हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ मास के प्रथम दिन नारद जयन्ती मनाई जाती है| इस बार नारद जयन्ती 7 मई दिन सोमवार को है| देवर्षि नारद का हिन्दू शास्त्रों में मुख्य योगदान रहा है इनके द्वारा सृष्टि में अनेक लीलाओं को देखा गया जिनके सूत्रधार नारद मुनि को माना जाता है| नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रो मे से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों मे से एक माने जाते है।देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है।वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी,स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात,गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।इस पुराण में आगे यह भी लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य,क्रतु, पुलह,प्रत्यूष,प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण,पुलहके पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षिके रूप में केवल नारदजी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं।हाथ में वीणा थामे, खड़ी शिखा, मुख से निरंतर 'नारायण' शब्द का जाप करने वाले देवर्षि नारद देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों को जान लेने वाले, वेद ,उपनिषदों के मर्मज्ञ, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, संगीत विशारद, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, प्रभावशाली वक्तमहापण्डित, विद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म, अर्थ ,काम ,मोक्ष के ज्ञाता हैं|
बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। इसे बुद्ध जयन्ती के नाम से भी जाना जाता है| बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। इस बार बुद्ध पूर्णिमा 6 मई को मनाई जायेगी| पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में 50 करोड़ से अधिक लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। बुद्द पूर्णिमा का महत्व-धार्मिक ग्रंथों के अनुसार महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का तेइसवां अवतार माना गया है| इस दिन लोग व्रत-उपवास रखते हैं| इस दिन बौद्ध मतावलंबी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा बौद्ध विहारों व मठों में एकत्रित होकर सामूहिक उपासना करते हैं व दान दिया जाता है| बौद्ध और हिंदू दोनों ही धर्मो के लोग बुद्ध पूर्णिमा को बहुत श्रद्धा के साथ मनाते हैं| बुद्ध पूर्णिमा का पर्व बुद्ध के आदर्शों व धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है| संपूर्ण विश्व में मनाया जाने वाला यह पर्व सभी को शांति का संदेश देता है| दुनियाभर से बौद्ध धर्म के अनुयायी बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं तथा बोधिवृक्ष की पूजा करते हैं उसकी शाखाओं पर रंगीन ध्वज सजाए जाते हैं वृक्ष पर दूध व सुगंधित पानी डाला जाता है और उसके पास दीपक जलाए जाते है| श्रीलंका में इस पर्व को 'वेसाक' पर्व के नाम से जाना जाता है| इस दिन दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाया जाता है| बौद्ध धर्म के धर्मग्रंथों का निरंतर पाठ किया जाता है| इस दिन किए गए अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति होती है|महात्मा बुद्ध की कथा-गौतम बुद्ध का मूल नाम 'सिद्धार्थ' था इन्हें ‘बुद्ध', 'महात्मा बुद्ध' आदि नामों से भी जाना जाता है| यह बौद्ध धर्म के संस्थापक हुए. बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परंपरा से निकला धर्म और दर्शन है तथा संपूर्ण विश्व के चार बड़े धर्मों में से एक है| गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन और माता जी का नाम महामाया था| राज घराने में जन्में सिद्धार्थ के विषय में इनके पिता राजा शुद्धोधन को विद्वानों द्वारा बताया गया था कि युवराज सिद्धार्थ या तो एक महान राजा बनेंगे, या एक महान साधु बनेगें साथ ही यह भी भविष्यवाणी की कि युवराज सिद्धार्थ को किसी भी प्रकार के दुख को न देखने दिया जाए इनका कभी भी बूढे, रोगी, मृतक और सन्यासी से सामना न हो तभी यह राज्य कर पाएंगे|इस भविष्यवाणी को सुनकर राजा शुद्धोधन ने अपनी सामर्थ्य की हद तक सिद्धार्थ को दुख से दूर रखने की कोशिश की तथा सांसारिक बंधन में पूर्ण रूप से बांधने के लिए इनका विवाह यशोधरा जी के साथ कर दिया गया| परंतु जब सिद्धार्थ ने एक बार एक वृद्ध विकलांग व्यक्ति, एक रोगी, एक पर्थिव शरीर, और एक साधु समेत इन चार दृश्यों को एक साथ देखा तो उनके मन में जीवन के सत्य को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई और एक रात्रि सिद्धार्थ अपना सब कुछ छोड़कर सत्य की खोज में निकल पडे व एक साधु का जीवन अपना लिया. उन्होंने कठिन तप किया तथा अंत में महावरिक्ष के नीचे आठ दिन तक स्माधिवस्था में वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई यहीं से सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कहलाए| बुद्ध पूर्णिमा को बैशाख माह का अंतिम स्नान-वैसे तो प्रत्येक माह की पूर्णिमा श्री हरि विष्णु भगवान को समर्पित होती है। शास्त्रों में पूर्णिमा को तीर्थ स्थलों में गंगा स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। बैशाख पूर्णिमा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि इस पूर्णिमा को भाष्कर देव अपनी उच्च राशि मेष में होते हैं और चंद्रमा भी उच्च राशि तुला में। संयोगवश इस बार पूर्णिमा को स्वाती नक्षत्र का योग भी है। शास्त्रों में पूरे बैशाख माह में गंगा स्नान का महत्व बताया गया है। शास्त्रों में यह भी वर्णित है कि पूर्णिमा का स्नान करने से पूरे बैशाख माह के स्नान के बराबर पुण्य मिलता है।
वैसाख के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है| इस बार नृसिंह जयंती 4 मई दिन शुक्रवार को मनाई जाएगी| पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया था. जिस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के जयंती रूप में बड़े ही धूमधाम और हर्सोल्लास के साथ मनाया जाता है|
व्रत विधि-
इस दिन स्नानादि करे संपूर्ण घर की साफ-सफाई करें। इसके बाद गंगा जल या गौमूत्र का छिड़काव कर पूरा घर पवित्र करें।
नृसिंह देवदेवेश तव जन्मदिने शुभे।
उपवासं करिष्यामि सर्वभोगविवर्जितः॥
इस मंत्र के साथ इस मंत्र के साथ दोपहर के समय क्रमशः तिल, गोमूत्र, मृत्तिका और आँवला मलकर पृथक-पृथक चार बार स्नान करें। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। पूजा के स्थान को गोबर से लीपकर तथा कलश में तांबा इत्यादि डालकर उसमें अष्टदल कमल बनाना चाहिए। अष्टदल कमल पर सिंह, भगवान नृसिंह तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात वेदमंत्रों से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए। दूसरे दिन फिर पूजन कर ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।
कथा-
जब- जब पृथ्वीलोक पर असुरों का पाप बढ़ा तब-तब भगवान ने अवतार लिया| आपको बता दें कि नृसिंह अवतार भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक है| नरसिंह अवतार में भगवान विष्णु ने आधा मनुष्य व आधा शेर का शरीर धारण करके दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था|
प्राचीन काल में कश्यप नामक ऋषि हुए थे उनकी पत्नी का नाम दिति था| उनके दो पुत्र हुए, जिनमें से एक का नाम हरिण्याक्ष तथा दूसरे का हिरण्यकशिपु था| हिरण्याक्ष को भगवान श्री विष्णु ने पृथ्वी की रक्षा हेतु वाराह रूप धरकर मार दिया था| अपने भाई कि मृत्यु से दुखी और क्रोधित हिरण्यकशिपु ने भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए अजेय होने का संकल्प किया| सहस्त्रों वर्षों तक उसने कठोर तप किया, उसकी तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्माजी ने उसे 'अजेय' होने का वरदान दिया| वरदान प्राप्त करके उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया, लोकपालों को मार भगा दिया और स्वत: सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया|
देवता निरूपाय हो गए थे वह असुर को किसी प्रकार वे पराजित नहीं कर सकते थे अहंकार से युक्त वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा| इसी दौरान हिरण्यकशिपु कि पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया एक राक्षस कुल में जन्म लेने पर भी प्रह्लाद में राक्षसों जैसे कोई भी दुर्गुण मौजूद नहीं थे तथा वह भगवान नारायण का भक्त था तथा अपने पिता के अत्याचारों का विरोध करता था| भगवान-भक्ति से प्रह्लाद का मन हटाने और उसमें अपने जैसे दुर्गुण भरने के लिए हिरण्यकशिपु ने बहुत प्रयास किए, नीति-अनीति सभी का प्रयोग किया किंतु प्रह्लाद अपने मार्ग से विचलित न हुआ तब उसने प्रह्लाद को मारने के षड्यंत्र रचे मगर वह सभी में असफल रहा| भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद हर संकट से उबर आता और बच जाता था|
इस बातों से क्षुब्ध हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर जिन्दा ही जलाने का प्रयास किया| होलिका को वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती परंतु जब प्रल्हाद को होलिका की गोद में बिठा कर अग्नि में डाला गया तो उसमें होलिका तो जलकर राख हो गई किंतु प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ|
इस घटना को देखकर हिरण्यकशिपु क्रोध से भर गया उसकी प्रजा भी अब भगवान विष्णु को पूजने लगी, तब एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि बता, तेरा भगवान कहाँ है? इस पर प्रह्लाद ने विनम्र भाव से कहा कि प्रभु तो सर्वत्र हैं, हर जगह व्याप्त हैं| क्रोधित हिरण्यकशिपु ने कहा कि 'क्या तेरा भगवान इस स्तम्भ में भी है? प्रह्लाद ने हाँ, में उत्तर दिया|
यह सुनकर क्रोधांध हिरण्यकशिपु ने खंभे पर प्रहार कर दिया तभी खंभे को चीरकर श्री नृसिंह भगवान प्रकट हो गए और हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपनी जाँघों पर रखकर उसकी छाती को नखों से फाड़ डाला और उसका वध कर दिया| श्री नृसिंह ने प्रह्लाद की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि आज के दिन जो भी मेरा व्रत करेगा वह समस्त सुखों का भागी होगा एवं पापों से मुक्त होकर परमधाम को प्राप्त होगा अत: इस कारण से दिन को नृसिंह जयंती-उत्सव के रूप में मनाया जाता है|
भारत मान्यताओं और परम्पराओं का देश है| यहाँ तमाम तरह की परम्पराएँ है इन परम्पराओं में एक परम्परा यह है कि किसी परिवार के सदस्य या संबंधी की मौत हो जाने पर उसके कपड़े व बिस्तर फेंक दिए जाते है| क्या आपको पता है कि आखिर क्यों ऐसा किया जाता है| अगर नहीं तो हम आपको बताते हैं| आपको बता दें कि हमारी कोई भी परंपरा अंधविश्वास नहीं है। हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, हर परंपरा के पीछे कोई न कोई धार्मिक और वैज्ञानिक कारण जुड़े होते है| शास्त्रों के अनुसार किसी घर में मौत होती है तो उस घर में बारह दिन का सुतक रहता है और बारह दिन तक घर में पूजा-पाठ भी नहीं किया जाता है| उसके बाद सुतक निकाला जाता है और उसके बिस्तर भी दान कर दिए जाते हैं उस व्यक्ति के बिस्तर जिस पर उसकी मृत्यु होती है। घर में नहीं रखे जाते हैं क्योंकि मृत व्यक्ति के बिस्तर रखने से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी होता है।वहीँ, कपड़ा व बिस्तर फेंकने का वैज्ञानिक कारण यह है कि मृत व्यक्ति के शरीर में जो सूक्ष्मजीव होते हैं वे उसके बिस्तर पर भी होते हैं।
राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र और विष्णु के अवतार परशुराम की जयन्ती इस बार 24 अप्रैल दिन मंगलवार को है| बताया जाता है कि इन्हें शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिने जाता है। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।परशुराम का जन्म-प्राचीनकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। "समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम।परशुराम ने अपने जीवनकाल में किये थे अनेक यज्ञ- परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया।मातृ-पितृ भक्त थे परशुराम-श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी।अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।क्रोधी स्वभाव वाले थे परशुराम- दुर्वासा की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।परशुराम ने ली थी राम के पराक्रम की परीक्षा-बताया जाता है कि परशुराम राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं। अक्षय तृतीया पर्व को कई नामों से जाना जाता है| इसे अखतीज और वैशाख तीज भी कहा जाता है| इस बार अक्षय तृतीया का पर्व 24 अप्रैल, मंगलवार को है। इसे सौभाग्य दिवस भी कहते हैं। इस तिथि का जहां धार्मिक महत्व है वहीं यह तिथि व्यापारिक रौनक बढ़ाने वाली भी मानी गई है। इस दिन स्वर्णादि आभूषणों की खरीद फरोख्त को बहुत ही शुभ माना जाता है। इसी दिन श्री बद्रीनारायण धाम के पट खुलते हैं श्रद्धालु भक्त प्रभु की अर्चना-वंदना करते हुए विविध नैवेद्य अर्पित करते हैं। अक्षय तृतीया सुख-शांति व सौभाग्य में निरन्तर वृद्धि करने वाली है। इस परम शुभ अवसर का जैसा नाम वैसा काम भी है अर्थात् अक्षय जो कभी क्षय यानी नष्ट न हो ऐसा अक्षय पुण्य मिलता है।अक्षय तृतीया को युगादि तिथि भी कहा जाता है। वैशाख मास में भगवान सूर्य की तेज धूप तथा प्रचंड गर्मी से प्रत्येक जीवधारी भूख-प्यास से व्याकुल हो उठता है इसलिए इस तिथि में शीतल जल, कलश, चावल, चने, दूध, दही, खाद्य व पेय पदार्थो सहित वस्त्राभूषणों का दान अक्षय व अमिट पुण्यकारी माना गया है। सुख, शांति, सौभाग्य तथा समृद्धि हेतु इस दिन शिव-पार्वती और नर-नारायण के पूजन का विधान है। इस दिन श्रद्धा-विश्वास के साथ व्रत रख जो प्राणी पवित्र नदियों और तीर्थो में स्नान कर अपनी शक्तिनुसार देवस्थल व घर में ब्राह्मणों द्धारा यज्ञ, होम, देव-पितृ तर्पण, जप, दानादि शुभ कर्म करते हैं उन्हें उन्नत व अक्षय फल की प्राप्ति होती है। तृतीया तिथि मां गौरी की तिथि है जो बल-बुद्धिवर्धक मानी गई है। अतः सुखद गृहस्थी की कामना से जो भी विवाहित जोड़े इस दिन मां गौरी व सम्पूर्ण शिव परिवार की पूजा करते हैं उनके सौभाग्य में वृद्धि होती है। यदि अविवाहित इस दिन श्रद्धा-विश्वास से प्रभु शिव व माता गौरी को उनके परिवार सहित शास्त्रीय विधि से पूजते हैं, उन्हें सुखद वैवाहिक सूत्र में जुड़ने का पवित्र अवसर मिलता है।अक्षत तृतीया व्रत एवं पूजा-अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है।इसके अलावा अक्षय तृतीया पर पूर्वज पृथ्वी के निकट आनेसे अक्षय तृतीया पर मानव को अधिक कष्ट होने की संभावना होती है । मानवपर पूर्वजों का ऋण भी भारी मात्रा में है । ईश्वर को अपेक्षित है कि मानव इसे चुकाने के लिए प्रयत्न करे । इस हेतु अक्षय तृतीया पर पूर्वजों को तिल तर्पण करने की आवश्यकता होती है ।अक्षय तृतीया में दान का महत्व-अक्षय तृतीया में पूजा, जप-तप, दान स्नानादि शुभ कार्यों का विशेष महत्व तथा फल रहता है|+ इस दिन गंगा इत्यादि पवित्र नदियों और तीर्थों में स्नान करने का विशेष फल प्राप्त होता है| यज्ञ, होम, देव-पितृ तर्पण, जप, दान आदि कर्म करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है|अक्षय तृ्तिया के दिन गर्मी की ऋतु में खाने-पीने, पहनने आदि के काम आने वाली और गर्मी को शान्त करने वाली सभी वस्तुओं का दान करना शुभ होता है| इसके अतिरिक्त इस दिन जौ, गेहूं, चने, दही, चावल, खिचडी, गन्ने का रस, ठण्डाई व दूध से बने हुए पदार्थ, सोना, कपडे, जल का घडा आदि दें| इस दिन पार्वती जी का पूजन भी करना शुभ रहता है|अक्षय तृतीया कथा-प्राचीन काल में एक धर्मदास नामक वैश्य था। उसकी सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। इस व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना। कहते हैं कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना। वह इतना धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे। अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमंड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद भी वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ। माना जाता है कि यही राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त के रूप में पैदा हुआ।
बेटे के जन्म की मुराद मांगने पहुंचे बादशाह अकबर से लेकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की रविवार को होने वाली अजमेर शरीफ यात्रा तक यहां कुछ नहीं बदला है। 12वीं शताब्दी की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के प्रति लोगों की आस्था वैसी ही है। अब भी यहां हर रोज करीब 12,000 लोग जियारत के लिए पहुंचते हैं।
जयपुर से 145 किलोमीटर दूर अजमेर के बीचोंबीच सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की संगमरमर से बनी गुम्बदाकार मज़ार लोगों की आस्था का केंद्र है। लोग यहां अपनी-अपनी मुरादें लेकर आते हैं।
मज़ार एक प्रांगण के बीचोंबीच है और इसके चारों ओर संगमरमर का मंच बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के अवशेष इस मज़ार में रखे हुए हैं। चिश्ती को ख्वाजा गरीब नवाज नाम से भी जाना जाता है।
दरगाह के खादिमों का दावा है कि वे ख्वाजा के वंशज हैं और वहां इबादत करने का अधिकार उन्हीं का है। परिसर में आठ और कब्रें भी हैं, जो ख्वाजा के परिवार के अन्य सदस्यों की हैं।
एक खादिम एस.एफ. हुसैन चिश्ती ने बताया कि लोग यहां अपनी मुरादें पूरी होने की उम्मीदें लेकर आते हैं और दरगाह में चादर चढ़ाते हैं। जब उनकी मुरादें पूरी हो जाती हैं तो वे कृतज्ञता व्यक्त करने दोबारा आते हैं। चिश्ती ने यह भी कहा, "यह दरगाह मुगल बादशाह अकबर के लिए बरसों तक उनका पसंदीदा गंतव्य स्थल बनी रही।"
दरगाह की खास बात यह है कि यहां सजदा करने सिर्फ मुसलमान ही नहीं आते बल्कि हिंदू, सिख व जैन सहित अन्य धर्मो के लोग भी यहां आते हैं। इस दरगाह को बने हुए जून में 800 साल पूरे हो जाएंगे।
कहा जाता है कि हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1142 ईसवी में ईरान में हुआ था। एक खादिम ने बताया, "उन्होंने सूफीवाद की शिक्षा फैलाने के लिए अपना स्थान छोड़ दिया था। वह भारत आकर अजमेर में बस गए थे।" उन्होंने यह भी बताया, "उस समय समाज में बहुत सी सामाजिक कुरीतियां थीं। उन्होंने समानता व भाईचारे की शिक्षा फैलाई। सूफीवाद बीच का रास्ता दिखाने वाला दर्शन है और मुगल बादशाह उनकी शिक्षाओं व उनके प्रसार से प्रभावित थे।" खादिमों ने कहा कि ख्वाज सूफी दर्शन के लिए प्रसिद्ध थे। सूफीवाद भाईचारे, सद्भाव व समृद्धि की शिक्षा देता है।
इतिहासकार मोहम्मद आजम ने बताया कि बादशाह अकबर आगरा से अजमेर तक नंगे पांव आए थे और उन्होंने यहां बेटे के जन्म की मुराद मांगी थी। उन्होंने यह भी बताया, "यहां एक अकबरी मस्जिद व एक शहानी मस्जिद भी है जिन्हें मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाया था।"
आजम ने बताया, "दरगाह में प्रवेश के लिए आठ दरवाजे हैं लेकिन केवल तीन दरवाजे ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं। निजाम दरवाजा, हैदराबाद के निजाम ने बनवाया है।"
अभी तक आपने यही सुना होगा कि मंदिरों में प्रसाद, जल और नारियल आदि चढ़ता है और दरगाहों में लोग फूल अगरबत्ती, चादर, व प्रसाद चढ़ता है लेकिन एक ऐसी दरगाह जिसे सुनकर आप भी हैरान हो जायेंगे| यहाँ फूल, अगरबत्ती व प्रसाद नहीं चढ़ता है बल्कि इस दरगाह पर जलती हुई सिगरेट चढा़कर लोग मन्नत मांगते हैं| अब इसे आस्था कहें या फिर अन्धविश्वास|मिली जानकारी के मुताबिक, यह दरगाह राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग पर मालचा मार्ग के अंदर घने जंगल में स्थित है। यहां हर नौचंदी के दिन (गुरूवार) को सैकड़ों लोग जिनमें अधिकांश हिन्दू स्त्री-पुरुष और विशेष कर पंजाबी लोग आकर दुआएं मांगते है। यह लोग यहाँ फूल, अगरबत्ती के अलावा एक जलती हुई सिगरेट चढ़ाकर अपनी मन्नत मांगते है| दरगाह शरीफ हजरत ख्वाजा मोनुद्दीन चिश्ती ऊर्फ बरने वाला बाबा के गद्दीनशीन एम.अली. खान साबरी ने उपरोक्त जानकारी देते हुए बताया कि जंगल में स्थित यह दरगाह 800 वर्ष पुरानी है। जिस पर लोगों की आस्थाएं है कि यहां आकर वह जो दुआएं मांगेंगे अवश्य पूरी होंगी।
मां, कितना मीठा, कितना अपना, कितना गहरा और कितना खूबसूरत शब्द है। समूची पृथ्वी पर बस यही एक पावन रिश्ता है जिसमें कोई कपट नहीं होता। कोई प्रदूषण नहीं होता। इस एक रिश्ते में निहित है छलछलाता ममता का सागर। शीतल और सुगंधित बयार का कोमल अहसास। इस रिश्ते की गुदगुदाती गोद में ऐसी अव्यक्त अनुभूति छुपी है जैसे हरी, ठंडी व कोमल दूब की बगिया में सोए हों। अब चाहे वह मनुष्य हो या फिर पंछी|
इस तस्वीर को देखकर आप कुछ चक्कर में जरूर पड़ गए होंगे कि आखिर यह माजरा क्या है। आपको बता दें कि इन बत्तख के बच्चों व मुर्गी का कोई तालमेल नहीं है, लेकिन इसके बावजूद भी हिल्डा नाम की यह मुर्गी इन बत्तख के बच्चों को पाल रही है।
दरअसल हुआ यूँ कि छह महीने पहले गलती से हिल्डा अंडों के गलत घोंसले पर बैठ गई थी जो उसका नहीं था। उस घोंसले में एक बत्तख ने 5 अंडे दे रखे थे जिसे हिल्डा गलती से एक माह तक सेती रही लेकिन जब अण्डों से बच्चे निकले तो वह हिल्डा के नहीं बल्कि बत्तख के थे| फिर भी हिल्डा ने इन बच्चों को अपना लिया है और इनकी अपनी तरफ से पूरा ख्याल रख रही है।