सूरजमुखी की खेती से विमुख हो रहे किसान


उत्तर प्रदेश की जलवायु और मिट्टी दोनों सूरजमुखी की खेती के अनुकूल है, लेकिन किसानों का इससे मोहभंग होता जा रहा है। या यूं कहें तो उप्र के खेतों में अब सूरजमुखी की बहार नजर नहीं आती। किसानों को बेहतर लाभ देने और तिलहन के संकट में मददगार होने के बावजूद सूरजमुखी की खेती के लिए प्रोत्साहन सरकार नहीं दे पा रही है। सूरजमुखी की बुवाई का क्षेत्रफल 80 प्रतिशत से कम होना सरकार की नीतियों पर भी सवाल खड़ा करता है। उत्तर प्रदेश में नब्बे के दशक में सूरजमुखी की खेती बड़े पैमाने पर होती थी। यह खेती अब केवल कानपुर मंडल तक सिमट कर रह गई है।

कृषि विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि पहले 55 हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सूरजमुखी की खेती होती थी, लेकिन अब यह घटकर पांच से छह हजार हेक्टेयर तक आ गई है। उन्होंने बताया, "तो ऐसा नहीं है कि उप्र की जलवायु और मिट्टी सूरजमुखी की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। औसत उपज में उप्र प्रति हेक्टेयर 1889 किलोग्राम का उत्पादन कर सबसे आगे है। हालांकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में क्षेत्रफल के हिसाब से अधिक खेती होती है। उप्र में इसकी खेती इसलिए नहीं हो पाती कि इसकी बिक्री की व्यवस्था नहीं की गई है।"

कानपुर में सूरजमुखी की खेती से जुड़े एक किसान शिवशंकर त्रिपाठी ने कहा कि सूरजमुखी की पैदावार में कमी नहीं है, बल्कि इसकी बिक्री की व्यवस्था नहीं हो पाती। सरकार ने इस ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया, अन्यथा उप्र में इसकी खेती से किसानों को लाभ पहुंचाया जा सकता था।

किसान और विभाग के वरिष्ठ अधिकारी के दावे को स्वीकार करते हुए कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक प्रो. राजेंद्र कुमार ने बताया, "समय रहते यदि सूरजमुखी का तेल निकालने के लिए उद्योग लगाए गए होते तो किसानों को परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। तिलहन संकट से निपटने के लिए इस ओर ध्यान देकर किसानों को सूरजमुखी की खेती के लिए प्रोत्साहित करना होगा।"

इधर, कृषि विशेषज्ञों की मानें तो सूरजमुखी में तापमान सहने की अदभुत क्षमता होती है। अत्यधिक ठंडे मौसम को छोड़कर सभी माह में सूरजमुखी की बुवाई की जा सकती है। फूल और बीज बनते समय तेज वर्षा व हवा से फसल गिरने का डर बना रहता है। लेकिन यदि फसल बच गई तो 80 से 120 दिनों के बीच यह तैयार हो जाती है।

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