बैकुंठ में श्रीमहाविष्णु का निवास है। उनके भवन में कोई अनाधिकार प्रवेश न करे, इसलिए जय और विजय नामक दो द्वारपाल हमेशा पहरा देते रहते हैं। एक बार सनक महामुनि के साथ कुछ अन्य मुनि श्रीमहाविष्णु के दर्शन करने उनके निवास पर पहुंचे। जय और विजय ने उन्हें महल के भीतर प्रवेश करने से रोका। इस पर मुनियों ने कुपित होकर द्वारपालों को श्राप दिया, "तुम दोनों इसी समय राक्षस बन जाओगे, लेकिन महाविष्णु के हाथों तीन बार मृत्यु को प्राप्त करने के बाद तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी।"
शाम का समय था। महर्षि कश्यप संध्या वंदन अनुष्ठान में निमग्न थे। उस समय महर्षि की पत्नी दिति वासना से प्रेरित हो स्वयं को सब प्रकार से अलंकृत कर अपने पति के समीप पहुंची। कश्यप महर्षि ने दिति को बहुविध समझाया, "देवी, मैं प्रभु की प्रार्थना और संध्या वंदन कार्य में प्रवृत्त हूं, इसलिए काम वासना की पूर्ति करने का यह समय नहीं है।" लेकिन दिति ने हठ किया कि उसकी इच्छा की पूर्ति इसी समय हो जानी चाहिए।
अंत में विवश होकर कश्यप को दिति की इच्छी पूरी करनी पड़ी। दिति गर्भवती हुई। मुनि पत्नी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जय ने हिरण्यक्ष के रूप में और विजय ने हिरण्य कशिपु के रूप में जन्म लिया। इन दोनों के जन्म से प्रजा त्रस्त हो गई। दोनों राक्षस भाइयों ने समस्त लोक को कंपित कर दिया। उनके अत्याचारों की कोई सीमा न रही। समस्त प्रकार के अनर्थो के वे कारणभूत बने।
कालांतर में हिरण्यक्ष व देवताअें के बीच भीषण युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम सीमा पर पहुंचा तब हिरण्यक्ष पृथ्वी को गेंद की तरह लेकर समुद्र तल में पहुंचा। भूमि के अभाव में सर्वत्र केवल जल ही शेष रह गया। इस पर देवताओं ने श्री महाविष्णु के दर्शन करके प्रार्थना की कि वे पृथ्वी को यथास्थान रखें। उस वक्त ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु अपने पिता की सेवा कर रहे थे। अपने पुत्र की सेवाओं से खुश होकर ब्रह्मा ने मनु को सलाह दी, " हे पुत्र! तुम जगदंबा देवी की प्रार्थना करो। उनके आशीर्वाद प्राप्त करो। तुम अवश्य एक दिन प्रजापति बन जाओगे।"
स्वायंभुव ने ब्रह्मा के सुझाव पर जगदम्बा देवी को खुश करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर जगदम्बा प्रत्यक्ष हुई और कहा, "पुत्र! मैं तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और तपस्या पर प्रसन्न हूं। तुम अपना वांछित वर मांगो। मैं अवश्य तुम्हारे मनोरथ की पूर्ति करूंगी।"
स्वायंभुव ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक जगदम्बा से निवेदन किया, "माते! मुझे ऐसा वर दीजिए जिससे मैं बिना किसी प्रकार के प्रतिबंध के सृष्टि की रचना कर सकूं।" जगदम्बा ने स्वायंभुव मनु पर अनुग्रह करके वर प्रदान किया।
स्वायंभुव अपने मनोरथ की सिद्धि पर प्रसन्न हो ब्रह्मा के पास लौट आए और बोले, "पिताजी! मुझे जगदम्बा का अनुग्रह प्राप्त हो गया है। आप मुझे आशीर्वाद देकर ऐसा स्थान बताइए जहां पर मैं सृष्टि-रचना कर सकूं।"
ब्रह्मदेव दुविधा में पड़ गए क्योंकि हिरण्यक्ष पृथ्वी को ढेले के रूप में लपेटकर अपने साथ जल में ले जाकर छिप गया था। ऐसी हालत में सृष्टि की रचना के लिए कहां पर वे उचित स्थान बता सकते थे। सोच-विचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि आदि महाविष्णु ही इस समस्या का समाधान कर सकते हैं।
फिर क्या था, ब्रह्मदेव ने श्री महाविष्णु का ध्यान किया। ध्यान के समय ब्रह्मा ने दीर्घ निश्वास लिया, तब उनकी नासिका से निश्वास के भीतर से एक सूकर निकल आया। वह वायु में स्थित हो क्रमश: अपने शरीर का विस्तार करने लगा। देखते-देखते वह एक विशाल पर्वत के समान परिवर्तित हो गया। सूकर के उस बृहदाकार को देखकर खुद ब्रह्मा विस्मय में पड़ गए।
सूकर ने विशाल रूप धारण करने के बाद हाथी की तरह भयंकर रूप में चिंघाड़ा। उसकी ध्वनि समस्त लोगों में व्याप्त हो गई। मर्त्यलोक और सत्यलोक के निवासी समझ गए कि यह श्रीमहाविष्णु की माया है। सबने आदि महाविष्णु की लीलाओं का स्मरण किया। उसके बाद सूकर रूप को प्राप्त आदि विष्णु चतुर्दिक प्रसन्न दृष्टि प्रसारित कर पुन: भयंकर गर्जन कर जल में कूद पड़े। उस आघात को जल देवता वरुण देव सहन नहीं कर पाए। उन्होंने महाविष्णु से प्रार्थना की, "आदि देव, मेरी रक्षा कीजिए।" ये वचन कहकर वरुणदेव उनकी शरण में आ गए।
सूकर रूपधारी विष्णु जल के भीतर पहुंचे। पृथ्वी को अपने लम्बे दांतों से कसकर पकड़ लिया और उसे जल के ऊपर ले आए। महाविष्णु को पृथ्वी को उठा ले जाते देखकर हिरण्यक्ष ने उनका सामना किया। महाविष्णु ने क्रुद्ध होकर हिरण्यक्ष का वध किया। तब जल पर तैरते हुए पृथ्वी को जल के ऊपर अवस्थित किया फिर पृथ्वी को ग्रह बनाकर जल के मध्य उसे स्थिर किया। पृथ्वी इस रूप में अवतरित हुई जैसे जल के मध्य कमल-पत्र तिर रहा हो।
ब्रह्मदेव ने श्रीमहाविष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की। उसके बाद उन्होंने पृथ्वी पर सृष्टि-रचना के लिए अपने पुत्र स्वायंभुव को उचित स्थान का निर्देश किया। इस तरह निविघ्न सृष्टि-रचना संपन्न हुई।
शाम का समय था। महर्षि कश्यप संध्या वंदन अनुष्ठान में निमग्न थे। उस समय महर्षि की पत्नी दिति वासना से प्रेरित हो स्वयं को सब प्रकार से अलंकृत कर अपने पति के समीप पहुंची। कश्यप महर्षि ने दिति को बहुविध समझाया, "देवी, मैं प्रभु की प्रार्थना और संध्या वंदन कार्य में प्रवृत्त हूं, इसलिए काम वासना की पूर्ति करने का यह समय नहीं है।" लेकिन दिति ने हठ किया कि उसकी इच्छा की पूर्ति इसी समय हो जानी चाहिए।
अंत में विवश होकर कश्यप को दिति की इच्छी पूरी करनी पड़ी। दिति गर्भवती हुई। मुनि पत्नी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जय ने हिरण्यक्ष के रूप में और विजय ने हिरण्य कशिपु के रूप में जन्म लिया। इन दोनों के जन्म से प्रजा त्रस्त हो गई। दोनों राक्षस भाइयों ने समस्त लोक को कंपित कर दिया। उनके अत्याचारों की कोई सीमा न रही। समस्त प्रकार के अनर्थो के वे कारणभूत बने।
कालांतर में हिरण्यक्ष व देवताअें के बीच भीषण युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम सीमा पर पहुंचा तब हिरण्यक्ष पृथ्वी को गेंद की तरह लेकर समुद्र तल में पहुंचा। भूमि के अभाव में सर्वत्र केवल जल ही शेष रह गया। इस पर देवताओं ने श्री महाविष्णु के दर्शन करके प्रार्थना की कि वे पृथ्वी को यथास्थान रखें। उस वक्त ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु अपने पिता की सेवा कर रहे थे। अपने पुत्र की सेवाओं से खुश होकर ब्रह्मा ने मनु को सलाह दी, " हे पुत्र! तुम जगदंबा देवी की प्रार्थना करो। उनके आशीर्वाद प्राप्त करो। तुम अवश्य एक दिन प्रजापति बन जाओगे।"
स्वायंभुव ने ब्रह्मा के सुझाव पर जगदम्बा देवी को खुश करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर जगदम्बा प्रत्यक्ष हुई और कहा, "पुत्र! मैं तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और तपस्या पर प्रसन्न हूं। तुम अपना वांछित वर मांगो। मैं अवश्य तुम्हारे मनोरथ की पूर्ति करूंगी।"
स्वायंभुव ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक जगदम्बा से निवेदन किया, "माते! मुझे ऐसा वर दीजिए जिससे मैं बिना किसी प्रकार के प्रतिबंध के सृष्टि की रचना कर सकूं।" जगदम्बा ने स्वायंभुव मनु पर अनुग्रह करके वर प्रदान किया।
स्वायंभुव अपने मनोरथ की सिद्धि पर प्रसन्न हो ब्रह्मा के पास लौट आए और बोले, "पिताजी! मुझे जगदम्बा का अनुग्रह प्राप्त हो गया है। आप मुझे आशीर्वाद देकर ऐसा स्थान बताइए जहां पर मैं सृष्टि-रचना कर सकूं।"
ब्रह्मदेव दुविधा में पड़ गए क्योंकि हिरण्यक्ष पृथ्वी को ढेले के रूप में लपेटकर अपने साथ जल में ले जाकर छिप गया था। ऐसी हालत में सृष्टि की रचना के लिए कहां पर वे उचित स्थान बता सकते थे। सोच-विचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि आदि महाविष्णु ही इस समस्या का समाधान कर सकते हैं।
फिर क्या था, ब्रह्मदेव ने श्री महाविष्णु का ध्यान किया। ध्यान के समय ब्रह्मा ने दीर्घ निश्वास लिया, तब उनकी नासिका से निश्वास के भीतर से एक सूकर निकल आया। वह वायु में स्थित हो क्रमश: अपने शरीर का विस्तार करने लगा। देखते-देखते वह एक विशाल पर्वत के समान परिवर्तित हो गया। सूकर के उस बृहदाकार को देखकर खुद ब्रह्मा विस्मय में पड़ गए।
सूकर ने विशाल रूप धारण करने के बाद हाथी की तरह भयंकर रूप में चिंघाड़ा। उसकी ध्वनि समस्त लोगों में व्याप्त हो गई। मर्त्यलोक और सत्यलोक के निवासी समझ गए कि यह श्रीमहाविष्णु की माया है। सबने आदि महाविष्णु की लीलाओं का स्मरण किया। उसके बाद सूकर रूप को प्राप्त आदि विष्णु चतुर्दिक प्रसन्न दृष्टि प्रसारित कर पुन: भयंकर गर्जन कर जल में कूद पड़े। उस आघात को जल देवता वरुण देव सहन नहीं कर पाए। उन्होंने महाविष्णु से प्रार्थना की, "आदि देव, मेरी रक्षा कीजिए।" ये वचन कहकर वरुणदेव उनकी शरण में आ गए।
सूकर रूपधारी विष्णु जल के भीतर पहुंचे। पृथ्वी को अपने लम्बे दांतों से कसकर पकड़ लिया और उसे जल के ऊपर ले आए। महाविष्णु को पृथ्वी को उठा ले जाते देखकर हिरण्यक्ष ने उनका सामना किया। महाविष्णु ने क्रुद्ध होकर हिरण्यक्ष का वध किया। तब जल पर तैरते हुए पृथ्वी को जल के ऊपर अवस्थित किया फिर पृथ्वी को ग्रह बनाकर जल के मध्य उसे स्थिर किया। पृथ्वी इस रूप में अवतरित हुई जैसे जल के मध्य कमल-पत्र तिर रहा हो।
ब्रह्मदेव ने श्रीमहाविष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की। उसके बाद उन्होंने पृथ्वी पर सृष्टि-रचना के लिए अपने पुत्र स्वायंभुव को उचित स्थान का निर्देश किया। इस तरह निविघ्न सृष्टि-रचना संपन्न हुई।
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