तो इस तरह हुई सृष्टि की रचना

एक बार मुनि क्रोष्टुकी ने महर्षि मरक डेय से पूछा, "महात्मा, हम जिस पृथ्वी पर निवास करते हैं यह अद्भुत रहस्यों से पूर्ण है। मैं जानना चाहता हूं कि इसकी सृष्टि कैसे हुई?" 

मरक डेय ने कहा, "वत्स, 'नार' शब्द का अर्थ नीर या जल होता है। नार में अवतरित हुए परम पुरुष नारायण कहलाए। उन्हीं को हम भगवान भी कहते हैं।"
उन्होंने बताया कि महापद्मकल्प की समाप्ति पर सर्वत्र जलमय हो अंधकार छा गया। भगवान नारायण नार (जल) के मध्य योगनिद्रा में थे। वे जब निद्रा से जाग्रतावस्था में आए तब महर्लोक के निवासियों, महासिद्ध योगियों आदि ने उनकी स्तुति की। अपने भक्तों की स्तुति सुनकर भगवान नारायण उनके सामने वराह रूप में प्रकट हुए। प्रलयकाल में समस्त पृथ्वी जलमय हो गई थी। 

भगवान ने वराह रूप में पृथ्वी को जल से ऊपर उठाया और जल पर नाव की तरह पृथ्वी को ठहराया। तब जलमग्न पर्वत आदि को यथा प्रकार अवस्थित कर उनकी सृष्टि की। परिणामस्वरूप पांच पर्वो से ससमन्वित अविद्या का आविर्भाव हुआ। इसी को प्रकृति या माया कहते हैं। इसी माया के कारण महत्सर्ग, भूतसर्ग और त्वक्सर्ग नामक तीन इंद्रिय जन्य सर्ग उदित हुए। ये ही प्राकृत सर्ग कहलाते हैं।

तदनंतर ब्रह्मा के संकल्प मात्र से स्थावर, जंगम, निर्यक, देव, वाक नामक पांच सर्ग आविर्भूत हुए। इन्हें वैकारित सर्ग भी कहते हैं। इस क्रम में तीन प्राकृत सर्ग और पांच वैकारित सर्गो के सम्मेलन से काक कौमार नामक एक और सर्ग बना। इस प्रकार ब्रह्मा की सृष्टि नौ प्रकार से संपन्न हुई। सृष्टि का रहस्य समझकर क्रोष्टुकी परमानंदित हुए, उनके मन मे इन नव विश रचनाओं के विस्तृत विवरण जानने की जिज्ञासा हुई। 

मरक डेय ने सृष्टि का रहस्य विस्तार से समझाया, "जिज्ञासु मुनिवर, तपोगुण से युक्त स्त्रष्टा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम अपने जघनों से दानवों का सृजन किया और तत्काल अपने शरीर को त्याग दिया। वही अंधकारयुक्त रात्रि बना। तदुपरांत विधाता ने अपने मुख से देवताओं की सृष्टि की। इस रचना के पश्चात स्रष्टा ने पुन: देह त्याग किया, वह दिन के रूप में परिवर्तित हुआ। इसी क्रम में एक भिन्न सत्वगुण मूलक शरीर धारण कर पितृ देवताओं का सृजन किया।

इस देह के त्यागते ही वह संध्या के रूप में प्रकट हुई। अंत में चतुर्मुख धारी ब्रह्मा ने रजोगुण प्रधान देह धारण किया, इस देह के त्यागते ही उसके भीतर से मनुष्य पैदा हुए। इस देह त्याग के साथ ज्योत्स्ना उदित हुई। इस कारण से राक्षसों को रात्रि के समय अधिक बल प्राप्त होता है और मनुष्यों को उदय काल में मंत्र शक्ति अधिक प्राप्त होती है। यही कारण है कि राक्षस रात्रिकाल में और मानव प्रभात काल में शत्रु संहार करने में अधिक समर्थ होते हैं।

"सुनो, ब्रह्मा की सृष्टि यहीं समाप्त नहीं हुई। इसके बाद विधाता के विविध अवयवों से यक्ष, किन्नर, गंधर्व, अप्सराएं, पशु, पक्षी, मृग, औषध, वनस्पति, लता-गुल्म, चर-अचर आदि भूत समुदाय का जन्म हुआ।

अंत में ब्रह्मा के दाएं मुख से यज्ञ, श्रौत, गायत्री, छंद, ऋग्वेद आदि का उदय हुआ। बाएं मुख से त्रिष्णुप छंद, पंच दशस्तोम, बृहत सामवेद, पश्चिम मुख से संपूर्ण सामदेव, जगती छंद, सप्त दश स्तोम, वैरूप आदि तथा उत्तर मुख से इक्कीस अधर्वणवेद, आप्तोर्यम, अनुष्ठुप छंद, वैराज का उद्भव हुआ। इस प्रकार ब्रह्मा के शरीर से समस्त प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, स्थावर, जंगम, अनुरूप, विकास, उनके अवशेष क्रम उत्पन्न हुए और पूर्व कल्पों की भांति सरस-विरस गुणों से प्रवर्धमान हुआ। से कार्य प्रत्येक कल्प में घटित होते हैं।

क्रोष्टुकी ने सृष्टि क्रम का विवरण प्राप्त कर महर्षि मरक डेय की अनेक प्रकार से स्तुति की, फिर भी उनकी जिज्ञासा बनी रही। महर्षि को प्रसन्न चित्त देख क्रोष्टुकी ने वर्णाश्रम धर्मो का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। इस पर मरक डेय ने सृष्टिक्रम के कुछ और रहस्य बताए।

"वत्स! स्त्रष्टा के समस्त अवयवों से हजारों मिथुन यानी दम्पति उत्पन्न हुए। उनका सौंदर्य अद्भुत था। वे रूप, यौवन और लावण्य में समान थे। वे प्रणय-द्वेष आदि गुणों से अतीत थे। नारियां रजोदोष से मुक्त थीं। यदि वे संतान की कामना रखते तो भगवान के नाम-स्मरण, देवताओं का ध्यान करके अपने संकल्प की सिद्धि कर लेते थे।" 

"उस काल में उनके कोई नगर, आवास गृह, नाम मात्र के लिए भी न थे। इसलिए वे पर्वत, नदी, समुद्र तथा सरोवरों में अपना समय व्यतीत करते थे। उनकी आयु चार हजार वर्ष की हुआ करती थी। उस युग के समाप्त होने पर युग धर्म के अतिक्रमण के कारण व ऊध्र्व लोक से भूलोक में पहुंच जाते। पुन: त्रेता युग में गृहों के रूप में प्रादुर्भूत कल्पतरुओं के आश्रम में पहुंच जाते। उनके पत्तों से उत्पन्न मधु का सेवन करते थे। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद वे राग और द्वेष के वशीभूत हो दुर्व्यसनों के शिकार हो जाते। परस्पर शत्रुता के कारण गृहस्थ वृक्षों को काटकर अन्य प्रदेशों में गए और वहां पर नगर, गांव, गृह आदि बनाए।"

"प्राय: नगर दुर्ग, कंदक आदि से युक्त होते हैं। दुर्ग और कंदकों के बिना साधारण भवनोंवाले आवास स्थलों को नगर शाखाएं कहते हैं। कृषि कर्म करनेवाले शूद्रों के द्वारा निर्मित कराए गए गृह समुदाय को ग्राम मानते हैं। इस प्रकार अनेक योजनों दूरी तक नगर और गांव अपने निवास के लिए बसाते हैं। व्यापार और वाणिज्य से दूर केवल पशु, भेड़, बकरियों से युक्त पशु समुदाय वाले ग्राम को यादव पल्ली कहते हैं। अब तुम योजना का परिणाम भी जानने को उत्सुक होंगे। सुनो, एक बालिश्त या बित्ते के माने बारह इंच होता है। दो बालिश्त एक हाथ होता है। चार हाथ एक दंड कहलाता है। दो हजार दंड एक कोस होता है। दो कोस एक गण्यूति और दो गण्यूतियां मिलकर एक योजन होता है।

"पृथ्वी लोक में पहुंचकर मनुष्य अन्न के अभाव में केवल मधुपान से अपना जीवन बिताने लगे थे। ऐसी स्थिति में दैव योग से वर्षा हुई। वर्षा के कारण वृक्ष और पौधे फलों से लद गए। फलों का सेवन कर उस युग के मनुष्य सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगे। कालांतर में उनमें राग-द्वेष उत्मन्न हुए। औषधियां नष्ट हो गईं। तब विधाता ने दयाद्र्र हो मेरू पर्वत को बछड़े के रूप में खड़ा करके भूदेवीरूपी गाय को दुहवा दिया। उसके भीतर से समस्त प्रकार के बीज उत्पन्न हुए। मनुष्य आनंद से नाच उठे।" 

"पृथ्वी को जोतकर मानव समुदाय ने बीज बोए। उन बीजों के कारण से पृथ्वी के गर्भ से गेहूं आदि सत्रह प्रकार के धान्य पैदा हुए। इन धान्यों को ग्राम औषधियां कहा गया। इन धान्यों के आहार के सेवन से वर्तमान युग में स्त्रियां रजस्वला होने लगीं। परिणामस्वरूप पुरुष और स्त्री के संयोग से संतान होने लगी।"

"इसी युग में ब्रह्मा ने मानव जाति को चार वर्णो में विभाजित किया। ब्रह्मा ने अपने मुख से उत्पन्न मनुष्यों को क्षत्रिय, जघनों से उत्पन्न मानवों को वैश्य तथा पादों से उत्पन्न मानव समुदाय को ब्राह्मण, वक्ष से उत्पन्न लोगों को शूद्र का नामकरण किया।

"अब उनके कर्मो का भी निर्धारण किया गया। वेद-सम्मत वैदिक धर्मो का आचरण करना ब्राह्मणों का कर्तव्य बताया गया। क्षत्रियों के लिए युद्ध और सुरक्षा कादायित्व सौंपा गया। कृषि कार्य वैश्य समुदाय को तथा शूद्रों को अग्रवर्णो की सेवा करना और कृषि कर्म का भार सौंपा गया।

"इस प्रकार वर्णाश्रम धर्मो की व्यवस्था करके समुचित रूप से उनका आचरण करनेवालों को क्रमश: ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक, वायुलोक और गंधर्वलोक की प्राप्ति गया।

"वत्स क्रोष्टुकी, मैं समझता हूं कि अब तुम्हारी सारी शंकाओं का समाधान हो गया है।" यह कहकर मरक डेय महर्षि संध्या वंदन करने निकल पड़े।

तो इस तरह ब्राह्मण को मिली प्रेतों से मुक्ति


चतुर्विध पुरुषार्थो में धर्म का स्थान सबसे ऊंचा माना गया है। धर्म किसी व्यक्ति, संप्रदाय, वर्ग, जाति, कुल, कुनबे या कबीले से जुड़ा हुआ नहीं होता। धर्म सार्वभौमिक होता है। मानव मात्र के लिए आचरण योग्य होता है। प्राचीन काल में धर्म पर बहुत अधिक चर्चा हुई। महर्षियों ने विस्तार से इसकी व्याख्या की है। स्कंद पुराण में धर्म सम्बंधी कई कथाएं कही गई हैं। पुराने समय में नैमिशारण्य में एक बार द्वादश वार्षिक 'सत्र योग' रचा गया। उस योग में देश के सारे ऋषि, मुनि और तपस्वी पहुंचे। उस संदर्भ में कई धार्मिक संगोष्ठियां भी हुईं। ऋषि-मुनि पुराण सुनकर आनंदित हुए। रोमहर्षण सूत महर्षि ने आगत तपस्वीवृंद को कृष्ण द्वैपायन से कही गई अनेक कथाएं सुनाईं। उस समय कुछ तपस्वियों ने महर्षि सूत से निवेदन किया, "महानुभव, आपने कई धार्मिक गूढ़ तत्वों का हमें उपदेश दिया, लेकिन हम उन्हें धारण नहीं कर पाए। कृपया धर्म संबंधी उपाख्यान हमें सरल भाषा में संक्षेप में समझाइए।"

इस पर सूत महर्षि ने धर्म सम्बंधी एक कथा सुनाई, पुराने समय में महाराजा चित्रकेतु ने धर्म का अर्थ जानने की उत्कंठा से महर्षि शौनक से प्रार्थना की। महर्षि ने सर्वलोक हितकारी धर्म का प्रवचन किया।

धर्म ही सदा व्यक्ति का साथ देता है। वही मानव-जीवन का एकमात्र आधार होता है। बंधु, बांधव, मित्र, हितैषी भी धर्मच्युत व्यक्ति का हित नहीं कर सकते और न साथ दे सकते हैं। धन, संपत्ति, पद और अधिकार के अभाव में भी धर्माचरण करनेवाला व्यक्ति सब जगह आदर-सम्मान और परलोक का पात्र हो जाता है। धर्माचरण विहीन व्यक्ति चाहे जितना भी बलवान, संपन्न और राजा ही क्यों न हो, वह सर्वत्र निंदा का पात्र बन जाता है और जीवन भर दुख भोगता है। वह कभी सुखी नहीं बन सकता।

इसीलिए शास्त्रों में बताया गया है :

नास्ति धर्मात्परं लाभो नास्ति धर्मात्परं धनम्।

नास्ति धर्मात्परं तीर्थ नास्ति धर्मात्परा गति:।।

अत: मानव को धर्म का मर्म समझकर उसका आचरण करना चाहिए, तभी वह सुख, शांति और सौभाग्य का पात्र बनकर सर्वत्र पूजा जाता है। इसके दृष्टांत के रूप में एक कहानी है :

कई शताब्दियों पूर्व अवंती नगर में धर्म स्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहा करता था। उसका एकमात्र पुत्र शिवस्वामी थ। धर्मस्वामी के स्वर्गवासी होते ही शिवस्वामी तीर्थ यात्रा पर चल पड़ा। समस्त तीर्थो की यात्रा करके वह अवंती की ओर लौटा। अवंती के पास पहुंचते ही उसके मन में यह विचार आया कि गृहस्थी के बंधन में फंस जाने पर फिर उससे मुक्ति होना असंभव है। मैंने आर्यावर्त के समस्त तीर्थो की यात्रा की है। अब विंध्याचल के दक्षिण में स्थित पुण्य तीर्थो का सेवन करना चाहिए। यह संकल्प करके शिवस्वामी यात्रा के दौरान कई नगर, ग्राम, वन, उपवनों का दर्शन करते हुए विंध्याचल के गहन वन में पहुंचा।

विंध्याचल में सभी ओर सिंह, शार्दूलों के भयंकर गर्जन, पक्ष्यिों का कलरव, कंटकाकीर्ण दुर्गम पथ, दावानल, भूत-प्रेत व राक्षसों के विकट अटठहास सुनाई पड़े। भूख-प्यास से उसका शरीर शिथिल होता जा रहा था। भीषण ताप से उसकी देह झुलस रही थी। उस स्थान पर कंकालों का ढेर देखकर शिवस्वामी आपाद मस्तक कांप उठा।

वह मन ही मन पछताने लगा, "ओह! मैंने यह भूल की है। तिस पर पथ भ्रष्ट हो गया हूं। अब मैं इस विपदा से कैसे मुक्त हो सकता हूं।" इस प्रकार शिवस्वामी अपनी करनी पर पछता रहा था, तभी उसके सामने पांच विकराल भूत आकर खड़े हो गए। अचानक अपने सामने एक साथ पांच भूत-प्रेतों को देख शिवस्वामी निश्चेष्ट रह गया फिर साहस बटोरकर पूछा, "तुम लोग कौन हो? इस निर्जन वन में वास क्यों करते हो?"

"हम चाहे कोई भी हों, तम्हें क्या मतलब? अभी हम तुम्हारा भक्षण करने वाले हैं। अंतिम समय में अपने आराध्य देव का ध्यान करो।" "मैं सर्वभूतेश शिवजी का ही स्मरण करूंगा। मैंन सुना है कि व्याधि से पीड़ित व्यक्ति, दरिद्र और दावानल में फंसा व्यक्ति शिवजी के स्मरण मात्र से मृत्यु पर विजय पाते हैं। इसलिए उन्हीं पृत्युंजय का स्मरण करता हूं।"

उसी समय पांचों प्रेत शिवस्वामी को निगलने के लिए आगे बढ़े, लेकिन दूसरे ही क्षण प्रेतों के मुंहों में अग्नि ज्वालाएं दहकती सी प्रतीत हुईं। वे सब घबरा गए और प्रेतों ने शांत होकर पूछा, "महात्मा, आप कौन हैं? आपको यह तेज कैसे प्राप्त हुआ?"

शिवस्वामी ने अपना वृत्तांत सुनाकर पूछा, "तुम लोग कौन हो? इस अरण्य में शाल्मली वृक्ष का आश्रय लेकर यात्रियों का संहार क्यों करते हो? तुम्हें किस पापाचरण के कारण ये विकृत रूप प्राप्त हुए हैं?"

इस पर प्रेतों ने अपना परिचय दिया, "हम पांच प्रेतों के नाम इस प्रकार हैं-स्थूल देह, पीन मेढू, पतिवकत्र, कृश गात्र और दीर्घजिह्व। इस पर प्रत्येक प्रेत ने अपने कुकृत्य का परिचय दिया, "मेरा नाम स्थूल देह है। मैंने देव, ब्राह्मण, स्त्री, बालक, वृद्ध आदि का धन चुराकर उनके मांस भक्षण किया, इस प्रकार मुझे यह स्थूल देह प्राप्त हुआ है।"

दूसरे ने कहा, "मेरा नाम पीन मेढू है। मैंने अनेक स्त्रियों का सतीत्व लूटा, अनि विषय कर्म के कारण मैं कृशगात बन गया हूं। यौन रोगों से मेरा शरीर सदा जलता रहता है। उसी पाप का फल भोग रहा हूं।" तीसरे ने अपने कर्म का फल बताया, "मेरा नाम पूतिवकत्र है। मैं मिथ्याभाषी हूं। सदा सबकी निंदा और दूषण करता हूं। इस पाप के कारण सदा मेरे मुंह से पीब और रक्त बहता रहता है। मेरी जिह्वा दरुगध के आधिक्य से कीड़ों से भरी रहती है।"

इसके बाद चौथे प्रेत ने कहा, "मेरा नाम कृशगात्र है। पूर्व जन्म में मैं धनवान था, परंतु कंजूस था। मैंने अपनी पत्नी और बच्चों सही पोषण नहीं किया, उन्हें सताया। दान धर्म नहीं किया। अपने परिवार को कृश यानी दुर्बल करने के कारण इस जन्म में कृशगात्र बना।"

अंत में दीर्घ जिह्व ने अपनी कहानी सुनाई, "मैं पिछले जन्म में नास्तिक था। धर्म, सत्य, अहिंसा, लोक-परलोक की निंदा करते हुए कहा करता था-धर्म मिथ्या है। जो कुछ भोगना है, इस जन्म में भोगना है। पाप-पुण्य फरेब है। इस जिह्वा से मैंने जो वाचालता की, परिणामस्वरूप इस जन्म में दीर्घ जिह्व बन गया हूं।"

प्रेतों की कहानियां सुनकर शिवस्वामी ने अपने मन में विचार किया, "यम कहीं अन्यत्र नहीं हैं। मनुष्य का मन ही यम है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा पर संयम रखता है, यम उसके दास बन जाते हैं।" यों विचार करके शिवस्वामी ने प्रेतों से पूछा, "तुम लोग अगर मेरा भक्षण करना चाहो तो कर लो, अन्यथा मुझे छोड़ दो, तो मैं अपने रास्ते चला जाऊंगा।"

इस पर पांचों प्रेतों ने एक स्वर मं कहा, "सिद्ध पुरुष, आप जैसे तेजस्वी पुरुष का हम भक्षण नहीं कर सकते। आप निर्विघ्न अपने पथ पर चले जाइए, लेकिन हमने सुना है कि साधु पुरुष अपकार करने वालों का उपकार करते हैं। हमें इस घोर संकट से उद्धार करने का कोई उपाय बताइए।"

"तुम्ही लोग बताओ, किस सत्कर्म के प्रभाव से तुम लोग इस प्रेत जन्म से मुक्तिलाभ कर सकते हो?" शिवस्वामी ने पूछा।

"तो सुनिए। विंध्याचल के दक्षिण में दंडकारण्य है। उसमें सर्वपाप हरण करने वाला 'विरज' नामक एक तीर्थ है। आप हमें लक्ष्य करके उस तीर्थ में तर्पण कीजिए।" यह कहकर सभी प्रेत अदृश्य हो गए।

शिवस्वामी ने माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन विरज क्षेत्र में पहुंचकर प्रेतों की मुक्ति का संकल्प करके तीर्थ स्नान किया। शिवरात्रि को उपवास और जागरण किया। प्रात: काल होते ही अपने पितरों को तर्पण व पिंड दान किया, उसके बाद प्रेतों का स्मरण करके श्राद्ध कर्म संपन्न किया।

प्रेतों ने दिव्य रूप धारण कर परलोक जाते हुए कृतज्ञता प्रकट की, "महात्मन्, आपके अनुग्रह से हम पाप-मुक्त हो स्वर्गगामी हो रहे हैं। आपकी मनोकामना सफल हो।"इसके बाद शिवस्वामी शेष समस्त तीर्थो की यात्रा करके अवंती नगर पहुंचे और धर्माचरण करते हुए आदर्श जीवन बिताने लगे।

महाराजा चित्रकेतु ने शौनक मुनि के मुंह से यह पुराण कथा सुनी और धर्म मार्ग पर राज्य शासन करने लगे। उनके राज्य में प्रजा सुखी और सम्पन्न बनी।

इस तरह हुआ महिषासुर का अंत

प्राचीन काल में देव और दानवों के बीच भंयकर युद्ध हुआ था। उस युद्ध में देवताओं ने राक्षसों का सर्वनाश किया। इस पर राक्षसों की माता दिति बहुत दुखी हुई और उसने अपनी माता से कहा, "मां, मेरे सभी पुत्र मेरी सौत के पुत्र देवताओं के हाथों मारे गए हैं। मैं इस दुख को कैसे सहन कर सकती हूं।" "बेटी, तुम रोओ मत। भगवान की इच्छा से ही यह अनर्थ घटित हुआ है। हम कर ही क्या सकते हैं? तुम तपस्या करो। तुम्हारे गर्भ से एक लोक प्रसिद्ध पुत्र का उदय होगा।" इस प्रकार समझाकर राक्षसों की नानी ने अपनी पुत्री दिति को वरदान दिया।

अपनी माता की सलाह पाकर दैत्यों की माता दिति सुपाश्र्चु नामक मुनि के आश्रम में गई। वहां पर दिति ने अनेक प्रकार के जंतुओं का रूप धरकर तप करना आरंभ किया। एक दिन दिति महिस रूप धरकर पांच अग्निहोत्रों (पंचाग्नि) के मध्य बैठकर घनघोर तपस्या में लीन हो गई। मुनि सुपाश्र्चु ने उस दृश्य को देखा। उस घृणित रूप पर रुष्ट होकर मुनि ने दिति को श्राप दिया, "तुम्हारे गर्भ से महिष रूपी पुत्र का जन्म होगा।" दिति विचलित हुए बिना तप में निमग्न हो गई।

एक दिन ब्रह्मा ने दिति के समक्ष प्रत्यक्ष होकर कहा, "तपस्विनी, मुनि के शाप पर तुम चिंता न करो। तुम्हारे गर्भ से पैदा होनेवाले पुत्र का आधा शरीर महिष की आकृति में होगा और शेष आधा शरीर मानवाकृति में होगा। वह बालक महान वीर बनेगा। वह अपने पराक्रम के बल पर इंद्र आदि देवताओं को हराकर यशस्वी होगा।" ब्रह्मा दिति को यह वरदान देकर अदृश्य हो गए।

कालांतर में दिति के गर्भ से महिषासुर का जन्म हुआ। समस्त राक्षसों ने उस बालक को घेरकर अनेक प्रकार से उसकी स्तुति की, "हे दानवोत्तम! देवताओं ने विष्णु का अनुग्रह पाकर हम सबको भगा दिया और स्वर्ग पर शासन कर रहे हैं, इसलिए आपसे हमारी यही प्रार्थना है कि आप देवताओं को युद्ध में पराजित कर स्वर्ग से उनको भगाकर स्वर्ग पर शासन कीजिए। हमारे राक्षस वंश की प्रतिष्ठा बनाए रखें।"

महिषासुर ने राक्षसों को आश्वासन दिया, "अगर आप सबका मुझ पर विश्वास है तो निश्चय ही आपकी मनोकामना पूरी होगी। लेकिन मेरी एक शर्त है-आप सबको मेरा साथ देना होगा।" राक्षसों ने एक स्वर में महिषासुर को सहयोग देने का वचन दिया।

महिषासुर ने कुछ समय बाद राक्षस-सेना का संगठन किया और स्वर्ग पर धावा बोल दिया। देव और दानवों के बीच एक सौ वर्ष तक भीषण युद्ध होता रहा। आखिर महिषासुर ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। राक्षसों के अत्याचारों से देवता तंग आ गए। जब उनके अत्याचारों को सहा न गया तब सब देवता परस्पर विचार-विमर्श कर के ब्रह्मा के पास आश्रय में गए। ब्रह्मा से निवेदन किया कि महिषासुर का संहार करके उन्हें स्वर्ग वापस दिला दें। 

ब्रह्मा ने अपनी असमर्थता जताई। देवता निराश हुए। वे सब एक पर्वत पर पहुंच कर उपाय सोचने लगे-कैसे राक्षसों का दमन किया जाए। ब्रह्मा ने सुझाव दिया कि शिवजी इस कार्य में सहायता कर सकते हैं। अत: हम सब उनके पास जाकर निवेदन करेंगे।

देवताओं ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे देवताओं का प्रतिनिधित्व करें। ब्रह्मा ने देवताओं की प्रार्थना मान ली और उन सबको साथ लेकर शिवजी से भेंट करने के लिए कैलाश पहुंचे। शिवजी दवताओं की प्रार्थना सुनकर द्रवित हुए, उन्होंने कहा, "हम सब श्री महाविष्णु के आश्रय में जाकर उनसे निवेदन करेंगे। वे निश्चय ही इस कार्य में सहायता करेंगे।" अंत में सब लोग श्री महाविष्णु के दर्शन करने निकले।

देवताओं ने ब्रह्मा, शिवजी यथा विष्णु को महिषासुर के अत्याचारों का वृत्तांत सुनाया। शिवजी ने महिषासुर के अत्याचार सुनकर रौंद्र रूप धारण किया। उनके मुंह से एक तेज का आविर्भाव हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा और विष्णु के अंगों से तेज प्रकट हुए। आखिर सभी तेज एक रूप में समाहित हुए। शिवजी का तेज देह के प्रधान रूप को प्राप्त हुआ, विष्णु का तेज मध्य भाग, वरुण का तेज उरू और जांघ, भौम का तेज पृष्ठ भाग, ब्रह्मा का तेज चरण और अन्य देवताओं के तेज शेष अंगों की आकृति में रूपायित हुए। अंत में समस्त तेजों का सम्मिलित स्वरूप एक नारी की आकृति में प्रत्यक्ष हुआ। उस तेज स्वरूपिनी देवी की श्री महाविष्णु तथा शिवजी ने अपने-अपनी आयुध प्रदान किए। हिमवंत ने उसे एक सिंह भेंट किया।

वह देव स्वरूपिणी महिमा असुरमर्दनी तेज में देवताओं को साथ लेकर सिंह पर आरूढ़ हो निकल पड़ी। दानवराज महिषासुर के नगर के समीप पहुंचकर देवी ने सिंहनाद किया। उस ध्वनि को सुन दस दिशाएं हिल उठीं। पृथ्वी कंपित हुई। समुद्र कल्लोलित हो उठा। महिषासुर को गुप्तचरों के जरिए समाचार मिला कि देवी उसका संहार करने के लिए स्वर्ग द्वार तक पहुंच गई हैं। वह थोड़ा भी विचलित नहीं हुआ बल्कि देवी पर क्रुद्ध हो वतुरंगी सेना समेत देवी के साथ युद्ध करने के लिए निकल पड़ा।

देवी को स्वर्गद्वार पर आक्रमण के लिए तैयार देख हुंकार करके महिषासुर ने अपनी सेना को देवी की सेना पर धावा बोलने का आदेश दिया। देवी ने प्रचंड रूप धारण कर राक्षस सेना को तहस-नहस करना प्रारंभ किया। उनके विश्वास से अपार सेना वाहिनी अद्भुत हो महिषासुर के सैन्य दलों पर टूट पड़ी और अपने भीषण अस्त्र-शस्त्रों से दानव सेना को गाजर-मूली की तरह काटने लगी। देवी ने स्वयं देवताओं की सेना का नेतृत्व किया। अपने वाहन बने सिंह को तेज गति से शत्रु सेना की ओर बढ़ाते हुए दैत्यों का संहार करने लगी। 

देवी के क्रोध ने दावानल की तरह फैलकर दैत्य वाहिनी को तितर-बितर किया। युद्ध क्षेत्र लाशों से पट गया। उस भीषण दृश्य को देख राक्षस सेनापतियों के पैर उखड़ गए। वे भयभीत हो जड़वत अपने-अपने स्थानों पर खड़े रहे। महिषासुर ने देवी पर आक्रमण करने के लिए अपने सेनानायको को उकसाया। दैत्य राजा का हुंकार और प्रेरणा सभी सेनानायक एकत्र हो सामूहिक रूप से देवी का सामना करने के लिए सन्नद्ध हुए।

महिषासुर ने देवी के समक्ष पहुंचकर उनको युद्ध के लिए ललकारा। इस बीच दैत्य सेनापति साहस बटोरकर देवी पर आक्रमण के लिए एक साथ आगे बढ़े। देवी ने समस्त सेनापतियों का वध किया। सारी सेना को समूल नष्ट करके महिषासुर के समीप पहुंची और गरजकर बोली, "अरे दुष्ट! तुम्हारे पापों का घड़ा भर गया है। मैं तुम्हारे अत्याचारों का अंत करने आई हूं। मैं तुम्हारा संहार करके देवताओं की रक्षा करूंगी।" यह कहकर देवी ने महिषासुर को अपने अस्त्र से गिराया, उसके वक्ष पर भाला रखकर उसको दबाया तब अपने त्रिशूल से उसकी छाती को चीर डाला।

त्रिशूल के वार से महिषासुर बेहोश हो गया। फिर थोड़ी देर में वह होश में आया। उसने पुन: देवी के साथ गर्जन करते हुए भीषण युद्ध किया। देवी ने रौद्र रूप धारण कर अपने खड्ग से दैत्यराज महिषासुर का सिर काट डाला। अपने राजा का अंत देख शेष राक्षस सेनाएं चतुर्दिक पलायन कर गई। युद्ध क्षेत्र में देवी का रौद्र रूप देखते ही बनता था आकाश में सूर्य का अकलंक तेज चारों तरफ भासमान था। वे स्वयं देवी के क्रोध को शांत नहीं कर पाए। उन्होंने अपनी दृष्टि दैत्यराज महिषासुर के चरणों पर केंद्रित की।

देवताओं ने देवी का जयकार किया और विनम्र भाव से हाथ जोड़कर सदा उनकी रक्षा करते रहने का निवेदन किया। देवी ने आश्वासन दिया। दैत्यराज महिषासुर का मर्दन (संहार) करने के कारण दुर्गा महिषासुर मर्दनी कहलाई।

तो इस तरह द्रोपदी बनी पांच पांडवों की पत्नी

प्राचीनकाल में महामुनि मरक डेय अपने अनुपम तपोबल के कारण श्रेष्ठ तपस्वी कहलाए। मुनि जैमिनी धर्मतत्वों के जिज्ञासु थे। एक बार उन्होंने मरक डेय के आश्रम में जाकर निवेदन किया, "मुनिवर, मैंने महर्षि व्यास के मुंह से समस्त पुराण, महाभारत, भागवत, इतिहास आदि समस्त-श्रुति, स्मृति और धर्म शास्त्रों का श्रवण किया है। इस समय मेरे मन में जो शंकाएं हैं उनका समाधान आपके मुंह से जानना चाहता हूं। मेरी शंकाओं का निवारण करके मुझे धन्य बनाइए।" 

"यतिवर, बताइए, आपकी कैसी शंकाएं हैं?" मरक डेय ने पूछा। जैमिनी मुनि ने अत्यंत प्रसन्न होकर कहा, "इस जगत के कर्ता-धर्ता भगवान ने मनुष्य का जन्म क्यों लिया? राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी पांच पतियों की पत्नी क्यों बनी? श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम ने किस कारण तीर्थयात्राएं कीं? द्रौपदी के पांच पुत्र उप पांडवों की ऐसी जघन्य मृत्यु क्यों हुई?" 

मरक डेय ने कहा, "मुनिवर, मेरी तपस्या का समय हो चला है। विस्तार से ये वृत्तांत सुनाने के लिए मेरे पास समय नहीं है। मैं आपको एक उपाय बताता हूं। विंध्याचल में पिंगाक्ष, निवोध, सुपुत्र और सुमुख नाम के चार पक्षी हैं। ये चारों पक्षी दरोण के पुत्र हैं जो वेद और शास्त्रों में पारंगत हैं। उनसे तुम अपनी शंकाओं का निवारण कर सकते हो।" इस पर जैमिनी ने विस्मय में आकर पूछा, "पक्षी द्रोण के पुत्र कैसे हो सकते हैं? मानवों की भाषा का ज्ञान पक्षियों को कैसे हो सकता है?"

मरक डेय ने समझाया, "एक बार देवमुनि नारद ने वीणा-वादन करते हुए भूलोक का संचार किया, फिर वहां से अमरावती नगर पहुंचे। महेंद्र ने नारद का समुचित रूप में स्वागत-सत्कार किया और उनको उचित आसन पर बिठाकर कहा कि देव मुनि, आपको विदित ही है कि देव-सभा में रंभा, ऊर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका, घृतांचि, डिश्रकेशी आदि देव गणिक, नर्तकियां हैं। आपके विचार से इनमें श्रेष्ठ कौन है? बताने की कृपा करें।"

नारद ने उन अप्सराओं को सम्बोधित कर पूछा, "हे देव गणिकाओं, तुम लोगों में से जो अधिक सुंदर, सरस-संलाप आदि विधाओं में श्रेष्ठ हैं, वही हमारे समक्ष नृत्य करें।" नारद का प्रश्न सुनकर सभी अप्सराएं मौन रहीं। तब इंद्र ने नारद से कहा, "देवर्षि, इन अप्सराओं में से आप ही स्वयं श्रेष्ठ सुंदरी का चयन करें।" इस पर नारद ने देव नर्तकियों से कहा, "तुम लोगों में जो नर्तकी दुर्वासा को मोह-जाल में बांध सकती है, वही मेरी दृष्टि में श्रेष्ठ है।"

नारद के वचन सुनकर सभी देव नर्तकियां भयभीत हो मौन रह गईं, लेकिन वपु नामक एक नर्तकी अपने स्थान से उठकर बोली, "मैं बड़ी कुशलतापूर्वक मुनि दुर्वासा का तपोभंग कर सकती हूं।" वपु का दृढ़ निश्चय देख महेंद्र ने प्रसन्न होकर कहा, "हे मदवती, यदि तुम मुनि दुर्वासा के असाधारण तप में विघ्न पैदा कर सकोगी तो मैं तुम्हें मुंहमांगा धन-संपत्ति अर्पित करूंगा।"

मुनि दुर्वासा हिमाचल प्रदेश में एक आश्रम बनाकर केवल वायु का सेवन करते हुए घोर तपस्या कर रहे थे। अप्सरा वपु दुर्वासा मुनि के आश्रम के एक कोस की दूरी पर वन-विहार करते मधुर संगीत का अलाप करने लगी। संगीत के माधुर्य पर मुग्ध हो मुनि दुर्वासा अपनी तपस्या बंद कर देव कन्या के समीप पहुंचे। अपना तपोभंग करनेवाली देवांगना को देख क्रुद्ध हो दुर्वासा ने श्राप दिया, "हे देव कन्ये, तुम मेरी तपस्या में विघ्न डालने के षड्यंत्र से यहां पर आई हो, इसलिए तुम गरुड़ कुल में पक्षी बनकर जन्म धारण करोगी।"

अप्सरा वपु ने भयभीत होकर दुर्वासा से प्रार्थना की, "हे महामुनि, आप कृपया मेरा अपराध क्षमा करें।" वपु पर दया करके महर्षि दुर्वासा ने कहा, "तुम सोलह वर्ष पक्षी रूप में जीवित रहकर चार पुत्रों को जन्म दोगी, तदनंतर बाण से घायल होकर प्राण त्याग करके पूर्व रूप को प्राप्त होगी।" इस प्रकार शाप-विमोचन का वरदान देकर महर्षि अपने आश्रम को लौट गए।

अप्सरा वपु ने दुर्वासा के शाप के प्रभाव से गरुड़वंश में केक पक्षी के रूप में जन्म लिया और मंदपाल के पुत्र द्रोण से विवाह किया। सोलह वर्ष की आयु में उसने गर्भ धारण किया। उसी काल में कौरव-पांडवों का युद्ध हुआ! मादा पक्षी उस महाभारत युद्ध को देखने गई। वह आकाश में उड़ रही थी, उस समय अर्जुन का एक बाण केक पक्षी को लगा। परिणामस्वरूप केक पक्षी का गर्भ विच्छिन्न हुआ। पक्षी का देहांत हुआ और वह अप्सरा रूप को पाकर देवलोक पहुंची। लेकिन उसके अंडे गर्भ-विच्छेद के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े। 

उस युद्ध में एक हाथी का घंटा कटकर उस अंडों पर गिरा और अंडे ढक गए। अंडों से बच्चे निकले। उस समय मार्ग से मुनि शमीक आ निकले। मुनि उन पक्षी शावकों पर अनुकंपा करके अपने आश्रम में ले जाकर पालने लगे। पक्षी शावकों को मानवों की भाषा में वार्तालाप करते सुनकर मुनि ने उससे पूछा, "तुम लोग कौन हो? तुम क्या अपने पूर्व जन्म-वृत्तांत बता सकते हो?" 

इस पर पक्षियों ने कहा, "मुनिवर, प्राचीन काल में विपुल नामक एक तपस्वी थे। उनके सुकृत और तुंबुर नाम के दो पुत्र हुए। हम चारों सुकृत के पुत्र हुए। एक दिन इंद्र ने पक्षी के रूप में मेरे पिता के आश्रम में पहुंचकर मनुष्य का मांस मांगा। हमारे पिता ने हमें आदेश दिया कि हम पितृ-ऋण चुकाने के लिए पक्षी रूप में उपस्थित इंद्र का आहार बनें। हमने नहीं माना। इस पर हमारे पिता ने हमें पक्षी रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया और स्वयं पक्षी का आहार बनने के लिए तैयार हो गए। इंद्र ने प्रसन्न होकर हमारे पिता से कहा कि महामुनि, आपकी परीक्षा लेने के लिए मैंने मनुष्य का मांस मांगा। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है।" यह कहकर इंद्र देवलोक को चले गए।

इसके बाद हमने अपने पिता से कहा, "पिताजी, हम मानव देह के प्रति आसक्ति के कारण आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके। हम पर कृपा करके शाप से मुक्त कर दीजिए।" हमारे पिता ने अनुग्रह करके हमें शाप मुक्त होने का उपाय बताया, "पुत्रों, तुम लोग पक्षी रूप में ज्ञानी बनकर कुछ दिन विंध्याचल में निवास करो। महर्षि जैमिनी तुम्हारे पास आकर अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिए तुम लोगों से अभ्यर्थना करेंगे, तब तुम लोग मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे। इस कारण हम पक्षी बन गए।" पक्षियों का समाधान पाकर शमीक ने उन्हें समझाया, "तुम लोग शीघ्र विंध्याचल में चले जाओ।"

मुनि शमीक के आदेशानुसार केक पक्षी विंध्याचल में जाकर निवास करने लगे। इसलिए हे जैमिनी, तुम विंध्याचल में जाकर उन पक्षियों से अपनी शंका का समाधान कर लो। मरक डेय मुनि ने जैमिनी को उपाय बताया।

जैमिनी महर्षि विंध्याचल को गए। वहां पर उच्च स्वर में वेदाके का पाठ करते पक्षियों को देख जैमिनी ने अपने चार प्रश्न उनसे पूछा। इस पर पक्षियों ने समझाया, "यतिवर, संसार में जब-जब पाप बढ़ जाते हैं, तब-तब पापियों को दंड देने के लिए भगवान मानव रूप में अवतरित हुआ करते हैं। प्राचीन काल में त्वष्ट्र प्रजापति के पुत्र त्रिशीर्ष का इंद्र ने अपने वज्रायुध से संहार किया। परिणामस्वरूम वे ब्रह्म-हत्या के अपराधी बने। 

इस कारण से इंद्र का दिव्य तेज चार भागों में विभाजित होकर यमराज, वायु और अश्विनी देवताओं में प्रेवश कर गया। इतने में त्रिशीर्ष के पिता त्वष्ट्र प्रजापति ने अपने पुत्र की मृत्यु पर दुखी होकर अपनी एस जटा काटकर होम कुंड में फेंक दिया। इस जटा से वृत्रासुर नामक एक राक्षस ने जन्म लिया। बड़े होने पर वह सभी लोकों पर अधिकार करने लगा। 

इंद्र वृत्रासुर के आतंक से भयभीत होकर उससे मैत्री करके स्वर्ग पर शासन करते रहे। लेकिन भूदेवी पाप के भार से विचलित हुई और देवनगर अमरावती में जाकर इंद्र से निवेदन किया, "मैं इस पाप का भार नहीं वहन कर सकती। आन इन पापियों से पृथ्वी को मुक्त कर दीजिए।"

इंद्र ने भूमाता को सांत्वना देकर भेज दिया। इसके बाद समस्त देवताओं को बुलाकर उन्हें भूलोक में मानवों के रूप में जन्म लेने का आदेश दिया। सभी देवता पृथ्वी पर राजवंशों में पैदा हुए। उस समय इंद्र का दिव्य तेज यम और वायु रूपों में कुंती देवी के गर्भ से युधिष्ठिर और भीम के रूप में अवतरित हुए। इंद्र स्वयं अर्जुन के रूप में उत्पन्न हुए। इंद्र के ही दिव्य तेज का एक अंश अश्विनी देवताओं के रूप में माद्रि के गर्भ से नकुल और सहदेव के रूप में उत्पन्न हुए। 

इस घटना के थोड़े दिनों के बाद इंद्र की पत्नी शची देवी महराजा द्रुपद के यहां अग्नि कुंड से द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई। द्रौपदी के पांच पति पांडव इंद्र के दिव्य तेज से उत्पन्न हुए थे। इसलिए द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी पांचाली बन गई। पक्षियों के मुंह से अपनी शंकाओं का समाधान पाकर महर्षि जैमिनी परमानंदित हुए।

ब्रह्मा ने बताया इन दिनों पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी स्त्रियाँ

श्रीमहाविष्णु को एक बार प्रसन्न मुद्रा में बैठे देखकर वैनतेय नामधारी गरुड़ ने उनसे पूछा, "हे परात्पर। हे परमपुरुष। हे जगन्नाथ। मैं यह जानना चाहता हूं कि जीव किस प्रकार जन्म और मृत्यु का कारणभूत बनता है। किन कारणों से वह स्वर्ग और नरक भोगता है? कैसे वह प्रेतात्मा बनकर कष्ट झेलता है?" इस पर अंतर्यामी श्रीमहाविष्णु ने गरुड़ पर प्रसन्न होकर उनको जन्म-मरण का रहस्य बताया। इस कारण से यह कथा गरुड़ पुराण नाम से लोकप्रिय बन गई। 

नैमिशारण्य में वेदव्यास के शिष्य महर्षि सूत ने शौनक आदि मुनियों को यह वृत्तांत सुनाया, "हे मुनिवृंद, वैनतेय ने श्रीमहाविष्णु से प्रश्न किया था कि हाड़-मांस, नसें, रक्त, मुंह, हाथ-पैर, सिर, नाक, कान, नेत्र, केश और बाहुओं से युक्त जीव के शरीर का निर्माण कैसे होता है? श्रीमहाविष्णु ने इसके जो कारण बताए, वे मैं आपको सुनाता हूं :

प्राचीन काल में देवता और राक्षसों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया। परिणामस्वरूप इंद्र ब्रह्महत्या के दोष के शिकार हुए। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे निवेदन किया कि वे उनको इस पाप से मुक्त कर दें। ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या के दोष को चार भागों में विभाजित कर एक अंश स्त्रियों के सिर मढ़ दिया। स्त्रियों की प्रार्थना पर दयाद्र्र होकर ब्रह्मा ने उसके निवारण का उपाय बताया कि स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा।

ब्रह्मा ने कहा कि उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी। रजस्वला के छठे दिन से अठारह दिन तक यदि छठे, आठवें, दसवें, बारहवें, चौदहवें, सोलहवें और अठारहवें दिन वे पति के साथ संयोग करती हैं तो उन्हें पुरुष संतान की प्राप्ति होगी। ऐसा न होकर पांचवें दिन से लेकर अठारह दिन तक विषम दिनों में यानी पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पंद्रह और सत्रहवें दिन मैथुन क्रिया संपन्न करने पर स्त्री संतान होगी। इसलिए पुत्र प्राप्ति करने की कामना रखनेवाले दम्पतियों को सम दिनों में ही दांपत्य सुख भोगना होगा।

ऋतुमती होने के चार दिन पश्चात अठारह दिन तक के सम दिन में मैथुन से यदि नारी गर्भ धारण करती है, तो गर्भस्थ शिशु की क्रमश: वृद्धि हो सुखी प्रसव होगा। वह शिशु शील, संपन्न और धर्मबुद्धिवाला होगा। रजस्वला के पांचवें दिन स्त्रियों को खीर, मिष्ठान्न आदि मधुर पदार्थो का सेवन करना होगा। तीखे पदार्थ वर्जित हैं। साधारणत: पांचवें दिन के पश्चात आठ दिनों के अंदर गर्भधारण होता है।

गर्भधारण के संबंध में भी कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। शयन गृह में दम्पति को अगरबत्ती, चंदन, पुष्प, तांबूल आदि का उपयोग करना चाहिए। इनके सेवन और प्रयोग से दम्पति का चित्त शीतल होता है। तब उन्हें परस्पर प्रेमपूर्ण रति-क्रीड़ा में पति और पत्नी के शुक्र और श्रोणित का संयोग होता है। परिणामस्वरूप पत्नी गर्भ धारण करती है। क्रमश: गर्भस्थ पिंड शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति दिन-प्रतिदिन प्रवर्धगमान होगा। रति क्रीड़ा के समय यदि पति के शुक्र की मात्रा अधिक स्खलित होती है तो पुरुष संतान होती, पत्नी के श्रोणित की मात्रा अधिक हो जाए तो स्त्री संतान के रूप में गर्भ शिशु का विकास होता है। अगर दोनों की मात्रा समान होकर पुरुष शिशु का जन्म होता है तो वह नपुंसक होगा। गर्भ धारण के रतिक्रीड़ा में स्खलित इंद्रियां गर्भ-कोशिका में एक गोल बिंदु या बुलबुला उत्पन्न करता है।

इसके बाद पंद्रह दिनों के अंदर उस बिंदु के साथ मांस सम्मिलित होकर विकसित होता है। फिर क्रमश: इसकी वृद्धि होती जाती है। एक महीने के पूरा होते-होते उस पिंड से पंच तžवों का संयोग होता है। दूसरे महीने पिंड पर चर्म की परत जमने लगती है। तीसरे महीने में नसें निर्मित होती हैं। चौथे महीने में रोम, भौंहें, पलकें आदि का निर्माण होता है। 

पांचवें महीने में कान, नाक, वक्ष; छठे महीने में कंठ, सिर और दांत तथा सातवें महीने में यदि पुरुष शिशु हो तो पुरुष-चिह्न्, स्त्री शिशु हो तो स्त्री-चिह्न् का निर्माण होता है। आठवें महीने में समस्त अवयवों से पूर्ण शिशु का रूप बनता है। उसी स्थिति में उस शिशु के भीतर जीव या प्राण का अवतरण होता है। नौवें महीने में जीव सुषुम्न नाड़ी के मूल से पुनर्जन्म कर्म का स्मरण करके अपने इस जन्म धारण पर रुदन करता है। दसवें महीने में पूर्ण मानव की आकृति में माता के गर्भ से जन्म लेता है।

प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-ये पांच 'प्राण वायु' कहलाते हैं। इसी प्रकार नाग, कर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय नामक अन्य पांच वायु भी हैं। इस शरीर में शुक्ल, अस्थियां, मांस, जल, रोम और रक्त नामक छह कोशिकाएं हैं। नसों से बंधित इस स्थूल शरीर में चर्म, अस्थियां, केश, मांस और नख-ये क्षिति या पृथ्वी से सम्बंधित गुण हैं।

मुंह में उत्पन्न होनेवाला लार, मूत्र, शुक्ल, पीव, व्रणों से रिसनेवाला जल-ये आप यानी जल गुण हैं। भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य और कांति तेजोगुण हैं यानी अग्नि गुण है। इच्छ, क्रोध, भय, लज्जा, मोह, संचार, हाथ-पैरों का चालन, अवयवों का फैलाना, स्थिर यानी अचल होना-ये वायु गुण कहलाते हैं। ध्वनि भावना, प्रश्न, ये गगन यानी आकाशिस्थ गुण है। कान, नेत्र, नासिका, जिा, त्वचा, ये पांचों ज्ञानेंद्रिय हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये दीर्घ नाड़ियां हैं। 

इनके साथ गांधारी, गजसिंह, गुरु, विशाखिनी-मिलकर सप्त नाड़ियां कहलाती हैं। मनुष्य जिन पदार्थो का सवेन करता है उन्हें उपरोक्त वायु उन कोशिकाओं में पहुंचा देती हैं। परिणामस्वरूम उदर में पावक के उपरितल पर जल और उसके ऊध्र्व भाग में खाद्य पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इस जटराग्नि को वायु प्रज्वलित कर देती है।

मानव शरीर का गठन अति विचित्र है। इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, बत्तीस दांत, बीस नाखून, सत्ताईस करोड़ शिरोकेश, तीन हजार तोले के वजन की मांसपेशियां, तीन सौ तोले वजन का रक्त, तीस तोले की मेधा, तीस तोले की त्वचा, छत्तीस तोले की मज्जा, नौ तोले का प्रधान रक्त और कफ, मल व मूत्र-प्रत्येक पदार्थ नौ तोले के परिमाण में निहित हैं। इनके अतिरिक्त अंड के भीतर की सारी वस्तुएं शरीर के अंदर समाहित हैं। 

इसी प्रकार शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं- ये भुवन शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतीक हैं, जैसे-दायां पैर अतल नाम से व्यवह्रत है, तो एड़ी वितल, घुटना सुतल, घुटने का ऊपरी भाग यानी जांध रसातल, गुह्य पाश्र्व भाग तलातल, गुदा भाग महातल, मध्य भाग पाताल, नाभि स्थल भूलोक, उदर भुवर्लोक, ह्रदय सुवर्लोक, भुजाएं सहर्लोक, मुख जनलोक, भाल तपोलोक, शिरो भाग सत्यलोक माने जाते हैं।

इसी प्रकार त्रिकोण मेरु पर्वत, अघ: कोण, मंदर पर्वत, इन कोणों का दक्षिण पाश्र्व कैलाश वाम पाश्र्व हिमाचल, ऊपरी भाग निषध पर्वत, दक्षिण भाग गंधमादन पर्वत, बाएं हाथ की रेखा वरुण पर्वत नामों से अभिहित हैं।

अस्थियां जम्बू द्वीप कहलाती हैं। मेधा शाख द्वीप, मांसपेशियां कुश द्वीप, नसें क्रौंच द्वीप, त्वचा शालमली द्वीप, केश प्लक्ष द्वीप, नख पुष्कर द्वीप नाम से व्यवहृत हैं।

जल समबंधी मूत्र लवण समुद्र नाम से पुकारा जाता है तो थूक क्षीर समुद्र, कफ सुरा सिंधु समुद्र, मज्जा आज्य समुद्र, लार इक्षु समुद्र, रक्त दधि समुद्र, मुंह में उत्पन्न होनेवाला जल शुदार्नव नाम से जाने जाते हैं।

मानव शरीर के भीतर लोक, पर्वत और समुद्र ही नहीं बल्कि ग्रह भी चक्रों के नाम से समाहित हैं। प्रधानत: मानव के शरीर में दो चक्र होते हैं- नाद चक्र और बिंदु चक्र। नाद चक्र में सूर्य और बिंदु चक्र में चंद्रमा का निवास होता है। इनके अतिरिक्त नेत्रों में अंगारक, ह्रदय में बुध, वाक्य में गुरु, शुक्ल में शुक्र, नाभि में शनि, मुख में राहू और कानों में केतु निवास करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर भूमंडल और ग्रह मंडल समाहित है। यही मानव जन्म और शरीर का रहस्य है।

श्राप मिला विष्णु को हरण हुआ सीता का

समय अत्यंत शक्तिशाली होता है। तन नाना प्रकार के सुख चाहता है। मन बड़ा विचित्र होता है, कभी चंचल और कभी स्थिर। आत्मा तन-मन के कारनामों को भोगती है। मन की तरंगें कभी उत्ताल होती हैं तो उस उल्लास के रंग में भंग भी होता है। इसके शिकार न केवल मानव ही होते हैं, बल्कि देव और दानव भी हुआ करते हैं। ऐसी कई कहानियां पुराणों में मिलती हैं। ऐसी ही एक कहानी का जायजा लीजिए : एक बार सुरपति इंद्र देवगुरु बृहस्पति को साथ लेकर परमेश्वर के दर्शन करने कैलाश पहुंचे। परमेश्वर को न मालूम क्या सूझा, इंद्र के आगमन का समाचार जानकर भी कैलाश के प्रवेशद्वार पर ध्यानमग्न होकर बैठ गए। देवराज इंद्र ने सोचा कि वहां पर बैठा हुआ व्यक्ति कोई मुनि या यति होगा। उन्होंने पूछा, "तपस्वी, यह बताइए, इस वक्त कैलाशपति शिव जी अपने निवास में हैं या नहीं?" परंतु यति ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने कहा, "अरे दुष्ट, तुम मेरी उपेक्षा करते हो, लो इसका फल भोगो।" यह कहकर देवेंद्र ने उस यति वेषधारी पर बज्र का प्रहार करनपा चाहा। परम परमेश्वर ने इंद्र के हाथ को स्तंभित करके अपने त्रिनेत्र की ज्वाला से देवराज को भस्म करना चाहा। देवगुरु बृहस्पति ने भांप लिया कि यति वषधरी साक्षात् परमेश्वर हैं। उन्होंने शिव जी के चरणों पर गिरकर प्रार्थना की, "हे महादेव, हे शंकर, हे परमेश्वर, हे रूद्र, हे आपत्बांधव, हम आपकी शरण में आए हैं। आप कृपा करके देवराज इंद्र की जल्दबाजी का क्षमा करें।"

भोले शंकर बृहस्पति की स्तुति पर प्रसन्न होकर बोले, "देवगुरु, अब आप ही बताइए कि मैं अपने इस त्रिनेत्र की अग्नि-ज्वाला को कहां पर विसर्जित करूं?" देवगुरु बृहस्पति ने परमेश्वर को सलाह दी कि वे अपनी ज्वाला को समुद्र में छोड़ दें।

समुद्र में विसर्जित शिव जी की नेत्राग्नि से एक बालक का उदय हुआ। समुद्रराज उस बालक को देख आह्लादित होकर प्यार करने लगे। उसी समय वहां पर ब्रह्मा आ पहुंचे। समुद्रराज ने उस बालक की जन्मकुंडली जाननी चाही। ब्रह्मा ने बताया, "यह बालक यशस्वी बनकर तीनों लोकों पर शासन करेगा और इसकी पत्नी अपने पतिव्रत्य के कारण सर्वत्र पूजित होगी।" 

ब्रह्मा बालक का भविष्य बता ही रहे थे कि बालक ने ब्रह्मा की गर्दन पकड़कर मरोड़ने का प्रयत्न किया। बड़ी मुश्किल से ब्रह्मा ने उस की पकड़ से अपनी गर्दन छुड़ाई, लेकिन उनका कंठ कम जाने के कारण उनकी आँखों से जल निकलकर धरती पर गिर पड़ा। इसलिए ब्रह्मा ने उस बालक का नामकरण किया-'जलंधर'।

यही बालक कालांतर में असुर-गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बना और कालांतर में कालनेमि की पुत्री बृंदा के साथ विवाह करके गृहस्थ बना। उनका दांपत्य जीवन बहुत ही सुखमय रहा। जलंधर का शासन निवर्धन संपन्न होता रहा। एक दिन राजसभा में राहु की विकृत आकृति को देख जलंधर ने दानवाचार्य शुक्राचार्य से इसका कारण पूछा। शुक्राचार्य ने संक्षेप में यह वृत्तांत सुनाया, "देव-दानवों ने मंथर पर्वत को मथनी तथा बासु के सर्प को नेती बनाकर समुद्र का मंथन किया। तब अंत में अमृत निकला। अमृत बांटते समय राहु और केतु को देवताओं की पंक्ति में बैठे देखकर सूर्य और चंद्र ने यह समाचार विष्णु को दिया। इस पर विष्णु ने अपने सुदर्शन-चक्र से उनके कंठ काट डाले।" 

यह वृत्तांत सुनकर जलंधर क्रोध में आ गए, क्योंकि उनके पिता समुद्रराज का मंथन करके उनको सताया गया और उससे प्राप्त अमृत का सेवन किया गया। इसलिए उन्होंने देवराज इंद्र के पास दूत द्वारा संदेशा भेजा, "आप लोगों ने मेरे पिताश्री को मथकर उनसे प्राप्त सभी वस्तुओं पर अधिकार कर लिया है। इसलिए वे सारी चीजें तत्काल मुझे सौंप दीजिए, वरना इसका परिणाम अत्यंत कठोर होगा।"

इसके उत्तर में सुरपति ने कहला भेजा, "हमने जो कुछ किया, उचित ही किया है। यदि तुम अहंकार में आकर हमारे साथ युद्ध करना चाहोगे तो तुम्हारा सर्वनाश होगा।" दूत द्वारा संदेश पाकर जलंधर ने क्रुद्ध हो देवताओं पर युद्ध घोषित किया। शुक्राचार्य की रक्षा-मंत्री नियुक्त करके उनके नेतृत्व में सुरपुरी अमरावती पर हमला बोल दिया। उधर देवताओं ने सुरगुरु बृहस्पति के मार्गदर्शन में राक्षस सेना का सामना किया। लंबे समय तक देव-दानवों के बीच तुमुल युद्ध होता रहा। 

कई दिनों तक युद्ध करने के बाद निराश हो विष्णु ने जलंधर से वर मांगने को कहा। जलंधर ने वर मांगने से तिरस्कार करके कहा, "आपके वरदानों की मुझे आवश्यकता नहीं है। आपसे केवल मेरा अनुरोध यही है कि आप मेरी सहादरी समुद्रपुत्री लक्ष्मी के साथ समुद्र में रह जाइए।" जलंधर का अनुरोध स्वीकार करके विष्णु क्षीर-सागर में शयन करते हुए लक्ष्मी समेत रहने लगे।

जलंधर ने अमरावती पर अधिकार कर लिया। देवता इस बार शिव जी के आश्रय में गए। शिव जी ने देवताओं को अभयदान देकर भेज दिया। नारद को बुलवाकर समझाया, "आप अपनी चतुरोक्तियों से मेरे और जलंधर के बीच वैर पैदा कीजिए।" नारद ने जलंधर के पास जाकर शिव जी के वैभव का वर्णन किया और बताया कि उनके ऐश्वर्य और यश का कारण पार्वती है। यदि आप पार्वती को अपने वश में कर लोगे तो फिर क्या, आठों सिद्धियां आपके द्वार पर पहरा देंगी।

जलंधर लोभ में आ गए। उन्होंने जगन्माता पार्वती को अपने वश में करने का संकल्प किया और नवरत्न खचित स्वर्ण-रथ पर आरूढ़ हो सेना समेत कैलाश जाकर युद्धभेरी बजवा दी। कैलाशपति ने जलंधर का मनोरथ भांप लिया और वृद्ध का रूप धारण कर जलंधर के सामने प्रत्यक्ष हुए। जलंधर ने परमेश्वर को आदेश दिया, "ऐ बूढ़े! तुम शिव जी से कह दो, उस भिखारी के लिए पार्वती की क्या आवश्यकता है। वह मेरी रानी बनने योग्य है। इसलिए उनसे कह दो कि वह इसी वक्त पार्वती को मेरे हाथ सौंप दे।"

वृद्ध वस्त्रधारी परमेश्वर ने क्रुद्ध होकर कहा, "अबे, सुनो! यदि तुम सचमुच बल और पराक्रम रखते हो तो इस सुदर्शन को उठाकर अपने सिर पर रख लो। तब मैं समझूंगा कि तुम त्रिलोचन को पराजित कर सकते हो।" वृद्ध की चुनौती सुनकर जलंधर ने धमकी दी, "तुम मेरी परीक्षा लेना चाहते हो। मेरा संदेशा महेश्वर तक पहुंचा दो, वरना मैं इसी वक्त तुम्हारा वध कर डालूंगा।"

वृद्ध की सहनशीलता जाती रही। उन्होंने सुदर्शन उठाकर जलंधर के सिर पर प्रहार किया। जलंधर का शरीर दो टुकड़ों में विभक्त हो गया और उनका तेज परम शिव में लीन हो गया। इसके उपरांत शिव जी ने जलधर की सेना को त्रिनेत्र की जवाला से भस्म कर डाला।

जलंधर की मृत्यु पर देवताओं ने हर्षित होकर शिव जी पर पुष्प वृष्टि की। उधर श्रीमहाविष्णु जलंधर की पत्नी 'बृंदा' के अद्भुत सौंदर्य पर पहले से ही मोहित थे। अब उनके साथ सह-शयन करने की आशा से प्रेरित होकर उन्होंने जलंधर के शरीर के कटे टुकड़ों को एक स्थान पर सुरक्षित रखा और एक वृद्ध यति का रूप धारण कर दो बंदरों को साथ लेकर जलंधर के उद्यान में पहुंचे।

उसी समय बृंदा अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा में अपनी सखियों के साथ उद्यान में आ पहुंची। उद्यान के एक कोने में भगवान के स्मरण के शब्द सुनाई दिए। बृंदा ने देखा, एक वृद्ध यति ध्यानमग्न बैठे हुए हैं। बृंदा ने अपने पति के कुशल-क्षेम का स्मरण करते हुए यति के चरणों में प्रणाम किया। वृद्ध यति ने बंदरों को संकेत किया। वे वानर जलंधर के शरीर के कटे अंग उठा लाए। बृंदा अपने मति को मृत अवस्था में देख मूर्छित हो गई। होश में आकर उसने वृद्ध यति से निवेदन किया कि वे जलंधर को जीवित कर दें।

यति ने बृंदा को समझाया, "तुम अपने पति के शरीर के इन टुकड़ों को घर ले जाकर ठीक से धो लो, फिर इन्हें जोड़कर इन पर चंदन का लेप करो, तुम्हारा पति जीवित हो जाएगा।" बृंदा ने यति के आदेश का पालन किया। विष्णु ने वानरों को भेजकर योग-शक्ति के बल पर जलंधर के शरीर में प्रवेश किया। बृंदा ने सोचा कि उसका पति पुनर्जीवित हो उठा है। परम प्रसन्न हो उसके साथ गाढ़ालिंगन किया। विष्णु बृंदा के महलों में बहुत समय तक सुख भोगते रहे।

काल की महिमा बड़ी विचित्र होती है। एक दिन श्रीमहाविष्णु अकेले गाढ़ी निद्रा में निमग्न थे। बृंदा अपने को ठीक-ठाक से अलंकृत कर उनके समीप पहुंची। उसने देखा कि जलंधर के शरीर के टुकड़ों के बीच श्यामवर्णी देह को लिए श्रीमहाविष्णु शयन किए हुए हैं। 

ब्रन्दा ने क्रोध में आकर कहा, "हे धूर्त। तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया, प्रवंचना की, तुमको मैंने अपना पति समझा। मेरा ह्रदय निर्मल है। तुम्हारी पत्नी भी इसी प्रकार एक व्यक्ति के हाथ में पड़कर तुम्हारे अपयश का कारण बनेगी। उस समय ये ही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे।" यों शाप देकर अपने पति के शव को जलाने के लिए चिता बनाई और उसी चिताग्नि मे बृंदा ने अपने प्राणों की आहुति दी।

विष्णु भी बृंदा के विरह में उसी चिता में बैठे रहे। इस पर लक्ष्मी देवी और देवताओं ने शिव जी के पास जाकर प्रार्थना की। परमेश्वर ने महामाया, मूल प्रकृति अंबिका को इस कार्य में नियुक्त किया। अंबिका ने नीन शक्तिमय बीज विष्णु के हाथ में देकर बृंदा की चिता पर फेंकने को कहा। विष्णु ने उसका पालन किया। तब चिता से धात्री यानी आंवला, तुलसी और मालती पौधे उग आए। उनकी गंध को सूंघते ही विष्णु मोह-ताप से मुक्त होकर बैकुंठ में चले गए। उसी समय से विष्णु के लिए धात्री और तुलसी पौधे अधिक प्रिय बन गए हैं।

जाने कहाँ है भगवान गणेश का असली मस्तक

धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि उनका मुख हाथी का है| क्या आपको पता है कि भगवान श्रीगणेश का सिर कटने के बाद हाथी के बच्चे का मुख लगा लेकिन उनका असली सिर कहाँ गया? इसके बारे में आज आपको एक रोचक जानकारी देते हैं| 

ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि जब गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया| 

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।

ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से भी धर्म परंपराओं में संकट चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।

जब दानव गुरु शुक्राचार्य बने शिव के क्रोध का शिकार

दानव गुरु शुक्राचार्य के संबंध में काशी खंड महाभारत जैसे ग्रंथों में कई कथाएं वर्णित हैं। शुक्राचार्य भृगु महर्षि के पुत्र थे। देवताओं के गुरु बृहस्पति अंगीरस के पुत्र थे। इन दोनों बालकों ने बाल्यकाल में कुछ समय तक अंगीरस के यहां विद्या प्राप्त की। आचार्य अंगीरस ने विद्या सिखाने में शुक्र के प्रति विशेष रुचि नहीं दिखाई। असंतुष्ट होकर शुक्र ने अंगीरस का आश्रम छोड़ दिया और गौतम ऋषि के यहां जाकर विद्यादान करने की प्रार्थना की। गौतम मुनि ने शुक्र को समझाया, "बेटे! इस समस्त जगत् के गुरु केवल ईश्वर ही हैं। इसलिए तुम उनकी आराधना करो। तुम्हें समस्त प्रकार की विद्याएं और गुण स्वत: प्राप्त होंगे।"

गौतम मुनि की सलाह पर शुक्र ने गौतमी तट पर पहुंचकर शिव जी का ध्यान किया। शिव जी ने प्रत्यक्ष होकर शुक्र को मृत संजीवनी विद्या का उपदेश दिया। शुक्र ने मृत संजीवनी विद्या के बल पर समस्त मृत राक्षसों को जीवित करना आरंभ किया। परिणामस्वरूप दानव अहंकार के वशीभूत हो देवताओं को यातनाएं देने लगे, क्योंकि देवता और दानवों में सहज ही जाति-वैर था। फलत: देवता और दानवों में निरंतर युद्ध होने लगे। 

मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती ही गई। देवता असहाय हो गए। वे युद्ध में दानवों को पराजित नहीं कर पाए। देवता हताश हो गए। कोई उपाय ने पाकर वे शिव जी की शरण में गए, क्योंकि शिव जी ने शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या प्रदान की थी। इसलिए देवताओं ने शिव जी से शिकायत की, "महादेव! आपकी विद्या का दानव लोग दुरुपयोग कर रहे हैं। आप तो समदर्शी हैं। शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से मृत दानवों को जिलाकर हम पर भड़का रहे हैं। यही हालत रही तो हम कहीं के नहीं रह जाएंगे। कृपया आप हमारा उद्धार कीजिए।"

शुक्राचार्य द्वारा मृत संजीवनी विद्या का इस प्रकार अनुचित कार्य में उपयोग करना शिव जी को अच्छा न लगा। शिव जी क्रोध में आ गए और शुक्राचार्य को पकड़कर निगल डाला। इसके बाद शुक्राचार्य शिव जी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने निज रूप को प्राप्त किया।

शुक्राचार्य के संबंध में एक और कथा इस प्रकार है-शुक्राचार्य ने किसी प्रकार छल-कपट से एक बार कुबेर की सारी संपत्ति का अपहरण किया। कुबेर को जब इस बात का पता चला, तब उन्होंने शिव जी से शुक्राचार्य की करनी की शिकायत की। शुक्राचार्य को जब विदित हुआ कि उनके विरुद्ध शिव जी तक शिकायत पहुंच गई, वे डर गए और शिव जी के क्रोध से बचने के लिए झाड़ियों में जा छिपे। आखिर वे इस तरह शिव जी की आंख बचाकर कितने दिन छिप सकते थे। 

एक बार शिव जी के सामने पड़ गए। शिव स्वभाव से ही रौद्र हैं। शुक्राचार्य को देखते ही शिव जी ने उनको पकड़कर निगल डाला। शिव जी की देह में शुक्राचार्य का दम घुटने लगा। उन्होंने महादेव से प्रार्थना की कि उनको शिव जी की देह से बाहर कर दें। शिव जी का क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने रोष में आकर अपने शरीर के सभी द्वार बंद किए। अंत में शुक्राचार्य मूत्रद्वार से बाहर निकल आए। इस कारण शुक्राचार्य पार्वती-परमेश्वर के पुत्र समान हो गए।

शुक्राचार्य को बाहर निकले देख शिव जी का क्रोध पुन: भड़क उठा। वे शुक्राचार्य की कुछ हानि करें, इस बीच पार्वती ने परमेश्वर से निवेदन किया, "यह तो हमारे पुत्र समान हो गया है। इसलिए इस पर आप क्रोध मत कीजिए। यह तो दया का पात्र है।" पार्वती की अभ्यर्थना पर शिव जी ने शुक्राचार्य को अधिक तेजस्वी बनाया।

अब शुक्राचार्य भय से निरापद हो गए थे। उन्होंने प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती के साथ विवाह किया। उनके चार पुत्र हुए-चंड, अमर्क, त्वाष्ट्र और धरात्र।

एक कथा शुक्राचार्य के संबंध में इस प्रकार है- एक बार वामन ने राजा बलि के पास जाकर तीन कदम रखने की पृथ्वी मांगी। यह समाचार शुक्राचार्य को मिला। उन्होंने राजा बलि को समझाया, "राजन! सुनो। आपसे तीन कदम जमीन मांगनेवाले व्यक्ति नहीं हैं, वे नर भी नहीं। भूल से भी सही, उनको एक कदम रखने की जमीन तक मत देना। नीतिशास्त्र बताता है कि वारिजाक्ष, विवाह, प्राण, मान तथा वित्त के संदर्भ में झूठ बोला जा सकता है, इसलिए मेरी सलाह मानकर याचक को जमीन का दान देने से अस्वीकार करो।"

शुक्राचार्य ने राजा बलि को इस तरह अनेक प्रकार से समझाया, परंतु राजा बलि अपने वचन के पक्के थे, साथ ही ज्ञानी भी। इसलिए उन्होंने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "यदि याचक नर न होकर नारायण ही हों तो और अधिक उत्तम। यदि उनके हाथों में मेरा कुछ अहित भी होता है, तो वह मेरा भाग्य ही माना जाएगा। इसलिए ऐसे सुअवसर से मैं वंचित होना नहीं चाहता। मैं अपने वचन का पालन हर हालत में करना चाहूंगा।" यह कहकर राजा बलि ने प्रसन्नतापूर्वक वामन को तीन कदम रखने की भूमि दान कर दी।

इससे दानवाचार्य शुक्र चिंता में पड़ गए। उन्होंने संकल्प किया कि किसी प्रकार से राजा बलि का उपकार करना चाहिए। यह विचार करके वे मक्खी का रूप धरकर कमंडल की टोंटी से जलधारा के गिरने से अटक गए। टोंटी से जल के न गिरते देख राजा बलि ने तीली लकेर कमंडल की टोंटी में घुसेड़ दिया। तीली मक्खी की आंख में चुभ गई और आंख फूट गई। परिणामस्वरूप दानवाचार्य शुक्र काना बन गए। तब से दानवाचार्य काना शुक्राचार्य कहलाए।

तो इस तरह चोलराज को मिला ज्ञान

कई शताब्दियां गुजर गईं, लेकिन आज भी सर्वत्र एक साधारण भक्त की कहानी कही-सुनी जाती है। बात उन दिनों की है जब चोल राजा कांचीपुर को अपनी राजधानी बनाकर राज्य किया करते थे। वे बड़े प्रतापी और पुण्यात्मा थे। जनता को अपनी संतान की तरह मानकर सदा उनके सुख-दुख का ख्याल रखते थे। यज्ञ कराते थे। जनता के कल्याण के लिए सब प्रकार के पुण्य कार्य किया करते थे। जनता की भी चोल राजा पर अत्यंत श्रद्धा-भक्ति थी। 

चोल राजा न सिर्फ एक उत्तम शासक, बल्कि एक पहुंचे हुए भक्त भी थे। उनके आराध्य देव थे श्री महाविष्णु। ताम्रपर्णी के तट पर चोल राजा ने यज्ञ पशुओं को बांधने के लिए सोने के जो स्तंभ बनवाए थे, उनकी चर्चा दूर-दराज के प्रदेशों में भी होती थी।

एक बार चोल राजा विष्णु मंदिर में पूजा-अर्चना करने गए। मंदिर के सरोवर में स्नान किया। सूर्य भगवान को अघ्र्य दिया, उसके बाद श्री महाविष्णु को उपहार के रूप में वज्र, वैदूर्य वगैरह रत्न भेंट किए। पंच भक्ष्यों का नैवेद्य चढ़ाया। भक्तिभाव से भगवान के सामने साष्टांग दंडवत किया। उसी समय विष्णुदास नामक एक अति दरिद्र विष्णु मंदिर में पहंचा। उसने तुलसी दल व फूलों से विष्णु की पूजा की। नैवेद्य के रूप में कुछ फल समर्पित किए।

चोलराज विष्णुदास की पूजा का ढंग देखते रहे। उनको विष्णुदास का पूजा-विधान अच्छा न लगा। अपने आराध्यदेव सर्वशक्तिमान श्री महाविष्णु का इस तरह अनादर होते उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने क्रोध में आकर उस दरिद्र भक्त को पास बुलाकर पूछा, "सुनो, तम नहीं जानते कि किस तरह भगवान की पूजा-अर्चना की जाती है। उस पर तुम दरिद्र भी हो। मैंने भगवान की पूजा-अर्चना स्वर्ण पुष्पों से की, उनकी दिव्य मूर्ति के सामने विविध प्रकार के रत्न समर्पित किए। तुमने तो पत्ते, फूल और टहनियों से उन्हें ढंक दिया और उन्हें साधारण फल समर्पित किए। इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?"

इसके बाद राजा अपनी पूजा खत्म कर रथ पर आरूढ़ हो राजमहल को लौट गए। इस घटना के थोड़े दिन बाद महर्षि मौदगल्य के नेतृत्व में यज्ञ प्रारंभ हुए। कांचीपुर अलंकृत किया गया। चारों ओर जनता की भीड़ उमड़ पड़ी, सारे नगर में चहल-पहल थी। मेले जैसे उत्सव का उत्साह उमड़ रहा था। जनता ने भी भगवान की कई तरह से पूजा-अर्चना की। महाराज का यश चारों तरफ फैल गया। लेकिन दरिद्र विष्णुदास अपने सामथ्र्य के मुताबिक भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा-अर्चना में लीन रहा। क्षण प्रति-क्षण वह विष्णु का स्मरण करता रहा।

एक दिन विष्णुदास के घर में एक विचित्र बात हुई। रोज की तरह पूजा-अर्चना समाप्त कर विष्णुदास ने भोजन बनाया, भगवान को नैवेद्य चढ़ाने के लिए उसने भोजन समर्पित करना चाहा। लेकिन आश्चर्य की बात यह हुई कि अचानक सभी पदार्थ नदारद हो गए। एक ओर उसके मन को यह चिंता खाए जाए जा रही थी कि वह आज स्वामी को नैवेद्य नहीं चढ़ा पाया, दूसरी ओर यह कि फिर से रसोई बनाकर नैवेद्य चढ़ाया चाहे तो संध्या वंदन के लिए पर्याप्त समय न होगा। इसलिए उस दिन स्वामी के साथ विष्णुदास को भी भोजन नहीं मिला।

दूसरे दिन रसोई बनाकर विष्णुदास पूजा करने के लिए मंदिर में पहुंचा। पूजा-अर्चना समाप्त कर घर लौटा। भोजन करने के पूर्व स्वामी को नैवेद्य चढ़ाना चाहा तो उस दिन भोजन पदार्थ नदारद थे। विष्णुदास की समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसी माया है। तीसरे व चौथे दिन भी इसी प्रकार उसके भोजन-पदार्थ अदृश्य हो गए।

विष्णुदास ने मन में निश्चय कर लिया कि इस बात का पता लगाया चाहिए कि रोजना भोजन पदार्थ कैसे अदृश्य हो रहे हैं। पांचवें दिन रसोई बनाकर विष्णुदास ने पात्रों में रख दिया और अपने कमरे के एक कोने में छिपकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद वहां पर एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति आया। वह इतना दुर्बल था कि देखने में ऐसा लगता था कि मानों कोई कंकाल ही जान पाकर चल रहा हो। उसकी देह पर चीथड़े लटक रहे थे। 

वह कुछ सहमा व डरा हुआ-सा लग रहा था। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाते ताबड़-तोड़ उसने सारे भोजन पदार्थ समेटकर एक गठरी बांध ली। थोड़ा चखकर देखा। एक खंभे के पीछे दुबककर बैठा। विष्णुदास यह सारा दृश्य देख रहा था। उस बूढ़े पर विष्णुदास को दया आ रही थी। विष्णुदास से रहा नहीं गया। उसने बूढ़े से कहा, "महाशय, थोड़ा रुक जाओ। केवल सब्जी-दाल से भोजन पूरा न होगा, मैं अभी घी और दही ला देता हूं। रुक जाओ।" यह कहकर विष्णुदास बूढ़े की ओर बढ़ा। लेकिन विष्णुदास को देखते ही बूढ़ा घबरा गया और भागने लगा। पैर में ठोकर खाकर वह नीचे गिर पड़ा। उसके बदन पर चोट लगी। वह कराहने लगा।

विष्णुदास ने दौड़कर उसको हाथ का सहारा देकर ऊपर उठाया। पानी पिलाकर उसने शाल से बूढ़े के मुंह पर हवा करने लगा। इसके बाद आंखें मूंदकर भगवान से प्रार्थना करने लगा, "हे भगवान! बेचारे इस बूढ़े को स्वस्थ करो। इसे अन्न-जल की कोई कमी न हो, ऐसा वरदान दो।" अपनी प्रार्थना खत्म कर विष्णुदास ने आंखें खोलीं तो देखता है कि उसके समक्ष शंख, चक्र, गदा व खड्गधारी साक्षात श्री महाविष्णु खड़े मंद-मंद मुस्का रहे थे।

विष्णुदास को आश्चर्य हुआ। उसके बाद वह मुग्ध होकर उस अनंत दिव्य रूप को निहारता ही रह गया। उसके आश्चर्य और आनंद की कोई सीमा न रही। उसकी आंखों में आनंद के आंसू झलक उठे। अपने दोनों हाथ जोड़कर विष्णुदास ने विनम्र भाव से परमात्मा की स्तुति की। परमात्मा विष्णुदास की भक्ति पर प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने भक्त को हाथ का सहारा देकर अपने दिव्य विमान में चढ़ाया और अपने साथ दिव्य धाम को ले गए।

चोल राजा को जब यह समाचार मिला तब उनमें ज्ञानोदय हुआ। उन्होंने समझ लिया कि ईश्वर का अनुग्रह पाने के लिए निश्चय ध्यान व समस्त मानव के हृदय में परमात्मा के दर्शन करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। केवल वाह्यआडम्बर और मूल्यवान उपहारों से परमात्मा प्रसन्न नहीं होते। उस दिन से राजा ने निश्छल भाव से पत्रं-पुष्पं से ईश्वर की आराधना शुरू कर दी।