ऐसे गांव जहां घरों में नहीं होते दरवाजे, देवी-देवता करते हैं रक्षा

आज जहां चोरी और लूट की वारदातों से सबक लेकर गांव-शहर सभी जगह लोग अपने घरों को सुरक्षित रखने के लिए तमाम प्रबंध करते हैं, वहीं उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और महाराष्ट्र के शनि शिगनापुर में जहां के लोग अपने घरों में दरवाजे तक नहीं लगाते। उनका मानना है कि गांव के बाहर बने मंदिर में विराजमान देवी- देवता उनके घरों की रक्षा करती हैं।

इलाहाबाद जिले के सिंगीपुर गांव के सभी घरों ये समानता देखने को मिलती है कि उनमें दरवाजे नहीं हैं। कच्चे, पक्के और झोपड़े हर तरह के इस गांव तकरीबन 150 घर हैं। ग्रामीण सहजू लाल ने कहा, "ये बाकी लोगों को चौंकाने वाली हो सकती है, लेकिन हमारे लिए ये एक परंपरा बन चुकी है। हम दशकों से बिना दरवाजों के घरों में रह रहे हैं।" इलाहाबाद शहर के करीब 40 किलोमीटर दूर सिंगीपुर गांव की आबादी करीब 500 है। गांव में निचले मध्यम वर्गीय परिवार और गरीब तबके के लोग रहते हैं, जो फेरी लगाने, छोटी मोटी दुकानें चलाने और मजदूरी कर परिवार चलाते हैं। गांव में दलितों, जनजातियों और पिछड़ा वर्ग के लोगों की संख्या ज्यादा है।

ग्रामीणों का विश्वास है कि मां काली उनके घरों की रक्षा करती हैं और जो भी उनके घरों में चोरी का प्रयास करेगा, मां उसे दंड देंगी। ग्रामीण बड़े लाल निषाद बसंत लाल कहते हैं कि गांव के बाहर बने मंदिर में विराजमान मां काली पर हमें पूरा भरोसा है, इसीलिए हम अपने घरों की चिंता नहीं करते। निषाद के मुताबिक उनके बुजुर्ग कहा कहते थे कि जिन लोगों ने इस गांव में चोरी की, उनकी या तो मौत हो गई या वे गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो गए। 

वहीँ, महाराष्ट्र के शनि शिगनापुर में लोगों के घरों में दरवाजों की चौखटें तो लगी हुई हैं, लेकिन दरवाजा नहीं हैं। यहां के लोग सुरक्षा के लिए लॉकरों में भी ताले नहीं लगाते हैं। दरअसल उनका विश्वास है कि मंदिर शनि देवता का निवास स्थान है और इस वजह से वहां कोई भी चोरी करने की हिम्मत नहीं कर सकता, क्योंकि इससे उसे और उसके परिवारवालों को शनि के क्रोध का सामना करना पड़ेगा।

इतना ही नहीं ये तो लोगों की आस्था है लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि यहां बैंक भी इस परंपरा का पालन करते हैं। कुछ दिनों पहले यहां यूको बैंक की एक शाखा शुरू हुई है, जिसके दरवाजे पर कोई ताला नहीं लगता है। करीब 3000 लोगों की आबादी वाला यह अनूठा शहर जहां के लोग अपने घरों की रक्षा के लिए भगवान पर यकीन करते हैं।

कुंवारी लड़कियां करती हैं कुंवारे लड़कों की डंडो से पिटाई, जिसको पड़ा उसका ब्याह पक्का

दुनिया में ऐसे तो कई अजीबोगरीब परंपराएं हैं, जिनके बारे में सुनकर हम आश्चर्य में पड़ जाएंगे। कुछ ऐसी परंपराएं होतीं हैं जिन्हें आप कभी भी नहीं भुला पाते हैं। इन्हीं में से एक राजस्थान के जोधपुर की एक परम्परा| जोधपुर की अजीबोगरीब परंपरा को सुनकर आप चौंक जाओगे। 

इस उत्सव का नाम है 'धींगा गवर'। इस उत्सव में लड़कियां कुंवारे लड़कों को दौड़ा-दौड़ाकर डंडा मारती हैं। यहां की मान्यता के अनुसार डंडा अगर किसी लड़के पर लगता है तो उसका ब्याह होना पक्का समझा जाता है। इस उत्सव को बेंतमार गणगौर के रूप में जाना जाता है। यहां रात के समय हाथों में बेंत लिए महिलाएं और युवतियां अलग-अलग तरह के स्वांग रचकर सड़कों पर निकल जाती हैं। बेंत की पिटाई से बचने के लिए पुरूष और युवक भागते दौड़ते नजर आते हैं।

इस त्योहार के साथ सोलह अंक का सुंदर संयोग भी जुड़ा है। धींगा गवर मेला गवर माता की पूजा के सोलहवें दिन मनाया जाता है। तीजणियां सोलह दिन तक उपवास रखती हैं, फिर सोलह श्रृंगार कर धींगा गवर माता के दर्शन करने निकलती हैं। इस दौरान जो भी महिलाएं सोलह व्रतधारी होती हैं उनकी बांह पर सोलह गांठों वाला पवित्र सूत बंधा होता है, जिसे सोलहवें दिन उतार कर गवर माता की बांह पर इस उद्देश्य से बांध दिया जाता है कि अगले जन्म में वह अखंड सौभाग्यवती हो।

गवर माता को पार्वती का रूप माना जाता है। ईश्वर शिव के प्रतीक होते हैं। इसका पूजन सुहागिनें अपने इसी जन्म के भरतार की सुखद दीर्घायु के लिए करती है, जबकि धींगागवर का पूजन अगले जन्म में उत्तम जीवन साथी मिलने की कामना के साथ किया जाता है। धींगा गवर के पूजन में ये भी मान्यता है कि इसी सुहागिनों के साथ साथ कुंवारी कन्याएं और विधवाएं भी कर सकती है। चूंकि पूजा का महात्म्य अगले जन्म के लिए कामना करना होता है, इसलिए कुंवारी कन्याएं भी इसी उद्देश्य से और विधवा महिलाएं भी इस प्रार्थना के साथ पूजा करती हैं।

मारवाड़ में लगभग 80-100 वर्ष पहले ये मान्यता थी कि धींगा गवर के दर्शन पुरुष नहीं करते। क्योंकि तत्कालीन समय में ऐसा माना जाता था कि जो भी पुरुष धींगा गवर के दर्शन कर लेता था उसकी मृत्यु हो जाती थी। ऐसे में धींगा गवर की पूजा करने वाली सुहागिनें अपने हाथ में बेंत या डंडा ले कर आधी रात के बाद गवर के साथ निकलती थी। वे पूरे रास्ते गीत गाती हुई और बेंत लेकर उसे फटकारती हुई चलती। 

बताया जाता है कि महिलाएं डंडा फटकारती थी ताकि पुरुष सावधान हो जाए और गवर के दर्शन करने की बजाय किसी गली, घर या चबूतरी की ओट ले लेते थे। कालांतर में यह मान्यता स्थापित हुई कि जिस युवा पर बेंत (डंडा) की मार पड़ती उसका जल्दी ही विवाह हो जाता। इसी परंपरा के चलते युवा वर्ग इस मेले का अभिन्न हिस्सा बन गया है।

केला ही नहीं उसके छिलके में भी होते हैं कमाल के गुण, जानिए तो सही

केला हर मौसम में सरलता से उपलब्ध होने वाला अतयंत पौष्टिक और स्वादिष्ट फल है| केले की गिनती हमारे देश के उत्तम फलों में होती है और मांगलिक कार्यों में भी विशेष स्थान दिया गया है। केला एक ऐसा फल है जिसे अमीर गरीब हर कोई खा सकता है| केले की सबसे ख़ास बात यह है कि इसके छिलके भी आपके लिए बहुत फायदेमंद है| छिलके की मदद से आप शरीर को भारी मात्रा में न्यूट्रियंट्स देने के साथ वज़न भी घटा सकते हैं।

एक अध्ययन में कहा गया है कि केले के छिलके में विटामिन-ए की मात्रा पाई जाती है, जो इम्यूनिटी को मज़बूत कर इंफेक्शन से लड़ने में मदद करता है। इसमें लुटीन नामक पदार्थ होता है, जो आंखों में मोतियाबिंद होने से रोकता है। इसके अलावा इसमें एंटी-ऑक्सीडेंटस होने के साथ विटामिन-बी, ख़ासतौर से विटामिन-बी-6 की मात्रा होती है।

इसमें घुलने वाले और न घुलने वाले फाइबर होते हैं, जो पाचन क्रिया के कार्य को धीरे कर, शरीर से कॉलेस्ट्रॉल को कम करते हैं। इन केले के छिलको को खाने में इस्तेमाल करने के लिए इसलिए बोला जाता है, क्योंकि इनमें पोटेशियम और मैग्नीशियम की मात्रा होती है, जो बल्ड प्रेशर को बनाए रखने में मदद करती है।

इसके अलावा हरे छिलके में ट्रिपटोफन नामक पदार्थ होता है, जो एक तरह का अमीनो एसिड है। यह रात को अच्छी नींद लेने के लिए लाभकारी है। कई अध्ययनों का तो यह भी मानना है कि छिलके में सेरोटोनिन नाम का पदार्थ होता है, जो डिप्रेशन पर काबू रख आपको खुश रखता है। इसके अलावा इसमें डोपामाइन होता है, जो दिल की धड़कन पर नियंत्रण रख गुर्दों में खून का प्रवाह बनाए रखता है।

रिसर्च के मुताबिक पीले छिलके में एंटी-कैंसर गुण होते हैं, जो व्हाइट बल्ड सेल्स को उत्पन्न करने में मदद करते हैं। अगर आप अपने आहार में केले का हरा छिलका शामिल करते हैं, तो इसे मुलायम करने के लिए 10 मिनट उबालें। इसके बाद इस्तेमाल करें।

केले के छिलके को पीसकर उसका पेस्ट 15 मिनट के लिये सिर पर लगाने से सिरदर्द दूर हो जाता है। दरअसल सिर दर्द खून की धमनियों में पैदा होने वाले तनाव की वजह से होता है, और केले के छिलके में मौजूद मैगनीशियम धमनियों में जाकर सिर के दर्द को रोकने में मदद करता है। इसके अलावा केले का छिलके नियमित रूप से दांतों पर रगड़ने से उनमें चमक आती है, ऐसे इसमें मौजूद पोटेशियम, मैगनीशियम और मैंगनीज द्वारा दांतों पर जमे पीलेपन को हटाने से होता है। 

शरीर के किसी अंग में दर्द होने पर दर्द वाली जगह पर केले के छिलके को पीसकर लगाने से आराम मिलता है। साथ ही किसी कीड़े के काट लेने पर जलन वाली जगह पर केले के छिलके को घिसने से जलन दूर होती है। पैरों या हाथों के मस्सों पर केले के छिलके को रगड़ने और रात भर लगा छोड़ देने से दोबारा उस जगह पर मस्सा नहीं होता है। वहीं मुंहासों पर केले के छिलके को मसलकर पांच मिनट तक लगाने से भी फायदा होता है।

केले के छिलके को त्वचा पर लगाने से त्वचा में पानी की कमी पूरी होती है। इसके सही तरह से उपयोग के लिये अंडे की जर्दी में केले के छिलके (पीसकर) मिलाकर चेहरे पर लगाएं, और फिर कुछ मिनटों बाद धो लें। इससे झुर्रियां दूर होंगी और त्वचा पर निखार आएगा। केले के छिलके में ल्यूटेन नामक एंटीऑक्सीडेंट मौजूद होता है, जोकि हमारी आंखों की अल्ट्रा वायलेट किरणों से सुरक्षा करता है। इसके अलावा थकान महसूस होने पर पांच मिनट के लिए केले के छिलकों को आंखों पर रखने से बहुत आराम मिलता है।

तो हुई न आम के आम और गुठलियों के दाम वाली बात।

राखी सावंत ने कुछ इस तरह की गणेश पूजा, देखें फोटो


 

बॉलीवुड की बड़बोली अभिनेत्री राखी सावंत ने गणेश चतुर्थी पर अपने घर में गणेश जी की स्थापना की| इस मौके पर न केवल वे गणपति पूजा करती देखी गईं, बल्कि भजनों पर डांस करते भी नजर आईं। राखी ने इस दौरान लाल कलर की साड़ी और ढेर सारे गहने पहने हुए थे। आप भी देखिए उनकी कुछ चुनिंदा तस्वीरें













बॉलीवुड सितारों के घर पधारे गणपति बप्पा, देखें फोटो

इस समय हर ओर केवल एक ही गूंज सुनाई दे रही है वह है कि गणपति बप्‍पा मोरया की गूंज। लोग अपने घरों में गणपति की स्‍थापना कर रहे हैं। बॉलीवुड स्‍टार्स भी इसमें पीछे नहीं हैं। गोविंदा, नाना पाटेकर, जितेंद्र, राखी सावंत, शिप्ला शेट्टी, रानी मुखर्जी और ऋषि कपूर समेत कई सितारों ने अपने घर में गणपति की स्‍थापना की है। आइये देखें इनकी फोटोज|











आखिर क्यों शनि की नजर है अशुभ? जानिए रोचक प्रसंग

शनि एक ऐसा नाम है जिसे पढ़ते-सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शनि की कुद्रष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातो-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई बुरा कर्म किया है तो वह शनि के प्रकोप से नहीं बच सकता है। कई ऐसी घटनाएं हैं जहां शनि की कुदृष्टि पडऩे पर भारी संकट उत्पन्न हो गया। आखिर क्यों शनि की नजर अशुभ है? 

ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसके पीछे एक कथा का वर्णन है, जो इस प्रकार है- सूर्य पुत्र शनि का विवाह चित्ररथ नामक गंधर्व की कन्या से हुआ था, जो स्वभाव से बहुत ही उग्र थी। एक बार जब शनिदेव भगवान की आराधना कर रहे थे तब उनकी पत्नी ऋतु स्नान के बाद मिलन की कामना से उनके पास पहुंची लेकिन शनि भगवान भक्ति में इतने लीन थे कि उन्हें इस बात का पता ही नहीं चला। 

जब शनिदेव का ध्यान भंग हुआ तब तक उनकी पत्नी का ऋतुकाल समाप्त हो चुका था। इससे क्रोधित होकर शनिदेव की पत्नी ने उन्हें शाप दे दिया कि पत्नी होने पर भी आपने मुझे कभी प्रेम दृष्टि से नहीं देखा अब आप जिसे भी देखेंगे उसका कुछ न कुछ बुरा हो जायेगा। इसी कारण शनि की दृष्टि में दोष माना गया है।

ऋषि पंचमी आज, जाने व्रत विधि व कथा

हिंदुत्व परंपराओं के अनुसार भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋषि पंचमी कहते हैं, इस दिन व्रत रखना चाहिए। इसके लिए स्नानादि से निवृत्त हो वेदी बनाते हैं। उस पर विविध रंगों से अष्टदल कमल का चित्रण करते हैं, फिर मुनियों की मूर्ति उकेर कर विधान सहित पूजा करते हैं। 

ऋषि पंचमी व्रत-

प्रात:काल से दोपहर तक उपवास करके दोपहर को तालाब में जाकर अपामार्ग की दातून से दांत साफ कर, शरीर में मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिये| उसके बाद गेरू या गोबर से पूजन स्थल को लीपें|
सर्वतोभद्रमंडल बनाकर, मिट्टी या तांबे के कलश के कलश में जौ भर कर स्थापना करें। पंचरत्न,फूल,गंध,अक्षत से पूजन कर व्रत का संकल्प करें। कलश के पास अष्टदल कमल बनाकर, उसके दलों में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जगदग्नि और वशिष्ठ ऋषियों की पत्नी की प्रतिष्ठा करें।

इन सभी सप्तऋषियों का 16 वस्तुओं से पूजन करें। ऋषि पंचमी में साठी का चावल और दही खाई जाती है। नमक और हल से जुते अन्न इस व्रत में नहीं खाये जाते हैं। पूजन के बाद कलश सामग्री को किसी ब्राह्मण को दान करें। पूजा के बाद ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें।

ऋषी पंचमी व्रत की कहानी-

एक नगर में एक ब्राह्मण रहता था ।एक दिन ब्राह्मण की पत्नी ने ऋषि पंचमी का उद्यापन करने की सोची ।इसकेलिए उसने ऋषियों को भोजन के लिए आमंत्रण दिया। लेकिन दुसरे दिन वह दूर की हो गई ।उसने सोचा अब क्या करे ,वह अपनी पड़ोसन के पास गई और पूछा कि मैं क्या करु, मैंने तो आज ऋषियों को जीमने का न्योता दिया है और आज ही मैं दूर की हो गई! पड़ोसन ने कहा कि तू सात बार नहा ले और सात बार कपड़े बदल ले और फिर खाना बना ले। उसने ऐसा ही किया ।

ऋषि जब घर आए और ब्राहमण की पत्नी से पूछा कि हम 12 वर्ष में आँख खोलते हैं भोजन में कोई आपत्ति तो नहीं हैं! ब्राहमण की पत्नी ने कहा कि भोजन में कोई आपत्ति नहीं है आप आँख खोलिए ।ऋषियों ने जैसे ही आँख खोली तो देखा कि भोजन में लटकीड़े हैं, यह देखकर उन्होंने ब्राहमण व उसकी पत्नी को श्राप दे दिया। उनके श्राप के कारण अगले जन्म में ब्राहमण ने तो बैल का व उसकी पत्नी ने कुतिया के रूप में जन्म लिया। दोनों अपने बेटे के यहाँ रहने लगे।

बेटा बहुत धार्मिक था। एक दिन लडके के माता-पिता के श्राद्ध का दिन आया, इसलिए उसने ब्राहमणों को भोजन पर बुलाया। यह देख बैल व कुतिया बाते करने लगे की आज तो अपना बेटा श्राद कर रहा हैं ।खीर पुड़ी खाने को मिलेगी। ब्राह्मन के बेटे की बहु खीर बनाने के लिए दूध चूल्हे पर चढ़ा कर अन्दर गई तो दूध में एक छिपकली का बच्चा गिर गया। कुतिया यह देख रही थी। उसनें सोचा की ब्राहमण यह खीर खायेगें तो मर जायेगें और अपने बहु/बेटे को श्राप लगेगा। ऐसा सोचकर उसनें दूध कि भगोने में मुहँ लगा दिया।

बहु ने ये सब देख लिया। उसे बहुत क्रोध आया, उसनें चूल्हे की लकड़ी निकाल कर कुतिया को बहुत मारा। उसकी कमर टूट गई। बहु ने उस दूध को फैका और दुबारा से रसोई बनाई व आमंत्रित ब्रह्मण ब्राह्मणी को जीमाया। बहु रोज़ कुतिया को रोटी देती थी, पर उस दिन खाने को कुछ भी नहीं दिया। रात को कुतिया बैल के पास गई और बोली आज तो मूझे बहु ने बहुत मारा मेरी कमर ही टूट गई और रोटी भी नहीं दी। बैल बोला आज मैं भी बहुत भूखा हूँ, आज मुझे भी खाने को कुछ नहीं मिला।

दोनों बातें कर रहे थे कि तुने पिछले जन्म में दूर की होने पर भी ऋषियों के लिए खाना बनाया था अत: उन्ही के श्राप के कारण हमे ये सब भुगतना पड़ रहा हैं। वे दोनों जब ये बाते कर रहें थे, तो उनके बेटे ने उनकी बाते सुन ली। उसे अपने माता-पिता के बारे में ये सब सुन कर बहुत दु:ख हुआ। उसने कुतिया को रोटी दी और बैल को चारा दिया। दुसरे दिन वह ऋषयो के पास गया और अपने माता-पिता की मुक्ति का उपाय पूछा। ऋषि बोले की भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पंचमी को व्रत करना और अपने माता-पिता को ऋषियों के नहाये पानी से नहलाना। उसने एसा ही किया और अपने माता-पिता को कुतिया बैल की योनी से मुक्ति करायी ।

जानिए गणेश चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध क्यों...?

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध माना गया है| कहते हैं कि इस रात जो व्यक्ति चंद्रमा को जाने-अन्जाने देख लेता हैं उसे मिथ्या कलंक लगता हैं। उस पर झूठा आरोप लगता हैं। क्या आपको पता है ऐसा क्यों होता है? 

शास्त्रों के अनुसार, एक बार जरासन्ध के भय से भगवान कृष्ण समुद्र के बीच नगर बनाकर वहां रहने लगे। भगवान कृष्ण ने जिस नगर में निवास किया था वह स्थान आज द्वारिका के नाम से जाना जाता हैं। उस समय द्वारिका पुरी के निवासी से प्रसन्न होकर सूर्य भगवान ने सत्रजीत यादव नामक व्यक्ति अपनी स्यमन्तक मणि वाली माला अपने गले से उतारकर दे दी। यह मणि प्रतिदिन आठ सेर सोना प्रदान करती थी। मणि पातेही सत्रजीत यादव समृद्ध हो गया। भगवान श्री कृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने सत्रजीत

से स्यमन्तक मणि पाने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन सत्रजीत ने मणि श्री कृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजीत को दे दी। एक दिन प्रसेनजीत शिकार पर गया जहां एक शेर ने प्रसेनजीत को मारकर मणि ले ली। यही रीछों के राजा और रामायण काल के जामवंत ने शेर को मारकर मणि पर कब्जा कर लिया था। कई दिनों तक प्रसेनजीत शिकार से घर न लौटा तो सत्रजीत को चिंता हुई और उसने सोचा कि श्रीकृष्ण ने ही मणि पाने के लिए प्रसेनजीत की हत्या कर दी। इस प्रकार सत्रजीत ने पुख्ता सबूत जुटाए बिना ही मिथ्या प्रचार कर दिया कि श्री कृष्ण ने प्रसेनजीत की हत्या करवा दी हैं। इस लोकनिंदा से आहत होकर और इसके निवारण के लिए श्रीकृष्ण कई दिनों तक एक वन से दूसरे वन भटक कर प्रसेनजीत को खोजते रहे और वहां उन्हें शेर द्वारा प्रसेनजीत को मार डालने और रीछ द्वारा मणि ले जाने के चिह्न मिल गए। इन्हीं चिह्नों के आधार पर श्री कृष्ण जामवंत की गुफा में जा पहुंचे जहां जामवंत की पुत्री मणि से खेल रही थी। 

उधर जामवंत श्री कृष्ण से मणि नहीं देने हेतु युद्ध के लिए तैयार हो गया। सात दिन तक जब श्री कृष्ण गुफा से बाहर नहीं आए तो उनके संगी साथी उन्हें मरा हुआ जानकार विलाप करते हुए द्वारिका लौट गए। 21 दिनों तक गुफा में युद्ध चलता रहा और कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। तब जामवंत को भान हुआ कि कहीं ये वह अवतार तो नहीं जिनके दर्शन के लिए मुझे रामचंद्र जी से वरदान मिला था। तब जामवंत ने अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में श्रीकृष्ण को दे दी। उधर कृष्ण जब मणि लेकर लौटे तो उन्होंने सत्रजीत को मणि वापस कर दी। सत्रजीत अपने किए पर लज्जित हुआ और अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।

कुछ ही समय बाद अक्रूर के कहने पर ऋतु वर्मा ने सत्रजीत को मारकर मणि छीन ली। श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ उनसे युद्ध करने पहुंचे। युद्ध में जीत हासिल होने वाली थी कि ऋतु वर्मा ने मणि अक्रूर को दे दी और भाग निकला। श्रीकृष्ण ने युद्ध तो जीत लिया लेकिन मणि हासिल नहीं कर सके। जब बलराम ने उनसे मणि के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मणि उनके पास नहीं। ऐसे में बलराम खिन्न होकर द्वारिका जाने की बजाय इंद्रप्रस्थ लौट गए। उधर द्वारिका में फिर चर्चा फैल गई कि श्रीकृष्ण ने मणि के मोह में भाई का भी तिरस्कार कर दिया। मणि के चलते झूठे लांछनों से दुखी होकर श्रीकृष्ण सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है। तब नारद जी आए और उन्होंने कहा कि हे कृष्ण तुमने भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन किये थे और इसी कारण आपको मिथ्या कलंक झेलना पड़ रहा हैं।

श्रीकृष्ण चंद्रमा के दर्शन कि बात विस्तार पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण को कलंक वाली यह कथा बताई थी। एक बार भगवान श्रीगणेश ब्रह्मलोक से होते हुए लौट रहे थे कि चंद्रमा को गणेशजी का स्थूल शरीर और गजमुख देखकर हंसी आ गई। गणेश जी को यह अपमान सहन नहीं हुआ। उन्होंने चंद्रमा को शाप देते हुए कहा, 'पापी तूने मेरा मजाक उड़ाया हैं। आज मैं तुझे शाप देता हूं कि जो भी तेरा मुख देखेगा, वह कलंकित हो जायेगा।

गणेशजी शाप सुनकर चंद्रमा बहुत दुखी हुए। गणेशजी शाप के शाप वाली बाज चंद्रमा ने समस्त देवताओं को सोनाई तो सभी देवताओं को चिंता हुई। और विचार विमर्श करने लगे कि चंद्रमा ही रात्री काल में पृथ्वी का आभूषण हैं और इसे देखे बिना पृथ्वी पर रात्री का कोई काम पूरा नहीं हो सकता। चंद्रमा को साथ लेकर सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुचें। देवताओं ने ब्रह्माजी को सारी घटना विस्तार से सुनाई उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजी बोले, चंद्रमा तुमने सभी गणों के अराध्य देव शिव-पार्वती के पुत्र गणेश का अपमान किया हैं। यदि तुम गणेश के शाप से मुक्त होना चाहते हो तो श्रीगणेशजी का व्रत रखो। वे दयालु हैं, तुम्हें माफ कर देंगे। 

चंद्रमा गणेशजी को प्रशन्न करने के लिये कठोर व्रत-तपस्या करने लगे। भगवान गणेश चंद्रमा की कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और कहा वर्षभर में केवल एक दिन भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को जो तुम्हें देखेगा, उसे ही कोई मिथ्या कलंक लगेगा। बाकी दिन कुछ नहीं होगा। केवल एक ही दिन कलंक लगने की बात सुनकर चंद्रमा समेत सभी देवताओं ने राहत की सांस ली। उसी दिन से गणेश चतुर्थी यानि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध माना गया है|

जानिए कहाँ है भगवान गणेश का असली मस्तक

धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि उनका मुख हाथी का है| क्या आपको पता है कि भगवान श्रीगणेश का सिर कटने के बाद हाथी के बच्चे का मुख लगा लेकिन उनका असली सिर कहाँ गया? इसके बारे में आज आपको एक रोचक जानकारी देते हैं|

ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि जब गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया|

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।

ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से भी धर्म परंपराओं में संकट चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।

जानिए भगवान श्रीगणेश को सिंदूर चढाने का रहस्य

हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश बुद्धि, श्री यानी सुख-समृद्धि और विद्या के दाता हैं। उनकी उपासना और स्वरूप मंगलकारी माने गए हैं। गणेश के इस नाम का शाब्दिक अर्थ – भयानक या भयंकर होता है। क्योंकि गणेश की शारीरिक रचना में मुख हाथी का तो धड़ पुरुष का है। सांसारिक दृष्टि से यह विकट स्वरूप ही माना जाता है। किंतु इसमें धर्म और व्यावहारिक जीवन से जुड़े गुढ़ संदेश है। क्या आपको पता है भगवान श्रीगणेश को सिंदूर चढाने का रहस्य| यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि आखिर क्यों गजानन को सिंदूर चढ़ाते हैं?

भगवान श्रीगणेश जी की प्रतिमा पर सिंदूर का लेप करके चोला चढाना अति आवश्यक माना गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार- एक "सिन्धु" नामक असुर का वध श्रीगणेश जी ने किया और उसके शरीर से निकले सिंदूर का लेप श्रीगणेशजी ने क्रोधित अवस्था में अपने शरीर पर लगा लिया। यह "सिन्धु" अधर्म का पुत्र था और लोगों के घरों में घुसकर परिवार में अशांति, हानि और कलह उत्पन्न करता था।

श्रीगणेशजी के सिंदूर लिप्त स्वरूप से यह भयभीत होता है इसलिए मुख्य द्वार पर जो गणेशजी की प्रतिमा स्थापित की जाती है, वह ऎसे ही असुरों से और बुरी नजरों से घर की रक्षा करती है। मुख्य द्वार पर श्रीगणेशजी के दाएं-बाएं दोनों तरफ सिंदूर के धोल से "स्वास्तिक" और "रिद्धि-सिद्धि" व "शुभ-लाभ" लिखने की परंपराएं हैं। इस तरह के मांगलिक चिह्नों व नामों का अंकन घर में सुख-शांति का संचार करता है। 

घर में रहने वाला हर सदस्य घर से बाहर निकलते समय और घर में प्रवेश करते समय मुख्य द्वार पर स्थित गणेशजी को प्रणाम अवश्य करता है और शुभ-लाभ का स्मरण करते हुए शुद्ध नैतिक व वांछित मार्गो से ही शुद्ध लाभ अर्जित करने का संकल्प लेकर निकलता है और यह मानसिक संकल्प जीवन में सच्चाा सुख और ऎश्वर्य प्राप्त होने में सहायक है। सिंदूर मांगलिक पदार्थ है और बुरी आत्माओं व अदृश्य आसुरी शक्तियों से मनुष्य की अथवा घर की रक्षा करता है। इसकी तीव्र आभा से बुरी हवाओं का पलायन होता है और शुद्ध हवायें और तत्व मनुष्य के आसपास विद्यमान रहने लगते हैं।

...यहाँ स्त्री रूप में पूजे जाते हैं शुभ-लाभ के स्वामी भगवान गणेश!

अभी तक आपने भगवान भोलेनाथ को ही सुना था कि उनकी माँ दुर्गा की रूप में पूजा की जाती है| आज आपको उनके बेटे भगवान श्रीगणेश के बारे में बताने जा रहे हैं| एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान गणेश की स्त्री के रूप में पूजा की जाती है| हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश बुद्धि, श्री यानी सुख-समृद्धि और विद्या के दाता हैं। उनकी उपासना और स्वरूप मंगलकारी माने गए हैं। गणेश के इस नाम का शाब्दिक अर्थ– भयानक या भयंकर होता है। क्योंकि गणेश की शारीरिक रचना में मुख हाथी का तो धड़ पुरुष का है। सांसारिक दृष्टि से यह विकट स्वरूप ही माना जाता है। किंतु इसमें धर्म और व्यावहारिक जीवन से जुड़े गुढ़ संदेश है। 

रिद्धि-सिद्धि के दाता और शुभ-लाभ के स्वामी भगवान गणेश के अनेकों नामों में से उनका एक नाम विनायकी भी है अर्थात गणेश-लक्षणों युक्त स्त्री। धर्म शास्त्रों में गणपति को स्त्री रूप में पूजते हुए उन्हें विनायकी, गजानना, विद्येश्वरी और गणेशिनी भी कहा गया है। ये सभी नाम गणेश जी के संबंधित नामों के स्त्रीलिंग रूप हैं। हथिनी का सिर वाली स्त्री की कई प्रतिमाएं भी मिली हैं, जिनमें गणेश की तरह लंबोदर, फरसा, मोदक, अभय मुद्रा, मूषक जैसे लक्षण भी हैं। हालांकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ये स्त्री गणेश ही हैं। दरअसल, हिन्दू धर्म की तंत्र शाखा में एक योगिनी हथिनी के सिर वाली है। जबलपुर के समीप चौसठ योगिनी मंदिर और उड़ीसा के हीरापुर स्थित योगिनी मंदिर में ऐसी प्रतिमाएं देखी जा सकती हैं।

विदिशा के समीप विनायक और विनायकी के दोनों रूप एक साथ विराजित हैं। कोलकाता के संग्रहालय में वृषभमुखी अष्टभुजी दुर्गा के समीप चतुर्भुजी विनायकी की छोटी-सी प्रतिमा है। मान्यता है कि यह प्रतिमा सतना से प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त विंध्य, तमिलनाड़ु के चिदंबरम, मदुरै और सुचिंद्रम, उड़ीसा के रानीपुर झरियाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार और असम में भी ऐसी प्रतिमाएं प्राप्त होती रही हैं।

भक्तों का मानना है कि भगवान गणेश के लक्षणों से युक्त स्त्री माता पार्वती की दासी मालिनी हो सकती है, जिन्होंने एक कम प्रचलित कथा के अनुसार गणेश को गर्भ में रखा था। कहीं उन्हें शिव के एक रूप ईशान की पुत्री भी कहा गया है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, अंधकासुर के वध के लिए देवियों ने अपनी-अपनी शक्तियों का एक सम्मिलित रूप तैयार किया था। मतस्य पुराण और विष्णु धर्मत्तोर पुराण गणपित की शक्ति को योद्धा देवियों के साथ ही सूची बद्ध करते हैं। इसी शक्ति का नाम विनायकी और गणेश्वरी है। स्त्री गणेश को सप्तमातृका में से एक माना जाता है, जबिक कहीं-कहीं उन्हें नव मातृका भी कहा गया है।

जानिए भगवान गणेश की पूजा में क्यों निषिद्ध मानी गई है तुलसी

हिन्दू धर्म में तुलसी के पौधे का बहुत ही महत्व होता है| ऐसा मानना है कि जिस घर में इसका वास होता है वहा आध्यात्मिक उन्नति के साथ सुख-शांति एवं आर्थिक समृद्धता स्वयं आ जाती है। वातावारण में स्वच्छता एवं शुद्धता, प्रदूषण का शमन, घर परिवार में आरोग्य की जड़ें मज़बूत करने, श्रद्धा तत्व को जीवित करने जैसे अनेकों लाभ इसके हैं। धर्मग्रंथों के अनुसार जिस घर में तुलसी का पौधा होता है वहां रोग, दोष या क्लेश नहीं होता वहां हमेशा सुख-समृद्धि का वास होता है। इसीलिए प्रतिदिन तुलसी के पौधे की पूजा करने का भी विधान है। परन्तु सर्व व्याधियों का नाश करने वाली तुलसी श्री गणेश की पूजा में निषिद्ध मानी गई हैं। क्या आपको पता है कि आखिर ऐसा क्यों है? 

एक कथा के अनुसार, एक समय नवयौवना, सम्पन्ना तुलसी देवी नारायण परायण होकर तपस्या के निमित्त से तीर्थो में भ्रमण करती हुई गंगा तट पर पहुँचीं। वहाँ पर उन्होंने गणेश को देखा, जो कि तरूण युवा लग रहे थे। अत्यन्त सुन्दर, शुद्ध और पीताम्बर धारण किए हुए थे, आभूषणों से विभूषित थे, सुन्दरता जिनके मन का अपहरण नहीं कर सकती, जो कामनारहित, जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ, योगियों के योगी तथा जो श्रीकृष्ण की आराधना में ध्यानरत थे। उन्हें देखते ही तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी उनका उपहास उडाने लगीं। ध्यानभंग होने पर गणेश जी ने उनसे उनका परिचय पूछा और उनके वहां आगमन का कारण जानना चाहा। गणेश जी ने कहा—माता! तपस्वियों का ध्यान भंग करना सदा पापजनक और अमंगलकारी होता है। 

"" शुभे! भगवान श्रीकृष्ण आपका कल्याण करें, मेरे ध्यान भंग से उत्पन्न दोष आपके लिए अमंगलकारक न हो। "" इस पर तुलसी ने कहा—प्रभो! मैं धर्मात्मज की कन्या हूं और तपस्या में संलग्न हूं। मेरी यह तपस्या पति प्राप्ति के लिए है। अत: आप मुझसे विवाह कर लीजिए। तुलसी की यह बात सुनकर बुद्धि श्रेष्ठ गणेश जी ने उत्तर दिया— " हे माता! विवाह करना बडा भयंकर होता है, मैं ब्रम्हचारी हूं। विवाह तपस्या के लिए नाशक, मोक्षद्वार के रास्ता बंद करने वाला, भव बंधन की रस्सी, संशयों का उद्गम स्थान है। अत: आप मेरी ओर से अपना ध्यान हटा लें और किसी अन्य को पति के रूप में तलाश करें। तब कुपित होकर तुलसी ने भगवान गणेश को शाप देते हुए कहा—"कि आपका विवाह अवश्य होगा।" यह सुनकर शिव पुत्र गणेश ने भी तुलसी को शाप दिया—" देवी, तुम भी निश्चित रूप से असुरों द्वारा ग्रस्त होकर वृक्ष बन जाओगी।"

इस शाप को सुनकर तुलसी ने व्यथित होकर भगवान श्रीगणेश की वंदना की। तब प्रसन्न होकर गणेश जी ने तुलसी से कहा—हे मनोरमे! तुम पौधों की सारभूता बनोगी और समयांतर से भगवान नारायण की प्रिया बनोगी। सभी देवता आपसे स्नेह रखेंगे परन्तु श्रीकृष्ण के लिए आप विशेष प्रिय रहेंगी। आपकी पूजा मनुष्यों के लिए मुक्तिदायिनी होगी तथा मेरे पूजन में आप सदैव त्याज्य रहेंगी। ऎसा कहकर गणेश जी पुन: तप करने चले गए। इधर तुलसी देवी दु:खित ह्वदय से पुष्कर में जा पहुंची और निराहार रहकर तपस्या में संलग्न हो गई। तत्पश्चात गणेश के शाप से वह चिरकाल तक शंखचूड की प्रिय पत्नी बनी रहीं। जब शंखचूड शंकर जी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त हुआ तो नारायण प्रिया तुलसी का वृक्ष रूप में प्रादुर्भाव हुआ।

इस तरह मोदक बना गणेश का प्रिय

हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य देवता माना गया है| इसलिए सभी देवताओं में गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती है आपने यदि श्री गणेश तस्वीर पर ध्यान दिया होगा तो उनके हाथ में उनका प्रिय भोजन मोदक जरुर रहता है| क्या आपको पता है कि गणेश जी अन्य भोग की जगह मोदक इतना क्यों पसंद है?

शास्त्रों में कहा गया है कि गजानन का एक दांत परशुराम जी के साथ हुए युद्ध में टूट गया था| दांत के टूट जाने से उन्हें अन्य चीजों को खाने में तकलीफ होती थी क्योंकि उन्हें चबाना पड़ता था लेकिन मोदक को चबाना नहीं पड़ता है ऐसा इसलिए क्योंकि मोदक बहुत मुलायम होता है|

भगवान गणेश को मोदक इसलिए भी पसंद हो सकता है कि मोदक प्रसन्नता प्रदान करने वाला मिष्टान है। मोदक के शब्दों पर गौर करें तो 'मोद' का अर्थ होता है हर्ष यानी खुशी। भगवान गणेश को शास्त्रों में मंगलकारी एवं सदैव प्रसन्न रहने वाला देवता कहा गया है।

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में गणेश जी को मोदक प्रिय होने की जो कथा मिलती है उसके अनुसार मोदक का निर्माण अमृत से हुआ है। देवताओं ने एक दिव्य मोदक माता पार्वती को दिया। गणेश जी ने मोदक के गुणों का वर्णन माता पार्वती से सुना तो मोदक खाने की इच्छा बढ़ गयी। अपनी चतुराई से गणेश जी ने माता से मोदक प्राप्त कर लिया। गणेश जी को मोदक इतना पसंद आया कि उस दिन से गणेश मोदक प्रिय बन गये।