जाने अगहन मास को क्यों कहते हैं मार्गशीर्ष

हिन्दू धर्म के अनुसार वर्ष का नवां महीना अगहन कहलाता है| अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से भी जाना जाता है| क्या आपको पता है अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जाना जाता है? यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जानते हैं| 

आपको बता दें कि अगहन मास को मार्गशीर्ष कहने के पीछे भी कई तर्क हैं। भगवान श्रीकृष्ण की पूजा अनेक स्वरूपों में व अनेक नामों से की जाती है। इन्हीं स्वरूपों में से एक मार्गशीर्ष भी श्रीकृष्ण का ही एक रूप है।

अगहन मास को मार्गशीर्ष क्यों कहा जाता है? इस संबंध में शास्त्रों में कहा गया है कि इस माह का संबंध मृगशिरा नक्षत्र से है। ज्योतिष के अनुसार नक्षत्र 27 होते हैं जिसमें से एक है मृगशिरा नक्षत्र| इस माह की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से युक्त होती है। इसी वजह से इस मास को मार्गशीर्ष मास के नाम से जाना जाता है| 

भागवत के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा था कि सभी महिनों में मार्गशीर्ष श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। मार्गशीर्ष मास में श्रद्धा और भक्ति से प्राप्त पुण्य के बल पर हमें सभी सुखों की प्राप्ति होती है। इस माह में नदी स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व है। 

श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष मास की महत्ता गोपियों को भी बताई थी। उन्होंने कहा था कि मार्गशीर्ष माह में यमुना स्नान से मैं सहज ही सभी को प्राप्त हो जाऊंगा। तभी से इस माह में नदी स्नान का खास महत्व माना गया है।

मार्गशीर्ष में नदी स्नान के लिए तुलसी की जड़ की मिट्टी व तुलसी के पत्तों से स्नान करना चाहिए। स्नान के समय ऊँ नमो नारायणाय या गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। 

इस तरह विश्वामित्र को मिली ब्रह्मज्ञान की शिक्षा

चंद्रमा धीरे-धीरे काले बादलों में से लुकता-छिपता निकल रहा था। वायु के साथ-साथ नदी नाचती,बल खाती जा रही थी। कहीं चांदनी छिटकी थी, कहीं अंधेरा छाया था। बड़ा ही सुंदर दृश्य था। 

चारों ओर ऋषियों के आश्रम थे। एक-एक आश्रम नंदन वन को मात करता था। हर एक ऋषि की कुटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। अद्भुत शोभा थी वहां की। ऐसी ही एक रात थी, जब चांदनी छिटकी हुई थी। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुन्धती से कह रहे थे, "देवी! ऋषि विश्वामित्र के यहां जाकर जरा-से नमक की भीख मांग लाओ।"

इस बात से विस्मित होकर अरुन्धती ने कहा, "यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ भी समझ नहीं पाई। जिसने मुझे सौ पुत्रों से वंचित किया.." कहते-कहते उनका गला भर गया। उन्होंने आगे कहा कि मेरे सौ बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना-शोभित रात्रि में वेद-पाठ करते-फिरते थे। मेरे सौ-के-सौ पुत्र वेदज्ञ और ब्रह्मनिष्ठ थे। मेरे उन सौ पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप उसी के आश्रम से लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? मैं कुछ नहीं समझ पातीं।

धीरे-धीरे ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया। धीरे-धीरे सागर-गंभीर हृदय से यह वाक्य निकला, "लेकिन, देवी, मुझे उससे प्रेम है। अरुन्धती और भी चकरा गईं। उन्होंने कहा कि आपको उनसे प्रेम है तो एक बार 'ब्रह्मर्षि' कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोने पड़ते।

ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा कि मुझे उससे प्रेम है, इसलिए उसे 'ब्रह्मर्षि' नहीं कहता। मैं उसे ब्रह्मर्षि नहीं कहता, इसलिए उसके ब्रह्मर्षि होने की आशा है।

आज विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। तपस्या में उनका मन नहीं लग रहा। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वसिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहें तो उनके प्राण ले लेंगे। अपना संकल्प पूरा करने के लिए वह हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले।

उन्होंने वसिष्ठ की उपर्युक्त सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूंठ पर हाथ की पकड़ ढीली हो गई। सोचा, "आह! क्या कर डाला मैंने! बिना जाने कितना अन्याय कर डाला! बिना जाने किसके निर्विकार चित्त की व्यथा पहुंचाने की कोशिश की!" हृदय में सैकड़ों बिच्छुओं के काटने की वेदना होने लगी। पश्चताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौड़े गये और वसिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े।

कुछ देर तक मुंह से बोल न फूटे। अपने आपे में आये तो विश्वामित्र ने कहा, "क्षमा कीजिये, यद्यपि मैं क्षमा के अयोग्य हूं।" और कोई शब्द मुंह से न निकला। इधर वसिष्ठ ने क्या किया? दोनों हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले, "उठो ब्रह्मर्षि, उठो।"

विश्वामित्र लज्जित हो गये। बोले, "प्रभो! क्यों लज्जित करते हैं?" वसिष्ठ ने उत्तर दिया, "मैं कभी झूठ नहीं बोला करता। आज तुम ब्रह्मर्षि बन गये हो, आज तुमने अभिमान त्याग दिया है। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया है।"

विश्वामित्र ने कहा, "आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिये।" वसिष्ठ बोले, "अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे।" विश्वामित्र वहां जा पहुंचे, जहां अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, "मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूं जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किये हुए हूं।"

तपोबल के गर्व से विश्वामित्र ने कहा, "आप पृथ्वी को छोड़ दीजिये, मैं उसे धारण कर दूंगा।" अनंत देव ने कहा, "अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूं।" और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, "मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूं। पृथ्वी! रुक जाओ।" फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई।

अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, "विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।" विश्वामित्र बोले, "क्षणभर के लिए वसिष्ठ के साथ रहा हूं।" अनंत देव ने कहा, "तो उसी का फल दे दो।" विश्वामित्र बोले, "अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूं।" और धरती स्थिर हो गयी। तब विश्वामित्र ने कहा, "देव! अब मुझे आज्ञा दें।"

अनंत देव ने कहा, "मूर्ख विश्वामित्र! जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान मांग रहे हो?" विश्वमित्र क्रुद्ध हो गये। उन्होंने सोचा, "इसका मतलब यह है कि वसिष्ठ मुझे ठग रहे थे।" वे तेजी से वसिष्ठ के यहां जा पहुंचे और बोले, "आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा?" वसिष्ठ बोले, "अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता। इस अनुभव के बाद तुम विश्वास करोगे।" विश्वामित्र ने वसिष्ठ से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा पाई।

भारत में ऐसे-ऐसे ऋषि, ऐसे-ऐसे साधु थे। हमारे यहां क्षमा का यह आदर्श था। तपस्या का ऐसा बल था, जिसके द्वारा समस्त पृथ्वी को धारण किया जा सके। भारत में फिर से ऐसे ऋषि जन्म ग्रहण कर रहे हैं, जिनकी प्रभा के आगे प्राचीन ऋषियों की ज्योति फीकी होगी, जो भारत को फिर प्राचीन गौरव की अपेक्षा अधिक गौरवमय स्थान पर प्रतिष्ठित करेंगे।

जन्म के वार से जानिए पुरुषों का स्वभाव और उनका भविष्य

हर व्यक्ति एक दूसरे को जानने की कोशिश में लगा होता है कि उस व्यक्ति का स्वभाव कैसा होगा| यदि आप भी किसी बारे में जानने की इच्छा रखते हैं तो आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि सप्ताह के अलग- अलग वार को जन्म लेने पुरुषों का स्वाभाव कैसा होगा| 

आपको बता दें कि व्यक्ति जिस वार को पैदा होता है उस दिन का प्रभाव भी उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। ज्योतिष के अनुसार, सप्ताह के सातों दिन के गृह स्वामी अलग- अलग होते हैं| इसलिए अलग दिनों में पैदा हुए लोगों का स्वभाव भी अलग- अलग होता है| जानिए व्यक्ति किस दिन जन्म लिया और उसका स्वभाव कैसा होगा|

सोमवार- 

इस दिन जन्में व्यक्ति हमेशा समाज में चर्चा का विषय बने रहते है लेकिन इनका पारिवारिक जीवन अच्छा नहीं रहता है। हमेशा काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है परन्तु बाहरी लोग समझते हैं कि इनका जीवन सफल चल रहा है। चन्द्र से सम्बन्ध होने के कारण आपका मन चंचल रहेगा तथा निरन्तर आपके विचार बदलते रहेंगे। किसी भी कार्य को पूरा किये बिना ये लोग दूसरे कार्य को आरम्भ कर देते है। यही स्वभाव इनकी सफलता में बाधक बनता है। इस दिन जन्में व्यक्तियों की स्मरण बहुत तेज होती है फिर भी में धैर्य की बहुत कमी होती है। ये पुरुष स्त्रियों के मामलें में आप बहुत शालीन होते हैं|

मंगलवार-

मंगलवार को जन्म लेने वाले व्यक्ति झगड़ालू या क्रोधी, तेजस्वी, पराक्रमी, अनुशासनप्रिय तथा अपार उर्जा से परिपूर्ण, नयें विचारों का समर्थन करने वाले तथा रूढ़वादिता को नष्ट करने वाले तथा सदैव प्रगति के मार्ग पर चलने वाले होते हैं, क्योंकि इस दिन जन्में व्यक्तियों पर मंगल गृह का विशेष प्रभाव रहता है|

इस दिन जन्में व्यक्ति सभी बाधाओं को पार करते हुए सदैव आगे बढ़ने में तत्पर रहते है। ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी आवेश में आ जाते है जिससे कभी-कभी आपको हानि भी उठानी पड़ सकती है। इस दिन जन्में व्यक्ति अनोखे कार्य दिखाकर विश्व में अपना नाम फैलाना चाहेंगे, जिसकी वजह से जीवन में कई बार दुर्घटनाओं का सामना भी करना पड़ सकता है। ये व्यक्ति प्रशंसा सुनने के बहुत इच्छुक रहते है। इनको सभी प्रकार की भौतिक सफलता तो मिलेगी परन्तु लापरवाही करने पर वही सफलता आपके विनाश का कारण भी बन सकती है। इनके दांपत्य जीवन में समय-समय पर विरोधाभास की स्थिति आती रहेगी। पत्नी विचारों से सहमत नहीं रहेगी। इन व्यक्तियों की वाणी में ऐसी दृढ़ता है कि लोग सुनकर आकर्षित हो जाते हैं|

बुधवार-

बुधवार को जन्मे व्यक्ति दोहरे चरित्र, बहुमुखी प्रतिभा, तीक्ष्ण बुद्धिवाले होते हैं| इस दिन जन्म लेने वाले व्यक्ति किसी की भी आलोचना करने में माहिर होते है तथा अपनी वाक्पटुता के द्वारा दूसरे व्यक्ति की बोलती बन्द कर देते हैं| ये व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्धि पा सकते है लेकिन अपने दोहरे चरित्र के कारण किसी भी क्षेत्र में बहुत दिनों तक टिक नहीं पाते है। इन व्यक्तियों पर बुध ग्रह का विशेष प्रभाव रहता है|

इस दिन जन्में व्यक्ति अपने कार्य से सन्तुष्ट नहीं रहते है, इसलिए कभी- कभी आप स्वयं के द्वारा किये गये कार्यो की आलोचना करने लगते है। ये व्यक्ति अपने मित्रों को बहुत प्रेम तथा आदर करते है तथा अपनी क्षमता से ज्यादा उनकी मदद करने का प्रयास करते हैं। इनका भाग्य पक्ष मजबूत होने के कारण, ये सब प्रकार की विपत्तियों से जल्दी निकल आते है। इन व्यक्तियों का सम्पर्क उंचे तबके के लोगों से रहेगा जिसके कारण ये अच्छा धन कमाने में कामयाब होंगे। इस दिन जन्में व्यक्तियों के जीवन में 15 वें, 24 वें, 33वें वर्ष विशेष परिवर्तनकारी हो सकते है।

गुरूवार-

गुरूवार को जन्में व्यक्ति महत्वाकांक्षी, अनुशासन प्रिय गम्भीर स्वभाव तथा किसी भी कार्य का नेतृत्व करने वाले होते है। आपके साहस व तर्क के आगे कोई भी व्यक्ति ठहर नहीं पायेगा और आपका जीवन तानाशाही से भरा रहेगा, यह आपका नकारात्मक पक्ष होगा। अपने विचारों एंव भावनाओं को दूसरे के सामने बहुत अच्छे ढ़ग से पेश करते है, इसी कारण आप से लोग जल्दी प्रभावित हो जाते है। आपका मुख्य कार्य मानवता की सेवा करना है। 

आप सदैव अपने जीवन में दुःखी लोगों की सेवा के लिये तत्पर रहेंगे।मित्रों की संख्या आपके पास अधिक होने के बावजूद विश्वसनीयता की कमी रहेगी। दूसरों से अपना काम निकलवाने के लिये आप कुछ भी कर सकते है, परन्तु कार्य हो जाने पर उसे भूल भी जाते हैं इसलिए आपको स्वार्थी प्रवृत्ति कहा जाता है। आप बहुत ज्यादा शौकीन मिजाज के होंगे, मौज, मस्ती, सजावट, में बेहद खर्चीले होंगे। इसलिये धन आपके पास रूक नहीं पाता है। 

इस दिन जन्में व्यक्तियों का बाल्यावस्था का जीवन बहुत ही कष्टकारी और खराब परिस्थितियों में व्यतीत होता है। किसी भी कार्य में जल्दी-जल्दी बोलना, तर्क देना तथा दूसरों के सभी प्रश्नों का उत्तर आप-अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से दे पाने में पूर्णतया समर्थ रहेंगे। 

शुक्रवार-

इस दिन जन्में व्यक्तियों की वाणी में मधुरता एवं सरलता होती है तथा वाद या विवाद करने वाले से सदैव नफरत करते हैं। झगड़े की जड़ को प्रेम -पूर्वक मिटाने का पूरा प्रयास करते हैं या फिर समझौता करके रफा-दफा कर देते हैं| ऐसे व्यक्ति मनोरंजन के सामानों में अत्यधिक व्यय कर देते हैं जिससे इनका आर्थिक संतुलन बिगड जाता है।

इस दिन जन्में व्यक्ति एकान्त में खुश होकर नहीं बैठते, ये सदैव अपने मित्रों के साथ रहना पसन्द करते हैं इनके मित्रों की संख्या अधिक होती है ये बहुत कुटिल होते हैं और सबके मन के विचार जान लेते हैं तथा अपनी कुशल वाणी से दूसरों के भेद को बाहर निकलवा लेंगे परन्तु आप अपनी बात किसी के सामने प्रकट नहीं होने देते हैं।उनके मन में क्या है? यह तो उनकी पत्नी भी नहीं जान पायेगी। 

इनका स्वभाव चंचलता से परिपूर्ण होता है, ये महिलाओ के प्रति विशेष आकर्षित होते हैं जिसके कारण कभी-कभी दुविधाजनक स्थिति में पड़ जाते हैं। अतः इन्हें अपनी इस आदत को सुधार करने का प्रयास करना चाहिए। प्रेम के मामले में ऐसे लोग एक जगह नहीं टिक पाते परन्तु आप आदर्श प्रेम के पक्ष में रहते हैं। इनके स्वभाव में ईष्र्या अधिक होती है | जिसके कारण ये किसी दूसरे को ऊपर उठते नहीं देख सकते हैं। इनका वैवाहिक जीवन सफल कहा जा सकता है, परन्तु ये एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र नहीं करेंगे। 

शनिवार-

इस दिन जन्में व्यक्ति आलसी व संकोची होते हैं, ये व्यक्ति किसी भी कार्य को करने की सुन्दर योजना बनायेंगे परन्तु उन योजनाओं के अनुरूप आप कार्य नहीं कर पायेंगे, इसलिए संकोच व आलस्य को त्याग कर दें अन्यथा आपको जीवन में काफी कठिनाइयों का सामना करना पडे़गा।

इस दिन जमें व्यक्तियों का कोई अपमान करे तो वे कतई बर्दाश्त नहीं करते, इन व्यक्तियों को हमेशा सभी कार्यों में सफलता हांसिल होगी मगर संघर्ष करते रहेंगे तब| इन व्यक्तियों को संकट, विपत्ति व कठिनाईयां अपने लक्ष्य से भ्रमित नहीं कर पायेंगी| इनके जीवन में कितने ही कष्ट क्यों न आये,परन्तु ये अपने हंसमुख स्वभाव के कारण विचलित नहीं होगे। इनका जितना भी विरोध किया जायेगा ये उतना ही सफलता की ओर आगे बढ़ते जायेगे।

इस दिन जन्में व्यक्तियों की खास बात यह होती है कि एक अच्छे प्रेमी होंगे, अतः प्रेम करने की कला में ये निपुण होगे। इनके अन्दर बाहरी प्रदर्शन की कला नहीं होगी और न ही आप किसी बाहरी दिखावे को पसन्द करेगें आप अपने को जैसा है वैसा ही दिखाना पसन्द करेगें। 

रविवार-

सूर्य सिंह राशि का स्वामी है। सिंह का अर्थ होता है शेर और शेर को स्वतन्त्रता प्रिय होती है। अतः इस दिन जन्में व्यक्ति किसी की अधीनता में कार्य करना पसन्द नहीं करते। इनकी इच्छा शक्ति और सकंल्प शक्ति बहुत अधिक होती है। ऐसे लोग कुशल प्रशासक, कुशल संचालक, कुशल प्रबंधक, समाज सेवी तथा राजनीति में कुशल राजनेता बनते है। यदि इन व्यक्तियों को नेतृत्व का कार्य सौप दिया जाय तो किसी भी क्षेत्र में बेहतर परिणाम देते हैं। 

इस तरह संत ने राजा को दिया सुख का मंत्र

एक राजा था। वह बड़ा निडर और उदार था। उसकी प्रजा उसे बहुत चाहती थी। एक दिन राजा एकांत में बैठा सोच रहा था। सोचते-सोचते वह गहराई में उतर गया। उसे लगा, इतनी सारी सुख-निधि पाकर भी आदमी दु:खी क्यों है? 

एक दिन उसने अपने दरबारियों को आज्ञा दी कि सबसे सुखी और तन्दुरुस्त आदमी को पकड़ कर लाओ। दरबारी और प्रजा हैरान। वे राजा की आज्ञा का पालन करने के लिए बहुत भटके, पर राजा जैसा चाहता था, वैसा एक भी आदमी नहीं मिला। उन्होंने दरबार में आकर राजा से कहा, "हे राजन् इस धरती पर पूर्ण सुखी और स्वस्थ कोई भी इंसान नहीं है। किसी को कोई दुख है तो किसी को कोई।"

सुनकर राजा स्तब्ध रह गया। फिर बोला, "तो क्या मेरे राज्य में सब दुखी और बीमार हैं? इस धरती पर कोई भी सुखी नहीं है। नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। जाओ, एक बार फिर खोजो।"

दरबारी क्या करते! फिर निकले। घूमते-घूमते वे एक निर्जन और वीरान जंगल से गुजरे। देखा, एक संत ध्यान में लीन हैं। वे वहीं जाकर बैठ गए। ध्यान खुलने पर संत ने पूछा, "तुम लोग कौन हो? कहां से आए हो?"

दरबारियों ने कहा, "हम राजा की आज्ञा मानकर सबसे सुखी और स्वस्थ प्राणी को खोजने निकले हैं।" सुनकर संत बोले, "क्या तुम्हें अब तक ऐसा कोई आदमी मिला है?"

दरबारियों ने कहा, "नहीं" इसके बाद साधु उनके साथ राजा के पास गए। राजा संत को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। संत ने कहा, "राजन्! तुम व्यर्थ ही परेशान होते हो। क्या तुम्हें पता है कि मनुष्य के हृदय में ही सुख का अपार भंडार भरा पड़ा है? जरा टटोलो तो अपने को। सुख की खोज में जैसे कस्तूरी मृग इधर-उधर भटकता है, वैसे ही तुम भटक रहे हो। सुख के लिए बाहर नहीं, भीतर देखना होता है।"

राजा का हृदय पुलक उठा। उसकी समस्या हल हो गई।

इस रहस्‍यमयी किले में गायब हो गई थी पूरी की पूरी बारात!


भूत प्रेत के किसी तो आपने बहुत सुने होगे लेकिन एक ऐसा किस्सा शायद ही कहीं सुना होगा| हम बात कर रहे हैं चंदौली के हेतमपुर गाँव की| यहाँ का एक किला जो कभी तहखानों के लिए मशहूर था लेकिन आज लोगों के लिए दहशत का सबब है| रात का अँधेरा तो दूर दिन के उजाले में भी फटकना चाहता है| लोगों का कहना है कि जाने कि दीवार पर कोई साया हो, जो मौत का सबब बन जाए।
हेतमपुर गांव में लगभग पांच सौ वर्ष पुराना बादशाह हेतम खान का रहस्यमयी किला आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। हेतम खान के इस किले को अब लोगों ने नया नाम दे दिया है वह भुलैनी कोट| यहाँ के लोग अब इस किले को भुलैनी कोट के नाम से पुकारते हैं| गांव के जलील अंसारी का बताते हैं कि सैकड़ो वर्ष पूर्व इस किले के बाहर से एक बारात गुजर रही थी। कुछ लोग किले से मोहित होकर भीतर चले गए और कहाँ लापता हो गए ये आज तक न पता चल पाया। गांव में शोर हो गया कि हेतम खान के रहस्यमयी किले में कुछ लोग गायब हो गए। तभी से ग्रामीणों ने ईंट पत्थर से इसके सुरंग वाले रास्तो को बंद कर दिया हैं।
जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित हेतमपुर गांव में बादशाह हेतम खां का लगभग पांच सौ वर्ष पुराना रहस्यमयी किला आज जीर्ण-शीर्ण हालत में है। यहाँ का आलम यह है की लोग इधर से गुजरने से भी डरते हैं| इस गाँव के एक बुजुर्ग नंदू राय का कहना है कि अफवाहों की वजह से ये किला रहस्यमयी बना है, लेकिन इस किले के भीतर उन्होंने बचपन के दिनों में एक बंद पड़ा कमरा देखा था। उस कमरे में काफी बड़ा ताला लगा हुआ है और आज भी उसी कमरे में बादशाह की अकूत संपत्ति बंद पड़ी है।
पहले लोग इधर आने से डरते थे लेकिन जब पुरातत्व विभाग ने इसे अपने कब्जे में लेकर इसकी मरम्मत करवाई तो दिन के उजाले में इसे देखने के लिए लोग आ जाते हैं लेकिन शाम होते ही किसी की यह मजाल नहीं की यहाँ फटक जाए| इस किले के बारे में यहाँ के जानकार दीपक सिंह बताते हैं कि यह इलाका पहले महाईच परगना के अंतर्गत आता था जो गाजीपुर जिले में पड़ता था। तत्कालीन मुख्यमंत्री कमला पति त्रिपाठी ने गंगा नदी के कारण आवागमन में हो रही दिक्कतों के वजह से इसे वाराणसी जिले से जोड़ दिया तो जिला के विभाजन के बाद यह किला चंदौली के अंतर्गत हो गया।
मुख्य रूप से हेतमपुर के किले को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं-
1 भुलैनी कोट:- किले की पूर्वी दीवार में उत्तर दिशा की तरफ चार मन्जिल वाली विशाल इमारत है। इस इमारत में पूरब दिशा में खुला तीस फुट उँचा किले का मुख्य दरवाजा है। इमारत के बाहर (पूरब) इमारत से देखने पर हेतम खाँ की सुरक्षा व्यवस्था की मजबूती को आंका जा सकता है। चारों मन्जिलों से सामने पूरब की तरफ दुष्मनों का सामना करने के लिए 34 छोटे-बड़े मोरचे के कंगूरों का निर्माण है। सम्भवतः इन कंगूरों से बन्दूकधारी, तोपची व तीरंदाज किसी प्रकार के हमलों का सामना करने के लिए मोरचा बनाते रहे होंगे। किले के अन्दर घुसने पर दोनों तरफ बड़े-बड़े बरामदे हैं। इन बरामदों की छत नीची है। इन बरामदों में घोड़े व हाथी बाधे जाते थे क्योंकि इनमें बड़े-छोटे कई हौद हैं। स्थानीय नागरिक संजय यादव बताते हैं कि बुजुर्ग कहा करते थें कि दरवाजे के बायें तरफ की गिरी छत के कारण वह मुख्य सुरंग भी बन्द हो गया जिससे भूमिगत मार्ग से चुनार, जमानियाँ, धानापुर एवं कमालपुर तक पहुँचा जा सकता था। सुरंग मोटी दीवाल में बनी आलमारी के पार्ष्व में इस प्रकार स्थित थी कि आम आदमी कुछ समझ न पाये, अगर वह सुरंग में चला भी जाए तो भ्रामक रास्तों में उलझ कर भटक जाए। किले के विषाल परिसर में बाहरी दीवार में जमीन से सटा एक बड़ा ताखा दिखाई देता है। इसी ताखे में झुककर प्रवेष करने पर दीवार के ही उत्तर में उपर की ओर बढ़ती हुई एक सीढ़ी मिलती है। इसी सीढ़ी से भूलैनी कोट की उपरी मंजिल पर जाया जाता है तथा बीच में दाहिनी तरफ या बायें बने ताखों व आलमारीयों से रास्ते बदल-बदल ही उपर पहुँचा जाता है। इसी भुल-भुलैया के कारण इस इमारत को भुलैनी कोट के नाम से जाना जाता है।
बिचली कोट:- किले के दक्षिण-मध्य में स्थित यह इमारत (कोट) पूरे किले की मुख्य इमारत है। इमारत का मुख उत्तर दिशा की तरफ है। भुलैनी कोट (इमारत) से किले के मैदान में प्रवेश करने पर दक्षिण दिशा में सामने की तरफ बिचली कोट दिखायी देती है। तीन मंजिले इस इमारत में वास्तुकला का उत्कर्ष देखा जा सकता है। इमारत के निर्माण में ईंट का उपयोग आंशिक रूप से हुआ है। यह इमारत पूरे किले से पाँच फिट उँची है अपर गढ़िया पर बनी है। छः अठपहले पटादार व नक्काशीदार खम्भों पर टिके विशाल बरामदे के तीनों तरफ बड़े-बड़े कमरे हैं। कमरे के द्वार बरामदे में खुले हैं।
भीतरी कोट:- यह कोट बिचली कोट के ठीक नीचे जमीन के अन्दर है। इसमें जाने के लिए सभी रास्ते बन्द हो चुके हैं फिर भी इसके अन्दर टहल चुके कुछ स्थानीय नागरिकों ने बताया कि बिचली कोट (इमारत) की भाति भीतरी कोट (इमारत) में भी भवन है। स्थानीय राजेश ने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी केदारनाथ उपाध्याय से सुना था कि वे मशाल के सहारे कोट (इमारत) के अन्दर अपने मित्रों के साथ घूसे थे तथा कोट (इमारत) के अन्दर तीन मंजिल व एक इमारत है इनके पूर्वी छोर के कमरों में लगभग 25-25 किलो0 के ताले लगे थें इनका अनुमान था कि इन कमरों में भारी मात्रा में धन-दौलत व हथियार होंगे। भीतरी कोट (इमारत) से किले के चारों दिशाओं में सुरंग बाहर की तरफ निकले हैं।
उत्तरी कोट:- यह दो मंजिला कोट (इमारत) किले के उत्तर की तरफ स्थित है। इसकी बनावट भुलैनी कोट (इमारत) से कुछ छोटा है। इस कोट (इमारत) में छोटा दरवाजा उत्तर की तरफ था। दरवाजे के सामने लगभग 2.5 एकड़ में स्थित गहरा तालाब है।
दक्षिणी कोट:- यह कोट (इमारत) किले के दक्षिण-पष्चिम कोने में है। इसी कोट में हेतम खाँ ने मथारूद्र (ब्राह्मण) व एक मुसलमान धोबी को चुनवा दिया था। इस दो मंजिल इमारत के मध्य कुआँ था जिससे पूरे किले में पानी की आपूर्ति होती थी। इसी कोट में उत्तरी कक्ष से एक चौड़ा रास्ता किले की चहारदीवारी पर जाता था इसी मार्ग से सैनिक आपने घोड़ों व तोपों के साथ किले की चहारदीवारी पर चढ़ते थे।

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अखंड सुहाग व पारस्परिक प्रेम का प्रतीक करवा चौथ

करवा चौथ भारत में मुख्यतः उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मनाया जाता है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला यह व्रत इस बार 2 नवम्बर दिन शुक्रवार को मनाया जायेगा| करवा चौथ का पर्व सुहागिन स्त्रियाँ मनाती हैं| पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन चन्द्रमा की पूजा की जाती है| चंद्रमा के साथ- साथ भगवान शिव, पार्वती जी, श्रीगणेश और कार्तिकेय की पूजा की जाती है| करवाचौथ के दिन उपवास रखकर रात्रि समय चन्द्रमा को अर्ध्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है|

करवा चौथ की व्रत विधि- 

कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला करक चतुर्थी व्रत स्त्रियां अखंड़ सौभाग्य की कामना के लिए करती हैं| इस व्रत में शिव-पार्वती, गणेश और चन्द्रमा का पूजन किया जाता है| इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर सुहागिन स्त्रियां पति की लंबी आयु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं| पति-पत्नी के आत्मिक रिश्ते और अटूट बंधन का प्रतीक यह करवाचौथ या करक चतुर्थी व्रत संबंधों में नई ताज़गी एवं मिठास लाता है| करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है| सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दि जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है|

करवा चौथ व्रत की प्रक्रिया-

करवा चौथ में प्रयुक्त होने वाली संपूर्ण सामग्री को एकत्रित करें| व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें- 'मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये। करवा चौथ का व्रत पूरे दिन बिना कुछ खाए पिए रहा जाता है| दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। उसके बाद आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ और पक्के पकवान बनाएं। उसके बाद पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। ध्यान रहे गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। उसके बाद जल से भरा हुआ लोटा रखें। वायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। पति की दीर्घायु की कामना करें।

'नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥' करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासूजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें।इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर पर्व को संपन्न करें।

नई ब्याहतायें न रखें व्रत-

जिन युवतियों की इस वर्ष शादी हुई है वे इस बार करवा चौथ का व्रत न रखें| पंडितों व ज्योतिषियों का मानना है कि इस वर्ष मलमास पड़ने से शुक्र के अस्त होने से नई ब्याहतायें दो नवम्बर को करवा चौथ का न तो व्रत रख सकती हैं और न ही चंद्रमा को अर्ध्य दे सकती हैं| ज्योतिषाचार्य विजय कुमार ने कहा है कि जिन युवतियों की इस बार शादी हुई है वे शादी के तीसरे वर्ष व्रत रख सकेंगी| 

करवा चौथ की कथा- 

इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित है, जिनमें एक बहन और सात बहनों की कथा बहुत प्रसिद्ध है| बहुत समय पहले की बात है, एक लडकी थी, उसके साथ भाई थें, उसकी शादी एक राजा से हो गई| शादी के बाद पहले करवा चौथ पर वो अपने मायके आ गई| उसने करवा चौथ का व्रत रखा, लेकिन पहला करवा चौथ होने की वजह से वो भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी| वह बडी बेसब्री से चांद निकलने की प्रतिक्षा कर रही थी| 

उसके सातों भाई उसकी यह हालत देख कर परेशान हो गयें, वे सभी अपने बहन से बेहद स्नेह करते थें| उन्होने अपनी बहन का व्रत समाप्त कराने की योजना बनाई| और पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी| बहन ने इसे असली चांद समझ लिया और अपना व्रत समाप्त कर, भोजन खा लिया| बहन के व्रत समाप्त करते ही उसके पति की तबियत खराब होने लगी| 

अपने पति की तबियत खराब होने की खबर सुन कर, वह अपने पति के पास ससुराल गई और रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती देवी के साथ मिलें| पार्वती देवी ने रानी को बताया कि उसके पति की मृ्त्यु हो चुकी है, क्योकि तुमने नकली चांद को देखकर व्रत समाप्त कर लिया था|

यह सुनकर बहन ने अपनी भाईयों की करनी के लिये क्षमा मांगी| माता पार्वती ने कहा" कि तुम्हारा पति फिर से जीवित हो जायेगा, लेकिन इसके लिये तुम्हें, करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से करना होगा| इसके बाद माता पार्वती ने करवा चौथ के व्रत की पूरी विधि बताई| माता के कहे अनुसार बहन ने फिर से व्रत किया और अपने पति को वापस प्राप्त कर लिया|

धर्म ग्रंथों में एक महाभारत से संबंधित अन्य पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया गया है| इसके अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं व दूसरी ओर पांडवों पर कई प्रकार के संकटों से आन पड़ते हैं| यह सब देख द्रौपदी चिंता में पड़ जाती है वह भगवान श्री श्रीकृष्ण से इन सभी समस्याओं से मुक्त होने का उपाय पूछती हैं| श्रीकृष्ण द्रौपदी से कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवा चौथ का व्रत रहे तो उसे इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है| भगवान कृष्ण के कथन अनुसार द्रौपदी विधि विधान सहित करवा चौथ का व्रत रखती हैं जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं|

सत्य, धर्म और शक्ति का प्रतीक है दशहरा

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है वह है मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। भारतवर्ष वीरता और शौर्य की उपासना करता आया है | और शायद इसी को ध्यान में रखकर दशहरे का उत्सव रखा गया ताकि व्यक्ति और समाज में वीरता का प्राकट्य हो सके। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है| आपको बता दें कि दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुई है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती है| इस वर्ष विजयादशमी (दशहरा) पर्व 24 अक्तूबर को मनाया जायेगा| 

विजयदशमी के दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है| प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे|इस दिन जगह- जगह मेले लगते हैं और रामलीला का आयोजन होता है इसके अलावा रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है| दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है| भारत कृषि प्रधान देश है| जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की कोई सीमा नहीं रहती| इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है| पूरे भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है| महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव मनाया जाता है| इसमें शाम के समय सभी गांव वाले सुंदर-सुंदर नये वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के स्वर्ण रूपी पत्तों को लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं| फिर उस स्वर्ण रूपी पत्तों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है| इसके अलावा मैसूर का दशहरा देशभर में विख्‍यात है। मैसूर का दशहरा पर्व ऐतिहासिक, धार्मिक संस्कृति और आनंद का अद्भुत सामंजस्य रहा है| यहां विजयादशमी के अवसर पर शहर की रौनक देखते ही बनती है शहर को फूलों, दीपों एवं बल्बों से सुसज्जित किया जाता है सारा शहर रौशनी में नहाया होता है जिसकी शोभा देखने लायक होती है|

मैसूर दशहरा का आरंभ मैसूर में पहाड़ियों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता हे विजयादशमी के त्यौहार में चामुंडी पहाड़ियों को सजाया जाता है| पारंपरिक उत्साह एवं धूमधाम के साथ दस दिनों तक मनाया जाने वाला यह उत्सव देवी दुर्गा चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक होती है, यानी यह बुराई पर अ���्छाई की जीत का पर्व है| मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है जो मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है| इस पर्वो को वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया| वर्तमान में इस उत्सव की लोकप्रियता देखकर कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का सम्मान प्रदान किया है| यहाँ इस दिन पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। 

इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं। द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

बात करते हैं हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के दशहरा की| हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा सबसे अलग पहचान रखता है। यहां का दशहरा एक दिन का नहीं बल्कि सात दिन का त्यौहार है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्यौहार को दशमी कहते हैं। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। यहां के दशहरे को लेकर एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक साधु कि सलाह पर राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की उन्होंने अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना करवाई थी| कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी रोग से पीड़ित था अत: साधु ने उसे इस रोग से मुक्ति पाने के लिए रघुनाथ जी की स्थापना की तथा उस अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और उसने अपना संपूर्ण जीवन एवं राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया|

एक अन्य किंवदंती अनुसार जब राजा जगतसिंह, को पता चलता है कि मणिकर्ण के एक गाँव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है| सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से सताते हैं अत: यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है|

परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है और इस श्राप के फलस्वरूप कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है| तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है और रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है| राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहाँ दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा|

कुल्लू के दशहरे में अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं. सौ से ज़्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है| इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती है राजघराने के सब सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं| रथ यात्रा का आयोजन होता है| रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा तथा सीता व हिडिंबा जी की प्रतिमाओं को रखा जाता है, रथ को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है| उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं, रघुनाथ जी के इस पड़ाव सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ लंकादहन का आयोजन होता है तथा कुछ जानवरों की बलि दी जाती है|

यहाँ नहीं जलाया जाता है रावण का पुतला -

दशहरे के अवसर पर देशभर में रावण का पुतला जलाया जाता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के प्राचीन धार्मिक कस्बा बैजनाथ में दशहरा के दिन रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि ऐसा करना दुर्भाग्य और भगवान शिव के कोप को आमंत्रित करना है। यहाँ लोगों का मानना है कि इस स्थान पर रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षो तपस्या की थी। इसलिए यहां उसका पुतला जलाकर उत्सव मनाने का अर्थ है शिव का कोपभंजन बनना।

13वीं शताब्दी में निर्मित बैजनाथ मंदिर के एक पुजारी ने कहा कि भगवान शिव के प्रति रावण की भक्ति से यहां के लोग इतने अभिभूत हैं कि वे रावण का पुतला जलाना नहीं चाहते।

पृथ्वी हरण....

बैकुंठ में श्रीमहाविष्णु का निवास है। उनके भवन में कोई अनाधिकार प्रवेश न करे, इसलिए जय और विजय नामक दो द्वारपाल हमेशा पहरा देते रहते हैं। एक बार सनक महामुनि के साथ कुछ अन्य मुनि श्रीमहाविष्णु के दर्शन करने उनके निवास पर पहुंचे। जय और विजय ने उन्हें महल के भीतर प्रवेश करने से रोका। इस पर मुनियों ने कुपित होकर द्वारपालों को श्राप दिया, "तुम दोनों इसी समय राक्षस बन जाओगे, लेकिन महाविष्णु के हाथों तीन बार मृत्यु को प्राप्त करने के बाद तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी।" 

शाम का समय था। महर्षि कश्यप संध्या वंदन अनुष्ठान में निमग्न थे। उस समय महर्षि की पत्नी दिति वासना से प्रेरित हो स्वयं को सब प्रकार से अलंकृत कर अपने पति के समीप पहुंची। कश्यप महर्षि ने दिति को बहुविध समझाया, "देवी, मैं प्रभु की प्रार्थना और संध्या वंदन कार्य में प्रवृत्त हूं, इसलिए काम वासना की पूर्ति करने का यह समय नहीं है।" लेकिन दिति ने हठ किया कि उसकी इच्छा की पूर्ति इसी समय हो जानी चाहिए। 

अंत में विवश होकर कश्यप को दिति की इच्छी पूरी करनी पड़ी। दिति गर्भवती हुई। मुनि पत्नी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जय ने हिरण्यक्ष के रूप में और विजय ने हिरण्य कशिपु के रूप में जन्म लिया। इन दोनों के जन्म से प्रजा त्रस्त हो गई। दोनों राक्षस भाइयों ने समस्त लोक को कंपित कर दिया। उनके अत्याचारों की कोई सीमा न रही। समस्त प्रकार के अनर्थो के वे कारणभूत बने।

कालांतर में हिरण्यक्ष व देवताअें के बीच भीषण युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम सीमा पर पहुंचा तब हिरण्यक्ष पृथ्वी को गेंद की तरह लेकर समुद्र तल में पहुंचा। भूमि के अभाव में सर्वत्र केवल जल ही शेष रह गया। इस पर देवताओं ने श्री महाविष्णु के दर्शन करके प्रार्थना की कि वे पृथ्वी को यथास्थान रखें। उस वक्त ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु अपने पिता की सेवा कर रहे थे। अपने पुत्र की सेवाओं से खुश होकर ब्रह्मा ने मनु को सलाह दी, " हे पुत्र! तुम जगदंबा देवी की प्रार्थना करो। उनके आशीर्वाद प्राप्त करो। तुम अवश्य एक दिन प्रजापति बन जाओगे।"

स्वायंभुव ने ब्रह्मा के सुझाव पर जगदम्बा देवी को खुश करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर जगदम्बा प्रत्यक्ष हुई और कहा, "पुत्र! मैं तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और तपस्या पर प्रसन्न हूं। तुम अपना वांछित वर मांगो। मैं अवश्य तुम्हारे मनोरथ की पूर्ति करूंगी।"

स्वायंभुव ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक जगदम्बा से निवेदन किया, "माते! मुझे ऐसा वर दीजिए जिससे मैं बिना किसी प्रकार के प्रतिबंध के सृष्टि की रचना कर सकूं।" जगदम्बा ने स्वायंभुव मनु पर अनुग्रह करके वर प्रदान किया।

स्वायंभुव अपने मनोरथ की सिद्धि पर प्रसन्न हो ब्रह्मा के पास लौट आए और बोले, "पिताजी! मुझे जगदम्बा का अनुग्रह प्राप्त हो गया है। आप मुझे आशीर्वाद देकर ऐसा स्थान बताइए जहां पर मैं सृष्टि-रचना कर सकूं।"

ब्रह्मदेव दुविधा में पड़ गए क्योंकि हिरण्यक्ष पृथ्वी को ढेले के रूप में लपेटकर अपने साथ जल में ले जाकर छिप गया था। ऐसी हालत में सृष्टि की रचना के लिए कहां पर वे उचित स्थान बता सकते थे। सोच-विचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि आदि महाविष्णु ही इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। 

फिर क्या था, ब्रह्मदेव ने श्री महाविष्णु का ध्यान किया। ध्यान के समय ब्रह्मा ने दीर्घ निश्वास लिया, तब उनकी नासिका से निश्वास के भीतर से एक सूकर निकल आया। वह वायु में स्थित हो क्रमश: अपने शरीर का विस्तार करने लगा। देखते-देखते वह एक विशाल पर्वत के समान परिवर्तित हो गया। सूकर के उस बृहदाकार को देखकर खुद ब्रह्मा विस्मय में पड़ गए।

सूकर ने विशाल रूप धारण करने के बाद हाथी की तरह भयंकर रूप में चिंघाड़ा। उसकी ध्वनि समस्त लोगों में व्याप्त हो गई। मर्त्यलोक और सत्यलोक के निवासी समझ गए कि यह श्रीमहाविष्णु की माया है। सबने आदि महाविष्णु की लीलाओं का स्मरण किया। उसके बाद सूकर रूप को प्राप्त आदि विष्णु चतुर्दिक प्रसन्न दृष्टि प्रसारित कर पुन: भयंकर गर्जन कर जल में कूद पड़े। उस आघात को जल देवता वरुण देव सहन नहीं कर पाए। उन्होंने महाविष्णु से प्रार्थना की, "आदि देव, मेरी रक्षा कीजिए।" ये वचन कहकर वरुणदेव उनकी शरण में आ गए।

सूकर रूपधारी विष्णु जल के भीतर पहुंचे। पृथ्वी को अपने लम्बे दांतों से कसकर पकड़ लिया और उसे जल के ऊपर ले आए। महाविष्णु को पृथ्वी को उठा ले जाते देखकर हिरण्यक्ष ने उनका सामना किया। महाविष्णु ने क्रुद्ध होकर हिरण्यक्ष का वध किया। तब जल पर तैरते हुए पृथ्वी को जल के ऊपर अवस्थित किया फिर पृथ्वी को ग्रह बनाकर जल के मध्य उसे स्थिर किया। पृथ्वी इस रूप में अवतरित हुई जैसे जल के मध्य कमल-पत्र तिर रहा हो।

ब्रह्मदेव ने श्रीमहाविष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की। उसके बाद उन्होंने पृथ्वी पर सृष्टि-रचना के लिए अपने पुत्र स्वायंभुव को उचित स्थान का निर्देश किया। इस तरह निविघ्न सृष्टि-रचना संपन्न हुई।

नारद ने दिया विष्णु को श्राप कहा जब स्त्री बनेगी आपके परिहास का कारण तो...

त्रिलोक संचारी महर्षि नारद त्रिभुवनों का संचार करते हुए एक बार स्वर्णिम कांतियों से जाज्वल्यमान कल्याण नगर पहुंचे। वह नगर उद्यानों, अट्टालिकाओं, मंदिरों, सारस्वत गोष्ठियों और संगीत लहरियों से अत्यंत आह्लादमय था। उस नगर के राजा शीलनिधि प्रजावत्सल थे। उनके लक्ष्मी समान शीलवती नामक एक पुत्री थी। उनके लक्ष्मी समान शीलवती नामक एक पुत्री थी। शीलवती के युक्त वयस्का होते ही राजा ने उसका विवाह करने के विचार से स्वयंवर की घोषणा की। स्वयंवर के दिन नारद उस नगर में पहुंचे। राजमहल की शोभ देखकर नारद विस्मय में आ गए। द्वारपालों से नारद के आगमन का समाचार सुनकर राजा ने आदरपूर्वक उनका स्वागत किया। श्रद्धा, भक्ति के साथ अघ्र्य-पाद्यों से उन्हें संतुष्ट किया और अपनी पुत्री को बुलाकर नारद का चरणाभिवंदन कराया। उस कन्या के अनुपम सौंदर्य पर देवर्षि नारद मुग्ध हो गए। उनका मन विचलित हुआ।

राजा ने नारद से पूछा, "महर्षि, मैंने अपनी पुत्री का स्वयंवर रचा है। आप तो त्रिकालज्ञ हैं। कृपया बताइए कि इस कन्या का भाग्य कैसा है? इसे कैसा वर प्राप्त होगा?"

"राजन्! आपकी पुत्री साक्षात् लक्ष्मी समान है। इस कन्या के साथ विवाह करने के लिए विष्णु के समान शोभायमान व्यक्ति ही आएंगे। आप चिंता न करें।" नारद इसके बाद पल भर भी वहां ठहर न सके। सीधे बैकुंठ में पहुंचे। विष्णु के दर्शन करके बोले, "हे जगद्रक्षक, लोक बांधव, कल्याणपुरी की राजकुमारी के सौंदर्य का वर्णन किन शब्दों में करूं। वाणी के बाहर की बात है। वह लक्ष्मी देवी जैसी रूपवती है। भुवन मोहिनी है। इसलिए वह आप जैसे लोकोत्तर विमुग्धकारी पुरुष को ही वरण करेगी। परंतु उस पर मेरा मन रीझ गया है। उस युवती को न पाने पर मैं कामदेव के बाणों को सहते जीवित नहीं रह सकता। इसलिए आपसे मेरा यही निवेदन है कि मुझ पर अनुग्रह करके आपके पीतांबर, मुकुट, रत्न खचित आभूषण आदि प्रदान करें। मेरे मनोरथ के सफल होते ही लौटा दूंगा।"

नारद के मानिसक वैकल्य पर श्रीमहाविष्णु ने मंद हास करके उनकी इच्छा की पूर्ति की। नारद ने प्रसन्नतापूर्वक विष्णु से प्राप्त वस्त्राभूषण तत्काल धारण किया। मन में सोचने लगे कि निश्चय ही राजकुमारी उनके कंठ में जयमाला डालकर वरण करेगी। इसी विश्वास से वे शीघ्र गति से स्वयंवर मंडप में पहुंचे और उचित आसन पर बैठ गए। लेकिन विष्णु की माया कुछ विचित्र थी। नारद को वह वेष-भूषा सुंदर लग रही थी। वे अपने को विष्णु रूप में पाकर अभिमान कर रहे थे, लेकिन प्रेक्षकों को उनका चेहरा वानर मुख जैसे प्रतीत हो रहा था।

उसी स्वयंवर में जगन्नाटक सूत्रधारी श्रीमहाविष्णु भी स्वयं पधारे और वे सभा मंडप में एक कोने में जा बैठे। स्वयंवर का कार्यक्रम आरंभ हुआ। राजकुमारी शीलवती अपने हाथ में जयमाला लेकर सभा मंडप में उपस्थित प्रत्येक राजा का अवलोकन करते आगे बढ़ी चली आ रही थी। नारद मन ही मन पुलकित होते हुए विचारने लगे कि उनके अतिरिक्त किसी और राजा को वरने की बात शीलवती सोच भी नहीं सकती। पर मजे की बात यह थी कि स्वयंवर मंडप में उपस्थित सभी राजकुमार नारद की ओर देख-देख मुस्करा रहे थे। पर उन्हें इस बात का भय था कि यह बात नारद से कह दें तो वे कहीं नाराज होकर शाप न दे बैठें। 

इसी समय राजकुमारी शीलवती नारद के समीप पहुंचकर उनको नख-शिख र्पयत निहारने लगी, तब नारद ने उल्लास में आकर कहा, "देखती क्या हो? जल्दी मेरे कंठ में वरमाला पहना दो।" लेकिन राजकुमारी मंद गति से आगे बढ़ गई। इस पर नारद एकदम हताश हो गए। इससे भी ज्यादा नारद के लिए संभ्रम और आश्चर्य की बात यह थी कि राजकुमारी ने आखिर एक कोने में साधारण वेष-भूषा में बैठे विष्णु के कंठ में जयमाला पहना दी। उसी समय विष्णु उस लक्ष्मी सदृश्य राजकुमारी शीलवती को अपने गरुड़ वाहन पर बिठाए बैकुंठ को चले गए।

नारद के आश्चर्य की कोई सीमा न रही। वे गुनगुनाने लगे, "मैंने सोचा था, निश्चय ही राजकुमारी मुझे वरण करेगी, लेकिन यह क्या हो गया? ऐसा कभी नहीं हो सकता था और न होना चाहिए था। समीप में खड़े दो शिवभक्तों ने ये बातें सुनीं। उन्हें अच्छा मजाक सूझा, वे बोले, "हे वानर मुखवाले। तुमने यह कैसे सोचा कि अनन्य रूपवती राजकुमारी इतने सुंदर राजकुमारों के होते तुमको वरण करेगी?"

इस पर नारद के क्रोध का पारा चढ़ गया। उन्होंने आवेश में आकर शिवभक्तों को शाप दे डाला, "तुम दोनों ने मेरा परिहास किया, इसलिए तुम दोनों भूलोक में राक्षस होकर जन्म धारण करोगे।" नारद का शाप सुनकर शिवभक्त विचलित नहीं हुए। उन्होंने सोचा कि शायद यही शिवेच्छा होगी। करनी को कौन टाल सकता है। यही विचार कर वे दोनों वहां से चुपचाप चले गए।

इतने मात्र से नारद का क्रोध शांत नहीं हुआ। वे सीधे बैकुंठ में गए। विष्णु को शीलवती के साथ प्रसन्न मुद्रा में विराजमान देख उनका क्रोध और भड़क उठा। उन्होंने विष्णु को दोष देते हुए शाप दिया, "मैंने आपसे प्रार्थना की थी। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर मुझे यह स्वरूप प्रदान किया। मैंने जिस युवती को मन से वर लिया था, आपने उसका वरण करके भरी सभा में मेरा अपमान किया। इस वचन भंग के कारण आप भी एक स्त्री के कारण दुखी होकर परिहास का कारण बन जाएंगे। साथ ही मानव जन्म धारण करके विषाद में डूब जाएंगे। तब ऐसे ही वानर आपकी सहायता करेंगे।" यह शाप देकर नारद बैकुंठ से चले गए।

नारद का शाप सुनकर श्रीमहाविष्णु चिंतित नहीं हुए। इस शाप को भी ईश्वर की इच्छा मानकर आनंद के साथ अपने दिन बिताने लगे। इस बीच नारद महर्षि भगवत माया से मुक्त हो विवेक में आकर पछताने लगे। उन्हें अपनी करनी का बोध हुआ। वे पुन: बैकुंठ को लौट गए। विष्णु के चरण-स्पर्श करके पश्चातापपूर्ण स्वर में बोले, "भगवन, मैंने क्रोध में अंधे होकर आपको शाप दे डाला। आपने मेरे निंदापूर्ण वचनों को कैसे सहन कर लिया? मैं अपने इस दोष से कैसे मुक्त हो सकता हूं? आप अपने चक्रायुध से मेरा अंत कर दीजिए।" इस प्रकार नारद ने विलाप करते हुए श्रीमहाविष्णु की शरण मांगी।

विष्णु ने शांत स्वर में समझाया, "हे नारद, तुम चिंता न करो। जो कुछ घटित है शिवजी की इच्छा और संकल्प से होता है। कहावत भी है-शिवजी की इच्छा के बिना चींटी भी नहीं काटती। विश्व के कालचक्र को सदाशिव ही चलाते हैं। इसलिए तुम उनका ध्यान करो। वे सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वेश्वर हैं, वे आदि, मध्य और अंत से परे हैं। मैं ही नहीं, ब्रह्मा और इंद्र भी मोहजाल में फंसकर दुख भोगा करते हैं। अब अन्य लोगों की बात क्या कहा जाए।" इस प्रकार श्रीमहाविष्णु ने महर्षि नारद को अनेक प्रकार से समझाकर शांत किया। उन्हें शिव भक्ति और शिवजी के महात्म्य का उपदेश दिया।

स्वयं श्रीमहाविष्णु के मुंह से सदाशिव के महात्म्य का मर्म समझकर नारद अत्यंत संतुष्ट हुए। तब अपनी वीणा के तारों को झंकृत कर 'नारायण-नारायण', 'ऊँ नम:, सिद्धं नम:' गाते हुए अपनी यात्रा पर चल पड़े।