भगवान भोलेनाथ की उपासना का पर्व है महाशिवरात्रि

भारत पर्वों का देश है यह तो हम सब जानते हैं और यह पर्व ज्यादातर हमारी भक्ति और ईश्वर की स्तुति पर निर्भर होते हैं| भगवान शिव को शीघ्र प्रसन्न होने वाला देव कहा गया है| महाशिवरात्रि भगवान शिव की आराधना का पर्व है। हिंदुओं के इस प्रमुख पर्व को फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था, इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। अपार सुंदरी गौरा को अर्द्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाच्चों से घिरे रहते हैं। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। आपको बता दें कि इस बार शिवरात्रि 27 फरवरी दिन बुधवार को पड़ रही है| 

महाशिवरात्रि का यह पावन व्रत सुबह से ही शुरू हो जाता है। इस व्रत के दिन भगवान शिवलिंग दर्शन के लिए हजारों की संख्या में शिव भक्त आते है| सभी शिवालयों में महाशिवरात्रि के दिन बेल, धतूरा और दूध का अभिषेक किया जाता है| शिवरात्रि मात्र एक व्रत नहीं है, और न ही यह कोई त्यौहार है. सही मायनों में देखा जायें, तो यह एक महोत्सव है इस दिन देवों के देव भगवान भोलेनाथ का विवाह हुआ था| उसकी खुशी में यह पर्व मनाया जाता है| शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाकर पूजन करते हैं। इस पर्व पर रात्रि जागरण का विशेष महत्व है।

ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यंत शुभ कहा गया है। शिव का अर्थ है कल्याण, शिव सबका कल्याण करने वाले हैं। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। अतः प्रायः ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं।

महाशिवरात्रि की व्रत विधि-

शिवपुराणके अनुसार व्रती पुरुष को महाशिवरात्रि के दिन प्रातःकाल उठकर स्न्नान-संध्या आदि कर्मसे निवृत्त होनेपर मस्तकपर भस्मका त्रिपुण्ड्र तिलक और गलेमें रुद्राक्षमाला धारण कर शिवालयमें जाकर शिवलिंगका विधिपूर्वक पूजन एवं शिवको नमस्कार करना चाहिये। तत्पश्चात्‌ उसे श्रद्धापूर्वक महाशिवरात्रि व्रतका इस प्रकार संकल्प करना चाहिये-

शिवरात्रिव्रतं ह्यतत्‌ करिष्येऽहं महाफलम्‌।
निर्विघ्नमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते॥

महाशिवरात्रि के प्रथम प्रहर में संकल्प करके दूध से स्नान तथा `ओम हीं ईशानाय नम:’ का जाप करें। द्वितीय प्रहर में दधि स्नान करके `ओम हीं अधोराय नम:’ का जाप करें। तृतीय प्रहर में घृत स्नान एवं मंत्र `ओम हीं वामदेवाय नम:’ तथा चतुर्थ प्रहर में मधु स्नान एवं `ओम हीं सद्योजाताय नम:’ मंत्र का जाप करें।

पूजा सामग्रीः- 

सुगंधित पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरा, भाँग, बेर, आम्र मंजरी, जौ की बालें,तुलसी दल, मंदार पुष्प, गाय का कच्चा दूध, ईख का रस, दही, शुद्ध देशी घी, शहद, गंगा जल, पवित्र जल, कपूर, धूप, दीप, रूई, मलयागिरी, चंदन, पंच फल पंच मेवा, पंच रस, इत्र, गंध रोली, मौली जनेऊ, पंच मिष्ठान्न, शिव व माँ पार्वती की श्रृंगार की सामग्री, वस्त्राभूषण रत्न, सोना, चाँदी, दक्षिणा, पूजा के बर्तन, कुशासन आदि।


भगवान भोलेनाथ को बिल्वपत्र चढ़ाने का मंत्रः-

नमो बिल्ल्मिने च कवचिने च नमो वर्म्मिणे च वरूथिने च
नमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुब्भ्याय चा हनन्न्याय च नमो घृश्णवे॥

दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनम्‌ पापनाशनम्‌। अघोर पाप संहारं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुधम्‌। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्‌॥
अखण्डै बिल्वपत्रैश्च पूजये शिव शंकरम्‌। कोटिकन्या महादानं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥
गृहाण बिल्व पत्राणि सपुश्पाणि महेश्वर। सुगन्धीनि भवानीश शिवत्वंकुसुम प्रिय।

महाशिवरात्रि व्रत की कथा-

एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।

अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।

एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।'

शिकारी हँसा और बोला, 'सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।'

उत्तर में मृगी ने फिर कहा, 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।'

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।

शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,' हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।'

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।'

उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।

देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।'

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आदमखोर बाघिन के पीछे 2 महीने से भटक रहा वन विभाग

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में नरभक्षी बाघिन एक-एक करके ग्रामीणों को अपना निवाला बना रही है, लेकिन महीनेभर से ज्यादा समय से कॉम्बिंग अपरेशन चला रहा वन विभाग अब तक नकारा साबित हुआ है। वन विभाग की टीमें बाघिन को पकड़ना तो दूर अभी तक उसे देख नहीं पाए हैं। 

विगत 26 दिसंबर को संभल जिले से शिकार शुरू करने वाली बाघिन ने बाद में मुरादाबाद में चार लोगों और अब बिजनौर जिले में पांच लोगों की जान ली। फिलहाल वह उत्तराखंड सीमा पर बिजनौर जिले के जंगलों में बताई जा रही है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आदमखोर घोषित की जा चुकी इस बाघिन के आतंक से दहशत में जी रहे ग्रामीण अपने रोजमर्रा के कामों के लिए बाहर जाने और खेतों में जाने से डर रहे हैं।

बिजनौर के मनियावाला गांव निवासी नरेंद्र चौहान ने कहा, "बाघिन ने हमारा जीना दूभर कर रखा है। हम खेतों में जाने से डरते हैं कि कहीं किसी तरफ से बाघिन आकर जान न ले ले। हम गांव के लोग झुंड बनाकर रातभर गांव की पहरेदारी करते हैं। वन विभाग लग रहा है बाघिन को पकड़ने के नाम पर खिलवाड़ कर रहा है। लगभग दो महीने होने को हैं लेकिन अब तक मारना तो दूर की बात पकड़ा भी नहीं जा सका है।"

पिछले तीन दिन पहले बाघिन के पैरों के निशान बिजनौर के साहूवाला वन क्षेत्र में मिले थे। उसके बाद उसका कोई पता नहीं है। बिजनौर के प्रभागीय वन अधिकारी विजय सिंह ने कहा कि पिछले तीन दिन से बाघिन की कोई गतिविधि देखने को न मिलने से ऐसा लग रहा है कि वह साहूवाला (बिजनौर) वन क्षेत्र से सटे उत्तराखंड के जिम कार्बेट नेशनल पार्क की तरफ चली गई है। वन विभाग की 6-7 टीमें लगातार साहूवाला वन क्षेत्र में डेरा डालकर लगातार गश्त कर रही हैं। 

उन्होंने कहा कि चूंकि राज्य सरकार की तरफ से आदमखोर घोषित किए जाने के बाद उसे जान से मारने की अनुमति मिल गई है। इसलिए पांच शिकारियों को इस काम में लगाया गया है। वन विभाग का तर्क है कि साहूवाला वन क्षेत्र से सटे गांवों में शिकार करने के बाद बाघिन उत्तराखंड में प्रवेश कर जाती है जिससे उसे मारने में दिक्कतें आ रही हैं।

मुरादाबाद मंडल के वन संरक्षक कमलेश कुमार ने कहा, "सीमा क्षेत्र होने के कारण कॉम्बिंग अपरेशन की कार्रवाई बाधित हो जाती है। जंगल का बाहरी इलाका (साहूवाला वन क्षेत्र) उत्तर प्रदेश में जबकि मध्य इलाका (जिम कार्बेट) उत्तराखंड में है। हमारी टीमों के गश्त का दबाव बढ़ने पर बाघिन उत्तराखंड की तरफ चली जाती है। हमारे पास उत्तराखंड में जाकर उसे मारने या अभियान चलाने का अधिकार नहीं है।"

उत्तराखंड में अभी तक इस बाघिन ने किसी पर हमला नहीं किया इसलिए वहां की सरकार द्वारा न तो उसे आदमखोर घोषित किया गया और न ही कोई अभियान चला रही है। कुमार ने कहा, "एक समस्या और है कि उस क्षेत्र में पिछले दिनों दूसरे बाघों के पैरों के भी निशान मिले हैं। ऐसे में शिकारी पुष्टि हुए बिना देखते ही गोली नहीं मार सकते क्योंकि हो सकता है कि जिसको गोली मारी गई वह आदमखोर बाघिन न हो।"

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बाली: समुद्र प्रेमियों, प्राचीन मंदिरों का द्वीप

अगर आप नीले समंदर और प्राचीन मंदिरों वाली जगह की सैर करना चाहते हैं तो आप इंडोनेशिया में बाली द्वीप की यात्रा कर सकते हैं। बाली की खूबसूरती आंखों और मन को वास्तविक सुकून देती है। इस इंडोनेशियाई प्रांत की 84 प्रतिशत आबादी हिंदुओं की है। यहां का मौसम उष्णकटिबंधीय है और जुलाई-अगस्त महीने में यहां की यात्रा सबसे बेहतर होती है। डेनपासार से 40 किलोमीटर दूर स्थित नुसा दुआ एक खूबसूरत शहर है, जो बाली की राजधानी है। यहां पूरे शहर में हरे-भरे पार्क, हिंदू पुराणों के चरित्रों और नृत्य करती महिलाओं की मूर्तियां और विभिन्न उष्णकटिबंधीय पशु-पक्षी विचरण करते नजर आएंगे।

धार्मिक त्योहारों के दौरान बाली के लोग मूर्तियों को कपड़े पहनाते हैं और यहां तक कि मंदिरों में मूर्तियों के ऊपर छाते लगाए जाते हैं। यहां के लोग मृदुभाषी, मित्रतापूर्ण और धार्मिक हैं। बाली को प्राचीन मंदिरों के लिए ‘सहस्त्र मंदिरों का द्वीप’ भी कहा जाता है। नीले समंदर के किनारे पर स्थित उलुवतु मंदिर पर्यटकों को आकर्षित करता है। 11वीं शताब्दी में निर्मित यह मंदिर बाली के उन नौ दिशात्मक मंदिरों में से एक है, जिन्हें बाली को बुरी आत्माओं से बचाने के लिए बनाए गए थे। मंदिर में जाने से पहले कमर पर एक विशेष कपड़ा बांधने की रीति है। 

मंदिर परिसर में एक खुले रंगमंच जैसी संरचना भी है, जहां शाम को हिंदू पौराणिक नाटकों को मंचन होता है। बाली को कपड़ों पर बटिक काम, लकड़ी से बनी चीजों, सांप की खाल से बने चमड़े के सामान, लकड़ी और बांस के नारियल, सीप और बांस से बने सामान और पारंपरिक वाद्ययंत्रों के लिए भी जाना जाता है। इन वस्तुओं को खरीदने के लिए आपको पर्याप्त रुपियों की जरूरत होगी। 100 डॉलर में आपको 1,135,000 से 1,14,000 रुपिया मिल सकते हैं, यह दिन के एक्सचेंज पर निर्भर है।

नुसरा दुआ शांत जगह हैं, जहां बहुत से होटल मिलेंगे। कूटा भी घूमने लायक है, यहां रात को लुत्फ उठाने लायक नजारा होता है। 

कैसे जाएं :

* भारत से कुआलालंपुर/ सिंगापुर/बैंकॉक और उसके बाद डेनपासार।

* नई दिल्ली से कुअलालंपुर/सिंगापुर की यात्रा की अवधि पांच घंटे, 30 मिनट और कुअलालंपुर/ सिंगापुर से डेनपासर की यात्रा की अवधि तीन घंटे से कम।

* ठहरने की सुविधा : 3,000 रुपए से 50,000 रुपए प्रति रात। उच्च स्तरीय बुल्गारी होटल में एक कमरे का खर्च 150,000 रुपये है।

* भोजन : मध्यम स्तर के रेस्त्रां में चार लोगों के खाने की कीमत 2,000 रुपए होगी।

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जानिए क्यों मनाई जाती है महाशिवरात्रि

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाने वाला महाशिवरात्रि का पर्व विश्व भर के हिन्दुओं का एक बड़ा पर्व है| रात में पड़ने वाली चतुर्दशी और अमावस्या को महाशिवरात्रि मनाने का विधान है। इसका उपवास त्रयोदशी से शुरू होता है। इस प्रकार के व्रत और पूजा पाठ में ऐसी पौराणिक मान्यता है कि सकल मनोरथ सिद्ध होंगे और भगवान शिव की कृपा बनी रहेगी| इस बार महाशिवरात्रि 27 फरवरी दिन गुरूवार को पड़ रही है| क्या आपको पता है कि महाशिवरात्रि क्यों मनाई जाती है?

मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए थे| इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार- सृष्टि के पालक भगवान विष्णु की नाभि से निकले कमल पर सृष्टि के सर्जक ब्रह्माजी प्रकट हुए| दोनों में यह विवाद हुआ कि हम दोनों में श्रेष्ठ कौन है? यह विवाद जब बढऩे लगा तो तभी वहां एक अद्भुत ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ| उस ज्योतिर्लिंग को वे समझ नहीं सके और उन्होंने उसके छोर का पता लगाने का प्रयास किया, परंतु सफल नहीं हो पाए| दोनों देवताओं के निराश हो जाने पर उस ज्योतिर्लिंग ने अपना परिचय देते हुए कहां कि मैं शिव हूं| मैं ही आप दोनों को उत्पन्न किया है|

तब विष्णु तथा ब्रह्मा ने भगवान शिव की महत्ता को स्वीकार किया और उसी दिन से शिवलिंग की पूजा की जाने लगी| शिवलिंग का आकार दीपक की लौ की तरह लंबाकार है इसलिए इसे ज्योतिर्लिंग कहा जाता है| एक मान्यता यह भी है कि कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवान शिव और मां पार्वती का विवाह हुआ था। दोनों ने इस दिन गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया था, इसलिए महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है|

एक मान्यता है भी है महाशिवरात्रि के दिन ही माता सती और भगवान भोलेनाथ का मिलन हुआ था| भगवान शंकर संहार शक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता और चतुर्दशी तिथि के स्वामी हैं अथवा शिव की तिथि चतुर्दशी है परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को अ‌र्द्ध रात्रि में 'शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:'- ईशान संहिता के इस वचन के अनुसार ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव होने से यह पर्व महाश्रि्वरात्रि के नाम से विख्यात हुआ| अत: तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह होना स्वाभाविक ही है|

रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है ऐसी दशा में शिव का रात्रि प्रिय होना सहज ही हृदयंगम हो जाता है। इनकी अराधना रात्रि एवं सदैव प्रदोषकाल में भी की जाती है। शिवार्चन एवं जागरण ही इस व्रत की विशेषता है। इसमें चार प्रहर में चार बार पूजा का विधान है| विद्या की आकांक्षा करने वाले को शिव पूजन आवश्यक है- 'विद्याकामस्तु गिरिशं'|

ईशान संहिता में महा शिवरात्रि की महत्ता का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-

॥शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापं प्रणाशनम्। आचाण्डाल मनुष्याणं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं॥ 

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मिर्गी का इलाज दवाइयां हैं, जादू टोना नहीं

मिर्गी दुनिया भर में सबसे आम न्यूरोलॉजिकल समस्या है। यह किसी भी उम्र को प्रभावित करती है। बच्चों व 60-70 वर्ष में अधिक देखी जाती है। दुनिया भर में 50 लाख से अधिक लोग मिर्गी से प्रभावित हैं व इनमें से 80 प्रतिशत विकासशील देशों में रहते हैं। भारत में 9-10 लाख लोग मिर्गी से प्रभावित हैं जो वैश्विक बोझ का पांचवा हिस्सा है। यह कहना है राजधानी के सहारा हास्पिटल के न्यूरोलॉजिस्ट डा. संदीप अग्रवाल का। डा. अग्रवाल ने शनिवार को प्रेस क्लब में संवाददाता सम्मेलन में बताया कि लोग अभी भी इस बीमारी के इलाज के जादू टोने का सहारा लेते हैं। जिससे बीमारी तो दूर नहीं होती बल्कि समय के साथ खतरनाक हो जाती है। उन्होंने कहा कि इस बीमारी का एक मात्र इलाज दवाईयां ही हैं।

मिर्गी व जब्ती में अन्तर-

मिर्गी व जब्ती में अन्तर है, जब्ती दिमाग में एक क्षणिक, अचानक, असामान्य व अत्यधिक न्यूरोनल गतिविधि के कारण होती है। जो व्यक्ति के व्यवहार को बदलने में सक्षम होती है। जब्ती बचपन व किशोरावस्था में आम है। जबकि मिर्गी, मनुष्य का सामान्य न्यूरोनल नेटवर्क के किसी कारण अति उत्तेजनीय न्यूरोनल नेटवर्क में परिवर्तित होने के कारण होती है। जिसमें मनुष्य बार-बार बेसबब (जिसका कोई कारण पहचानने योग्य नहीं होता है) जब्ती में परिवर्तित हो जाता है।

इलेक्ट्रलाइट असंतुलन, नशीली दवाओं के दुरुपयोग आदि कारण जिसकी वजह से होने वाले जब्ती को भी मिर्गी नहीं कहते हैं। ऐसे रोगियों को लंबी अवधि तक एन्टीएपिलेप्टिक दवाओं की जरूरत नहीं होती है। एक अन्य लक्षण को भी हम आमतौर पर मिर्गी मान लेते है- बेहोशी व एैठन या दौरा पड़ना एक ऐसी स्थिति है जिसमें शारीरिक मांस पेशियां तेजी से सिकुड़ती व शिथिल पड़ती हैं। जिससे शरीर में अनियंत्रित ऐंठन उत्पन्न होती है।

एंठन मिर्गी का एक लक्षण हो सकता है। सभी एंठन मिर्गी नहीं होते व सभी मिर्गी में एंठन नहीं होती।

कारण:-

मिर्गी मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले कई कारणों से होती है। ये कभी-कभी अनुवांशिक या अधिगृहित या दोनों हो सकते हंै। 60-75 प्रतिशत मिर्गी मामलों में कारण अज्ञात होता है। शेष 25-40 प्रतिशत लोगों में पहचानने योग्य कारण निम्न हो सकते हैं।

-अनुवांशिक

-जन्म के समय चोट या आक्सीजन की कमी

-गर्भावस्था में मस्तिष्क को क्षति

-मस्तिष्क आघात

-ब्रेन टयूमर

-संक्रमण (मैनिंजाइटिस, एड्स आदि)

लगभग आधे से अधिक रोगियों में दवाई द्वारा दौरे को नियंत्रित किया जा सकता है। विभिन्न प्रकार की मिर्गी में लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं।

सामाजिक कलंक:-

एक सामान्य मनुष्य के मुकाबले एक मिर्गी रोगी को समाज मे रहना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। भय व गलतफहमी की वजह से किशोरों में सामाजिक भेदभाव का जन्म देता है। इस प्रकार सही जानकारी का अभाव सामाजिक कलंक के स्थायीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

विश्व प्रसिद्ध लोग मिर्गी के साथ:-

जुलियस सीजर, सिकन्दर, आगाथा क्रिस्टी, अल्फ्रेड नोबेल, जॉन्टी रोड्स आदि ने इतिहास में मिर्गी पर विजयी पाई है। तब अन्य क्यों नहीं?

मिथक व तथ्य-

मि.: मिर्गी भूत प्रेत के कारण होती है जादू टोना इसका इलाज है।

त.: मिर्गी एक विकार है इसका इलाज दवाएं है।

मि.: मिर्गी एक मानसिक बीमारी है।

त.: नहीं यह एक मस्तिष्क की बीमारी है।

मि.: मिर्गी संक्रामक है

त.: मिर्गी निश्चित रूप से संक्रामक नहीं है।

मि.: मिर्गी वंशानुगत है इसके लिए शादी नहीं करनी चाहिए।

त.: केवल 3 प्रतिशत लोगों में वंशानुगत होती है। इसका शादी से काई सम्बन्ध नहीं है।

मि.: विवाह मिर्गी का इलाज है।

त.: बिल्कुल नहीं, केवल दवाएं।

मि.: मिर्गी में जूता, प्याज सूघांना चाहिए या हाथ में चाभी देनी चाहिए।

त.: दौरा अपने आप बन्द होता है इन सबके कारण नहीं।

मि.: मिर्गी में मरीज के मुंह में चम्मच देना चाहिए।

त.: बिल्कुल नहीं ऐसा करने से मरीज के मुंह में चोट लग सकती।

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...तो आचमन के काबिल नहीं रहेगी गंगा

काशी नदियों का शहर था, जहां कभी मंदाकिनी, गोदावरी, किरणा और सरस्वती आदि नदियां काशी में प्रवाहमान थीं। इनमें पांच नदियां गंगा, यमुना, सरस्वती, ध्रुतपापा और किरणा पंचगंगा घाट पर मिलती थीं। लेकिन अब प्रदूषण के चलते गंगा को छोड़कर सभी नदियों का सोता ही रह गया है।

कभी सुर्ख सफेद जलधारा का प्रवाह करने वाली गंगा आज प्रदूषण और गंदगी के कारण अपना रंग खो चुकी हैं। जिस जल में लोग स्नान करते थे आज उससे आचमन करने से कतराते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए गंगा की स्थिति इन्हीं नदियों की तरह हो सकती है। 

विशेषज्ञों के मुताबिक गंगा में बढ़ता प्रदूूषण केवल गंगा में होने वाला प्रदूषण ही नहीं बल्कि गिरने वाले नालों का पानी, अस्सी और वरुणा नदी से निकलने वाला कचरा भी है। आंकड़ों के मुताबिक वरुणा नदी से प्रतिदिन करीब 80 एमएलडी (मिलियन लीटर डेली) कचरा गंगा में गिरता है। 

इसके साथ ही कभी नदी और आज नाले में रूप में बहने वाली अस्सी से भी 30 एमएलडी पानी गंगा में बहाया जाता है। अगर सभी नालों को मिलाया जाए तो 300 एमएलडी गंदा पानी निकलता है। इसमें से 200 एमएलडी गंगा में बहाकर बाकी 100 एमएलडी को ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ किया जाता है। 

सवाल यह उठता है कि आखिर शहर के बीच में गिरने वाले कचरे का आकलन तो होता है, लेकिन गोमती और अन्य नदियों के जरिए आने वाले कचरे का हिसाब कौन रखेगा। विशेषज्ञों की मानें तो अब गंगा मोक्षदायिनी और जीवनदायिनी नहीं रह गई, क्यों कि जिस गंगा का जीवन ही संकट में हो आखिर वह दूसरों के जीवन को मोक्ष कैसे दे सकती हैं। 

विशेषज्ञ अमिताभ भट्टाचार्य कहते हैं कि यह शहर नदियों, जलाशयों और नालों का शहर था। आज सभी जलाशय और छोटी नदियां विलुप्त हो गईं। फिर भी लोग नहीं चेते और गंगा की दशा बद से बदतर हो गई। गंगा अपना बोझ तो उठा नहीं पा रहीं, साथ ही अन्य नदियों का पानी भी इन्हीं की धारा में प्रवाहित कर दिया जाता है। पश्चिम में गोमती, दक्षिण से वरुणा और पूरब में अस्सी ने गंगा को प्रदूषित कर दिया और लगातार यह क्रम जारी है। न तो सरकार के पास कोई योजना है और न ही लोग सतर्क हैं। अगर ऐसा ही रहेगा तो गंगाजल आचमन के काबिल भी नहीं रहेगी।

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जानिए जल में क्यों विसर्जित करते हैं देवी-देवताओं की प्रतिमा...?

आपने नवरात्रि व गणेश चतुर्थी पर देखा होगा कि लोग देवी देवताओं की मूर्तियां बड़े ही आदर के साथ अपने घर लाते हैं और उसकी पूजा करते हैं बाद में किसी नदी या तालाब में ले जाकर विसर्जित कर देते हैं| क्या कभी आपने यह सोंचा है कि आखिर देवी देवताओं की प्रतिमा को लोग जल में ही क्यों विसर्जित करते हैं?

इसको लेकर हमारे ज्योतिषाचार्य विजय कुमार बताते हैं कि इसका उत्तर शास्त्रों में है। शास्त्रों के अनुसार, जल को ब्रह्म का स्वरुप माना गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि सृष्टि के आरंभ में और अंत में संपूर्ण सृष्टि में सिर्फ जल ही जल होता है। जल बुद्घि और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। इसके देवता गणेश जी हैं। जल में ही श्रीहरि का निवास है इसलिए वह नारायण भी कहलाते हैं।

ऐसा माना जाता है कि जब देव प्रतिमाओं को जल में विसर्जित कर दिया जाता है तो देवी देवताओं का अंश मूर्ति से निकलकर वापस अपने लोक को चला जाता है यानी परम ब्रह्म में लीन हो जाता है। यही कारण है कि मूर्तियों और निर्माल को जल में विसर्जित किया जाता है।

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जानिए क्यों धारण करते हैं जनेऊ..?

आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ का धार्मिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार कहते हैं।

'उपनयन' का अर्थ है, 'पास या सन्निकट ले जाना।' किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। जनेऊ का निर्माण दो तूड़ियों से किया जाता है जिसमें तीन -तीन लपेट होते हैं। तीनों लपेट क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों देवताओं के प्रतीक माने गए हैं। धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है।

जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से जनेऊ स्वास्थ्य और पौरुष के लिए बहुत ही लाभकारी होता है। यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ा होता है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्र की रक्षा होती है। जिन पुरुषों को बार-बार बुरे स्वप्न आते हैं उन्हें सोते समय कान पर जनेऊ लपेट कर सोना चाहिए। माना जाता है कि इससे बुरे स्वप्न की समस्या से मुक्ति मिल जाती है।

जनेऊ धारण करने की परम्परा काफ़ी प्राचीन है। भारत में हिन्दू समाज सबसे प्रमुख है और इसी समाज की परम्परा है- जनेऊ धारण करना। पूजा पाठ भारतीय परंपरा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है और भारतीय समाज के अनुसार एक बच्चा तैरह साल का होने के पश्चात, तब तक किसी भी यज्ञ में आहुति नहीं दे सकता, जब तक उसने जनेऊ धारण ना किया हो। साधारण भाषा में जनेऊ एक ऐसी परंपरा है, जिसके बाद ही एक बच्चे को मर्द का स्थान दिया जाता है और वह पारंपरिक तौर से पूजा आदि में भाग ले सकता है। 

परन्तु भारतीय पूजा से सम्बंधित कई खोखली परम्पराओं कि तरह जनेऊ भी दलित समाज धारण नहीं कर सकता। यह परंपरा केवल लड़कों के लिए होती है और किसी भी लड़के के तैरह साल के होने के पश्चात उसके माता-पिता मंदिर में जाकर या पंडित को घर बुलाकर इस परंपरा को निभाते हैं। जनेऊ परंपरा निभाने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। जनेऊ वास्तव में एक सफ़ेद रंग का धागा होता है, जिसे पंडित लड़के की छाती से पेट तक बाँधता है।

क्यों करते हैं धारण

जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। जनेऊ या यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठ भाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है, जो विद्युत के प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकूचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।

कान पर क्यों चढ़ाते है जनेऊ?

आपने देखा होगा कि लोग लघुशंका एवं दीर्घशंका के समय जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेते हैं| दाहिने कान पर जनेऊ चढ़ाने का वैज्ञानिक कारण है; आयुर्वेद के अनुसार, दाहिने कान पर 'लोहितिका' नामक एक विशेष नाड़ी होती है, जिसके दबने से मूत्र का पूर्णतया निष्कासन हो जाता है। इस नाड़ी का सीधा संपर्क अंडकोष से होता है। हर्निया नामक रोग का उपचार करने के लिए डॉक्टर दाहिने कान की नाड़ी का छेधन करते है । एक तरह से जनेऊ 'एक्यूप्रेशर' का भी काम करता है|

मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।

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ससुराल वालों ने घर से खदेड़ा, मायके वालों ने दरवाजे से ही दुत्कारा

समाज में लड़कियों को रहन-सहन व पहनावा बदलने की इजाजत तो मिल गयी है, लेकिन मन पसंद जीवन साथी को चुनना अभी भी उनके लिए कोसों दूर की बात है। अगर घर की दहलीज से बाहर पैर निकालकर कोई लड़की अपना मनपसंद जीवनसाथी चुन ले तो मायके वाले भी मुंह फेर लेते हैं| एक ऐसा ही मामला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में देखने को मिला है| लखनऊ के आशियाना इलाके में अपनी बड़ी बहन के घर में रहकर पढ़ाई कर रही पल्लवी (परिवर्तित नाम) का अपने ही एक रिश्तेदार से प्यार हो गया और थोड़े ही दिनों बाद दोनों के घरवालों ने आर्य समाज मंदिर में उनका विवेक करा दिया लेकिन लड़की के ससुराल वालों ने दहेज़ न मिलने पर उसका उत्पीड़न शुरू कर दिया| लड़की ने जब इसका विरोध किया तो उसके पति ने उसकी बेरहमी से पिटाई कर दी और घर से बाहर निकला दिया| हालत की मारी लड़की जाती भी तो कहाँ वह अपने मायके लौटी तो वहाँ भी उसे सहारा नहीं मिला क्योंकि लड़की के भाई व पिता पहले से ही उसके प्रेम विवाह के खिलाफ थे| हारकर आशियाना में बहन के घर पनाह ली। बावजूद इसके मायके और ससुराल वालों की प्रताड़ना जारी रही।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, आशियाना के सेक्टर-जी में अपनी बड़ी बहन के घर में रह रही पल्ल्वी इस समय बीए द्वितीय वर्ष की पढ़ाई कर रही है| पल्लवी ने बताया कि वर्ष 2009 में भदोही के सुरियावां थाने के गांव नागमलपुर निवासी मुकेश से दोस्ती हुई थी। मुंबई में रहकर पैनकार्ड आदि बनवाने का काम करने वाला मुकेश उसके बहनोई का रिश्तेदार था| 4 नवंबर 2009 को आलमबाग के श्रृंगारनगर स्थित आर्यसमाज मंदिर में शादी की और मुंबई चली गई। लड़की के प्रेम विवाह की खबर जब उसके परिजनों को हुई तो वह बेहद खफा हो गए| बताते हैं कि दोनों की शादी को सामाजिक मान्यता देने के लिए 17 नवंबर 2010 को निशा के बहन-बहनोई ने समारोह आयोजित किया और निशा को पति के साथ ससुराल विदा किया गया।

ससुराल पहुंचते ही सभी लोगों ने उसके पति को प्रेम विवाह की वजह से दहेज न मिलने की उलाहना दी। इसके साथ कार व नगदी की मांग को लेकर उत्पीड़न शुरू कर दिया। बहन-बहनोई द्वारा दिए डेढ़ लाख रुपये व 2.80 लाख के गहने ससुराल वालों ने ले लिए। ससुराल पहुंचे एक हफ्ता ही बीता था कि पल्लवी ने मुकेश को अपनी करीबी रिश्तेदार के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा। तो उसने विरोध किया जिस मुकेश ने उसकी पिटाई की| इसी बीच मौका मिलते ही ससुर ने गलत इरादे से दबोच लिया। किसी तरह इज्जत बचाई तो देवर पीछे पड़ गया। मामला बढ़ता गया और एक दिन सबने मिलकर उसे घर से बाहर निकाल दिया| पल्लवी अपने मायके इलाहाबाद वापस आई तो सीआईएसएफ से रिटायर दरोगा पिता अवधेश नारायण दुबे व परिवार के अन्य लोगों ने दरवाजे से ही दुत्कार दिया। अब वह जाती तो कहाँ जाती उसे एक और ठिकाना याद आया वह था उसकी बड़ी बहन का घर| मायके से वह वापस बड़ी बहन के घर आ गई|

पीड़िता के मुताबिक़, 29 जनवरी 2014 को मुकेश अपने परिवार के साथ आया। ससुराल वालों ने कहा कि कार व तीन लाख की व्यवस्था हो तो साथ चलो, वरना मुकेश की दूसरी शादी करने जा रहे हैं। इसके बाद मुकेश का कहीं और रिश्ता तय हो गया। फोन करने पर मुकेश ने चेहरे पर तेजाब फेंकने की धमकी दे डाली। वहीं, सीआईएसएफ में कांस्टेबल पल्लवी के भाई सुनील व पिता अवधेश ने गोली मारने की धमकी दी। सहमी निशा ने सीओ कैंट बबिता सिंह से गुहार लगाई, उनके आदेश पर आशियाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की है।

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

.....तो इसलिए भगवान भोलेनाथ को अत्यधिक प्रिय है भांग और धतूरा!

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाने वाला महाशिवरात्रि का पर्व विश्व भर के हिन्दुओं का एक बड़ा पर्व है| रात में पड़ने वाली चतुर्दशी और अमावस्या को महाशिवरात्रि मनाने का विधान है। इसका उपवास त्रयोदशी से शुरू होता है। इस प्रकार के व्रत और पूजा पाठ में ऐसी पौराणिक मान्यता है कि सकल मनोरथ सिद्ध होंगे और भगवान शिव की कृपा बनी रहेगी| महाशिवरात्रि के बस कुछ ही दिन शेष बचे हैं| 

मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए थे| इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार- सृष्टि के पालक भगवान विष्णु की नाभि से निकले कमल पर सृष्टि के सर्जक ब्रह्माजी प्रकट हुए| दोनों में यह विवाद हुआ कि हम दोनों में श्रेष्ठ कौन है? यह विवाद जब बढऩे लगा तो तभी वहां एक अद्भुत ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ| उस ज्योतिर्लिंग को वे समझ नहीं सके और उन्होंने उसके छोर का पता लगाने का प्रयास किया, परंतु सफल नहीं हो पाए| दोनों देवताओं के निराश हो जाने पर उस ज्योतिर्लिंग ने अपना परिचय देते हुए कहां कि मैं शिव हूं| मैं ही आप दोनों को उत्पन्न किया है|

तब विष्णु तथा ब्रह्मा ने भगवान शिव की महत्ता को स्वीकार किया और उसी दिन से शिवलिंग की पूजा की जाने लगी| शिवलिंग का आकार दीपक की लौ की तरह लंबाकार है इसलिए इसे ज्योतिर्लिंग कहा जाता है| एक मान्यता यह भी है कि कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवान शिव और मां पार्वती का विवाह हुआ था। दोनों ने इस दिन गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया था, इसलिए महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है|

महाशिवरात्रि पर आने देखा होगा कि लोग भगवान विष्णु को भांग धतूरा चढ़ाते हैं| क्या आपने कभी यह सोंचा है कि आखिर लोग भगवान भोलेनाथ को भांग और धतूरा क्यों चढ़ाते हैं क्या भगवान भोलेनाथ भांग और धतूरे जैसी नशीली चीजों का सेवन करते हैं?

इसके पीछे पुराणों में जहां धार्मिक कारण बताया गया है वहीं इसका वैज्ञानिक आधार भी है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो भगवान भोलेनाथ एक सन्यासी हैं और वह कैलाश पर्वत समाधि लगाते हैं| पहाड़ों पर होने वाली बर्फ़बारी की वजह से यहाँ बहुत अधिक ठंडी होती है| गांजा, धतूरा, भांग जैसी चीजें नशे के साथ ही शरीर को गरमी भी प्रदान करती हैं। जो वहां सन्यासियों को जीवन गुजारने में मददगार होती है। भांग-धतूरे और गांजा जैसी चीजों को शिव से जोडऩे का एक और दार्शनिक कारण भी है। ये चीजें त्याज्य श्रेणी में आती हैं, शिव का यह संदेश है कि मैं उनके साथ भी हूं जो सभ्य समाजों द्वारा त्याग दिए जाते हैं। जो मुझे समर्पित हो जाता है, मैं उसका हो जाता हूं।

इसका एक कारण देवी भागवत‍ पुराण में बताया गया है। जिसके अनुसार भगवान भोलेनाथ ने जब सागर मंथन से निकले हालाहल विष को पी लिया तब वह व्याकुल होने लगे। तब अश्विनी कुमारों ने भांग, धतूरा, बेल आदि औषधियों से शिव जी की व्याकुलता दूर की। उस समय से ही शिव जी को भांग धतूरा प्रिय है। जो भी भक्त शिव जी को भांग धतूरा अर्पित करता है, शिव जी उस पर प्रसन्न होते हैं।

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

14 फ़रवरी........अपने जज्बातों को शब्दों में ढ़ालने का दिन

''मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो मै बता दूँ.. '' आज का दिन दो प्यार करने वालों के लिए इजहार-ए-मोहब्बत का दिन हैं। अगर आपके दिल में किस के लिए कोई एहसास है तो आज 14 फ़रवरी वैलेंटाइन डे इजहार-ए-मोहब्बत के लिए सबसे अच्छा दिन हैं। 14 फ़रवरी प्यार का दिन, प्यार के इजहार का दिन। अपने जज्बातों को शब्दों में ढाल कर बयाँ करने का सबसे अच्छा दिन। शायद दुनिया के हर धड़कते दिल को इस दिन का बेसब्री से इंतजार होता है। प्यार करने वाले इस दिन को अपने अपने ढंग से मनातें हैं। प्यार भरा यह दिन खुशियों का प्रतीक माना जाता है और हर प्यार करने वाले शख्स के लिए अलग ही अहमियत रखता है। 

वेलेंटाइन डे या संत वेलेंटाइन दिवस 14 फ़रवरी को अनेकों लोगों द्वारा दुनिया भर में मनाया जाता है। अंग्रेजी बोलने वाले देशों में, ये एक पारंपरिक दिवस है, जिसमें प्रेमी एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम का इजहार वेलेंटाइन कार्ड भेजकर, फूल देकर, या मिठाई आदि देकर करते हैं। कहा जाता है कि ‘वेलेंटाइंस डे’ का नाम संत वेलेंटाइन के नाम पर रखा गया है। दरअसल रोम में तीसरी सदी में क्‍लॉडियस नाम के राजा का राज हुआ करता था। क्‍लॉडियस का मानना था कि विवाह करने से पुरुषों की शक्ति और बुद्धि का खत्‍म हो जाती है।

बस इसी के चलते उसने पूरे राज्‍य में यह आदेश जारी कर दिया कि उसका कोई भी सैनिक या अधिकारी शादी नहीं करेगा। लेकिन संत वेलेंटाइन ने क्‍लॉडियस के इस आदेश पर कड़ा विरोध जताया और पूरे राज्‍य में लोगों को विवाह करने के लिए प्रेरित किया। संत वेलेंटाइन ने अनेक सैनिकों और अधिकारियों का विवाह करवाया। अपने आदेश का विरोध देख आखिर क्लॉडियस ने 14 फरवरी सन 269 को संत वेलेंटाइन को फांसी पर चढ़वा दिया। तब से उनकी याद में यह दिन मनाया जाने लगा। 

प्यार एक खूबसूरत एहसास है, आप इसे सिर्फ आप दिल से महसूस करें, तभी आप प्यार सच्चा होगा। आज की व्यस्त जिंदगी में आदमी के पास अपने साथी के लिए समय छोड़कर बाकी सब कुछ हैं। यूँ तो प्यार करने वालों के लिए हर दिन खास होता है और अपने साथी से प्यार जताने के लिए दिन और तारीख मायने नहीं रखती लेकिन भागती हुई जिंदगी के लिए ही आज का दिन मोहब्बत के नाम कर दिया गया। तो दोस्तों अपने सारे काम को थोड़े देर के लिए किनारे करके अपने प्यार को अपने प्यार का एहसास दिला दीजिये। 

आज के समय में भारत में भी वैलेंटाइन का क्रेज बढ़ चूका है। भारत में वैलेंटाइन वसंत के महीने में आता है। आज का दिन आप अपने हाथों से मत जाने दीजिये आप भी जिसे प्यार करते हैं उससे अपने दिल की बात कह डालिये। आपके दिल से निकले तीन अल्फाज और गुलाब का फूल शायद आपकी जिंदगी में आज प्यार की बरसात कर दे।

पुदीने के यह गुण जानेंगे तो दूर नहीं रह सकेंगे

चटनी, सलाद व अन्य पेय पदार्थों में इस्तेमाल होने वाला पुदीना न सिर्फ टेस्टी और रिफ्रेशिंग होता है, बल्कि यह हेल्थ को भी कई तरीकों से संवारता है। आपको पता है पुदीना कई बिमारियों में रामबाण औषधि से कम नहीं है| तो आइये जाने इसकी खूबियों के बारे में-

आपको बता दें कि पुदीने का इस्तेमाल सलाद में सबसे स्वास्थ्यवर्द्धक है, प्रतिदिन इसकी पत्ती चबाई जाए तो दंत क्षय मसूढ़ों से रक्त निकलना पायरिया आदि रोग कम हो जाते हैं| यह एंटीसेप्टिक जैसा कार्य करता है और दांतों तथा मसूढ़ों को जरूरी पोषक तत्व पहुंचाता है|

इसके अलावा एक गिलास पानी में पुदीने की चार से पांच पत्तियां डालकर उबालें| फिर ठंडा होने के लिए फ्रिज में रख दें| इस पानी से कुल्ला करने पर मुंह की दुर्गध दूर हो जाती है क्योंकि पुदीना कीटाणुनाशक है| यदि घर के चारों तरफ पुदीने के तेल का छिड़काव कर दिया जाए तो मक्खी, मच्छर, चींटी आदि कीटाणु भाग जाते हैं|

मासिक धर्म समय पर न आने पर पुदीने की सूखी पत्तियों के चूर्ण को शहद के साथ समान मात्रा में मिलाकर दिन में दो-तीन बार नियमित रूप से सेवन करने पर लाभ मिलता है। इसके अलावा यदि महिलाओं को प्रसव के समय दिक्कते आ रही हैं तो पुदीने का रस पिलाने से प्रसव आसानी से हो जाता है।

हरा पुदीना पीसकर उसमें नींबू के रस की दो-तीन बूँद डालकर चेहरे पर लेप करें। कुछ देर लगा रहने दें। बाद में चेहरा ठंडे पानी से धो डालें। कुछ दिनों के प्रयोग से मुँहासे दूर हो जाएँगे तथा चेहरे की कांति खिल उठेगी। हरे पुदीने की 20-25 पत्तियाँ, मिश्री व सौंफ 10-10 ग्राम और कालीमिर्च 2-3 दाने इन सबको पीस लें और सूती, साफ कपड़े में रखकर निचोड़ लें। इस रस की एक चम्मच मात्रा लेकर एक कप कुनकुने पानी में डालकर पीने से हिचकी बंद हो जाती है।

एक टब में पानी भरकर उसमें कुछ बूंद पुदीने का तेल डालकर यदि उसमें पैर रखे जाएं तो थकान से राहत मिलती है और बिवाइयों के लिए बहुत लाभकारी है| पुदीने का ताजा रस क्षय रोग अस्थमा और विभिन्न प्रकार के श्वास रोगों में बहुत लाभकारी है|

पानी में नींबू का रस, पुदीना और काला नमक मिलाकर पीने से मलेरिया के बुखार में राहत मिलती है| इसके अलावा हकलाहट दूर करने के लिए पुदीने की पत्तियों में काली मिर्च पीस लें तथा सुबह शाम एक चम्मच सेवन करें| पुदीने की चाय में दो चुटकी नमक मिलाकर पीने से खांसी में लाभ मिलता है| हैजे में पुदीना, प्याज का रस, नींबू का रस समान मात्रा में मिलाकर पिलाने से लाभ होता है|

पुदीने का ताजा रस शहद के साथ सेवन करने से ज्वर दूर हो जाता है तथा न्यूमोनिया से होने वाले विकार भी नष्ट हो जाते हैं| पेट में अचानक दर्द उठता हो तो अदरक और पुदीने के रस में थोड़ा सा सेंधा नमक मिलाकर सेवन करे| नकसीर आने पर प्याज और पुदीने का रस मिलाकर नाक में डाल देने से नकसीर के रोगियों को बहुत लाभ होता है|

एक चम्मच पुदीने का रस, दो चम्मच सिरका और एक चम्मच गाजर का रस एकसाथ मिलाकर पीने से श्वास संबंधी विकार दूर होते हैं। इतना ही नहीं अधिक गर्मी या उमस के मौसम में जी मिचलाए तो एक चम्मच सूखे पुदीने की पत्तियों का चूर्ण और आधी छोटी इलायची के चूर्ण को एक गिलास पानी में उबालकर पीने से लाभ होता है।

पुदीने को सूखाकर पीस लें। अब इसे कपड़े से छानकर बारीक पाउडर बनाकर एक शीशे में रख लें। सुबह-शाम एक चम्मच चूर्ण पानी के साथ लें। यह फेफड़ों में जमे हुए कफ के कारण होने वाली खांसी और दमा की समस्या को दूर करता है। बिच्छू या बर्रे के दंश स्थान पर पुदीने का अर्क लगाने से यह विष को खींच लेता है और दर्द को भी शांत करता है।

इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होता है। यह पेट के विकारों में काफी फायदेमंद होता है। पुदीना के कई फायदे हैं। एक गिलास पानी में 8-10 पुदीने की पत्तियां, थोड़ी-सी काली मिर्च और जरा सा काला नमक डालकर उबालें। 5-7 मिनट उबालने के बाद पानी को छान लें। फिर इसे पीने के बाद यह खांसी, जुकाम और बुखार से काफी राहत पहुंचाता है। यदि हाजमा खराब हो तो एक गिलास पानी में आधा नींबू निचोड़ें, उसमें थोड़ा-सा काला नमक डालें और पुदीने की 8-10 पत्तियां पीसकर मिलाएं। अब पीड़ित व्यक्ति को इसे पिलाएं, तुरंत लाभ मिलेगा। 

मुंहासे दूर करने के लिए पुदीने की कुछ पत्तियां लेकर पीस लें। अब उसमें 2-3 बूंदे नींबू का रस डालकर इसे चेहरे पर कुछ देर के लिए लगाएं। फिर चेहरा ठंडे पानी से धो लें। कुछ दिन ऐसा करने से मुंहासे तो ठीक हो ही जाएंगे, चेहरे पर चमक भी आ जाएगी। पुदीने को सूखाकर पीस लें। अब इसे कपड़े से छानकर बारीक पाउडर बनाकर एक शीशे में रख लें। सुबह-शाम एक चम्मच चूर्ण पानी के साथ लें। यह फेफड़ों में जमे हुए कफ के कारण होने वाली खांसी और दमा की समस्या को दूर करता है। अगर नमक के पानी के साथ पुदीने के रस को मिलाकर कुल्ला करें तो गले की खराश और आवाज में भारीपन दूर हो जाते हैं। यही नहीं आवाज साफ हो जाती है और गले में काफी आराम मिलता है।

नाक बंद होने की स्थिति में ताजे पुदीने के पत्ते को सूंघना फायदेमंद रहेगा। खुजली या गले में खराश होने पर भी पुदीने का काढ़ा लिया जा सकता है। इसके लिए एक कप पानी में दस-बारह पुदीने के पत्ते डालकर आधा होने तक उबालें। पानी को छानकर एक चम्मच शहद के साथ पिएं। सिरदर्द में ताजी पत्तियों का लेप माथे पर लगाने से दर्द में आराम मिलता है।

कहाँ से आया यह पुदीना-

जब इतने सारे गुण पुदीना में विधमान हैं तो सवाल यह उठता है कि यह आया कहाँ से है? गहरे हरे रंग की पत्तियों वाले पुदीने की उत्पत्ति कुछ लोग योरप से मानते हैं तो कुछ का विश्वास है कि मेंथा का उद्भव भूमध्यसागरीय बेसिन में हुआ तथा वहाँ से यह प्राकृतिक तथा अन्य तरीकों से संसार के अन्य हिस्सों में फैला। लगभग तीस जातियों और पाँच सौ प्रजातियों वाला पुदीने का पौधा आज पुदीना, ब्राजील, पैरागुए, चीन, अर्जेन्टिना, जापान, थाईलैंड, अंगोला, तथा भारतवर्ष में उगाया जा रहा है। लेकिन इसकी विभिन्न जातियों में- पिपमिंट और स्पियरमिंट का प्रयोग ही अधिक होता है। 

भारतवर्ष में मुख्यतया तराई के क्षेत्रों (नैनीताल, बदायूँ, बिलासपुर, रामपुर, मुरादाबाद तथा बरेली) तथा गंगा यमुना दोआन (बाराबंकी, तथा लखनऊ तथा पंजाब के कुछ क्षेत्रों (लुधियाना तथा जलंधर) में उत्तरी-पश्चिमी भारत के क्षेत्रों में इसकी खेती की जा रही है। पूरे विश्व का सत्तर प्रतिशत स्पियर मिंट अकेले संयुक्त राज्य में उगाया जाता है।

....यहाँ गिरी थी देवी सती की नाभि!

हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं। 

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए। 

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। 

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा। 

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है। ऐसा ही एक शक्तिपीठ कनखल यानी वर्तमान हरिद्वार में स्थित है।

कनखल देवी सती की जन्मस्थली है और यहीं इन्होंने यज्ञ कुण्ड में आत्मदाह भी किया था। मान्यता है कि यहां पर देवी सती की नाभि गिरी थी। नाभि शरीर का मध्य भाग होता है, अत: धारणा है कि इस स्थल पर भूमिगत ऊर्जा मौजद है। जो भी भक्त यहां माता के दर्शनों के लिए आता है उसे मां की उर्जा की अनुभूति पहली बार में ही प्राप्त हो जाती है। जहां जहां भी शक्तिपीठ है भगवान शिव ने इसकी रक्षा के लिए अपने एक भैरव को नियुक्त किया है। भगवती के इस स्वरूप की रक्षा भगवान आनंद भैरव करते हैं। नवरात्रों में शक्तिपीठ मायादेवी पर श्रद्धालुओं का तांता लग रहता है। माया देवी शक्तिपीठ की एक विशेषता यह भी है कि, मनसा देवी और चंडी देवी को मिलाकर यह एक अद्भुत त्रिभुज का निर्माण करती है। मान्यता है इस अद्भुत त्रिभुज का दिव्य लाभ भी यहां आने वाले भक्तों को प्राप्त होता है।

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