जाने भोलेनाथ का वह रहस्य जिसके बाद कहलाये नीलकंठ

हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान भोलेनाथ के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। भगवान शिव ने सिर पर चन्द्रमा को धारण किया तो शशिधर कहलाये| पतित पावनी मां गंगा को आपनी जटाओं में धारण किया तो गंगाधर कहलाये| भूतों के स्वामी होने के कारण भूतवान पुकारे गए| विषपान किया तो नीलकंठ कहलाये| क्या आपको पता है भगवान भोलेनाथ नीलकंठ क्यों कहलाये गए अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं 

दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता होगा| दुर्वासा ऋषि अपने क्रोध के लिए जाने जाते हैं। एक बार की बात है दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए कैलाश पर जा रहे थे, तभी मार्ग में उनकी भेंट देवराज इन्द्र से हो जाती है| इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को प्रणाम किया तो इन्द्र के इस विनम्र व्यवहार से खुश होकर दुर्वासा ऋषि ने उन्हें भगवान विष्णु का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के घमंड में चूर देवराज ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा भगवान विष्णु के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया। 

इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के दिव्य पुष्प का तिरस्कार होते देख दुर्वासा के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को वैभव से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और धनहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन देख दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपना परचम फहरा दिया। 

स्वर्ग पर देवताओं का राज देख इन्द्र देवगुरु बृहस्पृति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में प्रगट गये| इन्द्र की दशा देख ब्रम्हाजी ने कहा कि भगवान विष्णु के भोगरूपी फूल का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गई हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान विष्णु की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा। 

ब्रम्हा जी के दिशानिर्देश से इन्द्र भगवान विष्णु की शरण में गए, सभी देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले- भगवन! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रुठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में है, हमारी रक्षा कीजिए।

भगवान विष्णु ने देवताओं से दानवों से दोस्ती कर उनके साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा। उन्होंने समुद्र की गहराइयों में छिपे अमृत के कलश और मणि रत्नों के बारे में बताया कि उसे पाने से वे सभी फिर से वैभवशाली हो जाएंगे। भगवान विष्णु के कहे अनुसार इन्द्र सहित सभी देवता दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया। 

समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे। अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गरमी से जलने लगे।

देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान शिव विषपान के लिए तैयार हो गए। उन्होंने भयंकर विष को हथेलियों में भरा और भगवान विष्णु का स्मरण कर उसे पी गए। उस विष को भगवान भोलेनाथ ने कंठ में ही रोक कर उसका प्रभाव समाप्त कर दिया। विष के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया और वे संसार में नीलंकठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

कहा जाता है कि जिस समय भोलेनाथ विषपान कर रहे थे, उस समय विष की कुछ बूँदें नीचे गिर गईं। जिन्हें बिच्छू, साँप आदि जीवों और कुछ वनस्पतियों ने ग्रहण कर लिया। इसी विष के कारण वे विषैले हो गए। विष का प्रभाव समाप्त होने पर सभी देवगण भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे।

जाने नागपंचमी के दिन क्यों पीटी जाती हैं गुड़िया

नागपंचमी हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है| इस दिन भगवान भोलेनाथ के साथ- साथ उनके गले का श्रृंगार नागदेवता की भी पूजा होती है| नागपंचमी का त्यौहार देश केविभिन्न भागों में मनाया जाता है| लेकिन उत्तर प्रदेश में इसे मनाने का ढंग कुछ अनूठा है| यहाँ नागपंचमी के दिन महिलाएं व लड़कियां घर के पुराने कपड़ों की गुड़िया बनाती हैं जिसे लड़के कोड़ों व डंडों से पीटते हैं| क्या आपको पता है कि ऐसा क्यों होता है- 

इस बारे में एक प्रचलित कथा है- 

तक्षक नाग के बारे में आपने कई धार्मिक पुस्तकों में पढ़ा होगा| माना जाता है कि तक्षक नाग काफी जहरीला था| इसमें इतनी शक्ति थी कि अपने विष से हरे-भरे वृक्ष को भी सूखा सकता था| कहा जाता है कि एक बार महाराज परीक्षित को एक ऋषि ने शाप दे दिया कि तक्षक तुम्हें डसेगा जिससे तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी| ऋषि के श्राप से तक्षक ने नियत समय पर परीक्षित को डस लिया| इससे परीक्षित की मृत्यु हो गयी| 

धीरे- धीरे समय बीतता गया और तक्षक की चौथी पीढी में कन्या का विवाह राजा परीक्षित की चौथी पीढी में हुआ| उस कन्या ने ससुराल में एक महिला को यह रहस्य बताकर उससे इस बारे में किसी को भी नहीं बताने के लिए कहा| कहते हैं कि औरतों के बात हजम नहीं होती और उस महिला ने दूसरी महिला को यह बात बता दी और उसने भी उससे यह राज किसी से नहीं बताने के लिए कहा। लेकिन धीरे-धीरे यह बात पूरे नगर में फैल गई।

तक्षक के तत्कालीन राजा ने इस रहस्य को उजागर करने पर नगर की सभी लड़कियों को चौराहे पर इकट्ठा करके कोड़ों से पिटवा कर मरवा दिया। वह इस बात से क्रुद्ध हो गया था कि औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचती है। तभी से नागपंचमी पर गुड़िया को पीटने की परम्परा है।

वहीं एक दूसरी कथा के मुताबिक, किसी नगर में एक भाई अपनी बहन के साथ रहता था| दोनों भाई बहन एक दूसरे से बहुत प्रेम करते थे| भाई, भगवान भोलेनाथ और मां काली का भक्त था। वह प्रतिदिन भगवान् भोलेनाथ के मंदिर जाता था जहाँ उसे एक नागदेवता के दर्शन होते थे| वह लड़का रोजाना उस नाग को दूध पिलाने लगा| धीरे- धीर दोनों में प्रेम बढ़ने लगा| लड़के को देखते ही सांप अपनी मणि छोड़कर उसके पैरों में लिपट जाता था। 

एक बार सावन का महीना था। बहन, भाई के साथ सज धजकर मंदिर जाने के लिए तैयार हुई। नये गेहूं और चने की मीठी खीर, फल, फूल लेकर भाई संग मंदिर गयी। वहां रोज की तरह सांप अपनी मणि छोड़कर भाई के पैरों मे लिपट गया। बहन को लगा कि सांप भाई को डस रहा है। इस पर ने वह दलीय सांप पर दे मारी और उसे पीट- पीटकर मर डाला| भाई ने जब अपनी बहन को पुरी बात बताई तो वह रोने लगी और पश्चाताप करने लगी| लोगों ने कहा कि सांप देवता का रूप होते हैं इसलिए बहन को दंड और पूजा जरूरी है। पर बहन ने भाई की जान बचाने के लिए सांप को मारा है। इसलिए बहन के रूप में यानी गुड़िया को हर काल में दंड भुगतना पड़ेगा| तभी से गुडिया का यह पर्व मनाया जाने लगा|

श्रद्धा व विश्वास का पर्व है नाग पंचमी

नाग पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन माह की शुक्ल पक्ष के पंचमी को नाग पंचमी के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 23 जुलाई दिन सोमवार को मनाया जायेगा| यह श्रद्धा व विश्वास का पर्व है| इस दिन भगवान भोलेनाथ के साथ साथ उनके गले के श्रृंगार नागदेवता की भी पूजा होती है| उत्तर भारत में नाग पंचमी के दिन मनसा देवी की पूजा करने का भी विधान है| देवी मनसा को नागों की देवी माना गया है, इसलिये बंगाल, उडिसा और अन्य क्षेत्रों में मनसा देवी के दर्शन व उपासना का कार्य किया जाता है|

नाग पंचमी की विशेषता-

हिंदी धर्म शास्त्रों के अनुसार पंचमी तिथि के स्वामी नाग देवता है| श्रावण मास में नाग पंचमी होने के कारण इस मास में धरती खोदने का कार्य नहीं किया जाता है| श्रावण मास के विषय मे यह मान्यता है कि इस माह में भूमि में हल नहीं चलाना चाहिए, नीवं नहीं खोदनी चाहिए| इस अवधि में भूमि के अंदर नाग देवता का विश्राम कर रहे होते है| भूमि के खोदने से नाग देव को कष्ट होने की संभावना रहती है|

नाग पंचमी की पूजन विधि-

नाग पंचमी के दिन प्रातःकाल उठकर घर की सफाई कर नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएँ। उसके बाद स्नान कर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजन के लिए सेंवई-चावल आदि ताजा भोजन बनाएँ। कुछ भागों में नागपंचमी से एक दिन भोजन बना कर रख लिया जाता है और नागपंचमी के दिन बासी खाना खाया जाता है।

इसके बाद दीवाल पर गेरू पोतकर पूजन का स्थान बनाया जाता है। फिर कच्चे दूध में कोयला घिसकर उससे गेरू पुती दीवाल पर घर जैसा बनाते हैं और उसमें अनेक नागदेवों की आकृति बनाते हैं। कुछ जगहों पर सोने, चांदी, काठ व मिट्टी की कलम तथा हल्दी व चंदन की स्याही से अथवा गोबर से घर के मुख्य दरवाजे के दोनों बगलों में पाँच फन वाले नागदेव अंकित कर पूजते हैं।

सर्वप्रथम नागों की बांबी में एक कटोरी दूध चढ़ा आते हैं। और फिर दीवाल पर बनाए गए नागदेवता की दूध, दूब, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, जल, कच्चा दूध, रोली और चावल आदि से पूजन कर सेंवई व मिष्ठान से उनका भोग लगाते हैं।फिर कथा सुनकर आरती करते हैं|

नागदेवता की नाग स्त्रोत या निम्न मंत्र का जाप करें-

" ऊँ कुरुकुल्ये हुँ फट स्वाहा"

इस मंत्र की तीन माला जप करने से नाग देवता प्रसन्न होते हैं| नाग देवता को चंदन की सुगंध विशेष प्रिय होती है| इसलिये पूजा में चंदन का प्रयोग करना चाहिए| इस दिन की पूजा में सफेद कमल का प्रयोग किया जाता है| उपरोक्त मंत्र का जाप करने से "कालसर्प योग' के अशुभ प्रभाव में कमी आती है| 

नागपंचमी की कथा-

एक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में एक सेठजी के सात पुत्र थे। सातों के विवाह हो चुके थे। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की विदूषी और सुशील थी, परंतु उसके भाई नहीं था। एक दिन बड़ी बहू ने घर लीपने को पीली मिट्टी लाने के लिए सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी डलिया और खुरपी लेकर मिट्टी खोदने लगी। तभी वहां एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने उसे रोकते हुए कहा- 'मत मारो इसे? इस बेचारे का क्या अपराध है' यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा तब सर्प एक ओर जा बैठा। इसपर छोटी बहू ने उससे कहा-'हम अभी लौट कर आते हैं तुम यहां से जाना मत। यह कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और वहाँ कामकाज में फँसकर सर्प से जो वादा किया था उसे भूल गई।

उसे दूसरे दिन वह बात याद आई तो सब को साथ लेकर वहाँ पहुँची और सर्प को उस स्थान पर बैठा देखकर बोली- सर्प भैया नमस्कार! सर्प ने कहा- 'तू भैया कह चुकी है, इसलिए तुझे छोड़ देता हूं, नहीं तो झूठी बात कहने के कारण तुझे अभी डस लेता। वह बोली- भैया मुझसे भूल हो गई, उसकी क्षमा माँगती हूं, तब सर्प बोला- अच्छा, तू आज से मेरी बहन हुई और मैं तेरा भाई हुआ। तुझे जो मांगना हो, माँग ले। वह बोली- भैया! मेरा कोई नहीं है, अच्छा हुआ जो तू मेरा भाई बन गया।

कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सर्प मनुष्य का रूप रखकर उसके घर आया और बोला कि 'मेरी बहन को भेज दो।' सबने कहा कि 'इसके तो कोई भाई नहीं था, तो वह बोला- मैं दूर के रिश्ते में इसका भाई हूँ, बचपन में ही बाहर चला गया था। उसके विश्वास दिलाने पर घर के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि 'मैं वहीं सर्प हूँ, इसलिए तू डरना नहीं और जहां चलने में कठिनाई हो वहां मेरी पूछ पकड़ लेना। उसने कहे अनुसार ही किया और इस प्रकार वह उसके घर पहुंच गई। वहाँ के धन-ऐश्वर्य को देखकर वह चकित हो गई।

एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा- 'मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ, तू अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे यह बात ध्यान न रही और उससे गर्म दूध पिला दिया, जिसमें उसका मुख बुरी तरह जल गया। यह देखकर सर्प की माता बहुत क्रोधित हुई। परंतु सर्प के समझाने पर चुप हो गई। तब सर्प ने कहा कि बहन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे बहुत सा सोना, चाँदी, जवाहरात, वस्त्र-आभूषण आदि देकर उसके घर पहुँचा दिया।

इतना ढेर सारा धन देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या से कहा- भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे तो उससे और भी धन लाना चाहिए। सर्प ने यह वचन सुना तो सब वस्तुएँ सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू ने कहा- 'इन्हें झाड़ने की झाड़ू भी सोने की होनी चाहिए'। तब सर्प ने झाडू भी सोने की लाकर रख दी।

सर्प ने छोटी बहू को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया था। उसकी प्रशंसा उस देश की रानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि- सेठ की छोटी बहू का हार यहाँ आना चाहिए।' राजा ने मंत्री को हुक्म दिया कि उससे वह हार लेकर शीघ्र उपस्थित हो मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि 'महारानी जी छोटी बहू का हार पहनेंगी, वह उससे लेकर मुझे दे दो'। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार मंगाकर दे दिया।

छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने सर्प भाई को याद किया और आने पर प्रार्थना की- भैया ! रानी ने हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जब वह हार उसके गले में रहे, तब तक के लिए सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सर्प बन गया। यह देखकर रानी चीख पड़ी और रोने लगी।

यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठ जी डर गए कि राजा न जाने क्या करेगा? वे स्वयं छोटी बहू को साथ लेकर उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से पूछा- तुने क्या जादू किया है, मैं तुझे दण्ड दूंगा। छोटी बहू बोली- राजन! क्षमा कीजिए, यह हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और दूसरे के गले में सर्प बन जाता है। यह सुनकर राजा ने वह सर्प बना हार उसे देकर कहा- अभी पहनकर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना वैसे ही हीरों-मणियों का हो गया।

यह देखकर राजा को उसकी बात का विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार में दीं। छोटी बहू अपने हार सहित घर लौट आई। उसके धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या के कारण उसके पति को सिखाया कि छोटी बहू के पास कहीं से धन आया है। यह सुनकर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- ठीक-ठीक बता कि यह धन तुझे कौन देता है? तब वह सर्प को याद करने लगी। तब उसी समय सर्प ने प्रकट होकर कहा- यदि मेरी बहन के आचरण पर संदेह प्रकट करेगा तो मैं उसे डस लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। उसी दिन से नागपंचमी का त्यौहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं।

वहीँ, एक अन्य कथा के अनुसार, किसी नगर में एक किसान अपने परिवार सहित रहता था। उसके तीन बच्चे थे-दो लड़के और एक लड़की। एक दिन जब वह हल चला रहा था तो उसके हल के फल में बिंधकर सांप के तीन बच्चे मर गए। बच्चों के मर जाने पर मां नागिन विलाप करने लगी और फिर उसने अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का प्रण किया। एक रात्रि को जब किसान अपने बच्चों के साथ सो रहा था तो नागिन ने किसान, उसकी पत्नी और उसके दोनों पुत्रों को डस लिया। दूसरे दिन जब नागिन किसान की पुत्री की डसने आई तो उस कन्या ने डरकर नागिन के सामने दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी। उस दिन नागपंचमी थी। नागिन ने प्रसन्न होकर कन्या से वर मांगने को कहा। लड़की बोली-'मेरे माता-पिता और भाई जीवित हो जाएं और आज के दिन जो भी नागों की पूजा करे उसे नाग कभी न डसे। नागिन तथास्तु कहकर चली गई और किसान का परिवार जीवित हो गया। उस दिन से नागपंचमी को खेत में हल चलाना और साग काटना निषिद्ध हो गया।

भगवान के कल्कि अवतार से होगा कलयुग का अंत

भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार हैं| भगवान विष्णु ईश्वर के तीन मुख्य रुपों में से एक रूप हैं इन्हें त्रिमूर्ति भी कहा जाता है ब्रह्मा विष्णु, महेश के मिलन से ही इस त्रिमूर्ति का निर्माण होता है| सर्वव्यापक भगवान श्री विष्णु समस्त संसार में व्याप्त हैं कण-कण में उन्हीं का वास है उन्हीं से जीवन का संचार संभव हो पाता है संपूर्ण विश्व श्री विष्णु की शक्ति से ही संचालित है वे निर्गुण, निराकार तथा सगुण साकार सभी रूपों में व्याप्त हैं|

पुराणों में भगवान विष्णु के दशावतारों का वर्णन है। इनमें से नौ अवतार हो चुके हैं, दसवें अवतार का आना अभी शेष है। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु का यह अवतार कल्कि अवतार कहलाएगा। पुराणों के अनुसार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को यह अवतार होगा, इसलिए इस दिन कल्कि जयंती का पर्व मनाया जाता है। इस बार यह तिथि 24 जुलाई दिन मंगलवार को पड़ रही है|

भगवान विष्णु के प्रमुख अवतार-

जब-जब पृथ्वीलोक पर धर्म की हानि हुई तब- तब भगवान विष्णु ने अपने भक्तों को बचाने व धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिए| भगवान विष्णु के कुछ अवतार इस प्रकार हैं-

मत्स्य अवतार- इस अवतार में भगवान विष्णु ने मछली का रूप धरा और पृथ्वी के जल मग्न होने पर ऋषि- मुनियों समेत कई जीवों की रक्षा की| भगवान ने ऋषि की नाव की रक्षा की थी तथा ब्रह्मा जी ने पुनः जीवन का निर्माण किया| एक अन्य कथा अनुसार शंखासुर राक्षस जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा गया तब विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को मुक्त करके उन्हें पुनः स्थापित किया|

कूर्म अवतार- इस अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था उनकी सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नों की प्राप्ति की|

वराहावतार अवतार- इस अवतार में भगवान विष्णु ने पृथ्वी कि रक्षा की थी, एक पौराणिक कथा अनुसार भगवान ने हिरण्याक्ष नामक राक्षस का वध किया था| हिरण्याक्ष हिरण्यकश्यप का भाई था| 

नरसिंहावतार- इस अवतार में भगवान श्रीहरि ने हिरण्यकश्यप का वध करके भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी| इसके अलावा वामन अवतार में विष्णु जी बौने के रूप में प्रकट हुए तथा राजा बलि से देवतओं की रक्षा की, त्रेता युग में 'राम' अवतार लेकर लंकापति रावण का वध किया| द्वापर में 'कृष्णावतार' हुआ| इस अवतार में कंस का किया, 'परशुराम अवतार' में विष्णु जी ने असुरों का संहार किया| 

माना जाता है कि भविष्य में कलयुग का अंत करने के लिए भगवान विष्णु कल्कि अवतार लेंगे| 

कल्कि अवतार की कथा- 

धर्म ग्रंथों में भगवान विष्णु के कल्कि अवतार के बारे में विस्तृत वर्णन है। उसके अनुसार कल्कि अवतार कलियुग व सतयुग के संधिकाल में होगा। यह अवतार 64 कलाओं से युक्त होगा। पुराणों के अनुसार उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद जिले के शंभल नामक स्थान पर विष्णुयशा नामक तपस्वी ब्राह्मण के घर भगवान कल्कि पुत्र रूप में जन्म लेंगे। कल्कि देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर संसार से पापियों का विनाश करेंगे और धर्म की पुन:स्थापना करेंगे।

भारत में कल्कि अवतार के कई मंदिर भी हैं, जहां भगवान कल्कि की पूजा होती है। यह भगवान विष्णु का पहला अवतार है जो अपनी लीला से पूर्व ही पूजे जाने लगे हैं। जयपुर में हवा महल के सामने भगवान कल्कि का प्रसिद्ध मंदिर है। इसका निर्माण सवाई जयसिंह द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में भगवान कल्कि के साथ ही उनके घोड़े की प्रतिमा भी स्थापित है।

माँ गंगा को हमने किया मैला और शर्मिंदा भी नहीं हैं हम.....अंतिम भाग

गंगा भारत वर्षे भातृरूपेण संस्थिता/नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः जो स्वयं में एक इतिहास हो, जो देश की परम्परा, समाज, धर्म, कला, संस्कृति की जीवन रेखा हो, जिसे पतित पावन नदी का गौरव प्राप्त हो, जिससे देश-विदेश के लोग प्यार करते हों, जो हमेशा से समृद्धि से जुड़ी हो, आशा-निराशा, हार-जीत से जुड़ी हो, जिसने भारत की अनेक में भी एक संस्कृति का भरण पोषण किया हो, जो वर्षों से देश की सभी नदियों का नेतृत्व करती हो, जिसे हम और हमारे पुरखे माँ का दर्जा देते रहे हों, जिसने हिमालय से निकल कर मैदानों को सजाया-संवारा, खलिहानों में ही नहीं जिसने घरों में भी हरियाली भर दी हो, हम उसी मुक्तिदायिनी गंगा मईया की बात कर रहे हैं। गंगा से जुड़ा पौराणिक प्रसंग और एतिहासिक प्रसंग के साथ ही हमने आप को इसके द्वारा सिचाई, गंगा और इसके आसपास जे जीव-जंतुओं व गंगा के प्रदुषण के बारे में विस्तृत जानकारी दी थी अब पढ़िए इस कड़ी का अंतिम भाग ........| 


गंगा को प्रदूषण से बचाने के लिए हुए प्रयास 

सभ्यता का उद्गम स्थल रही गंगा भारतीय सामाजिक और राजनीतिक जीवन के प्रदूषण का एक प्रतिबिंब बन गयी है। बिजनौर, गढ़मुक्तेश्वर, मुरादाबाद, कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी, मुरादाबाद, बलिया, सोरों, फर्रुखाबाद, कन्नौज, बिठूर,मिर्जापुर में इस समय गंगा पराभव के निम्नतम चरण में है।इन सभी बड़े शहरों में गंगा इतनी मैली हो चुकी है की कोई उस ओर रुख ही नहीं करता| गंगा को निर्मल स्वरुप देने के लिए कई बार छोटे-छोटे जनांदोलन भी हुए, जिसे प्रदेश और केंद्र सरकार ने नजरअंदाज कर दिया।

बनारस में नदी की सफ़ाई के नाम पर लिया गया स्टीमर अधिकारियों के पर्यटन में इस्तेमाल होता है। यही वजह है कि गंगा की मुख्य धारा में जैसे ही आप जायें तो नरकंकाल का सामना होना आम बात है। बिजनौर से लेकर बलिया और उसके बाद हुगली तक नदी की मुख्यधारा इतनी दूषित हो गयी है कि लगता है मानो कोई नाला बह रहा है।

गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रख्यात योग गुरू बाबा रामदेव के नेतृत्व में गंगा रक्षा मंच, भारत जागृति मिशन के अंतर्गत गंगा रक्षा पंचायतों का आयोजन, पर्यावरणविद् जेडी अग्रवाल, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट या उत्तराखंड के विभिन्न संगठनों द्वारा चलाए जा रहे नदी बचाओ अभियान की सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि केंद्र सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया किया। इसके साथ ही वर्ष 2009 में नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी की स्थापना की गई। जिसे यह सुनिश्चित करने के लिए एक बहुक्षेत्रीय प्रोग्राम तैयार करने का कार्य सौंपा गया है कि वर्ष 2020 के बाद अपशिष्ट जल को गंगा में बहने से कैसे रोका जाए।

इसके साथ ही देश की सरकार गंगा की सफाई के लिए विश्व बैंक और जापान से सहयोग के तौर पर 1 अरब 500 करोड़ की व्यवस्था कर रही है| ये धनराशी जल्द मिल भी जाएगी लेकिन यहाँ ये भी देखना होगा की कही पहले के करोड़ों रुपयों की तरह ये पैसा भी यूं ही न बह जाये| इस गंगा को साफ़ करने के लिए सिर्फ सरकारी इच्छाशक्ति की ही ज़रूरत नहीं है बल्कि गंगा की पवित्रता फिर से वापस लाने के लिए जनसमूह की इच्छाशक्ति का होना भी आवश्यक है। 

जब सरकार और जनता की मजबूत इच्छाशक्ति के कारण लंदन की घोर प्रदूषित टेम्स नदी साफ-सुथरी हो सकती है तब गंगा भी हो सकती है। सिर्फ राष्ट्रीय नदी घोषित कर देने से ही कुछ नहीं होगा ज़रूरत है एक मुहीम की क्योंकि पर्वतराज हिमालय से निकलकर हरिद्वार से मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करने वाली गंगा दक्षिण पूर्व दिशा में टेढ़ी-मेढ़़ी बहती हुई छोटी नदियों को अपने में जोडती हुई 2510 किमी की लंबी यात्रा कर खाड़ी में गंगासागर के समुद्र में जा मिलती है और सारे रास्ते अपनी दुर्दशा पर रोती है।

जब सरकार और जनता की मजबूत इच्छाशक्ति के कारण लंदन की घोर प्रदूषित टेम्स नदी साफ-सुथरी हो सकती है तब गंगा भी हो सकती है। सिर्फ राष्ट्रीय नदी घोषित कर देने से ही कुछ नहीं होगा ज़रूरत है एक मुहीम की क्योंकि पर्वतराज हिमालय से निकलकर हरिद्वार से मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करने वाली गंगा दक्षिण पूर्व दिशा में टेढ़ी-मेढ़़ी बहती हुई छोटी नदियों को अपने में जोडती हुई 2510 किमी की लंबी यात्रा कर खाड़ी में गंगासागर के समुद्र में जा मिलती है और सारे रास्ते अपनी दुर्दशा पर रोती है।

वो शहर जहाँ सबसे ज्यादा मैली है मोक्षदायिनी 

जनसँख्या ----- शहर का नाम 

1927029 हरिद्वार 

3,682,194 वाराणसी 

1887577 फरुक्खाबाद 

1658005 कन्नौज 

457295 कानपुर 

1117094 इलाहबाद 

1657140 मिर्जापुर 

1885470 पटना 

3032226 भागलपुर 

7102430 मुर्शिदाबाद 

5520389 हुगली 

भगीरथ ने अपने प्रयासों से गंगा को पृथ्वी पर तो ला दिया लेकिन इसकी पवित्रता को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकारों की ही नहीं हम सब की भी है। यदि गंगा का अस्तित्व मिट गया तब उनका क्या होगा जो गंगा की बदौलत ही जी रहे हैं। जिनकी सुख-समृद्वि और अनवरत चलने वाली जीवन की धारा इसी पर टिकी है। गंगा का लुप्त होना एक सभ्यता के अंत होने जैसा होगा। इसलिए अभी संभल जाये वरना आने वाली पीढियां हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी|

...इस तरह राजा के पेट से हुआ पुत्र का जन्म

हिंदू धर्म में राम को विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था। जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।

मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।

रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:- ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।

इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। राजा युवनाश्व के कोई पुत्र नहीं था। वे इक्ष्वाकु वंशी राजा थे। युवनाश्व ने प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान किया। संतान के अभाव से संतप्त वे वन में रहकर भगवत् चिंतन करने लगे। एक बार वे शिकार खेलते विचर रहे थे। उस रात वे भूखे-प्यासे पानी की खोज में च्यवन के आश्रम में पहुँचे। च्यवन उन्हीं की संतानोंत्पति के लिए घोर तपस्या से इष्ट कर, मंत्र-पूत जल का एक कलश रखकर सो गये थें सब ऋषि-मुनि रात तें देर तक जागने के कारण इतने थककर सोये थे कि राजा के बार-बार पुकारने पर भी किसी की नींद नहीं खुली। जब च्यवन की नींद खुली तब तक राजा युवनाश्व कलश का अधिकांश जल पीकर शेष पृथ्वी पर बहा चुके थे। मुनि ने जाना तो राजा से कहा कि अब उन्हीं की कोख से बालक जन्म लेगा। 

सौ वर्ष उपरांत अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। देवताओं के यह पूछने पर कि अब बालक क्या पीयेगा? इंद्र ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। अंगुली पीते-तीते वह तेरह बित्ता बढ़ गया। बालक ने चिंतनमात्र से धनुर्वेद सहित समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इंद्र ने उसका राज्याभिषेक किया। मांधाता ने धर्म से तीनों लोकों को नाप लिया। बारह वर्ष की अनावृष्टि के समय इंद्र के देखते-देखते मांधाता ने स्वयं पानी की वर्षा की थी।

मांधाता ने समरांगण में अंगार, मरूत, असित, गय तथा बृहद्रथ को भी पराजित कर दिया था। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक का समस्त प्रदेश मांधाता का ही कहलाता था। उन्होंने सौ अश्वमेघ और सौ राजसूय यज्ञकरके दस योजन लंबे और एक योजन ऊंचे रोहित नामक सोने के मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणों को दान दिये थे। दीर्घकाल तक धर्मपूर्वक राज्य करने के उपरांत मांधाता ने विष्णु के दर्शनों के निमित्त तपस्या की। वे विष्णु से कर्म का उपदेश लेकर वनगमन के लिए उद्यत थे। विष्णु ने इंद्र का रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिये तथा क्षत्रियोचित कर्म का निर्वाह करने का उपदेश देकर मरूतों सहित अंतर्धान हो गये।

जानिए रुद्राक्ष का महत्व, कथा, उपयोगिता और असली- नकली की पहचान

रुद्राक्ष दो शब्दों के मेल से बना है पहला रूद्र का अर्थ होता है भगवान शिव और दूसरा अक्ष इसका अर्थ होता है आंसू| माना जाता है की रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओं से हुई है| रुद्राक्ष भगवान शिव के नेत्रों से प्रकट हुई वह मोती स्वरूप बूँदें हैं जिसे ग्रहण करके समस्त प्रकृति में आलौकिक शक्ति प्रवाहित हुई तथा मानव के हृदय में पहुँचकर उसे जागृत करने में सहायक हो सकी| 

रुद्राक्ष का मानवीय जीवन में महत्व-

रूद्राक्ष का बहुत अधिक महत्व होता है तथा हमारे धर्म एवं हमारी आस्था में रूद्राक्ष का उच्च स्थान है। रूद्राक्ष की महिमा का वर्णन शिवपुराण, रूद्रपुराण, लिंगपुराण श्रीमद्भागवत गीता में पूर्ण रूप से मिलता है। सभी जानते हैं कि रूद्राक्ष को भगवान शिव का पूर्ण प्रतिनिधित्व प्राप्त है।

रूद्राक्ष का उपयोग केवल धारण करने में ही नहीं होता है अपितु हम रूद्राक्ष के माध्यम से किसी भी प्रकार के रोग कुछ ही समय में पूर्णरूप से मुक्ति प्राप्त कर सकते है। ज्योतिष के आधार पर किसी भी ग्रह की शांति के लिए रत्न धारण करने की सलाह दी जाती है। असली रत्न अत्यधिक मंहगा होने के कारण हर व्यक्ति धारण नहीं कर सकता।

रूद्राक्ष धारण करने से जहां आपको ग्रहों से लाभ प्राप्त होगा वहीं आप शारीरिक रूप से भी स्वस्थ रहेंगे। ऊपरी हवाओं से भी सदैव मुक्त रहेंगे क्योंकि जो व्यक्ति कोई भी रूद्राक्ष धारण करता है उसे भूत पिशाच आदि की कभी भी कोई समस्या नहीं होती है। वह व्यक्ति बिना किसी भय के कहीं भी भ्रमण कर सकता हैं| रुद्राक्ष सिद्धिदायक, पापनाशक, पुण्यवर्धक, रोगनाशक, तथा मोक्ष प्रदान करने वाला है| शिव पुराण में कहा गया है कि रुद्राक्ष या इसकी भस्म को धारण करके 'नमः शिवाय' मंत्र का जप करने वाला मनुष्य शिव रूप हो जाता है| 

रुद्राक्ष से जुडी कथाएं- 

वेदों, पुराणों एवं उपनिषदों में रुद्राक्ष की महिमा का विस्तार पूर्वक वर्णन प्राप्त होता है| एक कथा अनुसार देवर्षि नारद ने भगवान नारायण से रुद्राक्ष के विषय में जानना चाहा तो नारायण भगवान ने उनकी जिज्ञासा को दूर करने हेतु उन्हें एक कथा सुनाते हैं| वह बोले, हे देवर्षि नारद एक समय पूर्व त्रिपुर नामक पराक्रमी दैत्य ने पृथ्वी पर आतंक मचा रखा था तथा देवों को प्राजित करके तीनो लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है| दैत्य के इस विनाशकारी कृत्य से सभी त्राही त्राही करने लगते हैं| 

ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र आदि देवता उससे मुक्ति प्राप्ति हेतु भगवान शिव की शरण में जाते हैं भगवान उनकी दारूण व्यथा को सुन उस दैत्य को हराने के लिए उससे युद्ध करते हैं त्रिपुर का वध करने के लिए भगवान शिव अपने नेत्र बंद करके अघोर अस्त्र का चिंतन करते हैं इस प्रकार दिव्य सहस्त्र वर्षों तक प्रभु ने अपने नेत्र बंद रखे अधिक समय तक नेत्र बंद रहने के कारण उनके नेत्रों से जल की कुछ बूंदें निकलकर पृथ्वी पर गिर गईं तथा उन अश्रु रूपी बूंदों से महारुद्राक्ष की उत्पत्ती हुई|

एक अन्य मान्यता अनुसार एक समय भगवान शिव हजारों वर्षों तक समाधि में लीन रहते हैं लंबे समय पश्चात जब भगवान भोलेनाथ अपनी तपस्या से जागते हैं, तब भगवान शिव की आखों से जल की कुछ बूँदें भूमि पर गिर पड़ती हैं| उन्हीं जल की बूँदों से रुद्राक्ष की उत्पत्ति हुई| 

इस प्रकार एक अन्य कथा अनुसार एक बार दक्ष प्रजापति ने जब एक महायज्ञ का आयोजन किया तो उसने अपनी पुत्री सती व अपने दामाद भगवान शंकर को नहीं बुलाया इस पर शिव के मना करने के बावजूद भी देवी सती उस यज्ञ में शामिल होने की इच्छा से वहाँ जाती हैं किंतु पिता द्वारा पति के अपमान को देखकर देवी सती उसी समय वहां उस यज्ञ की अग्नि में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देती हैं| पत्नी सती की जली हुई देह को देख भगवान शिव के नेत्रों से अश्रु की धारा फूट पड़ती है| इस प्रकार भगवान शिव के आँसू जहाँ-जहाँ भी गिरे वहीं पर रूद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हो जाते हैं| 

कहाँ पाए जाते हैं रुद्राक्ष-

अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर यह रुद्राक्ष कहाँ पाए जाते हैं? आपको बता दें कि रुद्राक्ष के पेड़ भारत समेत विश्व के अनेक देशों में पाए जाते हैं| भारत में रुद्राक्ष के पेड़ पहाड़ी और मैदानी दोनों इलाकों में पाया जाता है| रुद्राक्ष के पेड़ की लम्बाई 50 से लेकर 200 फिट तक होती है| इसके फूलों का रंग सफेद होता है तथा इस पर लगने वाला फल गोल आकार का होता है जिसके अंदर से गुठली रुप में रुद्राक्ष प्राप्त होता है| 

रुद्राक्ष भारत, के हिमालय के प्रदेशों में पाए जाते हैं. इसके अतिरिक्त असम, मध्य प्रदेश, उतरांचल, अरूणांचल प्रदेश, बंगाल, हरिद्वार, गढ़वाल और देहरादून के जंगलों में पर्याप्त मात्र में यह रुद्राक्ष पाए जाते हैं| इसके अलावा दक्षिण भारत में नीलगिरि और मैसूर में तथा कर्नाटक में भी रुद्राक्ष के वृक्ष देखे जा सकते हैं| रामेश्वरम में भी रुद्राक्ष पाया जाता है यहां का रुद्राक्ष काजू की भांति होता है| गंगोत्री और यमुनोत्री के क्षेत्र में भी रुद्राक्ष मिलते हैं| 

रुद्राक्ष के प्रकार-

आपको बता दें कि रुद्राक्ष एकमुखी से लेकर चौदह मुखी तक होते हैं| पुराणों में प्रत्येक रुद्राक्ष का अलग-अलग महत्व और उप‍योगिता उल्लेख किया गया है- 

एकमुखी रुद्राक्ष- एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात रुद्र स्वरूप है। इसे परब्रह्म माना जाता है। सत्य, चैतन्यस्वरूप परब्रह्म का प्रतीक है। साक्षात शिव स्वरूप ही है। इसे धारण करने से जीवन में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं रहता। लक्ष्मी उसके घर में चिरस्थायी बनी रहती है। चित्त में प्रसन्नता, अनायास धनप्राप्ति, रोगमुक्ति तथा व्यक्तित्व में निखार और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। 

द्विमुखी रुद्राक्ष- शास्त्रों में दोमुखी रुद्राक्ष को अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक माना जाता है। शिवभक्तों को यह रुद्राक्ष धारण करना अनुकूल है। यह तामसी वृत्तियों के परिहार के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इसे धारण करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है। चित्त में एकाग्रता तथा जीवन में आध्यात्मिक उन्नति और पारिवारिक सौहार्द में वृद्धि होती है। व्यापार में सफलता प्राप्त होती है। स्त्रियों के लिए इसे सबसे उपयुक्त माना गया है| 

तीनमुखी रुद्राक्ष- यह रुद्राक्ष ‍अग्निस्वरूप माना गया है। सत्व, रज और तम- इन तीनों यानी त्रिगुणात्मक शक्तियों का स्वरूप यह भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान देने वाला है। इसे धारण करने वाले मनुष्य की विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का दमन होता है और रचनात्मक प्रवृत्तियों का उदय होता है। किसी भी प्रकार की बीमारी, कमजोरी नहीं रहती। व्यक्ति क्रियाशील रहता है। यदि किसी की नौकरी नहीं लग रही हो, बेकार हो तो इसके धारण करने से निश्चय ही कार्यसिद्धी होती है। 

चतुर्मुखी रुद्राक्ष- चतुर्मुखी रुद्राक्ष ब्रह्म का प्रतिनिधि है। यह शिक्षा में सफलता देता है। जिसकी बुद्धि मंद हो, वाक् शक्ति कमजोर हो तथा स्मरण शक्ति मंद हो उसके लिए यह रुद्राक्ष कल्पतरु के समान है। इसके धारण करने से शिक्षा आदि में असाधारण सफलता मिलती है। 

पंचमुखी रुद्राक्ष- पंचमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर का प्रतिनिधि माना गया है। यह कालाग्नि के नाम से जाना जाता है। शत्रुनाश के लिए पूर्णतया फलदायी है। इसके धारण करने पर साँप-बिच्छू आदि जहरीले जानवरों का डर नहीं रहता। मानसिक शांति और प्रफुल्लता के लिए भी इसका उपयोग किया होता है। 

षष्ठमुखी रुदाक्ष- यह षडानन कार्तिकेय का स्वरूप है। इसे धारण करने से खोई हुई शक्तियाँ जागृत होती हैं। स्मरण शक्ति प्रबल तथा बुद्धि तीव्र होती है। कार्यों में पूर्ण तथा व्यापार में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त होती है। 

सप्तमुखी रुद्राक्ष- सप्तमुखी रुद्राक्ष को सप्तमातृका तथा ऋषियों का प्रतिनिधि माना गया है। यह अत्यंत उपयोगी तथा लाभप्रद रुद्राक्ष है। धन-संपत्ति, कीर्ति और विजय प्रदान करने वाला होता है साथ ही कार्य, व्यापार आदि में बढ़ोतरी कराने वाला है। 

अष्टमुखी रुद्राक्ष- अष्टमुखी रुद्राक्ष को अष्टदेवियों का प्रतिनिधि माना गया है। यह ज्ञानप्राप्ति, चित्त में एकाग्रता में उपयोगी तथा मुकदमे में विजय प्रदान करने वाला है। धारक की दुर्घटनाओं तथा प्रबल शत्रुओं से रक्षा करता है। इस रुद्राक्ष को विनायक का स्वरूप भी माना जाता है। यह व्यापार में सफलता और उन्नतिकारक है। 

नवममुखी रुद्राक्ष- नवमुखी रुद्राक्ष को नवशक्ति का प्रति‍‍निधि माना गया है| इसके अलावा इसे नवदुर्गा, नवनाथ, नवग्रह का भी प्रतीक भी माना जाता है। यह धारक को नई-नई शक्तियाँ प्रदान करने वाला तथा सुख-शांति में सहायक होकर व्यापार में वृद्धि कराने वाला होता है। इसे भैरव के नाम से भी जाना जाता है। इसके धारक की अकालमृत्यु नहीं होती तथा आकस्मिक दुर्घटना का भी भय नहीं रहता।

दशममुखी रुद्राक्ष- दशमुखी रुद्राक्ष दस दिशाएँ, दस दिक्पाल का प्रतीक है। इस रुद्राक्ष को धारण करने वाले को लोक सम्मान, कीर्ति, विभूति और धन की प्राप्ति होती है। धारक की सभी लौकिक-पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होती हैं।

एकादशमुखी रुद्राक्ष- यह रुद्राक्ष रूद्र का प्रतीक माना जाता है| इस रुद्राक्ष को धारण करने से किसी चीज का अभाव नहीं रहता तथा सभी संकट और कष्ट दूर हो जाते हैं। यह रुद्राक्ष भी स्त्रियों के लिए काफी फायदेमं रहता है| इसके बारे में यह मान्यता है कि जिस स्त्री को पुत्र रत्न की प्राप्ति न हो रही हो तो इस रुद्राक्ष के धारण करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है| 

द्वादशमुखी रुद्राक्ष- यह द्वादश आदित्य का स्वरूप माना जाता है। सूर्य स्वरूप होने से धारक को शक्तिशाली तथा तेजस्वी बनाता है। ब्रह्मचर्य रक्षा, चेहरे का तेज और ओज बना रहता है। सभी प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक पीड़ा मिट जाती है तथा ऐश्वर्ययुक्त सुखी जीवन की प्राप्ति होती है। 

त्रयोदशमुखी रुद्राक्ष - यह रुद्राक्ष साक्षात विश्वेश्वर भगवान का स्वरूप है यह। सभी प्रकार के अर्थ एवं सिद्धियों की पूर्ति करता है। यश-कीर्ति की प्राप्ति में सहायक, मान-प्रतिष्ठा बढ़ाने परम उपयोगी तथा कामदेव का भी प्रतीक होने से शारीरिक सुंदरता बनाए रख पूर्ण पुरुष बनाता है। लक्ष्मी प्राप्ति में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है।

चतुर्दशमुखी रुद्राक्ष- इस रुद्राक्ष के बारे में यह मान्यता है कि यह साक्षात त्रिपुरारी का स्वरूप है। चतुर्दशमुखी रुद्राक्ष स्वास्थ्य लाभ, रोगमुक्ति और शारीरिक तथा मानसिक-व्यापारिक उन्नति में सहायक होता है। इसमें हनुमानजी की शक्ति निहित है। धारण करने पर आध्यात्मिक तथा भौतिक सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। 

अन्य रुद्राक्ष-

गणेश रुद्राक्ष- एक मुखी से लेकर चतुर्दशमुखी रुद्राक्ष के बाद भी कुछ अन्य रुद्राक्ष होते हैं जैसे गणेश रुद्राक्ष| गणेश रुद्राक्ष की पहचान है उस पर प्राकृतिक रूप से रुद्राक्ष पर एक उभरी हुई सुंडाकृति बनी रहती है। यह अत्यंत दुर्लभ तथा शक्तिशाली रुद्राक्ष है। यह गणेशजी की शक्ति तथा सायुज्यता का द्योतक है। धारण करने वाले को यह बुद्धि, रिद्धी-सिद्धी प्रदान कर व्यापार में आश्चर्यजनक प्रगति कराता है। विद्यार्थियों के चित्त में एकाग्रता बढ़ाकर सफलता प्रदान करने में सक्षम होता है। यहाँ रुद्राक्ष आपकी विघ्न-बाधाओं से रक्षा करता है| 

गौरीशंकर रुद्राक्ष- यह शिव और शक्ति का मिश्रित स्वरूप माना जाता है। उभयात्मक शिव और शक्ति की संयुक्त कृपा प्राप्त होती है। यह आर्थिक दृष्टि से विशेष सफलता दिलाता है। पारिवारिक सामंजस्य, आकर्षण, मंगलकामनाओं की सिद्धी में सहायक है। 

शेषनाग रुद्राक्ष- जिस रुद्राक्ष की पूँछ पर उभरी हुई फनाकृति हो और वह प्राकृतिक रूप से बनी रहती है, उसे शेषनाग रुद्राक्ष कहते हैं। यह अत्यंत ही दुर्लभ रुद्राक्ष है। यह धारक की निरंतर प्रगति कराता है। धन-धान्य, शारीरिक और मानसिक उन्नति में सहायक सिद्ध होता है। 

असली रुद्राक्ष की पहचान-

शास्त्रों में कहा गया है की जो भक्त रुद्राक्ष धारण करते हैं भगवान भोलेनाथ उनसे हमेशा प्रसन्न रहते हैं| लेकिन सवाल यह उठता है अक्सर लोगों को रुद्राक्ष की असली माला नहीं मिल पाती है जिससे भगवान शिव की आराधना में खासा प्रभाव नहीं पड़ता है आज हम आपको रुद्राक्ष के बारे में कुछ जानकारियां देने जा रहे हैं जिसके द्वारा आप असली और नकली की पहचान कर सकते है-

रुद्राक्ष की पहचान के लिए रुद्राक्ष को कुछ घंटे के लिए पानी में उबालें यदि रुद्राक्ष का रंग न निकले या उस पर किसी प्रकार का कोई असर न हो, तो वह असली होगा| इसके आलावा आप रुद्राक्ष को पानी में डाल दें अगर वह डूब जाता है तो असली नहीं नहीं नकली| लेकिन यह जांच अच्छी नहीं मानी जाती है क्योंकि रुद्राक्ष के डूबने या तैरने की क्षमता उसके घनत्व एवं कच्चे या पके होने पर निर्भर करती है और रुद्राक्ष मेटल या किसी अन्य भारी चीज से भी बना रुद्राक्ष भी पानी में डूब जाता है| 

सरसों के तेल मे डालने पर रुद्राक्ष अपने रंग से गहरा दिखे तो समझो वो एक दम असली है|

माँ गंगा को हमने किया मैला और शर्मिंदा भी नहीं हैं हम..... पार्ट 2

गंगा भारत वर्षे भातृरूपेण संस्थिता/नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः जो स्वयं में एक इतिहास हो, जो देश की परम्परा, समाज, धर्म, कला, संस्कृति की जीवन रेखा हो, जिसे पतित पावन नदी का गौरव प्राप्त हो, जिससे देश-विदेश के लोग प्यार करते हों, जो हमेशा से समृद्धि से जुड़ी हो, आशा-निराशा, हार-जीत से जुड़ी हो, जिसने भारत की अनेक में भी एक संस्कृति का भरण पोषण किया हो, जो वर्षों से देश की सभी नदियों का नेतृत्व करती हो, जिसे हम और हमारे पुरखे माँ का दर्जा देते रहे हों, जिसने हिमालय से निकल कर मैदानों को सजाया-संवारा, खलिहानों में ही नहीं जिसने घरों में भी हरियाली भर दी हो, हम उसी मुक्तिदायिनी गंगा मईया की बात कर रहे हैं। गंगा से जुड़ा पौराणिक प्रसंग और एतिहासिक प्रसंग के बारे में हमने आप को कल जानकारी दी थी अब पढ़िए आगे ........| 


सिंचाई

गंगा भारत और पडोसी बांग्लादेश की कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था में बड़ा सहयोग तो करती ही है, साथ ही अपनी सहायक नदियों सहित बहुत बड़े क्षेत्र के लिए सिंचाई के साल भर स्रोत भी उपलब्ध कराती है। इन इलाकों में उगाया जाने वाला धान, गन्ना, दाल, तिलहन, आलू एवं गेहूँ गंगा के पानी से पोषित होता है। गंगा के तटीय इलाकों में दलदल और झीलों की वजह से लेग्यूम, मिर्च, सरसों, तिल, गन्ना और जूट की अच्छी फसल होती है। गंगा नदी में मत्स्य उद्योग भी लाखों लोगो को रोजगार प्रदान करता है। गंगा नदी में लगभग 375 मत्स्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं। वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर प्रदेश व बिहार में 111 मत्स्य प्रजातियों की उपलब्धता दर्शायी गयी है।

फरक्का बांध बन जाने से गंगा नदी में हिल्सा मछली के बीजोत्पादन में सहायता मिली है। इसके तट पर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथा प्राकृतिक सौंदर्य से भरे पर्यटन स्थल है जो राष्ट्रीय आय का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। गंगा तट के तीन बड़े शहर हरिद्वार, इलाहाबाद एवं वाराणसी जो तीर्थ स्थलों में विशेष स्थान रखते हैं। इस कारण यहाँ श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या निरंतर बनी रहती है और धार्मिक पर्यटन में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। हिन्दुओं का सबसे बड़ा पर्व कुम्भ है जो गंगा तट पर ही आयोजित होता है| 

यूपी और बिहार में गंगा से निकली नहरों से बड़ा लाभ हुआ है। दोनों ही सूबों में इस सिंचाई प्रणाली के चलते गन्ना, कपास और तिलहन जैसी नक़दी फ़सलों की पैदावार में वृद्धि हुई। पुरानी नहरें मुख्यत: गंगा-यमुना के दौआब इलाक़े में हैं। ऊपरी गंगा नहर हरिद्वार से शुरू होती है, और अपनी सहायक नहरों सहित 9,524 किलोमीटर लम्बी है। निचली गंगा नहर की लम्बाई अपनी सहायक नहरों सहित 8,238 किलोमीटर है और यह नरोरा से प्रारम्भ होती है। शारदा नहर से उत्तर प्रदेश में अयोध्या की भूमि सींची जाती है। 

जीव-जन्तु

16वीं -17वीं शताब्दी तक गंगा प्रदेश घने वनों से घिरा हुआ था। इसमें में जंगली हाथी, भैंस, गेंडा, शेर, बाघ विचरण करते थे। आज भी गंगा का तटवर्ती इलाका शांत और अनुकूल पर्यावरण के कारण पक्षियों का संसार अपने में संजोए हुए है। नदी व इसके आसपास मछलियों की 140 प्रजातियाँ, 35 सरीसृप, 42 स्तनधारी प्रजातियाँ, नीलगाय, सांभर, खरगोश, नेवला, चिंकारा बड़ी तादात में पाए जाते हैं।

गंगा के पर्वतीय किनारों पर लंगूर, लाल बंदर, भूरे भालू, लोमड़ी, चीते, बर्फीले चीते, हिरण, भौंकने वाले हिरण, सांभर, कस्तूरी मृग, सेरो, बरड़ मृग, साही आदि बहुतायत में देखने को मिलते हैं। इसके अलावा गंगा में पाई जाने वाली शार्क के कारण भी गंगा की प्रसिद्धि है जिसमें बहते हुये पानी में पाई जानेवाली शार्क के कारण विश्व के वैज्ञानिकों की काफ़ी रुचि है। सुंदरवन के नाम से जाना जाता है जो बंगाल टाईगर का इलाका है।

प्रदुषण 

तो आप ने देखा जिस नदी के साथ हमारा इतना पुराना रिश्ता है जिसके साथ हमारी आस्था हमारा समाज जुड़ा है आज वही गंगा माँ अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं| वैज्ञानिको के मुताबिक गंगा प्रदूषित होना अपने उदगम स्थान से ही आरंभ हो जाती हैं. पर्यटक ,तीर्थ यात्रा पर आने वाले गंदगी गंगा में प्रवाहित कर देते हैं जिससे वो दूषित हो रही हैं| नए और पुराने बनाए गए अस्पतालों से निकलने वाले मेडिकल कचरे को इसी नदी में डाल दिया जाता है| अतिथिगृहो और होटलों के मल- मूत्र को गंगा में ही डाला जा रहा है जिसके कारण इसका जल आरंभ से ही दूषित होता जा रहा हैं|

एक अनुमान के अनुसार हरदिन लगभग 260 मिलियन लीटर औद्योगिक अपशिष्ट गंगा में जहर घोल रहा है। गंगा में फेंके जाने वाले कुल कचरे में तक़रीबन अस्सी फीसद नगरों का कचरा होता है जबकि पंद्रह फीसद औद्योगिक कचरा। जहां एक ओर शहरी कचरा विभिन्न तरीकों से गंगा के प्राकृतिक स्वरूप को नष्ट कर रहा है वहीं औद्योगिक कचरा हानिकारक रसायनों द्वारा गंगा को जहरीला बना रहा है।

पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या विस्फोट के कारण गंगा किनारे की आबादी तेजी से बढ़ी है। इसके चलते सारा सीवेज गंगा में ही डाल दिया जाता है| ऋषिकेश से इलाहाबाद तक गंगा तट पर तक़रीबन 146 औद्योगिक इकाइयां हैं। इनमें चीनी मिल, पेपर फैक्ट्री, फर्टिलाइजर फैक्ट्री, तेलशोधक कारखाने तथा चमड़ा उद्योग प्रमुख हैं। इनसे निकलने वाला कचरा और रसायन युक्त गंदा पानी गंगा में गिरकर इसके पारिस्थितिक तंत्र को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। गंगा को माँ का दर्जा देने वाले हम और आप भी कम दोषी नहीं हैं हमारे द्वारा दाह-संस्कार, विसर्जित फूल और पॉलीथिन भी गंगा को बीमार कर रहे हैं।

हरिद्वार स्थित भारत हेवी इलेक्ट्रिक लिमिटेड के वैज्ञानिको के मुताबिक आज गंगा जल न पीने लायक और न नहाने लायक बचा हैं| गंगा निकलती तो हैं साफ और स्वच्छ लेकिन हरिद्वार से ही वह पूरी तरह से दूषित हो जाती हैं| एक रिपोर्ट में सामने आया है की यहाँ की दवा कंपनिया एसीटोन, हाईड्रोक्लोराइड अम्ल आदि गंगा में बहा देते हैं जिससे इस पवित्र नदी का जल दूषित हो गया हैं| इससे बचने के लिए उत्तराखंड सरकार को किसी भी प्रकार के कारखानों को प्रदुषण फ़ैलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए| इसके बावजूद भी यदि नदी को प्रदूषित किया जाय तो प्रदुषण फ़ैलाने वाले के खिलाफ कठोर से कठोर सजा का प्रावधान किया जाय|

केन्द्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक गंगा में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम होती जा रही हैं| एक रिपोर्ट में सामने आया है की वर्ष 1986 में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 8 .4 मिलीग्राम प्रति लीटर थी ,जो 2010 में घटकर 6 .13 मिलीग्राम प्रति लीटर पर पहुँच गई| नदी से मीठे पानी में पाई जाने वाली डॉल्फिन की संख्या भी लगातार घटती जा रही हैं| ये डॉल्फिन एक तरह से स्वच्छता का मीटर हैं| डॉल्फिन का शरीर कई ऐसे खतरनाक रसायनों का जानकारी सहज उपलब्ध करता हैं जो पानी के नमूने में नहीं मिलता|

गंगा नदी में कौलिफोर्म बैक्टीरिया की संख्या खतरनाक ढंग से बढ़ रही हैं| गंगा की दुर्दशा उत्तर प्रदेश में आने के बाद बढ़ती जाती है। सूबे में गंगा एक्शन प्लान के नाम पर करोड़ रुपये बहा दिए गए और गंगा आज भी वैसी ही है| यह सारा पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गया। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश मंद बिजनौर से लेकर बलिया तक गंगा में प्रदूषण निर्बाध गति से चलता रहता है।

रिपोर्ट का शेष भाग .....

माँ गंगा को हमने किया मैला और शर्मिंदा भी नहीं हैं हम.....

गंगा भारत वर्षे भातृरूपेण संस्थिता/नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः जो स्वयं में एक इतिहास हो, जो देश की परम्परा, समाज, धर्म, कला, संस्कृति की जीवन रेखा हो, जिसे पतित पावन नदी का गौरव प्राप्त हो, जिससे देश-विदेश के लोग प्यार करते हों, जो हमेशा से समृद्धि से जुड़ी हो, आशा-निराशा, हार-जीत से जुड़ी हो, जिसने भारत की अनेक में भी एक संस्कृति का भरण पोषण किया हो, जो वर्षों से देश की सभी नदियों का नेतृत्व करती हो, जिसे हम और हमारे पुरखे माँ का दर्जा देते रहे हों, जिसने हिमालय से निकल कर मैदानों को सजाया-संवारा, खलिहानों में ही नहीं जिसने घरों में भी हरियाली भर दी हो, हम उसी मुक्तिदायिनी गंगा मईया की बात कर रहे हैं। गंगा नदी पर टीम पर्दाफाश की विशेष रिपोर्ट .........| 

पतित पावन गंगा नदी जिसे सभी हिन्दू गंगा मईया भी कहते हैं कि, प्रधान शाखा भागीरथी है जो उत्तराखंड के कुमायूँ इलाके में पर्वतराज हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। गंगा के इस उद्गम स्थल की समुद्र तल से ऊँचाई 3140 मीटर है। यहाँ एक मंदिर है जहाँ देवी गंगा की मूर्ति स्थापित है इस मंदिर की मान्यता सारे देश में है। गंगोत्री ग्लेशियर 25 किमी लंबा और 4 किमी चौड़ा होने के साथ ही लगभग 40 मी. ऊँचा है। इसी ग्लेशियर से भागीरथी (गंगा नदी का एक नाम ) एक छोटे से गुफानुमा मुख से अवतरित होती है। इसका जल स्रोत 5000 मी ऊँचाई पर स्थित एक बेसिन है।

गौमुख के मार्ग में 3600 मी ऊँचे चिरबासा ग्राम में विशालकाए गोमुख हिमनद के दर्शन होते हैं। इस हिमनद में नंदा देवी पहाड़ , कामत पर्वत और त्रिशूल पर्वत की बर्फ़ पिघल कर आती है। यहाँ गंगा को अलकनन्दा कहा जाता है इसकी सहयोगी नदियाँ धौली, विष्णु गंगा तथा मंदाकिनी है। इनमे से एक धौली गंगा का अलकनंदा से विष्णु प्रयाग में मिलन होता है। यह स्थान समुद्र तल से 1372 मी. की ऊँचाई पर स्थित है। इसके बाद कर्ण प्रयाग में अलकनन्दा का कर्ण गंगा (पिंडर नदी) से संगम होता है। इसके उपरांत ऋषिकेश से 139 किमी दूर रुद्र प्रयाग में अलकनंदा मंदाकिनी से मिलती है। इसके बाद भागीरथी और अलकनन्दा 1500 फीट पर स्थित देव प्रयाग में संगम करती हैं यहाँ से यह सम्मिलित धारा गंगा नदी के नाम से आगे प्रवाहित होती है। इस तरह 200 किमी का पहाड़ी मार्ग तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरी के द्वार "हरिद्वार" में करती है।

इसके बाद आरंभ होती है गंगा की मैदानी यात्रा हरिद्वार से लगभग 800 किमी यात्रा करते हुए उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर,सोरों, फर्रुखाबाद, कन्नौज, बिठूर, कानपुर होते हुए गंगा इलाहाबाद (प्रयाग) पहुँचती है। यहाँ इसका संगम एक और बड़ी नदी यमुना से होता है। यह संगम दुनिया भर के हिन्दुओं के लिए महत्त्वपूर्ण तीर्थ है। इसे तीर्थराज प्रयाग कहा जाता है। इसके बाद हिन्दू धर्म की प्रमुख मोक्षदायिनी नगरी काशी (वाराणसी) में गंगा एक वक्र लेती है, जिससे यह यहाँ उत्तरवाहिनी कहलाती है। यहाँ से मीरजापुर, पटना, भागलपुर होते हुए पाकुर पहुँचती है। इस बीच इसमें बहुत-सी सहायक नदियाँ, जैसे सोन, गंडक, घाघरा, कोसी आदि मिल जाती हैं। 

भागलपुर में राजमहल की पहाड़ियों से यह दक्षिणवर्ती होती है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के गिरिया स्थान के पास गंगा नदी दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है-भागीरथी और पद्मा। भागीरथी नदी गिरिया से दक्षिण की ओर बहने लगती है जबकि पद्मा नदी दक्षिण-पूर्व की ओर बहती हुई फरक्का बैराज (जो 1974 में निर्मित हुआ ) से होती हुयी बंगला देश में प्रवेश कर जाती है। यहाँ से गंगा का डेल्टाई भाग शुरू हो जाता है। मुर्शिदाबाद शहर से हुगली शहर तक गंगा का नाम भागीरथी नदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदी है। गंगा का यह मैदान मूलत: एक भू-अभिनति गर्त है जिसका निर्माण मुख्य रूप से हिमालय पर्वतमाला निर्माण प्रक्रिया के तीसरे चरण में लगभग 6-4 करोड़ वर्ष पहले हुआ था। तब से इसे हिमालय और प्रायद्वीप से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ लाए हुए अवसादो से पाट रही है | गंगा नदी कि गहराई मैदानी इलाको में 1000 से 2000 मीटर है। 

गंगा से जुड़ा पौराणिक प्रसंग

हिन्दू पुराणों और धर्मं ग्रंथों में गंगा नदी से जुडी अनेक कथाएँ हैं। कथाओं के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीने की बूँदों से गंगा का निर्माण किया। एक कथा में उल्लेख है कि राजा सगर के साठ हजार बेटे थे| एक दिन राजा सगर ने देवलोक पर विजय प्राप्त करने के लिये एक अश्व मेघ यज्ञ किया। यज्ञ के लिये घोड़ा आवश्यक था जो ईर्ष्यालु इंद्र ने चुरा लिया था। सगर ने अपने सभी पुत्रों को घोड़े की तलाश में भेज दिया अंत में उन्हें घोड़ा पाताल लोक में मिला जो एक ऋषि के समीप बँधा था। सगर के पुत्रों ने यह सोच कर कि ऋषि ही घोड़े के गायब होने की वजह हैं उन्होंने ऋषि का अपमान किया।तपस्या में लीन ऋषि ने हजारों वर्ष बाद अपनी आँखें खोली और उनके क्रोध से सगर के सभी साठ हजार पुत्र जल कर वहीं भस्म हो गये। सगर के पुत्रों की आत्माएँ मोक्ष न मिलने के चलते अतृप्त थी| 

सगर के एक मात्र बचे पुत्र अंशुमान ने इन अतृप्त आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी।राजा भागीरथ ,राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र थे। उन्होंने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया। उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके अंतिम संस्कार कर, राख को गंगाजल में प्रवाहित किया जा सके| 

भागीरथ ने ब्रह्मा की घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिये तैयार हुये और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों की आत्माओं की मुक्ति संभव हो सके। तब गंगा ने कहा कि मैं इतनी ऊँचाई से जब पृथ्वी पर गिरूँगी, तो पृथ्वी इतना वेग कैसे सह पाएगी? तब भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया, और उन्होंने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोक कर, एक लट खोल दी, जिससे गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। वह धारा भागीरथ के पीछे-पीछे गंगा सागरसंगम तक गई, जहाँ सगर-पुत्रों का उद्धार हुआ। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयी और पृथ्वी वासियों के लिये श्रद्धा का केन्द्र बन गयीं। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल में भागीरथी कहते हैं। 

एतिहासिक प्रसंग 

“आईना- ए -अकबरी में उल्लेखित हैं की जब शहंशाह अकबर को प्यास लगती थी तो वे गंगा का जल पीना पसंद करते थे .यह निश्चित करने के लिए कि शहंशाह को ताजा और शुद्ध जल ही मिलता रहे ,इसके लिए अलग विभाग का गठन किया गया था .बाद में अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर|" ने भी गंगा का जल ही पीना पसंद करते थे | 

गंगा नदी को उत्तर भारत की अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड भी कहा गया है। यहाँ तीसरी सदी में अशोक महान के साम्राज्य से लेकर 16वीं सदी में स्थापित मुग़ल साम्राज्य तक सारी सभ्यताएँ विकसित हुईं। गंगा नदी अपना अधिकांश सफ़र भारतीय इलाक़े में ही तय करती है, लेकिन उसके विशाल डेल्टा क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा बांग्लादेश में है। गंगा के प्रवाह की सामान्यत: दिशा उत्तर-पश्चिमोत्तर से दक्षिण-पूर्व की तरफ है और डेल्टा क्षेत्र में प्रवाह आमतौर से दक्षिण मुखी है।


रिपोर्ट का शेष भाग .....