पशु कयों करते हैं जुगाली ?

आपने अक्सर देखा होगा कि गाय, भैंस, ऊंट, भेड़, बकरी इत्यादि जानवर घास-फूस पेड़ों की पत्तियां इत्यादि अपना भोजन जल्दी-जल्दी खा लेते हैं और उसके बाद आराम से बैठकर अपना मुंह चलाते रहते हैं। गाय, भेड़, बकरी आदि के ऊपर के जबड़े में दांत नहीं होते लेकिन इनके मसूढ़े बहुत सख्त होते हैं और नीचे के जबड़े के दांतों तथा ऊपर के जबड़ों द्वारा ही ये जानवर अपने भोजन को मुंह में ले 
जाते हैं।
भोजन खाने के बाद ये पशु खाए हुए भोजन को आराम से पेट से दोबारा मुंह में लाते हैं और उसे अच्छी तरह से चबाते हैं। भोजन चबाने की इसी क्रिया को ‘जुगाली’ कहा जाता है। चबाए हुए भोजन को ये जानवर फिर पेट में ले जाते हैं जहां यह बहुत आसानी से पच जाता है। जो जानवर जुगाली करते हैं उन्हें ‘रुमीनेंट’ कहा जाता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि 
जानवर जुगाली क्यों करते हैं और 
इन्हें जुगाली करने की आदत 
कैसे पड़ी?


कई हजार वर्ष पूर्व, जब मनुष्य ने इन जानवरों को पालतू नहीं बनाया था, ये जंगलों में घूमा करते थे। जंगल में शेर, चीता तथा मांस भक्षण करने वाले दूसरे जानवर भी अपने भोजन की तलाश में घूमते थे। इन भयानक जानवरों से खुद को बचाने के लिए ही ये जानवर घास और पेड़ों की पत्तियों को जल्दी-जल्दी निगल कर किसी सुरक्षित स्थान की ओर भाग निकलते थे और सुरक्षित स्थान पर पहुंच कर निङ्क्षश्चत होकर जल्दी-जल्दी निगले हुए भोजन को जुगाली करके पचाते थे। इस प्रकार इन जानवरों में जुगाली की यह आदत विकसित होती गई।
इन पशुओं के पेट की बनावट बड़ी जटिल होती है। इनका पेट चार भागों में बंटा होता है। पहले भाग को ‘पाऊच’ दूसरे को ‘रेटीकुलम’ या ‘हनीकॉम बैग’, तीसरे को ‘ओमासम’ या ‘मेनीप्लाइज’ तथा चौथे भाग को ‘एबोमासम’  या ‘टू-स्टमक’ कहा जाता है। इनमें से केवल ऊंट ही ऐसा जानवर है जिसके पेट में इनमें से तीसरा भाग नहीं होता। निगला हुआ भोजन सबसे पहले पेट के प्रथम भाग में जाता है। यह हिस्सा दूसरे भाग की अपेक्षा बड़ा होता है। यहां पहुंच कर निगला हुआ भोजन पेट में स्रावित एंजाइमों से मुलायम हो जाता है। उसके बाद भोजन यहां से पेट के दूसरे हिस्से में पहुंचता है। इस हिस्से में भोजन जुगाली करने लायक हो जाता है। इसके बाद जानवर अपने किए हुए भोजन को मुंह में लाकर काफी देर तक  चबाते रहते हैं। जुगाली की क्रिया पूरी होने के उपरांत भोजन पेट के  तीसरे भाग में पहुंच जाता है। पेट के तीसरे हिस्से में इसमें कुछ और पाचक रस मिल जाते हैं और अंत में यह भोजन पेट की मांसपेशियों द्वारा पचने के लिए आमाशय में भेज दिया जाता है। इस तरह भोजन के पचने की क्रिया पूरी हो जाती है।

चैत्र नवरात्रि में कन्या पूजन का महत्व

चैत्र मास की नवरात्रि शुक्रवार को प्रारंभ हो गई है, नवरात्रि के साथ ही भारतीय नववर्ष का भी आरंभ हो गया है| बासंतिक नवरात्रि पर्व के इन नौ दिनों के दौरान आदिशक्ति सृष्टि रचियता माता जगदम्बा के नौ विभिन्न रूपों की आराधना की जाती है|

हिन्दू वर्ष के आरम्भ में अर्थात चैत्र माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस से नवरात्रि का आरंभ होता है इसे बासंतिक नवरात्रि कहते हैं| ये नवरात्र शीत ऋतु बीतने और ग्रीष्म ऋतु आरम्भ होने वाली होती है उस दौरान आती है| नवरात्रि के नौ दिन वर्ष के सर्वाधिक शुद्ध एवं पवित्र दिवस माने गए हैं| वर्ष के इन नौ और नौ अर्थात् 18 दिनों का भारतीय धर्म एवं दर्शन में विशेष ऐतिहासिक महत्व है और इन्हीं दिनों में बहुत सी दिव्य घटनाओं के घटने की जानकारी हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों में मिलती है|

धर्म ग्रंथों के अनुसार तीन वर्ष से लेकर नौ वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती है। शास्त्रों के अनुसार एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य, दो की पूजा से भोग और मोक्ष, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ व काम, चार की पूजा से राज्यपद, पांच की पूजा से विद्या, छ: की पूजा से छ: प्रकार की सिद्धि, सात की पूजा से राज्य, आठ की पूजा से संपदा और नौ की पूजा से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। कन्या पूजन की विधि इस प्रकार है-

पूजन विधि-

कन्या पूजन में तीन से लेकर नौ साल तक की कन्याओं का ही पूजन करना चाहिए इससे कम या ज्यादा उम्र वाली कन्याओं का पूजन वर्जित है। अपने सामथ्र्य के अनुसार नौ दिनों तक अथवा नवरात्रि के अंतिम दिन कन्याओं को भोजन के लिए आमंत्रित करें। कन्याओं को आसन पर एक पंक्ति में बैठाएं। ऊँ कुमार्यै नम: मंत्र से कन्याओं का पंचोपचार पूजन करें। इसके बाद उन्हें रुचि के अनुसार भोजन कराएं। भोजन में मीठा अवश्य हो, इस बात का ध्यान रखें। भोजन के बाद कन्याओं के पैर धुलाकर विधिवत कुंकुम से तिलक करें तथा और यथाशक्ति दक्षिणा देकर विदा करें| 

जानिए आपके लिए कैसा रहेगा यह वर्ष, होगा बड़ा चमत्कार

हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। इसे हिंदू नव संवत्सर या नव संवत कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी।

हिंदू पंचांग के अनुसार इस वर्ष 22 मार्च 2012 को रात 7.10 बजे विक्रम संवत् 2069 का प्रारंभ कन्या लग्न में हो गया| इस वर्ष विश्वावसु नाम का संवत्सर रहेगा, जिसका स्वामी राहु है। इस वर्ष का राजा और मंत्री शुक्र है साथ ही दुर्गेश का पद भी शुक्र के ही पास है। इससे खुशहाली और विलासिता बढ़ेगी। पैदावार अच्छी होगी और स्त्रियों का वर्चस्व बढ़ेगा| इस बार 23 मार्च से विश्वासु नामक नया संवत्सर शुरू हो रहा है। यह 12 के स्थान पर 13 महीने का होगा। भादो दो महीने का होगा। 

इस वर्ष का नाम आश्विन है। चातुर्मास के बादलों का नाम आवृत्त है। रोहिणी का निवास पर्वत में है। समय का निवास कुम्हार के घर में है। कुल 20 विश्वा समय का वाहन दार्दुर है। इस साल 2 सोमवती अमावस्या हैं। दो सोमवती पंचमी हैं। 2 अंगारक चतुर्थी हैं। 2 भानु सप्तमी हैं। 3 बुधाष्टमी है। एक रवि दशमी है। और कुल शुभ मुहूर्त 390 हैं। साल के 384 दिन हैं। 20 विश्वा में सत्य एक विश्वा , धर्म 1 विश्वा , अधर्म 8 विश्वा , दुष्कर्म 5 विश्वा और पाप 5 विश्वा है। शनि की दृष्टि पश्चिम में रहेगी।

नववर्ष में कैसी रहेगी ग्रहों की स्थिति-

विक्रम संवत् 2069 में शनि अधिकांश समय तुला राशि में ही व्यतीत करेगा। यह शनि की उच्चर राशि है। हालांकि 16 मई को ही यह वक्र गति से घूमता हुआ कुछ समयके लिए कन्या राशि में लौटेगा। यहां शनि का ठहराव 4 अगस्त तक रहेगा और फिर से तुला राशि में लौट आएगा और पूरे संवत्सनर वहीं रहेगा। 

बृहस्पति साल के शुरूआत में जहां मेष राशि में होगा वहीं 17 मई को यह अपनी राशि बदलकर वृष में चला जाएगा। मेष जहां मंगल के अधिकार की राशि है वहीं वृष शुक्र के अधिकार वाली राशि है। 

संवत्सशर समाप्त होने तक गुरु इसी राशि में बना रहेगा। नववर्ष प्रवेश के समय राहू वृश्चिक और केतू वृष राशि में होंगे। हमेशा वक्री चलने वाले ये छाया ग्रह 6 दिसम्बंर को राशि बदलेंगे। राहू तुला और केतू मेष राशि में आ जाएंगे। बड़े ग्रहों का राशि परिवर्तन संकेत देता है कि मई के बाद देश, समाज, व्यापार एवं अन्य क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन दिखाई देंगे। सितम्बर में राजनीति में बड़ी उथल-पुथल के संकेत हैं।

व्यापार के लिए कैसा रहेगा नववर्ष-

व्यापार की दृष्टि से यह वर्ष काफी उथल-पुथल वाला रहेगा। सबसे अधिक उतार-चढ़ाव शेयर बाजार में देखने को मिलेगी। इस साल राहु, शनि और मंगल व्यापार पर पूरा-पूरा असर डालेंगे। व्यापार में तेजी-मंदी कादौर साल के अंत तक जारी रहेगा क्योंकि विक्रम संवत 2069 में पूरे वर्ष राहु मंगल के घर वृश्चिक राशि में भ्रमण करेगा जिसके कारण सोना-चांदी, लोहा के बाजार में उतार-चढ़ाव देखने को मिलेगा। 

शनि राहु का द्विद्वादश योग विश्व बाजार में उतार-चढ़ाव का कारण रहेगा।औद्योगिक क्षेत्रों में थोड़ी मंदी रहेगी लेकिन तेल, खाद्य पदार्थ, कोयला, बिजली, रसोई गैस व धातु के भावों में वृद्धि होने के योग हैं। मनोरंजन एवं कॉस्मेटिक्स व्यापार में मंदी आएगी। तुला राशि में शनि के जाने से अनाज की कमी होगी जिसके कारण दाम में अचानक वृद्धि होगी।

शेयर बाज़ारों के लिए कैसा रहेगा नववर्ष-

शनि-गुरु आमने-सामने सम सप्तम योग बना रह हैं जिससे शेयर बाजार थोड़े घटकर बढ़ेंगे। मार्च के बाद व्यापार थोड़ा सोच-समझकर करें। अप्रैल में उतार-चढ़ाव जारी रहेगा। जून में बड़ा फेरबदल होने की संभावना है। अक्टूबर-नवंबर में शेयर बाजार में अचानक गिरावट दर्ज की जाएगी जो बड़ी नुकसानदायक साबित होगी।

इस वर्ष महिलाओं की रहेगी प्रभुता -

शुक्र ग्रह की प्रधानता बताती है कि राष्ट्रीय राजनीति के नियंत्रण में स्त्री वर्ग की विशेष भूमिका रहेगी| भारत में इस समय देशी-विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है किंतु सर्वाधिक लोकप्रिय विक्रम संवत ही है|

आज से लगभग 2069 वर्ष पूर्व यानी 57 ई.पू में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को उनके अत्याचारों से मुक्त किया था| उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था|

प्राचीन काल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था| राजा विक्रमादित्य ने भी अपने सभी नागरिकों का कर्ज राज्यकोष से चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया|

फसलों के लिए कैसा रहेगा विक्रम संवत-

फसलों का स्वामी चंद्रमा है। धान्य पदार्थ शनि के आधीन हैं। मेघ यानी वर्षा का स्वामी गुरु है। रसों का स्वामी मंगल है, शुष्क और नीरस पदार्थ शनि के आधीन हैं। फल आदि गुरु के आधीन हैं। धन-सम्पत्ति का स्वामी सूर्य है। सुरक्षा और सेना का स्वामी गुरु है। इन दशाधिकारियों के बीच राजा और मंत्री का पद शुक्र के आधीन है। 

विक्रम संवत् 2069 में होंगे दो सूर्य व एक चंद्र ग्रहण

 विक्रम संवत् 2069 का प्रारंभ 23 मार्च, शुक्रवार की शाम कन्या लग्न में हो रहा है। इस दौरान शनि ग्रह तुला राशि में, राहु वृश्चिक राशि में , सूर्य चन्द्रमा और बुध मीन राशि में ,गुरु और शुक्र मेष राशि में , केतु वृष राशि में और मंगल सिंह राशि में रहेगा। संवत्सर का नाम विश्वावसु है। ज्योतिष के अनुसार इस संवत् में दो सूर्य व एक चंद्रग्रहण होगा। इनमें से सिर्फ एक सूर्यग्रहण ही भारत में दिखाई देगा शेष दो भारत में दिखाई नहीं देंगे| 

आपको बता दें कि इस संवत कब-कब होंगे ग्रहण-

कंकड़ाकृति सूर्यग्रहण-

इस वर्ष का पहला ग्रहण यानि कि कंकड़ाकृति सूर्यग्रहण ज्येष्ठ मास की अमावस्या (20 मई दिन रविवार) को होगा। यह ग्रहण कृत्तिका नक्षत्र, वृष राशि में होगा, जो भारत के केवल पूर्वी भाग में खण्डग्रास रूप में दिखाई देगा। ग्रहण का मोक्ष दूसरे दिन यानी 21 मई, सोमवार को सुबह 4 बजकर 51 मिनट पर होगा।

खण्डग्रास चंद्रग्रहण-

इसके बाद संवत् 2069 के ज्येष्ठ मास में दूसरा ग्रहण भी होगा। ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा (4 जून दिन सोमवार) को खण्डग्रास चंद्रग्रहण होगा, यह भारत में दिखाई नहीं देगा इसलिए धार्मिक दृष्टि से भारत में इसकी कोई मान्यता नहीं रहेगी। यह ग्रहण ज्येष्ठा नक्षत्र, वृश्चिक राशि में होगा। 

खग्रास सूर्यग्रहण- 

इस वर्ष का तीसरा और अंतिम खग्रास सूर्यग्रहण कार्तिक मास की अमावस्या (13/14 नवंबर, मंगलवार) को होगा। यह ग्रहण भी भारत में दिखाई नहीं देगा इसलिए धार्मिक दृष्टि से भारत में इसका कोई महत्व नहीं रहेगा। यह ग्रहण विशाखानक्षत्र तुला राशि में होगा। 

आइये जाने आखिर मंदिरों में क्यों बजाया जाता है घंटा

आप जब भी मंदिर जाते है तो आपने देखा होगा कि मंदिर में घंटों की आवाज आती रहती हैं, क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर मंदिर में घंटा क्यों बजाया जाता है| अगर नहीं पता है तो आज हम आपको घंटा से जुड़े धार्मिक और वैज्ञानिक कारण बताते हैं|

तो आइये जाने मंदिर में आखिर क्यों बजाया जाता है घंटा-

आपको बता दें कि शास्त्रों में भगवान की कृपा शीघ्र प्राप्त करने के लिए कई प्रकार के नियम बनाए गए हैं। इन नियमों का पालन पर देवी-देवता जल्दी ही प्रसन्न हो जाते हैं और भक्तों की परेशानियों का निराकरण कर देते हैं।

मंदिरों से हमेशा घंटी की आवाज आती रहती है। सामान्यत: सभी श्रद्धालु मंदिरों में लगी घंटी अवश्य बजाते हैं। घंटी की आवाज हमें ईश्वर की अनुभूति तो कराती है साथ ही हमारे स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है। घंटी आवाज से जो कंपन होता है उससे हमारे शरीर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। घंटी की आवाज से हमारा दिमाग बुरे विचारों से हट जाता है और विचार शुद्ध बनते हैं।

पुराणों में भी कहा गया है कि मंदिर में घंटी बजाने से हमारे कई पाप नष्ट हो जाते हैं। जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) था, वहीं स्वर घंटी की आवाज से निकलती है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है। घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है। धर्म शास्त्रियों के अनुसार जब प्रलय काल आएगा तब भी इसी प्रकार का नाद प्रकट होगा। 

इतना ही नही इसके वैज्ञानिक कारण भी है। जब घंटी बजाई जाती है तो उससे वातावरण में कंपन उत्पन्न होता है जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है। इस कंपन की सीमा में आने वाले जीवाणु, विषाणु आदि सुक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं तथा मंदिर का तथा उसके आस-पास का वातावरण शुद्ध बना रहता है। साथ ही इस कंपन का हमारे शरीर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। घंटी की आवाज से हमारा दिमाग बुरे विचारों से हट जाता है और विचार शुद्ध बनते हैं। नकारात्मक सोच खत्म होती है। 

इसलिए अब से जब भी आप मंदिर या किसी भी देव स्थान पर जाएँ तो घंटा जरुर बजाएं|

आचार्य विनीत कुमार
मो. 9554963764 

धरती का दूसरा स्वर्ग है मनाली

मनाली हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित कुल्लू घाटी का प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। मनाली कुल्लू से उत्तर दिशा में केवल 40 किमी की दूरी पर लेह की ओर जाने वाले राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर घाटी के सिरे के पास स्थित है। मनाली भारत का प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल है। समुद्र तल से 2050 मीटर की ऊँचाई पर स्थित मनाली व्यास नदी के किनारे बसा हुआ है। सर्दियों में मनाली का तापमान 0° से नीचे पहुँच जाता है। मनाली में आप यहाँ के ख़ूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों के अलावा हाइकिंग, पैराग्लाइडिंग, राफ्टिंग, ट्रैकिंग, कायकिंग जैसे खेलों का भी आनंद उठा सकते हैं। 

मनाली के जंगली फूलों और सेब के बगीचों से छनकर आती सुंगंधित हवाएँ दिलो दिमाग को ताज़गी से भर देती हैं। सबसे पहले बर्फ़ से ढकी हुई पहाडियाँ, साफ पानी वाली व्‍यास नदी दिखाई देती है। दूसरी ओर देवदार और पाइन के पेड़, छोटे छोटे खेत और फलों के बागान दिखाई देते हैं।

हिमाचल प्रदेश में स्थित मनाली कुल्लू घाटी के पूर्वी छोर पर बसा शांत पर्वतीय पर्यटन स्थल है। बर्फ से ढंकी चोटियां, देवदार के ऊंचे वृक्ष, कलकल बहती व्यास नदी और शांत-प्राकृतिक नजारों से भरपूर वातावरण पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है.

मनाली में रोमांचकारी पर्यटन भी मशहूर हैं। यहां स्थित पर्वतारोहण संस्थान रोमांचकारी पर्यटन में इच्छुक पर्यटकों को गर्मियों में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी देता है। मनाली शीतकालीन खेल पर्यटाकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। 

प्रमुख आकर्षण-

हिडिम्बा मंदिर-

समुद्र तल से 1533 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर धूंगरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर यहां की स्थानीय देवी हिडिम्बा को समर्पित है। हिडिम्बा महाभारत में वर्णित भीम की पत्नी थी। मई के महीने में यहां एक उत्सव मनाया जाता है। महाराज बहादुर सिंह ने यह मंदिर 1553 ई. में बनवाया था। लकड़ी से निर्मित यह मंदिर पैगोड़ा शैली में बना है। 

वशिष्ठ-

मनाली से 3 किमी. दूर वशिष्ठ स्थित है। प्राचीन पत्थरों से बने मंदिरों का यह जोड़ा एक दूसरे के विपरीत दिशा में है। एक मंदिर भगवान राम को और दूसरा संत वशिष्ठ को समर्पित है।

कोठी-

मनाली से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, कोठी। यहां से पहाड़ों का मनोरम दृश्य दिखाई देता है। यहां बीस नदी का तेजी से बहता ठंडा पानी अदभुत नजारा पेश करता है।

राहला फॉल्स, मनाली सैंचुरी-

कोठी से दो किमी की दूरी पर बीस नदी पर राहला फॉल्स स्थित है। यहां 50 मीटर की ऊंचाई से गिरता झरने का पानी सैलानियों को खूब लुभाता है। मनाली सैंचुरी में पर्यटक कैपिंग के लिए पहुंचते हैं।

सोलन वैली-

यहां से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सोलन वैली सैलानियों को खासी आकर्षित करती है। यहां ट्रैकिंग, स्कीइंग और माउंटेनियरिंग के कैंप आयोजित किए जाते हैं। 10 से 14 फरवरी के बीच यहां सालाना विंटर कार्निवाल का आयोजन किया जाता है।

रोहतांग दर्रा-

मनाली से 50 किमी. दूर समुद्र तल से 4111 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह दर्रा साहसिक पर्यटकों को बहुत रास आता है। दर्रे के पश्चिम में दसोहर नामक एक खूबसूरत झील है। गर्मियों के दिनों मे भी यह स्थान काफी ठंडा रहता है। जून से नवंबर के बीच लाहौल घाटी से यहां पहुंचा जा सकता है। यहां से कुछ दूरी पर सोनपानी ग्लेशियर है।

रोहतांग भी है मनाली के पास-

मनाली के आस-पास के इलाकों में सैलानियों के लिए बहुत कुछ बिखरा पड़ा है। प्रकृति ने यहां आने वालों के लिए अपना खजाना दोनों हाथों से खोल दिया है। पहाड़ियों पर बने छोटे-छोटे घर और इनके आस-पास फैली हरियाली मन को लुभाती है। यहां से 51 किमी की दूरी पर मशहूर पर्यटक स्थल रोहतांग पास स्थित है। यहां हर साल हजारों की संख्या में सैलानी घूमने के लिए आते हैं।

व्यास कुंड-

यह कुंड पवित्र व्यास नदी का जल स्रोत है। व्यास नदी में झरने के समान यहां से पानी बहता है। यहां का पानी एकदम साफ और इतना ठंडा होता है कि उंगलियों को सुन्न कर देता है। इसके चारों ओर पत्थर ही पत्थर हैं और वनस्पतियां बहुत कम हैं। 

ओल्ड मनाली-

मनाली से 3 किमी. उत्तर पश्चिम में ओल्ड मनाली है जो बगीचों और प्राचीन गेस्टहाउसों के लिए काफी प्रसिद्ध है। मनालीगढ़ नामक क्षतिग्रस्त किला भी यहां देखा जा सकता है। 

सोलंग नुल्लाह-

मनाली से 13 किमी की दूरी पर स्थित सोलंग नुल्लाह 300 मीटर की स्की लिफ्ट के लिए लोकप्रिय है। इस खूबसूरत स्थान से ग्लेशियर और बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियों के मनोहर नजारे देखे जा सकते हैं। नजदीक ही मनाली की प्रारंभिक राजधानी जगतसुख भी देखने योग्य जगह है। 

मनु मंदिर-

ओल्ड मनाली में स्थित मनु मंदिर महर्षि मनु को समर्पित है। यहां आकर उन्होंने ध्यान लगाया था। मंदिर तक पहुंचने का मार्ग दुरूह और रपटीला है। 

अर्जुन गुफा-

कहा जाता है महाभारत के अर्जुन ने यहां तपस्या की थी। इसी स्थान पर इन्द्रदेव ने उन्हें पशुपति अस्त्र प्रदान किया था। 

कब जाएं-

यहां जाने के लिए गर्मी के लिहाज से मार्च से जून और ठण्ड के लिहाज से अक्टूबर से फरवरी के महीने ज्यादा ठीक रहते हैं। 

कैसे जाएं-

वायुमार्ग - मनाली से 50 किमी. की दूरी पर भुंटार नजदीकी एयरपोर्ट है। मनाली पहुंचने के लिए यहां से बस या टैक्सी की सेवाएं ली सकती हैं।

रेलमार्ग - जोगिन्दर नगर नैरो गैज रेलवे स्टेशन मनाली का नजदीकी रेलवे स्टेशन है, जो मनाली से 135 किमी. की दूरी पर है। मनाली से 310 किमी. दूर चंडीगढ़ नजदीकी ब्रॉड गेज रेलवे स्टेशन है। 

सड़क मार्ग - मनाली हिमाचल और आसपास के शहरों से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसें अनेक शहरों से मनाली जाती हैं। 

एक ऐसा मंदिर जहाँ भगवान विष्णु और देवाधिदेव महादेव का हुआ था मिलन

एक ऐसा मंदिर जहाँ हरि-हर यानि की तीनों लोकों के स्वामी विष्णु और देवाधिदेव महादेव का मिलन हुआ था| जी हाँ हम बात कर रहे हैं अपने वैभव और मौलिकताओं के लिए विख्यात काशी के श्रीसत्यनारायणमानस मंदिर की| इस मंदिर की यह विशेषता है कि पहली नजर में ही यह भक्ति-आस्था और वैभव का अनुपम संगम प्रतीत होने लगेगा| इस मंदिर के लिए अगर अद्भुत, अविश्वसनीय, असाधारण व अमूल्य ये पर्यायवाची शब्द प्रयोग किये जाएँ तो भी शायद काम ही हैं|

यह मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित है | इस मंदिर के बारे में यह बताया जाता है कि लगभग पांच दशक पूर्व सन् 1960 में मानस मंदिर के निर्माण कार्य का शिलान्यास हुआ था और सन् 1964 में तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्लीडॉ.राधाकृष्णन ने नवनिर्मित मंदिर का उद्घाटन किया। 

यह मंदिर सेठ रतन लाल सुरेकाने अपने माता-पिता की स्मृति को जीवंत रखने के उद्देश्य से बनवाया। मकरानाव जोधपुर के सफेद संगममरमर से बने चमचमाते मंदिर की विशाल इमारत हर शख्स को अभिभूत करती हैं। विशाल प्रस्तर खंडों पर संपूर्ण श्रीराम चरित मानस का आलेख अद्भुत प्रतीत होता है। सफेद पत्थरों की हर दरो-दीवारपर रामचरित मानस, हनुमान चालीसा, बजरंग बाण आदि के संपूर्ण दोहे, पद व छंद विधिवत उकेरे गए हैं। 

इस विशाल मंदिर के उत्तर दिशा में हिमालय से गंगा अवतरण का दृश्य है तो दक्षिण में रामेश्वर मंदिर। माता सीता की कुटी भी अपने आप में अद्वितीय है। मंदिर के सौन्दर्य को बखूबी तराशा-निखारा गया है। पत्थरों की चमक इतनी प्रखर है कि लोग देखते ही रह जाते हैं। सुखद अनुभव कराता है मंदिर परिसर में विचरण। ऐसा लगता है जैसे मानस मंदिर का निर्माण कराने वालों ने अपने जीवन के हर अनुभव को, यहां तक की अध्यात्म को भी अपने नजरिए से देखा हो। मंदिर परिसर में मूल विग्रह भगवान राम, लक्ष्मण, जानकी व हनुमान का है। इसके दायीं ओर माता अन्नपूर्णा व बाबा विश्वनाथ का विग्रह है और बांयीओर श्रीसत्यनारायणभगवान का यानी लक्ष्मी नारायण का।

यहाँ के एक ज्योतिषी ने बताया है कि अनादि काल से महोत्सवोंव मेलों की नगरी रही काशी में मानस मंदिर ही एकमात्र ऐसा केंद्र है, जिसने मेला संस्कृति को आज भी स्थायी रूप से सहेज कर रखा है। काशी आरंभ से ही विष्णु और शिव की मिलन नगरी के रूप में प्रतिष्ठित रही है, जहां पहले पंचगंगाघाट पर बिन्दु माधव इसका केंद्र हुआ करता था, आज वह केंद्र मानस मंदिर हो गया है। 

सोमेश्वरनाथ मंदिर में भगवान राम और युधिष्ठिर ने की थी शिव अर्चना

 बिहार के तिरहुत प्रमंडल का एक जिला है पूर्वी चंपारण। पूर्वी चंपारण से 28 किलोमीटर दूर स्थित अरेराज के सोमेश्वरनाथ मंदिर की स्थापना राजा सोम ने की थी। उन्हीं के नाम पर इस मंदिर का नाम सोमेश्वरनाथ पड़ा।

इस मंदिर में सावन माह के अलावा अन्य महीनों में भी श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ता है। यहां वर्ष में मुख्यत: छह प्रसिद्ध मेले लगते हैं, इस दौरान एक दिन में लाख से अधिक कांवरिये जलाभिषेक करते हैं। आपको बता दें कि सोनेश्वरनाथ मंदिर की दक्षिण दिशा में निर्जन टीले पर बटुक भैरों स्थान, पश्चिम में जलपा भवानी व अकालदेव महादेव, उत्तर में मसान माई का स्थान है।

सोनेश्वरनाथ मंदिर के विषय में यह मान्यता है कि त्रेता युग में सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र भगवान राम और महाभारत काल में कौरवों द्वारा दिए गए वनवास की पीड़ा झेल रहे कुंती पुत्र युद्धिष्ठिर ने भी अपने समस्त बंधु-बांधवों के साथ पंचमुखी शिवलिंग की पूजा की थी। इसी क्रम में भगवान राम ने महादेव मंदिर से माता पार्वती के मंदिर तक लाल वस्त्र की पगडी टंगवाई थी। तब से आज तक यहां परंपरा कायम है।

यहाँ के निवासियों का मानना है कि सोमेश्वरनाथ मंदिर का विकास व स्थानीय क्षेत्र के उत्थान में पूर्व के महंत स्व. शिवशंकर गिरि का बहुत बडा योगदान रहा है। 

ऐसा करने से फ़ौरन छूटेगी शराब की लत

आजकल ज्यादातर महिलाएं इस बात को लेकर परेशान रहती है कि उनके पति अधिक शराब का सेवन करते हैं तथा अपने आय का अधिक हिस्सा शराब पर लुटाते हैं| महिलाएं अपने पति की इस आदत को लेकर न जाने कितने जतन करती हैं लेकिन वह नाकाम ही साबित रहती हैं| आज हम आपको एक ऐसा उपाय बताने जा रहे हैं जिसके द्वारा आप अपने पति कि न केवल शराब ही छुड़ा पाएंगे बल्कि आपका जीवन "सुखी दाम्पत्य जीवन" बन जाएगा। 

आपको बता दें कि जिस ब्रांड की शराब आपके पति ज्यादा पीते हैं उसी ब्रांड की शराब रविवार को एक शराब की उस ब्रांड की बोतल लाये, जो ब्रांड आपके पति सेवन करते हैं| उसके बाद रविवार को उस बोतल को किसी भी भैरव मंदिर पर अर्पित करें तथा पुन: कुछ रूपए देकर मंदिर के पुजारी से वह बोतल वापिस घर ले आयें|

इसके बाद जब आपके पति शराब के नशे में चूर हो तो वही बोतल अपने पति के ऊपर से उतारते हुए २१ बार "ॐ नमः भैरवाय" का जाप करें। उसके बाद उस बोतल को शाम को किसी भी पीपल के वृक्ष के नीचे छोड़ आयें| ऐसा करने से आपको कुछ ही दिनों बाद परिणाम सामने आ जायेगा|

इसके अलावा शराब छुड़ाने का एक उपाए यह भी है की जिस दिन आपके पति शराब पीकर घर आयें और उनका जूता अपने आप ही उल्टा हो जाये| जब ऐसा हो तो आप उस जूते के बराबर आंटा लें और बिना किसी तवे और पीढ़ा बेलन के एक तरफ सिकी रोटी बनाकर किसी काले कुत्ते को खिला दें ऐसा करने से कुछ ही समय में वह शराब से घृणा करने लगेंगे। 

कई शुभ संयोगों के साथ इस बार 10 दिन की होगी नवरात्रि


नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

आपको बता दें की इस बार की चैत्र नवरात्रि 10 दिन की होंगी। तिथियों की घटत-बढ़त के कारण ऐसा होगा। नवरात्र पर्व 23 मार्च से शुरू होकर 1 अप्रैल तक रहेगा। इस दौरान शुभ संयोग भी खूब रहेंगे।

हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार का कहना है कि चैत्र नवरात्र का आरंभ देवी के वार यानी शुक्रवार से हो रहा है। ऐसे में ये देवी आराधना करने वाले साधकों के लिए विशेष फलदायी रहेंगे। खरीदारी व नवीन कार्यो के लिए भी ये नवरात्र श्रेयस्कर रहेंगे। उन्होंने यह भी बताया है कि नवरात्र के दौरान 29, 30 व 31 मार्च को छोड़कर हर दिन विशेष संयोग भी बन रहे हैं।

आखिर एक दिन क्यों बढ़ा-

आपको बता दें कि 27 मार्च को सूर्योदय पूर्व 5.29 से पंचमी तिथि शुरू होगी। यह अगले दिन 28 मार्च को सुबह 8.08 बजे तक रहेगी। इस कारण मंगलवार व बुधवार दोनों ही दिन सूर्योदय काल में पंचमी तिथि रहेगी। दोनों ही दिन पांचवीं देवी स्कंध माता की आराधना की जाएगी।

इस नवरात्रि के श्रेष्ठ संयोग-

23 मार्च : सर्वार्थसिद्धि व अमृत सिद्धि योग

24 मार्च : संपूर्ण दिन सर्वार्थसिद्धि योग

25 मार्च : सर्वार्थसिद्धि व राजयोग

26 मार्च : संपूर्ण दिन रवियोग

27 व 28 मार्च : सर्वार्थसिद्धि योग

1 अप्रैल : रविपुष्य योग, सर्वार्थसिद्धियोग व रवियोग

चैत्र नवरात्रि का महत्व :- 

वैदिक ग्रंथों में वर्णन हैं कि जीव व जीवन का आश्रय, इस वसुधा को बचाएँ रखने के लिए युगों से देव व दानवों में ठनी रहीं। देवता जो कि परोपकारी, कल्याणकारी, धर्म, मर्यादा व भक्तों के रक्षक है। वहीं दानव अर्थात्‌ राक्षस इसके विपरीत हैं। इसी क्रम में जब रक्तबीज, महिषासुर आदि दैत्य वरदानी शक्तियों के अभिमान में अत्याचार कर जीवन के आश्रय धरती को और फिर इसके रक्षक देवताओं को भी पीड़ित करने लगे तो देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन कर उसे नाना प्रकार के अमोघ अस्त्र प्रदान किए। जो आदि शक्ति माँ दुर्गा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्यण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

साधकों के लिए श्रेष्ठ है चैत्र मास की नवरात्रि-

यह नवरात्रि पर्व शक्ति की शक्तियों को जगाने का आह्वान है, ताकि हम पर देवी की कृपा हो, और हम शक्ति-स्वरूपा से सुख-समृद्धि का आशीर्वाद अर्जित कर सकें। हम सभी संकट, रोग, दुश्मन व प्राकृतिक-अप्राकृतिक आपदाओं से बच सकें। हमारे शारीरिक तेज में वृद्धि हो, मन निर्मल हो। हमें सपरिवार दैवीय शक्तियों का लाभ मिल सकें।

चैत्र नवरात्रि पर्व पर माँ भगवती का आह्वान कर दुष्टात्माओं का नाश करने हेतु उन्हें जगाया जाता है। प्रत्येक नर-नारी जो हिन्दू धर्म की आस्था से जुडे हैं वे किसी-न-किसी रूप में देवी की उपासना करते ही है। फिर चाहे व्रत, उपवास,मंत्र,जप, अनुष्ठान या दान कर्म ही क्यों ना हो, अपनी-अपनी श्रद्धा, सामर्थ्य व भक्तिनुसार उपासक यह कर्म करते हैं।

माँ के दरबार में दोनों ही नवरात्रि चैत्र व शारदीय नवरात्रि में धूमधाम रहती है। आश्विन माह की नवरात्रि में जगह-जगह गरबों की, जगह-जगह देवी प्रतिमा स्थापित करने की प्रथा है। चैत्र नवरात्रि में घरों में देवी प्रतिमा व घटस्थापना की जाती है। हिंदू मतानुसार इसी दिन से नव वर्ष का आरंभ माना गया है।

आखिर क्यों बांधते है मौली या कलावा

आपने हमेशा यह देखा होगा कि कैसी भी पूजा हो उसमें पंडित या पुरोहित लोगों को मौली या कलावा बांधते हैं क्या आप जानते हैं कि आखिर यह मौली या कलावा क्यों बांधा जाता है| अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं कि आखिर पंडित या पुरोहित क्यों बांधते हैं मौली या कलावा|

तो आइये जाने आखिर क्यों बांधा जाता है मौली या कलावा- 

मौली का अर्थ है सबसे ऊपर जिसका अर्थ सिर से भी लिया जाता है। त्रिनेत्रधारी भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान है जिन्हें चन्द्र मौली भी कहा जाता है। शास्त्रों का मत है कि हाथ में मौली बांधने से त्रिदेवों और तीनों महादेवियों की कृपा प्राप्त होती है। महालक्ष्मी की कृपा से धन सम्पत्ति महासरस्वती की कृपा से विद्या-बुद्धि और महाकाली की कृपा से शाक्ति प्राप्त होती है।

इसके आलावा हिन्दू वैदिक संस्कृति में मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते है ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे। मौली कच्चे सूत के धागे से बनाई जाती है। यह लाल रंग, पीले रंग, या दो रंगों या पांच रंगों की होती है। इसे हाथ गले और कमर में बांधा जाता है।

हम किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत मौली बांधकर ही करते है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। ऐसी भी मान्यता है कि इसे बांधने से बीमारी अधिक नहीं बढती है। पुराने वैद्य और घर परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिये लाभकारी था।

ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये मौली बांधना हितकर बताया गया है। मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये। आपने कई लोगों को हाथ में स्टील के बेल्ट बांधे देखा होगा। कहते है रक्तचाप के मरीज को यह बैल्ट बांधने से लाभ होता है। स्टील बेल्ट से मौली अधिक लाभकारी है। मौली को पांच सात आंटे करके हाथ में बांधना चाहिये।

मौली को किसी भी दिन बांध सकते है, परन्तु हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल, आंकडे या बड के पेड की जड में डालना चाहिये। 

जानिये आखिर सोमवार ही क्यों हैं भगवान शंकर का दिन

हिन्दू धर्म में प्रत्येक दिन देवताओं के लिए बंटे होते हैं जैसे सोमवार भगवान शिव का है, मंगलवार हनुमान जी का है और शनिवार न्यायधीश कहे जाने वाले शनिदेव का है| क्या आपको पता है कि आखिर सोमवार ही क्यों भगवान शंकर को मिला है? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं-

आपको बता दें कि पुराणों में सोम का अर्थ चंद्रमा होता है और चंद्रमा भगवान शिव के शीश पर मुकुटायमान होकर अत्यन्त सुशोभित होता है। भगवान शंकर ने जैसे कुटिल, कलंकी, कामी, वक्री एवं क्षीण चंद्रमा को उसके अपराधी होते हुए भी क्षमा कर अपने शीश पर स्थान दिया वैसे ही भगवान् हमें भी सिर पर नहीं तो चरणों में जगह अवश्य देंगे। यह याद दिलाने के लिए सोमवार को ही लोगों ने शिव का वार बना दिया।

इसके अलावा सोम का अर्थ सौम्य होता है। इस सौम्य भाव को देखकर ही भक्तों ने इन्हें सोमवार का देवता मान लिया। सहजता और सरलता के कारण ही इन्हें भोलेनाथ कहा जाता है।

अथवा सोम का अर्थ होता है उमा के सहित शिव। केवल कल्याणरी शिव की उपासना न करके साधक भगवती शक्ति की भी साथ में उपासना करना चाहता है क्योंकि बिना शक्ति के शिव के रहस्य को समझना अत्यन्त कठिन है। इसलिए भक्तों ने सोमवार को शिव का वार स्वीकृत किया। 

त्रेतायुग से हो रहा है भगवान शंकर का जलाभिषेक

शास्त्रों में शिव के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। शिव ने विषपान किया तो नीलकंठ कहलाए, गंगा को सिर पर धारण किया तो गंगाधर पुकारे गए। भूतों के स्वामी होने से भूतभावन भी कहलाते हैं। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। शिव के इन सभी रूप और सभी नामों का स्मरण मात्र ही हर भक्त के सभी दु:ख और कष्टों को दूर कर हर इच्छा और सुख की पूर्ति करने वाला माना गया है।

भगवान शंकर को जलाभिषेक किया जाता है यह हर कोई जानता है क्या आपको पता है कि भगवान शंकर को कब से जलाभिषेक की शुरुआत की गई ? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं कि भगवान शंकर को त्रेतायुग से जलाभिषेक किया जा रहा है|

भगवान शिव के रूप-

इसके अलावा आपको भगवान शिव के रूपों के बारे में बताते हैं जिसका पुराणों में वर्णन किया गया है| तो आइये जाने शिव के कौन- कौन से रूप हैं| 

महाकाल-

भगवान शिव का एक रूप है महाकाल| इस रूप में शिव को विनाशक के रूप में जाना जाता है| लोगों का मानना है शिव अपने भक्तों के अंदर बुराई और गलत सोच को खत्म करते हैं। इसलिए शिव को कृपालु भी कहा जाता है।

अर्धनारीश्वर-

हिमालय में कैलाश सबसे ऊंचा पर्वत है। शिव हमेशा मां शक्ति (पार्वती) के साथ रहते थे। कभी उनसे अलग नहीं होते। क्योंकि शिव बिना शक्ति और शक्ति बिना शिव का कोई अर्थ नहीं। कहते हैं पार्वती और भगवान शिव दोनों एक ही थे। तभी शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है।

नटराज-

नृत्य देवता कहे जाने वाले नटराज भी शिव का ही एक रूप हैं। भगवान शिव को मूर्तिकला के जरिए कई रूपों में पेश किया जाता है। शिव के दोनों हाथ में जीवन और मृत्यु का संतुलन है। 

नीलकंठ-

नीलकंठ उन्हें इसलिए कहा जाता है क्योंकि नीलकंठ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि भगवान शंकर ने विष का पान कर लिया था जिसकी वजह से उनका कंठ नीला हो गया है|

पशुपतिनाथ-

उनके लंबे, घुंघराले बाल भगवान वायु और हवा का प्रतीक है, जिनसे सारे जीवों को सांस लेने के लिए हवा मिलती है। इसलिए भगवान शिव को सभी जीव-जंतुओं की जीवनरेखा माना जाता है। इसलिए उन्हें ‘पशुपतिनाथ‘ कहा जाता हैं।

त्रियम्बकेश्वर महादेव-

शिव की इसी जटा से पवित्र नदी गंगा की धारा निकलती है और यही जल हर मनुष्य तक पहुंचता है। भगवान शिव के तीसरे नेत्र के कारण उन्हें त्रियम्बका देवता भी कहा जाता हैं। 

रूद्र-

गले में पड़ी 108 दानों की रूद्राक्ष माला इस बात का प्रतीक है कि इस संसार को बनाने में 108 तत्वों का इस्तेमाल किया गया है। इसीलिए भगवान को ‘रूद्र‘ के नाम से भी जाना जाता है। 

सोलह सोमवार व्रत विधि और कथा


यह उपवास सप्ताह के प्रथम दिवस सोमवार को रखा जाता है| यह व्रत सोम यानि चंद्र या शिवजी के लिये रखा जाता है।

सोलह सोमवार व्रत विधि-

सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे प्रहर तक होता है । व्रत में फलाहार या पारायण का कोई खास नियम नहीं है किन्तु यह आवश्यक है कि दिन और रात में केवल एक ही समय भोजन करना चाहिए । सोमवार के व्रत में भगवान शंकर तथा पार्वतीजी का पूजन करना चाहिए । सोमवार के व्रत तीन प्रकार के हैं साधारण प्रति सोमवार, सौम्य प्रदोष और सोलह सोमवार, पूजाविधि तीनों की एक जैसी है । शिव पूजन के पश्‍चात् कथा सुननी चाहिए ।

सोलह सोमवार के दिन आप भक्तिपूर्वक व्रत करें, आधा सेर गेहूं के आंटे के तीन अंगा बनाकर घी, गुड, दीप, नैवेद्य, बेलपत्र, जनेऊ, चन्दन, अक्षत, पुष्प आदि से प्रदोष काल में शंकर जी का पूजन करें, आंटे का एक अंगा शिव जी को अर्पित करें और दूसरा प्रसाद स्वरुप बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें, सत्रहवें सोमवार के दिन पाँव भर गेहूं के आंटे की बाटी बनाकर, घी और गुड का चूरमा बनाकर भगवान को भोग लगायें और खुद भी खाएं|

सोमवार व्रत कथा-

एक नगर में एक बहुत धनवान साहूकार रहता था, जिसके घर में धन की कमी नहीं थी । परन्तु उसको एक बहुत बड़ा दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था । वह इसी चिन्ता में दिन-रात लगा रहता था । वह पुत्र की कामना के लिये प्रत्येक सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था तथा सायंकाल को शिव मन्दिर में जाकर के शिवजी के सामने दीपक जलाया करता था । उसके उस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि महाराज, यह साहुकार आप का अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है । इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए ।

शिवजी ने कहा- "हे पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है । जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है । उसी तरह इस संसार में जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं।" पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा- "महाराज! जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुःखों को दूर करते हैं । यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यो करेंगे?"

पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे- "हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है इसी चिन्ता में यह अति दुःखी रहता है । इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूँ । परन्तु यह पुत्र केवल १२ वर्ष तक जीवित रहेगा । इसके पश्‍चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा । इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नही कर सकता ।" यह सब बातें साहूकार सुन रहा था । इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ । वह पहले जैसा ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा । कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवे महीने में उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई । साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जानकर अधिक प्रसन्नता प्रकट नही की और न ही किसी को भेद ही बताया । जब वह बालक ११ वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करूंगा । अपने पुत्र को काशी जी पढ़ने के लिए भेजूंगा । फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुला करके उसको बहुत सा धन देकर कहा तुम उस बालक को काशी जी पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते जाओ ।

वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे । रास्ते में उनको एक शहर पड़ा । उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दुसरे राजा का लड़का जो विवाह कराने के लिये बारात लेकर आया था वह एक ऑंख से काना था । उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें । इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये । ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और मामा से बात की तो वे राजी हो गये फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहना तथा घोड़ी पर चढा दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया । फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाय तो क्या बुराई है? ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा-यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और मैं इसके बदले में आपको बहुत कुछ धन दूंगा तो उन्होनें स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया । परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक ऑंख से काना है और मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूँ । लड़के केजाने के पश्‍चात उस राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है । मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है । वह तो काशी जी पढ्ने गया है । राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी ।

उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुंच गए । वहॉं जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया । जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा- "मामाजी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है"। मामा ने कहा- "अन्दर जाकर सो जाओ।" लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए । जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना- पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा । अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया । संयोगवश उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से जा रहे थे । जब उन्होने जोर- जोर से रोने की आवाज सुनी तोपार्वती जी कहने लगी- "महाराज! कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिए । जब शिव- पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मुर्दा पड़ा था । पार्वती जी कहने लगीं- महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था । शिवजी कहने लगे- "हे पार्वती! इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प- तड़प कर मर जायेंगे।" पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया । शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत को चले गये ।

तब वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल पड़े । रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह हुआ था । वहां पर आकर उन्होने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की साथ ही बहुत से दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया । जब वह अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा कि मैं पहले तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूँ । जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगे नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण खो देंगे । इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्‍वास नहीं आया तब उसके मामा ने शपथपुर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन साथ लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे । इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ।

सोलह सोमवार व्रत की दूसरी कथा-

मृत्युलोक में भ्रमण करने की इच्छा करके एक समय श्री भूतनाथ भगवान महादेव जी माता पार्वती के साथ पधारे, वहां भ्रमण करते-करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अति रमणीक नगरी में पहुंचे । अमरावती नगरी अमरापुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी । उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मन्दिर बना था । उसमे भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे । एक समय माता पार्वती ने प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोली- "हे महाराज! आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलेंगे । शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे । उस समय इस स्थान पर मन्दिर का पुजारी ब्राह्मण मन्दिर में पूजा करने को आया । माताजी ने ब्राह्मण से प्रश्‍न किया कि पुजारी जी बताओ इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी । ब्राह्मण बिना विचरे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होई । थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई । अब तो पार्वती जी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को उद्यत हुई । तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया । कुछ समय बाद पार्वती जी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया । इस कारण पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा । इस तरह्के कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सरायें शिवजी की पूजा करने उसी मन्दिर में पधारी और पुजारी के कोढ़ के कष्ट को देख बड़े दयाभाव से उससे रोगी होने का कारण पूचने लगीं- "पुजारी ने निःसंकोच सब बातें उनसे कह दीं।" वे अप्सरायें बोलीं -"हे पुजारी! अब तुम अधिक दुखी मत होना भगवान् शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे । तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्त भाव से किया करो । पुजारीजी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा । अप्सरायें बोली कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करे स्वच्छ वस्त्र पहने आधा सेर गेहूँ का आटा ले उसके तीन अंगा बनावे और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान् शंकर का विधि से पूजन करे तत्पश्‍चात् अंगों में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी की प्रसादी समझकर उपस्थित जनों में बांट दें और आप भी प्रसाद पावें । इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करे । तत्पश्‍चात् सत्रहवे सोमवार के दिन पावसेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनावे तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुम्ब प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गयीं । ब्राह्मण ने यथाविधि षोडश सोमवार व्रत किया तथा भगवान् शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनन्द से रहने लगा । कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मन्दिर में पधारे, तब ब्राह्मण को निरोग देख पार्वतीजी ने ब्राह्मण से रोग-मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत की कथा कह सुनाई । तब तो पार्वती जी ने अति प्रसन्न हो ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछ कर व्रत करने को तैयार हुई । व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए परन्तु कार्तिकेय जी को अपने यह विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले- "हे माताजी! आपने ऐसा कौन- सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ । तब पार्वतीजी ने वही षोडश सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई । स्वामी कार्तिकजी बोले कि इस व्रत को मैं भी करूंगा क्योंकि प्रियमित्र ब्राह्मण बहुत दुःखी दिल से परदेस गया है । हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है । कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया । मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले-"हे मित्र ! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था । अब तो ब्राह्मण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई । कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया । व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहां के राजा की लड़की का स्वयंवर था । राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार श्रृङ्गारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ अपनी प्यारी पुत्री का विवाह कर दुंगा । शिवजी की कृपा से ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया । नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी । राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया गया ब्राह्मण को बहुत- सा धन और सम्मान देकर सन्तुष्ट किया । ब्राह्मण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्‍न किया । हे प्राणनाथ! आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़ कर आपको वरण किया? ब्राह्मण बोला-"हे प्राणप्रिये! मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरूपवान पत्नी की प्राप्ति हुई है । व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्‍चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी । शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा और विद्वान पुत्र उत्पन्न हुआ । माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए और उसका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे । जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन अपने माता से प्रश्‍न किया कि है मां तुमने कौन सा व्रत एवं तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुआ । माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जान करके अपने किए हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि के सहित पुत्र को बताया । पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को और सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथा विधि व्रत करने लगा । उसी समय एक देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसको राजकन्या के लिए वरण किया । राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राह्मण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया । वृद्ध राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राह्मण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत राजा के कोई पुत्र नहीं था । राज्य का उत्तराधिकारी होकर भी वह ब्राह्मण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को करता रहा । जब सत्रहवा सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवपूजा के लिये शिवालय में चलने को कहा । परन्तु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की परवाह न की । दास दासियों द्वारा सब सामग्रियां शिवालय भिजवा दीं और आप नहीं गई । जब राजा ने शिवजी का पूजन समाप्त किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई राजा ने सुना कि हे राजा! अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी, आकाशवाणी को सुनकर राजा के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मन्त्रियों! मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर देगी । राजसभाये, मन्त्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये क्योंकि जिस कन्या के कारण राज मिला है राजा उसी को निकालने का जाल रच रहा है, यह कैसे हो सकेगा? अन्त में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया । रानी दुःखी ह्रदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई । बिना पदत्राण फटे वस्त्र पहने भूख से दुखी धीरे-धीरे चल कर एक नगर में पहुंची । वहां एक बुढ़िया सूत कात कर बेचने को जाती थी । रानी की करुण दशा देख बोली चल तू मेरा सूत बिकवा दे । मै वृद्ध हूँ, भाव नहीं जानती हूँ। ऐसीबात बुढ़िया की सुन रानी ने बुड़िया के सिर से सूत की गठरी उतार कर अपने सर पर रख ली, थोड़ी देर बाद आंधी आइ और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया । बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया । अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण उसी समय चटक गये । ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया । इस प्रकार रानी अत्यन्त दुःख पाती हुई एक नदी के तट पर गई तो नदी का समस्त जल सूख गया । तत्पश्‍चात् रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतरकर पानी पीने को गई उसके हाथ का जल मे स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के समान जल असंख्य कीड़ामय गंदा हो गया । रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पी करके पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा, वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिर जाते । वन सरोवर जल की ऐसी दशा देखकर गऊ चराते ग्वालों ने अपने गुसाईं जी से जो उस जंगल मे स्थित मन्दिर में पुजारी थे कही । गुसाईं जी आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुसाईं के पास ले गये । रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुसाईं जान गए कि यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कुलीन स्त्री है । ऐसा सोच कर पुजारी जी ने रानी से कहा कि है पुत्री मैं तुमको अपनी पुत्री के समान रक्खूंगा । तुम मेरे आश्रम में ही रहो मैं तुम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दूंगा । गुसाईं के ऐसे वचन सुनकर रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहनी लगी । परन्तु आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरके लाती उसमें कीड़े पड़ जाते । अब तो गुसाईं जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी! तुम्हारे उपर कौन से देवता का कोप है, जिससे तुम्हारी ऐसी दशा है? पुजारी की बात सुन रानी ने शिवजी महाराज के पूजन वहिष्कार करने की कथा सुनाई तो पुजारी शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए रानी से बोले कि देवी तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो उसके प्रभाव से अपने कष्ट से मुक्त हो सकोगी । गुसाईं की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिवत सम्पन्न किया और सत्रहवे सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के ह्रदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया न जाने कहां- कहां भटकती होगी, ढूंढना चाहिए । यह सोच रानी को तलाश करने के लिए चारों दिशाओं में दूत भेजे । वे दूत रानी को देखते हुए पुजारी के आश्रम में पहूँचे वहॉं रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया । तो दूत चुपचाप लौटे और आकर महाराज के सन्मुख रानी का पता बतलाया । रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज! जो देवी जी आपके आश्रम में रहती हैं वह मेरी पत्‍नी है । शिवजी के कोप से मैंने उसको त्याग दिया था अब इस पर से शिव का प्रकोप शांत हो गया है । इसलिये मैं इन्हें लेने आया हूँ । आप इनको मेरे साथ जाने की आज्ञा दे दीजिए । गुसाईं जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी । गुसाईं जी की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के साथ महल में आई, नगर में अनेक प्रकार के बधावे बजने लगे । नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे तथा नगर को तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से सजाया । घर-घर में मंगल गान होने लगे, पंडितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राज राजी का स्वागत किया । ऐसी अवस्था में रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया, महाराज ने अनेक तरह से ब्राह्मणों को दानादि देकर संतुष्ट किया । याचकों को धन-धान्य दिया । नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये । जहॉं भूखों लोगो को भोजन मिलता था । इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग करते सोमवार व्रत करने लगा । विधिवत् शिव पूजन करते हुए, इस लोक में अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्‍चात शिवपुरी को पधारे, ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्वारा भक्ति सहित सोलह सोमवार का व्रत पूजन इत्यादि विधिवत् करता है वह इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है । यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है ।

॥इति सोलह सोमवार व्रत कथा॥


सोमवार व्रत की आरती-

आरती करत जनक कर जोरे। बड़े भाग्य रामजी घर आए मोरे॥
जीत स्वयंवर धनुष चढ़ाये। सब भूपन के गर्व मिटाए॥
तोरि पिनाक किए दुइ खण्डा। रघुकुल हर्ष रावण मन शंका॥
आइ सिय लिये संग सहेली। हरषि निरख वरमाला मेली॥
गज मोतियन के चौक पुराए। कनक कलश भरि मंगल गाए॥
कंचन थार कपूर की बाती। सुर नर मुनि जन आए बराती।
फिरत भांवरी बाजा बाजे। सिया सहित रघुबीर विराजे॥
धनि-धनि राम लखन दोउ भाई। धनि दशरथ कौशल्या माई॥
राजा दशरथ जनक विदेही। भरत शत्रुघन परम सनेही॥
मिथिलापुर में बाजत बधाई दास मुरारी स्वामी आरती गाई॥