हनुमान जी ने नहीं, देवी के इस श्राप के कारण जलकर ख़ाक हो गई सोने की लंका

नई दिल्ली: लंका दहन की बात हो तो जेहन में झट से हनुमान जी का नाम आ जाता है। लेकिन आज हम आपको लंका दहन के बारे में कुछ ऐसा बताने जा रहे हैं, जो आपने शायद ही पहले कहीं सुना हो। जी हाँ आपको बता दें कि हनुमान ने नहीं बल्कि माता पार्वती के एक श्राप के कारण रावण की सोने की लंका जलकर भष्म हो गई।

पुराणों में उल्लेख है कि एक बार भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी भ्रमण के लिए कैलाश पर्वत पहुँचे। दोनों को आता देख भगवान शिव विह्वल हो उठे। उन्होंने अपने कमर पर लिपटे गजचर्म को अपने सर्प से कमरबंद की भाँति लपेट लिया। नजदीक आते ही भगवान शिव ने विष्णु को गले से लगा लिया। परंतु गरूड़ को देखकर शिव-सर्प संकुचित हो गया जिससे उनकी कमरबंद खिसक गई और भगवान भोलेनाथ नग्न हो गए।
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भगवान शिव को नग्न अवस्था में देख लक्ष्मी और पार्वती बड़ी लज्जित हुई और सिर झुकाकर खड़ी हो गई। स्थिति सामान्य होते ही शिव विष्णु से और लक्ष्मी पार्वती से बातें करने लगी। उस दौरान लक्ष्मी शीत से ठिठुर रही थी। जब उनसे न रहा गया तो उन्होंने पार्वती से कहा कि आप राजकुमारी होते हुए भी इस हिम-पर्वत पर इतने ठंड में कैसे रह रहीं हैं? खैर यह बात यही पर समाप्त हो गई और अन्य बातें शुरू हो गईं।

कुछ दिन बीतने के बाद भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के निमंत्रण पर भगवान शिव और पार्वती बैकुण्ठ गए। वहाँ मोतियों की माला और अन्य वैभव देख पार्वती चकित हुए बिना न रह सकी। बातचीत के दौरान लक्ष्मी जी ने पुनः कैलाश पर शीत से ठिठुरने वाली घटना का ज़िक्र कर दिया। लक्ष्मी की बात को व्यंग्य समझ माता पार्वती आहत हो गई और भगवान शिव से अपने लिए भी घर बनाने की ज़िद करने लगी। उसके पश्चात शिव ने विश्वकर्मा को सुवर्ण जड़ित दिव्य भवन निर्मित करने को कहा। विश्वकर्मा ने शीघ्र ही लंका नगर की रचना की जो शुद्ध सोने से बनी थी। पार्वती के निवेदन पर उस नगर का प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया गया जिसमें समस्त देवी देवताओं को बुलाया गया।

विश्रवा नामक महर्षि ने उस नगर की वास्तुप्रतिष्ठा की। पार्वती ने लक्ष्मी को अपना भवन विशेष चाव से दिखाया। लेकिन जब भगवान शिव ने महर्षि विश्रवा से दक्षिणा माँगने को कहा तो उन्होंने वो नगरी ही माँग ली। शिव ने तत्काल ही स्वर्णनगरी उन्हें दक्षिणा में दे दी। इससे पार्वती बड़ी क्रोधित हुई और उन्होंने विश्रवा को श्राप देते हुए कहा कि तेरी यह नगरी भस्म हो जाएगी। पार्वती के श्राप के कारण ही रावण द्वारा रक्षित वह लंका हनुमान ने फूँक डाली थी।

कहां गायब हो जाता है पातालगंगा का पानी, एक बड़ा रहस्य

स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताललोक के बारे में तो सभी ने सुना होगा। पातालगंगा इस नाम से तो आप भलि-भांति परीचित होंगे। लेकिन क्या आप इसके अजीबो गरीब रहस्यों के बारे में जानते हैं? आंध्र प्रदेश राज्य में एक गुफा स्थित है। कहा जाता है कि इस गुफा के नीचे से पातालगंगा बहती है। इसके बारे में बड़ी अजीब बात यह है कि आज तक किसी को ये नहीं पता लग पाया है कि वह पानी जाता कहां है।

आंध प्रदेश में स्थित कुरनूल शहर से लगभग 106 किमी की दूरी पर स्थित इस प्राचीन गुफा का नाम बेलम है। सर्वेयर रॉबर्ट ब्रुस नामक एक ब्रिटिश ने इस गुफा की खोज सन् 1884 में की थी। करीब 3229 मीटर लंबी इस गुफा के 150 फीट नीचे से पातालगंगा बहती है। लेकिन क्या आपको पता है कि यह पानी केवल कुछ दूर तक ही दिखाई देता है और आगे जाकर गायब हो जाता है। हालांकि यह पानी आगे जाकर कहां गायब हो जाता है ये बात आज भी एक बड़ा रहस्य है।

पुरातात्विक विशेषज्ञों का मानना है कि हजारों वर्ष पूर्व गुफा के नीचे बहने वाले पानी का फ्लो बहुत तेज होगा इसी कारण इस गुफा का निर्माण हुआ होगा। यह अंदाजा इसलिए लगाया जा रहा है क्योंकि आज भी गुफा के अंदर ऐसे कई चट्टान मौजूद हैं जिनसे पानी गिरता है। इसके अलावा इन गुफाओं में बौद्ध और जैन भिक्षुओं से संबंधित अवशेष मिले हैं जिन्हें म्यूजियम में सुरक्षित रखा गया है।

महाभारत की इन राजकुमारियों ने भी बनाया था अनैतिक सम्बन्ध, वजह जानकार रह जाएंगे हैरान

पौराणिक महाकाव्य महाभारत के बारे में जानता तो हर कोई है। यह एक ऐसा शास्‍त्र है जिसके बारे में सबसे ज्‍यादा चर्चा और बातें की जाती है और इस काव्‍य में कई रहस्‍य है जिनके बारे में आजतक सही-सही पता नहीं लग पाया है या फिर बहुत कम लोगों को ही पता है। उदाहरण के लिए राजकुमारियों ने बनाया था बनाना पड़ा अनैतिक संबंध- मतलब पति के होने के बावजूद इन रानी व पटरानियों ने किसी अन्य के साथ यौन सम्बन्ध बनाकर बच्चों को जन्म दिया।

मत्स्यगंधा जो कि महाभारत की एक प्रमुख पात्र हैं। मत्स्यगंधा बाद में सत्यवती के नाम से जानी गई। सत्यवती बहुत सुन्दर थी, इसी कारण शांतनु उनके रूप पर मोहित हो गए और विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात दो पुत्र हुए चित्रांगद और विचित्रवीर्य। सत्यवती के पास एक तीसरा पुत्र भी था जिनका नाम व्यास था। जो बाद में महर्षि व्यास के नाम से जाने गए। सत्यवती ने व्यास को तब जन्म दिया जब वह कुमारी थी। महर्षि व्यास के पिता का नाम ऋषि पराशर था।

महर्षि व्यास ने सत्यवती से जब कहा कि एक राजकुमारी का पुत्र अंधा और दूसरी राजकुमारी का पुत्र रोगी होगा तो सत्यवती ने व्यास से एक बार और राजकुमारियों को व्यास के पास भेजना चाहा, लेकिन राजकुमारियां डर गई थी इसलिए उन्होंने अपनी दासी को व्यास के पास भेज दिया। दासी ने व्यास से गर्भधारण किया जिससे स्वस्थ और ज्ञानी पुत्र विदुर का जन्म हुआ।

सत्यवती के पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य का विवाह अंबिका और अंबालिका से हुआ, परन्तु विवाह के कुछ ही दिनों बाद चित्रांगद और विचित्रवीर्य की मृत्यु हो गई। भीष्म ने आजीवन विवाह नहीं करने की प्रतिज्ञा की थी। अपनी वंश-रेखा को मिटते देख सत्यवती ने इन दोनों राजकुमारियों को अपने तीसरे पुत्र व्यास से संतान उत्पन्न करने के लिए कहा। सत्यवती की आज्ञा से इन दोनों राजकुमारियों ने महर्षि व्यास से गर्भ धारण किया जिससे धृतराष्ट्र और पाण्डु का जन्म हुआ।

कुंती के नाम से तो हर कोई वाकिफ है। राजकुमारी कुंती की जो बाद में महाराज पांडु की पत्नी और कुरूवंश की महारानी बनी। एक ऋषि के शाप से पांडु की कोई संतान नहीं थी। तब पांडु की आज्ञा से कुंती ने, पवनदेव और इंद्र से गर्भ धारण किया और तीन पुत्रों को जन्म दिया जो युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन कहलाए। पांड़ु की एक अन्य पत्नी थी मादरी। पांड़ु की आज्ञा से इन्होंने अश्विनी कुमारों का आह्वान किया और उनसे नकुल और सहदेव को जन्म दिया।

वर्ष 2017 के व्रत, पर्व व त्यौहार


नववर्ष 2017 के आगमन में अब कुछ ही माह शेष रह गये है। इसलिए हम आपके लिए वर्ष 2017 के व्रत, पर्व और त्यौहार की सूची लाए हैं–

वर्ष 2017, 2017 के पर्व, 2017 के त्यौहार, साल 2017

जनवरी माह
01 जनवरी (रविवार) – अंग्रेज़ी नव वर्ष
02 जनवरी (सोमवार) – विनायक चतुर्थी
03 जनवरी (मंगलवार) – स्कन्द षष्ठी
05 जनवरी (बृहस्पतिवार) – गुरु गोबिन्द सिंह जयन्ती
06 जनवरी (शुक्रवार) – मासिक दुर्गाष्टमी, शाकम्भरी उत्सवारम्भ
08 जनवरी (रविवार) – पौष पुत्रदा एकादशी, तैलंग स्वामी जयन्ती, मासिक कार्तिगाई
09 जनवरी (सोमवार) – गौण पौष पुत्रदा एकादशी, वैष्णव पौष पुत्रदा एकादशी, कूर्म द्वादशी
10 जनवरी (मंगलवार) – प्रदोष व्रत, रोहिणी व्रत
11 जनवरी (बुधवार) – अरुद्र दर्शन
12 जनवरी (बृहस्पतिवार) – पौष पूर्णिमा, शाकम्भरी पूर्णिमा, पूर्णिमा उपवास
13 जनवरी (शुक्रवार) – माघ प्रारम्भ "उत्तर, लोहड़ी
14 जनवरी (शनिवार) – पोंगल, मकर संक्रान्ति
15 जनवरी (रविवार) – संकष्टी चतुर्थी, सकट चौथ, माघ बिहु
19 जनवरी (बृहस्पतिवार) – स्वामी विवेकानन्द जयन्ती, कालाष्टमी
23 जनवरी (सोमवार) – षटतिला एकादशी, सुभाष चन्द्र बोस जयन्ती
25 जनवरी (बुधवार) – प्रदोष व्रत, मेरु त्रयोदशी
26 जनवरी (बृहस्पतिवार) – मासिक शिवरात्रि, 68 वाँ गणतन्त्र दिवस
27 जनवरी (शुक्रवार) – माघ अमावस्या, दर्श अमावस्या, मौनी अमावस, थाई अमावसाइ
28 जनवरी (शनिवार) – गुप्त नवरात्रि प्रारम्भ
29 जनवरी (रविवार) – चन्द्र दर्शन
31 जनवरी (मंगलवार) – विनायक चतुर्थी, गणेश जयन्ती

Read in English : Indian Festivals 2017 with Holidays List

फरवरी माह
01 फरवरी (बुधवार) – वसन्त पञ्चमी
02 फरवरी (बृहस्पतिवार) – स्कन्द षष्ठी
03 फरवरी (शुक्रवार) – रथ सप्तमी, नर्मदा जयन्ती
04 फरवरी (शनिवार) – भीष्म अष्टमी, मासिक दुर्गाष्टमी
05 फरवरी (रविवार) – मासिक कार्तिगाई
06 फरवरी (सोमवार) – रोहिणी व्रत
07 फरवरी (मंगलवार) – जया एकादशी, भीष्म द्वादशी
08 फरवरी (बुधवार) – प्रदोष व्रत
10 फरवरी (शुक्रवार) – माघ पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, पूर्णिमा उपवास, गुरु रविदास जयन्ती, ललिता जयन्ती, थाई पूसम
11 फरवरी (शनिवार) – फाल्गुन प्रारम्भ "उत्तर
12 फरवरी (रविवार) – कुम्भ संक्रान्ति
14 फरवरी (मंगलवार) – संकष्टी चतुर्थी, संत वेलेनटाइन डे
17 फरवरी (शुक्रवार) – यशोदा जयन्ती
18 फरवरी (शनिवार) – शबरी जयन्ती, कालाष्टमी
19 फरवरी (रविवार) – जानकी जयन्ती
21 फरवरी (मंगलवार) – महर्षि दयानन्द सरस्वती जयन्ती
22 फरवरी (बुधवार) – विजया एकादशी
24 फरवरी (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत
25 फरवरी (शनिवार) – महाशिवरात्री
26 फरवरी (रविवार) – फाल्गुन अमावस्या, दर्श अमावस्या, सूर्य ग्रहण
27 फरवरी (सोमवार) – चन्द्र दर्शन
28 फरवरी (मंगलवार) – फुलैरा दूज, रामकृष्ण जयन्ती

मार्च माह
02 मार्च (बृहस्पतिवार) – विनायक चतुर्थी
03 मार्च (शुक्रवार) – स्कन्द षष्ठी
04 मार्च (शनिवार) – अष्टाह्निका विधान प्रारम्भ, मासिक कार्तिगाई
05 मार्च (रविवार) – मासिक दुर्गाष्टमी, रोहिणी व्रत
08 मार्च (बुधवार) – आमलकी एकादशी
09 मार्च (बृहस्पतिवार) – नरसिंह द्वादशी
10 मार्च (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत
11 मार्च (शनिवार) – चौमासी चौदस, मासी मागम
12 मार्च (रविवार) – छोटी होली, होलिका दहन, वसन्त पूर्णिमा, दोल पूर्णिमा, पूर्णिमा उपवास, अष्टाह्निका विधान पूर्ण, फाल्गुन पूर्णिमा, लक्ष्मी जयन्ती, चैतन्य महाप्रभु जयन्ती, अट्टुकल पोंगल
13 मार्च (सोमवार) – होली, चैत्र प्रारम्भ "उत्तर
14 मार्च (मंगलवार) – भाई दूज, भ्रातृ द्वितीया, मीन संक्रान्ति, कारादाइयन नौम्बू
15 मार्च (बुधवार) – शिवाजी जयन्ती
16 मार्च (बृहस्पतिवार) – संकष्टी चतुर्थी
17 मार्च (शुक्रवार) – रंग पञ्चमी
19 मार्च (रविवार) – भानु सप्तमी, शीतला सप्तमी
20 मार्च (सोमवार) – बसोड़ा, शीतला अष्टमी, कालाष्टमी, वसन्त सम्पात
21 मार्च (मंगलवार) – वर्षी तप आरम्भ
24 मार्च (शुक्रवार) – पापमोचिनी एकादशी
25 मार्च (शनिवार) – प्रदोष व्रत, शनि त्रयोदशी
26 मार्च (रविवार) – मासिक शिवरात्रि
27 मार्च (सोमवार) – दर्श अमावस्या
28 मार्च (मंगलवार) – चैत्र अमावस्या, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा, युगादी
29 मार्च (बुधवार) – चन्द्र दर्शन, झूलेलाल जयन्ती
30 मार्च (बृहस्पतिवार) – गौरीपूजा, गणगौर, मत्स्य जयन्ती
31 मार्च (शुक्रवार) – विनायक चतुर्थी

अप्रैल माह
01 अप्रैल (शनिवार) – लक्ष्मी पञ्चमी, स्कन्द षष्ठी, बैंक अवकाश, रोहिणी व्रत
02 अप्रैल (रविवार) – यमुना छठ
03 अप्रैल (सोमवार) – नवपद ओली प्रारम्भ
04 अप्रैल (मंगलवार) – मासिक दुर्गाष्टमी, महातारा जयन्ती
05 अप्रैल (बुधवार) – राम नवमी
07 अप्रैल (शुक्रवार) – कामदा एकादशी, वामन द्वादशी
08 अप्रैल (शनिवार) – प्रदोष व्रत, शनि त्रयोदशी
09 अप्रैल (रविवार) – महावीर स्वामी जयन्ती, पैन्गुनी उथिरम
10 अप्रैल (सोमवार) – पूर्णिमा उपवास, हजरत अली का जन्मदिन
11 अप्रैल (मंगलवार) – हनुमान जयन्ती, चैत्र पूर्णिमा, नवपद ओली पूर्ण
12 अप्रैल (बुधवार) – वैशाख प्रारम्भ "उत्तर
14 अप्रैल (शुक्रवार) – संकष्टी चतुर्थी, सोलर नववर्ष, मेष संक्रान्ति, बैसाखी, पुथन्डू, विषु कानी, अम्बेडकर जयन्ती, गुड फ्राइडे
15 अप्रैल (शनिवार) – पहेला वैशाख
16 अप्रैल (रविवार) – ईस्टर
19 अप्रैल (बुधवार) – कालाष्टमी
22 अप्रैल (शनिवार) – बरूथिनी एकादशी, वल्लभाचार्य जयन्ती
23 अप्रैल (रविवार) – वैष्णव बरूथिनी एकादशी
24 अप्रैल (सोमवार) – प्रदोष व्रत, मासिक शिवरात्रि
26 अप्रैल (बुधवार) – वैशाख अमावस्या, दर्श अमावस्या
27 अप्रैल (बृहस्पतिवार) – चन्द्र दर्शन
28 अप्रैल (शुक्रवार) – परशुराम जयन्ती, अक्षय तृतीया, वर्षी तप पारण
29 अप्रैल (शनिवार) – मातङ्गी जयन्ती, विनायक चतुर्थी, रोहिणी व्रत
30 अप्रैल (रविवार) – शंकराचार्य जयन्ती, सूरदास जयन्ती

मई माह
01 मई (सोमवार) – स्कन्द षष्ठी, रामानुज जयन्ती
02 मई (मंगलवार) – गंगा सप्तमी
03 मई (बुधवार) – मासिक दुर्गाष्टमी, बगलामुखी जयन्ती
04 मई (बृहस्पतिवार) – सीता नवमी, अग्नि नक्षत्रम् प्रारम्भ
05 मई (शुक्रवार) – महावीर स्वामी कैवल्य ज्ञान, थ्रिस्सूर पूरम
06 मई (शनिवार) – मोहिनी एकादशी
07 मई (रविवार) – परशुराम द्वादशी, रबीन्द्रनाथ टैगोर जयन्ती
08 मई (सोमवार) – प्रदोष व्रत
09 मई (मंगलवार) – नरसिंघ जयन्ती, छिन्नमस्ता जयन्ती, टैगोर जयन्ती "बंगाल
10 मई (बुधवार) – वैशाख पूर्णिमा, कूर्म जयन्ती, बुद्ध पूर्णिमा, पूर्णिमा उपवास, चित्रा पूर्णनामी
11 मई (बृहस्पतिवार) – ज्येष्ठ प्रारम्भ "उत्तर, नारद जयन्ती
14 मई (रविवार) – संकष्टी चतुर्थी, वृषभ संक्रान्ति
18 मई (बृहस्पतिवार) – कालाष्टमी
21 मई (रविवार) – हनुमान जयन्ती "तेलुगू
22 मई (सोमवार) – अपरा एकादशी
23 मई (मंगलवार) – प्रदोष व्रत
24 मई (बुधवार) – मासिक शिवरात्रि
25 मई (बृहस्पतिवार) – ज्येष्ठ अमावस्या, दर्श-भावुका अमावस्या, शनि जयन्ती, वट सावित्री व्रत
26 मई (शुक्रवार) – रोहिणी व्रत
27 मई (शनिवार) – चन्द्र दर्शन
28 मई (रविवार) – महाराणा प्रताप जयन्ती, अग्नि नक्षत्रम् समाप्त
29 मई (सोमवार) – विनायक चतुर्थी
30 मई (मंगलवार) – स्कन्द षष्ठी

जून माह
02 जून (शुक्रवार) – मासिक दुर्गाष्टमी, धूमावती जयन्ती
03 जून (शनिवार) – महेश नवमी, गंगा दशहरा
05 जून (सोमवार) – गायत्री जयन्ती, निर्जला एकादशी, रामलक्ष्मण द्वादशी
06 जून (मंगलवार) – प्रदोष व्रत
07 जून (बुधवार) – वैकासी विसाकम
08 जून (बृहस्पतिवार) – वट पूर्णिमा व्रत
09 जून (शुक्रवार) – ज्येष्ठ पूर्णिमा, पूर्णिमा उपवास, कबीरदास जयन्ती
10 जून (शनिवार) – आषाढ़ प्रारम्भ "उत्तर
13 जून (मंगलवार) – संकष्टी चतुर्थी
15 जून (बृहस्पतिवार) – मिथुन संक्रान्ति
17 जून (शनिवार) – कालाष्टमी
20 जून (मंगलवार) – योगिनी एकादशी
21 जून (बुधवार) – प्रदोष व्रत, साल का सबसे बड़ा दिन
22 जून (बृहस्पतिवार) – मासिक शिवरात्रि
23 जून (शुक्रवार) – दर्श अमावस्या, जमात उल-विदा, रोहिणी व्रत
24 जून (शनिवार) – आषाढ़ अमावस्या, गुप्त नवरात्रि प्रारम्भ
25 जून (रविवार) – चन्द्र दर्शन, जगन्नाथ रथयात्रा
26 जून (सोमवार) – ईद उल-फ़ित्र, रमज़ान
27 जून (मंगलवार) – विनायक चतुर्थी
28 जून (बुधवार) – स्कन्द षष्ठी
30 जून (शुक्रवार) – अष्टाह्निका विधान प्रारम्भ

जुलाई माह
01 जुलाई (शनिवार) – मासिक दुर्गाष्टमी
04 जुलाई (मंगलवार) – देवशयनी एकादशी
05 जुलाई (बुधवार) – गौरी व्रत प्रारम्भ "गुजरात, वासुदेव द्वादशी
06 जुलाई (बृहस्पतिवार) – प्रदोष व्रत, जयापार्वती व्रत प्रारम्भ
07 जुलाई (शुक्रवार) – चौमासी चौदस
08 जुलाई (शनिवार) – कोकिला व्रत "गुजरात, पूर्णिमा उपवास
09 जुलाई (रविवार) – व्यास पूजा, आषाढ़ पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, गौरी व्रत समाप्त "गुजरात, अष्टाह्निका विधान पूर्ण
10 जुलाई (सोमवार) – सावन प्रारम्भ "उत्तर, श्रावण सोमवार व्रत "उत्तर
11 जुलाई (मंगलवार) – मंगला गौरी व्रत "उत्तर
12 जुलाई (बुधवार) – जयापार्वती व्रत समाप्त, संकष्टी चतुर्थी
16 जुलाई (रविवार) – भानु सप्तमी, कालाष्टमी, कर्क संक्रान्ति
17 जुलाई (सोमवार) – श्रावण सोमवार व्रत "उत्तर
18 जुलाई (मंगलवार) – मंगला गौरी व्रत "उत्तर
19 जुलाई (बुधवार) – कामिका एकादशी, मासिक कार्तिगाई
20 जुलाई (बृहस्पतिवार) – गौण कामिका एकादशी, वैष्णव कामिका एकादशी, रोहिणी व्रत
21 जुलाई (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत, सावन शिवरात्रि
23 जुलाई (रविवार) – श्रावण अमावस्या, दर्श अमावस्या, हरियाली अमावस्या, आदि अमावसाइ
24 जुलाई (सोमवार) – चन्द्र दर्शन, श्रावण सोमवार व्रत
25 जुलाई (मंगलवार) – मंगला गौरी व्रत
26 जुलाई (बुधवार) – हरियाली तीज, विनायक चतुर्थी, अन्दल जयन्थी
27 जुलाई (बृहस्पतिवार) – नाग पञ्चमी
28 जुलाई (शुक्रवार) – कल्की जयन्ती, स्कन्द षष्ठी, ऋग्वेद उपाकर्म, यजुर्वेद उपाकर्म
29 जुलाई (शनिवार) – गायत्री जापम
30 जुलाई (रविवार) – भानु सप्तमी, तुलसीदास जयन्ती
31 जुलाई (सोमवार) – मासिक दुर्गाष्टमी, श्रावण सोमवार व्रत

अगस्त माह
01 अगस्त (मंगलवार) – मंगला गौरी व्रत
02 अगस्त (बुधवार) – आदि पेरुक्कू
03 अगस्त (बृहस्पतिवार) – श्रावण पुत्रदा एकादशी, दामोदर द्वादशी
04 अगस्त (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत, वरलक्ष्मी व्रत
07 अगस्त (सोमवार) – श्रावण पूर्णिमा, राखी, रक्षा बन्धन, गायत्री जयन्ती, नारली पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण,पूर्णिमा उपवास, हयग्रीव जयन्ती, संस्कृत दिवस, श्रावण सोमवार व्रत
08 अगस्त (मंगलवार) – भाद्रपद प्रारम्भ "उत्तर
10 अगस्त (बृहस्पतिवार) – कजरी तीज
11 अगस्त (शुक्रवार) – संकष्टी चतुर्थी, संकटहरा चतुर्थी "तमिल, बोल चौथ "गुजरात
12 अगस्त (शनिवार) – नाग पञ्चम "गुजरात
13 अगस्त (रविवार) – बलराम जयन्ती, रांधण छठ "गुजरात
14 अगस्त (सोमवार) – शीतला सातम "गुजरात, जन्माष्टमी "स्मार्त, कालाष्टमी, आद्याकाली जयन्ती
15 अगस्त (मंगलवार) – जन्माष्टमी "इस्कॉन, दही हाण्डी, मासिक कार्तिगाई, स्वतन्त्रता दिवस
16 अगस्त (बुधवार) – रोहिणी व्रत
17 अगस्त (बृहस्पतिवार) – सिंह संक्रान्ति, मलयालम नव वर्ष
18 अगस्त (शुक्रवार) – अजा एकादशी
19 अगस्त (शनिवार) – पर्यूषण पर्वारम्भ, प्रदोष व्रत, शनि त्रयोदशी
20 अगस्त (रविवार) – मासिक शिवरात्रि
21 अगस्त (सोमवार) – भाद्रपद अमावस्या, दर्श अमावस्या, पिठोरी अमावस्या, पोला, वृषभोत्सव,सोमवती अमावस, सूर्य ग्रहण
23 अगस्त (बुधवार) – चन्द्र दर्शन
24 अगस्त (बृहस्पतिवार) – वराह जयन्ती, हरतालिका तीज, गौरी हब्बा
25 अगस्त (शुक्रवार) – सामवेद उपाकर्म, गणेश चतुर्थी
26 अगस्त (शनिवार) – ऋषि पञ्चमी, सम्वत्सरी पर्व
27 अगस्त (रविवार) – स्कन्द षष्ठी
28 अगस्त (सोमवार) – ललिता सप्तमी
29 अगस्त (मंगलवार) – गौरी आवाहन, राधा अष्टमी, मासिक दुर्गाष्टमी, महालक्ष्मी व्रत आरम्भ, दूर्वा अष्टमी
30 अगस्त (बुधवार) – गौरी पूजा
31 अगस्त (बृहस्पतिवार) – गौरी विसर्जन

सितम्बर माह
02 सितम्बर (शनिवार) – परिवर्तिनी एकादशी, कल्की द्वादशी, ईद-उल-जुहा, बकरीद
03 सितम्बर (रविवार) – वामन जयन्ती, भुवनेश्वरी जयन्ती, प्रदोष व्रत
04 सितम्बर (सोमवार) – ओणम
05 सितम्बर (मंगलवार) – अनन्त चतुर्दशी, गणेश विसर्जन, पूर्णिमा उपवास, पूर्णिमा श्राद्ध
06 सितम्बर (बुधवार) – भाद्रपद पूर्णिमा, प्रतिपदा श्राद्ध
07 सितम्बर (बृहस्पतिवार) – आश्विन प्रारम्भ "उत्तर, द्वितीया श्राद्ध
08 सितम्बर (शुक्रवार) – तृतीया श्राद्ध
09 सितम्बर (शनिवार) – चतुर्थी श्राद्ध, संकष्टी चतुर्थी
10 सितम्बर (रविवार) – महा भरणी, पञ्चमी श्राद्ध
11 सितम्बर (सोमवार) – षष्ठी श्राद्ध, मासिक कार्तिगाई
12 सितम्बर (मंगलवार) – सप्तमी श्राद्ध, महालक्ष्मी व्रत पूर्ण, रोहिणी व्रत
13 सितम्बर (बुधवार) – अष्टमी श्राद्ध, जीवितपुत्रिका व्रत, कालाष्टमी, अष्टमी रोहिणी
14 सितम्बर (बृहस्पतिवार) – नवमी श्राद्ध
15 सितम्बर (शुक्रवार) – दशमी श्राद्ध
16 सितम्बर (शनिवार) – इन्दिरा एकादशी, एकादशी श्राद्ध
17 सितम्बर (रविवार) – द्वादशी श्राद्ध, त्रयोदशी श्राद्ध, प्रदोष व्रत, कन्या संक्रान्ति, विश्वकर्मा पूजा
18 सितम्बर (सोमवार) – मघा श्राद्ध, चतुर्दशी श्राद्ध, मासिक शिवरात्रि
19 सितम्बर (मंगलवार) – सर्वपित्री दर्श अमावस्या, सर्वपित्रू अमावस्या
20 सितम्बर (बुधवार) – अश्विन अमावस्या
21 सितम्बर (बृहस्पतिवार) – चन्द्र दर्शन, नवरात्रि प्रारम्भ, घटस्थापना, महाराजा अग्रसेन जयन्ती
22 सितम्बर (शुक्रवार) – अल-हिजरा, इस्लामी नया साल
23 सितम्बर (शनिवार) – विनायक चतुर्थी, शरद्कालीन सम्पात
24 सितम्बर (रविवार) – ललिता पञ्चमी
25 सितम्बर (सोमवार) – स्कन्द षष्ठी
26 सितम्बर (मंगलवार) – बिल्व निमन्त्रण, कल्पारम्भ, अकाल बोधन
27 सितम्बर (बुधवार) – सरस्वती आवाहन, नवपत्रिका पूजा, नवपद ओली प्रारम्भ
28 सितम्बर (बृहस्पतिवार) – सरस्वती पूजा, दुर्गा अष्टमी, सन्धि पूजा
29 सितम्बर (शुक्रवार) – महा नवमी, दुर्गा बलिदान, आयुध पूजा, दक्षिण सरस्वती पूजा, बंगाल महा नवमी
30 सितम्बर (शनिवार) – सरस्वती बलिदान, सरस्वती विसर्जन, दुर्गा विसर्जन, दशहरा, विजयदशमी, बंगाल विजयदशमी, मैसूर दसरा, विद्याआरम्भम् का दिन, बुद्ध जयन्ती, मध्वाचार्य जयन्ती

अक्टूबर माह
01 अक्टूबर (रविवार) – पापांकुशा एकादशी, अशुरा का दिन, मुहर्रम
02 अक्टूबर (सोमवार) – पद्मनाभ द्वादशी, गाँधी जयन्ती
03 अक्टूबर (मंगलवार) – प्रदोष व्रत
05 अक्टूबर (बृहस्पतिवार) – अश्विन पूर्णिमा, कोजागर पूजा, शरद पूर्णिमा, पूर्णिमा उपवास, वाल्मीकि जयन्ती, मीराबाई जयन्ती, नवपद ओली पूर्ण
06 अक्टूबर (शुक्रवार) – कार्तिक प्रारम्भ "उत्तर
08 अक्टूबर (रविवार) – अट्ल तद्दी, करवा चौथ, संकष्टी चतुर्थी, मासिक कार्तिगाई
10 अक्टूबर (मंगलवार) – रोहिणी व्रत
12 अक्टूबर (बृहस्पतिवार) – अहोई अष्टमी, राधा कुण्ड स्नान, कालाष्टमी
15 अक्टूबर (रविवार) – रमा एकादशी
16 अक्टूबर (सोमवार) – गोवत्स द्वादशी
17 अक्टूबर (मंगलवार) – धन तेरस, यम पञ्चक प्रारम्भ, यम दीपम, प्रदोष व्रत, तुला संक्रान्ति
18 अक्टूबर (बुधवार) – नरक चतुर्दशी, तमिल दीपावली, काली चौदस, हनुमान पूजा, मासिक शिवरात्रि
19 अक्टूबर (बृहस्पतिवार) – दीवाली, लक्ष्मी पूजा, दीपमालिका, केदार गौरी व्रत, चोपड़ा पूजा, शारदा पूजा, काली पूजा, कमला जयन्ती, कार्तिक अमावस्या, दर्श अमावस्या
20 अक्टूबर (शुक्रवार) – गोवर्धन पूजा, अन्नकूट, बलि प्रतिपदा, द्यूत क्रीडा, नव सम्वत प्रारम्भ
21 अक्टूबर (शनिवार) – चन्द्र दर्शन, भैया दूज, यम द्वितीया
23 अक्टूबर (सोमवार) – नागुला चविति "तेलुगू, विनायक चतुर्थी
25 अक्टूबर (बुधवार) – लाभ पञ्चमी, सूर सम्हारम
26 अक्टूबर (बृहस्पतिवार) – छट पूजा
27 अक्टूबर (शुक्रवार) – अष्टाह्निका विधान प्रारम्भ
28 अक्टूबर (शनिवार) – गोपाष्टमी, मासिक दुर्गाष्टमी
29 अक्टूबर (रविवार) – अक्षय नवमी, जगद्धात्री पूजा
30 अक्टूबर (सोमवार) – कंस वध
31 अक्टूबर (मंगलवार) – देवुत्थान एकादशी, भीष्म पञ्चक प्रारम्भ

नवम्बर माह
01 नवम्बर (बुधवार) – तुलसी विवाह, योगेश्वर द्वादशी, प्रदोष व्रत
02 नवम्बर (बृहस्पतिवार) – वैकुण्ठ चतुर्दशी, विश्वेश्वर व्रत
03 नवम्बर (शुक्रवार) – मणिकर्णिका स्नान, चौमासी चौदस, देव दीवाली
04 नवम्बर (शनिवार) – कार्तिक पूर्णिमा, पुष्कर स्नान, पूर्णिमा उपवास, गुरु नानक जयन्ती, भीष्म पञ्चक समाप्त, अष्टाह्निका विधान पूर्ण, रथ यात्रा
05 नवम्बर (रविवार) – मार्गशीर्ष प्रारम्भ "उत्तर, मासिक कार्तिगाई
06 नवम्बर (सोमवार) – रोहिणी व्रत
07 नवम्बर (मंगलवार) – संकष्टी चतुर्थी
10 नवम्बर (शुक्रवार) – कालभैरव जयन्ती
14 नवम्बर (मंगलवार) – उत्पन्ना एकादशी, नेहरू जयन्ती
15 नवम्बर (बुधवार) – प्रदोष व्रत, अयप्पा उत्सव (15 नवम्बर से 14 जनवरी तक)
16 नवम्बर (बृहस्पतिवार) – मासिक शिवरात्रि, वृश्चिक संक्रान्ति, मण्डला काल प्रारम्भ
18 नवम्बर (शनिवार) – मार्गशीर्ष अमावस्या, दर्श अमावस्या
19 नवम्बर (रविवार) – चन्द्र दर्शन
22 नवम्बर (बुधवार) – विनायक चतुर्थी
23 नवम्बर (बृहस्पतिवार) – विवाह पञ्चमी, नाग पञ्चमी "तेलुगू
24 नवम्बर (शुक्रवार) – सुब्रहमन्य षष्ठी, चम्पा षष्ठी
26 नवम्बर (रविवार) – भानु सप्तमी
27 नवम्बर (सोमवार) – मासिक दुर्गाष्टमी
30 नवम्बर (बृहस्पतिवार) – मोक्षदा एकादशी, गीता जयन्ती, मत्स्य द्वादशी, गुरुवायुर एकादशी

दिसम्बर
01 दिसम्बर (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत, हनुमान जयन्ती "कन्नड़, मिलाद उन-नबी, ईद-ए-मिलाद
02 दिसम्बर (शनिवार) – कार्तिगाई दीपम्
03 दिसम्बर (रविवार) – मार्गशीर्ष पूर्णिमा, दत्तात्रेय जयन्ती, पूर्णिमा उपवास, अन्नपूर्णा जयन्ती, त्रिपुर भैरवी जयन्ती, रोहिणी व्रत
04 दिसम्बर (सोमवार) – पौष प्रारम्भ "उत्तर
06 दिसम्बर (बुधवार) – संकष्टी चतुर्थी
10 दिसम्बर (रविवार) – कालाष्टमी
13 दिसम्बर (बुधवार) – सफला एकादशी
15 दिसम्बर (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत
16 दिसम्बर (शनिवार) – मासिक शिवरात्रि, धनु संक्रान्ति
17 दिसम्बर (रविवार) – दर्शवेला अमावस्या
18 दिसम्बर (सोमवार) – पौष अमावस्या, सोमवती अमावस, हनुमथ जयन्थी
19 दिसम्बर (मंगलवार) – चन्द्र दर्शन
21 दिसम्बर (बृहस्पतिवार) – साल का सबसे छोटा दिन
22 दिसम्बर (शुक्रवार) – विनायक चतुर्थी
24 दिसम्बर (रविवार) – स्कन्द षष्ठी
25 दिसम्बर (सोमवार) – गुरु गोबिन्द सिंह जयन्ती, मेरी क्रिसमस
26 दिसम्बर (मंगलवार) – मासिक दुर्गाष्टमी, शाकम्भरी उत्सवारम्भ, मण्डला पूजा
29 दिसम्बर (शुक्रवार) – पौष पुत्रदा एकादशी, तैलंग स्वामी जयन्ती, वैकुण्ठ एकादशी
30 दिसम्बर (शनिवार) – कूर्म द्वादशी, प्रदोष व्रत, शनि त्रयोदशी
31 दिसम्बर (रविवार) – रोहिणी व्रत -

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इस मंदिर के बारे में सुनकर रह जायेंगे हैरान


भगवान शिव को सभी विद्याओं के ज्ञाता होने के कारण जगत गुरु भी कहा गया है। भोले शंकर की आराधना से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। शिव की आराधना किसी भी रूप में की जा सकती है। आज आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे भूत ने एक ही रात में बना दिया था। यह सुनने में थोड़ा अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन यह सच है। यह मंदिर है काठियावाड़, गुजरात का नवलखा मंदिर। जहाँ की सुन्दरता को देखकर आपका भी मन मोहित हो जाएगा।

बताया जाता है कि यह मंदिर करीब ढाई सौ साल पहले बाबरा नाम के एक भूत ने किया था, जिसे उसने मात्र एक रात में बनाकर खड़ा किया था। यह नवलखा मंदिर सोमनाथ के ज्योतिलिंग के समान ही बहुत ऊंचा है, जिसे जीर्णोद्धार करके ठीक किया गया है। यह मंदिर एक भूत द्वारा भले ही बनाया गया है, पर इसकी सुन्दरता देखते ही बनती है। इस मंदिर के चारों ओर  नग्न-अद्र्धनग्न नवलाख मूर्तियों के शिल्प हैं, जिसे 16 कोने वाली नींव के आधार पर निर्मित किया गया है।

इस मंदिर के अन्दर सभा-मंडप, गर्भगृह और प्रदक्षिणा पथ जैसी जगहें बनाई गई है। जिसकी छत अश्त्कोनी और गुम्बज विशाल है। इस मंदिर के बारे में प्रचलित कहानी की वजह से यहाँ पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है। 

सीता ही नहीं इन स्त्रियों पर भी थी रावण की बुरी नज़र


वैसे तो टेलीविजन पर रामायण सबने देखी होगी लेकिन रावण से जुड़े हुए कुछ रहस्य हममें से बहुत कम लोग जानते होंगे। आज हम आपको रावण से जुड़े कई ऐसे रहस्य बताने जा रहे हैं जिसे शायद आप लोग न जानते होंगे। सबसे पहली बात यह कि रावण का नाम रावण नहीं था। यह एक पद था, राक्षसों के महाराजा को रावण पद से अलंकृत क्या जाता है, रावण का असली नाम दशग्रीव था, क्योंकि वह दस सरों वाला असाधारण बालक था। रावण एक प्रकांड पंडित था, वह रसायन और भौतिक शास्त्र का अलौकिक ज्ञाता था, वह धरती पर जन्मा प्रथम वैज्ञानिक था। कुबेर से पाये पुष्पक विमान में भी उसने कई प्रयोग किये थे। रावण को चारों वेदों का ज्ञाता कहा गया है। रावण भगवान शंकर का अनन्य भक्त था। लेकिन ज्ञानी पंडित होने के बावजूद उसका चरित्र और आचरण ठीक नहीं था। भगवान राम की धर्मपत्नी माँ सीता को रावण ने पंचवटी से अपहरण कर दो वर्ष तक कैद कर रखा था। रावण ने सीता के अलावा भी कई स्त्रियों पर अपनी बुरी नज़र डाली थी। आइए आपको बताते हैं कौन थी वो स्त्रियां जिनपर थी रावण की बुरी नज़र।

रम्भा
रम्भा एक नर्तकी है, जो स्वर्गलोक में इन्द्रदेव की सभा मे गायन और वादन किया करती है। रम्भा कश्यप और प्राधा की पुत्री थी। रंभा अपने रूप और सौन्दर्य के लिए तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी। इन्द्र रम्भा को ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिये भेजा करता था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्गलोक पहुंचा तो उसने वहां रम्भा को नृत्य करते हुए देखा। कामातुर होकर उसने रम्भा को पकड़ लिया। तब अप्सरा रम्भा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं लेकिन रावण ने उसकी बात नहीं मानी और रम्भा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दे दिया तुझे न चाहने वाली स्त्री से तू बलात्कार करेगा, तब तुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।

माया

माया रावण की पत्नी की बड़ी बहन थी। रावण उस पर भी गन्दी नज़र रखता था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहां गया। वहां रावण ने माया को अपनी बातों में फंसाने का प्रयास किया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासनायुक्त होकर मेरा सतीत्व भंग करने का प्रयास किया इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई अतः तुम्हारी मृत्यु भी इसी कारण होगी।

तपस्विनी
एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था। तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, जो भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी।

सीता
भगवान राम की पत्नी मां सीता को पंचवटी के पास लंकाधिपति रावण ने अपहरण करके 2 वर्ष तक अपनी कैद में रखा था लेकिन इस कैद के दौरान रावण ने माता सीता को छुआ तक नहीं था। इसका कारण रम्भा द्वारा दिया गया शाप था। रावण जब सीता के पास विवाह प्रस्ताव लेकर गया तो माता ने घास के एक टुकड़े को अपने और रावण के बीच रखा और कहा, ’हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न हैं। राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति में मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और राक्षस जाति के विनाश को आमंत्रित कर दिया है। तुम्हारा श्रीरामजी की शरण में जाना इस विनाश से बचने का एकमात्र उपाय है अन्यथा लंका का विनाश निश्चित है।’

नर्क का द्वार है यह तालाब, इसमें उबलता हैं खून

दुनिया में एक से एक घटनाएं होती हैं। कई घटनाएं जहां बेहद सामान्य होती हैं तो कुछ घटना बेहद चौंकाने वाली होती हैं। आज हम आपको एक ऐसी रहस्यमयी जगह से रूबरू करवाते हैं जिसको सुनकर आप भी हैरान हो जाएंगे। जी हाँ हम बात करते हैं जापान का ब्लडी पॉन्ड की। इस तालाब के पानी को देखने के बाद आपको यही लगेगा कि यहां लाल खून खौल रहा हो। जानिए क्या है इस खूनी तालाब का रहस्य। 

इस जगह पर जाना खतरे से खाली नहीं हैं। इस तालाब के आस-पास जाने पर भी प्रतिबंध लगा है, क्योंकि इस पोखर का तापमान 194 फैरेनहाइट है। यह जापान के सबसे प्रसिद्ध स्थानों में से एक है। इस झील का पानी खून की तरह लाल है। पानी खून की तरह लाल होने की वजह लोहे और नमक की अधिक मात्रा है। यहां पानी की सतह से भाप वाष्पित होती रहती है। नर्क के द्वार की तरह लगने वाली इस जगह को दूर  से देखने पर ऐसा लगता है मानों खून उबल रहा हो।

इस तालाब का पानी लाल है जो खून की तरह ही लगता है। माना जाता है कि इस तलाब में लोहे और नमक की मात्रा बहुत ज्यादा है। वहीं, पानी ज्यादा गर्म होने के कारण इसके सतह से भाप वाष्पित होती रहती है। इसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे यह नर्क का द्वार हो।

इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था श्रीमद भगवद गीता का उपदेश

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी कहा जाता है। इस बार मोक्षदा एकादशी का व्रत 11 दिसंबर दिन शनिवार को है| इसी दिन भगवान श्रीकृ्ष्ण ने महाभारत के प्रारम्भ होने से पूर्व अर्जुन को श्रीमद भगवतगीता का उपदेश दिया था| अतः इस दिन भगवान श्रीकृ्ष्ण के साथ साथ गीता का भी पूजन करना चाहिए| मोक्षदा एकाद्शी को दक्षिण भारत में वैकुण्ठ एकादशी के नाम से भी जाना जाता है| 

मोक्षदा एकाद्शी व्रत विधि- 

मोक्षदा एकादशी का व्रत करने वाले व्रती को चाहिए कि वह एकादशी व्रत के दिन मुख्य रुप से दस वस्तुओं का सेवन नहीं किया जाता है| जौ, गेहूं, उडद, मूंग, चना, चावल और मसूर की दाल दशमी तिथि के दिन नहीं खानी चाहिए| इसके अतिरिक्त मांस और प्याज आदि वस्तुओं का भी त्याग करना चाहिए| दशमी तिथि के दिन उपवासक को ब्रह्माचार्य करना चाहिए| और अधिक से अधिक मौन रहने का प्रयास करना चाहिए| बोलने से व्यक्ति के द्वारा पाप होने की संभावनाएं बढती है, यहां तक की वृ्क्ष से पत्ता भी नहीं तोडना चाहिए| 

व्रत के दिन मिट्टी के लेप से स्नान करने के बाद ही मंदिर में पूजा करने के लिये जाना चाहिए| मंदिर या घर में श्री विष्णु पाठ करना चाहिए और भगवान के सामने व्रत का संकल्प लेना चाहिए| दशमी तिथि के दिन विशेष रुप से चावल नहीं खाने चाहिए| परिवार के अन्य सदस्यों को भी इस दिन चावल खाने से बचना चाहिए| इस व्रत का समापन द्वादशी तिथि के दिन ब्राह्माणों को दान-दक्षिणा देने के बाद ही होता है| व्रत की रात्रि में जागरण करने से व्रत से मिलने वाले शुभ फलों में वृ्द्धि होती है| 

मोक्षदा एकादशी की कथा-

एक बार धर्मराज युधिष्ठिर बोले : देवदेवेश्वर ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है? स्वामिन् ! यह सब यथार्थ रुप से बताइये ।

श्रीकृष्ण ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का वर्णन करुँगा, जिसके श्रवणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । उसका नाम ‘मोक्षदा एकादशी’ है जो सब पापों का अपहरण करनेवाली है । राजन् ! उस दिन यत्नपूर्वक तुलसी की मंजरी तथा धूप दीपादि से भगवान दामोदर का पूजन करना चाहिए । पूर्वाक्त विधि से ही दशमी और एकादशी के नियम का पालन करना उचित है । मोक्षदा एकादशी बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली है । उस दिन रात्रि में मेरी प्रसन्न्ता के लिए नृत्य, गीत और स्तुति के द्वारा जागरण करना चाहिए । जिसके पितर पापवश नीच योनि में पड़े हों, वे इस एकादशी का व्रत करके इसका पुण्यदान अपने पितरों को करें तो पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।

पूर्वकाल की बात है, वैष्णवों से विभूषित परम रमणीय चम्पक नगर में वैखानस नामक राजा रहते थे । वे अपनी प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे । इस प्रकार राज्य करते हुए राजा ने एक दिन रात को स्वप्न में अपने पितरों को नीच योनि में पड़ा हुआ देखा । उन सबको इस अवस्था में देखकर राजा के मन में बड़ा विस्मय हुआ और प्रात: काल ब्राह्मणों से उन्होंने उस स्वप्न का सारा हाल कह सुनाया ।

राजा बोले : ब्रह्माणो ! मैने अपने पितरों को नरक में गिरा हुआ देखा है । वे बारंबार रोते हुए मुझसे यों कह रहे थे कि : ‘तुम हमारे तनुज हो, इसलिए इस नरक समुद्र से हम लोगों का उद्धार करो। ’ द्विजवरो ! इस रुप में मुझे पितरों के दर्शन हुए हैं इससे मुझे चैन नहीं मिलता । क्या करुँ ? कहाँ जाऊँ? मेरा हृदय रुँधा जा रहा है । द्विजोत्तमो ! वह व्रत, वह तप और वह योग, जिससे मेरे पूर्वज तत्काल नरक से छुटकारा पा जायें, बताने की कृपा करें । मुझ बलवान तथा साहसी पुत्र के जीते जी मेरे माता पिता घोर नरक में पड़े हुए हैं ! अत: ऐसे पुत्र से क्या लाभ है ?

ब्राह्मण बोले : राजन् ! यहाँ से निकट ही पर्वत मुनि का महान आश्रम है । वे भूत और भविष्य के भी ज्ञाता हैं । नृपश्रेष्ठ ! आप उन्हींके पास चले जाइये ।

ब्राह्मणों की बात सुनकर महाराज वैखानस शीघ्र ही पर्वत मुनि के आश्रम पर गये और वहाँ उन मुनिश्रेष्ठ को देखकर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके मुनि के चरणों का स्पर्श किया । मुनि ने भी राजा से राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी ।

राजा बोले: स्वामिन् ! आपकी कृपा से मेरे राज्य के सातों अंग सकुशल हैं किन्तु मैंने स्वप्न में देखा है कि मेरे पितर नरक में पड़े हैं । अत: बताइये कि किस पुण्य के प्रभाव से उनका वहाँ से छुटकारा होगा ?

राजा की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्त तक ध्यानस्थ रहे । इसके बाद वे राजा से बोले : ‘महाराज! मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष में जो ‘मोक्षदा’ नाम की एकादशी होती है, तुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरों को दे डालो । उस पुण्य के प्रभाव से उनका नरक से उद्धार हो जायेगा ।’

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! मुनि की यह बात सुनकर राजा पुन: अपने घर लौट आये । जब उत्तम मार्गशीर्ष मास आया, तब राजा वैखानस ने मुनि के कथनानुसार ‘मोक्षदा एकादशी’ का व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरों सहित पिता को दे दिया । पुण्य देते ही क्षणभर में आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । वैखानस के पिता पितरों सहित नरक से छुटकारा पा गये और आकाश में आकर राजा के प्रति यह पवित्र वचन बोले: ‘बेटा ! तुम्हारा कल्याण हो ।’ यह कहकर वे स्वर्ग में चले गये ।

राजन् ! जो इस प्रकार कल्याणमयी ‘‘मोक्षदा एकादशी’ का व्रत करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और मरने के बाद वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह मोक्ष देने वाली ‘मोक्षदा एकादशी’ मनुष्यों के लिए चिन्तामणि के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है । इस माहात्मय के पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । 

सादगी पसंद थे डा. राजेंद्र प्रसाद

गणतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद सादगी पसंद, अत्यंत दयालु और निर्मल स्वभाव के महान व्यक्ति थे। देश और दुनिया उन्हें एक विनम्र राष्ट्रपति के रूप में उन्हें हमेशा याद करती है। 'सादा जीवन, उच्च विचार' के अपने सिद्धांत का निर्वाह उन्होंने जीवन र्पयत किया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर, 1884 को बिहार राज्य के सिवान जिले के जीरादेई में हुआ था। 

उनके पिता महादेव सहाय फारसी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे, जबकि उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धार्मिक महिला थीं। वह अपने बेटों को 'रामायण' की कहानियां सुनाया करती थीं। उस समय शिक्षा की शुरुआत फारसी से की जाती थी। प्रसाद जब पांच वर्ष के हुए, तब माता-पिता ने उन्हें फारसी सिखाने की जिम्मेदारी एक मौलवी को दी। इस प्रारंभिक पारंपरिक शिक्षण के बाद उन्हें 12 वर्ष की अल्पायु में आगे की पढ़ाई के लिए छपरा जिला स्कूल भेजा गया। उसी दौरान किशोर राजेंद्र का विवाह राजवंशी देवी से हुआ।

बाद में वे अपने बड़े भाई महेंद्र प्रसाद के साथ पढ़ाई के लिए पटना चले गए जहां उन्होंने टी.के. घोष अकादमी में दाखिला लिया। इस संस्थान में उन्होंने दो वर्ष अध्ययन किया। वर्ष 1902 में कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त किया। इस उपलब्धि पर उन्हें 30 रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति से पुरस्कृत भी किया गया था। सन् 1915 में राजेंद्र बाबू ने कानून में मास्टर की डिग्री विशिष्टता के साथ हासिल की और इसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक मिला था। कानून में ही उन्होंने डाक्टरेट भी किया। 

राजेंद्र तेजस्वी वह एक महान विद्वान थे। इस बात को उनकी उत्तरपुस्तिका पर लिखी परीक्षक की टिप्पणी, "परीक्षक की तुलना में परीक्षार्थी बेहतर है" बखूबी प्रमाणित करती है। कानून की पढ़ाई से अधिवक्ता प्रसाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और बिहार प्रदेश के एक बड़े नेता के रूप में उभरे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समर्थक प्रसाद को ब्रिटिश प्रशासन ने 1931 के 'नमक सत्याग्रह' और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान जेल में डाल दिया था।

1950 में जब भारत गणतंत्र बना तो प्रसाद को संविधान सभा द्वारा इसका प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया। बतौर महामहिम प्रसाद ने गैर-पक्षपात और पदधारी से मुक्ति की परंपरा स्थापित की। आजादी से पूर्व, 2 दिसंबर 1946 को वह अंतरिम सरकार में खाद्य एवं कृषि मंत्री बने और आजादी के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत को गणतंत्र राष्ट्र का दर्जा मिलने के साथ राजेंद्र बाबू देश के प्रथम राष्ट्रपति बने। वर्ष 1957 में वह दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। इस तरह प्रेसीडेंसी के लिए दो बार चुने जाने वाले वह एकमात्र शख्सियत थे।

प्रसाद भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के महान नेता थे और भारतीय संविधान के शिल्पकार भी। राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उन्होंने कई देशों की सभाद्वना यात्रा की। उन्होंने आण्विक युग में शांति बनाए रखने पर जोर दिया दिया था। वर्ष 1962 में राजेंद्र बाबू को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से नवाजा गया। बाद में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और पटना के सदाकत आश्रम में जीवन बिताने लगे। 28 फरवरी, 1963 को बीमारी के चलते यह महान नेता इस नश्वर संसार से कूच कर गए। 

यहाँ भगवान भोलेनाथ को चढ़ती है नारियल की सींक वाली झाडू, जानिए क्यों


अभी तक आपने मंदिरों में दूध, जल, प्रसाद आदि ही चढ़ते हुए सुना व देखा होगा लेकिन आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे सुनकर आप भी हैरान रह जाएंगे। जी हाँ इस मंदिर में भगवान को प्रसाद नहीं बल्कि झाड़ू चढ़ाया जाता है। यह सुनने में थोड़ा अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन सच है। सच ही किसी ने कहा है कि भगवान तो बस आपकी भावनाओ के भूखे हैं। मुरादाबाद जिले में बिहाजोई गांव में प्रचीन शिव मंदिर पातालेश्वर स्थित है आपको बतादे की इस मंदिर के प्रति भक्तो की एक अनोखी श्रद्धा है।

इस मंदिर में भगवान भोलेनाथ की शिवलिंग पर नारियल के सींको वाली झाड़ू चढाई जाती है। मानना है कि भगवान शिव पर झाड़ू चढ़ाने से मनोकामना पूरी हो जाती है। भक्तो का ऐसा मानना है कि झाड़ू चढ़ाने से भगवान शिव प्रसन्न होते है और ऐसा करने से त्वचा सम्वन्धित रोगों से छुटकारा मिलता है। भगवान शिव का ये मंदिर इस जर्रे में नमी है और इस मिन्दर के पुजारी का कहना है कि ये मंदिर 150  साल पुराना है और इस मंदिर में झाड़ू चढ़ाने प्रथा भी बहुत पुरानी है। इस मंदिर में भगवान शिव को झाड़ू चढ़ाने के लिया लोग घंटो लाइन में लगे रहते है। इस मंदिर के दर्शन करने के लिए सैकड़ो लोग आते है।

एक कथा के अनुसार, इस गांव में भिखारीदास नाम का एक बनिया रहता था वो बहुत पैसे वाला था लेकिन उसे त्वचा सम्बन्धी एक बड़ा रोग था वो इस रोग का इलाज करवाने के लिए जा रहा था कि अचानक से उसे प्यास लगी बह भगवान शिव के इस मंदिर में पानी पिने आया। और तभी वहाँ झाड़ू मार रहे पुजारी से टकराया जिसके बाद बिना इलाज के ही उसका रोग ठीक हो गया। इससे खुश होकर सेठ ने पुजारी को असरफ़िया देना चाहा लेकिन पुजारी ने उसे लेने से इंकार कर दिया इसके बदले में उसने सेठ से यहाँ मंदिर बनबाने की प्रार्थना की।

उस सेठ ने यहाँ मंदिर का निर्माण करवाया और उसे वक्त से यह कहा जाता है की चर्म रोग होने पर इस शिव लिंग में भगवान शिव को झाड़ू चढ़ाना चाहिए ऐसा करने से लोगो के रोग दूर होंगे इसलिए श्रद्धालु आज भी यहाँ झाड़ू चढाते है।  

26/11 Mumbai Terror Attack: वीर जवानों की शहादत को नमन


देश आज मुंबई हमले (26/11 Mumbai Terror Attack) की आठवीं बरसी मना रहा है। 2008 में हुए 26/11 आतंकी हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। ये के ऐसी काली तारीख है जिसने मायानगरी की रफ्तार को रोक कर रख दिया था। पूरा भारत ना सिर्फ इस हमले पर रोया था बल्कि पाक प्रायोजित आतंक ने देश को कभी ना भरने वाला जख्म भी दिया था। ये हमला तो दर्दनाक था ही, उससे ज्यादा बुरी बात यह है कि उसका मास्टरमाइंड आज भी खुले आम पाकिस्तान की सड़कों पर घूम रहा है।

इस हमले में 166 बेगुनाह लोग मारे गए थे। लेकिन इनके अलाव भी कई ऐसी जाने थी जिनपर इस हमले का प्रभाव बहुत बुरा पड़ा था। मरने वालों के रिश्तेदार, बीवी, बच्चे आज भी उस काली रात के दर्द को भुला नहीं सके हैं। भारतीय सेना ने कई आतंकियों को मार गिराया था जबकि अजमल कसाब को जिंदा पकड़ लिया गया था। मुंबई हमले मामले की सुनवाई के बाद कसाब को 21 नवंबर 2012 को फांसी दे दी गई।

आतंक का तांडव मुंबई के रेलवे स्टेशन छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर शुरु हुआ था। स्टेशन पर मौजूद किसी यात्री को इस बात अंदाजा नहीं था कि यहां आतंक का खूनी खेल होने वाला है। आतंकियों ने वहां पहुंचकर अंधाधुंध फायरिंग की थी और हैंड ग्रेनेड भी फेंके थे। जिसकी वजह से 58 बेगुनाह यात्री मौत की आगोश में समा गए थे। जबकि कई लोग गोली लगने और भगदड़ में गिर जाने की वजह से घायल हो गए थे। इस हमले में अजमल आमिर कसाब और इस्माइल खान नाम के आतंकी शामिल थे। ऐसे में ‘हमारा गाजियाबाद’ हमले में मारे गये सभी नागरिकों को श्रद्धांजलि देते हुए उन वीर जवानों की शहादत को भी नमन करता है जिन्होंने अपने प्रप्राणों की परवाह ना करते हुए आतंकियों को मार गिराया था। 

मुंबई हमलों की छानबीन से जो कुछ सामने आया है, वह बताता है कि 10 हमलावर कराची से नाव के रास्ते मुंबई में घुसे। इस नाव पर चार भारतीय सवार थे, जिन्हें किनारे तक पहुंचते पहुंचते ख़त्म कर दिया गया। रात के तकऱीबन आठ बजे थे, जब ये हमलावर कोलाबा के पास कफ़ परेड के मछली बाजार पर उतरे। वहां से वे चार ग्रुपों में बंट गए और टैक्सी लेकर अपनी मजिलों का रूख किया। रात के तकरीबन साढ़े नौ बजे थे। कोलाबा इलाके में आतंकवादियों ने पुलिस की दो गाडिय़ों पर कब्जा किया। इन लोगों ने पुलिस वालों पर गोलियां नहीं चलाईं। सिर्फ बंदूक की नोंक पर उन्हें उतार कर गाडिय़ों को लूट लिया। यहां से एक गाड़ी कामा हा़स्पिटल की तरफ निकल गई जबकि दूसरी गाड़ी दूसरी तरफ चली गई। रात के लगभग 9 बजकर 45 मिनट हुए थे।

तकरीबन 6 आतंकवादियों का एक गुट ताज की तरफ बढ़ा जा रहा था। उनके रास्ते में आया लियोपार्ड कैफे। यहां भीड़-भाड़ थी। भारी संख्या में विदेशी भी मौजूद थे। हमलावरों ने अचानक एके 47 लोगों पर तान दी। देखते ही देखते लियोपार्ड कैफे के सामने खून की होली खेली जाने लगी। बंदूकों की तड़तड़ाहट से पूरा इलाका गूंज उठा। लेकिन आतंकवादियों का लक्ष्य यह कैफे नहीं था। यहां गोली चलाते, ग्रेनेड फेंकते हुए आतंकी ताज होटल की तरफ चल दिए। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस स्टेशन के अलावा आतंकियों ने ताज होटल, होटल ओबेरॉय, लियोपोल्ड कैफ़े, कामा अस्पताल और दक्षिण मुंबई के कई स्थानों पर हमले शुरु कर दिया था।  एक साथ इतनी जगहों पर हमले ने सबको चौंका दिया था।

सुरक्षा जांच एजेंसियों को अपनी जांच में पता चला था कि इस अटैक के पीछे इस संगठन का हाथ था और इस हमले को अंजाम तक पहुंचाने में हेडली ने मुख्य भूमिका निभाई थी। पकड़े जाने के बाद हेडली ने खुद अमेरिकी अदालत में इस बात को कबूला है कि वो कई बार पाकिस्तान जाकर लश्कर के ट्रेनिंग कैंप में ट्रेनिंग ले चुका है। जिसके बाद वो की बार भारत आया और मुंबई के कई स्थानों के मैप बनाए और जिन जगहों पर हमला करना था वहां की फोटो ली। हेडली को 2009 में पाकिस्तान जाते हुए शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे से गिरफ्तार कर लिया गया और मुंबई हमलों में भूमिका सिद्ध करने के लिये मुकदमा चलाया गया। 

इस मुकदमे में मौत की सजा से बचने के लिये वो सरकारी गवाह बन गया और अपना जुर्म कबूल लिया। मुकदमे की गवाही के दौरान उसने बताया कि मुंबई हमला पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस ने प्रायोजित किया था। सरकारी गवाह बनाने के बाद हेडली ने अमेरिकी व भारतीय जांच अधिकारियों के साथ सहयोग किया। मुंबई हमलों में संलिप्तता के मामले में 24 जनवरी 2013 को एक अमेरिकी न्यायालय ने हेडली को 35 वर्षों के कारावास की सजा सुनाई।



शादी में क्यों फेंके जाते हैं चावल, जानिए क्यों निभाई जाती है यह रस्म

यदि आप कहीं शादी विवाह में जाते होंगे तो आपने देखा होगा कि द्वारचार के समय दुल्हन व वधु पक्ष के लोग चावल फेंकते हैं। क्या आपको पता है कि आखिर क्यों लोग चावल फेंकते हैं? 

शादी, कई सारे रीति-रिवाजों के साथ की जाती है। ऐसा नहीं कि ये सब सिर्फ भारत में ही होता है बल्कि अन्‍य देशों में भी कई सारी रस्‍में होती हैं। लेकिन बहुत सारी रस्‍में सिर्फ निभा लेते हैं और उनके पीछे के तर्क को नहीं जानते हैं। क्‍या आपने कभी सोचा है कि शादी के दौरान चावल फेंकने की रस्‍म को क्‍यूं निभाया जाता है। क्‍या इसका कोई वैज्ञानिक कारण है या ये सिर्फ एक रीति ही है।

रोम में यह बहुत ही पुरानी रीति है। यह दर्शाता है कि नवविवाहितों के जीवन में खुशियां आएं और वो हमेशा सम्‍पन्‍न रहें। वर और वधू को संतान की प्राप्ति हो और उनका भाग्‍य हमेशा उनका साथ दे। भारत ही नहीं बल्कि अन्‍य देशों में भी चावल को फेंकने की रस्‍म को निभाया जाता है। मानते हैं कि इससे परिवार में सुख-समृद्धि आती है। भारत में चावल को हल्‍दी के साथ फेंका जाता है या वधू की झोली में डाला जाता है। मानते हैं कि इससे जीवन में समृद्धि आती है।

जानिए शनिदेव क्यों हैं काले और क्यों रखते हैं पिता सूर्यदेव से वैरभाव

शनि एक ऐसा नाम है जिसे पढ़ते-सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शनि की कुदृष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातो-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई बुरा कर्म किया है तो वह शनि के प्रकोप से नहीं बच सकता है। शनिदेव और सूर्यदेव की आपस में नहीं बनती। शनि सूर्य से शत्रुता का भाव रखते हैं। शनि और सूर्य के संबंध में शत्रुता तो ठीक है लेकिन हैरानी की बात यह है कि शनि सूर्य के पुत्र हैं और पिता पुत्र में शत्रुता का संबंध कैसे हो सकता है? तो आइये आपको बताते हैं कैसे शनिदेव बने अपने पिता के शत्रु। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य और शनि की इस शत्रुता के पिछे की कहानी कुछ इस प्रकार है। हुआ यूं कि सूर्यदेव का विवाह त्वष्टा की पुत्री संज्ञा के साथ हो गया। अब सूर्यदेव का तेज था बहुत अधिक जो संज्ञा से सहन नहीं होता था फिर भी जैसे-तैसे उन्होंनें सूर्यदेव के साथ जीवन बिताना शुरु किया वैवस्त मनु, यम और यमी के जन्म के बाद उनके लिये सूर्यदेव का तेज सहन करना बहुत ही मुश्किल होने लगा तब उन्हें एक उपाय सूझा और अपनी परछाई छाया को सूर्यदेव के पास छोड़ कर वे चली गई। सूर्यदेव को छाया पर जरा भी संदेह नहीं हुआ कि यह संज्ञा नहीं है अब सूर्यदेव और छाया खुशी-खुशी अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे उनके मिलन से सावर्ण्य मनु, तपती, भद्रा एवं शनि का जन्म हुआ। 

जब शनि छाया के गर्भ में थे छाया तपस्यारत रहते हुए व्रत उपवास करती थीं। कहते हैं कि अत्यधिक उपवास करने के कारण गर्भ में ही शनिदेव का रंग काला हो गया। जन्म के बाद जब सूर्यदेव ने शनि को देखा तो उनके काले रंग को देखकर उसे अपनाने से इंकार करते हुए छाया पर आरोप लगाया कि यह उनका पुत्र नहीं हो सकता, लाख समझाने पर भी सूर्यदेव नहीं माने। इसी कारण खुद के और अपनी माता के अपमान के कारण शनिदेव सूर्यदेव से वैरभाव रखने लगे। शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की भाँति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनि देव को वरदान मांगने को कहा, तब शनि देव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही हैं, मेरे पिता पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित व् प्रताड़ित किया गया हैं। 

अतः माता की इच्छा है कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने। तब भगवान शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा।मानव तो क्या देवता भी तुम्हरे नाम से भयभीत रहेंगे। शनि के सम्बन्ध मे हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं। माता के छल के कारण पिता ने उसे शाप दिया। पिता अर्थात सूर्य ने कहा,”आप क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाले मंदगामी ग्रह हो जाये।

इस गुफा मे है गणेश जी का कटा हुआ मस्तक

धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि उनका मुख हाथी का है| क्या आपको पता है कि भगवान श्रीगणेश का सिर कटने के बाद हाथी के बच्चे का मुख लगा लेकिन उनका असली सिर कहाँ गया? इसके बारे में आज आपको एक रोचक जानकारी देते हैं।

ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि जब गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया|

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा। अगर आप उस कटे हुए स‌िर को देखना चाहते हैं तो आपको उत्तराखंड के प‌िथौरागढ़ में स्‍थ‌ित एक गुफा के अंदर जाना होगा। यहां न स‌िर्फ आपको गणेश जी के कटे हुए स‌िर द‌िखेंगे बल्क‌ि कई ऐसे दृश्य द‌िखेंगे जो आपको हैरत में डालने के ल‌िए काफी है।

इस रहस्यमयी गुफा की खोज धरती पर भगवान श‌िव के अवतार माने जाने वाले आद‌िगुरू शंकराचार्य को माना जाता है। यह ऐसी गुफा है ज‌िसके वहां मौजूद होने की कल्पना करना भी आम आदमी के ल‌िए मुश्क‌िल हो सकता था क्योंक‌ि यह पहाड़ी से करीब 90 फीद अंदर पाताल में मौजूद है। इसमें प्रवेश के ल‌िए श्रद्धालुओं को जंजीर का सहारा लेना पड़ता है। इस तस्वीर में गुफा में मौजूद कुंड देख‌िए। रहस्यमयी गुफा में आप जाएंगे तो देखकर हैरान रह जाएंगे क‌ि गुफा में करीब 33 करोड़ देवी-देवता मौजूद हैं। यानी यह गुफा अपने आप में पूरा का पूरा देवलोक प्रतीत होता है। इसी गुफा में एक स्‍थान पर गणेश जी का कटा हुआ स‌िर भी रखा हुआ है।

यह कोई आम प‌िंड नहीं है बल्क‌‌ि यह है अपने गणपत‌ि बप्पा। माना जाता है क‌ि यही है भगवान गणेश का कटा हुआ स‌िर ज‌िस पर भगवान श‌िव की अद्भुत कृपा आज भी बरसाती है। अब आप यह भी जान लीज‌िए क‌ि इस गुफा का नाम है पाताल भुवनेश्वर गुफा यानी संसार के माल‌िक ईश्वर की गुफा। भगवान श‌िव ने अपने पुत्र के कटे हुए स‌िर की तृप्ति‌ के ल‌िए यहां सहस्रकमल दल की स्‍थापना की है ऐसी मान्यता है। इस कमल दल से जल की बूंदें भगवान गणेश के स‌िर पर टपकता है। कमल के मध्य से टपकता हुआ बूंद स‌ीधे गणेश जी के मुंख में जाता है। कुदरत के इस अद्भुत दृश्य को देखकर श्रद्धालु भाव-व‌िभोर होकर हैरत में पड़ जाते हैं।

करवा चौथ: अखंड सुहाग व पारस्परिक प्रेम का प्रतीक

करवा चौथ भारत में मुख्यतः उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मनाया जाता है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला यह व्रत इस बार 19 अक्टूबर दिन बुधवार को मनाया जायेगा| करवा चौथ का पर्व सुहागिन स्त्रियाँ मनाती हैं| पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन चन्द्रमा की पूजा की जाती है| चंद्रमा के साथ- साथ भगवान शिव, पार्वती जी, श्रीगणेश और कार्तिकेय की पूजा की जाती है| करवाचौथ के दिन उपवास रखकर रात्रि समय चन्द्रमा को अर्ध्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है|

करवा चौथ की व्रत विधि-

कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला करक चतुर्थी व्रत स्त्रियां अखंड़ सौभाग्य की कामना के लिए करती हैं| इस व्रत में शिव-पार्वती, गणेश और चन्द्रमा का पूजन किया जाता है| इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर सुहागिन स्त्रियां पति की लंबी आयु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं| पति-पत्नी के आत्मिक रिश्ते और अटूट बंधन का प्रतीक यह करवाचौथ या करक चतुर्थी व्रत संबंधों में नई ताज़गी एवं मिठास लाता है| करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है| सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है|

करवा चौथ व्रत की प्रक्रिया-

करवा चौथ में प्रयुक्त होने वाली संपूर्ण सामग्री को एकत्रित करें| व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें- ‘मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये। करवा चौथ का व्रत पूरे दिन बिना कुछ खाए पिए रहा जाता है| दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। उसके बाद आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ और पक्के पकवान बनाएं। उसके बाद पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। ध्यान रहे गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। उसके बाद जल से भरा हुआ लोटा रखें। वायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। पति की दीर्घायु की कामना करें।

‘नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥’ करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासूजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें।इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर पर्व को संपन्न करें।

करवा चौथ की कथा-

इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित है, जिनमें एक बहन और सात बहनों की कथा बहुत प्रसिद्ध है| बहुत समय पहले की बात है, एक लडकी थी, उसके साथ भाई थें, उसकी शादी एक राजा से हो गई| शादी के बाद पहले करवा चौथ पर वो अपने मायके आ गई| उसने करवा चौथ का व्रत रखा, लेकिन पहला करवा चौथ होने की वजह से वो भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी| वह बडी बेसब्री से चांद निकलने की प्रतिक्षा कर रही थी|

उसके सातों भाई उसकी यह हालत देख कर परेशान हो गयें, वे सभी अपने बहन से बेहद स्नेह करते थें| उन्होने अपनी बहन का व्रत समाप्त कराने की योजना बनाई| और पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी| बहन ने इसे असली चांद समझ लिया और अपना व्रत समाप्त कर, भोजन खा लिया| बहन के व्रत समाप्त करते ही उसके पति की तबियत खराब होने लगी| अपने पति की तबियत खराब होने की खबर सुन कर, वह अपने पति के पास ससुराल गई और रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती देवी के साथ मिलें| पार्वती देवी ने रानी को बताया कि उसके पति की मृ्त्यु हो चुकी है, क्योकि तुमने नकली चांद को देखकर व्रत समाप्त कर लिया था|

यह सुनकर बहन ने अपनी भाईयों की करनी के लिये क्षमा मांगी| माता पार्वती ने कहा” कि तुम्हारा पति फिर से जीवित हो जायेगा, लेकिन इसके लिये तुम्हें, करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से करना होगा| इसके बाद माता पार्वती ने करवा चौथ के व्रत की पूरी विधि बताई| माता के कहे अनुसार बहन ने फिर से व्रत किया और अपने पति को वापस प्राप्त कर लिया|

धर्म ग्रंथों में एक महाभारत से संबंधित अन्य पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया गया है| इसके अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं व दूसरी ओर पांडवों पर कई प्रकार के संकटों से आन पड़ते हैं| यह सब देख द्रौपदी चिंता में पड़ जाती है वह भगवान श्री श्रीकृष्ण से इन सभी समस्याओं से मुक्त होने का उपाय पूछती हैं| श्रीकृष्ण द्रौपदी से कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवा चौथ का व्रत रहे तो उसे इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है| भगवान कृष्ण के कथन अनुसार द्रौपदी विधि विधान सहित करवा चौथ का व्रत रखती हैं जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं|

मंदोदरी के मायके में क्षमा मांगने के बाद होता है रावण का वध


भोपाल: देश में भले ही मंगलवार को दशहरे के मौके पर रावण के साथ कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों का दहन कर असत्य पर सत्य की जीत का पर्व मनाया जाएगा, मगर मध्य प्रदेश में एक स्थान ऐसा है, जहां के लोग रावण के सामने खड़े होकर क्षमा याचना करते हैं और उसके बाद उसका वध करते हैं।

मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के खानपुरा क्षेत्र में रावण की लगभग 20 फुट उंची प्रतिमा है। इस प्रतिमा की नामदेव समाज के लोग साल भर पूजा करते हैं। मान्यता है कि इस प्रतिमा के पैर में धागा बांधने से बीमारी नहीं होती। यही कारण है कि अन्य अवसरों के अलावा महिलाएं दशहरे के मौके पर रावण की प्रतिमा के पैर में धागा बांधती हैं।

विभिन्न स्थानों पर इस बात का उल्लेख है कि रावण की पत्नी मंदोदरी का मायका मंदसौर था, और इसी कारण इस स्थान का नाम मंदसौर पड़ा है। इस लिहाज से मंदसौर के निवासियों का रावण दामाद हुआ। लिहाजा यहां के लोग अब भी रावण को अपना दामाद मानते हैं।

स्थानीय लोग बताते हैं कि नामदेव समाज के लोग दशहरे के दिन प्रतिमा के समक्ष उपस्थित होकर पूजा-अर्चना करते हैं। उसके बाद राम और रावण की सेनाएं निकलती हैं। वध से पहले लोग रावण के समक्ष खड़े होकर क्षमा-याचना मांगते हैं। प्रार्थना करते हुए वे लोग कहते हैं कि आपने सीता का हरण किया था, इसलिए राम की सेना आपका वध करने आई है। उसके बाद वहां अंधेरा छा जाता है और फिर उजाला होते ही राम सेना उत्सव मनाने लगती है।

स्थानीय लोग बताते हैं कि रावण मंदसौर का दामाद है, इसलिए महिलाएं जब प्रतिमा के सामने पहुंचती हैं तो घूंघट डाल लेती हैं। क्योंकि दामाद के सामने कोई महिला सिर खोलकर नहीं निकलती है।खानपुरा क्षेत्र में दशहरा मनाने की तैयारियां जोरों पर हैं। रावण की प्रतिमा को आकर्षक रूप दिया गया है, सजावट का दौर जारी है। विशेष प्रकाश की व्यवस्था भी की जा रही है।     

यहाँ गिरी थी सती की बाईं आँख, पूजा करने से दूर होती है आँखों की पीड़ा

मुंगेर: बिहार के मुंगेर जिला मुख्यालय से करीब चार किलोमीटर दूर भारत के 52 शक्तिपीठों में से एक है मां चंडिका स्थान। मान्यता है कि यहां सती (मां पार्वती) की बाईं आंख गिरी थी। कहा जाता है कि यहां पूजा करने वालों की आंखों की पीड़ा दूर होती है। यह मंदिर पवित्र गंगा के किनारे स्थित है और इसके पूर्व और पश्चिम में श्मशान स्थल है। इस कारण 'चंडिका स्थान' को 'श्मशान चंडी' के रूप में भी जाना जाता है। नवरात्र के दौरान कई विभिन्न जगहों से साधक तंत्र सिद्धि के लिए भी यहां जमा होते हैं। चंडिका स्थान में नवरात्र के अष्टमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इस दिन बडी संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। 

मान्यता है कि इस स्थल पर माता सती की बाईं आंख गिरी थी। यहां आंखों के असाध्य रोग से पीड़ित लोग पूजा करने आते हैं और यहां से काजल लेकर जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां का काजल नेत्ररोगियों के विकार दूर करता है। चंडिका स्थान के मुख्य पुजारी नंदन बाबा बताते हैं कि वैसे तो इस स्थान पर सालभर देश के विभिन्न क्षेत्रों आए मां के भक्तों की भीड़ लगी रहती है, लेकिन नवरात्र में माता चंडिका की पूजा का महत्व बढ़ जाता है।

वह कहते हैं, "चंडिका स्थान एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। नवरात्र के दौरान सुबह तीन बजे से ही माता की पूजा शुरू हो जाती है। संध्या में श्रृंगार पूजन होता है। अष्टमी के दिन यहां विशेष पूजा होती है। इस दिन माता का भव्य श्रृंगार किया जाता है। यहां आने वाले लोगों की सभी मनोकामना मां पूर्ण करती हैं।"मंदिर के एक अन्य पुजारी कहते हैं कि इस मंदिर के विषय में कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है, लेकिन इससे जुड़ी कई कहानियां काफी प्रसिद्ध हैं।

मान्यता है कि राजा दक्ष की पुत्री सती के जलते हुए शरीर को लेकर जब भगवान शिव भ्रमण कर रहे थे, तब सती की बाईं आंख यहां गिरी थी। इस कारण यह 52 शक्तिपीठों में एक माना जाता है। वहीं दूसरी ओर इस मंदिर को महाभारत काल से भी जोड़ कर देखा जाता है। जनश्रुतियों के मुताबिक, अंग राज कर्ण मां चंडिका के भक्त थे और रोजाना मां चंडिका के सामने खौलते हुए तेल की कड़ाह में अपनी जान दे मां की पूजा किया करते थे, जिससे मां प्रसन्न होकर राजा कर्ण को जीवित कर देती थी और सवा मन सोना रोजाना कर्ण को देती थीं। कर्ण उस सोने को मुंगेर के कर्ण चौराहा पर ले जाकर लोगों को बांट देते थे।

इस बात की जानकारी जब उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को मिली तो वे भी छद्म वेष बनाकर अंग पहुंच गए। उन्होंने देखा कि महाराजा कर्ण ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान कर चंडिका स्थान स्थित खौलते तेल के कड़ाह में कूद जाते हैं और बाद माता उनके अस्थि-पंजर पर अमृत छिड़क उन्हें पुन: जीवित कर देती हैं और उन्हें पुरस्कार स्वरूप सवा मन सोना देती हैं। एक दिन चुपके से राजा कर्ण से पहले राजा विक्रमादित्य वहां पहुंच गए। कड़ाह में कूदने के बाद उन्हें माता ने जीवित कर दिया। उन्होंने लगातार तीन बार कड़ाह में कूदकर अपना शरीर समाप्त किया और माता ने उन्हें जीवित कर दिया। चौथी बार माता ने उन्हें रोका और वर मांगने को कहा। इस पर राजा विक्रमादित्य ने माता से सोना देने वाला थैला और अमृत कलश मांग लिया।

माता ने दोनों चीज देने के बाद वहां रखे कड़ाह को उलट दिया और उसी के अंदर विराजमान हो गईं। मान्यता है कि अमृत कलश नहीं रहने के कारण मां राजा कर्ण को दोबारा जीवित नहीं कर सकती थीं। इसके बाद से अभी तक कड़ाह उलटा हुआ है और उसी के अंदर माता की पूजा होती है। आज भी इस मंदिर में पूजा के पहले लोग विक्रमादित्य का नाम लेते हैं और फिर चंडिका मां का। मां के विशाल मंदिर परिसर में काल भैरव, शिव परिवार और भी कई देवी- देवताओं के मंदिर हैं जहां श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते हैं।

मुंगेर के पत्रकार अरुण कुमार शर्मा कहते हैं कि यहां दूर-दूर से श्रद्धालु मां का दर्शन करने आते हैं। सच्चे मन से मां के दरबार में जो भी आते हैं, सभी की मुराद मां पूरी करती हैं। उन्होंने बताया कि नवरात्र में पश्चिम बंगाल से आने वाले भक्तों की संख्या सबसे अधिक होती है। 

घर घर विराजेंगी माता

हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष शारदीय नवरात्रि 1 अक्टूबर आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होगी। प्रतिपदा तिथि के दिन शारदीय नवरात्रों का पहला नवरात्र होगा। माता पर श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह दिन विशेष रहेगा। इस बार नवरात्रि पूरे 10 दिन के होंगे। शनिवार को नवरात्र के मंगल कलश की स्थापना होगी। 

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

नव दुर्गा-
श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण –

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है| देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है।
नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है।कहीं-कहीं इन्हें कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है| जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है।

आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्रि:-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो।

सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

घट स्थापना मुहूर्त-

नवरात्र में तिथि वृद्धि सुखद संयोग माना जाता है। नवरात्र के प्रथम दिन घट स्थापना के साथ दैनिक पूजा भी बहुत सरल विधि से की जा सकती है। शारदीय नवरात्रि का पहला दिन इस बार 01 अक्टूबर 2016 को पड़ रहा है। इस दिन कलश स्थापना का शुभ मुहूर्त सुबह 06:17 बजे से 07:29 बजे तक है।
-समयांतराल- 1 घंटा 11 मिनट।
-घट स्थापना मुहूर्त प्रतिपदा पर पड़ रहा है।
-घट स्थापनामुहूर्त स्वाभाव कन्या लग्न पर पड़ रहा है।
-प्रतिपदा तिथि एक अक्टूबर 2016 को 05:41 बजे शुरू होगी।
-प्रतिपदा तिथि दो अक्टूबर 2016 को 07:45 बजे समाप्त होगी।

घट स्थापना विधि-

ज्योतिषों की माने तो उनके मुताबिक़, नवरात्र पूजन में कई लोग घट व नारियल स्थापना उन्होंने कलश स्थापना की सही विधि घट सही तरीके से न करने से शुभ की जगह अशुभ फल प्राप्त होता है। आपको बता दें कि मंदिर के उत्तर पूर्व दिशा के मध्य में स्थित ईशान कोण में मिट्टी या धातु के पात्र में साख लगाएं। इसके बाद पात्र में घट (कलश) की स्थापना करें। घट धातु का ही होना चाहिए, तांबे या पीतल धातु का शुभ होता है। घट को मौली बांधे, उसमें जल, चावल, पंचरतनी, चुटकी भर तुलसी की मिट्टी, स्र्वोष्धी, तिलक, फूल व द्रूवा व सिक्के डाल कर आम के नौ पत्ते रख कर उस पर चावल से भरे दोने से ढक सभी देवी-देवताओं का ध्यान कर उनका आह्वान करें।

इसके बाद चावलों के ऊपर नारियल का मुख अपनी और इस तरह रखें कि उसे देखने पर साधक की नजरें सीधे मुख पर पड़े। शास्त्रों में वर्णित श्लोक के मुताबिक ‘अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊ‌र्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभम संमुख्यम नारीकेलम’ के अनुसार स्थापना के दौरान नारियल का मुख नीचे रखने से शत्रु बढ़ते हैं, ऊपर रखने से रोग में वृद्धि, पूर्व दिशा में करने से धन हानि होती है। इसलिए नारियल का मुख अपनी तरफ रख ही उसकी स्थापना करनी चाहिए। नारियल जिस तरफ से पेड़ पर लगा होता है, वह उसका मुख वह होता और उसका ठीक उल्टा हिस्सा नुकीला होता है।

विनीत कुमार वर्मा

देव आनंद : अंदाज ही उनकी पहचान थी

हिंद फिल्मों के सदाबहार अभिनेता देव आनंद को उनके खास अंदाज के लिए जाना जाता है, या कहें कि यही अंदाज उन्हें देव आनंद बनाता है। उन्होंने हमेशा जिंदगी को आनंद के रूप में लिया। उनके भीतर की जिंदादिली ने उन्हें कभी बूढ़ा नहीं होने दिया। उनका अंदाज उनके हजारों-लाखों चाहने वालों के भीतर आज भी जवान है। देव आनंद ने बॉलीवुड में दो दशक तक राज किया। अभिनय के साथ ही उन्होंने लेखन, निर्देशन, फिल्म निर्माण में न केवल अपना हाथ अजमाया, बल्कि सफलता के शिखर को भी छुआ। उनकी अदा इतनी आकर्षक थी कि लोग उनकी एक झलक पाने को बेताब रहते थे। लड़कियों के बीच वह खासतौर पर लोकप्रिय थे।

देव आनंद का जन्म 26 सितंबर, 1923 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के उस हिस्से में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। देव आनंद का असली नाम धर्मदेव पिशोरीमल आनंद था। उनके पिता पिशोरीमल आनंद पेशे से वकील थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गुरदासपुर के घोरता गांव में हुई। उन्होंने डलहौजी में सेक्रेड हार्ट स्कूल से मैट्रिक तक की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने सरकारी कॉलेज लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। देव के भाई चेतन आनंद और विजय आनंद भी भारतीय सिनेमा में सफल निर्देशक थे। उनकी बहन शील कांता कपूर प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक शेखर कपूर की मां हैं।

देव आनंद को फिल्म में पहला मौका 1946 में प्रभात स्टूडियो की फिल्म 'हम एक हैं' में मिला। हालांकि फिल्म फ्लॉप होने से दर्शकों के बीच वह अपनी पहचान नहीं बना सके। इसी फिल्म के निर्माण के दौरान प्रभात स्टूडियो में उनकी दोस्ती गुरुदत्त से हो गई। दोनों में तय हुआ कि जो पहले सफल होगा, वह दूसरे को सफल होने में मदद करेगा, और जो भी पहले फिल्म निर्देशित करेगा, वह दूसरे को अभिनय का मौका देगा। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म 'जिद्दी' देव आनंद के फिल्मी करियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म की कामयाबी के बाद उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा और 'नवकेतन बैनर' की स्थापना की।

नवकेतन के बैनर तले उन्होंने वर्ष 1950 में अपनी पहली फिल्म 'अफसर' का निर्माण किया, जिसके निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनंद को सौंपी। इस फिल्म के लिए उन्होंने उस जमाने की जानी-मानी अभिनेत्री सुरैया का चयन किया, जबकि अभिनेता के रूप में देव आनंद खुद ही थे। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल रही और इसके बाद उन्हें गुरुदत्त की याद आई। देव आनंद ने अपनी अगली फिल्म 'बाजी' के निर्देशन की जिम्मेदारी गुरुदत्त को सौंप दी। 'बाजी' फिल्म की सफलता के बाद देव आनंद फिल्म उद्योग में एक अच्छे अभिनेता के रूप में शुमार होने लगे।

इस बीच देव ने 'मुनीम जी', 'दुश्मन', 'कालाबाजार', 'सी.आई.डी', 'पेइंग गेस्ट', 'गैम्बलर', 'तेरे घर के सामने', 'काला पानी' जैसी कई सफल फिल्में दी। देव आनंद प्रख्यात उपन्यासकार आर.के. नारायण से काफी प्रभावित थे और उनके उपन्यास 'गाइड' पर फिल्म बनाना चाहते थे। आर.के. नारायणन की स्वीकृति के बाद उन्होंने हॉलीवुड के सहयोग से हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में फिल्म 'गाइड' का निर्माण किया, जो देव की पहली रंगीन फिल्म थी। इस फिल्म में जोरदार अभिनय के लिए देव को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी दिया गया। वर्ष 1970 में फिल्म 'प्रेम पुजारी' के साथ देव आनंद ने निर्देशन के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। हालांकि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह विफल रही, बावजूद इसके उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

वर्ष 1971 में उन्होंने फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का निर्देशन किया और इसकी कामयाबी के बाद उन्होंने अपनी कई फिल्मों का निर्देशन किया। इन फिल्मों में 'हीरा पन्ना', 'देश परदेस', 'लूटमार', 'स्वामी दादा', 'सच्चे का बोलबाला', 'अव्वल नंबर', 'बाजी', 'ज्वैल थीफ', 'सीआईडी', 'जॉनी मेरा नाम', 'अमीर गरीब', 'वारंट' जैसी कई हिट फिल्में शामिल रहीं। देव सिर्फ पर्दे पर ही नहीं, बल्कि असल जिंदगी में भी अपने प्रेम-प्रसंग को लेकर चर्चा में रहे। कई अभिनेत्रियों के साथ उनका नाम जोड़ा गया। फिर चाहे सुरैया हो या जीनत अमान, दोनों के साथ उनके प्रेम के चर्चे हवा में तैरते रहे।

कहा जाता है कि सुरैया उनका पहला प्यार थीं और जीनत को भी वह पसंद करते थे। वर्ष 2005 में जब सुरैया का निधन हुआ तो देव उन लोगों में से एक थे, जो उनके जनाजे के साथ थे। देव ने 1954 में कल्पना कार्तिक के साथ शादी की, लेकिन उनकी शादी अधिक समय तक नहीं चल सकी। कल्पना ने बाद में एकाकी जीवन को गले लगा लिया। देव ने अपने बेटे सुनील आनंद को फिल्मों में स्थापित करने के लिए बहुत प्रयास किए, लेकिन सफल नहीं हो सके। उनकी बेटी का नाम देविना आनंद है।

देव को वर्ष 1993 में फिल्मफेयर 'लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' और 1996 में स्क्रीन वीडियोकॉन 'लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित किया गया। बाद में उन्होंने अमेरिकी फिल्म 'सांग ऑफ लाइफ' का निर्दशन भी किया। प्रेम कहानी पर आधारित इस संगीतमय फिल्म की शूटिंग अमेरिका में हुई। फिल्म में मुख्य भूमिका देव आनंद ने निभाई, जबकि अन्य सभी कलाकार अमेरिकी थे। देव को अभिनय के लिए दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। उन्हें पहला फिल्म फेयर पुरस्कार वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म 'काला पानी' के लिए दिया गया। इसके बाद वर्ष 1965 में 'गाइड' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार उन्हें मिला।

देव आनंद को वर्ष 2001 में भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। हिन्दी सिनेमा में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए वर्ष 2002 में देव आनंद को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारतीय सिनेमा के सदाबहार अभिनेता देवानंद का तीन दिसंबर, 2011 को लंदन में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वह 88 वर्ष के थे। आज भले ही वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका अंदाज, जिंदादिली लोगों के जहन में जिंदा है।

भगवान विश्वकर्मा: इन्द्रपुरी से लेकर यमपुरी तक के रचयिता

हिंदू धर्म में मानव विकास को धार्मिक व्यवस्था के रूप में जीवन से जोड़ने के लिए विभिन्न अवतारों का विधान मिलता है। इन्हीं अवतारों में से एक भगवान विश्वकर्मा को दुनिया का इंजीनियर माना गया है, अर्थात समूचे विश्व का ढांचा उन्होंने ही तैयार किया है। वे ही प्रथम आविष्कारक थे। हिंदू धर्मग्रंथों में यांत्रिक, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र विद्या, वैमानिकी विद्या आदि का जो प्रसंग मिलता है, इन सबके अधिष्ठाता विश्वकर्मा माने जाते हैं। इस बार विश्वकर्मा पूजा 17 सितम्बर दिन शनिवार को पड़ रही है|

विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता रहा है। प्राचीन शास्त्रों में वैमानकीय विद्या, नवविद्या, यंत्र निर्माण विद्या आदि का उपदेश भगवान विश्वकर्मा ने दिया। माना जाता है कि प्राचीन समय में स्वर्ग लोक, लंका, द्वारिका और हस्तिनापुर जैसे नगरों के निर्माणकर्ता भी विश्वकर्मा ही थे। माना जाता है कि विश्वकर्मा ने ही इंद्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पांडवपुरी, सुदामापुरी और शिवमंडलपुरी आदि का निर्माण किया। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा निर्मित हैं। कर्ण का कुंडल, विष्णु का सुदर्शन चक्र, शंकर का त्रिशूल और यमराज का कालदंड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है।

एक कथा के अनुसार यह मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण अर्थात् विष्णु भगवान क्षीर सागर में शेषशय्या पर आविर्भूत हुए। उनके नाभि-कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र ‘धर्म’ तथा धर्म के पुत्र ‘वास्तुदेव’ हुए। कहा जाता है कि धर्म की ‘वस्तु’ नामक स्त्री से उत्पन्न ‘वास्तु’ सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की ‘अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए थे। अपने पिता की भांति ही विश्वकर्मा भी आगे चलकर वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने। भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं। उन्हें कहीं पर दो बाहु, कहीं चार, कहीं पर दस बाहुओं तथा एक मुख और कहीं पर चार मुख व पंचमुखों के साथ भी दिखाया गया है। उनके पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ हैं।

यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार भी वैदिक काल में किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरूपों और अवतारों का वर्णन मिलता है :

विराट विश्वकर्मा : सृष्टि के रचयिता

धर्मवंशी विश्वकर्मा : शिल्प विज्ञान विधाता और प्रभात पुत्र

अंगिरावंशी विश्वकर्मा : आदि विज्ञान विधाता और वसु पुत्र

सुधन्वा विश्वकर्मा : विज्ञान के जन्मदाता (अथवी ऋषि के पौत्र)

भृंगुवंशी विश्वकर्मा : उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र)

विश्वकर्मा के विषय में कई भ्रांतियां हैं। बहुत से विद्वान विश्वकर्मा नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है। कुछ विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं, तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं। ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं लिखी हुई हैं। यही सूक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सूक्त मंत्र 16 से 31 तक 16 मंत्रों में आया है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द इंद्र व सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं। स्कंद पुराण प्रभात खंड के इस श्लोक की भांति किंचित पाठभेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है :

बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।

प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।

विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापति: ।।16।।

महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। भारत में शिल्प संकायों, कारखानों और उद्योगों में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को भगवान विश्वकर्मा पूजनोत्सव का आयोजन किया जाता है। भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षाऋतु के अंत और शरदऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं। चूंकि सूर्य की गति अंग्रेजी तारीख से संबंधित है, इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंंबर को पड़ती है। जैसे मकर संक्रांति अमूमन 14 जनवरी को ही पड़ती है। ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय: 17 सितंबर को ही पड़ती है।

भगवान विश्वकर्मा की महत्ता को सिद्ध करने वाली एक कथा भी है। कथा के अनुसार, काशी में धार्मिक आचरण रखने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण तो था, परंतु स्थान-स्थान पर घूमने और प्रयत्न करने पर भी वह भोजन से अधिक धन प्राप्त नहीं कर पाता था। उसके जीविकोपार्जन का साधन निश्चित नहीं था। पति के समान ही पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी। पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा, ‘तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी अवश्य ही इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य सुनो।’ इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। तभी से विश्वकर्मा की पूजा धूमधाम से की जाने लगी।