गुम हो रही नवविवाहिता की ‘सावनी’

इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या मंहगाई की मार, बुंदेलखण्ड में शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन का हर सुहागिन को बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। इस दिन ससुराल से सुहागिन के लिए 'सावनी' भेजे जाने की पुरानी परम्परा थी, सावनी में भेजे गए श्रंगार सामाग्री से 'श्रंगार' कर सुहागिन बहन अपने भाइयों की कलाई में राखी बांध कर 'सुहाग' की रक्षा का वचन लेते थीं लेकिन पीढ़ियों पुरानी यह परम्परा अब विलुप्त होने के कगार पर है। 


बुंदेलखण्ड में हर तीज-त्यौहार मनाने की अलग सामाजिक परम्पराएं रही हैं। आप रक्षाबंधन को ही ले लीजिए। शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन में हर सुहागिन को अपने ससुराल से भेजे जाने वाले 'सावनी' का बड़ी बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। 


सावनी में ससुराल पक्ष से हर वह सामाग्री भेजी जाती थी, जो एक सुहागिन के श्रंगार का हिस्सा है। सोने-चांदी के जेवरातों से लेकर कपड़े और खिलौने तक शामिल हुआ करते थे। सावनी में आए सामान को सुहागिन जहां पास-पड़ोस की सहेलियों के बीच 'बांयन' के तौर पर बांटा करती थी, वहीं इसी से श्रंगार कर वह अपने भाइयों की कलाई में सावनी में आई 'राखी' बांध कर सुहाग के रक्षा का वचन भी लेती थी। 


ससुराल पक्ष से आने वाली सावनी की अदायगी सुहागिन के मायके पक्ष के लोग 'तीजा' के त्यौहार में 'पठौनी' भेज कर करते थे। पर यह अब गुजरे जमाने की बात जैसी हो गई है। इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या फिर मंहगाई की मार, सावनी लाने और भेजने की यह सदियों पुरानी परम्परा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। 


बांदा जनपद के सिकलोढ़ी गांव की बुजुर्ग महिला श्यामा तिवारी बताती है कि 'जब उसके मायके ससुराल से सावनी पहुंची थी, तब नाई से गांव में सावनी देखने का बुलावा भेजा गया था। सावनी का हर सामान गांव की महिलाओं ने देखा और ससुराल वालों की तारीफ की थी। 


ससुराल से आए सामान को पाकर वह खुद बहुत खुश हुई थी।' वह बताती है कि 'लोग सावनी की श्रंगार सामग्री से ससुराल की बड़प्पन का अंदाजा लगाया करते थे। जिस सुहागिन की सावनी न आए वह अपनी तौहीन समझती थी।' बल्लान गांव की देवरतिया (80) बताती है कि 'हर अमीर और गरीब ससुराल से सावनी भेजने का रिवाज रहा है, पर अब धीरे-धीरे यह खत्म होने लगी है, रेशम के धागे वाली राखियां बाजार में दिखाई नहीं देती। अब तो विदेशी राखियों का जमाना आ गया है।' 


तेन्दुरा गांव का दलित टेरियां बताता है कि 'सावनी की परम्परा दो परिवारों (ससुराल और मायका) के बीच सामाजिक सौहाद्र कायम करने और रिश्ता मजबूती से बनाए रखने का द्योतक है। इस परम्परा के खात्मे के लिए जहां बढ़ती मंहगाई जिम्मेदार है, वहीं आधुनिकता की अंधीदौड़ से युवा पीढ़ी इसे भूलती जा रही है।' साथ ही उसने कहा कि 'अब समाज में सयानापन न होने के कारण भी इन परम्पराओं से लोग तौबा कर रहे हैं।'

गुजर रहा सावन, न पड़े झूले, न बोले मोर!

"झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा, मोर-पपीहा बोले..!" ऐसे कुछ बुंदेली गीत हैं, जो सावन मास आते ही गली-कूचों और आम के बगीचों में गूंजने लगते थे। साथ ही मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुफ्त उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे आम के बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। यानी बिन 'झूला' झूले ही सावन मास गुजर गया। 


डेढ़ दशक पूर्व तक बुंदेलखंड के गांवों की बस्तियों के नजदीक आम के भारी तादाद में बगीचे हुआ करते थे, जिनकी डाल पर ससुराल से नैहर आईं युवतियां अपनी सहेलियों संग 'झूला' झूल सावनी गीत गाया करती थीं। रिम-झिम बारिश के बीच बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली से माहौल सुहावन हो जाता था।


खासकर नाग पंचमी के दूसरे दिन मनाए जाने वाले 'गुड़िया त्यौहार' में झूला झूलने का रिवाज भी था। इसे बुंदेलखंड में लगातार पड़ रहे प्राकृतिक आपदाओं के कहर का असर माना जाए या वन माफियाओं की टेढ़ी नजर का परिणाम कि गांवों में एक भी बगीचे नहीं बचे, जहां युवतियां झूला डाल सकें या मोर विचरण कर सकें।


बांदा जनपद के तेंदुरा गांव की बुजुर्ग महिला देवरतिया बताती हैं, "गुड़िया त्यौहार के नजदीक आते ही बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और वह आम के बगीचों में झूला डाल कर झूलती थीं। झुंड के रूप में इकट्ठा होकर महिलाएं दर्जनों सावनी गीत गाया करती थीं।" 


वह बताती हैं कि त्यौहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा आज भी चली आ रही है, लेकिन बगीचों के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं। 


इसी गांव की अधेड़ उम्र की महिला रानी की मानें तो दस साल पहले तक यहां गुड़िया त्योहार से रक्षाबंधन तक झूले का आनंद लिया जाता रहा है। वह बताती हैं कि गांव के राम जानकी मंदिर के पास के पेड़ में लोहे की जंजीरों से झूला डाला जाया करता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। अब पेड़ ही नहीं हैं तो झूला कहां डाला जाए।


इसी जिले के डभनी गांव के बुजुर्ग रघुराज कुशवाहा बताते हैं कि गांव के मजरे कछिया पुरवा के दनिया बाग में एक दर्जन से अधिक झूला पड़ा करते थे, बहन-बेटियां झूले के बहाने अपनी सहेलियों से मुलाकात करती थीं। जब से बाग नष्ट हो गए हैं, तब से ये सब लोग भूल गए हैं।


कुशवाहा झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए लकड़ी की अवैध कटाई करने वालों से ज्यादा गांवों में फैल रही वैमनष्यता को इसका कारण मानते हैं। वह बताते हैं कि पहले गांव के लोग हर बहन-बेटी को अपनी मानते रहे हैं, अब जमाना बदल गया है। जिसके हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है, वही भक्षक बन जाता है। 


कुल मिला कर बुंदेलखंड में बाग-बगीचों के खात्मे के साथ जहां मोर-पपीहों की संख्या घटी है, वहीं समाज में बढ़ रही गैर समझदारी के कारण भाईचारे में बेहद कमी आई है। नतीजतन, झूला झूलने की परंपरा को ग्रहण लग गया है।

सावन में जितना रंग लाती है मेंहदी, उतना मिलता है पति का प्रेम

सावन में जब चारों ओर हरियाली का साम्राज्य रहता है, ऐसे में भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-श्रृंगार में हरे रंग का खूब इस्तेमाल करती हैं। और जब महिलाओं के श्रृंगार की बात हो रही हो और उसमें मेंहदी की बात न हो तो बात अधूरी रह जाती है। वैसे भी सावन में मेंहदी का अपना महत्व है।

मान्यता है कि जिसकी मेंहदी जितनी रंग लाती है, उसको उतना ही अपने पति और ससुराल का प्रेम मिलता है। मेंहदी की सोंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, लड़की की सुंदरता में भी चार चांद लग जाते हैं। इसलिए कहा भी जाता है कि मेंहदी के बिना दुल्हन अधूरी होती है। 

अक्सर देखा जाता है कि सावन आते ही महिलाओं की कलाइयों में चूड़ियों के रंग हरे हो जाते हैं तो उनका पहनावा भी हरे रंग में तब्दील होता है। और ऐसे में मेंहदी न हो तो बात पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि पटना में सावन में मेंहदी के छोटे से बड़े मेंहदी के दुकानों में लड़कियों और महिलाओं से पटे रहते हैं। 

सावन के महीने में पटना का कोई भी ऐसा मार्केट नहीं होता जहां मेंहदी वाले नहीं होते। पटना के डाक बंगला चौराहे के मौर्या लोक कांप्लेक्स में दिलीप मेंहदी वाला और धोनी मेंहदी वाले की दुकानें सजी हैं तो बेली रोड के केशव पैलेस में सुरेश मेंहदी वाले अपनी मेंहदी लगाने वाले हुनर से महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। 

वैसे पटना में कई ब्यूटी पार्लरों में भी मेंहदी लगाने का काम होता है परंतु वहां मेंहदी लगाने का मूल्य अधिक होता है इस कारण अधिकांश महिलाएं इन छोटे दुकानों पर ही मेंहदी लगाने पहुंचती हैं। एक स्थान में तीन से चार मेंहदी वाले होते हैं जो अक्सर दिन के 11 बजे के बाद ही मेंहदी लगाने का कार्य प्रारम्भ करते हैं जो देर शाम तक चलता रहता है। 

सुरेश मेंहदी वाले बताते हैं कि आम तौर पर सावन में ग्राहकों की संख्या चार गुनी बढ़ जाती है, इस कारण हम लोग भी कारीगरों की संख्या में इजाफा करते हैं। सुरेश कहते हैं कि प्रतिदिन वह करीब 100 से ज्यादा हाथों में मेंहदी लगाने का काम करता है। उनका यह भी कहना है कि आमतौर पर महिलायें दोनों तरफ हाथ मेंहदी से भरवाती हैं और कई तरह की डिजाइन की भी मांग करती हैं। 

उधर, एक अन्य मेंहदी वाले ने मेंहदी के विषय में बताया कि सिल्वर मेंहदी, गोल्डन मेंहदी, ब्राउन मेंहदी को छोड़कर सारे डिजाइन असली मेंहदी से बनते हैं और इसका रंग भी काफी दिनों तक टिकता है। जबकि सिल्वर, गोल्डन और ब्राउन मेंहदी ग्लीटर का होता है जो अक्सर लोग समारोह में जाने के पूर्व लगवाते हैं और पानी से धोने के बाद पूरी तरह साफ हो जाता है। 

उनका यह भी कहना है कि अक्सर लोग मारवाड़ी और राजस्थानी मेंहदी की मांग करते हैं। वैसे कई महिलायें ऐसी भी होती हैं जो घर में ही मेंहदी लगाती हैं। 

पटना के राजा बजार में एक ब्यूटी पार्लर चलाने वाली रोमा बताती हैं कि इन दिनों मेंहदी फैशन की वस्तु बन गई है जिस कारण मांग भी बढ़ गई है। रोमा कहती हैं कि अक्सर लोग मेंहदी विशेष अवसरों पर ही लगाती हैं। उनका दावा है कि मेंहदी हार्मोन को तो प्रभावित करती ही हैं, रक्त संचार में भी नियंत्रण रखती हैं। वे कहती हैं कि आजकल पिछले कुछ वषों से इसका चलन काफी बढ़ गया है। मेंहदी दिमाग को शांत और तेज भी बनाता है। रोमा यह भी कहती हैं कि आखिर मेंहदी सजने की वस्तु है तो महिलायें सावन में इससे अलग नहीं रह पातीं। आखिर सजना जो है 'सजना' के लिए।

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सावन सोमवार व्रत विधि, कथा व आरती

श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव जी के व्रत किए जाते हैं। श्रावण मास में शिव जी की पूजा का विशेष विधान हैं। कुछ भक्त जन तो पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। अधिकांश व्यक्ति केवल श्रावण मास में पड़ने वाले सोमवार का ही व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव जी के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। शिव जी के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। 

|| सावन सोमवार व्रत विधि ||

प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार, सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष। सोमवार व्रत की विधि सभी व्रतों में समान होती है। इस व्रत को श्रावण माह में आरंभ करना शुभ माना जाता है। श्रावण सोमवार के व्रत में भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा की जाती है। 

सावन सोमवार व्रत सूर्योदय से प्रारंभ कर तीसरे पहर तक किया जाता है। शिव पूजा के बाद सोमवार व्रत की कथा सुननी आवश्यक है। व्रत करने वाले को दिन में एक बार भोजन करना चाहिए।

व्रतधारी सावन माह के हर सोमवार ब्रह्म मुहूर्त में सोकर उठें| घर की साफ़- सफाई कर घर में गंगा जल छिडकें| उसके बाद स्नानादि करके पवित्र हो लें तत्पश्चात घर में ही किसी पवित्र स्थान पर भगवान शिव की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। पूरी पूजन तैयारी के बाद निम्न मंत्र से संकल्प लें- 

'मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमव्रतं करिष्ये'

इसके पश्चात निम्न मंत्र से ध्यान करें-

'ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्*।
पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्*॥

ध्यान के पश्चात 'ऊँ नमः शिवाय' से शिवजी का तथा 'ऊँ नमः शिवायै' से पार्वतीजी का षोडशोपचार पूजन करें। पूजन के पश्चात व्रत कथा सुनें। तत्पश्चात आरती कर प्रसाद वितरण करें। इसकें बाद भोजन या फलाहार ग्रहण करें।

|| सावन सोमवार व्रत फल ||

सोमवार व्रत नियमित रूप से करने पर भगवान शिव तथा देवी पार्वती की अनुकम्पा बनी रहती है। जीवन धन-धान्य से भर जाता है। सभी अनिष्टों का भगवान शिव हरण कर भक्तों के कष्टों को दूर करते हैं।

|| सावन सोमवार व्रत कथा ||

एक कथा के अनुसार जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया। यही कारण है कि सावन के महीने में सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए कुंवारी लड़कियों व्रत रखती हैं|

|| शिव जी की आरती ||

जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे ।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी ।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी ।
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

लक्ष्मी व सावित्री पार्वती संगा ।
पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा ।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला ।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

काशी में विराजे विश्वनाथ, नंदी ब्रह्मचारी ।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

गुरु पूर्णिमा विशेष: ज्ञान का मार्ग है 'गुरु'



गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर: । गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम: ।। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। हिंदू धर्म में इस पूर्णिमा का विशेष महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। कौरव, पाण्डव आदि सभी इन्हें गुरु मानते थे इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है। इस बार गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा 22 जुलाई दिन सोमवार को मनाई जायेगी| 

आपको बता दें कि गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। 

गुरु पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह उच्चवल और प्रकाशमान होते हैं उनके तेज के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते| गुरू पूर्णिमा का स्वरुप बनकर आषाढ़ रुपी शिष्य के अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है| शिष्य अंधेरे रुपी बादलों से घिरा होता है जिसमें पूर्णिमा रूपी गुरू प्रकाश का विस्तार करता है| जिस प्रकार आषाढ़ का मौसम बादलों से घिरा होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रुपी पुंज की चमक से सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का का आगमन होता है|

गुरु पूर्णिमा महत्व-

गुरु को ब्रह्मा कहा गया है| क्योंकि गुरु ही अपने शिष्य को नया जन्म देता है| गुरु ही साक्षात महादेव है, क्योकि वह अपने शिष्यों के सभी दोषों को माफ करता है| इसलिए इस दिन प्रातः काल स्नानादि करके शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। उन्हें ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है।

मादा को आकर्षित करने के लिए रुमानी गीत गाते हैं नर चमगादड़

नर चमगादड़ पशु-पक्षियों की दुनिया में सबसे रुमानी गायक होते हैं। वे मादा चमगादड़ को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए खास तरह का स्वर निकालते हैं और अपने स्वर बदलकर मादा चमगादड़ के मनोरंजन के लिए ब्यूह रचते हैं। एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है। नया अध्ययन टेक्सास ए एंड एम विश्वविद्यालय में किया गया है। फ्लोरिडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के जीव विज्ञान के प्रोफेसर और चमगादड़ के व्यवहार के जाने-माने ज्ञाता माइक स्मोदरमैन ने चमगादड़ की स्वर ध्वनियों और गायन पर यह अध्ययन किया। यह अध्ययन 'एनिमल विहैवियर' में प्रकाशित हुआ है। 

पिछले तीन सालों में उनकी टीम ने बिना पूंछ वाले हजारों मैक्सिकन चमगादड़ों पर टेक्सास में अध्ययन किया, जिसके परिणामस्वरुप नर चमगादड़ के गायक होने का पता चला है। उन्होंने पाया कि खास समय में नर चमगादड़, मादा चमगादड़ को आकर्षित करने के लिए गीत गाते हैं। वे ऐसा जल्दी-जल्दी करते हैं क्योंकि उन्हें जल्दी उड़ना होता है। 

स्मोदरमैन के अनुसार, ये चमगादड़ बहुत तीव्र, 30 फीट प्रति सेकेंड के हिसाब से उड़ते हैं। उनके पास मादा को आकर्षित करने लिए एक सेकेंड का केवल दसवां हिस्सा रहता है। जैसे ही मादा चमगादड़ अपने बसेरे से उड़ती है, वे खास अंदाज में मादा का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं और फिर देर तक उसका मनोरंजन करते हैं। 

उनका कहना है कि चमगादड़ के गाने में मुहावरे और शब्दांश होते हैं। बिना पूंछ वाले चमगादड़ खास होते हैं और तेजी से अपने मुहावरों को पहचान लेते हैं। नर अपने गाने में बहुत ही रचनात्मक होते हैं। केवल ये चमगादड़ ही नहीं हैं, जो प्रेम गीत गाते हैं। कुछ अन्य पक्षी भी हैं जो सुरीली आवाज निकालते हैं लेकिन स्तनधारी पशुओं में यह नहीं देखा जाता। 

ज्यादातर पशु अपने साथी को आकर्षित करने के लिए अलग-अलग हाव-भाव पैदा करते हैं। इस तरह के पक्षी चमकदार रूपक (शरीर से भाव-भंगिमा) बनाते हैं, जबकि चमगादड़ अन्य जानवरों की तुलना में गीत ज्यादा गाते हैं।

हरिशयनी एकादशी आज, इस व्रत से होती है मोक्ष की प्राप्ति

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही हरिशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है| इसे 'पद्मनाभा' तथा 'देवशयनी' एकादशी भी कहा जाता है। इस वर्ष हरिशयनी एकादशी 19 जुलाई दिन शुक्रवार को पड़ रही है| पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए बलि के द्वार पर पाताल लोक में निवास करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी दिन से चौमासे का आरम्भ माना जाता है। इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए क्षीरसागर में शयन करते हैं। सभी उपवासों में हरिशयनी एकादशी व्रत श्रेष्ठतम कहा गया है| इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, तथा सभी पापों का नाश होता है| इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का महत्व होता है|

हरिशयनी एकादशी व्रत विधि-

इस व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है| इसलिए दशमी को अपने भोजन में नमक को नहीं शामिल करना चाहिए|अगले दिन प्रात: काल उठकर नित्य कर्म से निवृत होकर व्रत का संकल्प करें भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करना चाहिए| पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए| भगवान को ताम्बूल, पुंगीफल अर्पित करने के बाद मन्त्र द्वारा स्तुति की जानी चाहिए| 

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम्।
विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम्।।

हरिशयनी एकादशी व्रत कथा-

युधिष्ठिर ने पूछा : भगवन् ! आषाढ़ के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसका नाम और विधि क्या है? यह बतलाने की कृपा करें ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘शयनी’ है। मैं उसका वर्णन करता हूँ । वह महान पुण्यमयी, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, सब पापों को हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है । आषाढ़ शुक्लपक्ष में ‘शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया । ‘हरिशयनी एकादशी’ के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर तब तक शयन करता है, जब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जाती, अत: आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मनुष्य को भलीभाँति धर्म का आचरण करना चाहिए । जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, इस कारण यत्नपूर्वक इस एकादशी का व्रत करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं ।

राजन् ! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं । चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चौमसे में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । राजन् ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए । ‘शयनी’ और ‘बोधिनी’ के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैं, गृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं - अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए ।

इसके अलावा हरिशयनी एकादशी से सम्बंधित एक अन्य पौराणिक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है-

प्राचीन काल में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुख और आनन्द से रहती थी। एक बार उनके राज्य में लगातार तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। प्रजा व्याकुल हो गई। इस दुर्भिक्ष से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन पिण्डदान, कथा, व्रत आदि सब में कमी हो गई। प्रजा ने राजा के दरबार में जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी। राजा ने कहा- 'आप लोगों का कष्ट भारी है। मैं प्रजा की भलाई हेतु पूरा प्रयत्न करूंगा।' राजा इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुखी थे। वे सोचने लगे कि आख़िर मैंने ऐसा कौन-सा पाप-कर्म किया है, जिसका दण्ड मुझे इस रूप में मिल रहा है?'

फिर प्रजा की दुहाई तथा कष्ट को सहन न करने के कारण, इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। जंगल में विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्मा जी के तेजस्वो पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उन्हें आशीर्वाद देकर कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का अभिप्राय जानना चाहा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा-'महात्मन! सब प्रकार से धर्म का पालन करते हुए भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूं। मैं इसका कारण नहीं जानता। आख़िर क्यों ऐसा हो राह है, कृपया आप इसका समाधान कर मेरा संशय दूर कीजिए।'

यह सुनकर अंगिरा ऋषि ने कहा- 'हे राजन! यह सतयुग सब युगों में क्षेष्ठ और उत्तम माना गया है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भारी फल मिलता है। इसमें लोग ब्रह्मा की उपसना करते हैं। इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य किसी जाति को तप करने का अधिकार नहीं था, जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक उसकी जीवन लीला समाप्त नहीं होगी, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगी। उस शूद्र तपस्वी को मारने से ही पाप की शांति होगी।' परंतु राजा का हृदय एक निरपराध को मारने को तैयार नहीं हुआ। राजा ने उस निरपराध तपस्वी को मारना उचित न जानकर ऋषि से अन्य उपाय पूछा। राजा ने कहा-'हे देव! मैं उस निरपराध को मार दूं, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। इसलिए कृपा करके आप कोई और उपाय बताएं।' तब ऋषि ने कहा-' आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी (पद्मा एकादशी या हरिशयनी एकादशी) का विधिपूर्वक व्रत करो। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।' यह सुनकर राजा मान्धाता वापस लौट आया और उसने चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।

भानगढ़ किला : देश की सबसे डरावनी जगह!



हममें से कितने लोग भूतों में विश्वास करते हैं? क्या भूत वाकई में होते हैं? क्या भूतों को देखा जा सकता है? भूतों को मानने वाले तो इन प्रश्नों का जवाब हां में देंगे, मगर न मानने वाले इस धारणा को खारिज कर देंगे। लेकिन भूतों के ठिकाने देखना हर कोई चाहेगा और भानगढ़ जाना कुछ ऐसा ही है। इसे देश का सर्वाधिक डरावना स्थल माना जाता है। 

दिल्ली से 300 किलोमीटर दूर स्थित होने के बावजूद चंद लोग ही इस जगह के बारे में जानते हैं। हम सुबह तड़के भानगढ़ के लिए अपनी कार से चले, और उम्मीद थी कि यात्रा चार घंटे से ज्यादा की नहीं होगी। चूंकि लोगों का यहां ज्यादा आना-जाना कम होता है, लिहाजा हमारे पास कोई स्पष्ट जानकारी नहीं थी और हमने इंटरनेट पर उपलब्ध एक नक्शे और दूरी से मदद ली। 

गुड़गांव से आगे बढ़ने के बाद हम भिवाड़ी की ओर बढ़े और राजस्थान के अलवर पहुंचे। इस स्थान तक हमें कोई समस्या नहीं हुई। यहां तक की यात्रा अच्छी रही और हमें इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं थी कि किले में हमें किसी समस्या का सामना करना पड़ेगा। अलवर से जैसे ही हम सरिस्का अभयारण्य पार किए, मौसम बदल गया। आसमान बिल्कुल काला, और अपराह्न् में लगता था जैसे शाम के सात बज गए हों। काले बादल अरावली के पर्वत पर बरसने लगे। 

अजबगढ़ से आगे बढ़ने के बाद हम भानगढ़ के इलाके में प्रवेश किए। वर्षा तेज हो गई। सौभाग्यवश हमारे पास छाते थे। इसलिए समय बर्बाद किए बगैर हम तुरंत कार से बाहर निकले और हमने किले में प्रवेश किया। किले के अंदर हरी-हरी घास और इसके आसपास के क्षेत्र को देख हम चकित रह गए। ऐसा नहीं लग रहा था कि यह राजस्थान में कोई जगह है। वहां कई स्थानीय पर्यटक थे, ज्यादातर युवा थे। किले का भग्नावशेष हमारे स्वागत में खड़ा था।

बाबूलाल नामक एक युवा पर्यटक ने कहा, "हम सभी यहां भूत बंगला देखने आए हैं। हमने इस स्थान के बारे में बहुत सुना था और इसलिए हमने यहां एक बार आने का सोचा।" अंदर जाने के बाद हमने नर्तकियों की हवेली और जौहरी बाजार देखा। आज सबकुछ भग्न हो चुका है, लेकिन स्थानीय लोग कहते हैं कि रात को इन स्थानों पर असाधारण गतिविधियां देखने को मिलती हैं। इमारतों और किले की वास्तुकला देखकर तत्कालीन शासक भगवंत दास के समय के लोगों की प्रतिभा और कौशल की क्षमता का अंदाजा लगता है, जिन्होंने इस नगर का 1573 में निर्माण कराया था।


भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने किले के द्वार पर एक बोर्ड लगा रखा है। इस पर लिखा है कि सूर्यास्त के बाद से लेकर सूर्योदय तक किले के अंदर पर्यटकों के रुकने पर मनाही है। स्थानीय लोगों का कहना है कि जिस भी व्यक्ति ने सूर्यास्त के बाद अंदर रुकने की कोशिश की है, वह लापता हो गया है। लिहाजा मन में कई सारे अनुत्तरित सवालों के साथ अन्य लोगों की तरह हमने भी सूर्यास्त से पहले उस स्थान को छोड़ दिया।

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लखनऊ में पहली बार यहाँ फहराया गया था तिरंगा

दुनिया में कुछ ही ऐसे ही शहर होगें जिनकी पहचान एक नहीं कई रूपों में की जाती है। उन शहरों में शामिल है अपना शहरे-ए-लखनऊ। लखनऊ शहर अपनी तहजीब, नजाकत और नफासत के लिए जाना जाता है। दूसरी ओर इसे लोग बागों का शहर व शफूगों का शहर और अब इसे स्मारकों का शहर भी कहा जाता है। अवध की सभ्यता विशेषकर लखनऊ का सांस्कृतिक परिवेश पूरे विश्व के लिए कौतुहल का विषय रहा है। लखनऊ के अमीनाबाद स्थित अमीनुद्दौला पार्क जिसे अब झंडे वाला पार्क के नाम से जानते हैं| क्या आपको पता है कि इसे झंडे वाला पार्क क्यों कहा जाता है?

दरअसल जनवरी 1928 में क्रांतिकारियों ने पहली बार राष्ट्रीय ध्वज अमीनुद्दौला पार्क में ही फहराकर अंग्रेजी हुकूमत को ललकारा था| उसी दिन से यह अमीनुद्दौला पार्क झंडे वाला पार्क के नाम से जाना जाने लगा| अवध के चतुर्थ बादशाह अमजद अली शाह के समय में उनके वजीर इमदाद हुसैन खां अमीनुद्दौला को पार्क वाला क्षेत्र भी मिला था, तब इसे इमदाद बाग कहा जाता था| 

इससे पहले ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1914 में अमीनाबाद का पुनर्निर्माण कराया गया चारों तरफ सड़कें निकाली गई बीच में जो जगह बची उसमें एक पार्क का निर्माण कराया गया| जिसका नाम अमीनुद्दौला पार्क का नाम दिया गया| लेकिन आजादी के मतवालों ने यहाँ पहली बार झंडा फहराया तब से यह पार्क झंडे वाला पार्क कहलाया जाने लगा| 

18 अप्रैल 1930 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश हुकूमत के नमक कानून को तोड़कर नमक बनाया| इतना ही नहीं अगस्त 1935 को क्रांतिकारी गुलाब सिंह लोधी भी उस जुलूस में शामिल हुए, जो पार्क में झंडा फहराना चाहते थे। जिस समय झंडारोहण कार्यक्रम होने जा रहा था उस समय अंग्रेजी सैनिकों ने पार्क को चारो तरफ से घेर लिया| लेकिन आज़ादी के मतवाले गुलाब सिंह लोधी ने सैनिकों से बिना डरे पार्क में घुस गए और एक पेड़ पर चढ़कर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया| उसी समय एक सैनिक ने लोधी को गोलियों से भून दिया और वह शहीद हो गए थे।

दुनिया को अलविदा कहा, पर यादों में अमर रहेंगे प्राण

बहुमुखी प्रतिभा के अभिनेता प्राण के स्वाभाविक अभिनय और प्रतिभा की पराकाष्ठा ही थी कि 70-80 के दशक में लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था। प्राण ने मशहूर हिंदी फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई थी और वह अपने किरदार के चित्रण में इस कदर निपुण थे कि दर्शकों में उनकी छवि ही नकारात्मक बन गई थी। 

हिंदी सिनेमा जगत के प्रख्यात चरित्र अभिनेता प्राण का शुक्रवार को मुंबई के लीलावती अस्पताल में निधन हो गया। 93 वर्ष के प्राण लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे। उन्होंने रात 8.30 बजे अस्पताल में आखिरी सांस ली। 

प्राण को इस साल दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया था। लेकिन वह इतने बीमार थे कि पुरस्कार ग्रहण करने दिल्ली नहीं आ पाए। बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने उनके घर जाकर उन्हें अवार्ड दिया। इससे पहले साल 2001 में भारत सरकार ने उन्हें देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

सन् 1920 के फरवरी माह में पुरानी दिल्ली के बल्लीमरान मुहल्ले में केवल कृष्ण सिकंद के घर पैदा हुए प्राण का पूरा नाम 'प्राण किशन सिकंद' था, लेकिन फिल्म जगत में वह प्राण नाम से ही मशहूर थे। उनके शुरुआती जीवन के कुछ वर्ष और शिक्षा उत्तर प्रदेश और पंजाब के अलग-अलग शहरों में हुई। 

प्राण ने अपनी पेशेवर जिंदगी की शुरुआत लाहौर में बतौर फोटोग्राफर की। साल 1940 में उनके भाग्य ने पलटा खाया, जब संयोग से उनकी मुलाकात मशहूर लेखक वली मोहम्मद वली से एक पान की दुकान पर हुई। वली ने उन्हें दलसुख एम. पंचोली की पंजाबी फिल्म 'यमला जाट' में भूमिका दिलाई और वह खलनायक के रूप में मशहूर हो गए। इसके बाद उन्होंने 'चौधरी' 'खजांची', 'खानदान', 'खामोश निगाहें' जैसी कई पंजाबी-हिंदी फिल्मों में छोटी-बड़ी भूमिकाएं निभाईं। लेकिन तब उनकी शोहरत लाहौर और उसके आस-पास तक ही सीमित थी।

भारत विभाजन के बाद प्राण सपरिवार मुंबई आ गए, तब तक वह तीन बच्चों के पिता बन चुके थे। यहां प्राण को एक बड़ा मौका देव आनंद की फिल्म 'जिद्दी' के रूप में 1948 में मिला और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने 74 सालों के फिल्मी करियर में प्राण ने अपनी अभिनय प्रतिभा के साथ कई प्रयोग किए। उन्होंने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह के किरदार निभाए। लेकिन नकारात्मक किरदार उनकी पहचान थे।

फिल्म 'राम और श्याम' का वह दृश्य जिसमें प्राण के हाथों में थमा चाबुक फिल्म के नायक दिलीप कुमार की पीठ पर पड़ता था तो आह दर्शकों के दिल से निकलती थी। इसके अलावा फिल्म 'कश्मीर की कली', 'मुनीमजी' और 'मधुमति' में प्राण ने खलनायक के किरदार को नायक के बराबर ला खड़ा किया था।

अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म 'जंजीर' में उनकी यादगार भूमिका के अलावा उन्होंने फिल्म 'हाफ टिकट', 'मनमौजी', 'अमर अकबर एंथनी' जैसी फिल्मों में भी अपने अभिनय का लोहा मनवाया, जिनमें वह खलनायक की भूमिका में नहीं थे। फिल्म 'उपकार' में विकलांग मंगल चाचा की भूमिका उनकी बहुमुखी प्रतिभा की मिसाल है।

प्राण साहब पर फिल्माए गए गीतों को वैसे तो एक से बढ़कर एक गायक कलाकारों ने अपनी आवाज दी, लेकिन मन्ना डे की आवाज और प्राण की अदाकारी लगता था कि जैसे एक-दूसरे के लिए ही बनीं हैं।

फिल्म 'उपकार' का 'कसमें वादे प्यार वफा', 'विश्वनाथ' का 'हाय जिंदड़ी ये हाय जिंदड़ी', 'सन्यासी' का गीत 'क्या मार सकेगी मौत' कुछ ऐसे गीत हैं जहां गीतों व अभिनय दोनों में गजब की गहराई और दर्शन विद्यमान है। वहीं 'जंजीर' का 'यारी है ईमान मेरा' दोस्त के लिए प्यार और समर्पण का चित्रण करता बेहतरीन गाना है और फिल्म 'दस नंबरी' का हास्य गीत 'न तुम आलू, न हम गोभी' और 'विक्टोरिया नम्बर 203' का 'दो बेचारे बिना सहारे' में प्राण की अदाकारी दर्शकों को हंसकर लोट-पोट होने को मजबूर करती है।

प्राण को करीबी रूप से जानने वालों का कहना है वह एक सज्जन, साफ दिल, उदार और बेहद अनुसाशित व्यक्ति थे।"

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बरेली पुलिस का डॉग स्क्वायड बिना डॉग का

बरेली पुलिस का डॉग स्क्वायड बस नाम का ही है, क्योंकि स्क्वायड तो है पर डॉग (कुत्ता) नहीं है। स्क्वॉयड के डॉग की मौत के करीब एक महीने गुजर चुके हैं, लेकिन अभी तक नए डॉग की व्यवस्था नहीं हो पाई है। 

बरेली पुलिस के डॉग स्क्वॉयड के इकलौते डॉग ब्रूटो की करीब एक महीने पहले बीमारी से मौत हो गई थी। करीब तीन साल से ब्रूटो बरेली पुलिस को अपनी सेवाएं दे रहा था। बरेली पुलिस ने ब्रूटो की मदद से कई मामले सुलझाए थे।

शहरवासियों का कहना है कि आए दिन चोरी, लूट, अपहरण जैसी घटनाएं हो रही हैं। साथ ही सावन और रमजान का महीना भी शुरू हो गया है ऐसे में डॉग स्क्वॉयड का खाली होना महंगा पड़ सकता है।

पुलिस के डॉग स्क्वॉयड का डॉग अपराधियों को पड़कवाने और अपराध को सुलझाने में बहुत मदद करता है। इसे प्रशिक्षण के बाद स्क्वॉयड में शमिल किया जाता है। जर्मन शेफर्ड, डाबरमैन और डलमेशनस सहित कुछ अन्य प्रजाति के कुत्ते को इसमें रखा जाता है।

डॉग स्क्वॉयड के प्रभारी कपिल देव का कहना है कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक से नए डॉग के लिए व्यवस्था करने का आग्रह किया गया है। उम्मीद है कि जल्द सारी जरूरी प्रक्रियाएं पूरी होने के बाद नया डॉग मिल जाएगा।

पर्दाफाश 

बरसात में बेघर हुए 'श्रीराम' को थाने में मिली शरण!


इस बरसात ने आम लोगों के साथ भगवान श्रीराम पर भी रहम नहीं किया। प्रदेश में हुई वर्षा से जहां सैकड़ों की तादाद में ग्रामीण बेघर हो गए हैं, वहीं गोंड़ा जिले के खरगापुर कस्बे के एक मंदिर में विराजमान भगवान श्रीराम का आशियाना भी ढह गया है और अब वह देवी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ खुद का नया घर बनने तक थाने में ही रहेंगे। 


पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि प्राकृतिक मार से कोई नहीं बचा। शायद इसी का नतीजा है कि गोंड़ा जिले के खरगापुर कस्बे में विराजमान भगवान श्रीराम का आशियाना (मंदिर) भी भारी बरसात की चपेट में आकर ढह गया। बेघर हुए भगवान राम को देवी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ खुद का नया घर बनने तक खरगापुर थाने में शरण लेनी पड़ी है। उपजिला अधिकारी की पहल पर कस्बे के बुद्धजीवियों ने राजकपूर मोदनवाल की अगुआई में मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए चंदा जुटाना शुरू कर दिया है।

उपजिला अधिकारी गोंडा (सदर) प्रशांत शर्मा (प्रशिक्षु आईएएस) ने बताया, "कस्बे में हलवाई समाज द्वारा करीब दो सौ साल पहले मंदिर निर्माण कर उसमें भगवान श्रीराम, देवी सीता व लक्ष्मण की अष्टधातु की भारी भरकम मूर्तियां स्थापित की गई थीं, इस बरसात में मंदिर का आधा हिस्सा गिर गया है।" इन्होंने बताया, "चोरों के डर की वजह से तीनों मूर्तियों को बुद्धजीवियों की सहमति से थाने में रखा गया है और कुछ बुद्धजीवियों ने चंदा जुटाकर मंदिर के पुनर्निर्माण की योजना बनाई है।" 

मोदनवाल ने बताया, "हलवाई समाज के सात लोगों की एक समिति बनाई गई है, जो चंदा एकत्र कर रही है। शीघ्र ही भगवान श्रीराम के मंदिर का पुनर्निर्माण शुरू करा दिया जाएगा।" उधर, खरगापुर के थानाध्यक्ष कमलेश कुमार वाजपेयी ने बताया, "बुधवार को थाने के एक कमरे को मंदिर का रूप देकर भगवान श्रीराम, सीता व लक्ष्मण की मूर्तियों को अस्थाई तौर पर स्थापित किया गया है, रोजाना पुलिसकर्मियों के अलावा कस्बे के लोग भी पूजा-अर्चना कर रहे हैं।


पर्दाफाश 

पति के सामने दबंगों ने लूट ली महिला की इज्ज़त!

मध्य प्रदेश में गुना जिले में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना प्रकाश में आई है| यहां के बमोरी थाना क्षेत्र के हमीरपुर गांव के वनक्षेत्र में एक व्यक्ति को बंधक बनाकर उसी के सामने उसकी पत्नी के साथ दबंगों ने दुष्कर्म किया| पुलिस सूत्रों ने बताया कि राजस्थान के झालावाड़ जिले के निवासी एक दंपति यहां एक धार्मिक स्थल में दर्शन करने के बाद वापस लौट रहे थे। 

इसी दौरान हमीरपुर गांव के वनक्षेत्र में एक सुनसान स्थान पर दो मोटर साइकिल पर सवार चार बदमाशों ने उन्हें रोका और महिला के पति को बंधक बनाकर उसी के सामने एक युवक ने महिला के साथ बलात्कार किया और शिकायत न करने की धमकी देते हुए फरार हो गए। घटना के बाद पीड़ित दंपति की शिकायत के बाद पुलिस ने मामला दर्ज कर आरोपियों की तलाश शुरू कर दी है।

आपको बता दें कि यह कोई पहला मामला नहीं है इससे पहले भी यहाँ एक ऐसा ही मामला प्रकाश में आया था| गत अप्रैल माह में प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इन्दौर में तलवार की नोक पर पति के सामने उसकी पत्नी की इज्जत लूट ली| इसके अलावा महिला से मारपीट भी की| घटना अन्नपूर्णा क्षेत्र के अहिल्या नगर की है जहाँ अलसुबह चार बजे दो युवकों ने यहां के एक निर्माणाधीन मकान का दरवाजा खटखटाया। इस मकान में काशीराम और उसकी पत्नी चौकीदारी करते हैं। घटना के वक्त दोनों सो रहे थे।

काशीराम ने जैसे ही दरवाजा खोला दोनों युवकों ने उसके गले पर तलवार अड़ा दी। फिर उसे अंदर कमरे में ले गए और पास ही पड़ी रस्सी से उसके हाथ बांध दिए। एक आरोपी ने काशीराम के गले पर तलवार रख दी और धमकाया कि शोर मचाया तो जान से मार देंगे। दोनों ने पति की हत्या की धमकी देते हुए काशीराम की पत्नी के साथ बारी-बारी से बलात्कार किया। महिला ने विरोध की कोशिश की तो आरोपियों ने उसके साथ मारपीट की और कमरे में से घसीटते हुए बाहर बरामदे तक ले गए। इसके बाद दोनों युवक वहां से भाग गए। दोनों के जाने के बाद तुरंत काशीराम बाहर निकलकर आया और शोर मचाने लगा| आसपास के अन्य मकानों में चौकीदारी करने वाले उसके रिश्तेदार बाहर आ गए। उन्होंने भाग रहे बदमाशों का पीछा किया और एक बदमाश को मौके पर ही पकड़ लिया। उसका नाम विनोद पिता संजय (22) निवासी सुदामा नगर झोपड़पट्टी है। लोगों ने उसकी जमकर पिटाई की। दूसरा आरोपी फरार हो गया| 

विनोद को लेकर लोग अन्नपूर्णा थाने पहुंचे और घटना के बारे में बताया। उसने फरार साथी का नाम सुनील बताया। उसकी तलाश में पुलिस ने दबिश भी दी, लेकिन वो नहीं मिला। विनोद और सुनील का पुराना आपराधिक रिकॉर्ड भी है। दोनों के खिलाफ अन्नपूर्णा थाने में चोरी और मारपीट के केस दर्ज हैं। 

वहीँ दूसरी अप्रैल माह में ही राजधानी भोपाल के रेलवे स्टेशन के पास बजरिया इलाके में पति को बंधक बनाकर उसकी पत्नी के साथ गैंगरेप करने वाले सातों आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। भोपाल रेंज के पुलिस महानिरीक्षक उपेंद्र जैन ने बताया कि राजधानी के रेलवे स्टेशन के पास बजरिया इलाके में स्थित कोच फैक्ट्री के पास से 24 अप्रैल को पति अपने पत्नी के साथ साइकिल से जा रहा था। इस दौरान सात बदमाशों ने साइकिल को रोककर पति के साथ मारपीट कर उसको बंधक बना लिया और उसके सामने पत्नी के साथ गैंगरेप किया।

उन्होंने बताया कि महिला की शिकायत पर पुलिस ने सातों अज्ञात आरोपियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज कर उनकी सघनता के साथ तलाशी शुरू कर दी थी। जांच पड़ताल के दौरान सुबह पुलिसकर्मियों ने सातों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। बाद में पीड़ित महिला और उसके पति ने सातों आरोपियों की शिनाख्त की।