गुरु बिनु ज्ञान कहाँ जग माही

'गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगौ पांय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय ' भगवान से भी ऊँचा दर्जा पाने वाले गुरुजनों के सम्मान के लिए एक दिन है व है शिक्षक दिवस | भारत में शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) के मौके पर शिक्षा क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान देने वाले कई शिक्षकों को प्रति वर्ष राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया जाता है| यह सम्मान शिक्षकों को उनके पेशे के लिए नहीं बल्कि उनकी शिक्षा देने के भावना और उनके शिक्षण के प्रति समर्पण के लिए दिया जाता है|

शिक्षक दिवस का महत्व-

'शिक्षक दिवस' कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है। लेकिन क्या आप इसके महत्व को समझते हैं। शिक्षक दिवस का मतलब साल में एक दिन बच्चों के द्वारा अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल या ‍कोई भी उपहार नहीं है और यह शिक्षक दिवस मनाने का सही तरीका भी नहीं है।

आप अगर शिक्षक दिवस का सही महत्व समझना चाहते है तो सर्वप्रथम आप हमेशा इस बात को ध्यान में रखें कि आप एक छात्र हैं, और ‍उम्र में अपने शिक्षक से काफ़ी छोटे है। और फिर हमारे संस्कार भी तो हमें यही सिखाते है कि हमें अपने से बड़ों का आदर करना चाहिए। हमको अपने गुरु का आदर-सत्कार करना चाहिए। हमें अपने गुरु की बात को ध्यान से सुनना और समझना चाहिए। अगर आपने अपने क्रोध, ईर्ष्या को त्याग कर अपने अंदर संयम के बीज बोएं तो निश्‍चित ही आपका व्यवहार आपको बहुत ऊँचाइयों तक ले जाएगा। और तभी हमारा शिक्षक दिवस मनाने का महत्व भी सार्थक होगा।

क्यों मनाते हैं शिक्षक दिवस-

शिक्षक दिवस वैसे तो पूरे विश्व में मनाया जाता है लेकिन अलग-अलग तिथियों को। भारत में यह दिवस पूर्व राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस पांच सितम्बर को मनाया जाता है। देश में शिक्षक दिवस मनाने की परम्परा तब शुरू हुई जब डॉ. राधाकृष्णन 1962 में राष्ट्रपति बने और उनके छात्रों एवं मित्रों ने उनका जन्मदिन मनाने की उनसे अनुमति मांगी।

स्वयं 40वर्षो तक शिक्षण कार्य कर चुके राधाकृष्णन ने कहा कि मेरा जन्मदिन मनाने की अनुमति तभी मिलेगी जब केवल मेरा जन्मदिन मनाने के बजाय देशभर के शिक्षकों का दिवस आयोजित करें।’ बाद से प्रत्येक वर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाने लगा।

आपको बता दें कि राधाकृष्णन का जन्म पांच सितम्बर 1888 को मद्रास (चेन्नई) के तिरुत्तानी कस्बे में हुआ था। उनके पिता वीरा समय्या एक जमींदारी में तहसीलदार थे। उनका बचपन एवं किशोरावस्था तिरुत्तानी और तिरुपति (आंध्र प्रदेश) में बीता। उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से एम.ए.की पढ़ाई पूरी की तथा ‘वेदांत के नीतिशास्त्र’ पर शोधपत्र प्रस्तुत कर पी.एचडी. की उपाधि हासिल की।

मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज के दर्शनशास्त्र विभाग में 1909 में वह व्याख्याता नियुक्त किए गए। फिर 1918 में मैसूर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने। लंदन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वह 1936 से 39 तक पूर्व देशीय धर्म एवं नीतिशास्त्र के प्रोफेसर रहे। राधाकृष्णन 1939 से 48 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

वर्ष 1946 से 52 तक राधाकृष्णन को यूनेस्को के प्रतिनिधिमंडल के नेतृत्व का अवसर मिला। वह रूस में 1949 से 52 तक भारत के राजदूत रहे। 1952 में ही उन्हें भारत का उपराष्ट्रपति चुना गया। मई 1962 से मई 1967 तक उन्होंने राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया।

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मानना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनना चाहिए जो सर्वाधिक योग्य व बुद्धिमान हों। उनका स्पष्ट कहना था कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता है और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता है, तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती है। शिक्षक को छात्रों को सिर्फ पढ़ाकर संतुष्ट नहीं होना चाहिए, शिक्षकों को अपने छात्रों का आदर व स्नेह भी अर्जित करना चाहिए। सिर्फ शिक्षक बन जाने से सम्मान नहीं होता, सम्मान अर्जित करना महत्वपूर्ण है|

आदर्श शिक्षक व दार्शनिक थे राधाकृष्णन

एक शिक्षक की दी हुई शिक्षा से ही बच्चे आगे चलकर देश के कर्णधार बनते हैं। ऐसे ही एक शिक्षक थे भारत के पूर्व राष्ट्रपति और दार्शनिक तथा शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जिनके सम्मान में उनके जन्मदिवस यानी पांच सितंबर को देश में शिक्षक दिवस मनाया जाता है।

डॉ. राधाकृष्णन महान शिक्षाविद् थे। उनका कहना था कि शिक्षा का मतलब सिर्फ जानकारी देना ही नहीं है। जानकारी और तकनीकी गुर का अपना महत्व है लेकिन बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का भी महत्व है क्योंकि इन भावनाओं के साथ छात्र उत्तरदायी नागरिक बनते हैं। डॉ.राधाकृष्णन मानते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होगा, तब तक शिक्षा को मिशन का रूप नहीं मिल पाएगा।

अपने जीवन में आदर्श शिक्षक रहे भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन का जन्म पांच सितंबर, 1888 को तमिलनाडु के तिरुतनी ग्राम में हुआ था। इनके पिता सर्वपल्ली वीरास्वामी राजस्व विभाग में काम करते थे। इनकी माता का नाम सीतम्मा था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा लूनर्थ मिशनरी स्कूल, तिरुपति और वेल्लूर में हुई। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ाई की। 1903 में युवती सिवाकामू के साथ उनका विवाह हुआ।

महान शिक्षाविद् राधाकृष्ण ने 12 साल की उम्र में ही बाइबिल और स्वामी विवेकानंद के दर्शन का अध्ययन कर लिया था। उन्होंने दर्शन शास्त्र से एम.ए. किया और 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में सहायक अध्यापक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने 40 वर्षो तक शिक्षक के रूप में काम किया।

वह 1931 से 1936 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद 1936 से 1952 तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर रहे और 1939 से 1948 तक वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर आसीन रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया।

वर्ष 1952 में उन्हें भारत का प्रथम उपराष्ट्रपति बनाया गया और भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बनने से पहले 1953 से 1962 तक वह दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति थे। इसी बीच 1954 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 'भारत रत्न' की उपाधि से सम्मानित किया। डॉ. राधाकृष्णन को ब्रिटिश शासनकाल में 'सर' की उपाधि भी दी गई थी। इसके अलावा 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा 'विश्व शांति पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था।

डॉ. राधाकृष्णन ने 1962 में भारत के सर्वोच्च, राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया। जानेमाने दार्शनिक बर्टेड रशेल ने उनके राष्ट्रपति बनने पर कहा था, "भारतीय गणराज्य ने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति चुना, यह विश्व के दर्शनशास्त्र का सम्मान है। मैं उनके राष्ट्रपति बनने से बहुत खुश हूं। प्लेटो ने कहा था कि दार्शनिक को राजा और राजा को दार्शनिक होना चाहिए। डॉ. राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाकर भारतीय गणराज्य ने प्लेटो को सच्ची श्रद्धांजलि दी है।"

वर्ष 1962 में उनके कुछ प्रशंसक और शिष्यों ने उनका जन्मदिन मनाने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने कहा, "मेरे लिए इससे बड़े सम्मान की बात और कुछ हो ही नहीं सकती कि मेरा जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए।" और तभी से पांच सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। शिक्षक दिवस के अवसर पर शिक्षकों को पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया जाता है।

डॉ. राधाकृष्णन का देहावसान 17 अप्रैल, 1975 को हो गया, लेकिन एक आदर्श शिक्षक और दार्शनिक के रूप में वह आज भी सभी के लिए प्रेरणादायक हैं। वैसे तो विश्व शिक्षक दिवस का आयोजन पांच अक्टूबर को होता है, लेकिन इसके अलावा विभिन्न देशों में अलग-अलग तारीखों पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। ऑस्ट्रेलिया में यह अक्टूबर के अंतिम शुक्रवार को मनाया जाता है, भूटान में दो मई को तो ब्राजील में 15 अक्टूबर को। कनाडा में पांच अक्टूबर, यूनान में 30 जनवरी, मेक्सिको में 15 मई, पराग्वे में 30 अप्रैल और श्रीलंका में छह अक्टूबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने वर्ष 2003 में शिक्षक दिवस पर अपने संबोधन में कहा था, "विद्यार्थी 25,000 घंटे अपने विद्यालय प्रांगण में ही बिताते हैं, इसलिए विद्यालय में ऐसे आदर्श शिक्षक होने चाहिए, जिनमें शिक्षण की क्षमता हो, जिन्हें शिक्षण से प्यार हो और जो नैतिक गुणों का निर्माण कर सकें।"

ऐसी 10 फ़िल्में जिनमें शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच प्रेमपूर्ण संबंध दिखाया गया है

शिक्षक सख्त भी हो सकते हैं और नर्म भी। वे लोगों के दिलों को भी छू सकते हैं। बॉलीवुड वर्षो से शिक्षकों के महत्व को दिखाता आ रहा है। फिल्मों में अमिताभ बच्चन, आमिर खान और नसीरुद्दीन शाह जैसे अभिनेताओं ने शिक्षक की भूमिका निभाई है।

पांच सितंबर शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में आइए, ऐसी 10 शीर्ष फिल्मों की चर्चा करें जिनमें शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच भावनात्मक, कलहपूर्ण और प्रेमपूर्ण संबंध दिखाया गया है। 'सर' (1993) : मशहूर कलाकार नसीरुद्दीन शाह ने इस फिल्म में एक जिंदादिल शिक्षक की भूमिका निभाई थी। इसमें वह अपने विद्यार्थियों पूजा भट्ट और अनिल अग्निहोत्री की बुरे समय में एक दोस्त की तरह मदद करते हैं।

'रॉकफोर्ड' (1999) : निर्देशक नागेश कुकनूर की यह फिल्म एक किशोर की कहानी है जो एक आवसीय विद्यालय में सैकड़ों छात्रों के बीच खुद को हारा हुआ महसूस करता है। उसकी दोस्ती एक शिक्षक से होती है। फिल्म में दिखाया गया है कि शिक्षक और शिष्य के अच्छे संबंधों से शिष्य का हौसला किस कदर बुलंद होता है।

'मोहब्बतें' (2000) : इस फिल्म में महानायक अमिताभ बच्चन ने सख्त प्रधानाचार्य नारायण शंकर की भूमिका निभाई है। शाहरुख खान ने एक युवा संगीत शिक्षक की भूमिका निभाई है जो अपनी नई विचारधारा से बदलाव की हवा लेकर आता है। 'मैं हूं ना' (2004) : इसमें शिक्षिका न सिर्फ पढ़ाती है, बल्कि फैशन के नुस्खे भी देती है। शिफॉन की साड़ी और डिजाइनर चोली पहने सुष्मिता सेन के किरदार ने दिखाया है कि लोग शिक्षिकाओं को किस तरह देखते हैं और शिक्षिका को अपने विद्यार्थी शाहरुख खान से प्यार हो जाता है। बोमन ईरानी और बिंदू ने इसमें मजाकिया शिक्षक का किरदार निभाया है।

'ब्लैक' (2005) : यह एक संवेदनशील शिक्षक की कहानी है जो अंधी, मूक-बधिर लड़की की मदद करता है। शिक्षक की भूमिका अमिताभ ने और शिष्या की रानी मुखर्जी ने निभाई थी। शिक्षक और शिष्य कहां तक अपनी भावनाओं को साझा करते हैं, यह इस फिल्म में भावनात्मक तरीके से दिखाया गया है।

'तारे जमीं पर' (2007) : यह डिसलेक्सिया से पीड़ित एक बच्चे की कहानी है। शिक्षक की भूमिका में आमिर खान ने दिखाया है कि ऐसे बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। '3 ईडियट्स' (2009) : इसमें एक सख्त कॉलेज प्राचार्य वीरू सहस्त्रबुद्धे को दिखाया गया जिसके लिए किताबी ज्ञान और श्रेणी ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं लेकिन एक विद्यार्थी के किरदार में आमिर खान साबित करते हैं कि जीवन पाठ्यपुस्तकों से परे है।

'पाठशाला' (2009) : फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भले ही न चली हो लेकिन इसमें शिक्षा का व्यवसायीकरण होता दिखाया गया है। संगीत शिक्षक राहुल की भूमिका में शाहिद कपूर ने दिखाया है कि किस तरह शिक्षक और छात्र मिलकर विद्यालय के प्रबंधन के खिलाफ खड़े हो सकते हैं।

'आरक्षण' (2011) : शिक्षक और छात्र के बीच संबंधों को दर्शाती यह फिल्म आरक्षण के मुद्द पर आधारित है। अमिताभ ने कॉलेज प्राचार्य प्रभाकर आनंद की भूमिका निभाई है जो बाद में सामाजिक कार्यकर्ता बन जाता है। 'स्टूडेंड ऑफ द ईयर' (2012) : करन जौहर की इस फिल्म में दिखाया गया है कि विद्यार्थी भी शिक्षक को सिखा सकते हैं। इसमें कॉलेज की वार्षिक प्रतियोगिता के कारण छात्रों की दोस्ती टूट जाती है। अंत में एक छात्र प्राचार्य ऋषि कपूर को बताता है कि प्रतियोगिता का विषय ही घातक था। तब प्राचार्य को गलती का अहसास होता है।

...यहाँ शनिदेव कोयल का रूप लेकर किये थे भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन

शनि एक ऐसा नाम है जिसे पढ़ते-सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शनि की कुदृष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातो-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई बुरा कर्म किया है तो वह शनि के प्रकोप से नहीं बच सकता है। वैसे जो भारतभर में शनि देव के कई पीठ है किंतु एक प्राचीन और चमत्कारिक पीठ है, जिनका बहुत महत्व है। उक्त पीठ पर जाकर ही पापों की क्षमा मांगी जा सकती है। जनश्रुति है कि उक्त स्थान पर जाकर लोग शनि के दंड से बच सकते हैं|

यह शक्तिपीठ है कोकिलावन शनि सिद्धपीठ| कोकिलावन शनि सिद्धपीठ उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में स्थित है। कोसी से लगभग छ: किलोमीटर दूर पश्चिम में बरसाना के पास और नन्द गांव से सटा हुआ यह पवित्र स्थान भगवान शनि देव को समर्पित है। कोकिलावन धाम का यह सुन्दर परिसर लगभग 20 एकड में फैला है। इसमें श्री शनि देव मंदिर, श्री देव बिहारी मंदिर, श्री गोकुलेश्वर महादेव मंदिर , श्री गिरिराज मंदिर, श्री बाबा बनखंडी मंदिर प्रमुख हैं।

लोक मान्यता है कि द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की इच्छा शनिदेव के मन में हुई। तो उन्होंने भगवान से नंदगांव में दर्शन पाने के लिए इजाजत मांगी। शनिदेव का भयंकर रूप देखकर नंदगांववासियों में भय की आशंका के चलते भगवान ने उन्हें नंदगांव आने की इजाजत नहीं दी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से शनिदेव ने इस स्थान पर उनके दर्शन कोयल का रूप लेकर किए थे। इसी कारण यह स्थान कोकिला वन कहलाया।

माना जाता है कि यहां आने वाले श्रद्धालु शनिदेव के कोप से राहत पाते हैं। बृज प्रदेश के निवासियों के अनुसार श्री कृष्ण ने जब शनि देव को दर्शन दिया था तब आशीर्वाद भी दिया था कि यह कोकिलावन उनका है, और जो कोकिलावन की परिक्रमा करेगा, शनिदेव की पूजा अर्चना करेगा, वह मेरे साथ ही शनिदेव की कृपा भी प्राप्त कर सकेगा।

इसलिए हर शनिवार लाखों श्रद्धालु कोकिलावन धाम की परिक्रमा करते हैं। कहते हैं कि यहां राजा दशरथ द्वारा लिखा शनि स्तोत्र पढ़ते हुए परिक्रमा करनी चाहिए इससे शनि देव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। मान्यता है कि शनिधाम कोकिला वन में बने सूर्य कुंड में स्नान के बाद शनिदेव के दर्शन करने वाले को शनिदेव की काली छाया नहीं सताती। अब जानिए कैसे पहुंचे| कोसीकलां जाने के लिए मथुरा सबसे आसान रास्ता है। मथुरा-दिल्ली नेशनल हाइवे पर मथुरा से 21 किलोमीटर दूर कोसीकलां गांव पड़ता है। कोसीकलां से एक सड़क नंदगांव तक जाती है। बस यहीं से कोकिला वन शुरू हो जाता है।

पद्मा एकादशी कल, जानिए इसे क्यों कहते हैं जलझूलनी एकादशी

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकाद्शी पदमा एकादशी के नाम से जानी जाती है| इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है| इस दिन भगवान श्री विष्णु के वामनावतार की पूजा पूजा की जाती है| यह एकादशी वामन एकादशी के नाम से भी जानी जाती है| इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी होती है| इस एकादशी के विषय में एक मान्यता है, कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्री कृ्ष्ण के वस्त्र धोये थे| इसी कारण से इस एकाद्शी को "जलझूलनी एकादशी" भी कहा जाता है| इस बार पद्मा एकादशी 5 सितम्बर दिन शुक्रवार को मनाई जायेगी|

पदमा एकादशी की व्रत विधि-

इस दिन जो व्यक्ति व्रत करता है, उसे भूमि दान करने और गौदान करने के पश्चात मिलने वाले पुन्यफलों से अधिक शुभ फलों की प्राप्ति होती है| इस व्रत में धूप, दीप,नेवैद्ध और पुष्प आदि से पूजा करने की विधि-विधान है| इस व्रत में सात कुम्भ स्थापित किये जाते है| सातों कुम्भों में सात प्रकार के अलग- अलग धान्य भरे जाते है| इनमें जो धान्य भरे जाते हैं उनमें गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौं, चावल और मसूर शामिल है|

एकादशी के एक दिन पहले यानि दशमी तिथि के दिन इनमें से किसी धान्य का सेवन नहीं करना चाहिए| कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रख पूजा की जाती है| इस व्रत को करने के बाद रात्रि में श्री विष्णु जी के पाठ का जागरण करना चाहिए| यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर, द्वादशी तिथि तक जाता है| इसलिये इस व्रत की अवधि सामान्य व्रतों की तुलना में कुछ लम्बी होती है| एकादशी तिथि के दिन पूरे दिन व्रत कर अगले दिन द्वादशी तिथि के प्रात:काल में अन्न से भरा घडा ब्राह्माण को दान में दिया जाता है|

पूजा करते समय इस मंत्र का जरुर उच्चारण करना चाहिए-

देवेश्चराय देवाय, देव संभूति कारिणे ।
प्रभवे सर्व देवानां वामनाय नमो नम: ।।

पदमा एकादशी व्रत कथा-

एक बार युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा: केशव ! कृपया यह बताइये कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके देवता कौन हैं और कैसी विधि है? भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ, जिसे ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कहा था ।

नारदजी ने पूछा : चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है ! मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिए आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? तब ब्रह्माजी ने कहा : मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे! भादों के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘पदमा’ के नाम से विख्यात है । उस दिन भगवान ह्रषीकेश की पूजा होती है । यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है । सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक प्रजा का पालन किया करते थे। उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था । उनकी प्रजा निर्भय तथा धन धान्य से समृद्ध थी । महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था । उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म में लगे रहते थे । मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देनेवाली थी । उनके राज्यकाल में प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था ।

एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई । इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी । तब सम्पूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा : नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिए । पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जल को ‘नार’ कहा है । वह ‘नार’ ही भगवान का ‘अयन’ (निवास स्थान) है, इसलिए वे ‘नारायण’ कहलाते हैं । नारायणस्वरुप भगवान विष्णु सर्वत्र व्यापकरुप में विराजमान हैं । वे ही मेघस्वरुप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है । नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है, अत: ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो ।

राजा ने कहा : आप लोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है । अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जगत जीवन धारण करता है । लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है, किन्तु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता । फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करुँगा ।

ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने गिने व्यक्तियों को साथ ले, विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये । वहाँ जाकर मुख्य मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे । एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ॠषि के दर्शन हुए । उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनि ने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी । मुनि ने राजा को आसन और अर्ध्य दिया| उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो मुनि ने राजा से आगमन का कारण पूछा ।

राजा ने कहा : भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था । फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया । इसका क्या कारण है इस बात को मैं नहीं जानता । ॠषि बोले : राजन् ! सब युगों में उत्तम यह सत्ययुग है । इसमें सब लोग परमात्मा के चिन्तन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है । इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं । किन्तु महाराज ! तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या करता है, इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते। तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो, जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय।

राजा ने कहा : मुनिवर ! एक तो वह तपस्या में लगा है और दूसरे, वह निरपराध है । अत: मैं उसका अनिष्ट नहीं करुँगा। आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये ।

ॠषि बोले : राजन् ! यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्रत करो । भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो ‘पधा’ नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी । नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो ।

ॠषि के ये वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये । उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजा के साथ भादों के शुक्लपक्ष की ‘पधा एकादशी’ का व्रत किया । इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे । पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी । उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए । ‘पदमा एकादशी’ के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढकँकर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिए । दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ।

भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥

‘बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान गोविन्द ! आपको नमस्कार है… नमस्कार है ! मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें । आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं ।’ राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

pardaphash se sabhar

गणेश चतुर्थी विशेष: माता पार्वती ने भी 21 दिन तक रखा था गणेश जी का व्रत

पार्वती नंदन व रिद्दी सिद्धी के दाता गणेशजी का जन्मोत्सव 'गणेश चतुर्थी' के अवसर पर पूरे देश में धूम मची हुई है। गणपति धाम व गणेश जी के प्रमुख मंदिरों में जहां भव्य सजावट का दौर जारी रहा वहीं उनके दर्शन के लिए भक्तों की लम्बी कतार भी देखी गई| यह त्यौहार महाराष्ट्र और गोवा में कोंकणी लोगों का सबसे ज्यादा लोकप्रिय त्यौहार है, जिसे वह बड़ी धूम-धाम और श्रद्धा के साथ मानते हैं। इसके साथ ही गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश के अलावा भारत के सभी राज्यों में इस त्यौहार में बड़ी धूम रहती है।

भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को ही 'श्री गणेश चतुर्थी' कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को गणेश भगवान का जन्म हुआ था। भारतीय संस्कृति के अनुसार गणेश भगवान की पूजा बुद्धि, समृद्धि, सौभाग्य और किसी भी शुभ कार्य के करने को करने से पहले की जाती है। इस बार गणेश चतुर्थी 29 अगस्त दिन शुक्रवार को पड़ रही है| गणेश जी को बुद्धि के देवता और विघ्नों का विनाशक माना जाता है। चूहे की सवारी करने वाले गणेश जी का प्रिय भोग लड्डू है। गणेश जी का विवाह ऋद्धि तथा सिद्धि नामक दो स्त्रियों के साथ हुआ है।

एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया।

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।

गणेश चतुर्थी के अवसर पर भगवान गणेश की स्थापना की जाती है। सभी भक्तगण गणेश जी का उपवास रखते हैं। इस दिन घरों व मंदिरों में गणेश जी की मूर्ति स्थापित की जाती है। कई दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं और गणेश भगवान की पूजा-अर्चना में शामिल होते हैं। दस दिन चलने वाले इस उत्सव के बाद गणेश भगवान की प्रतिमा को विसर्जित किया जाता है।

गणेश चतुर्थी कथा-

श्री गणेश चतुर्थी व्रत को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलन में है| कथा के अनुसार एक बार भगवान शंकर और माता पार्वती नर्मदा नदी के निकट बैठे थें| वहां देवी पार्वती ने भगवान भोलेनाथ से समय व्यतीत करने के लिये चौपड खेलने को कहा| भगवान शंकर चौपड खेलने के लिये तो तैयार हो गये| परन्तु इस खेल मे हार-जीत का फैसला कौन करेगा?

इसका प्रश्न उठा, इसके जवाब में भगवान भोलेनाथ ने कुछ तिनके एकत्रित कर उसका पुतला बना, उस पुतले की प्राण प्रतिष्ठा कर दी और पुतले से कहा कि बेटा हम चौपड खेलना चाहते है| परन्तु हमारी हार-जीत का फैसला करने वाला कोई नहीं है| इसलिये तुम बताना की हम मे से कौन हारा और कौन जीता|

यह कहने के बाद चौपड का खेल शुरु हो गया| खेल तीन बार खेला गया, और संयोग से तीनों बार पार्वती जी जीत गई| खेल के समाप्त होने पर बालक से हार-जीत का फैसला करने के लिये कहा गया, तो बालक ने महादेव को विजयी बताया| यह सुनकर माता पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने क्रोध में आकर बालक को लंगडा होने व कीचड़ में पडे रहने का श्राप दे दिया| बालक ने माता से माफी मांगी और कहा की मुझसे अज्ञानता वश ऎसा हुआ, मैनें किसी द्वेष में ऎसा नहीं किया| बालक के क्षमा मांगने पर माता ने कहा की, यहां गणेश पूजन के लिये नाग कन्याएं आयेंगी, उनके कहे अनुसार तुम गणेश व्रत करो, ऎसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगें, यह कहकर माता, भगवान शिव के साथ कैलाश पर्वत पर चली गई|

ठीक एक वर्ष बाद उस स्थान पर नाग कन्याएं आईं| नाग कन्याओं से श्री गणेश के व्रत की विधि मालूम करने पर उस बालक ने 21 दिन लगातार गणेश जी का व्रत किया| उसकी श्रद्धा देखकर गणेश जी प्रसन्न हो गए और श्री गणेश ने बालक को मनोवांछित फल मांगने के लिये कहा| बालक ने कहा कि हे विनायक मुझमें इतनी शक्ति दीजिए, कि मैं अपने पैरों से चलकर अपने माता-पिता के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंच सकूं और वो यह देख प्रसन्न हों|

बालक को यह वरदान दे, श्री गणेश अन्तर्धान हो गए| बालक इसके बाद कैलाश पर्वत पर पहुंच गया और अपने कैलाश पर्वत पर पहुंचने की कथा उसने भगवान महादेव को सुनाई| उस दिन से पार्वती जी शिवजी से विमुख हो गई| देवी के रुष्ठ होने पर भगवान शंकर ने भी बालक के बताये अनुसार श्री गणेश का व्रत 21 दिनों तक किया| इसके प्रभाव से माता के मन से भगवान भोलेनाथ के लिये जो नाराजगी थी वह समाप्त हो गई|

यह व्रत विधि भगवन शंकर ने माता पार्वती को बताई| यह सुन माता पार्वती के मन में भी अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई| माता ने भी 21 दिन तक श्री गणेश व्रत किया और दुर्वा, पुष्प और लड्डूओं से श्री गणेश जी का पूजन किया| व्रत के 21 वें दिन कार्तिकेय स्वयं पार्वती जी से आ मिलें| उस दिन से श्री गणेश चतुर्थी का व्रत मनोकामना पूरी करने वाला व्रत माना जाता है|

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

गणेश चतुर्थी पर विशेष: जानिए कहाँ है भगवान गणेश का असली मस्तक

धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि उनका मुख हाथी का है| क्या आपको पता है कि भगवान श्रीगणेश का सिर कटने के बाद हाथी के बच्चे का मुख लगा लेकिन उनका असली सिर कहाँ गया? इसके बारे में आज आपको एक रोचक जानकारी देते हैं|

ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि जब गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया|

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।

ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से भी धर्म परंपराओं में संकट चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार 

इस तरह मोदक बना गणेश का प्रिय

हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य देवता माना गया है| इसलिए सभी देवताओं में गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती है आपने यदि श्री गणेश तस्वीर पर ध्यान दिया होगा तो उनके हाथ में उनका प्रिय भोजन मोदक जरुर रहता है| क्या आपको पता है कि गणेश जी अन्य भोग की जगह मोदक इतना क्यों पसंद है?

शास्त्रों में कहा गया है कि गजानन का एक दांत परशुराम जी के साथ हुए युद्ध में टूट गया था| दांत के टूट जाने से उन्हें अन्य चीजों को खाने में तकलीफ होती थी क्योंकि उन्हें चबाना पड़ता था लेकिन मोदक को चबाना नहीं पड़ता है ऐसा इसलिए क्योंकि मोदक बहुत मुलायम होता है|

भगवान गणेश को मोदक इसलिए भी पसंद हो सकता है कि मोदक प्रसन्नता प्रदान करने वाला मिष्टान है। मोदक के शब्दों पर गौर करें तो 'मोद' का अर्थ होता है हर्ष यानी खुशी। भगवान गणेश को शास्त्रों में मंगलकारी एवं सदैव प्रसन्न रहने वाला देवता कहा गया है।

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में गणेश जी को मोदक प्रिय होने की जो कथा मिलती है उसके अनुसार मोदक का निर्माण अमृत से हुआ है। देवताओं ने एक दिव्य मोदक माता पार्वती को दिया। गणेश जी ने मोदक के गुणों का वर्णन माता पार्वती से सुना तो मोदक खाने की इच्छा बढ़ गयी। अपनी चतुराई से गणेश जी ने माता से मोदक प्राप्त कर लिया। गणेश जी को मोदक इतना पसंद आया कि उस दिन से गणेश मोदक प्रिय बन गये।

www.hindi.pardaphash.com se sabhar 

गणेश चतुर्थी विशेष: इस तरह से गणेशजी कहलाये विघ्नेश्वर

बहुधा लोग किसी कार्य में प्रवृत्त होने के पूर्व संकल्प करते हैं और उस संकल्प को कार्य रूप देते समय कहते हैं कि हमने अमुक कार्य का श्रीगणेश किया। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: लिखते हैं। यहां तक कि पत्रादि लिखते समय भी 'ऊँ' या श्रीगणेश का नाम अंकित करते हैं।

श्रीगणेश को प्रथम पूजन का अधिकारी क्यों मानते हैं? लोगों का विश्वास है कि गणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं- इसलिए विनायक के पूजन में 'विनायको विघ्नराजा-द्वैमातुर गणाधिप' स्त्रोत पाठ करने की परिपाटी चल पड़ी है। यहां तक कि उनके नाम से गणेश उपपुराण भी है। पुराण-पुरुष गणेश की महिमा का गुणगान सर्वत्र क्यों किया जाता है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

इस संबंध में एक कहानी प्रचलित है। एक बार सभी देवों में यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर सर्वप्रथम किस देव की पूजा होनी चाहिए। सभी देव अपने को महान बताने लगे। अंत में इस समस्या को सुलझाने के लिए देवर्षि नारद ने शिव को निणार्यक बनाने की सलाह दी। शिव ने सोच-विचारकर एक प्रतियोगिता आयोजित की- जो अपने वाहन पर सवार हो पृथ्वी की परिक्रमा करके प्रथम लौटेंगे, वे ही पृथ्वी पर प्रथम पूजा के अधिकारी होंगे।

सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। गणेश जी ने अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहे। कार्तिकेय अपने मयूर वाहन पर आरूढ़ हो पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे और दर्प से बोले, "मैं इस स्पर्धा में विजयी हुआ, इसलिए पृथ्वी पर प्रथम पूजा पाने का अधिकारी मैं हूं।"

शिव अपने चरणें के पास भक्ति-भाव से खड़े विनायक की ओर प्रसन्न मुद्रा में देख बोले, "पुत्र गणेश तुमसे भी पहले ब्रह्मांड की परिक्रमा कर चुका है, वही प्रथम पूजा का अधिकारी होगा।"

कार्तिकेय खिन्न होकर बोले, "पिताजी, यह कैसे संभव है? गणेश अपने मूषक वाहन पर बैठकर कई वर्षो में ब्रह्मांड की परिक्रमा कर सकते हैं। आप कहीं तो परिहास नहीं कर रहे हैं?" "नहीं बेटे! गणेश अपने माता-पिता की परिक्रमा करके यह प्रमाणित कर चुका है कि माता-पिता ब्रह्मांड से बढ़कर कुछ और हैं। गणेश ने जगत् को इस बात का ज्ञान कराया है।" इतने में बाकी सब देव आ पहुंचे और सबने एक स्वर में स्वीकार कर लिया कि गणेश जी ही पृथ्वी पर प्रथम पूजन के अधिकारी हैं।

गणेश जी के सम्बंध में भी अनेक कथाएं पुराणों में वर्णित हैं। एक कथा के अनुसार शिव एक बार सृष्टि के सौंदर्य का अवलोकन करने हिमालयों में भूतगणों के साथ विहार करने चले गए। पार्वती जी स्नान करने के लिए तैयार हो गईं। सोचा कि कोई भीतर न आ जाए, इसलिए उन्होंने अपने शरीर के लेपन से एक प्रतिमा बनाई और उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके द्वार के सामने पहरे पर बिठाया। उसे आदेश दिया कि किसी को भी अंदर आने से रोक दे। वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा।

इतने में शिव जी आ पहुंचे। वह अंदर जाने लगे। बालक ने उनको अंदर जाने से रोका। शिव जी ने क्रोध में आकर उस बालका का सिर काट डाला। स्नान से लौटकर पार्वती ने इस दृश्य को देखा। शिव जी को सारा वृत्तांत सुनाकर कहा, "आपने यह क्या कर डाला? यह तो हमारा पुत्र है।"

शिव जी दुखी हुए। भूतगणों को बुलाकर आदेश दिया कि कोई भी प्राणी उत्तर दिशा में सिर रखकर सोता हो, तो उसका सिर काटकर ले आओ। भूतगण उसका सिर काटकर ले आए। शिव जी ने उस बालक के धड़ पर हाथी का सिर चिपकाकर उसमें प्राण फूंक दिए। तवसे वह बालक 'गजवदन' नाम से लोकप्रिय हुआ।

दूसरी कथा भी गणेश जी के जन्म के बारे में प्रचलित है। एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनके एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा शिव जी को बताई। इस पर शिव जी ने उन्हें पुष्पक व्रत मनाने की सलाह दी।

पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। निश्चित तिथि पर यज्ञ का शुभारंभ हुआ। यज्ञमंडल सभी देवी-देवताओं के आलोक से जगमगा उठा। शिव जी आगत देवताओं के आदर-सत्कार में संलग्न थे, लेकिन विष्णु भगवान की अनुपस्थिति के कारण उनका मन विकल था। थोड़ी देर बाद विष्णु भगवान अपने वाहन गरुड़ पर आरूढ़ हो आ पहुंचे। सबने उनकी जयकार करके सादर उनका स्वागत किया। उचित आसन पर उनको बिठाया गया।

ब्रह्माजी के पुत्र सनतकुमार यज्ञ का पौरोहित्य कर रहे थे। वेद मंत्रों के साथ यज्ञ प्रारंभ हुआ। यथा समय यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ। विष्णु भगवान ने पार्वती को आशीर्वाद दिया, "पार्वती! आपकी मनोकामना पूर्ण होगी। आपके संकल्प के अनुरूप एक पुत्र का उदय होगा।"

भगवान विष्णु का आशीर्वाद पाकर पार्वती प्रसन्न हो गई। उसी समय सनतकुमार बोल उठे, "मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाता, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।"

"कहिए पुरोहित जी, आप कैसी दक्षिणा चाहते हैं?" पार्वती जी ने पूछा।

"भगवती, मैं आपके पतिदेव शिव जी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।"

पार्वती तड़पकर बोली, "पुरोहित जी, आप पेरा सौभाग्य मांग रहे हैं। आप जानते ही हैं कि कोई भी नारी अपना सर्वस्व दान कर सकती है, परंतु अपना सौभाग्य कभी नहीं दे सकती। आप कृपया कोई और वस्तु मांगिए।"

परंतु सनतकुमार अपने हठ पर अड़े रहे। उन्होंने साफ कह दिया कि वे शिव जी को ही दक्षिणा में लेंगे, दक्षिणा न देने पर यज्ञ का फल पार्वती जी को प्राप्त न होगा।

देवताओं ने सनतकुमार को अनेक प्रकार से समझाया, पर वे अपनी बात पर डटे रहे। इस पर भगवान विष्णु ने पार्वती जी को समझाया, "पार्वती जी! यदि आप पुरोहित को दक्षिणा न देंगी तो यज्ञ का फल आपको नहीं मिलेगा और आपकी मनोकामना भी पूरी न होगी।"

पार्वती ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "भगवान! मैं अपने पति से वंचित होकर पुत्र को पाना नहीं चाहती। मुझे केवल मेरे पति ही अभीष्ट हैं।"

शिव जी ने मंदहास करके कहा, "पार्वती, तुम मुझे दक्षिणा में दे दो। तुम्हारा अहित न होगा।" पार्वती दक्षिणा में अपने पति को देने को तैयार हो गई, तभी अंतरिक्ष से एक दिव्य प्रकाश उदित होकर पृथ्वी पर आ उतरा। उसके भीतर से श्रीकृष्ण अपने दिव्य रूप को लेकर प्रकट हुए। उस विश्व स्वरूप के दर्शन करके सनतकुमार आह्रादित हो बोले, "भगवती! अब मैं दक्षिणा नहीं चाहता। मेरा वांछित फल मुझे मिल गया।"

श्रीकृष्ण के जयनादों से सारा यज्ञमंडप प्रतिध्वनित हो उठा। इसके बाद सभी देवता वहां से चले गए। थोड़ी ही देर बाद एक विप्र वेशधारी ने आकर पार्वती जी से कहा, "मां, मैं भूखा हं, अन्न दो।" पार्वती जी ने मिष्टान्न लाकर आगंतुक के समाने रख दिया। चंद मिनटों में ही थाल समाप्त कर द्विज ने फिर पूछा, "मां, मेरी भूख नहीं मिटी, थोड़ा और खाने को दो।" वह ब्राह्मण बराबर मांगता रहा, पार्वती जी कुछ-न-कुछ लाकर खिलाती रहीं, फिर भी वह संतुष्ट न हुआ। कुछ और मांगता रहा।

पार्वती जी की सहनशीलता जाती रही। वह खीझ उठीं, शिव जी के पास जाकर शिकायती स्वर में बोलीं, "देव, न मालूम यह कैसा याचक है। ओह, कितना खिलाया, और मांगता है। कहता है कि उसका पेट नहीं भरा। मैं और कहां से लाकर खिला सकती हूं।" शिव जी को उस याचक पर आश्चर्य हुआ। उस देखने के लिए पहुंचे, पर वहां कोई याचक न था। पार्वती चकित होकर बोली, "अभी तो यहीं था, न मालूम कैसे अदृश्य हो गया"

शिव जी ने मंदहास करते हुए कहा, "देवि, वह कहीं नहीं गया। वह यहीं है, तुम्हारे उदर में। वह कोई पराया नहीं, साक्षात् तुम्हारा ही पुत्र गणेश है। तुम्हारे मनोकामना पूरी हो गई है। तुम्हें पुष्पक यज्ञ का फल प्राप्त हो गया है।" इस प्रकार भगवान शिव के अनुग्रह से गणेश जन्म धारण करके गणाधिपति बन गए। समस्त विश्व के संकट दूर करते हुए विघ्नेश्वर कहलाए। 

 www.hindi.pardaphash.com se sabhar

मुट्ठीभर अनाज के लिए जद्दोजहद कर रहे बाढ़ पीड़ित


बिहार के नालंदा जिले के मुहाने नदी में आया उफान भले ही अब कुछ शांत हो गया हो परंतु बाढ़ के कारण आई मुसिबतें कम नहीं हो रही हैं। बाढ़ की तबाही से बेचैन लोग किसी तरह जान बचाकर अभी भी ऊंचे स्थानों पर शरण लिए हुए हैं। ऐसे लोग अपनी जिंदगी को तो सुरक्षित कर रहे हैं परंतु भूख की मार से बेजार लोगों को मुट्ठीभर अनाज के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। आशियाना के नाम पर ऐसे लोगों को ढमकोल की चारदीवारी और पालिथिन से बने छत सर छिपाने के लिए कम पड़ रहे हैं। 

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जनपद नालंदा में इस वर्ष बाढ़ ने अभूतपूर्व कहर बरपाया है। नालंदा में इस वर्ष मुहाने, नोकइन, पंचाने और गोइठवा जैसी क्षेत्रीय नदियों ने जमकर कहर बरपाया है। नालंदा जिले के परबलपुर प्रखंड के खरजम्मा मठ में मुहाने नदी की धार तो कहर बरपा कर वापस लौट आई परंतु आज भी इस गांव के लोग चार फुट पानी में अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं। बाढ़ का पानी इस गांव के महादलित परिवार की तीन दर्जन झोपड़ियां बहा ले गया, तब से अब तक इन परिवारों की जिंदगी खानाबदोश वाली होकर रह गई है। 

गांव की रहने वाली सितबतिया देवी को यह भी पता नहीं कि बिहार के मुख्यमंत्री पद से नीतीश कुमार इस्तीफा दे दिए हैं। यही कारण है कि उसकी शिकायत अभी भी नीतीश से ही है। वह कहती है कि मुहाने नदी के तट पर बसे इस गांव में तो नदी ने सब कुछ उजाड़ दिया है। हम लोग तटबंध पर ढमकोल (ताड़ के पेड़ के पत्तों) से झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं। वह कहती हैं कि अबोध बच्चों के लिए न दूध मिल पा रहा है न ही बुजुर्गों के लिए दवा उपलब्ध हो पा रही है, परंतु इसे देखने वाला कोई नहीं। सब नेता वोट मांगने आते हैं परंतु इस समय कोई नहीं आ रहा। 

इधर, गांव के लोग जिला प्रशासन के उस दावे को भी खोखला बता रहे हैं कि राहत सामग्री बांटी जा रही है। गौढापुर और प्राणचक गांव के भी महादलित परिवार के लोग अभी ऊंचे स्थानों पर शरण लिए हुए हैं। इन लोगों का कहना है कि बाढ़ में खेत डूबे रहने के कारण काम भी नहीं मिल पा रहा है। चंडी प्रखंड के मानपुर गांव के लोग गौढापुर के प्राथमिक विद्यालय में शरण लिए हुए हैं। यहां कोई सुविधा नहीं। इधर, दरवेशपुर और गोनकुरा गांव के आधा से ज्यादा खेतों में लगी फसल बाढ़ के पानी में डूबकर बर्बाद हो गई है। बची-खुची फसल बचाने के लिए लोग अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर तटबंध को सुरक्षित रखने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रहे हैं। लोग रतजगा कर रहे हैं। इन गांवों का संपर्क प्रखंड मुख्यालय से कट गया है। 

गोनकुरा गांव निवासी रामधनी कहते हैं कि खेत में लगी फसल तो बर्बाद हो गई है, परंतु अब आशियाना भी न बह जाए, इसका जतन किया जा रहा है। वह कहते हैं कि उन्होंने इस वर्ष धान की रोपनी बड़े क्षेत्र में की थी। अगले वर्ष उनका बेटा मैट्रिक पास कर लेगा। उसके कॉलेज में नामांकन के लिए पैसे के प्रबंध के लिए ज्यादा क्षेत्र में खेती की थी कि अच्छे कॉलेज में नामांकन करा दूंगा परंतु भगवान को यह मंजूर नहीं लगता। सरकार अभी बाढ़ पीड़ितों की सूची बनाने में जुटी है। परबलपुर प्रखंड के प्रखंड विकास अधिकारी पंकज कुमार कहते हैं कि बाढ़ पीड़ितों की सूची तैयार की जा रही है। राहत सामग्री बांटने के विषय में पूछने पर कहते हैं कि कई क्षेत्रों में राहत साम्रगी भेजी गई है। 

उल्लेखनीय है कि इस वर्ष बाढ़ का सबसे अधिक प्रभाव नालंदा जिले में देखने को मिला है। नालंदा के 15 प्रखंडों में बाढ़ का पानी तबाही मचा रहा है। जिले के 400 से ज्यादा गांवों की करीब साढ़े सात लाख आबादी प्रभावित हुई है।                

www.pardaphash.com

जन्माष्टमी पर विशेष: इसी दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे भगवान श्रीकृष्ण

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥


गीता की इस अवधारण द्वारा भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब जब धर्म का नाश होता है तब तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और अधर्म का नाश करके धर्म कि स्थापना करता हूँ| अत: जब असुर एवं राक्षसी प्रवृतियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं| भगवान विष्णु इन समस्त अवतारों में से एक महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा| भगवान स्वयं जिस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे उस पवित्र तिथि को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं| भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का यह उत्सव हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है| भगवान विष्णु के अवतार रूप में श्रीकृष्ण जी का अवतरण भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि कोरोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था| इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 18 अगस्त 2014 को स्मार्तों का व्रत है और वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा मनाया जाएगा| भगवान श्रीकृष्ण इस वर्ष जन्ममाष्टमी पर 5240 साल के होने जा रहे हैं।

यदि ज्योतिषविदों की माने तो उनका कहना है कि इस बार द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय जिस तरह की नौ ग्रहों की स्थिति थी वैसे ही इस वर्ष छह ग्रहों का संयोग बन रहा है। इसमें वर्षा ऋतु भाद्रपद कृष्ण पक्ष, वृष राशि का चंद्रमा, सिंह राशि का सूर्य, सिंह राशि का बुध, कर्क राशि में गुरु, राहु कन्या राशि के साथ केतु मीन राशि में मौजूद रहेगा। इसके अलावा मध्य रात्रि वृषभ लग्न भी रहेगा। जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म समय भी थी।

जन्माष्टमी पूजन विधि-

जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर महिलाएं, पुरूष व बच्चे उपवास रखते हैं और श्री कृष्ण का भजन-कीर्तन करते हैं। इस पावन पर्व में कृष्ण मन्दिरों व घरों को सुन्‍दर ढंग से सजाया जाता है। उत्‍तर प्रदेश के मथुरा-वृन्‍दावन के मन्दिरों में इस अवसर पर कई तरह के रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं। कृष्‍ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम का स्‍मरण करने के लिए रास लीला का भी आयोजन किया जाता है। इस त्‍यौहार को 'कृष्‍णाष्‍टमी' अथवा 'गोकुलाष्‍टमी' के नाम से भी जाना जाता है।

श्री कृष्ण का जन्म रात्रि 12 बजे हुआ था इसलिए बाल कृष्‍ण की मूर्ति को आधी रात के समय दूध, दही, धी, जल से स्‍नान कराया जाता है। इसके बाद शिशु कृष्ण का श्रृंगार कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है और उन्हें भोग लगाया जाता है। जो लोग उपवास रखते हैं वह इसी भोग को ग्रहण कर अपना उपवास पूरा करते हैं।

जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।

जन्माष्टमी की कथा-

एक बार इंद्र ने नारद जी से कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए। इंद्र की बातों को सुनकर देवर्षि ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।

नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।

ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णन कीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी ने उनके विलाप का कारण पूछा| तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।

देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।

तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।

कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।

इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।

प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।

उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।

जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।

कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा ही होगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।

कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।

हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।

अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।

अब कालियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।

तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया। इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र! कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे।

श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।

हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, सुदर्शन चक्र को लेकर गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।

जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।

गोविंदा आला रे...

पूरे उत्‍तर भारत में इस त्‍यौहार के उत्‍सव के दौरान भजन गाए जाते हैं नृत्‍य किया जाता है। मथुरा व महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान मिट्टी की मटकियों जिन्हें लोगों की पहुंच से दूर उचाई पर बांधा जाता है, इनसे दही व मक्‍खन चुराने की कोशिश की जाती है। इन वस्‍तुओं से भरा एक मटका अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्‍तत: इसे फोड़ते हैं। इसके पीछे आशय यह है कि लोगों का मानना है कि भगवान श्री कृष्ण इसे ही अपने मित्रों के साथ दही और मक्खन की मटकियों को फोड़ते थे और दही, मक्खन चुरा कर खाते थे। यह उत्सव करीब सप्ताह तक चलता है।

हलछठ आज, पुत्र की लंबी आयु और उसके अच्छे स्वास्थ्य के लिए महिलाएं रखती हैं यह व्रत

भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भैया बलरामजी (बलदाऊ) का जन्म हुआ था| बलरामजी का प्रधान शस्त्र हल तथा मूसल है। इसी कारण उन्हें हलधर भी कहा जाता है। उन्हीं के नाम पर इस पर्व का नाम 'हल षष्ठी' पड़ा। भारत के कुछ पूर्वी हिस्सों में इसे 'ललई छठ' भी कहा जाता है। मान्यता है इस दिन हल से जुते हुए अनाज व सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता है| इसलिए महिलाएं इस दिन तालाब में उगे फसही के चावल खाकर व्रत रखती हैं| यह भी मान्यता है कि इस दिन गाय का दूध व दही इस्तेमाल में नहीं लाया जाता है इसदिन महिलाएं भैंस का दूध व दही इस्तेमाल करती है| इस बार हलछठ का व्रत 16 अगस्त दिन शनिवार को पड़ रहा है|

हलछठ व्रत विधि-

इस व्रत को रखने वाली महिलाएं प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं। उसके पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं। उसके बाद पृथ्वी को लीपकर एक छोटा-सा तालाब बनाएं। इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई 'हरछठ' को गाड़ दें। तपश्चात इसकी पूजा करें। पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं। हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। पूजन करने के बाद भैंस के दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें। पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।

हलछठ व्रत कथा

प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा। यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया। उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया। इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।

कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।

बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।

www.pardaphash.com

मुंशी प्रेमचंद्र की जयंती पर विशेष...

हिंदी कथा साहित्य को तिलस्मी कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर मोड़कर ले जाने वाले कथाकार मुंशी प्रेमचंद देश ही नहीं, दुनिया में विख्यात हुए और कथा सम्राट कहलाए। वह आमजन की पीड़ा को शब्दों में पिरोया, यही वजह है कि उनकी हर रचना कालजयी है। प्रेमचंद का नाम असली नाम धनपत राय था। उनका जन्म 31 जुलाई सन् 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नामक गांव में हुआ था। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर उन्होंने धनपत राय की बजाय प्रेमचंद उपनाम रख लिया। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, जो डाकघर में मुंशी का पद संभालते थे।

प्रेमचंद जब 6 वर्ष के थे, तब उन्हें लालगंज गांव में रहने वाले एक मौलवी के घर फारसी और उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया। वह जब बहुत ही छोटे थे, बीमारी के कारण इनकी मां का देहांत हो गया। उन्हें प्यार अपनी बड़ी बहन से मिला। बहन के विवाह के बाद वह अकेले हो गए। सुने घर में उन्होंने खुद को कहानियां पढ़ने में व्यस्त कर लिया। आगे चलकर वह स्वयं कहानियां लिखने लगे और महान कथाकार बने।

धनपत राय का विवाह 15-16 बरस में ही कर दिया गया, लेकिन ये विवाह उनको फला नहीं और कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। कुछ समय बाद उन्होंने बनारस के बाद चुनार के स्कूल में शिक्षक की नौकरी की, साथ ही बीए की पढ़ाई भी। बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी थी। शिक्षक की नौकरी के दौरान प्रेमचंद के कई जगह तबादले हुए। उन्होंने जन जीवन को बहुत गहराई से देखा और अपना जीवन साहित्य को समर्पित कर दिया। प्रेमचंद की चर्चित कहानियां हैं-मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, पंच फूल, प्रेम पूर्णिमा, जुर्माना आदि।

उनके उपन्यास हैं- गबन, बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), सेवा सदन, गोदान, कर्मभूमि, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा और मंगल-सूत्र (अपूर्ण)। प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां तथा चौदह बड़े उपन्यास लिखे। सन् 1935 में मुंशी जी बहुत बीमार पड़ गए और 8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके रचे साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में हो चुका है, विदेशी भाषाओं में भी। हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय लेखक प्रेमचंद ने हिंदी में कहानी और उपन्यास को सुदृढ़ नींव प्रदान की और यथार्थवादी चित्रण से देशवासियों का दिल जीत लिया। प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट के नाम से सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था।

सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फिल्में बनाईं। 1977 में 'शतरंज के खिलाड़ी' और 1981 में 'सद्गति'। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में 'सेवासदन' उपन्यास पर फिल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी 'कफन' पर आधारित 'ओका ऊरी कथा' नाम से एक तेलुगू फिल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में 'गोदान' और 1966 में 'गबन' उपन्यास पर लोकप्रिय फिल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक 'निर्मला' भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

www.pardaphash.com