जीत हार के तंज कसने पर प्रधान समर्थकों में चली लाठियां, हुआ पथराव

हैदरगढ़: उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जनपद के लोनीकटरा थाना क्षेत्र के अंतर्गत इलियासपुर गांव में चुनावी रंजिश के चलते दो प्रत्याशियों के समर्थक के बीच जमकर लाठी-डंडे चले। मारपीट में तीन लोग जख्मी हो गए। घायल तीन समर्थकों को गंभीर अवस्था में जिला चिकित्सालय रेफर किया गया है। पुलिस ने दोनों पक्ष की शिकायत पर तेरह के खिलाफ शांति भंग की धाराओं में कार्रवाई की है।

लोनीकटरा थाना क्षेत्र के ग्राम इलियासपुर मौजूदा प्रधान नन्हा प्रसाद वर्मा इस बार फिर मैदान में वहीं उनके खिलाफ भगौती वर्मा ने भी प्रधानी के लिए नामांकन कर दावेदारी ठोंकी है। मंगलवार देर रात भगौती प्रसाद वर्मा के समर्थक अंकित पुत्र अमर सिंह, ललित वर्मा, देशबंधु, रज्जन लाल, गिरिजा शंकर, राम कुमार आदि अपने पक्ष में वोट मांग रहे थे। इसी दौरान नन्हा प्रसाद वर्मा के समर्थक भी वहां वोट मांगने पहुंचे। एक दूसरे पर हारने और जीतने की बात को लेकर छींटा कसी शुरू हो गई। देखते ही देखते दोनों पक्षों में संघर्ष शुरू हो गया। दोनों पक्षों से लाठियां चलीं तो जमकर पथराव हुआ।

इस वारदात में भगौती प्रसाद वर्मा के समर्थक अंकित व ललित गंभीर रूप से घायल हो गए। वहीं नन्हा प्रसाद वर्मा के समर्थक प्रदीप व अवधेश घायल हुए। मामला थाने पहुंचा तो पुलिस ने घायलों को उपचार के लिए भेजा जहां से अंकित व ललित को सीएचसी से जिला अस्पताल रेफर किया गया है।

थानाध्यक्ष अरूण द्विवेदी ने बताया कि घायल अंकित के पिता अमर सिंह की तहरीर पर अमरदीप वर्मा, धीरज कुमार, जगन्नाथ, अवधेश, चंद्र नारायण और प्रदीप पटवा पर मारपीट का मुकदमा दर्ज किया गया है। वहीं दूसरे पक्ष से प्रदीप की तहरीर पर अमर सिंह, अंकित, देशबंधु, तेज बहादुर, गिरजाशंकर, सार्जन लाल व राम कुमार के खिलाफ भी इसी धारा में मुकदमा दर्ज किया गया है। द्विवेदी ने कहा सभी 13 ग्रामीणों के खिलाफ शांति भंग की धाराओं में कार्रवाई की गई है और मौके की जांच कर आगे की कार्रवाई की जाएगी।

बिहार का सोनपुर का मेला, इससे बड़ा नहीं है पशु बाजार

प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के मौके पर लगने वाला सोनपुर पशु मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है| यह मेला भले ही पशु मेला के नाम से विख्यात है लेकिन इस मेले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां सूई से लेकर हाथी तक की खरीदारी की जा सकती है| इस वर्ष यह मेला 23 नवम्बर से शुरू होगा और 24 दिसम्बर को खत्म होगा| 

बिहार के सारण और वैशाली जिले की सीमा पर गंगा और गंडक नदी के संगम पर ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाले सोनपुर में विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेला (हरिहर क्षेत्र मेला) शुरू हो गया। एक महीने तक चलने वाले इस मेले की पहचान ऐसे तो सबसे बड़े पशु मेले की रही है, परंतु मेले में आमतौर पर सभी प्रकार के सामान मिलते हैं। मेले में जहां देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं के क्रय-विक्रय के लिए पहुंचते हैं, वहीं विदेशी सैलानी भी यहां खिंचे चले आते हैं।

मेला प्रारंभ होते ही देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए पहुंचते हैं। पूरा मेला परिसर सज-धज कर तैयार है। मेले के इतिहास के विषय में बताया जाता है कि इस मेले का प्रारंभ मौर्य काल के समय हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य सेना के लिए हाथी खरीदने के लिए यहां आते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला क्रांतिकारियों के लिए पशुओं की खरीदारी के लिए पहली पसंद रही।

सोनपुर के बुजुर्गो के अनुसार वीर कुंवर सिंह जनता को अंगेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरुक करने के लिए और अपनी सेना की बहाली के लिए यहां आए व यहां से घोड़ों की खरीदारी भी की थी। सोनपुर निवासी 78 वर्षीय बृजनंदन पांडेय कहते हैं कि इस मेले में हाथी, घोड़े, ऊंट, कुत्ते, बिल्लियां और विभिन्न प्रकार के पक्षियों सहित कई दूसरे प्रजातियों के पशु-पक्षियों का बाजार सजता है। यह मेला केवल पशुओं के कारोबार का बाजार ही नहीं, बल्कि परंपरा और आस्था का भी मिलाजुला स्वरूप है।

इस मेले से एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। मान्यता है कि भगवान विष्णु के भक्त हाथी (गज) और मगरमच्छ (ग्राह) के बीच कोनहारा घाट पर संग्राम हुआ था। जब गज कमजोर पड़ने लगा तो उसने अपने अराध्य को पुकारा और भगवान विष्णु ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुदर्शन चक्र चलाकर दोनों के बीच युद्ध का अंत किया था।

इसी स्थान पर हरि (विष्णु) और हर (शिव) का हरिहर मंदिर भी है जहां प्रतिदिन सैकड़ों भक्त श्रद्धा से पहुंचते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान राम ने सीता स्वयंवर में जाते समय किया था। बुजुर्ग बताते हैं कि पूर्व में मध्य एशिया से व्यापारी पर्शियन नस्ल के घोड़ों, हाथी और ऊंट के साथ यहां आते थे। इस मेले की विशेषता है कि यहां सभी पशुओं का अलग-अलग बाजार लगता है।

धीरे-धीरे इस मेले में पशुओं की संख्या कम होती जा रही है। बिहार पर्यटन विभाग के प्रधान सचिव बी़ प्रधान भी कहते हैं कि सोनपुर मेले में पशुओं की संख्या कम होना चिंता का विषय है। पशुओं के प्रति लोगों की दिलचस्पी कम होती जा रही है। इस वजह से पशुओं की संख्या बढ़ाने के लिए प्रशासन भी अपने स्तर से बहुत कुछ नहीं कर पा रहा है। प्रधान कहते हैं कि मेले के इतिहास को जीवित रखने के लिए विभाग ने असम, पश्चिम बंगाल समेत दूसरे राज्यों से पशुओं को मंगवाने की कोशिश की है। वे कहते हैं कि मेले के परंपरागत और ग्रामीण स्वरूप बनाए रखते हुए हर साल इसे आधुनिक और आकर्षक रूप प्रदान करने के प्रयास किए जाते हैं।

मेले की धार्मिक, एतिहासिक और पौराणिक महता को देखते हुए और इसे पर्यटन एवं दुनिया के मानचित्र पर लाने के लिए वेबसाइट के साथ-साथ अन्य प्रचार माध्यमों से प्रचार-प्रसार करवाया जा रहा है। इस मेले में नौटंकी, पारंपरिक संगीत, नाटक, जादू, सर्कस जैसी चीजें भी लोगों के मनोरंजन के लिए होती हैं। सोनपुर बिहार की राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सोनपुर पहुंचने के लिए सड़क का जरिया सबसे सुगम माना जाता है। सोनपुर में ठहरने के लिए टूरिस्ट विलेज बने हुए हैं जो उचित दर पर उपलब्ध हैं। 

कार्तिक पूर्णिमा पर लगाए आस्था की डुबकी

कार्तिक का महीना बहुत पवित्र माना गया है। इस माह में की गई भक्ति-आराधना का पुण्य कई जन्मों तक बना रहता है। इस माह में किए गए दान, स्नान, यज्ञ, उपासना से श्रद्धालु को तुरंत ही शुभ फल प्राप्त होने लगते हैं। इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा 25 नवम्बर दिन बुधवार को है |

शास्त्रों के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा शाम भगवान श्रीहरि ने मत्स्यावतार के रूप में प्रकट हुए। भगवान विष्णु के इस अवतार की तिथि होने की वजह से आज किए गए दान, जप का पुण्य दस यज्ञों से प्राप्त होने वाले पुण्य के बराबर माना जाता है। पूर्णिमा पर पवित्र नदिनों में दीपदान करने की भी परंपरा हैं। देश की सभी प्रमुख नदियों में श्रद्धालुओं द्वारा दीपदान किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा पर यदि कृतिका नक्षत्र आ रहा हो तो यह महाकार्तिकी होती है। भरणी नक्षत्र होने पर यह विशेष शुभ फल देती है। रोहिणी नक्षत्र हो तो इस दिन किए गए दान-पुण्य से सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति है।

कार्तिक पूर्णिमा की पूजन विधि-

इस दिन सुबह स्नान आदि से निवृत होकर पूरा दिन निराहार रहते हैं और भगवान विष्णु की आराधना करते हैं| श्रद्धालुगण इस दिन गंगा स्नान के लिए भी जाते हैं, जो गंगा स्नान के लिए नहीं जा पाते वह अपने नगर की ही नदी में स्नान करते हैं| भगवान का भजन करते हैं| संध्या समय में मंदिरों, चौराहों, गलियों, पीपल के वृक्षों तथा तुलसी के पौधे के पास दीपक जलाते हैं| लम्बे बाँस में लालटेन बाँधकर किसी ऊंवे स्थान में “आकाशी” प्रकाशित करते हैं| इस व्रत को करने में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है|

इस दिन कार्तिक पूर्णिमा का व्रत करने वाले व्यक्ति को ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराना चाहिए| भोजन से पूर्व हवन कराएं| संध्या समय में दीपक जलाना चाहिए| अपनी क्षमतानुसार ब्राह्मण को दान-दक्षिणा देनी चाहिए| कार्तिक पूर्णिमा के दिन रात्रि में चन्द्रमा के दर्शन करने पर शिवा, प्रीति, संभूति, अनुसूया, क्षमा तथा सन्तति इन छहों कृत्तिकाओं का पूजन करना चाहिए| पूजन तथा व्रत के उपरान्त बैल दान से व्यक्ति को शिवलोक प्राप्त होता है, जो लोग इस दिन गंगा तथा अन्य पवित्र स्थानों पर श्रद्धा – भक्ति से स्नान करते हैं, वह भाग्यशाली होते हैं|

कार्तिक पूर्णिमा की कथा-

प्राचीन समय की बात है, एक नगर में दो व्यक्ति रहते थे| एक नाम लपसी था और दूसरे का नाम तपसी था| तपसी भगवान की तपस्या में लीन रहता था, लेकिन लपसी सवा सेर की लस्सी बनाकर भगवान का भोग लगाता और लोटा हिलाकर जीम स्वयं जीम लेता था| एक दिन दोनों स्वयं को एक-दूसरे से बडा़ मानने के लिए लड़ने लगे| लपसी बोला कि मैं बडा़ हूं और तपसी बोला कि मैं बडा़ हूँ, तभी वहाँ नारद जी आए और पूछने लगे कि तुम दोनों क्यूं लड़ रहे हो? तब लपसी कहता है कि मैं बडा़ हूं और तपसी कहता है कि मैं बडा़ हूँ| दोनों की बात सुनकर नारद जी ने कहा कि मैं तुम्हारा फैसला कर दूंगा|

अगले दिन तपसी नहाकर जब वापिस आ रहा था, तब नारद जी ने उसके सामने सवा करोड़ की अंगूठी फेंक दी| तपसी ने वह अंगूठी अपने नीचे दबा ली और तपस्या करने बैठ गया| लपसी सुबह उठा, फिर नहाया और सवा सेर लस्सी बनाकर भगवान का भोग लगाकर जीमने लगा| तभी नारद जी आते हैं और दोनों को बिठाते हैं| तब दोनों पूछते है कि कौन बडा़ है? तपसी बोला कि मैं बडा़ हूँ| नारद जी बोले – तुम गोडा़ उठाओ और जब गोडा़ उठाया तो सवा करोड़ की अंगूठी निकलती है| नारद जी कहते हैं कि यह अंगूठी तुमने चुराई है| इसलिए तेरी तपस्या भंग हो गई है और लपसी बडा़ है|

सभी बातें सुनने के बाद तपसी नारद जी से बोला कि मेरी तपस्या का फल कैसे मिलेगा? तब नारद जी उसे कहते हैं – तुम्हारी तपस्या का फल कार्तिक माह में पवित्र स्नान करने वाले देगें उसके आगे नरद जी कहते हैं कि सारी कहानी कहने के बाद जो तेरी कहानी नहीं सुनाएगा या सुनेगा, उसका कार्तिक का फल खत्म हो जाएगा|

भगवान सूर्य की उपासना का महापर्व है छठ पूजा



दीपवाली के ठीक छह दिन बाद मनाए जाने वाले छठ महापर्व का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य षष्ठी का व्रत करने का विधान है। छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है| इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम-धाम से मनाते हैं।


बिहार का प्रमुख लोकपर्व छठ इस वर्ष 16 नवम्बर दिन सोमवार को व्रतियों के 'नहाय-खाय' के साथ प्रारंभ होगा। छठ के अवसर पर व्रत रखने वाली महिलाएं जहां महापर्व की तैयारियों में जुट गई हैं वहीं, छठ बाजार भी सजने लगे हैं। बाजार में सूप, दउरा, आम की लकड़ी, चूल्हा और फलों की दुकानें सज चुकी हैं।


व्रत रखने वाली महिलाएं इस दिन स्नान कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी खाएंगी। इस दिन खाने में सेंधा नमक का ही प्रयोग किया जाता है। दूसरे दिन सोमवार को कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी के मौके पर दिनभर व्रत रखने वाली महिलाएं उपवास कर शाम को विधि विधान से रोटी तथा गुड़ से बनी खीर का प्रसाद तैयार करेंगी और फिर सूर्य भगवान का स्मरण कर प्रसाद ग्रहण करेंगी। इस पूजा को 'खरना' कहा जाता है।


क्यों मनाते है छठ पूजा-


छठ पूजा का प्रारंभ आज से नहीं बल्कि महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। यह मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है।


छठ पूजा की विधि-


छठ पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है।


तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं, इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं| जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं| यही नही, तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।


पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर भी कहते हैं। यह गेहूं के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि।


पहले दिन महिलाएँ नहा धो कर अरवा चावल, लौकी और चने की दाल( जिनमे सेंधा नमक ही डाला जाता है) का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।


छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की खीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में खीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में खीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।


तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, और सूप में पूजा के सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, कम से कम पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :-


काचि ही बांस कै बहन्गिया, बहिंगी लचकत जाय

भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय

बाटै जै पूछेले बटोहिया, ई भार केकरै घरै जाय

आँख तोरे फूटै रे बटोहिया, जंगरा लागै तोरे घूम

छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा, ई भार छठी घाटे जाय


नदी किनारे जाकर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।


सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ्य देते हैं, लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद लेकर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।


छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।


रात छठिया मईया गवनै अईली

आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली

बिलम्बली – बिलम्बली कवन राम के अंगना

जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां,

जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा

उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां ||

दीपावली कल, इस तरह करें महालक्ष्मी और श्रीगणेश को प्रसन्न

हर वर्ष भारतीय पंचांग के कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं। इस वर्ष दिपावली, 12 नवम्बर दिन बुधवार को होगी| दीपावली में अमावस्या तिथि, प्रदोष काल, शुभ लग्न व चौघाडिया मुहूर्त विशेष महत्व रखते है| कहा जाता है कि कार्तिक अमावस्या को भगवान रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने श्री रामचन्द्र के लौटने की खुशी में दीप जलाकर खुशियाँ मनायी थीं, इसी याद में आज तक दीपावली पर दीपक जलाए जाते हैं और कहते हैं कि इसी दिन महाराजा विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था। एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार के साधु के मन में राजसिक सुख भोगने का विचार आया| इसके लिये उसने लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करनी प्रारम्भ कर दी| तपस्या पूरी होने पर लक्ष्मी जी ने प्रसन्न होकर उसे मनोवांछित वरदान दे दिया| वरदान प्राप्त करने के बाद वह साधु राजा के दरबार में पहुंचा और सिंहासन पर चढ कर राजा का मुकुट नीचे गिरा दिया|

राजा ने देखा कि मुकुट के अन्दर से एक विषैला सांप निकल कर भागा| यह देख कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ, क्योकि साधु ने सर्प से राजा की रक्षा की थी| इसी प्रकार एक बार साधु ने सभी दरबारियों को फौरन राजमहल से बाहर जाने को कहा, सभी के बाहर जाते ही, राजमहल गिर कर खंडहर में बदल गया| राजा ने फिर उसकी प्रशंसा की, अपनी प्रशंसा सुनकर साधु के मन में अहंकार आने लगा| साधु को अपनी गलती का पता चला, उसने गणपति को प्रसन्न किया, गणपति के प्रसन्न होने पर राजा की नाराजगी दूर हो गई, और साधु को उसका स्थान वापस दे दिया गया| इसी लिए कहा गया है कि धन के लिये बुद्धि का होना आवश्यक है. यही कारण कि दीपावली पर लक्ष्मी व श्री गणेश के रुप में धन व बुद्धि की पूजा की जाती है|

दीपावली यानी दीप पक्तियां, अमावस्या को जब चन्द्रमा और सूर्य दोनों किसी भी एक डिग्री पर होते हैं तो गहन अंधकार को जन्म देते हैं। दीपावली गहन अंधकार में भी प्रकाश फैलने का पर्व है, यह त्योहार हम सभी को प्रेरणा देता है कि अज्ञान रूपी अंधकार में भटकने के बजाय हम अपने जीवन में ज्ञान रूपी प्रकाश से उजाला करें और जगत के कल्याण में सहभागिता करें। कहते हैं कि दीपावली की रात्रि को महालक्ष्मी की कृपा जिस व्यक्ति या परिवार पर पड़ जाती है उसे कभी धन का अभाव नहीं होता है और उसके घर में हमेशा सुख-समृद्धि रहती है| दीपावली के शुभ अवसर पर महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिये कुछ पूजा-आराधना इस प्रकार से करनी चाहिये कि पूरे वर्ष धन-धान्य में वृद्धि होकर सुख-समृद्धि बनी रहे और निरन्तर मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहे। रावण के पास जो सोने की लंका थी, कहते हैं वह लंका रावण को महालक्ष्मी की कृपा से ही प्राप्त हुई थी। रावण के भाई कुबेर जो धनाधिपति के रूप में भी जाने जाते हैं, उनके साथ भी लक्ष्मी का शुभ आर्शीवाद ही था। दीपावली के शुभ अवसर पर भगवती महालक्ष्मी जी एवं गणेश जी का ही विशेष पूजन किया जाता है, क्योंकि पूरे वर्ष में एक यही पर्व है जिसमें लक्ष्मी का पूजन भगवान विष्णु के साथ नहीं होता क्योंकि भगवान विष्णु तो चार्तुमास शयन कर रहे हैं इसलिये लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी का पूजन दीपावली के शुभ अवसर पर किया जाता है|

माँ लक्ष्मी की पूजा के लिये लक्ष्मी-गणेश की नवीन मूर्ति, श्रीयंत्रा, कुबेर मंत्रा, फल-फूल, धूप-दीपक, खील-बतासे, मिठाई, पंचमेवा, दूध, दही, शहद, गंगाजल, रोली, कलावा, कच्चा नारियल, तेल के दीपक, व दीपकों की कतार और एक घी के दीपक जलाएं| पूजन के लिये एक थाली में रोली से ओम और स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर गणेश जी व माता लक्ष्मी जी को स्थापित करे। थाली में एक तरफ षोडस् मातृका पूजन के लिये रोली से 16 बिन्दु लगायें। नवग्रह पूजन के लिये रोली से ही खाने बनायें, सर्प आकृति बनायें, एक तरफ अपने पितरों को स्थान दें, अब आप पूर्व की दिशा या उत्तर की दिशा में मुहं कर बैठकर आचमन, पवित्रो-धारण-प्राणायाम कर अपने ऊपर तथा पूजा-सामग्री पर यह मंत्र ( ओइम् अपवित्राः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोडपि वा। य स्मरेत पुण्डरीकाक्षं सः बाह्य अत्यंतरः शुचि।।) पढ़ते हुये गंगाजल छिड़ककर शुद्ध कर लें| तत्पश्चात सभी देवी-देवताओं को गंगाजल छिड़ककर स्नान करायें, स्नान करने के बाद उनको तिलक करें, इसके पश्चात् गंगाजल मिले हुए जल से भरा लोटा या कलश का पूजन करे, डोरी बांधे, रोली से तिलक करे, पुष्प व चावल कलश पर वरूण देवता को नमस्कार करते हुये अर्पित करें। इतना करने के बाद थाली में जो 9 खाने वाली जगह है, उस पर रोली, डोरी, पुष्प, चावल, फल, मिठाई आदि चढ़ाते हुये नवग्रह का ध्यान व प्रणाम करे और प्रार्थना करें कि सभी नवग्रह सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृह॰, शुक्र, शानि, राहू, केतू शान्ति प्रदान करें| इसके पश्चात इस मंत्र के द्वारा कुबेर का ध्यान करें-

धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च। भवंतु त्वत्प्रसादान्मे धनधान्यादिसम्पदः॥

इसके लिए एक पाट पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक जोड़ी लक्ष्मी तथा गणेशजी की मूर्ति रखें। समीप ही एक सौ एक रुपए, सवा सेर चावल, गुढ़, चार केले, मूली, हरी ग्वार की फली तथा पाँच लड्डू रखकर लक्ष्मी-गणेश का पूजन करें और उन्हें लड्डुओं से भोग लगाएँ।

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहते हैं। इस दिन यमराज के निमित्त पूजा की जाती है। इस बार यह पर्व 11 नवम्बर मंगलवार को है। नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीयों की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बरात सजायी जाती है।

नरक चतुर्दशी की एक और कथा प्रचलित है| प्राचीन काल की बात है रन्तिदेवी नाम के राजा हुए थे। रन्तिदेवी अपने पूर्व जन्म में काफी धार्मिक व दानी थे, इस जन्म में भी दान पुण्य में ही समय बिताया था। कोई पाप किया याद न था, लेकिन जब अंतिम समय आया तो यमदूत लेने आए। राजा ने यमदूतों से पूछा कि मैंने तो काफी दान पुण्य किया है कोई पाप नहीं किया फिर यमदूत क्यों आए हैं मतलब मैं नरक में जांऊगा। राजा रन्तिदेवी ने यमदूतों से एक वर्ष की आयु की माँग की। यमदूतों ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और बताया कि एक बार तुम्हारे द्वार से एक ब्राह्मण भूखा वापस लौट गया था इस कारण नरक भोगना पडेगा। राजा ने ऋषि मुनियों से जाकर अपनी व्यथा बताई। ऋषियों ने कहा कि राजन् तुम कार्तिक मास की कष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करो और इस ब्राह्मणों को भोजन कराओ और अपना अपराध सबके सामने स्वीकार कर क्षमा याचना करो। ऐसा करने से तुम पाप से मुक्त हो जाओगे। राजा ने ब्राह्मणों के कहे अनुसार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को व्रत रखा व सब पापों से मुक्त हो विष्णु लोक चला गया।

नरक चतुर्दशी आज, जानिए इसके पीछे की कहानी

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहते हैं। इस दिन यमराज के निमित्त पूजा की जाती है। इस बार यह पर्व 11 नवम्बर मंगलवार को है। नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीयों की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बरात सजायी जाती है।

नरक चतुर्दशी की एक और कथा प्रचलित है| प्राचीन काल की बात है रन्तिदेवी नाम के राजा हुए थे। रन्तिदेवी अपने पूर्व जन्म में काफी धार्मिक व दानी थे, इस जन्म में भी दान पुण्य में ही समय बिताया था। कोई पाप किया याद न था, लेकिन जब अंतिम समय आया तो यमदूत लेने आए। राजा ने यमदूतों से पूछा कि मैंने तो काफी दान पुण्य किया है कोई पाप नहीं किया फिर यमदूत क्यों आए हैं मतलब मैं नरक में जांऊगा। राजा रन्तिदेवी ने यमदूतों से एक वर्ष की आयु की माँग की। यमदूतों ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और बताया कि एक बार तुम्हारे द्वार से एक ब्राह्मण भूखा वापस लौट गया था इस कारण नरक भोगना पडेगा। राजा ने ऋषि मुनियों से जाकर अपनी व्यथा बताई। ऋषियों ने कहा कि राजन् तुम कार्तिक मास की कष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करो और इस ब्राह्मणों को भोजन कराओ और अपना अपराध सबके सामने स्वीकार कर क्षमा याचना करो। ऐसा करने से तुम पाप से मुक्त हो जाओगे। राजा ने ब्राह्मणों के कहे अनुसार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को व्रत रखा व सब पापों से मुक्त हो विष्णु लोक चला गया।

कम खर्च में ऐसे मनाएं पर्यावरण अनुकुल दीपावली

दीपावली का त्योहार आते ही सभी घरों में साफ-सफाई व साज सज्जा की शुरूआत हो जाती है। दिवाली का जिक्र होते ही आंखों के सामने दीपों की जगमगाहट और कानों में पटाखे की आवाज गूंज उठती है। जहां सभी चाहते हैं कि उनके घर की सजावट पारंपरिक होने के साथ साथ कुछ अलग हट कर हो, वहीं अधिक खर्च से बजट गड़बड़ा जाने की चिन्ता भी सबको सताती है। ऐसे में कम खर्चे में ही रचनात्मक तरीकों को अपनाकर घर की शोभा बढ़ाई जा सकती है।

दिवाली पर बंदनवार व रंगोली बनाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। आज बाजार में बहुत प्रकार के बंदनवार उपलब्ध है, लेकिन आप चाहें तो अपने घर पर ही बंदनवार बना सकते हैं जो बजट में कम होने के साथ आर्कषक भी लगेगी और आप अवश्य ही तारीफ की पात्र भी होंगी। पुराने जमाने में लोग अपने घरों के दरवाजों पर रंगीन फूलों, अशोक व आम के पत्तों आदि से बंदनवार सजाते थे, लेकिन इस आधुनिक युग में सबको चलन से हटकर चलना पसंद है इसलिए कुछ नए प्रकार के बंदनवार बनाए जा सकते हैं। इनमें जरी बार्डर बंदनवार बनाने के लिए कोई भी व्यक्ति अपनी पंसद के साइज के बुकरम के दोनों तरफ जरी बार्डर लगा सकता है, फिर उस पर स्टोन व मिरर चिपका दे, अंत में मोती या घुंघरू भी सुई धागे की सहायता से लगाई जा सकती है। इसे अपने दरवाजे पर लगाएं, यह डिजाइनर होने के साथ-साथ पारंपरिक लुक भी देगा।

इसी तरह सुनहरा चमकीला बंदनवार बनाने के लिए बुकरम की चौड़ी पट्टी पर फेविकोल की मदद से सुनहरा रंग चिपकाएं फिर उस पर टिशू का रिबन बनाकर डिजाइन तैयार करें। अब फूल पत्तियां चिपकाएं। फिर सुई-धागे में मोती और सितारे पिरो कर बंदनवार में जगह-जगह लगाएं। इस तरह आकर्षक बंदनवार बनाकर घर सजाया जा सकता है। इसके अलावा दीपावली पर खास महत्व रखने वाले दीयों की जगमगाहट से दीवाली की खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं, पर इनके साथ कुछ नए तरीके अपनाकर और भी आकर्षक बनाया जा सकता है। बाजार में उपलब्ध मोमबत्ती जिनके साथ नीचे छोटा स्टैण्ड होता है, उन्हें ले आइए फिर घर में उपलब्ध बहुत सारे कांच के छोटे छोटे व रंगीन जार में इन्हें रखें। यह एक नया ही लुक देगा।

आप चाहें तो इन जारों को एक सपाट आईने पर समूह में सजा कर रख सकते है। कॉफी मग में बहुत सारी लंबी मोमबत्ती को काफी मात्रा में एक साथ रखें और जलाएं, यह बहुत ही खुबसूरत लगता है। बाजार में उपलब्ध डिजाइनर दीये दीवाली की चमक को ओर बढ़ा देते हैं। घर की साज-सजावट के साथ-साथ पूजास्थल की सजावट का भी अपना ही महत्व है। अपने पूजास्थल के आस-पास के क्षेत्र को सजाने के लिए चौड़ी बार्डर वाली बांधनी दुपट्टे या सिल्क साड़ियों का प्रयोग किया जा सकता है। इन्हें झालर के रूप में टेप से चिपकाएं। यह निश्चित रूप से सजावट को नया रूप देगा। रंगोली के बिना दीवाली की सजावट अधूरी ही लगती है। पारंपरिक रंगोली को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए इसमें अलग-अलग रंगों की दालों तथा फूल पत्तियों को प्रयोग कर सकते हंै जो रंगोली को पारंपरिकता के साथ-साथ आधुनिक झलक भी देगा और देखने वाला तारीफ किए बगैर नहीं रह पाएगा।

दीवाली के त्यौहार में इन सबके साथ एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि पर्यावरण और बढ़ते प्रदूषण के प्रति आप कितने जागरूक हैं। दीवाली के धूम धड़ाके में हम यह भूल जाते हैं कि इन पटाखों से हम वातावरण को कितना अधिक प्रदूषित कर रहे हैं। अगर आप दीवाली पर्यावरण के अनुकुल मनाए तो निश्चित ही आप रोशनी के इस त्यौहार पर सभी को एक संदेश देंगे कि प्रकृति की सुरक्षा हम सभी का फर्ज है।

बरतें चन्द सावधानियां और खुशी से मनाएं दीपों का त्यौहार

दीपावली का त्योहार हो और पटाखे छोड़कर खुशी न मनार्इ जाए ऐसा संभव नहीं है। मगर चिंतन का विषय यह है कि खुशियों में दागे जाने वाले पटाखों से फैलने वाला ध्वनि एवं वायु प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा कर रहा है इसलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि दीपावली की खुशियां भी बरकरार रहे और प्रदूषण कम से कम फैले। दीपावली हर घर में खुशियों का संदेशा लेकर आती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार देश में हर त्योहार का अलग-अलग महत्व है। रोशनी का त्योहार कहे जाने वाले इस पर्व को समाज का प्रत्येक वर्ग बड़े हर्षोल्लास से मनाना चाहता है।

खासकर बच्चों और युवाओं में पटाखे फोड़ने की ललक रहती है। दीपावली पर हर साल करोडों रुपये की आतिशबाजी फूंकने के बाद पर्यावरण को प्रदूषण के सिवा कुछ नहीं मिलता है। बदलते युग में समाज में तौर-तरीकों पर काफी परिवर्तन आया है। हम अपनी खुशियों के खातिर दूसरों को परेशानियों में डाल देते हैं। हर साल करोड़ों रुपये की आतिशबाजी से ध्वनि प्रदूषण तो होता ही है इसके साथ ही साथ वायु प्रदूषण भी फैलता है।

आतिशबाजी से निकलने वाली गूंज और ध्वनि से स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है। इस तरह से प्रदूषण के एकाएक बढ़ जाने से समाज के सभी लोगों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। हम सभी अपनी खुशियों की खातिर समाज को एक जटिल मुशिकल में डाल रहे हैं। धरातल पर कम प्लाटेंशन भी इसकी मुख्य वजह माना जा सकता है। पटाखों से निकलने वाला धुआं शरीर के लिए काफी हानिकारक होता है। सांस रोगियों और दिल के रोगियों को पटाखों से परहेज करना चाहिए। अगर किसी को भी परेशानी हो तो तुरंत ही ड‚क्टर से संपर्क करना चाहिए।

पटाखे फोड़ने पर होने वाले नुकसान : –

• सांस रोगियों को सांस लेने मे परेशानी • वातावरण में प्रदूषण की मात्रा अधिक होने से स्वच्छ हवा न मिल पाना • जहरीली गैसों से श्वांस रोगों का बढ़ता खतरा • श्रवण शक्ति पर पड़ता हैं काफी असर

पटाखे दगाते समय क्या बरतें सावधानी : –

• पटाखे दगाते समय ढीले ढाले वस्त्र पहने • कसे व सिकन टाइट वस्त्र न पहने • तेज आवाज के पटाखों का प्रयोग न करें • खुले मैदान पर पटाखों का प्रयोग करना चाहिए • तेज रोशनी वाले पटाखों का प्रयोग न करें • जहरीली गैसों के पटाखों से परहेज करें • लोकल पटाखों का प्रयोग न करें • बच्चों को अपने निर्देशन मे ही पटाखे फोड़ने दे

इन चन्द बातों का ध्यान रखकर आप अपनी दीपावली बहुत ही श्रद्धा, उल्लास व खुशी से शांति पूर्वक मना सकते हैं। आप सबकी दीपावली मंगलमय हो, भगवान गणेश, माता लक्ष्मी व कुबेर जी की कृपा सभी पर सदैव बनी रहे।

ये है कुतिया महारानी मां का मंदिर, जहाँ श्रद्धालु मांगते हैं सुख-समृद्धि व परिवार खुशहाली की मन्नतें

अपने देश में कई मंदिर है जहां भक्त बडी आस्था के साथ जाते हैं और अपना सर झुका कर भगवान् का आशीर्वाद लेते है। लेकिन आप ने कभी ऎसा मंदिर देखा है जहां भगवान की मूर्ति नही होती है इस मंदिर में कुतिया की पूजा होती है। बुंदेलखंड क्षेत्र के झांसी जनपद में स्थित रेवन व ककवारा गांवों के बीच लिंक रोड पर कुतिया महारानी मां का एक मंदिर है, जिसमें काली कुतिया की मूर्ति स्थापित है। आस्था के केंद्र इस मंदिर में लोग प्रतिदिन पूजा करते हैं। श्रद्धालु यहां सुख-समृद्धि व परिवार एवं फसलों की खुशहाली की मन्नतें मांगते हैं। झांसी के मऊरानीपुर के गांव रेवन व ककवारा के बीच लगभग तीन किलोमीटर का फासला है। इन दोनों गांवों को आपस में जोड़ने वाले लिंक रोड के बीच सड़क किनारे एक चबूतरा बना है। इस चबूतरे पर एक छोटा सा मंदिर नुमा मठ बना हुआ है। इस मंदिर में काली कुतिया की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के बाहर लोहे की जालियां लगाई गई हैं, ताकि कोई इस मूर्ति को नुकसान न पहुंचा सके।

इस मंदिर पर आसपास के गांवों की महिलाएं प्रतिदिन जल चढ़ाने आती हैं और यहां पूजा-अर्चना कर अपने परिवार की खुशहाली का आशीर्वाद मांगती हैं। वैसे तो आबादी से दूर यह छोटा सा मंदिर सुनसान सड़क पर बना है, मगर यहां के लोगों की कुतिया महारानी के प्रति अपार श्रद्धा है। ग्रामीणों के मुताबिक, कुतिया का यह मंदिर उनकी आस्था का केंद्र है। बताया जाता है कि दोनों गांवों में जब भी किसी भी आयोजन में होने वाला खाना यानी पंगत होती थी, तो यह कुतिया वहां पहुंचकर पंगत खाती थी। पुराने समय में पंगत शुरू होने से पहले बुंदेलखंडी लोक संगीत का एक वाद्य यंत्र रमतूला बजाया जाता था। उसकी आवाज सुनकर उस आयोजन में आमंत्रित सभी लोग पंगत खाने पहुंच जाते थे।

एक बार ककवारा व रेवन दोनों गांवों में कार्यक्रम था। दोनों जगह पंगत होनी थी। कुतिया को भी दोनों जगह जाना था। मगर वह उस दिन कुछ बीमार थी। ककवारा का रमतूला जैसे ही बजा, वह ककवारा की ओर दौड़ने लगी। जब तक वह ककवारा पहुंची, वहां पंगत खत्म हो चुकी थी। वह थक कर चूर हो गई। उसने सोचा कुछ आराम कर लूं। वह वहीं लेट गई। इसी दौरान रेवन गांव का रमतूला बजने लगा। कुतिया ने सोचा कि यदि देर हो गई तो रेवन की पंगत भी नहीं मिलेगी और उसे भूखा ही रहना पड़ेगा। यह सोचकर वह रेवन की ओर दौड़ गई। जब तक वह रेवन पहुंची, वहां की भी पंगत खत्म हो गई।

दोनों ओर से खाना न मिलने और बीमारी की वजह से वह हताश होकर वापस चल पड़ी और रेवन व ककवारा के बीच एक स्थान पर सड़क किनारे गिरकर बेहोश हो गई और कुछ देर बाद उसकी मौत हो गई। सुबह जब गांव वालों को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने कुतिया के शव को वहीं पर दफना दिया और उसी स्थान पर इस मंदिर का निर्माण करा दिया। तब से यह कुतिया महारानी मां के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।

आपको बता दें कि एक ऐसा ही मंदिर छत्तीसगढ़ में है जहाँ एक कुत्ते की पूजा होती है| छत्तीसगढ़ के राजनंद गांव के एक मंदिर में एक कुत्ते की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर से जुड़ी यह मान्यता है कि इसके प्रदक्षिणा से कुकुर खांसी व कुत्ते के काटने से कोई रोग नहीं होता। ‘कुकुरदेव मंदिर’ राजनंदगांव के बालोद से छह किलोमीटर दूर मालीघोरी खपरी गांव में है। दरअसल यह मंदिर भैरव स्मारक है, जो भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के शिखर के चारों ओर दीवार पर नागों का अंकन किया गया है। इस मंदिर का निर्माण हालांकि फणी नागवंशी शासकों द्वारा 14वीं-15 वीं शताब्दी में कराया गया था। इस मंदिर के प्रांगण में स्पष्ट लिपियुक्त शिलालेख भी है, जिस पर बंजारों की बस्ती, चांद-सूरज और तारों की आकृति बनी हुई है। राम लक्ष्मण और शत्रुघ्न की प्रतिमा भी रखी गई है। मंदिर के प्रांगण में कुत्ते की प्रतिमा भी स्थापित है।

जनश्रुति के अनुसार, कभी यहां बंजारों की बस्ती थी। मालीघोरी नाम के बंजारे के पास एक पालतू कुत्ता था। अकाल पड़ने के कारण बंजारे को अपने प्रिय कुत्ते को मालगुजार के पास गिरवी रखना पड़ा। इसी बीच, मालगुजार के घर चोरी हो गई। कुत्ते ने चोरों को मालगुजार के घर से चोरी का माल समीप के तालाब में छुपाते देख लिया था। सुबह कुत्ता मालगुजार को चोरी का सामान छुपाए स्थान पर ले गया और मालगुजार को चोरी का सामान भी मिल गया। कुत्ते की वफादारी से अवगत होते ही उसने सारा विवरण एक कागज में लिखकर उसके गले में बांध दिया और असली मालिक के पास जाने के लिए उसे मुक्त कर दिया। अपने कुत्ते को मालगुजार के घर से लौटकर आया देखकर बंजारे ने डंडे से पीट-पीटकर कुत्ते को मार डाला। कुत्ते के मरने के बाद उसके गले में बंधे पत्र को देखकर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और बंजारे ने अपने प्रिय स्वामी भक्त कुत्ते की याद में मंदिर प्रांगण में ही कुकुर समाधि बनवा दी। बाद में किसी ने कुत्ते की मूर्ति भी स्थापित कर दी। आज भी यह स्थान कुकुरदेव मंदिर के नाम से विख्यात है।

इस मंदिर में वैसे लोग भी आते हैं, जिन्हें कुत्ते ने काट लिया हो। यहां हालांकि किसी का इलाज तो नहीं होता, लेकिन ऐसा विश्वास है कि यहां आने से वह व्यक्ति ठीक हो जाता है। ‘कुकुरदेव मंदिर’ का बोर्ड देखकर कौतूहलवश भी लोग यहां आते हैं। उचित रखरखाव के अभाव में यह मंदिर हालांकि जर्जर होता जा रहा है। 

…यहीं गिरा था देवी सती का कंगन


हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

रायपुर जिला मुख्यालय के सिर पर मुकुट के समान खड़ा पहाड़। उसके नीचे बैठी शक्तिपीठ कंकालीन देवी रियासत काल से ही लोगों के बीच आस्था का केंद्र है। पौराणिक कथा के अनुसार इन्हीं देवी के नाम पर कांकेर का नामकरण हुआ। 52 पीठों में से एक कंकालीन पीठ के बारे में मान्यता है कि यहां पर सती का कंगन गिरा था। कंगन का अपभ्रंश कंकर हुआ और कंकर से ही इस नगर (प्राचीन में गांव) का नाम कांकेर पड़ा। सोमवंश के पतन के बाद चौदहवीं सदी में कंड्रा वंश के शासन काल में पद्मदेव के कार्यकाल में यहां मंदिर की स्थापना की गई।

ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर में पहले महिलाएं प्रवेश करते ही बेहोश हो जाती थीं या कुछ ना कुछ अनहोनी हो जाती थी। इस कारण यहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। 1990-91 में माता की विशेष पूजा-अर्चना की गई और उनसे विनती की गई। इसके बाद महिलाओं का प्रवेश कराया गया। मंदिर परिसर में चट्टान पर लिखित लिपि रहस्यपूर्ण है। ऐसी मान्यता है कि जो इस लिपि को पढ़ लेगा, उसे खजाने की प्राप्ति होगी। इस लिपि को आज तक किसी के पढ़े जाने का प्रमाण नहीं है। इस लिपि में 84 लाख जीव-जंतुओं के भोजन के खर्च का ब्यौरा लिखा जाना बताया जाता है।

आज ही के दिन इस दुनिया से विदा हुए थे 'शोले' के ठाकुर

भारतीय सिनेमा जगत में संजीव कुमार को एक ऐसे बहुआयामी कलाकार के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने नायक, सहनायक, खलनायक और चरित्र भूमिकाओं से दर्शकों के दिलों में जगह बनाई। उनके अभिनय की यह विशेषता रही कि वह किसी भी तरह की भूमिका में खुद को ढाल लेते थे। फिल्म ‘कोशिश’ में एक गूंगे की भूमिका हो या ‘शोले’ में ठाकुर की भूमिका। ‘सीता और गीता’ में लवर बॉय की भूमिका हो या ‘नया दिन नई रात’ में नौ अलग-अलग भूमिकाएं, सभी में उनका अभिनय लाजवाब रहा। इस फिल्म में संजीव ने लूले-लंगड़े, अंधे, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान और प्रोफेसर के किरदार को निभाकर जीवन के नौ रसों को रुपहले पर्दे पर साकार किया।

मुंबई में 9 जुलाई, 1938 को एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में जन्मे संजीव कुमार का असली नाम हरिभाई जरीवाला था। बचपन से ही वह फिल्मों में नायक बनने का सपना देखा करते थे। इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने फिल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लिया। वर्ष 1962 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘आरती’ के लिए उन्होंने स्क्रीन टेस्ट दिया, जिसमें वह पास नहीं हो सके। संजीव को सर्वप्रथम मुख्य अभिनेता के रूप में 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘निशान’ में काम करने का मौका मिला।

इसी दौरान वर्ष 1960 में उन्हें फिल्मालय बैनर की फिल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला। वर्ष 1960 से वर्ष 1968 तक संजीव कुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने ‘स्मगलर’, ‘पति-पत्नी’, ‘हुस्न और इश्क’, ‘बादल’, ‘नौनिहाल’ और ‘गुनाहगार’ जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।

वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म ‘शिकार’ में वह पुलिस ऑफिसर की भूमिका में दिखाई दिए। यह फिल्म पूरी तरह अभिनेता धर्मेद्र पर केंद्रित थी, फिर भी संजीव धर्मेद्र जैसे अभिनेता की मौजूदगी में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ भी मिला।

वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म ‘खिलौना’ की जबर्दस्त कामयाबी के बाद संजीव कुमार ने बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बनाई। वर्ष 1970 में ही प्रदर्शित फिल्म ‘दस्तक’ में उनके लाजवाब अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। वर्ष 1972 में प्रदर्शित फिल्म ‘कोशिश’ में उनके अभिनय का नया आयाम दर्शकों को देखने को मिला। इस फिल्म में उनके लाजवाब अभिनय के लिए उन्हें दूसरी बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया।

वर्ष 1975 में प्रदर्शित रमेश सिप्पी की सुपरहिट फिल्म ‘शोले’ में वह अभिनेत्री जया भादुड़ी के ससुर की भूमिका निभाने से भी नहीं हिचके। हालांकि संजीव कुमार ने फिल्म ‘शोले’ के पहले जया भादुड़ी के साथ ‘कोशिश’ और ‘अनामिका’ में नायक की भूमिका निभाई थी। वर्ष 1977 में प्रदर्शित फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में उन्हें महान निर्देशक सत्यजित रे के साथ काम करने का मौका मिला।

इसके बाद संजीव कुमार ने मुक्ति (1977), त्रिशूल (1978), पति पत्नी और वो (1978), देवता (1978), जानी दुश्मन (1979), गृहप्रवेश (1979), हम पांच (1980), चेहरे पे चेहरा (1981), दासी (1981), विधाता (1982), नमकीन (1982), अंगूर (1982) और हीरो (1983) जैसी कई सुपरहिट दी और उसके बाद तो वह दर्शकों के दिल पर राज करने लगे। अपने दमदार अभिनय से दर्शकों के दिल में खास पहचान बनाने वाले इस महान कलाकार को 6 नवंबर, 1985 को दिल का गंभीर दौरा पड़ा और उन्होंने दुनिया से विदा ले ली।

महिलाओं को क्यों नहीं करना चाहिए हनुमान जी की पूजा?

कहते हैं भगवान रामभक्त हनुमान की उपासना से जीवन के सारे कष्ट, संकट मिट जाते है। माना जाता है कि हनुमान एक ऐसे देवता है जो थोड़ी-सी प्रार्थना और पूजा से ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते है। इतिहास साक्षी है जब-जब भक्तों पर संकट के बादल मंडराए भगवान ने अपने भक्तो की रक्षा के लिए किसी न किसी रूप में अवतार लेकर उनकी रक्षा की है। हनुमान जी को बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इसलिए हनुमान जी लंगोट धारण किए हर मंदिर और तस्वीरों में अकेले दिखते हैं। कभी भी अन्य देवताओं की तरह हनुमान जी को पत्नी के साथ नहीं देखा होगा। लेकिन अगर आप हनुमान के साथ उनकी पत्नी को देखना चाहते हैं तो आपको आंध्र प्रदेश जाना होगा। हैदराबाद से करीब 220 किलोमीटर दूर तेलंगाना के खम्मन जिले में एक ऐसा मंदिर है जहाँ पवनपुत्र हनुमान अपनी पत्नी सुर्वचला के साथ विराजमान हैं| 

किंवदंती है कि सुवर्चला सूर्य देव की पुत्री हैं। जिनका विवाह पवनपुत्र हनुमानजी के साथ हुआ था। मान्यता है कि जो भी हनुमानजी और उनकी पत्नी के दर्शन करता है, उन भक्तों के वैवाहिक जीवन की सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं और पति-पत्नी के बीच प्रेम बना रहता है। पाराशर संहिता के अनुसार हनुमानजी अविवाहित नहीं, विवाहित हैं। हनुमानजी ने सूर्य देव को अपना गुरु बनाया था। सूर्य देव के पास 9 दिव्य विद्याएं थीं। इन सभी विद्याओं का ज्ञान बजरंग बली प्राप्त करना चाहते थे। सूर्य देव ने इन 9 में से 5 विद्याओं का ज्ञान तो हनुमानजी को दे दिया, लेकिन शेष 4 विद्याओं के लिए सूर्य के समक्ष एक संकट खड़ा हो गया। शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान सिर्फ उन्हीं शिष्यों को दिया जा सकता था जो विवाहित हों।

हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, इस कारण सूर्य देव उन्हें शेष चार विद्याओं का ज्ञान देने में असमर्थ हो गए। समस्या के निराकरण के लिए सूर्य देव ने हनुमानजी से विवाह करने की बात कही। पहले तो हनुमानजी विवाह के लिए राजी नहीं हुए, लेकिन उन्हें शेष 4 विद्याओं का ज्ञान पाना ही था। तब हनुमानजी ने विवाह के लिए हां कर दी। जब हनुमानजी विवाह के लिए मान गए तब उनके योग्य कन्या के रूप में सूर्य देव की पुत्री सुवर्चला को चुना गया। सूर्य देव ने हनुमानजी से कहा कि सुवर्चला परम तपस्वी और तेजस्वी है और इसका तेज तुम ही सहन कर सकते हो। सुवर्चला से विवाह के बाद तुम इस योग्य हो जाओगे कि शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सको। 

सूर्य देव ने यह भी बताया कि सुवर्चला से विवाह के बाद भी तुम सदैव बाल ब्रह्मचारी ही रहोगे, क्योंकि विवाह के बाद सुवर्चला पुन: तपस्या में लीन हो जाएगी। इस तरह हनुमानजी और सुवर्चला का विवाह सूर्य देव ने करवा दिया। विवाह के बाद सुवर्चला तपस्या में लीन हो गईं और हनुमानजी से अपने गुरु सूर्य देव से शेष 4 विद्याओं का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी हनुमानजी ब्रह्मचारी बने हुए हैं। हनुमान ने प्रत्येक स्त्री को मां समान दर्जा दिया है। यही कारण है कि किसी भी स्त्री को अपने सामने प्रणाम करते हुए नहीं देख सकते बल्कि स्त्री शक्ति को वो स्वयं नमन करते हैं। यदि महिलाएं चाहे तो हनुमान जी की सेवा में दीप अर्पित कर सकती हैं। हनुमान जी की स्तुति कर सकती हैं। हनुमान जी को प्रसाद अर्पित कर सकती हैं। लेकिन 16 उपचारों जिनमें मुख्य स्नान, वस्त्र, चोला चढ़ाना आते हैं, ये सब सेवाएं किसी महिला के द्वारा किया जाना हनुमान जी स्वीकार नहीं करते हैं।

‘ब्रह्मा’ ने क्यों बनाया अपनी पुत्री सरस्वती को अर्धांगिनी?

पुराणों में कहा गया है सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी ने अपनी ही बेटी सरस्वती से विवाह कर लिया था| ब्रम्हा का अपनी ही बेटी के साथ विवाह करने की इस घटना का उल्लेख सरस्वती पुराण में वर्णित है। सरस्वती पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना करते समय ब्रह्मा ने सीधे अपने वीर्य से सरस्वती को जन्म दिया था। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती की कोई मां नहीं केवल पिता, ब्रह्मा थे।

सरस्वती पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना करते समय ब्रह्मा ने सीधे अपने वीर्य से सरस्वती को जन्म दिया था। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती की कोई मां नहीं केवल पिता, ब्रह्मा थे। सरस्वती को विद्या की देवी कहा जाता है, लेकिन विद्या की यह देवी बेहद खूबसूरत और आकर्षक थीं कि स्वयं ब्रह्मा भी सरस्वती के आकर्षण से खुद को बचाकर नहीं रख पाए और उन्हें अपनी अर्धांगिनी बनाने पर विचार करने लगे।

सरस्वती ने अपने पिता की इस मनोभावना को भांपकर उनसे बचने के लिए चारो दिशाओं में छिपने का प्रयत्न किया लेकिन उनका हर प्रयत्न बेकार साबित हुआ। इसलिए विवश होकर उन्हें अपने पिता के साथ विवाह करना पड़ा। ब्रह्मा और सरस्वती करीब 100 वर्षों तक एक जंगल में पति-पत्नी की तरह रहे। इन दोनों का एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम रखा गया था स्वयंभु मनु।

वहीँ, मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा के पांच सिर थे। कहा जाता है जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो वह इस समस्त ब्रह्मांड में अकेले थे। ऐसे में उन्होंने अपने मुख से सरस्वती, सान्ध्य, ब्राह्मी को उत्पन्न किया। ब्रह्मा अपनी ही बनाई हुई रचना, सरवस्ती के प्रति आकर्षित होने लगे और लगातार उन पर अपनी दृष्टि डाले रखते थे। ब्रह्मा की दृष्टि से बचने के लिए सरस्वती चारो दिशाओं में छिपती रहीं लेकिन वह उनसे नहीं बच पाईं।

इसलिय सरस्वती आकाश में जाकर छिप गईं लेकिन अपने पांचवें सिर से ब्रह्मा ने उन्हें आकाश में भी खोज निकाला और उनसे सृष्टि की रचना में सहयोग करने का निवेदन किया। सरस्वती से विवाह करने के पश्चात सर्वप्रथम मनु का जन्म हुआ। ब्रह्मा और सरस्वती की यह संतान मनु को पृथ्वी पर जन्म लेने वाला पहला मानव कहा जाता है। इसके अलावा मनु को वेदों, सनातन धर्म और संस्कृत समेत समस्त भाषाओं का जनक भी कहा जाता है।