"ओ तेजोअसि तेजी मे दा स्वाहा, बलमसि बलं मे दा स्वाहा.."आचार्य मार्कन्डय के आश्रम के ब्रह्मचारी अपने दैनिक कर्म में लगे हुए थे। संध्या-वंदन के बाद उनमें कुछ घुस-पुस-सी होने लगी।
आचार्य अभी ध्यान में ही थे। और ब्रह्मचारी अपने नये उत्साह और कौतूहल को दबाए, अपनी उत्तेजना को छिपाए, कानाफूसी करते हुए इधर-उधर टहल रहे थे। उनके यहां कुछ अरब देशों के विद्यार्थी आये हुए थे। बाहर के लोगों के साथ पहला संपर्क था। भोले बालकों को उनकी हर बात पर आश्चर्य हो रहा था।
आचार्य मार्कन्डेय जंगल में रहा करते थे और उनका गुरुकुल उन्हीं के चारों ओर रहा करता था। आचार्य कभी-कभी एक वन में से दूसरे में चले जाया करते थे और उनका कुल भी उनके साथ स्थान बदल लेता था। उन लोगों की आवश्यकताएं कम थीं। सभी प्रकृति के बालक थे और उसी की गोद में पल रहे थे। मोटा-झोटा खा लेते थे और एकगाती धोती बांधे अपने काम में लगे रहते थे। उनके लिए भले आंधी आये, मेघ आये, सभी एक समान था।
दजला और फिरात के किनारे के रहने वाले नये विद्यार्थियों और अध्यापकों को देखकर उनके अंदर कुतूहल जागा। उनका जीवन, उनकी चाल-ढाल, उनके रंग-ढंग, इनसे बिल्कुल भिन्न थे। इन्हें शिक्षा दी गई थी प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखने की, पर आगान्तुक तो शिकार करते और उसका मांस खाते थे। इन्हें शिक्षा मिली थी दिन-रात नित्य-कर्म, आचार्य-सेवा और भगवद्-भजन में लगे रहने की। वर्षा ऋतु में जब कुछ काम न कर पाते तो अनध्याय हो जाता। इसके विपरीत नवागन्तुक हर सप्ताह छुट्टी मनाया करते थे और उस दिन खूब हो-हल्ला करते, मानो सारा आसमान ही सिर पर उठा लेंगे।
नवागन्तुकों के साथ परिचय बढ़ा। ब्रह्मचारी पहले तो उनको कुछ आश्चर्य के साथ देखते रहे, जैसे वे कोई अचम्भे की चीज हों। उसके बाद उनकी कई चीजों की सराहना शुरू हुई। मन में विकार जागा। सोचा, हमारा कठोर जीवन भी कभी-कभी बदल जाया करे तो हमें भी कभी अध्याय और नित्य कर्म से अवकाश मिल जाय!.. मजा आ जाय!
पर आचार्य से यह बात कौन कहे? उनके सुकोमल ह्दय को आघात न लगे कहीं! खैर, कुछ दिन इसी प्रकार बीत गये। आपस में बातचीत तो रोज होती, पर वह कानाफूसी की हद से बाहर न निकल पाती। आखिर एक दिन हिम्मत करके दो-चार ब्रह्मचारी आचार्य के पास जा पहुंचे।
आचार्य ने बड़े प्रेम से उन्हें बिठाया और उनके असमय आने का कारण पूछा। ब्रह्मचारियों के मन में खटक रहा था कि शायद उनकी बात आचार्य को पसंद न आए। जी कड़ा करके एक ने कहा, "आचार्यपद! दजला और फिरात के किनारे से जो विद्यार्थी आये हैं, उनके साथ हमारा काफी मेल-जोल हो गया है। वे भी बहुत सभ्य और सुसंस्कृत देश के नागरिक मालूम होते हैं।"
आचार्य बीच में ही बोले, "हां, ये लोग मुसलमान हैं। उस तरफ के देशों में आजकल आर्य धर्म नहीं चलता। उसकी जगह यहूदी धर्म ने ली थी, फिर ईसा आये और लोग ईसाई बन गये और फिर मुहम्मद के अनुयायियों ने इन सब देशों को मुसलमान बना डाला। पर इन तीनों धर्मो में बहुत समानता है। इन लोगों ने भौतिक विद्याओं में काफी प्रगति कर ली है।"
"गुरुवर! एक ब्रह्मचारी ने कहा, "उन विद्यार्थियों का कहना है कि हमारी कार्य-प्रणाली ठीक नहीं है। वे लोग सप्ताह में छ: दिन काम करते हैं और एक दिन अनध्याय रखते हैं। उस दिन वे खूब मौज करते हैं। उनका कहना है कि इस तरह ज्यादा अच्छा काम होता है.. "
ब्रह्मचारी कहते-कहते रुक गये। आचार्य की आंखों से स्नेह बरस रहा था। उन्होंने कहा, "हां, ये सेमेटिक धर्म मानते हैं कि भगवान ने छ: दिनों या छ: युगों में सृष्टि बनाई थी और सातवें दिन या सातवें युग में विश्राम किया। इस दिन को भगवान् का दिन कह सकते हैं। इस चीज का अनुसरण करते हुए इन धर्मो के आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुष्यों के लिए भी कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए।
"उन्होंने निश्चय किया कि मनुष्य छ: दिन अपना काम-काज करें, अपने व्यक्तिगत कामों में लगा रहे और अहं के द्वारा प्रेरित काम करता रहे, परन्तु सातवें दिन को भगवान् के लिए अलग करके रख दिया जाय। उस दिन अपनी इच्छाओं, कामनाओं और अपने अहं को भूलकर मनुष्य अपने अंदर डुबकी लगाए या अपने ऊपर देखे। उस दिन वह अपने आपको पूरी तरह से अपने स्रोत के साथ, अपने बनाने वालों के साथ, एक कर दे, उसकी चेतना प्राप्त करे और उससे नयी शक्ति का अर्जन करे।
"यह था इन छुट्टियों के आरम्भ का रहस्य। पर इन लोगों ने अपने धर्म की सच्ची सीख को भुला दिया है और इन्होंने यही समझ रखा है कि जीवन का उद्देश्य है खाना-पीना और मौज करना। काम भी करते हैं तो इसी उद्देश्य से और छुट्टी मनाते हैं तो इसी उद्देश्य से। मुझे दिख रहा है कि मानव-जाति इसी गर्त में गिरती जा रही है। वह मौज की, स्वच्छंदता को ही सबकुछ मान बैठी है, परन्तु आर्य लोग जीते हैं तो भगवान् के लिए और मरते हैं तो भी उसी के लिए। हमारा एक-एक काम, चाहे वह पढ़ना हो या लकड़ियां बीनना, वेद-पाठ हो या पानी भरना, भगवान् की सेवा के लिए किया जाता है।
"क्या हम जगज्जननी की सेवा को भार मान सकते हैं? स्वयं भगवान् ने कहा कि जीवन के रहते काम से छुट्टी पाना असम्भव है। काम से छुट्टी पाने का एक ही उपाय है और वह है निर्वाण। पर उसे प्राप्त करने के लिए भी तो सबसे बढ़कर मेहनत करनी पड़ती है। जरा सोचो, भगवान् अगर एक क्षण के लिए छुट्टी ले लें तो!.. हम भी तो उन्हीं का काम कर रहे हैं।" सब ब्रह्मचारी चुप थे। एक शांति का वातावरण छा गया था। अब छुट्टियां कौन मांगता?
आचार्य अभी ध्यान में ही थे। और ब्रह्मचारी अपने नये उत्साह और कौतूहल को दबाए, अपनी उत्तेजना को छिपाए, कानाफूसी करते हुए इधर-उधर टहल रहे थे। उनके यहां कुछ अरब देशों के विद्यार्थी आये हुए थे। बाहर के लोगों के साथ पहला संपर्क था। भोले बालकों को उनकी हर बात पर आश्चर्य हो रहा था।
आचार्य मार्कन्डेय जंगल में रहा करते थे और उनका गुरुकुल उन्हीं के चारों ओर रहा करता था। आचार्य कभी-कभी एक वन में से दूसरे में चले जाया करते थे और उनका कुल भी उनके साथ स्थान बदल लेता था। उन लोगों की आवश्यकताएं कम थीं। सभी प्रकृति के बालक थे और उसी की गोद में पल रहे थे। मोटा-झोटा खा लेते थे और एकगाती धोती बांधे अपने काम में लगे रहते थे। उनके लिए भले आंधी आये, मेघ आये, सभी एक समान था।
दजला और फिरात के किनारे के रहने वाले नये विद्यार्थियों और अध्यापकों को देखकर उनके अंदर कुतूहल जागा। उनका जीवन, उनकी चाल-ढाल, उनके रंग-ढंग, इनसे बिल्कुल भिन्न थे। इन्हें शिक्षा दी गई थी प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखने की, पर आगान्तुक तो शिकार करते और उसका मांस खाते थे। इन्हें शिक्षा मिली थी दिन-रात नित्य-कर्म, आचार्य-सेवा और भगवद्-भजन में लगे रहने की। वर्षा ऋतु में जब कुछ काम न कर पाते तो अनध्याय हो जाता। इसके विपरीत नवागन्तुक हर सप्ताह छुट्टी मनाया करते थे और उस दिन खूब हो-हल्ला करते, मानो सारा आसमान ही सिर पर उठा लेंगे।
नवागन्तुकों के साथ परिचय बढ़ा। ब्रह्मचारी पहले तो उनको कुछ आश्चर्य के साथ देखते रहे, जैसे वे कोई अचम्भे की चीज हों। उसके बाद उनकी कई चीजों की सराहना शुरू हुई। मन में विकार जागा। सोचा, हमारा कठोर जीवन भी कभी-कभी बदल जाया करे तो हमें भी कभी अध्याय और नित्य कर्म से अवकाश मिल जाय!.. मजा आ जाय!
पर आचार्य से यह बात कौन कहे? उनके सुकोमल ह्दय को आघात न लगे कहीं! खैर, कुछ दिन इसी प्रकार बीत गये। आपस में बातचीत तो रोज होती, पर वह कानाफूसी की हद से बाहर न निकल पाती। आखिर एक दिन हिम्मत करके दो-चार ब्रह्मचारी आचार्य के पास जा पहुंचे।
आचार्य ने बड़े प्रेम से उन्हें बिठाया और उनके असमय आने का कारण पूछा। ब्रह्मचारियों के मन में खटक रहा था कि शायद उनकी बात आचार्य को पसंद न आए। जी कड़ा करके एक ने कहा, "आचार्यपद! दजला और फिरात के किनारे से जो विद्यार्थी आये हैं, उनके साथ हमारा काफी मेल-जोल हो गया है। वे भी बहुत सभ्य और सुसंस्कृत देश के नागरिक मालूम होते हैं।"
आचार्य बीच में ही बोले, "हां, ये लोग मुसलमान हैं। उस तरफ के देशों में आजकल आर्य धर्म नहीं चलता। उसकी जगह यहूदी धर्म ने ली थी, फिर ईसा आये और लोग ईसाई बन गये और फिर मुहम्मद के अनुयायियों ने इन सब देशों को मुसलमान बना डाला। पर इन तीनों धर्मो में बहुत समानता है। इन लोगों ने भौतिक विद्याओं में काफी प्रगति कर ली है।"
"गुरुवर! एक ब्रह्मचारी ने कहा, "उन विद्यार्थियों का कहना है कि हमारी कार्य-प्रणाली ठीक नहीं है। वे लोग सप्ताह में छ: दिन काम करते हैं और एक दिन अनध्याय रखते हैं। उस दिन वे खूब मौज करते हैं। उनका कहना है कि इस तरह ज्यादा अच्छा काम होता है.. "
ब्रह्मचारी कहते-कहते रुक गये। आचार्य की आंखों से स्नेह बरस रहा था। उन्होंने कहा, "हां, ये सेमेटिक धर्म मानते हैं कि भगवान ने छ: दिनों या छ: युगों में सृष्टि बनाई थी और सातवें दिन या सातवें युग में विश्राम किया। इस दिन को भगवान् का दिन कह सकते हैं। इस चीज का अनुसरण करते हुए इन धर्मो के आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुष्यों के लिए भी कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए।
"उन्होंने निश्चय किया कि मनुष्य छ: दिन अपना काम-काज करें, अपने व्यक्तिगत कामों में लगा रहे और अहं के द्वारा प्रेरित काम करता रहे, परन्तु सातवें दिन को भगवान् के लिए अलग करके रख दिया जाय। उस दिन अपनी इच्छाओं, कामनाओं और अपने अहं को भूलकर मनुष्य अपने अंदर डुबकी लगाए या अपने ऊपर देखे। उस दिन वह अपने आपको पूरी तरह से अपने स्रोत के साथ, अपने बनाने वालों के साथ, एक कर दे, उसकी चेतना प्राप्त करे और उससे नयी शक्ति का अर्जन करे।
"यह था इन छुट्टियों के आरम्भ का रहस्य। पर इन लोगों ने अपने धर्म की सच्ची सीख को भुला दिया है और इन्होंने यही समझ रखा है कि जीवन का उद्देश्य है खाना-पीना और मौज करना। काम भी करते हैं तो इसी उद्देश्य से और छुट्टी मनाते हैं तो इसी उद्देश्य से। मुझे दिख रहा है कि मानव-जाति इसी गर्त में गिरती जा रही है। वह मौज की, स्वच्छंदता को ही सबकुछ मान बैठी है, परन्तु आर्य लोग जीते हैं तो भगवान् के लिए और मरते हैं तो भी उसी के लिए। हमारा एक-एक काम, चाहे वह पढ़ना हो या लकड़ियां बीनना, वेद-पाठ हो या पानी भरना, भगवान् की सेवा के लिए किया जाता है।
"क्या हम जगज्जननी की सेवा को भार मान सकते हैं? स्वयं भगवान् ने कहा कि जीवन के रहते काम से छुट्टी पाना असम्भव है। काम से छुट्टी पाने का एक ही उपाय है और वह है निर्वाण। पर उसे प्राप्त करने के लिए भी तो सबसे बढ़कर मेहनत करनी पड़ती है। जरा सोचो, भगवान् अगर एक क्षण के लिए छुट्टी ले लें तो!.. हम भी तो उन्हीं का काम कर रहे हैं।" सब ब्रह्मचारी चुप थे। एक शांति का वातावरण छा गया था। अब छुट्टियां कौन मांगता?
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