भाईदूज पर पहुंचते हैं। रविवार को नवमी थी और दतिया सहित उत्तर प्रदेश के नजदीकी जिलों के श्रद्धालु भी मंदिर पहुंचे थे। भीड़ को कैसे नियंत्रित किया जाए, इसका कोई इंतजाम नहीं था। मंदिर तक जाने के लिए सिंध नदी पर बना पुल संकरा है।

इस पुल पर से एक साथ हजारों लोगों का रेला गुजर रहा था, मगर उन्हें नियंत्रित करने के लिए गिनती के पुलिस वाले तैनात किए गए थे। कोई भी बड़ा अफसर मौके पर नहीं था। पुलिस अधीक्षक चंद्रशेखर सोलंकी तो कई घंटे बाद मौके पर पहुंचे। भगदड़ में 111 लोगों की मौत हो चुकी है, मगर अब तक किसी पर जिम्मेदारी तय नहीं की गई है। राज्य में चुनाव आचार संहिता लागू है, सरकार इसका हवाला देकर अपने को बचाने का प्रयास कर सकती है, मगर सरकार के प्रवक्ता ने हादसे के कुछ घंटे बाद ही कह दिया कि हादसा पुल टूटने की अफवाह के चलते हुआ। जबकि पीड़ितों का साफ कहना है कि पुलिस ने जाम लगने पर लाठीचार्ज किया, जिससे भगदड़ मची।

राज्य के मुख्य सचिव एंटोनी डिसा भी लगभग वही कह रहे हैं, जो सरकार के प्रवक्ता ने कहा है। उनका कहना है कि ट्रैक्टर रेलिंग से टकराया और पुल का कुछ हिस्सा टूटा, फिर अफवाह फैली कि पुल टूट गया और भगदड़ मच गई। साथ ही वह कहते हैं कि इस मामले की जांच जल्द होगी और दोषियों पर कार्रवाई की जाएगी। मगर पुलिस अधिकारी रेलिंग टूटने की बात से इंकार कर रहे हैं। हादसे के एक दिन बाद भी सरकार और मुख्य सचिव की ओर से न तो किसी पर जिम्मेदारी तय की गई है, और न ही किसी पर कार्रवाई की गई है। मामले की न्यायिक जांच के आदेश देकर मामले को ठंडे बस्ते में डालने का काम जरूर किया गया है।

रतनगढ़ में वर्ष 2006 में भी हादसा हुआ था। तब 47 लोगों की मौत हुई थी। तब सरकार ने प्रशासनिक अफसरों को दतिया से हटाने के साथ ही उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस.के. पांडे की अध्यक्षता में जांच आयोग गठित किया था। आयोग ने मार्च 2007 में रपट सरकार को सौंप दी। लेकिन सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया। उसके बाद 2010 में रपट सार्वजनिक करने के लिए आरटीआई दायर की गई। तब से अबतक विपक्षी दल व सामाजिक कार्यकर्ता रपट सार्वजनिक करने की लगातार मांग कर रहे हैं, मगर सरकार ने आजमक रपट सार्वजनिक नहीं की है।

वर्ष 2006 में हुए हादसे के बाद सरकार ने चार अफसरों पर कार्रवाई की थी मगर इस बार 111 लोगों की मौत के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यह सरकार और प्रशासन की हठधर्मिता को जाहिर करता है। 

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आखिर हादसों से कब सबक लेंगे!

धार्मिक आयोजनों में भगदड़, हादसे, मौतें और फिर आंसू बहाकर मृतकों के परिजनों के लिए मुआवजे मंजूर कर देना हमारी सरकारी मशीनरी का हिस्सा बन गया है। ये हादसे फिर न हों इसके दावे तो बहुत होते हैं, मगर इंतजाम न के बराबर। नतीजतन हादसे-दर-हादसे होते रहते हैं। कम से कम मध्य प्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ में हुआ हादसा तो यही कुछ बताता है।

रतनगढ़ माता मंदिर के करीब शारदीय नवरात्र के अंतिम दिन जयकारों की बजाय चीत्कार और रुदन के स्वर सुनाई दे रहे हैं। बच्चों से लेकर बुजुगरें के स्वर हर किसी को द्रवित कर देने वाले हैं, क्योंकि उन्होंने अपनों को तब खोया है, जब वे देवी के दरबार में सुनहरे कल की कामना के लिए जा रहे थे।

रविवार सुबह रतनगढ़ माता मंदिर से पहले सिंध नदी पर बने पुल से सैकड़ों वाहनों पर सवार और पैदल हजारों श्रद्घालुओं का रेला बढ़े जा रहा था। पुल पर गुजरती भीड़ को व्यवस्थित मंदिर तक पहुंचाने के लिए महज आठ से दस जवान ही तैनात थे। भीड़ के बढ़ते ज्वार को संभालने के लिए पुलिस के जवानों ने हल्का बल प्रयोग किया तो भीड़ में भगदड़ मच गई। लोग एक-दूसरे को रौंदकर तो वाहन पैदल चल रहे श्रद्घालुओं को रौंद कर भागने लगे। श्रद्घालुओं ने अपनी जान बचाने के लिए पुल पर से छलांग लगा दी।

इस हादसे में अबतक 85 श्रद्घालुओं के शव बरामद हो चुके हैं और नदी में जल के बहाव के साथ कितने बह गए हैं, इसका अंदाजा किसी को नहीं है। वहीं 100 से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए हैं। राज्य सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने हादसे की वजह चूक मानने से इंकार नहीं किया है, मगर वह पुलिस के बल प्रयोग की बजाय पुल टूटने की अफवाह को हादसे की वजह मान रहे हैं।

रतनगढ़ में हुआ यह कोई पहला हादसा नहीं है, इससे पहले 2006 में इसी दिन अर्थात शारदीय नवरात्र की नवमी को नदी में अचानक बहाव आने से 49 लोगों की पानी में डूबकर मौत हो गई थी। उसके बाद सरकार ने पुल बनवाया, मगर रविवार को वही पुल हादसे का कारण बन गया। तब सरकार ने जांच के आदेश दिए थे, कुछ अफसरों पर कार्रवाई भी हुई थी, मगर हादसे को नहीं रोका जा सका। इस बार फिर हादसे की जांच के आदेश दे दिए गए हैं।

इसके अलावा राजधानी भोपाल के करीब सलकनपुर मंदिर और करौली माता मंदिर में भी भगदड़ और कई लोगों की मौत के हादसे हो चुके हैं। मगर सरकार ने ऐसे कोई इंतजाम नहीं किए, जिनसे इन हादसों को रोका जा सके। राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष, अजय सिंह ने रतनगढ़ हादसे पर दु:ख व्यक्त करते हुए कहा कि अपने को हिन्दुत्व का ठेकेदार बताने वाले भाजपा राज में रतनगढ़ में ही यह दूसरा हादसा है। उन्होंने मृतकों के परिजनों को पांच लाख रुपये मुआवजा देने की मांग की है।

सिंह ने कहा कि रतनगढ़ में बद इंतजामी का आलम यह है कि घटना के कई घंटों बाद वहां प्राथमिक उपचार तक की व्यवस्था नहीं थी और न ही पानी था। इससे अनेक लोगों ने दम तोड़ दिया। रतनगढ़ के हादसे ने सुरक्षा-व्यवस्था के उन दावों पर तो सवाल खड़े कर ही दिए हैं, जो सरकार और प्रशासन की ओर से आम तौर पर किए जाते रहे हैं। क्या हम अब भी सबक लेने को तैयार हैं। 

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दशहरा पर नीलकंठ के दर्शन शुभ

नीलकंठ तुम नीले रहियो, दूध-भात का भोजन करियो, हमरी बात राम से कहियो', इस लोकोक्त‍ि के अनुसार नीलकंठ पक्षी को भगवान का प्रतिनिधि माना गया है। दशहरा पर्व पर इस पक्षी के दर्शन को शुभ और भाग्य को जगाने वाला माना जाता है। जिसके चलते दशहरे के दिन हर व्यक्ति इसी आस में छत पर जाकर आकाश को निहारता है कि उन्हें नीलकंठ पक्षी के दर्शन हो जाएँ। ताकि साल भर उनके यहाँ शुभ कार्य का सिलसिला चलता रहे।

ऐसा माना जाता है कि इस दिन नीलकंठ के दर्शन होने से घर के धन-धान्य में वृद्धि होती है, तथा फलदायी एवं शुभ कार्य घर में अनवरत्‌ होते रहते हैं| सुबह से लेकर शाम तक किसी वक्त नीलकंठ दिख जाए तो वह देखने वाले के लिए शुभ होता है|

भगवान शिव को भी नीलकंठ कहा गया है क्योकिं उन्होंने सर्वकल्याण के लिए विषपान किया था| इसीलिए शिव कल्याण के प्रतीक है| ठीक उसी तरह नीलकंठ पक्षी भी है| इस पक्षी का भी कंठ (गला) नीला होता है| कहते हैं कि दशहरे के दिन जो भी कुंवारी लडकी नीलकंठ के दर्शन करती है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है|

उत्तरभारत में बहलिए नीलकंठ को घर-घर में लाकर दिखाते हैं। आज भी देश के कई हिस्सों में दशहरे के दिन लोग सुबह से उठकर नीलकंठ के दर्शन करते हैं।

नीलकंठ को किसान का मित्र भी कहा गया है| वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाग्य विधाता होने के साथ-साथ किसानों का मित्र भी है, क्योंकि सही मायने में नीलकंठ किसानों के भाग्य का रखवारा भी होता है, जो खेतों में कीड़ों को खाकर किसानों की फसलों की रखवारी करता है।

यहाँ दशहरा पर पूजे जाते हैं दशानन

विजय दशमी के दिन असत्य पर सत्य की जीत के प्रतीक स्वरूप लंकापति रावण का पुतला जलाया जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में कई ऐसी जगह भी हैं जहां दशहरा के दिन रावण की पूजा की जाती है| सिर्फ यही नहीं उसके पुतले को चिंगारी भी नहीं छुआई जाती। कानपुर, लखनऊ और बदायूं में बने मंदिरों में रावण की मूर्तियां स्थापित है|

कानपुर में प्रयाग नारायण शिवाला स्थित कैलाश मंदिर परिसर में लंकाधिराज रावण की मूर्ति स्थापित है। विजय दशमी पर यहां विधि विधान के साथ रावण की पूजा की जाएगी। महाआरती के साथ रावण का फूलों से श्रृंगार किया जाएगा इसके साथ ही महाभोग भी अर्पित किया जाएगा| पूरा दिन मंदिर का पट खुला रहेगा, ताकि लोग दर्शन पूजन कर सकें।

इलाहाबाद में मात्र एक कमेटी की ओर से रावण की पूजा होती है। पितृपक्ष एकादशी को श्री कटरा रामलीला कमेटी रावण की शोभायात्रा भारद्वाज आश्रम से निकालती है।इसमें पूरी सजधज के साथ रावण की सेना चलती है। दशहरा के दिन श्री दारागंज रामलीला कमेटी की ओर से रावण का पुतला दहन के बाद श्री कटरा रामलीला कमेटी व दारागंज रामलीला कमेटी के लोग एक साथ अलोपीबाग मंदिर पहुंचते हैं और ब्रह्म हत्या के दोष निवारण के लिए पूजा-अर्चना करते हैं। लक्ष्मणपुरी यानी लखनऊ में लगता है रावण दरबार|

अगर आप इसे देखना चाहते हैं तो चौक स्थित चारों धाम मंदिर जा सकते हैं जहां रावण दरबार स्थापित है। खास बात है कि इस दरबार में श्रीराम के लंका विजय की पूरी दास्तान प्रतिमाएं बयान करती हैं। चौक के रानीकटरा में 1912 में बने चारों धाम मंदिर परिसर में रावण दरबार बना है। जिसमें दशानन सबसे ऊंचे सिंहासन पर विराजमान है|

रावण का किरदार निभाने वाले विष्णु त्रिपाठी 33 वर्षो से दशहरे के दिन गाय के गोबर से पहले घर में दश शीश बनाकर लड्डू का भोग लगाते हैं। फिर रानीकटरा जाकर रावण दरबार में रावण को तिलक करके प्रसाद चढ़ाते हैं। पूजन के बाद वह चौक के श्री पब्लिक बाल रामलीला ग्राउंड लोहिया पार्क में होने वाली रामलीला में रावण का किरदार निभाते हैं। बदायूं के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी जिले में रावण की पूजा नहीं की जाती। बदायूं में रावण का मंदिर है।

साहूकारा इलाके में इस मंदिर का निर्माण जमींदार पं. बलदेव प्रसाद शर्मा ने 1952 में कराया था। दशहरा के दिन रावण के खानदानी शखधार परिवार के लोग शोक मनाते हैं। बरेली में सुभाषनगर निवासी रमेश चंद्र शुक्ला रावण के इतने बड़े भक्त हैं कि उन्होंने 'चालीसा' ही गढ़ दी| इटावा के जसवंत नगर के लोग भी दशहरा के दिन रावण की पूजा करते हैं। रावण को न फूंकने की परंपरा कहां से आई, अयोध्या शोध संस्थान के लिए कौतूहल का विषय है|

संस्थान के डायरेक्टर डॉ. वाईपी सिंह तीन वर्षो से यहां की संपूर्ण रामलीला पर शोध कार्य करने में जुटे हैं। दशहरा के दिन वध के बाद पुतला नीचे गिरता है तो भीड़ पुतले की बांस की खपच्ची, कपड़े आदि नोंच-नोंच कर घर ले जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के बड़ागांव में एक भव्य प्राचीन मंदिर है। दंतकथाओं के मुताबिक उसका निर्माण रावण ने कराया था। यहां के लोग रावण के प्रति श्रद्धा रखते हैं। रामलीला का आयोजन यहां नहीं होता। मेरठ में रावण की ससुराल मानी जाती है, लेकिन यहां भी दशहरे पर रावण की पूजा नहीं होती। 

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सत्य, धर्म और शक्ति का प्रतीक है दशहरा

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है वह है मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। भारतवर्ष वीरता और शौर्य की उपासना करता आया है | और शायद इसी को ध्यान में रखकर दशहरे का उत्सव रखा गया ताकि व्यक्ति और समाज में वीरता का प्राकट्य हो सके। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है| आपको बता दें कि दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुई है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती है| इस वर्ष विजयादशमी (दशहरा) पर्व 13 अक्टूबर को मनाया जायेगा|

विजयदशमी के दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है| प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे|इस दिन जगह- जगह मेले लगते हैं और रामलीला का आयोजन होता है इसके अलावा रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है| दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है| भारत कृषि प्रधान देश है| जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की कोई सीमा नहीं रहती| इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है| पूरे भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है| महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव मनाया जाता है| इसमें शाम के समय सभी गांव वाले सुंदर-सुंदर नये वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के स्वर्ण रूपी पत्तों को लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं| फिर उस स्वर्ण रूपी पत्तों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है| इसके अलावा मैसूर का दशहरा देशभर में विख्‍यात है। मैसूर का दशहरा पर्व ऐतिहासिक, धार्मिक संस्कृति और आनंद का अद्भुत सामंजस्य रहा है| यहां विजयादशमी के अवसर पर शहर की रौनक देखते ही बनती है शहर को फूलों, दीपों एवं बल्बों से सुसज्जित किया जाता है सारा शहर रौशनी में नहाया होता है जिसकी शोभा देखने लायक होती है|

मैसूर दशहरा का आरंभ मैसूर में पहाड़ियों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता हे विजयादशमी के त्यौहार में चामुंडी पहाड़ियों को सजाया जाता है| पारंपरिक उत्साह एवं धूमधाम के साथ दस दिनों तक मनाया जाने वाला यह उत्सव देवी दुर्गा चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक होती है, यानी यह बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है| मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है जो मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है| इस पर्वो को वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया| वर्तमान में इस उत्सव की लोकप्रियता देखकर कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का सम्मान प्रदान किया है| यहाँ इस दिन पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। 

इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं। द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

बात करते हैं हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के दशहरा की| हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा सबसे अलग पहचान रखता है। यहां का दशहरा एक दिन का नहीं बल्कि सात दिन का त्यौहार है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्यौहार को दशमी कहते हैं। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। यहां के दशहरे को लेकर एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक साधु कि सलाह पर राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की उन्होंने अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना करवाई थी| कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी रोग से पीड़ित था अत: साधु ने उसे इस रोग से मुक्ति पाने के लिए रघुनाथ जी की स्थापना की तथा उस अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और उसने अपना संपूर्ण जीवन एवं राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया|

एक अन्य किंवदंती अनुसार जब राजा जगतसिंह, को पता चलता है कि मणिकर्ण के एक गाँव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है| सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से सताते हैं अत: यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है|

परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है और इस श्राप के फलस्वरूप कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है| तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है और रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है| राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहाँ दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा|

कुल्लू के दशहरे में अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं. सौ से ज़्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है| इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती है राजघराने के सब सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं| रथ यात्रा का आयोजन होता है| रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा तथा सीता व हिडिंबा जी की प्रतिमाओं को रखा जाता है, रथ को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है| उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं, रघुनाथ जी के इस पड़ाव सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ लंकादहन का आयोजन होता है तथा कुछ जानवरों की बलि दी जाती है|

यहाँ नहीं जलाया जाता है रावण का पुतला -

दशहरे के अवसर पर देशभर में रावण का पुतला जलाया जाता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के प्राचीन धार्मिक कस्बा बैजनाथ में दशहरा के दिन रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि ऐसा करना दुर्भाग्य और भगवान शिव के कोप को आमंत्रित करना है। यहाँ लोगों का मानना है कि इस स्थान पर रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षो तपस्या की थी। इसलिए यहां उसका पुतला जलाकर उत्सव मनाने का अर्थ है शिव का कोपभंजन बनना।

13वीं शताब्दी में निर्मित बैजनाथ मंदिर के एक पुजारी ने कहा कि भगवान शिव के प्रति रावण की भक्ति से यहां के लोग इतने अभिभूत हैं कि वे रावण का पुतला जलाना नहीं चाहते।

परिवर्तनकारी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की 47वीं पुण्यतिथि पर विशेष......

 देश के परिवर्तनकारी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की आज 47वीं पुण्यतिथि है| समाजवाद को एक नयी परिभाषा देने वाले लोहिया ने ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए भारत में 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में अकबरपुर नाम के गांव में जन्म लिया था|

समाजवाद की नयी परिभाषा देने वाले लोहिया ने भविष्य को ध्यान में रखते हुए कहा था- ''मुझे खतरा लगता है कि कहीं सोशलिस्ट पार्टी की हुकूमत में भी ऐसा ना हो जाये कि लड़ने वालों का तो एक गिरोह बने और जब हुकूमत का काम चलाने का वक़्त आये तब दूसरा गिरोह आ जाये|'' उनके इन वाक्यों को पढ़कर ऐसा लगता है कि उन्हें भविष्य की राजनीति का पूर्वाभास हो गया था|

प्रारंभिक जीवन

लोहिया के पिता का नाम हीरालाल व माता का नाम चन्दा देवी था| जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तब उनकी माता का देहांत हो गया| लोहिया के पिता महात्मा गांधी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे| इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ|

लोहिया ने शुरूआती पढाई टंडन पाठशाला से की जिसके बाद वह विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए| उन्होंने इंटरमीडीयेट की पढ़ाई बनारस के काशी विश्वविद्यालय से की| 1927 में इंटर पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज में दाखिला लिया|

जर्मनी से पीएचडी की उपाधि लेने वाले लोहिया ने देश से अंग्रेजी हटाने का जो आह्वान किया| उन्होंने कहा, "मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें| इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं|’’

स्वतंत्रता संग्राम में दिया योगदान

भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी राममनोहर लोहिया, महात्मा गांधी से प्रेरित थे| उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रीय भूमिका निभाई| सिर्फ इतना है नहीं, भारत छोड़ो आन्दोलन में भी उनके महत्वपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता| लोहिया ने लोकमान्य तिलक के निधन पर छोटी हड़ताल आयोजित कर स्वतंत्रता आंदोलन में अपना पहला योगदान दिया| वह महज दस साल की उम्र में गांधीजी के सत्याग्रह से जुड़े|

लोहिया ने जिनिवा में लीग ऑफ नेशंस सभा में भारत का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश राज के सहयोगी बीकानेर के महाराजा द्वारा किए जाने पर कड़ी आपत्ति जतायी| अपने इस विरोध का स्पष्टीकरण देने के लिए अखबारों और पत्रिकाओं में उन्होंने कई पत्र भेजे| इस पूरी प्रतिक्रिया के दौरान लोहिया रातोंरात चर्चा में आ गए|

वर्ष 1940 में उन्होंने ‘सत्याग्रह अब ’ आलेख लिखा और उसके छह दिन बाद उन्हें दो साल की कैद की सजा हो गयी| ख़ास बात थी मजिस्ट्रेट ने उन्हें सजा सुनाने के दौरान उनकी खूब सराहना की| जेल में उन्हें खूब यातना दी गयी| दिसंबर, 1941 में वह रिहा कर दिए गए|

9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी व अन्य कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहकर 'भारत छोड़ो आंदोलन' को पूरे देश में फैलाया| लोहिया ने भूमिगत रहते हुए 'जंग जू आगे बढ़ो, क्रांति की तैयारी करो, आजाद राज्य कैसे बने' जैसी पुस्तिकाएं लिखीं| इसके बाद 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई में गिरफ्तार कर लिया गया| बचपन में पिता से मिले आदर्शों व देशभक्ति के जज्बे ने स्वतंत्रता संग्राम के समय खूब रंग दिखाया| हालांकि, स्वतंत्रता के बाद हुए देश के विभाजन ने लोहिया को कहीं न कहीं झकझोर कर रख दिया|

रखी समाजवाद की नींव

लोहिया ने स्वतंत्रता के नाम पर सत्ता मोह का खुला खेल अपनी नंगी आंखों से देखा था और इसीलिए स्वतंत्रता के बाद की कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों के प्रति उनमें बहुत नाराजगी थी| लोहिया सही मायनों में गैर-कांग्रेसवाद के शिल्पी थे| भारत विभाजन में कांग्रेस के विचारों ने उन्हें बहुत ठेस पंहुचाई, जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस से दुरी बनाते हुए समाजवाद को अपना ध्येय बना लिया|

लोहिया ने कहा, "हिंदुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें और मैं यह याद दिला दूं कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिंदुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होंने अपनी सरकार की भी निंदा की थी और सिर्फ निंदा ही नहीं की बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पडा़|"

लोहिया व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे| समाज के निचले पायदान पर रह गये वंचितों की गैर-बराबरी के खात्मे के हिमायती तथा मानव के द्वारा मानव के शोषण की खिलाफत करने में लोहिया ने कोई कसर नहीं रखी| उन्होंने आगे चलकर विश्व विकास परिषद बनायी| जीवन के अंतिम वर्षों में वह राजनीति के अलावा साहित्य से लेकर राजनीति एवं कला पर युवाओं से संवाद करते रहे| 12 अक्तूबर, 1967 को लोहिया का देहांत हो गया|

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महंगाई पर कटाक्ष तो मतदान के लिए प्रोत्साहित करेंगे 'रावण'

मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव का रंग गहराने लगा है और दशहरा पर्व पर किया जाने वाला रावण का पुतला दहन समारोह भी इससे नहीं बच सका है। इंदौर में रावण के ये पुतले एक ओर जहां महंगाई पर कटाक्ष करते नजर आएंगे वहीं दूसरी ओर लोगों को मतदान के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश भी करेंगे। 

दशहरा का पर्व असत्य पर सत्य की जीत का पर्व है और इस मौके पर श्रद्धालु रावण का पुतला दहन कर बुराइयों को जलाते हैं। इस बार भी हर तरफ दशहरे पर रावण के पुतले जलाने की तैयारी है, इन्हें बनाने का कारोबार करने वाले तरह-तरह के पुतले बना रहे हैं। 

पिछले कई वर्षो से रावण के पुतलों को बनाने का काम करते आ रहे सुनील रावत का कहना है कि इस बार उनके द्वारा बनाए जा रहे पुतले बढ़ती महंगाई पर कटाक्ष करने से लेकर विधानसभा चुनाव में मतदान के लिए प्रोत्साहित करते नजर आएंगे। 

महंगाई की मार को रावण के पुतले के मुख्य चेहरे को देखकर ही आसानी से जाना जा सकता है। इस रावण की एक आंख ही नजर आती है। वहीं अन्य पुतले लोगों को वोट का महत्व बताते हुए आगामी विधानसभा चुनाव में अधिक से अधिक मतदान करने का संदेश दे रहे हैं। 

रावत बताते हैं कि उनके पास पांच फुट से लेकर 25 फुट तक के रावण के पुतले बनाने के ऑर्डर हैं। इन पुतलों की कीमत 25 हजार रुपये तक है। उनके द्वारा बनाए जा रहे पुतले समाज को संदेश देने के साथ समाज की समस्याओं को जाहिर करने वाले होंगे। 

राजनीतिक दलों से जुड़े लोग अपने विरोधियों पर रावण के पुतलों के जरिए हमला करने के मनसूबे पाले हुए हैं। वहीं पुतले बनाने वालों का कहना है कि वे ऐसे पुतले नहीं बनाएंगे जो किसी राजनीतिक दल या किसी व्यक्ति पर हमला करने वाले हों। वे तो समस्याओं को जाहिर करने वाले पुतले बनाने का ही काम कर रहे हैं। 

दशहरे पर रावण के पुतलों का तो दहन हो जाएगा, मगर इन पुतलों के संदेश लोगों पर कितना असर डालते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा।
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जहां कहारों की 'डोली' पर विदा होती हैं मां दुर्गा

शारदीय नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा-आराधना के बाद दशमी तिथि (दशहरा) के दिन मां की विदाई की परंपरा है। आमतौर पर प्रतिमाओं के विसर्जन में ट्रक, ट्राली और ठेलों का प्रयोग होता है, परंतु बिहार के मुंगेर जिले में बड़ी दुर्गा मां मंदिर की प्रतिमा के विसर्जन के लिए न तो ट्रक की जरूरत पड़ती है और न ही ट्राली की। यहां मां की विदाई के लिए 32 लोगों के कंधों की जरूरत होती है, और ये सभी कहार जाति के होते हैं। 

मुंगेर में इस अनोखे दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। बुजुर्ग लोगों का कहना है कि यह परंपरा यहां काफी समय से चली आ रही है और इस परंपरा का निर्वहन वर्तमान में भी हो रहा है। 

स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि पुराने जमाने में जब वाहनों का प्रचलन नहीं था तब लोग बेटियों की विदाई डोली पर ही किया करते थे, जिसे उठाने वाले कहार जाति के लोग ही होते थे। संभवत: इसी कारण यहां दुर्गा मां की विदाई के लिए इस तरीके को अपनाया गया होगा, जो अब यहां परंपरा बन गई है। मां की प्रतिमा के विसर्जन की तैयारी यहां काफी पहले से शुरू हो जाती है। 

मुंगेर बड़ी दुर्गा स्थान समिति के सदस्य आलोक कुमार कहते हैं कि यहां प्रतिवर्ष दुर्गा पूजा के बाद प्रतिमा विसर्जन तब होता है, जब 32 कहार इनकी विदाई के लिए यहां उपस्थित हों। वह कहते हैं कि इसके लिए कहार जाति के लोगों को पहले से निमंत्रण दे दिया जाता है। वह बताते हैं कि इनकी संख्या का खास ख्याल रखा जाता है कि वे 32 से न ज्यादा हों और न कम। 

मुंगेर के वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार ने बताया कि जनश्रुतियों के मुताबिक कुछ साल पहले पूजा समिति के लोग प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लेकर आए थे, लेकिन प्रतिमा लाख कोशिशों के बाद भी अपने स्थान से नहीं हिली। लिहाजा, अब कोई भी व्यक्ति दुर्गा मां की प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लाने के विषय में नहीं सोचता। विसर्जन के दौरान लाखों लोग यहां इकट्ठे होते हैं और मां के जयकारे से पूरा शहर गुंजायमान रहता है। 

समिति के सदस्यों के मुताबिक विसर्जन से पूर्व यहां प्रतिमा को पूरे शहर में भ्रमण करवाया जाता है। इस दौरान चौक-चौराहों पर प्रतिमा की विधिवत पूजा-अर्चना भी होती है। दुर्गा प्रतिमा के आगे-आगे अखाड़ा पार्टी के कलाकार चलते हैं, जो ढोल और नगाड़े की थाप पर तरह-तरह की कलाबाजियां दिखाते रहते हैं। इसके बाद प्रतिमा गंगा घाट पहुंचती है, जहां उसे विसर्जित कर मां को विदाई दी जाती है।

विदाई यात्रा के दौरान बीच-बीच में मां के भक्त डोली को कंधा देकर अपने को धन्य समझते हैं। दुर्गा मां की विदाई के समय भक्तों की आंखें नम रहती हैं, परंतु उन्हें यह उम्मीद भी होती है कि दुर्गा मां अगले साल फिर आएंगी और लोगों के दुख हरेंगी। कहार जाति के लोग भी मां दुर्गा की डोली उठाने में खुद को धन्य समझते हैं।
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