दीवानगी ऐसी कि घर को बना दिया लता का मंदिर

दीवानगी को सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता और न ही उसका जानने का कोई पैमाना होता है। इसका प्रमाण है मध्य प्रदेश के इंदौर में स्वर कोकिला लता मंगेशकर की दीवानी वर्षा झालानी का घर, जो मंदिर में बदल चुका है। उन्होंने तो अपने घर का नाम ही लताश्रय रख दिया है।

लता की दीवानी वर्षा झालानी इंदौर के ओल्ड पलासिया क्षेत्र के सकेत नगर में रहती हैं। वर्षा का घर बाहर से तो आम मकानों जैसा ही है, मगर अंदर का नजारा अचरज पैदा कर देने वाला होता है, क्योंकि दरवाजे से लेकर हर तरफ सिर्फ एक ही तस्वीर नजर आती है और वह है लता मंगेशकर की। लता के जीवन से जु़ड़ी शायद ही कोई फोटो हो जो इस मकान में न सजी हो और न ही मकान का कोई ऐसा कोना है जहां लता न नजर आएं।

वर्षा का जीवन ही लता के इर्द गिर्द घूमता है। दिन की शुरुआत लता के गीत से होती है तो रात भी। सुबह और शाम उनकी आरती उतरती है। उसका कहना है कि लता ताई के रूप में इस धरती पर साक्षात मां सरस्वती ने जन्म लिया है।

लता के प्रति वर्षा में यह दीवानगी अचानक नहीं जगी है, बल्कि वह कहती हैं कि लता के प्रति उसकी यह दीवानगी जन्मजात है। उसकी मां भी लता की दीवानी थीं। जब वह गर्भ में थी तो मां भगवान से सिर्फ यही प्रार्थना करती थी कि उसके घर में बेटी पैदा हो और वह बड़ी होकर लता की तरह ही अपनी आवाज का जादू बिखेरे।

वह बताती है कि मां उन दिनों सिर्फ लता ताई के ही गाने सुना करती थीं। जब वह छोटी थी तो मां रेडियो में बजने वाले लता के गाने उसे भी सुनाती थी। जैसे-जैसे बड़ी होती गई लता ताई के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहने लगी, जिन दिनों बच्चे खिलौनों की मांग किया करते थे, वर्षा लता के गानों के कैसेट मांगती थी।

वर्षा को जेब खर्च के लिए जो पैसे मिलते थे, उसमें से बचत कर वह लता के कैसेट खरीद लाती थी। वह बताती है कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, वैसे-वैसे लता के प्रति उसका समर्पण बढ़ता गया, आज उसके लिए यदि कोई भगवान है और वह पूजा करती है तो सिर्फ लता की। घर में उनका मन्दिर भी है। इसी मन्दिर के सामने बैठकर वह घंटों लता के गाए गानों का रियाज करती है।

पूरा देश शनिवार 28 सितंबर को लता मंगेशकर का जन्मदिन मना रहा है और वर्षा भी अपने देवता को अपने तरह से याद कर रही है। वर्षा के लिए आज सबसे खुशी का दिन है।

वर्षा बताती है कि उसने संगीत की शिक्षा तो ली है, लेकिन उसका कोई गुरु नहीं है। वह सिर्फ लता को ही अपना गुरु मानती है। वर्षा की लता से मुलाकात हो चुकी है और लता ने उसे आशीर्वाद भी दिया था कि वह खूब तरक्की करे, साथ ही रियाज का सिलसिला भी जारी रखे। वर्षा लता के गाए गानों को एक नहीं बल्कि बारह भाषाओं में गा सकती है। टीवी चैनल के एक रियलिटी शो से लता के गाने गाकर अपनी पहचान बनाने वाली वर्षा अपने देवता की दीर्घायु की कामना करती है।

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शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयंती पर विशेष.....

आधुनिक विश्व में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने सरदार भगत सिंह की तरह कम उम्र में ही अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने का प्रयास किया हो। भगत सिंह बुद्धिजीवी थे, लेकिन शहीद-ए-आजम का यह पक्ष अब तक अप्रचारित है। उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के इस पहलू की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो स्वयं को भगत सिंह की परंपरा के ध्वजवाहक कहते हैं।

भगत सिंह जब 17 वर्ष के थे, तो 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर आयोजित एक राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता में उन्होंने हिस्सा लिया था। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'मतवाला' में उन्होंने एक लेख लिखा था और उसी लेख को इस प्रतियोगिता में भेज दिया। भगत सिंह को इस लेख के लिए 50 रुपये का प्रथम पुरस्कार मिला था।

भगत सिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार था। भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह विचारक, लेखक और देशभक्त नागरिक थे। उनके पिता खुद एक बड़े देशभक्त थे। उनका भगत सिंह के जीवन पर गहरा असर पड़ा। लाला छबीलदास जैसे पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगत सिंह ने दीमक की तरह चाट डाली थी। पुस्तकालय प्रभारी ने कहा था कि भगत सिंह किताबों को पढ़ता नहीं था, वह तो निगलता था। भगत सिंह को फांसी होने वाली थी, फिर भी वह अपने अंतिम समय तक रोज किताबें पढ़ रहे थे। भगत सिंह मृत्युंजय थे।

भगत सिंह को हिंदी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भाषा भी आती थी, जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी। जेल में भगत सिंह करीब दो साल रहे। इस दौरान वह लेख लिखकर अपने क्रांतिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। जेल प्रवास के दौरान उनके लिखे लेख व सगे-संबंधियों को लिखे पत्र वस्तुत: उनके विचारों के दर्पण हैं।

भगत सिंह मानते थे कि केवल अंग्रेजों के चले जाने से देश की आजादी का सपना पूरा नहीं हो सकता। केवल गोरे साहबों के स्थान पर भूरे साहबों का शासन होने से देश की बहुसंख्यक गरीब जनता का भला नहीं होने वाला है। इसलिए भगत सिंह ने समाजवादी विचारों का प्रचार करने और देश में समाजवादी शासन की स्थापना का सपना देखा।

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गांव में हुआ था, जो इस समय पाकिस्तान में है। उनके पिता का नाम किशन सिंह और मां का नाम विद्यावती कौर था। इस सिख परिवार ने आर्य समाज के विचारों को अपना लिया था। उनके परिवार पर आर्य समाज और महर्षि दयानंद की विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा था। क्रांतिकारी भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को मात्र 23 वर्ष की अवस्था में फांसी दे दी। वह शहीद-ए-आजम कहलाए और आज भी लाखों युवाओं के दिल में बसते हैं। 

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दुरुस्त दिल के लिए भ्रमों से रहें दूर

हृदयरोग से जुड़े ऐसे कई मिथक हैं, जो पूरी तरह बेबुनियाद होने के बावजूद अधिकांश लोगों के दिमाग में घर किए रहते हैं। ये गलत-सही जानकारियां हमें कहीं से भी मिल सकती हैं, लेकिन इन पर विश्वास करना हमारे हृदय के लिए हानिकारक हो सकता है।

हृदय विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें हृदयरोगियों का उपचार करते समय उन्हें रोगियों के ऐसे कई मिथकों को भी दूर करना पड़ता है। कुछ मिथक तो बहुत आम होते हैं और इन मिथकों को तोड़कर सही तथ्य स्पष्ट करने मात्र से रोगियों के हृदय को लंबे समय तक स्वस्थ रखा जा सकता है।

विख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ अशोक सेठ के अनुसार, हृदयरोग से जुड़े मिथकों में सबसे आम धारणा यह है कि हर तरह का व्यायाम हृदय के लिए लाभकारी होता है। सेठ ने बताया, "तेज गति से 45 मिनट टहलना या एरोबिक्स करना दिल के लिए स्वास्थ्यकर होता है। लेकिन जरूरी नहीं है कि भारोत्तोलन और कसरत भी दिल के लिए लाभकारी ही हो।"

लोगों में आम धारणा यह भी है कि महिलाओं में दिल की बीमारी का खतरा कम होता है। सेठ ने बताया, "महिलाओं की मृत्यु के सबसे बड़े कारकों में दिल की बीमारी ही है, बल्कि स्तन कैंसर की अपेक्षा छह गुना अधिका महिलाओं की मौत दिल की बीमारी से होती है।"

उन्होंने आगे बताया कि पुरुषों को हल्की परेशानी होते ही वे चिकित्सक के पास चले जाते हैं, लेकिन सहनशक्ति अधिक होने के कारण महिलाएं हल्की-फुल्की परेशानी यूं ही झेल जाती हैं।उन्होंने यह भी बताया कि कई बार तो चिकित्सक के पास जाने पर कैंसर तक की जांच लिख दी जाती है, लेकिन दिल की जांच नहीं करवाई जाती।

दिल्ली के मैक्स अस्पताल में हृदयरोग विशेषज्ञ के.के. तलवार ने भी इन बातों का समर्थन किया। उन्होंने बताया, "महिलाओं में एस्ट्रोजन हार्मोन के रहने से वे कुछ हद तक इससे संरक्षित तो रहती हैं, लेकिन धुम्रपान, अस्वास्थ्यकर भोजन करने की आदत और गर्भनिरोधक दवाएं लेने के कारण उनमें भी दिल की बीमारी का खतरा काफी होता है। मेनोपाज के बाद तो यह खतरा और बढ़ जाता है।"

इसके अलावा ऐसे ढेरों मिथक हैं, जिन्हें समाज के मस्तिष्क से दूर किए जाने की जरूरत है, जैसे युवाओं को दिल की बिमारी नहीं हो सकती या जब सीने के बाईं ओर दर्द हो तभी दिल की बीमारी की आशंका व्यक्त की जाती है। हृदयरोग विशेषज्ञ सुनीता चौधरी ने बताया कि दिल की बीमारी होने पर दाहिनी बांह, ऊपरी पेड़ू या आम तौर पर बाईं बांह में भी दर्द हो सकता है।

अधिकांश विज्ञापनों में कुछ विशेष तरह के खाद्य तेलों को हृदय के लिए अच्छा बताया जाता है, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह सच नहीं होता। हृदयरोग विशेषज्ञों का मानना है कि कई बार सही और गलत जानकारी में बहुत मामूली अंतर होता है, इसलिए सावधान रहने की जरूरत है।

विशेषज्ञों की सलाह :

-सक्रिय रहें : नियमित तौर पर प्रतिदिन 30 से 45 मिनट तक टहलने और हल्के व्यायाम करने से न सिर्फ आपका हृदय बल्कि पूरा शरीर स्वस्थ रहेगा।

- भोजन : अपने भोजन के प्रति सजग रहें। ताजी हरी सब्जियां और फल खाएं, मोटे अनाज की रोटी और चावल का सेवन करें तथा वसायुक्त भोजन से बचें। जंक फूड से भी बचें।

-धूम्रपान न करें

-शराब का संतुलित सेवन ही करें

-तनाव से मुक्त रहें।

एक प्रख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ ने बहुत व्यावहारिक बात कही है कि तनाव रहित नहीं रहा जा सकता, लेकिन उससे निजात पाने का पूरा प्रयास करना चाहिए। इसके लिए वह संगीत को सबसे बेहतर विकल्प बताते हैं। 

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विश्व हृदय दिवस पर विशेष: 'युवाओं को खानपान में सावधानी बरतने की जरूरत'

हृदय रोगों से पीड़ित भारतीयों की बढ़ती तादाद के बीच जीवनशैली व खान-पान की आदतों में बदलाव आज की जरूरत बन गई है। चिकित्सकों का कहना है कि युवाओं को समय रहते ही खानपान को लेकर सावधानी बरतने की आवश्यकता है, वरना अगले 10 वषरें में देश की आबादी लगभग 20 फीसदी लोगों को हृदय से संबंधित बीमारी से ग्रसित होने की आशंका है।

डा़. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ़ भुवन सी. तिवारी ने कहा कि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में एक हृदय ही है जिस पर सबसे ज्यादा बोझ पड़ता है। तनाव, थकान, प्रदूषण आदि कई वजहों से खून का आदान-प्रदान करने वाले इस अति महत्वपूर्ण अंग को अपना काम करने में मुश्किल होती है।

डॉ. तिवारी ने बताया कि युवाओं में हृदयाघात और हृदय संबंधी बीमारियों के बढ़ने का प्रमुख कारण धूम्रपान और मशालेदार एवं तली भुनी चीजों का अधिक मात्रा में सेवन करना है। इससे बचने के लिए रेशायुक्त भोजन करना चाहिए और व्यायाम को नियमित दिनचर्या का अंग बनाना अति आवश्यक है।

उन्होंने कहा कि पहले जहां 30 से 40 वर्ष तक के बीच हृदय की समस्याएं आंकी जाती थीं, आज यह 20 वर्ष से कम उम्र के लोगों में भी होने लगी है। ऐसे में हृदय की समस्याओं से बचने का एक ही उपाय है कि लोग खुद अपनी कुछ सामान्य जांच कराएं और हृदय संबंधी सामान्य समस्याओं को भी गंभीरता से लें।

उन्होंने कहा कि अगले पांच से 10 सालों में भारतीय आबादी का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा इससे प्रभावित होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 तक भारत में मौतों और विकलांगता की सबसे बड़ा वजह हृदय से संबंधित रोग ही होंगे।

हृदय के साथ होने वाली छेड़छाड़ का ही नतीजा है कि आज विश्व भर में हृदय रोगियों की संख्या बढ़ गई है। एक अनुमान के अनुसार, भारत में 10 . 2 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में हैं। पूरी दुनिया में हर साल 1 . 73 करोड़ लोगों की मौत इस बीमारी की वजह से हो जाती है और यदि हालातों पर काबू नहीं किया गया तो 2020 तक हर तीसरे व्यक्ति की मौत हृदय रोग से होगी।

चिकित्सकों के मुताबिक जीवनशैली व खान-पान में बदलाव लाकर हृदय रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। इससे बचने के लिए मशालेदार व अधिक तली भुनी चीजों से परहेज करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आजकल लोग अधिकतर समय कार्यालय में सिर्फ बैठकर अपना काम करते हैं। इस स्थिति में शरीर निष्क्रिय जीवनशैली का आदी बन जाता है। आज के युवा कार्यालय में तो बैठे बैठे काफी पीते हैं और फिर घर पर भी रात को देर तक टेलीविजन देखकर सुबह देर से जगते हैं और व्यायाम नहीं करते हैं। ऐसे में हृदय रोगों की आहट आना लाजमी है।

चिकित्सकों की मानें तो मधुमेह और हाइपरटेंशन के मरीजों को शुगर तथा रक्त चाप पर नियंत्रण रखना चाहिए। एक सप्ताह में कम से कम पांच दिन व्यायाम जरुरी है। तंबाकू का सेवन नहीं करना चाहिए। वसायुक्त भोजन का सेवन न करें साथ ही ताजे फल एवं सब्जियों का सेवन करना चाहिए। चिकनाई युक्त पदार्थ नहीं खाना चाहिए। चिकित्सक रचनात्मक और मनोरंजनात्मक कायरें में मन लगने की भी सलाह देते हैं।

बलरामपुर अस्पताल के योग विशेषज्ञ एऩ एल़ यादव कहते हैं कि तनाव के कारण मस्तिष्क से जो रसायन स्रावित होते हैं वे हृदय की पूरी प्रणाली को खराब कर देते हैं। तनाव से उबरने के लिए योग का भी सहारा लिया जा सकता है। हृदय हमारे शरीर का ऐसा अंग है जो लगातार पंप करता है और पूरे शरीर में रक्त प्रवाह को संचालित करता है। प्रतिदिन कम से कम आधे घंटे तक व्यायाम करना हृदय के लिए अच्छा होता है। 

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विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष: विदेशी सैलानियों में अमेरिका, ब्रिटेन का दबदबा

भारत आने वाले विदेशी सैलानियों में अमेरिका और ब्रिटेन के पर्यटकों का दबदबा रहा है। यह तथ्य भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय के 2011 और 2012 के आंकड़ों से उजागर होती है। 27 सितंबर को पूरी दुनिया में विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है और भारत में भी पर्यटन सत्र लगभग इसी समय शुरू होता है, जो अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर, जनवरी और फरवरी भर चलता है। इस दौरान होटलों और पर्यटन उद्योग से जुड़े कारोबार को काफी लाभ होता है।

पिछले कुछ महीने में डॉलर के मुकाबले रुपये में आई गिरावट के कारण अमेरिका तथा यूरोप के पर्यटकों के लिए भारत एक सस्ता गंतव्य बन गया है और इस नाते इस बार शीत ऋतु में देश में विदेशी सैलानियों की संख्या में भारी वृद्धि होने का अनुमान है। मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 में देश में आए विदेशी सैलानियों में अमेरिका का अनुपात 15.81 फीसदी था, जबकि ब्रिटेन का अनुपात 11.98 फीसदी था।

भारत की लगभग गोद में बसा बांग्लादेश अमेरिका और ब्रिटेन के बाद भारत आने वाले विदेशी सैलानियों में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। 2012 में बांग्लादेश का अनुपात 7.41 फीसदी रहा।अमेरिका, ब्रिटेन और बांग्लादेश से 2012 में क्रमश: 10,39,947 पर्यटक, 7,88,170 और 4,87,397 पर्यटक भारत आए थे। तीनों देश 2011 में विदेशी सैलानी भेजने वाले देशों में पहले, दूसरे और तीसरे स्थानों पर रहे थे और इनकी हिस्सेदारी भी लगभग इतनी ही (15.54 फीसदी, 12.65 फीसदी और 7.35 फीसदी) थी।

मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2012 में भारत में विदेशी सैलानी भेजने वाले 15 सबसे बड़े देशों की सूची और उनकी हिस्सेदारी इस प्रकार है : 1. अमेरिका (15.81 फीसदी), 2. ब्रिटेन (11.98 फीसदी), 3. बांग्लादेश (7.41 फीसदी), 4. श्रीलंका (4.51 फीसदी), 5. कनाडा (3.89 फीसदी), 6. जर्मनी (3.87 फीसदी), 7. फ्रांस (3.66 फीसदी), 8. जापान (3.34 फीसदी), 9. आस्ट्रेलिया (3.07 फीसदी), 10. मलेशिया (2.98 फीसदी), 11. रूस (2.70 फीसदी), 12. चीन मुख्य भूमि (2.57 फीसदी), 13. सिंगापुर (2.00 फीसदी), 14. नेपाल (1.91 फीसदी) और 15. कोरिया गणराज्य (1.66 फीसदी)।

2012 में देश के विदेशी सैलानियों में इन 15 देशों का अनुपात कुल 46,94,722 पर्यटकों के साथ 71.37 फीसदी रहा। इस वर्ष देश में कुल 65 लाख, 77 हजार, 745 विदेश सैलानी पहुंचे।महादेशों के मामले में 2012 में भारत आने वाले विदेशी सैलानियों में पश्चिमी यूरोप की हिस्सेदारी सबसे अधिक 18,53,066 पर्यटकों के साथ 28.17 फीसदी रही। दूसरे स्थान पर 12,95,968 पर्यटकों के साथ उत्तरी अमेरिका की हिस्सेदारी 19.70 फीसदी रही। तीसरे स्थान पर 11,71,499 सैलानियों के साथ दक्षिण एशिया की हिस्सेदारी 17.81 फीसदी रही। उपर्युक्त आंकड़ों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि पर्यटन उद्योग के विकास के लिए भारत को किस बाजार को लुभाने की कोशिश करनी चाहिए।

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लता मंगेशकर : आवाज ही पहचान है..

भारत रत्न से विभूषित भारत की 'स्वर कोकिला' लता मंगेशकर का गाया गीत 'नाम गुम जाएगा चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज ही पहचान है गर याद रहे' वास्तव में उनके व्यक्तित्व, कला और अद्वितीय प्रतिभा का परिचायक है। 28 सितंबर को लता जी अपने जीवन के 84 साल पूरे कर रही हैं। उन्होंने फिल्मों में पाश्र्वगायन के अलावा गर फिल्मी गीत भी गाए हैं। 

मध्य प्रदेश के इंदौर में 28 सितंबर 1929 को जन्मीं कुमारी लता दीनानाथ मंगेशकर रंगमंचीय गायक दीनानाथ मंगेशकर और सुधामती की पुत्री हैं। चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी लता को उनके पिता ने पांच साल की उम्र से ही संगीत की तालीम दिलवानी शुरू की थी। 

बहनों आशा, उषा और मीना के साथ संगीत की शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ लता बचपन से ही रंगमंच के क्षेत्र में भी सक्रिय थीं। जब लता सात साल की थीं, तब उनका परिवार मुंबई आ गया, इसलिए उनकी परवरिश मुंबई में हुई।

वर्ष 1942 में दिल का दौरा पड़ने से पिता के देहावासान के बाद लता ने परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ वर्षो तक हिंदी और मराठी फिल्मों में काम किया, जिनमें प्रमुख हैं 'मीरा बाई', 'पहेली मंगलागौर' 'मांझे बाल' 'गजा भाऊ' 'छिमुकला संसार' 'बड़ी मां' 'जीवन यात्रा' और 'छत्रपति शिवाजी'।

लेकिन लता की मंजिल तो गायन और संगीत ही थे। बचपन से ही उन्हें गाने का शौक था और संगीत में उनकी दिलचस्पी थी। लता ने एक बार बातचीत में बीबीसी को बताया था कि जब वह चार-पांच साल की थीं तो किचन में खाना बनाती स्टूल पर खड़े होकर अपनी मां को गाने सुनाया करती थीं। तब तक उनके पिता को उनके गाने के शौक के बारे में पता नहीं था। 

एक बार पिता की अनुपस्थिति में उनके एक शागिर्द को लता एक गीत के सुर गाकर समझा रही थीं, तभी पिता आ गए। पिताजी ने उनकी मां से कहा, "हमारे खुद के घर में गवैया बैठी है और हम बाहर वालों को संगीत सिखा रहे हैं।" अगले दिन पिताजी ने लता को सुबह छह बजे जगाकर तानपुरा थमा दिया।

लता के फिल्मों में पाश्र्वगायन की शुरुआत 1942 में मराठी फिल्म 'कीती हसाल' से हुई, लेकिन दुर्भाग्य से यह गीत फिल्म में शामिल नहीं किया गया। कहते हैं, सफलता की राह आसान नहीं होती। लता को भी सिनेमा जगत में कॅरियर के शुरुआती दिनों में काफी संघर्ष करना पड़ा। उनकी पतली आवाज के कारण शुरुआत में संगीतकार फिल्मों में उनसे गाना गवाने से मना कर देते थे। 

अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर हालांकि धीरे-धीरे उन्हें काम और पहचान दोनों मिलने लगे। 1947 में आई फिल्म 'आपकी सेवा में' में गाए गीत से लता को पहली बार बड़ी सफलता मिली और फिर उन्होंने पीछे मुढ़कर नहीं देखा। 

वर्ष 1949 में गीत 'आएगा आने वाला', 1960 में 'ओ सजना बरखा बहार आई', 1958 में 'आजा रे परदेसी', 1961 में 'इतना न तू मुझसे प्यार बढ़ा', 'अल्लाह तेरो नाम', 'एहसान तेरा होगा मुझ पर' और 1965 में 'ये समां, समां है ये प्यार का' जैसे गीतों के साथ उनके प्रशंसकों और उनकी आवाज के चाहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती गई।

यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी सिनेमा में गायकी का दूसरा नाम लता मंगेशकर है। वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद जब एक कार्यक्रम में लता ने पंडित प्रदीप का लिखा गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गाया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आंखों में आंसू आ गए थे।

भारत सरकार ने लता को पद्म भूषण (1969) और भारत रत्न (2001) से सम्मानित किया। सिनेमा जगत में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार, दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और फिल्म फेयर पुरस्कारों सहित कई अनेकों सम्मानों से नवाजा गया है। 

सुरीली आवाज और सादे व्यक्तित्व के लिए विश्व में पहचानी जाने वाली लता जी आज भी गीत रिकार्डिग के लिए स्टूडियो में प्रवेश करने से पहले चप्पल बाहर उतार कर अंदर जाती हैं।

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यहाँ के जंगलों में विचरण करता था अंगुलिमाल

अंगुलिमाल के बारे में आपने बहुत कुछ सुना होगा लेकिन पहला सवाल तो यही उठता है कि कौन था अंगुलिमाल| अंगुलिमाल बौद्ध कालीन एक दुर्दांत डाकू था जो राजा प्रसेनजित के राज्य श्रावस्ती में निरापद जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। एक डाकू जो बाद मे संत बन गया।

अहिंसक से कैसे बना अंगुलिमाल- 

लगभग ईसा के 500 वर्ष पूर्व कोशल देश की राजधानी श्रावस्ती में एक ब्राह्मण पुत्र के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है।

माता-पिता ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा। अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के बिरुद्ध कर दिया। 

आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उँगलियाँ काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे। अहिंसक गुरु की आज्ञा मान कर हत्यारा बन गया और लोगों की हत्या कर के उनकी उँगलियों को काट कर उनकी माला पहनने लगा। इस प्रकार उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा गया।

भगवान बुद्ध और अंगुलिमाल-

प्राचीनकाल की बात है। मगध देश की जनता में आतंक छाया हुआ था। अँधेरा होते ही लोग घरों से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, कारण था अंगुलिमाल। अंगुलिमाल एक खूँखार डाकू था जो मगध देश के जंगल में रहता था। जो भी राहगीर उस जंगल से गुजरता था, वह उसे रास्ते में लूट लेता था और उसे मारकर उसकी एक उँगली काटकर माला के रूप में अपने गले में पहन लेता था। इसी कारण लोग उसे "अंगुलिमाल" कहते थे। 

एक दिन उस गाँव में महात्मा बुद्ध आए। लोगों ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। महात्मा बुद्ध ने देखा वहाँ के लोगों में कुछ डर-सा समाया हुआ है। महात्मा बुद्ध ने लोगों से इसका कारण जानना चाहा। लोगों ने बताया कि इस डर और आतंक का कारण डाकू अंगुलिमाल है। वह निरपराध राहगीरों की हत्या कर देता है। महात्मा बुद्ध ने मन में निश्चय किया कि उस डाकू से अवश्य मिलना चाहिए।

बुद्ध जंगल में जाने को तैयार हो गए तो गाँव वालों ने उन्हें बहुत रोका क्योंकि वे जानते थे कि अंगुलिमाल के सामने से बच पाना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। लेकिन बुद्ध अत्यंत शांत भाव से जंगल में चले जा रहे थे। तभी पीछे से एक कर्कश आवाज कानों में पड़ी- "ठहर जा, कहाँ जा रहा है?" 

बुद्ध ऐसे चलते रहे मानो कुछ सुना ही नहीं। पीछे से और जोर से आवाज आई-"मैं कहता हूँ ठहर जा।" बुद्ध रुक गए और पीछे पलटकर देखा तो सामने एक खूँखार काला व्यक्ति खड़ा था। लंबा-चौड़ा शरीर, बढ़े हुए बाल, एकदम काला रंग, लंबे-लंबे नाखून, लाल-लाल आँखें, हाथ में तलवार लिए वह बुद्ध को घूर रहा था। उसके गले में उँगलियों की माला लटक रही थी। वह बहुत ही डरावना लग रहा था। 

बुद्ध ने शांत व मधुर स्वर में कहा- "मैं तो ठहर गया। भला तू कब ठहरेगा?"

अंगुलिमाल ने बुद्ध के चेहरे की ओर देखा, उनके चेहरे पर बिलकुल भय नहीं था जबकि जिन लोगों को वह रोकता था, वे भय से थर-थर काँपने लगते थे। अंगुलिमाल बोला- "हे सन्यासी! क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा है? देखो, मैंने कितने लोगों को मारकर उनकी उँगलियों की माला पहन रखी है।" 

बुद्ध बोले- "तुझसे क्या डरना? डरना है तो उससे डरो जो सचमुच ताकतवर है।" अंगुलिमाल जोर से हँसा - 'हे साधु! तुम समझते हो कि मैं ताकतवर नहीं हूँ। मैं तो एक बार में दस-दस लोगों के सिर काट सकता हूँ।' 

बुद्ध बोले - 'यदि तुम सचमुच ताकतवर हो तो जाओ उस पेड़ के दस पत्ते तोड़ लाओ।' अंगुलिमाल ने तुरंत दस पत्ते तोड़े और बोला - 'इसमें क्या है? कहो तो मैं पेड़ ही उखाड़ लाऊँ।' महात्मा बुद्ध ने कहा - 'नहीं, पेड़ उखाड़ने की जरूरत नहीं है। यदि तुम वास्तव में ताकतवर हो तो जाओ इन ‍पत्तियों को पेड़ में जोड़ दो।' अंगुलिमाल क्रोधित हो गया और बोला - 'भला कहीं टूटे हुए पत्ते भी जुड़ सकते हैं।' महात्मा बुद्ध ने कहा - 'तुम जिस चीज को जोड़ नहीं सकते, उसे तोड़ने का अधिकार तुम्हें किसने दिया? 

एक आदमी का सिर जोड़ नहीं सकते तो काटने में क्या बहादुरी है? अंगुलिमाल अवाक रह गया। वह महात्मा बुद्ध की बातों को सुनता रहा। एक अनजानी शक्ति ने उसके हृदय को बदल दिया। उसे लगा कि सचमुच उससे भी ताकतवर कोई है। उसे आत्मग्लानि होने लगी। 

वह महात्मा बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और बोला - 'हे महात्मन! मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं भटक गया था। आप मुझे शरण में ले लीजिए।' भगवान बुद्ध ने उसे अपनी शरण में ले लिया और अपना शिष्य बना लिया। आगे चलकर यही अंगुलिमाल एक बहुत बड़ा साधु हुआ।

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यहाँ दहेज़ में मिलता है कुत्ता और गधा!

अभी तक शादी तो बहुत देखी और सूनी होगी लेकिन आज हम आपको एक ऐसी अनोखी शादी के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे सुनकर आप भी हैरान हो जायेंगे| अभी तक आपने यही सुना होगा की लड़की पक्ष वाले लड़कों वालों को दहेज़ देते हैं लेकिन इस अनोखी शादी में लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले लड़की को दहेज़ देते हैं| और शादी के बाद जब लड़की अपनी ससुराल आती है तो वह उपहार के तौर पर गधा और कुत्ता भी लाती है| इतना सुनकर आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर यह अनोखी शादी होती कहाँ है तो आपको बता दें कि पश्चिमी राजस्थान का खुबसूरत जिला है बाड़मेर| इस जिले में अनेक जातियां बसती हैं इन्हीं जातियों में एक जाति है जोगी| आमतौर पर यह जाति भीख मांगकर अपना गुजारा करती है| आजादी के 65 साल बीत गए जहाँ पूरे देश तरक्की कर रहा है वहीं इस जाति के लोग आज भी सदियों पुरानी परम्पराओं में जकड़े हुए हैं| 

इस जाति में शादी की सदियों पुरानी परम्परा जो आज भी चली आ रही है वह यह कि यहाँ लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले दहेज़ देते हैं इसके अलावा युवक जिस लड़की से शादी करना चाहता है उसे दो साल तक कमाकर खिलाता है यदि वह ऐसा करने में सफल होता है तभी उसकी शादी होती है| 

इस जाति में दहेज़ के रूप में कुत्ता और गधा देने का चलन है। कुत्ता जहां सामान की रखवाली करने के काम आता है और गधा इसलिए ताकि उसका सामान आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाया जा सके। इतना ही नहीं इस जाति की एक और अनोखी परंपरा वह यह कि यहाँ जब सस्त्रियाँ गर्भवती होती हैं तो उसके पति को उसे सियार का मांस खिलाना होता है| फिलहाल यदि इस जाति के लोगों की माने तो उनका कहना है कि यह पुरानी परम्पराएँ धीरे- धीरे समाप्त हो रही है और लोग अन्य व्यवसाय में रूचि ले रहे हैं|

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यहाँ की महिलाएं एक नहीं कई पतियों के साथ करती हैं सम्भोग!

आमतौर पर विवाह चार प्रकार के होते हैं| एकल विवाह, बहु पत्नी विवाह, बहु पति विवाह व समूह विवाह| हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में आज भी बहु पति विवाह का चलन है| यहाँ की महिलाओं के एक से अधिक पति होते हैं| किन्नौर जिले में एक ऐसा स्थान भी है जहाँ पत्नी को पति के मरणोपरांत उसका वियोग सहने का मौका नहीं दिया जाता है| 

किन्नौर के इस क्षेत्र में एक ही स्त्री से एक ही परिवार के तीन चार भाई शादी करते हैं| यहाँ जब कोई भाई अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहा होता है तो वह कमरे के बाहर लगी खूंटे पर अपनी टोपी टांग जाता है ताकि अन्य भाइयों को यह पता चल जाए कि दूसरा भाई अभी पत्नी के साथ सम्भोग कर रहा है|

यदि यहाँ के लोगों की माने तो उनका कहा है कि यह प्रथा इसलिए चली आ रही है क्योंकि अज्ञातवास के दौरान पाँचों पांडवों ने यही समय बिताया था| सर्दी में बर्फबारी की वजह से यहाँ की महिलाएं और पुरुष घर में ही रहते हैं क्योंकि बर्फबारी की वजह से कोई काम नहीं रहता है| इन दिनों इन लोगों के पास बस मौज मस्ती में दिन व रात गुजारने होते हैं इसके अलावा और कोई काम नहीं होता है| महिलाएं सारा दिन पुरुषों के साथ गप्पें मारती हैं और पहेलियां बुझाती हैं। फिर रात वहीं गुजारती हैं। इस प्रथा को घोटुल प्रथा कहते हैं। घोटुल घरों में युवक-युवतियां आपस में शारीरिक संबंध भी कायम करते हैं|

भारत देश पुरुष प्रधान देश माना जाता है लेकिन यहाँ पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं घर की मुखिया होती हैं| इनका काम होता है पति व संतानों की सही ढंग से देखभाल करना| परिवार की सबसे बड़ी स्त्री को गोयने कहा जाता है, जिसके पास घर के भंडार की चाबियां रहती हैं। उसके सबसे बडे पति को गोर्तेस,कहते हैं यानी घर का स्वामी, जिसकी आज्ञा से पूरा परिवार चलता है।

यहाँ की एक और बात खास होती है वह यह कि यहाँ खाने के साथ शराब अनिवार्य होती है| यदि पुरुषों का मन दुखी होता है तो यह शराब और तम्बाकू का सेवन करते हैं वहीं जब महिलाओं को किसी बात को लेकर दुःख होता है तो वह गीत गाती हैं|

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यहाँ मां बनने के बाद होती है शादी..!

अभी तक आपने शादी तो कई तरह की देखि होगी लेकिन आज हाको एक ऐसी अनोखी शादी के बारे में बताने जा रहे हैं| जिसमें संतान होने के बाद होती है लड़की की शादी| यह सुनकर आपको थोड़ा अटपटा जरुर लग रहा होगा कि यह कैसी परम्परा है| लेकिन यह सच है| हिमाचल प्रदेश के कबायली इलाके के किन्नौर में अभी भी विवाह की यह परम्परा प्रचलित है| इस परम्परा को दारोश डब-डब के नाम से जाना जाता है| इस परम्परा के तहत लड़का जिस लड़की को पसंद करता है उसे अपने घर उठा ले जाता है और बच्चा होने के बाद लड़की के घरवालों की रजामंदी से शादी कर लेता है| 

बताते हैं कि इस विवाह में वर एक टोली बनाता है और वह जिस लड़की को पसंद करता है जब लड़की कहीं अकेली मिलती है तो वह उसे अपने घर उठा ले जाता है| वर द्वारा लाइ गई उस युवती की खूब सेवा की जाती है| उसे अच्छे से अच्छा भोजन कराया जाता है| वर के परिवार व रिश्तेदार उस युवती को शादी करने के लिए खूब समझाते हैं| यदि लड़की शादी के लिए रजामंद नहीं होती है तो वह खाना नहीं खाती और मौका पाकर वह भाग जाती है| 

बताते हैं कि जब लड़की अपने घर भाग जाती है तो लड़के वाले उसे मनाने के लिए एक व्यक्ति को उसके घर भेजते हैं| और वह व्यक्ति उस लड़की से क्षमा मांगता है इसके अलावा उसकी इज्जत के तौर पर उसे कुछ पैसे भी देता है| यदि लड़की उसे क्षमा कर देती है तो लड़के वाले उसके माता-पिता को अपने घर बुलाते हैं ताकि विधिवत तरीके से शादी की जा सके| इज्जत स्वीकार करने पर कन्या विवाह से पूर्व ससुराल में आती जाती रहती है। जब उसका पहला बच्चा हो जाता है तो उसकी बड़ी धूम धाम से शादी कर दी जाती है|

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यहाँ बिना दूल्हे के होती है शादियाँ

अभी तक आपने बहुत शादी देखी और सुनी होगी जिसमें एक दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर आता है और अपनी राजकुमारी को ले जाता है| क्या कभी आपने कोई ऐसी बारात देखी है जिसमें दूल्हा न हो? शायद नहीं! पर हिमाचल प्रदेश के दुर्गम कबायली जिला लाहुल स्पीती में शादी की रस्म ही अलग है| यहाँ कई गाँवों में बारात में दूल्हा नहीं बल्कि उसकी बहन कुछ निशानी लेकर जाती है और दूल्हन को अपने घर विदा कराकर लाती है| 

शीत नारुस्थल के नाम से जाने जाने वाली इस घाटी के जिला मुख्यालय केलोंग सहित गाहर घाटी के बिलिंग, युरिनाथ, रौरिक, छिक्का, जिस्पा अदि कई ऐसे गांव हैं जहां बैंड बाजा बारात तो होती है पर दूल्हा नहीं होता है यहाँ दूल्हे के स्थान पर बहन जाती है|

घाटी की मियाद, तिणन, गाहर अदि घाटियों की शादी की रस्में मेल भी खाती हैं। इस घाटी में विवाह की सबसे पुराणी रसम गंधार्भ विवाह है। यहाँ अपनी पसंदीदा लड़की उठा कर ले जाने की परंपरा आज भी प्रचलित है| वर द्वारा कन्या को उठा ले जाने के बाद वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष के घर मक्खन लगी शराब लेकर जाते हैं यदि कन्या पक्ष के लोग उस शराब की बोतल का ढक्कन खोल देते हैं तो समझो रिश्ता पक्का यदि नहीं तो रिश्ता नामंजूर माना जाता है| घाटी में इस रिश्ते की मंजूरी को कई साल भी लग जाते हैं और ऐसी शादियों के निर्वहन में बच्चों ही नहीं बल्कि पोतो के शरीक होने के भी कई प्रमाण मिलते हैं।

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'यहाँ लड़कियों का होता है उपनयन संस्कार, पहनती हैं जनेऊ'

महिलाओं के लिए नैतिकता के पैमाने गढ़े जाने के बीच बिहार के एक गांव की महिलाओं ने परम्पराओं और पुरुषवादी मानसिकता को बदलने वाला उदाहरण पेश किया है। राजधानी पटना से 150 किलोमीटर दूर बक्सर जिले के मैनिया गांव में पिछले तीन दशक से लड़कियों का उपनयन संस्कार कराया जाता है जो कि सामान्यत: ब्राह्ण लड़कों के बीच होता है। यहां की लड़कियां लड़कों की तरह धागे से बने जनेऊ भी पहनती हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता सिद्धेश्वर शर्मा ने कहा, "तीन दशक से चली आ रही यह रोचक कहानी है। विश्वनाथ सिंह ने 1972 में मैनिया में लड़कियों के लिए उस वक्त एक स्कूल की स्थापना की थी जब महिलाओं को स्कूल जाने से रोका जा रहा था। उन्होंने अपनी चार बेटियों को स्कूल भेजना शुरू किया, इससे दूसरी लड़कियां भी प्रेरित हुईं। इसके बाद विश्वनाथ ने अपनी बड़ी बेटी का जनेऊ संस्कार कराया। इसके बाद इसका अनुसरण दूसरों ने भी किया और अब यह पूरे गांव में होता है।"

इस परम्परा की शुरुआत करने वाली मीरा कुमारी अपनी तीन बहनों के साथ अभी भी जनेऊ पहनती हैं। पेशे से शिक्षक मीरा ने कहा, "जनेऊ पहनना इस बात का प्रतीक है कि हम पुरुषों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं।"शर्मा के मुताबिक इस परम्परा ने लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरुकता पैदा करने के लिए गांव की चर्चित कर दिया है।

उनके मुताबिक गांव की 24 से अधिक लड़कियां जनेऊ पहन कर स्कूल आती हैं। शर्मा ने कहा, "महिलाओं की इस परम्परा ने गांव के पुरुषों की मानसिकता बदली है और अब वे महिलाओं के साथ भेदभाव की हिम्मत नहीं करते।"

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यहाँ माहवारी आने पर घर से बाहर निकाल दी जाती हैं महिलाएं!

आधुनिकता के इस दौर में हिमाचल प्रदेश के कबायली क्षेत्र में आज भी महिलाएं वह तीन रातें बड़े कष्ट से गुजारती हैं जब वह मासिक धर्म से गुजर रही होती हैं| इन दिनों महिलाएं घर के बाहर गौशाला में घास के बिछौने व फटे-पुराने कम्बल में रातें काटती हैं अब चाहे बर्फबारी हो या फिर आंधी तूफ़ान ही क्यों न आए| यहाँ एक ऐसा भी गाँव है जहाँ माहवारी आने पर महिलाओं को गाँव से बाहर निकाल दिया जाता है और उन्हें इन दिनों बाहर ही रहना पड़ता है| 

मिली जानकारी के मुताबिक, यहाँ के जिला मंडी की चौहारघाटी, स्नोर बदार, चच्योट, कमरूघाटी, जंजैहली, करसोग, कांगड़ा के छोटा व बड़ा भंगाल में आज भी महिलाएं अछूत होने का दंड भुगतती हैं| 

बताते हैं कि यहाँ प्रथम रजस्वला से लेकर तृतीय रजस्वला तक महिलाएं घर के बर्तन से लेकर घर के चूल्हे चौके तक को हाथ नहीं लगा सकती हैं| इन दिनों उन्हें घर के बाहर ही अलग बर्तन में खाना दिया जाता है| मान्यता है कि माहवारी के दिनों में महिला किसी देव स्थल घर के चूल्हे व चौके से छू गई तो घर से देवताओं का वास उठ जाएगा कई प्रकार के क्लेश उत्पन्न होंगे। इसके अलावा उन्हें रात गुजारने के लिए घास के बनी दरी व फटा-पुराना कम्बल दिया जाता है| माहवारी के तीसरे दिन उस महिला को घर से बाहर ही एकांत स्थान पर नहलाकर पंचामृत, पिलाकर घर में प्रवेश दिया जाता है। 

इन स्थानों पर इतना ही काफी है कि महिलाओं को गौशाला में रहना पड़ता है लेकिन कुल्लू के मलाणा में महिलाओं को गाँव से ही निकाल दिया जाता है| इतना ही नहीं किसी औरत की प्रसूति होने पर तो उसे तेरह दिनों तक गांव से बाहर रखा जाता है।

शास्त्रों में भी कहा गया है कि ब्रम्हा जी ने कहा, स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा। उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी।

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