..इसलिए शिव ने धारण किया चंद्रमा

धर्म शास्त्रो में भगवान शिव को जगत पिता बताया गया हैं, क्योकि भगवान शिव सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म हैं। हिंदू संस्कृति में शिव को मनुष्य के कल्याण का प्रतीक माना जाता हैं। शिव शब्द के उच्चारण या ध्यान मात्र से ही मनुष्य को परम आनंद प्रदान करता हैं। भगवान शिव भारतीय संस्कृति को दर्शन ज्ञान के द्वारा संजीवनी प्रदान करने वाले देव हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में होते हुवे भी शिवलिंग के रूप में साकार मूर्ति की पूजा होती हैं।

शास्त्रों में शिव के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। शिव ने विषपान किया तो नीलकंठ कहलाए, गंगा को सिर पर धारण किया तो गंगाधर पुकारे गए। भूतों के स्वामी होने से भूतभावन भी कहलाते हैं। इनका एक नाम और भी है वह है शशिधर। आपको बता दें कि भगवान शिव अपने सिर पर चन्द्र धारण किये हुए हैं इसलिए उन्हें शशिधर कहा जाता है|

क्या आपको पता है कि भगवान शिव अपने सिर पर चन्द्रमा क्यों धारण किया है? अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि भगवान शिव ने क्यों चन्द्रमा धारण किया है|

शिव पुराण में उल्लेख है कि जब देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन किया गया, तब 14 रत्नों के मंथन से प्रकट हुए। इस मंथन में सबसे पहले विष निकला। विष इतना भयंकर था कि इसका प्रभाव पूरी सृष्टि पर फैलता जा रहा था परंतु इसे रोक पाना किसी भी देवी-देवता या असुर के बस में नहीं था। इस समय सृष्टि को बचाने के उद्देश्य से शिव ने वह अति जहरीला विष पी लिया। इसके बाद शिवजी का शरीर विष प्रभाव से अत्यधिक गर्म होने लगा। शिवजी के शरीर को शीतलता मिले इस वजह से उन्होंने चंद्र को धारण किया।

जाने भगवान शंकर की लिंग रूप में ही क्यों होती है पूजा

आप जब भी मंदिर में जाते होंगे तो आपने यह जरुर देखा होगा कि मंदिर में सभी देवताओं की साकार पूजा होती है लेकिन भगवान भोलेनाथ की हमेशा लिंग रूप में ही पूजा की जाती हैं| क्या आपको पता है कि आखिर भगवान शंकर की लिंग रूप में पूजा क्यों होती है? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं कि आखिर शिव की लिंग रूप में पूजा क्यों की जाती है|

शिवमहापुराण में कहा गया है कि एकमात्र भगवान शिव ही ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल (निराकार) कहे गए हैं। रूपवान होने के कारण उन्हें सकल (साकार) भी कहा गया है। इसलिए शिव सकल व निष्कल दोनों हैं। उनकी पूजा का आधारभूत लिंग भी निराकार ही है अर्थात शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है। इसी तरह शिव के सकल या साकार होने के कारण उनकी पूजा का आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है अर्थात शिव का साकार विग्रह उनके साकार स्वरूप का प्रतीक होता है।

सकल और अकल रूप होने से ही वे ब्रह्म शब्द कहे जाने वाले परमात्मा हैं। यही कारण है सिर्फ शिव एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनका पूजन निराकार(लिंग) तथा साकार(मूर्ति) दोनों रूप में किया जाता है।

जानिए भगवान राम नीले और कृष्ण काले क्यों है....

शास्त्रों में यह कहा गया कि भगवान श्रीराम नीले रंग के थे और श्रीकृष्ण सावले यानि की काले थे| शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि यह दोनों अवतार तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु के हैं|

ऐसा सुनकर मन में एक सवाल जरुर उठता है वह है यह कि व्यक्ति कला तो होता है पर नीले रंग का व्यक्ति तो किसी ने नहीं देखा? आखिर इन भगवानों के रंग-रूप के पीछे क्या रहस्य है।

आपको बता दें कि भगवान राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं। राम का जन्म दिन में हुआ था। दिन के समय का आकाश का रंग नीला होता है।

इसी तरह कृष्ण का जन्म आधी रात के समय हुआ था और रात के समय आकाश का रंग काला प्रतीत होता है। दोनों ही परिस्थितियों में भगवान को हमारे ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने आकाश के रंग से प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाने के लिए है काले और नीले रंग का बताया है।

यही कारण है कि है कि भगवान श्रीराम के शरीर का रंग नीला और श्रीकृष्ण का रंग श्याम था|

जानिये आखिर सोमवार ही क्यों हैं भगवान शंकर का दिन

हिन्दू धर्म में प्रत्येक दिन देवताओं के लिए बंटे होते हैं जैसे सोमवार भगवान शिव का है, मंगलवार हनुमान जी का है और शनिवार न्यायधीश कहे जाने वाले शनिदेव का है| क्या आपको पता है कि आखिर सोमवार ही क्यों भगवान शंकर को मिला है? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं-

आपको बता दें कि पुराणों में सोम का अर्थ चंद्रमा होता है और चंद्रमा भगवान शिव के शीश पर मुकुटायमान होकर अत्यन्त सुशोभित होता है। भगवान शंकर ने जैसे कुटिल, कलंकी, कामी, वक्री एवं क्षीण चंद्रमा को उसके अपराधी होते हुए भी क्षमा कर अपने शीश पर स्थान दिया वैसे ही भगवान् हमें भी सिर पर नहीं तो चरणों में जगह अवश्य देंगे। यह याद दिलाने के लिए सोमवार को ही लोगों ने शिव का वार बना दिया।

इसके अलावा सोम का अर्थ सौम्य होता है। इस सौम्य भाव को देखकर ही भक्तों ने इन्हें सोमवार का देवता मान लिया। सहजता और सरलता के कारण ही इन्हें भोलेनाथ कहा जाता है।

अथवा सोम का अर्थ होता है उमा के सहित शिव। केवल कल्याणरी शिव की उपासना न करके साधक भगवती शक्ति की भी साथ में उपासना करना चाहता है क्योंकि बिना शक्ति के शिव के रहस्य को समझना अत्यन्त कठिन है। इसलिए भक्तों ने सोमवार को शिव का वार स्वीकृत किया।

भगवान शंकर आखिर क्यों कहलाते हैं कालों के काल - 'महाकाल'

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं। भगवान शिव को कई नामों से पुकारा जाता है। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| वे महाकाल भी कहे जाते हैं और कालों के काल भी।

शिव की साकार यानि मूर्तिरुप और निराकार यानि अमूर्त रुप में आराधना की जाती है। शास्त्रों में भगवान शिव का चरित्र कल्याणकारी माना गया है। उनके दिव्य चरित्र और गुणों के कारण भगवान शिव अनेक रूप में पूजित हैं।

आखिर क्यों भगवान शंकर को कालों के काल कहा जाता है, आइये जाने-

आपको बता दें कि देवाधी देव महादेव मनुष्य के शरीर में प्राण के प्रतीक माने जाते हैं| आपको पता ही है कि जिस व्यक्ति के अन्दर प्राण नहीं होते हैं तो उसे शव का नाम दिया गया है| भगवान् भोलेनाथ का पंच देवों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है|

भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना जाता है| आपको पता होगा कि भगवान शिव के तीन नेत्रों वाले हैं| इसलिए त्रिदेव कहा गया है| ब्रम्हा जी सृष्टि के रचयिता माने गए हैं और विष्णु को पालनहार माना गया है| वहीँ, भगवान शंकर संहारक है| यह केवल लोगों का संहार करते हैं| भगवान भोलेनाथ संहार के अधिपति होने के बावजूद भी सृजन का प्रतीक हैं। वे सृजन का संदेश देते हैं। हर संहार के बाद सृजन शुरू होता है।

इसके आलावा पंच तत्वों में शिव को वायु का अधिपति भी माना गया है। वायु जब तक शरीर में चलती है, तब तक शरीर में प्राण बने रहते हैं। लेकिन जब वायु क्रोधित होती है तो प्रलयकारी बन जाती है। जब तक वायु है, तभी तक शरीर में प्राण होते हैं। शिव अगर वायु के प्रवाह को रोक दें तो फिर वे किसी के भी प्राण ले सकते हैं, वायु के बिना किसी भी शरीर में प्राणों का संचार संभव नहीं है।

घर के बाहर क्यों बनाए जाते हैं पैरों के निशान

आपने ज्यादातर घरों में एक चीज जरूर देखी होगी वह है किसी के घर के प्रवेश द्वार पर रंगोली या कुमकुम से पैरों के निशान बने| क्या आपको पता है यह पैरों के निशान क्यों बनाये जाते हैं, अगर नहीं तो हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि हिन्दू धर्म व संस्कृति में घर के बाहर रंगोली बनाना अति आवश्यक होता है क्योंकि कुमकुम या रंगोली से बने पैरों के निशान शुभ शगुन माना जाता है|

आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि शास्त्रों के अनुसार यह पैरों के निशान माता लक्ष्मी के माने जाते हैं, देवी के पैरों के निशान मुख्य द्वार के पास जमीन पर लगाना चाहिए। अगर घर के बाहर कुमकुम के छोटे-छोटे पैर बारह महीने बने रहें तो इसके भी अनेक लाभ होते हैं|

आपको बता दें कि अगर आपके घर के बाहर देवी लक्ष्मी के चरणों के निशान बने हैं तो इससे सभी देवी-देवताओं की शुभ दृष्टि हमारे घर और सदस्यों पर सदैव बनी रहती है। इसके आलावा अशुभ ग्रहों का बुरा प्रभाव भी कम होता है। इतना ही नहीं आपके घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगेगी और नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है।

इसलिए अगर आपके घर के बाहर माता लक्ष्मी के पैरों के निशान नहीं बने हैं तो आप भी बना लें क्योंकि इससे पॉजिटिव ऊर्जा मिलती है|

पशु-पक्षी भी अवगत कराते हैं आपके आने वाले दिनों के बारे में

हर व्यक्ति की यही इच्छा होती है कि मेरा आने वाला दिन कैसा होगा| कहते हैं कि कई जानवरों को आपके भविष्य का पूर्वाभास हो जाता है लेकिन वह इसको बयां नहीं कर सकते हैं| आपको बता दें कि कई ऐसे जानवर हैं जिन्हें आपके आने वाले समय के बारे में पहले से ही ज्ञात हो जाता है जैसे कि कौआ, गाय, कुत्ता, बिल्ली और कबूतर| आपको यह सुनकर थोडा अचम्भा जरुर होगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है|

तो आइये जाने कैसे यह पशु, पक्षी हमारे आने वाले समय के बारे में जान जाते हैं-

आपको बता दें कि अगर आप के घर कोई मेहमान आने वाला है तो कौआ को पहले से ही ज्ञात हो जाता है और भोर के समय आपके छत पर आकर चिल्लाएगा, इतना ही नहीं अगर आपके साथ कुछ बुरा या अशुभ होने वाला है तो आपके सिर पर चौंच मार के आपको बाता देगा।

वहीँ, अगर कबूतर आपके घर आकर बसेरा लेने लगे हैं तो समझ जाइये कि आपके परिवार में से कोई सदस्य कम हो सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के घर में अकाल मृत्यु हो सकती है या धीरे-धीरे वो घर सुनसान होने वाला है।

इसके आलावा अगर आपके साथ कुछ बुरा या अशुभ होने वाला है तो कुत्ता आपके घर की तरफ मुंह कर के रोने लगेगा, वहीँ अगर कुछ आपके साथ अपशगुन होने वाला होता है तो बिल्ली रास्ता काट देती है|

इतना ही नहीं गाय भी आपके आने वाले दिनों के बारे में जान जाती है| अगर आपका कोई काम होने वाला है या आप किसी काम के लिए जा रहे हैं तब गाय रम्भा दे तो समझ लेना चहिए आपका सोचा हुआ काम पूरा होगा।

जानिए किसी के पैर छूने से क्या होता है लाभ

हिन्दू परम्परों में एक परंपरा है अपने से बड़े लोगों के पैर छूने की| इससे आदर-सम्मान और प्रेम के भाव उत्पन्न होते हैं। साथ ही रिश्तों में प्रेम और विश्वास भी बढ़ता है। पैर छूने के पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण दोनों ही मौजूद हैं।

आज आपको बता दे कि पैर छूने से व्यक्तियों को क्या-क्या लाभ होता है-

आपको बता दें कि पैर छुने से केवल बड़ों का आशीर्वाद ही नहीं मिलता बल्कि अनजाने ही कई बातें हमारे अंदर उतर जाती है। पैर छूने का सबसे बड़ा फायदा शारीरिक कसरत होता है, तीन तरह से पैर छूए जाते हैं। पहले झुककर पैर छूना, दूसरा घुटने के बल बैठकर तथा तीसरा साष्टांग प्रणाम।

झुककर पैर छूने से कमर और रीढ़ की हड्डी को आराम मिलता है। घुटने के बल बैठकर किसी के पैर छूने से पैर के सारे जोड़ मुड़ जाते हैं, जिससे जोड़ो में होने वाले स्ट्रेस से राहत मिलती है| इसके आलावा साष्टांग प्रणाम करने से सारे जोड़ थोड़ी देर के लिए तन जाते हैं, इससे भी स्ट्रेस दूर होता है।

इतना की काफी नहीं झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य और आंखों के लिए लाभप्रद होता है। प्रणाम करने का तीसरा सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है। किसी के पैर छूना यानी उसके प्रति समर्पण भाव जगाना, जब मन में समर्पण का भाव आता है तो अहंकार स्वत: ही खत्म होता है।

आखिर क्यों लगाते हैं वर-वधू को हल्दी

आजकल विवाह विवाह का दौर चल रहा है, इसमें कई रस्में निभाई जाती है इन कई रस्मों एक रस्म होती है हल्दी लगाने की। शादी के अवसर पर हल्दी दूल्हा और दुल्हन दोनों को लगाई जाती है।

हल्दी को लेकर लोगों का मानना होता है कि यह एक एक आवश्यक परंपरा है इसलिए इसका निर्वाह किया जाना अनिवार्य है। शास्त्रों के अनुसार हल्दी का उपयोग सभी प्रकार के पूजन-कार्य में आवश्यक रूप से किया जाता है। इसके बिना कई पूजन पूर्ण नहीं माने जाते हैं। इसी वजह से पूजन सामग्री में हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। हल्दी की पवित्रता के कारण ही वर-वधू के शरीर पर इसका लेप लगाया जाता है ताकि ये दोनों शास्त्रों के अनुसार पूरी तरह पवित्र हो सके।

स्वास्थ्य की द्रष्टि से हल्दी एक औषधि है। हल्दी हमारी त्वचा के लिए तो वरदान की तरह है। हल्दी लगाने से त्वचा संबंधी अनेक बीमारियां दूर हो जाती है। विवाह पूर्व वर-वधु के शरीर पर हल्दी का लेप लगाया जाता है ताकि यदि इन्हें को त्वचा संबंधी रोग हो, इंफेक्शन हो या अन्य कोई बीमारी हो तो उसका उपचार हो सके। हल्दी लगाने से त्वचा पर जमी हुई धूल आदि भी शत-प्रतिशत साफ हो जाती है। जिससे त्वचा में चमक बढ़ जाती है। चेहरे पर आकर्षण बढ़ जाता है। त्वचा की खुश्की दूर होती है, त्वचा में चमक पैदा होती है। त्वचा संबंधी कई इंफेक्शन मात्र हल्दी लगाने से ठीक हो जाते हैं।

जाने भगवान भोलेनाथ के सर्पों की माला पहनने का क्या है रहस्य

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना गया है। भगवान शिव अजन्में माने जानते हैं कहा जाता है उनका न तो कोई आरम्भ हुआ है और न ही अंत होगा| इसलिए भगवान भोलेनाथ अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं| क्या आपको पता है कि भगवान भोलेनाथ नागों का हार क्यों पहनते हैं अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि देवाधि देव महादेव के गले में सर्पों का हार क्यों शोभायमान है|

शास्त्रों के मुताबिक, भगवान शिव नागों के अधिपति है। नाग या सर्प को कालरूप माना गया है क्योंकि नाग विषैला व तामसी प्रवत्ति का जीव होता है| सर्पों का भगवान शंकर के अधीन होना यही संकेत है कि भगवान शंकर तमोगुण, दोष, विकारों के नियंत्रक व संहारक हैं, जो कलह का कारण ही नहीं बल्कि जीवन के लिये घातक भी होते हैं। इसलिए वह प्रतीक रूप में कालों के काल भी पुकारे जाते हैं और शिव भक्ति ऐसे ही दोषों का शमन करती है।

इस तरह भगवान भोलेनाथ का नागों का हार पहनना व्यावहारिक जीवन के लिये भी यही संदेश देता है कि जीवन को तबाह करने वाले कलह और कड़वाहट रूपी घातक जहर से बचाना है तो मन, वचन व कर्म से द्वेष, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद जैसे तमोगुण व बुरी आदत रूपी नागों पर काबू रखें। यही वजह है कि भगवान भोलेनाथ सर्पों की माला से अपना सिंगार करते हैं|

जाने पति के बायीं ओर क्यों बैठती है पत्नी?

आपने हमेशा देखा होगा कि किसी धार्मिक अनुष्ठानों में पत्नी को पति के बायीं ओर ही बिठाया जाता है क्या आपको पता है इसके पीछे क्या मान्यता है ? अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि पति के बायीं ओर ही क्यों बैठती है पत्नी|

पति-पत्‍नी का रिश्ता बड़ा ही कोमल और पवित्र होता है। यह विश्वास की डोर से बंधा होता है। कहते हैं पत्‍नी, पति का आधा अंग होती है। दोनों में कोई भेद नहीं होता। हमारे धर्म-ग्रथों में पत्नी को पति का आधा अंग बताया गया है। उसमें भी उसे वामांगी कहा जाता है अर्थात पति का बायां भाग। शरीर विज्ञान और ज्योतिष ने पुरुष के दाएं और महिलाओं के बाएं हिस्से को शुभ माना है।

इतना ही नहीं अगर हस्त ज्योतिष की बात करें तो भी महिलाओं का बाया हाथ ही देखा जाता है| मनुष्य के शरीर का बायां हिस्सा खास तौर पर मस्तिष्क रचनात्मकता का प्रतीक माना जाता है। दायां हिस्सा कर्म प्रधान होता है। मनुष्य का मस्तिक भी दो हिस्सों में बंटा होता है| बायाँ हिस्सा कला प्रधान और दायाँ हिस्सा कर्म प्रधान होता है| यही कारण है कि महिलाएं पुरुषों के बाईं ओर ही बैठती हैं| 

स्त्री का स्वभाव सामान्यत: वात्सल्य का होता है और किसी भी कार्य में रचनात्मकता तभी आ सकती है जब उसमें स्नेह का भाव हो। दायीं ओर पुरुष होता है जो किसी शुभ कर्म या पूजा में कर्म के प्रति दृढ़ता के लिए होता है, बायीं ओर पत्‍नी होती है जो रचनात्मकता देती है, स्नेह लाती है। 

इस तरह से किरात बन गए वाल्मीकि

ब्रह्मा के मानस-पुत्रों में प्रचेतस भी एक हैं। एक बार समस्त लोकों का संचार करते हुए सुरपुरी अमरावती की शोभा को निहारते हुए उन्होंने इंद्र सभा में प्रवेश किया। इंद्र ने दिक्पालकों के समेत आगे बढ़कर आदरपूर्वक प्रचेतस का स्वागत किया, 'अघ्र्य' पाद्य आदि से उनका उपचार किया। उनको प्रसन्न करने के लिए रंभा, ऊर्वशी, मेनका इत्यादि अप्सराओं के नृत्य-गान का प्रबंध किया। 

उन अनुपम सुंदरियों को देखते ही युवा प्रचेतस के मन में काम-वासना उद्दीप्त हुई, परिणामस्वरूप उनके वीर्य का स्खलन हुआ। वीर्य नीचे गिरते ही तत्काल एक बालक के रूप में प्रत्यक्ष हुआ। देव सभा के सदस्य इस अद्भुत दृश्य को विस्फारित नयनों से देखते ही रह गए। उसी समय बालक ने प्रचेतस को प्रणाम करके निवेदन किया, "पिताजी, मेरा उद्भव आपके वीर्य के पतन से हुआ है। इस कारण से मेरे पालन-पोषण का दायित्व आप ही का बनता है।"

बालक के वचन सुनकर इंद्रसभा के सभापद परस्पर कानाफूसी करने लगे। देव सभा में बालक द्वारा अपने रहस्य के प्रकट हुए देख प्रचेतस क्रोध में आ गए और उन्होंने कठोर स्वर में बालक को शाप दिया, "किरात बनकर क्रूर कृत्य करते हुए जीवनयापन करोगे। मेरी आंखों के सामने से हट जाओ। मैं तुम्हारा चेहरा तक देखना नहीं चाहता।"

बालक रुदन करते हुए प्रचेतस के चरणों पर गिरकर करुण स्वर में बोला, "पिताश्री, मेरा जन्म सार्थक है, मैं ऐसा ही मानता हूं। परंतु जन्म-धारण के साथ-ही-साथ अपने ही पिता के द्वारा शापित होना मैं अपना दुर्भाग्य ही समझूंगा। धर्मशास्त्र घोषित करते हैं कि शिष्य के अपराध गुरु और पुत्र के अपराध पिता क्षमा कर देते हैं। आप मेरे इस अपराध को क्षमा करके मुझे इस शाप से मुक्त होने का वरदान दीजिए।"

बालक का आक्रंदन सुनकर देवताओं के हृदय द्रवित हुए। सबने समवेत स्वर में उसे शापमुक्त करने का प्रचेतस से अनुरोध किया। इस पर प्रचेतस का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कहा, "पुत्र! तुम चिंता न करो। थोड़े दिन तक तुम किरातकर रहकर उसी पेशे में अपना जीवनयापन करोगे। इसके उपरांत तुम्हें कुछ महापुरुषों के अनुग्रह से एक दिव्य मंत्र प्राप्त होगा। उसी मंत्र के बल पर तुम अपनी आखेट-वृत्ति त्यागकर ब्रह्मर्षि बनोगे और तुम्हें शाश्वत यश प्राप्त होगा।"

प्रचेतस का आशीर्वाद पाकर बालक भूलोक में पहुंचा। किरातों की बस्ती में निवास करते हुए आखेट के द्वारा अपना पेट पालने लगा। कालक्रम में उसके कई बच्चे हुए। आखेट-वृत्ति के द्वारा परिवार को पालना जब सम्भव न हुआ तब उसने उस वन से गुजरनेवाले यात्रियों को लूटना आरम्भ किया।

कालचक्र के परिभ्रमण में अनेक वर्ष गुजर गए। एक बार सप्तर्षि तीर्थाटन के लिए निकले। किरात ने हुंकार करके उनका रास्ता रोका। उनको लूटने के लिए अनेक प्रकार से उन्हें यातनाएं देने लगा। ऋषियों ने समझाया, "बेटे, हम तो संन्यासी ठहरे। हम तो मूल्यवान वस्तुएं अपने पास नहीं रखते। दरअसल, हमें उनकी आवश्यकता ही नहीं है, हम सर्वसंग मरित्यागी हैं। हमें अपने रास्ते जाने दो। यह जीवन तो शाश्वत नहीं है। तुम अपना पेट पालने के लिए ऐसे पाप-कृत्य क्यों करते हो?"

महर्षियों के मुंह से हित वचन सुनकर किरात की हिंसा वृत्ति शांत हो गई। उसने विनीत स्वर में उत्तर दिया, "महानुभाव, मैं यह पाप केवल अपना पेट पालने के लिए नहीं कर रहा, अपनी पत्नी और बच्चों की परवरिश करने के लिए मुझे ये कर्म करने पड़ रहे हैं।"

किरात के भोलेपन पर महर्षियों को हंसी आई। उसको अबोध मानकर ऋषियों ने समझाया, "तुम गृहस्थ हो और परिवार का भरण-पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है। यह बात सही है, लेकिन तुम जो कुछ ले जाकर उन्हें दोगे, वही वे लोग खाएंगे, परंतु यह मत भूलो कि तुम्हारी कमाई के वे लोग अवश्य भागीदार होते हैं, तुम्हारे इन पाप-कृत्यों के नहीं।" 

किरात का हृदय दहल उठा। उसने सप्तर्षियों को उसके लौटने तक वहीं प्रतीक्षा करने की प्रार्थना की और लंबे डग भरते अपनी झोंपड़ी को लौट आया। खाली हाथ लौटे किरात को देख उसके परिवार वाले अचंभित थे। किरात ने गम्भीर स्वर में पूछा, "तुम लोग मेरी कमाई पर बंसी की चैन लेते हो। आराम से घर बैठे नाच-गान करते हो। लेकिन तुम लोग नहीं जानते कि मैं कैसे अत्याचार और अन्याय करके तुम लोगों का पेट पालता हूं, जिससे मैं पाप का भागीदार बनता हूं। अब बताओ, मेरे किए-कराए इस पाप में तुम लोग भी अपना हिस्सा बांटने को तैयार हो या नहीं?"

किरात की पत्नी और उसके बच्चों ने एक स्वर में बताया, "अरे! तुम भी कैसी ये अनर्गल बातें करते हो। पत्नी और बच्चों का पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम हमारे प्रति कौन-सा बड़ा उपकार करते हो। यही बात थी तो तुमने शादी क्यों की? बच्चे क्यों पैदा किए? कोई सुने तो हंसे। जाओ, जल्दी हमारे खाने के लिए कुछ लेते आओ।"

पत्नी और बच्चों की बातें सुनकर किरात का दिल दहल गया। तत्काल वह सप्तर्षियों के पास लौटा, उनके चरणों पर गिरकर विनती करने लगा, "महानुभावों, आज मेरे भाग्यवश आप लोगों के दर्शन हुए। मेरा जीवन धन्य हो गया। आप लोग मुझ पर अनुग्रह करके इस पापपूर्ण पंक से मेरा उद्धार कीजिए।" किरात को अपनी करनी पर पश्चात्ताप करते देख सप्तर्षि प्रसन्न हुए और उसको 'श्रीराम' मंत्र जपने का उपदेश दिया।

किरात के मन में विवेक जागृत हुआ। वह अपने परिवार को त्यागकर कंद-मूल और फलों का सेवन करते हुए, पवित्र नदियों में स्नान करते हुए श्रीराम तारक मंत्र का जाप करने लगा। अन्न-जल का उसे स्मरण तक न रहा। शन:-शनै: उसके चारों ओर वल्मीक बनता गया। उस पर पौधे उग आए। पेड़ बने, सरीसृप आदि जानवरों ने उस वल्मीकि पर अपना आश्रय बनाया, परंतु किरात को इस बात का भान तक न हुआ। वह तपस्या में निमग्न हो गया था।

अनेक वर्ष तीर्थाटन करके जब सप्तर्षि उसी वन से होकर अपने आश्रमों की ओर लौटने लगे, तब उन्हें उस किरात का स्मरण हो आया। उन्होंने किरात का पता लगाया। "सप्तर्षियों! जिस किरात को आप लोग ढूंढ़ रहे हैं, वह एक तपस्वी बनकर आप लोगों के सामने दर्शित होने वाले वल्मीकि में है। वह इस समय ध्यानमग्न हैं।"

यह समाचार पाकर सप्तर्षि अमित आनंदित हुए और उन लोगों ने संपूर्ण हृदय से उस तपस्वी को आशीर्वाद दिया। "वल्मीकि के भीतर तपस्या में मग्न पुण्यात्मा वाल्मीकि महर्षि के नाम से विख्यात होंगे। श्रीमहाविष्णु स्वयं श्रीराम के रूप में प्रत्यक्ष हो इन्हें दर्शन देंगे और अपना चरित लिखने का आदेश देंगे। ये ऋषि कुल तिलक बनकर जगत के कल्याण का सूत्रधार बनेंगे।" इस प्रकार आशीर्वाद देकर सप्तर्षि अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। वही तपस्वी कालांतर में महर्षि वाल्मीकि नाम से प्रख्यात हुए और 'रामायण' की रचना करके आदिकवि कहलाए।

इस तरह मोदक बना गणेश का प्रिय


हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य देवता माना गया है| इसलिए सभी देवताओं में गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती है आपने यदि श्री गणेश तस्वीर पर ध्यान दिया होगा तो उनके हाथ में उनका प्रिय भोजन मोदक जरुर रहता है| क्या आपको पता है कि गणेश जी अन्य भोग की जगह मोदक इतना क्यों पसंद है? 

शास्त्रों में कहा गया है कि गजानन का एक दांत परशुराम जी के साथ हुए युद्ध में टूट गया था| दांत के टूट जाने से उन्हें अन्य चीजों को खाने में तकलीफ होती थी क्योंकि उन्हें चबाना पड़ता था लेकिन मोदक को चबाना नहीं पड़ता है ऐसा इसलिए क्योंकि मोदक बहुत मुलायम होता है|

भगवान गणेश को मोदक इसलिए भी पसंद हो सकता है कि मोदक प्रसन्नता प्रदान करने वाला मिष्टान है। मोदक के शब्दों पर गौर करें तो 'मोद' का अर्थ होता है हर्ष यानी खुशी। भगवान गणेश को शास्त्रों में मंगलकारी एवं सदैव प्रसन्न रहने वाला देवता कहा गया है। 

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में गणेश जी को मोदक प्रिय होने की जो कथा मिलती है उसके अनुसार मोदक का निर्माण अमृत से हुआ है। देवताओं ने एक दिव्य मोदक माता पार्वती को दिया। गणेश जी ने मोदक के गुणों का वर्णन माता पार्वती से सुना तो मोदक खाने की इच्छा बढ़ गयी। अपनी चतुराई से गणेश जी ने माता से मोदक प्राप्त कर लिया। गणेश जी को मोदक इतना पसंद आया कि उस दिन से गणेश मोदक प्रिय बन गये।