क्रांतिकारी पत्रकार थे गणेश शंकर विद्यार्थी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन पत्रकारों ने अपनी लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की जंग लड़ी थी उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अग्रगण्य है। आजादी की क्रांतिकारी धारा के इस पैरोकार ने अपने धारदार लेखन से तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता को बेनकाब किया और इस जुर्म के लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ने वाले वह संभवत: पहले पत्रकार थे। उनका जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उनके ननिहाल प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू व फारसी के जानकार थे। विद्यार्थी जी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह एंट्रेंस तक ही पढ़ सके, लेकिन उनका स्वतंत्र अध्ययन जारी रहा। विद्यार्थी जी ने शिक्षा ग्रहण करने के बाद नौकरी शुरू की, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों से नहीं पटने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पहली नौकरी छोड़ने के बाद विद्यार्थी जी ने कानपुर में करेंसी आफिस में नौकरी की, लेकिन यहां भी अंग्रेज अधिकारियों से उनकी नहीं पटी। इस नौकरी को छोड़ने के बाद वह अध्यापक हो गए।

महावीर प्रसाद द्विवेदी उनकी योग्यता के कायल थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' में बुला लिया। उनकी रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। एक ही वर्ष के बाद वह 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गए और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। सन 1907 से 1912 तक का उनका जीवन संकट में रहा। उन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी संपादन किया था। अक्टूबर 1913 में वह 'प्रताप' (साप्ताहिक) के संपादक हुए। उन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज बुलंद की।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों द्वारा प्रजा पर किए गए अत्याचारों का तीव्र विरोध किया। पत्रकारिता के साथ-साथ गणेश शंकर विद्यार्थी की साहित्य में भी अभिरुचि थी। उनकी रचनाएं 'सरस्वती', 'कर्मयोगी', 'स्वराज्य', 'हितवार्ता' में छपती रहीं। 'शेखचिल्ली की कहानियां' उन्हीं की देन है। उनके संपादन में 'प्रताप' भारत की आजादी की लड़ाई का मुखपत्र साबित हुआ। सरदार भगत सिंह को 'प्रताप' से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा 'प्रताप' में छापी, क्रांतिकारियों के विचार व लेख 'प्रताप' में निरंतर छपते रहते थे।

महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरुआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वह स्वभाव से उग्रवादी विचारों के समर्थक थे। विद्यार्थी जी के 'प्रताप' में लिखे अग्रलेखों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना लगाया और 22 अगस्त 1918 में 'प्रताप' में प्रकाशित नानक सिंह की 'सौदा ए वतन' नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व 'प्रताप' का प्रकाशन बंद करवा दिया।

आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर इसकी की शुरुआत हो गई। 'प्रताप' के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता 'प्रताप' को आर्थिक सहयोग देने के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी। जनता के सहयोग से आर्थिक संकट हल हो जाने पर साप्ताहिक 'प्रताप' का प्रकाशन 23 नवंबर 1990 से दैनिक समाचार पत्र के रूप में किया जाने लगा। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से इसकी पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन दंडाधिकारी मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में 'प्रताप' को 'बदनाम पत्र' की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली। कानपुर के हिंदू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। उनका पार्थिव शरीर अस्पताल में पड़े शवों के बीच मिला था। 

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गीतों को नया आयाम देने वाले गायक थे मन्ना डे

महान पाश्र्व गायक मन्ना डे की शास्त्रीय संगीत में रुचि और पसंद उनके फिल्मी करियर के लिए अभिशाप भी साबित हो सकती थी, लेकिन दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित डे को उनकी बहुमुखी और प्रेम गीतों की मर्दानी शैली की गायिकी के लिए जाना जाएगा। 

डे ने अपने लचीले और बहुआयामी गायन का परिचय 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम', 'चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे', 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय' और 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे' जैसे मशहूर और लोकप्रिय गानों में दिया।

उनकी बहुमुखी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाने का श्रेय संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन को भी जाता है, जिन्होंने उनसे अलग-अलग शैली के गाने गवाए।

शुरुआत में शास्त्रीय गायक के रूप में पहचाने जाने वाले डे को अपने समकालीन गायकों, पाश्र्व गायकों जितनी शोहरत और पहचान नहीं मिली, इसके बावजूद उन्होंने अपने पूरे करियर में 3,500 से ज्यादा गाने गाए। कला और संस्कृति के क्षेत्र में उन्हें कई सारे सम्मानों से भी नवाजा गया।

डे ने अपनी जीवनी 'जीबोनेर जोलशाघोरे' अंग्रेजी में 'मेमोरीज कम्स अलाईव' में संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन का आभार जताते हुए लिखा है, "उन्हें विश्वास था कि रोमांटिक गीतों में मेरी मर्दाना आवाज श्रोताओं का ध्यान खींचने और उनका दिल जीतने में कामयाब होगी।" 

उन्होंने लिखा है, "मैं खास तौर से शंकरजी का आभारी हूं। उनकी सरपरस्ती न मिलती, तो शायद मैं कामयाबी की उस ऊंचाई को नहीं छू पाता। वही एक व्यक्ति थे, जिन्हें पता था कि कैसे मेरे अंदर से बेहतर गायक को बाहर लाना है।"

मन्ना डे शंकर-जयकिशन के आभारी होने के साथ अभिनेता राज कपूर के भी शुक्रगुजार हैं, जिन्हें महसूस हुआ कि उनकी गायकी और आवाज में सचमुच दम है।

डे ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा था, "मैं राज कपूर को फिल्म क्षेत्र का एक आइकन मानता था। वही हैं, जिन्होंने मुझे 'प्यार हुआ, इकरार हुआ' और 'ये रात भीगी भीगी' जैसे गीत गाने का अवसर दिया।"

उन्होंने कहा, "लोगों को लगता था कि मन्ना डे और रोमांटिक गाने, असंभव है। लेकिन मैंने यह भी साबित कर के दिखाया।"

शंकर-जयकिशन, मन्ना डे और राज कपूर की टीम ने कई सारे मशहूर और लोकप्रिय गीत दिए हैं। इनमें 'तेरे बिना आग ये चांदनी', 'मुड़ मुड़ के न देख' 'ऐ भाई जरा देख के चलो' और 'यशोमती मईया से बोले नंदलाला' कुछ प्रमुख गीत हैं।

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'अनुशासन के कड़े पर नर्म दिल थे मन्ना डे'

महान पाश्र्व गायक मन्ना डे के करीबी लोगों को कहना है कि वह ज्ञान को तलाशने वाले, साहसिक व्यक्तित्व वाले और बेहद सख्त अनुशासन वाले व्यक्ति थे। मन्ना डे का गुरुवार तड़के बेंगलुरू के एक अस्पताल में निधन हो गया। 94 साल के डे लंबे समय से बीमार थे। वाइलिन वादक दुर्बादल चटर्जी मन्ना डे के साथ बिताए अपने चार दशकों को याद करते हुए कहते हैं, "वह अपनी जड़ों को नहीं भूले थे। बाहर से सख्त होने के बावजूद वह अंदर से उतने ही नर्म दिल इंसान थे। मछली पकड़ना उनका प्रिय शौक था।"

चटर्जी ने बताया, "उनके बारे में कई लोगों को गलतफहमी थी कि वह बेहद सख्त और रूखे व्यवहार वाले हैं। असल में तो वह अंदर से बेहद नर्म दिल इंसान थे। यदि वह किसी को पसंद करते तो उसके कायल हो जाते और यदि नापसंद करते तो सख्त रहते। वह अजनबियों से घुलते-मिलते नहीं थे।" चटर्जी, मन्ना डे के बारे में एक मशहूर किस्सा बताते हैं, "एक बार हम उनके पुराने घर में बैठे थे। वह हारमोनियम लेकर गा रहे थे और मैं उनके सुरों को लिखता जा रहा था। अचानक एक लड़की दरवाजा खोलकर अंदर आई। मन्ना डे ने बिल्कुल रूखाई और सख्ती से कहा कि वह व्यस्त हैं और उसे वहां से जाने को कहा। लेकिन वह लड़की थोड़ी देर बाद फिर वहीं नजर आई।"

उन्होंने आगे बताया, "इस बार लड़की ने आग्रह से पूछा कि क्या मन्ना डे का घर यही है। मन्ना डे ने दो टूक शब्दों में पूछा कि वह क्यों आई है, वह उनकी बहुत बड़ी प्रशंसक थी और एक बार उनके चरण स्पर्श करना चाहती थी। यह सुनकर डे नर्म पड़ गए और उस लड़की को अंदर आने दिया। वह बेहद शालीन थे।" मन्ना डे ने अपने संगीत करियर में हिंदी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, मलयालम, कन्नड़, असमी फिल्मों में पाश्र्व गायक के रूप में अपनी आवाज दी। उन्हें भारतीय क्षेत्रीय संगीत से बेहद प्रेम था, लेकिन पारंपरिक संगीत, सुर और राग के साथ आधुनिकता का मिश्रण भी उन्हें स्वीकार्य था।

चटर्जी ने कहा, "वह कोई भी नया सुर, नया राग, नई बोली बहुत जल्दी सीखते थे, ऐसा नहीं होता तो कई सारी भाषाओं में उनके गीत नहीं होते।" मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मुकेश और हेमंत मुखोपाद्ययाय जैसे गायकों के समकालीन मन्ना डे ने हमेशा अपनी गायकी के स्तर को बनाए रखा। चटर्जी बताते हैं कि मन्ना सिर्फ काम और संगीत के क्षेत्र में ही अनुशासनप्रिय नहीं थे बल्कि निजी जिंदगी में भी वह काम और समय के बेहद पाबंद थे। वह रोज सुबह पांच बजे उठते थे, नित्यकर्म से निबटकर व्यायाम के लिए जाते थे, वापस आकर सुबह की चाय बनाते थे और फिर अपनी पत्नी को जगाते थे।
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यूकेलिप्टस की पत्तियां बताती हैं जमीन में दबे सोने का राज

भारत में जहां एक संत के सपने के आधार पर जमीन में दबे सोने के खजाने की तलाश की जा रही है, वहीं आस्ट्रेलिया में कुछ पेड़ों की पत्तियां जमीन में दबे खजाने की पता बताती हैं। इन वृक्षों ने सदियों पुरानी उस कहावत को भी झुठला दिया है, जिसमें कहा गया है कि रुपया पेड़ों पर नहीं उगता। आस्ट्रेलिया के पश्चिमी हिस्से में कालगूर्ली क्षेत्र में युकेलिप्टस के कुछ ऐसे वृक्ष मिले हैं जिनकी पत्तियों में अत्यंत बारीक सोने के कण पाए गए।

आस्ट्रेलिया के एक समाचार पत्र 'द वेस्ट आस्ट्रेलियन' में बुधवार को प्रकाशित रपट के अनुसार, पश्चिमी आस्ट्रेलिया के कालगूर्ली क्षेत्र में यूकेलिप्टस की पत्तियां जमीन के भीतर दबे सोने का पता बताती हैं। समाचार पत्र के अनुसार इस क्षेत्र में जमीन के नीचे दबे सोने के कणों को ये वृक्ष अपनी जड़ों के जरिए पत्तियों एवं अन्य हिस्सों तक पहुंचा देते हैं।

इस प्रकार इस क्षेत्र में यदि किसी वृक्ष की पत्तियों में सोने के कण दिखाई देते हैं, तो समझ लिया जाता है कि वहां जमीन के नीचे सोने की खान होगी। सीएसआईआरओ के वैज्ञानिकों ने इसका पता लगाया और इससे संबंधित शोध पत्र विज्ञान शोध पत्रिका 'नेचर कम्यूनिकेशंस' के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। शोध पत्र में मुख्य शोधकर्ता एवं भूरसायनविद मेल लिंटर ने कहा है, "सुनहरी पत्तियों से जमीन के नीचे सोने के अमूल्य खजाने का पता लग सकता है।"

लिंटन ने आगे कहा है, "इनमें से कुछ वृक्षों की जड़ें जमीन में बहुत गहराई तक गई हुई हैं, तथा हमारे लिए जमीन के भीतर दबे खजाने के लिए खिड़की की तरह काम करती हैं।" समाचार पत्र के अनुसार, इस शोध के बाद पारंपरिक तरीके से ड्रीलिंग द्वारा जमीन के अंदर सोने का पता लगाने की बजाय पत्तियों के परीक्षण द्वारा यह कार्य काफी किफायती हो जाएगा। इस तकनीक से सोने के अलावा जमीन में दबे अन्य धातुओं का भी पता लगाया जा सकता है।
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उप्र में पिछड़ों को लुभाने की सियासत हुई तेज

वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव का समय जैसे जैसे नजदीक आ रहा है वैसे वैसे विभिन्न राजनीतिक दलों ने सियासी दांव चलना शुरू कर दिया है। सूबे की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार ने जहां पिछड़ों को हक दिलाने के नाम पर रथयात्राएं निकालने का निर्णय लिया है वहीं विपक्षी दलों ने सपा पर पिछड़ों को गुमराह करने का आरोप लगाया है।

भाजपा ने सपा की मंशा पर सवाल खड़ा करते हुए कहा है कि सपा यह बताए कि जिन 17 जातियों के नाम पर वह अधिकार यात्रा और सामाजिक न्याय यात्रा निकालने जा रही है, उनके लिए क्या कदम उठाए हैं। भाजपा के प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा, "आरक्षण के संदर्भ में उच्च न्यायालय ने आरक्षण की व्यवस्था को लेकर अपनी राय रखी और सरकार से अपेक्षा थी कि सरकार उन परिस्थितियों पर विचार करे जिनमें आरक्षण से वंचित रह गए लोगों को पहले आरक्षण का लाभ मिले इसकी व्यवस्था की जाए।"

पाठक ने कहा कि राजनाथ सिंह के कार्यकाल के दौरान समाज में आरक्षण पाने से वंचित पिछड़े तबके के लोगों को आरक्षण का समुचित लाभ मिल पाए, इसके लिए समाजिक न्याय समिति का गठन किया गया। समाजिक न्याय समिति की संस्तुतियों के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था से आरक्षण की मूल अवधारणा को बल मिलता और सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों का जीवन स्तर उठाने में सहायता मिलती।

उन्होंने कहा, "राजनीतिक स्वार्थो के नाते सामाजिक न्याय समिति की संस्तुतियों को लागू करने से बचती सरकारों ने आरक्षण के नाम पर राजनीति तो खूब की, पर जब हिस्सेदारी देने की बात आती है तो कहीं न कहीं आश्चर्यजनक चुप्पी छा जाती है।"

बकौल पाठक जिन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की वकालत करते हुए समाजवादी पार्टी यात्राएं और रैलियों का आयोजन करने जा रही है। अखिलेश सरकार यह क्यों नहीं बताती कि अपने स्तर से इन जातियों का जीवन स्तर उठाने के लिए क्या प्रयास किए हैं?

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर ने कहा कि सपा सीधतौर पर इन 17 जातियों को गुमराह करने का काम कर रही है। सपा यह अच्छी तरह से जानती है कि यह उसके वश की बात नहीं है। पिछड़ी जातियों को गुमराह करने के लिए यात्राओं के नाम पर सपा नौटंकी करने जा रही है।

उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव से पहले पिछड़ों को जोड़ने की मुहिम के तहत ही सपा मुख्यालय से 24 अक्टूबर को 17 पिछड़ी जातियों को उनका अधिकार दिलाने के लिए अधिकार यात्रा और सामाजिक न्याय यात्रा का आगाज किया जाएगा। दोनों यात्राएं 29 अक्टूबर को आजमगढ़ में होने वाली रैली स्थल पर जाकर समाप्त होंगी।

यात्राओं के बारे में सपा के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के अध्यक्ष नरेश उत्तम ने बताया कि सूबे में पिछड़ी जातियों की आबादी 60 फीसदी है, लेकिन उन्हें 27 फीसदी आरक्षण तक ही सीमित कर दिया गया है। अधिकांश पिछड़ी आबादी आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से बहुत कमजोर हैं। पिछड़ों को जागृत करने के लिए ही सामाजिक न्याय यात्रा और 17 पिछड़ी जातियों की अधिकार यात्रा निकाली जा रही है।

इधर, राष्ट्रीय लोकदल के प्रदेश अध्यक्ष मुन्ना सिंह चौहान ने इसे सपा सरकार का लॉलीपाप करार दिया। चौहान ने कहा, सपा 17 पिछड़ी जातियों को को उसी तरह का लालीपॉप दे रही है, जिस तरह उसने विधानसभा चुनाव से पहले मुसलमानों को दिया था। चौहान ने कहा कि यह सपा भी जानती है कि वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती है। विधानसभा चुनाव से पहले उसने मुसलमानों से वादा किया था कि सरकार बनी तो 18 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा, नतीजा सबके सामने है। वे पिछड़ों को बेवकूफ बनाना चाहते हैं।
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मोदी की झांसी रैली को मप्र में भुनाने की कोशिश

उत्तर प्रदेश के झांसी में होने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली के जरिए झांसी से सटे मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में उत्साह पैदा करने की कोशिश की जा रही है। राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मोदी की इस रैली को पार्टी के लिए अहम माना जा रहा है, और मप्र भाजपा इस रैली को भुनाने की पूरी कोशिश में है।

भाजपा के मिशन-2014 के तहत 25 अक्टूबर को मोदी उप्र के झांसी में आमसभा को संबोधित करने वाले हैं। प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद मोदी का यह पहला बुंदेलखंड प्रवास है। मोदी की इस रैली को लेकर सीमावर्ती मप्र के भाजपा कार्यकर्ता भी काफी उत्साहित हैं।

झांसी की भौगौलिक स्थिति देखें तो वह तीन तरफ से मप्र से घिरा हुआ है। मप्र के दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर व शिवपुरी जिलों की सीमाएं झांसी से जुड़ी हुई हैं। यही कारण है कि झांसी में होने वाली मोदी की रैली में इन चारों जिलों के भाजपा कार्यकतरओ में उत्साह है और वे इस रैली में बड़ी संख्या मंे पहुंचने की तैयारी में हैं।

झांसी से जुड़े इन चारों जिलों की कुल आठ विधानसभा सीटों में से मात्र तीन सीट ही भाजपा के खाते में है, इसलिए मोदी की इस रैली के जरिए शेष क्षेत्रों में भाजपा का महौल बनाने की कोशिश की जा रही है। यही कारण है कि इस रैली में मप्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी पूरा महत्व दिया जा रहा है।

मप्र के बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष और पूर्व विधायक उमेश शुक्ला भी मानते हैं कि मोदी की यह रैली भाजपा के लिए लाभदायक होगी। शुक्ला ने कहा कि इस रैली को लेकर बुंदेलखंड के कार्यकतरओ में काफी उत्साह है, और निश्चय ही इसका लाभ आगामी विधानसभा चुनाव में मिलेगा।मोदी की इस रैली का कार्यकर्ताओं से इतर मतदाताओं पर कितना असर होता है, इसका आकलन आसान नहीं है, क्योंकि सीमावर्ती मप्र में भाजपा की स्थिति कभी भी ज्यादा अच्छी नहीं रही है।
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दीपावली पर सूना रहेगा आतिशबाजी का बाजार?

दीपावली में आतिशबाजी न हो, ऐसा तो हो नहीं सकता, मगर कहा जा रहा है कि इस वर्ष दीपावली पर आतिशबाजी का बाजार सूना रहने के आसार हैं या यूं कहें कि आतिशबाजी का शौक इस बार महंगा पड़ सकता है। इसकी वजह पिछले वर्ष की अपेक्षा इस साल आतिशबाजी के दामों में 50 से 60 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी है।

दरअसल, तमिलनाडु के शिवकाशी में पिछले कुछ वर्षो में हुए हादसों के बाद परिस्थितियां भी बदल गई हैं और नियम-कानून भी सख्त हो गए हैं। दूसरी बात कि चीनी पटाखों पर अब लोगों का विश्वास भी कम हो गया है, क्योंकि ज्यादातर चीनी पटाखे सही नहीं होते और उनसे खतरा भी बना रहता है। देशी पटाखों में खतरा अधिक होने की वजह से जिला प्रशासन ने तेज आवाज के पटाखे बनाने और बेचने पर पहले ही रोक लगा दी है। आपूर्ति की कमी और महंगाई के कारण थोक व्यवसायी भी अपना लाभ जोड़कर चल रहे हैं। मतलब साफ है कि पिछले वर्ष जो लोग एक हजार रुपये का पटाखा जलाते थे, उन्हें इस वर्ष वही पटाखा 1500 से 1600 रुपये में मिलेगा। 10 रुपये तक के पटाखे काफी खराब गुणवत्ता के मिलेंगे।

थोक व्यवसायियों की मानें तो 50 रुपये से नीचे अच्छा पटाखा मिलना आसान नहीं होगा। आतिशबाजी व्यापार कल्याण संघ के अध्यक्ष अखिलेश गुप्ता का कहना है कि तमिलनाडु के शिवकाशी में बनने वाले पटाखे ही पूरे देश में सप्लाई होते हैं। हाल के कुछ वर्षो में शिवकाशी में हुए हादसों के बाद से वहां भी आतिशबाजी का कारोबार काफी कम हो गया है। उन्होंने कहा कि नियम-कानून भी इतने सख्त हो गए हैं कि तेज आवाज के पटाखों के अलावा अधिक बारूद वाले पटाखे बनाने पर रोक लगा दी गई है। ऊपर से महंगाई और नक्सली इलाकों में बारूद की बढ़ती खपत के अंदेशे के चलते भी प्रशासन दुकानदारों पर निगरानी रख रहा है। 

गुप्ता ने कहा कि पटाखों में लगने वाले कागज सहित अन्य कच्चा माल भी अब दोगुना महंगे हो गए हैं। दूसरी तरफ इस बार तमिलनाडु में मानसून भी काफी देर से आया, और वहां अब भी काफी बारिश हो रही है। बने हुए पटाखे सूख भी नहीं पाए हैं। ऊपर से महंगाई ने आतिशबाजी बाजार की कमर तोड़ दी है। थोक व्यवसायियों को पहले से आर्डर देने के बावजूद कम मात्रा में ही आतिशबाजी मिल पा रही है।

कच्चा माल महंगा होने के कारण भी आतिशबाजी के दाम बढ़े हैं। संगठन के पदाधिकारियों का कहना है कि वह पूरी कोशिश कर रहा है कि राजधानी के लोगों को हर तरह का पटाखा उपलब्ध हो, लेकिन इस बार व्यापारी दाम से समझौता नहीं कर पाएंगे। तय दाम पर ही पटाखा मिलेगा। 

छोटे व्यापारियों को भी पहले से ही बता दिया गया है कि आपूर्ति की कमी के कारण उन्हें भी तय मात्रा में ही आतिशबाजी दी जाएगी। तेज आवाज की अपेक्षा इस बार कम आवाज और फुलझड़ी वाले पटाखों की बिक्री को वरीयता दी जाएगी। अखिलेश गुप्ता बताते हैं कि जनपद में बनने वाले पटाखों से ही पूरी आपूर्ति कर पाना संभव नहीं होगा। जनपद के अलावा आस-पास के जनपदों के फुटकर खरीदार भी राजधानी से ही पटाखे ले जाते हैं। इसलिए इस बार कानपुर के बने हुए ब्रांडेड पटाखे भी काफी मात्रा में मंगाए गए हैं। चीनी पटाखे भी बाजार में अब तक नहीं आ पाया है।

पटाखों के थोक व्यापारी बताते हैं कि चीनी पटाखों में लाभ कम होने के कारण भारतीय व्यापारियों ने उसे बेचने से तौबा कर ली है। दिल्ली और मुबंई से कंटेनर के माध्यम से आने वाला चीनी पटाखा इस बार राजधानी के बाजार में नहीं दिखेगा। इस समय पूरे प्रदेश में राजधानी का आतिशबाजी बाजार सबसे बड़ा बाजार है। आतिशबाजी व्यापारी कल्याण संघ के पदाधिकारियों का कहना है कि इस समय थोक के सबसे बड़े व्यापारी राजधानी में हैं। जनपद में कुल 46 थोक व्यापारियों के पास पटाखों की बिक्री करने का लाइसेंस है।
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सपा को मोदी की रैली से ज्यादा भीड़ जुटाने की फिक्र

आगामी 29 अक्टूबर को आजमगढ़ में रैली के जरिए लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत करने जा रही समाजवादी पार्टी (सपा) के सामने इस रैली में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की कानपुर रैली से ज्यादा भीड़ जुटाने की चुनौती है, क्योंकि सपा की इस रैली की तुलना मोदी की कानपुर रैली से होगी। 

कानपुर में 19 अक्टूबर को मोदी की रैली के जरिए भाजपा ने उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान का आगाज किया। मोदी की रैली में दो लाख से ज्यादा भीड़ जुटी थी। अब सपा आजमगढ़ से उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव प्रचार की शुरुआत करने जा रही है। आजमगढ़ रैली की तुलना मोदी की कानपुर रैली से होगी। ऐसे में सपा नेतृत्व चाहता है कि इस रैली में भीड़ मोदी की रैली से कम न हो।

शायद इसी चिंता में सोमवार को सपा राज्य कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी नेताओं को रैली में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने के निर्देश दे दिए गए हैं। समाजवादी पार्टी के राज्य कार्यकारिणी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि पूर्वाचल से ताल्लुक रखने वाले मंत्रियों और आजमगढ़ व आस-पास के जिलों के विधायकों को अपने अपने क्षेत्र से लोगों को लाकर रैली में भीड़ जुटाने को कहा गया है। 

उन्होंने कहा कि सपा नेतृत्व को लगता है में मोदी की रैली से अगर तीन लाख लाख से ज्यादा भीड़ जुटेगी तो इससे कार्यकर्ताओं और नेताओं में जोश का संचार होगा। आजमगढ़ रैली को सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव संबोधित करेंगे।

माना जाता है कि किसी नेता की रैली में भारी भीड़ जुटने से उसकी राजनीतिक हैसियत और लोकप्रियता का अंदाजा तो लगता ही है साथ ही भारी भीड़ से पार्टी के पक्ष में हवा बनती है। सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि बीते विधानसभा चुनाव में भी सपा ने आजमगढ़ में रैली के जरिए चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत थी। रैली में ऐतिहासिक भीड़ जुटी थी और पार्टी को चुनाव में विजयश्री मिली थी। यही हाल आगामी लोकसभा चुनाव में भी होगा।

चौधरी ने कहा कि रही बात आगामी आजमगढ़ रैली की मोदी की कानपुर रैली की तुलना से की तो मोदी की रैली में आई भीड़ को पैसे देकर लाया गया था, लेकिन सपा की रैली में मजदूर, किसान, युवा और महिलाएं सभी अपनी खुशी से आएंगे। गरीबों, किसानों और युवाओं के बीच मुलायम सिंह यादव से ज्यादा लोकप्रिय कोई नहीं है।

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11 साल की उम्र में शोभन सरकार को हो गया था ‘वैराग्य’!

उन्नाव जिले के डौंड़ियाखेड़ा गांव में राजा राव रामबक्श सिंह के किले में सोने खजाना होने का सपना देखने वाले संत शोभन सरकार को 11 साल की उम्र में ही ‘वैराग्य’ उत्पनन हो गया था और वह अपना घर त्याग दिए थे।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) जिस संत के सपने को सच मानकर किले में सोने का दबा खजाना खोज रही है, उनके बारे में डौंड़ियाखेड़ा गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि करीब 38 साल पहले इस गांव में रघुनंदन दास नाम के संत हुआ करते थे। समाधि लेते समय इस संत ने गांव वालों से कुछ दिन बाद ‘चमत्कारी बालक’ के आने की बात कही थी और 16 साल की उम्र का बालक संत शोभन सरकार के रूप में आ गया था।

गांव के बुजुर्ग मकसूदन बताते हैं कि 65 वर्षीय संत शोभन सरकार का जन्म कानपुर देहात के शुक्लन पुरवा गांव में हुआ था, इनके पिता का नाम कैलाशनाथ तिवारी था।’ वह बताते हैं कि ‘संत शोभन सरकार का असली नाम ‘परमहंस स्वामी विरक्तानंद’ है, लेकिन इस इलाके में उन्हें ‘शोभन सरकार’ के नाम से सोहरत मिली है। 

इस बुजुर्ग का यह भी मानना है कि ‘संत त्रिकाल दर्शी हैं, उन्होंने सोने के खजाना का सपना देखा है तो सच साबित होगा।’ गांव के एक अन्य बुजुर्ग मोहन बाबा का कहना है कि ‘शोभन सरकार को 11 साल की उम्र में ‘वैराग्य’ उत्पन्न हो गया था और उन्होंने अपना घर त्याग दिया था।’ 

यह बुजुर्ग इस संत की वेषभूषा के बारे में कहते हैं कि ‘किले से करीब दो किलोमीटर दूर बने अपने बक्सर आश्रम में ही ज्यादातर रहते हैं और तन में ‘लाल लंगोटी’ व सिर में ‘साफा’ बांधते हैं।’ इनका कहना है कि ‘संत रघुनंदन दास की भविष्यवाणी याद कर गांव वाले उनसे यहीं रुकने का आग्रह किया था, तब वह गंगा किनारे आश्रम बनाकर ठहर गए।’

डौंड़ियाखेड़ा से रामलाल जयन की रिपोर्ट

मोदी के 'हुंकार रैली' के नाम को लेकर सियासत गर्म

बिहार की राजधानी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की 'हुंकार रैली' के आयोजन के लिए अब एक सप्ताह से भी कम समय रह गया है। भाजपा एक ओर जहां इसे सफल करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही है, वहीं इसे लेकर बिहार में सियासत भी गर्म है।

भाजपा की इस 'हुंकार रैली' को कई राजनीतिक दल 'खूंखार रैली' तो कई 'चीत्कार रैली' का नाम दे रहे हैं। जनता दल (युनाइटेड) इस रैली की उनकी 'अधिकार रैली' से तुलना किए जाने से नाराज है।
भाजपा नेता इस रैली को सफल बनाने के लिए तमाम प्रयास कर रहे हैं, जिसके तहत लोगों को रैली में आने के लिए आमंत्रण भी भेजा जा रहा है। वहीं अन्य राजनीतिक दलों ने इस रैली के नाम को लेकर भाजपा पर निशाना साधा है।

राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सांसद और महासचिव रामकृपाल यादव ने कहा, "इस रैली के माध्यम से भाजपा अपना असली चेहरा दिखाने मंे लगी है। बेहतर होता कि भाजपा अपनी चाल और चरित्र के हिसाब से इसे हुंकार के बजाए 'खूंखार रैली' कहती। युद्ध के मैदान में हुंकार होता है। मेरे हिसाब से इस रैली का नाम 'खूंखार रैली' होना चाहिए।"

इधर, बिहार में सत्तारूढ़ और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से हाल के दिनों में अलग हुए जद (यू) के नेता हुंकार नाम को ही नकारात्मक बताते हुए कहते हैं कि इस नाम से समाज को लड़ाने की साजिश की बू आ रही है। इस रैली का सही नाम तो 'चीत्कार रैली' होना चाहिए।

जद (यू) के प्रवक्ता संजय सिंह ने कहा, "जब से बिहार में भाजपा सत्ता से अलग हुई है तभी से ये लोग छाती पीटकर रो रहे हैं। इस कारण ये यहां 'चीत्कार रैली' कर रहे हैं।" उन्होंने कहा, "दरअसल भाजपा नेताओं के खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं। इसलिए वे 'हैवोक रैली' का समां बांध रहे हैं।"

इस रैली की जद (यू) की 'अधिकार रैली' से तुलना किए जाने पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं कि विशेष राज्य की मांग को लेकर पिछले दिनों पटना में आयोजित इस रैली की तुलना भाजपा की रैली से नहीं की जा सकती। 'अधिकार रैली' बिहार के लोगों के हक के लिए थी, वह मुद्दा आधारित और राज्य हित की रैली थी।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी ने भी हुंकार को लेकर भाजपा पर निशाना साधा है। वह कहते हैं कि आखिरकार भाजपा इस रैली के माध्यम से क्या हुंकार करना चाहती है और वह अभी से लोगों को रैली के दिन रेलगाड़ी और बसों में सफर नहीं करने की अपील कर रही है।

भाजपा के नेताओं के पास हुंकार नाम को लेकर अपना तर्क है। भाजपा के नेता इस नाम को सकरात्मक मानते हैं। भाजपा बिहार इकाई के अध्यक्ष मंगल पांडेय कहते हैं कि इस रैली में किया गया हुंकार बिहारवारियों की अंतरात्मा की पुकार होगी। वह कहते हैं कि यह रैली बिहार और केंद्र सरकार के खिलाफ संघर्ष का आह्वान होगा, इसलिए इस रैली का नाम हुंकार पूरी तरह से तर्क संगत है। 

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'जहां सच हुई थी सपने में प्रतिमा मिलने की बात'

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डौंडियाखेड़ा में एक सपने के आधार पर खजाने की खोज में चल रही खुदाई को लेकर भले ही देश में बहस-मुबाहिसे हो रहे हों, लेकिन झारखंड के गढ़वा जिले में बंशीधर मंदिर में स्थापित करीब 1,280 किलोग्राम सोने से निर्मित भगवान कृष्ण की मूर्ति को सपने के आधार पर ही पहाड़ी से खुदाई कर निकाला गया है। 

गढ़वा जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी दूर नगर उंटारी में बंशीधर मंदिर स्थित है। इस मंदिर में सैकड़ों वर्ष पुरानी श्रीकृष्ण की अद्वितीय 4.5 फुट ऊंची और कथित तौर पर लगभग 1,280 किलोग्राम सोने से निर्मित अत्यंत मनमोहक प्रतिमा अवस्थित है। इस प्रतिमा में भगवान कृष्ण शेषनाग के फन पर निर्मित 24 पंखुड़ियों वाले विशाल कमल पर विराजमान है।

मंदिर के प्रस्तर लेखों और पहले पुजारी दिवंगत सिद्धेश्वर तिवारी द्वारा लिखी गई पुस्तक के अनुसार, विक्रम संवत 1885 में नगर उंटारी के महाराज भवानी सिंह की विधवा रानी शिवमानी कुंवर ने लगभग 20 किमी दूर शिवपहरी पहाड़ी में दबी पड़ी इस कृष्ण प्रतिमा के बारे में सपना देखकर ही जाना था।

कृष्ण की भक्ति में डूबी रहने वाली रानी ने एक बार कृष्णाष्टमी का व्रत किया था और उसी रात भगवान ने उन्हें दर्शन दिए। इसके बाद सपने में ही भगवान ने कहा कि कनहर नदी के किनारे शिवपहरी पहाड़ी में उनकी प्रतिमा गड़ी है और कृष्ण ने रानी से यह प्रतिमा राजधानी लाने के लिए कहा। सपने में ही रानी को उस प्रतिमा के दर्शन भी हुए।

इस सपने के बाद सुबह रानी अपने सेना के साथ उस पहाड़ी पर गईं और पूजा-अर्चना के बाद रानी के बताए गए स्थान पर खुदाई प्रारंभ हुई। खुदाई के दौरान रानी को बंशीधर की अद्वितीय प्रतिमा मिली। इस प्रतिमा को हाथी पर रखकर नगर उंटारी लाया गया। रानी इस प्रतिमा को अपने गढ़ में स्थापित करना चाहती थीं, परंतु गढ़ के मुख्य द्वार पर हाथी बैठ गया और लाख प्रयास के बाद भी वह हाथी यहां से नहीं उठा। 

पुस्तक के अनुसार, राजपुरोहित के परामर्श के बाद रानी ने उसी स्थान पर प्रतिमा स्थापित कर वहां मंदिर बनवाया। कहा जाता है कि पहाड़ी पर मिली प्रतिमा केवल श्रीकृष्ण की थी। इस कारण कालांतर में वाराणसी से राधा की अष्टधातु की प्रतिमा भी बनावाकर यहां लाई गई, और भगवान कृष्ण की प्रतिमा के बामांग में पूरे धार्मिक रीति-रिवाज के साथ स्थापित की गई।

मंदिर के वर्तमान पुजारी ब्रजकिशोर तिवारी ने आईएएनएस को बताया कि इस मंदिर में प्रतिदिन श्रद्धालुओं की भारी भीड़ लगी रहती है। नगर उंटारी राज परिवार के संरक्षण में यह मंदिर प्रारंभ से ही पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। उन्होंने बताया कि यहां प्रतिवर्ष फाल्गुन महीने में एक महीने तक मेले का आयोजन होता है।

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चंद्रगुप्त मौर्य काल का है डौंडियाखेड़ा किला!

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का डौंडियाखेड़ा किला 155 वर्षो से वीरान व गुमनाम पड़ा हुआ था, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा सोने की खोज में वहां खुदाई करने की वजह से समूचे देश की निगाहें अचानक इतने वर्षो बाद इस किले पर आ टिकी हैं। 

सोने का खजाना मिलना या न मिलना अभी भविष्य की गर्त में है, लेकिन डौंडियाखेड़ा किले से संबंधित कुछ बहुत ही रोचक जानकारियां जरूर निकलने लगी हैं। डौंडियाखेड़ा किले के बारे में जो नई जानकारी मिली है, वह यह है कि यह किला राजा राव रामबख्श का नहीं, बल्कि चंद्रगुप्त मौर्य काल से ही अस्तित्व में है।

उन्नाव जिले के डौंडियाखेड़ा गांव में गंगा नदी के किनारे बने इस किले के बारे में गांव के बुजुर्गो का कहना है कि डौंडियाखेड़ा को पहले द्रोणि क्षेत्र या फिर द्रोणिखेर से पहचाना जाता था। चंद्रगुप्त मौर्य काल में यह इलाका पांचाल प्रांत का हिस्सा हुआ करता था। उस काल में 400 से 500 गांवों के भू-भाग को द्रोणिमुख कहा जाता था।

इस द्रोणिमुख क्षेत्र की राजधानी डौंडियाखेड़ा हुआ करती थी, इसलिए इसका काफी महत्व था। साथ ही तब के राजा का एक सैन्य अधिकारी अपनी टुकड़ी के साथ यहां बसनेर किया करते थे। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता अलेक्जेंडर की मानंे तो उन्होंने अपनी एक पुस्तक में कहा है कि बौद्धकालीन हयमुख नामक प्रसिद्ध नगर यहीं था, जहां पर हर्षवर्धन काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। 

डौंडियाखेड़ा किले के बारे में अपने को राजा राव रामबख्श सिंह का वंशज बताने वाले चंडीवीर प्रताप सिंह का कहना है कि इस किले में शुरू में बाहुबली भरों का कब्जा हुआ करता था। भरों से किला जीतने के लिए बैसों ने कई बार कोशिश की, लेकिन असफल रहे। सन 1266 के आस-पास बैसों के राजा करन राय के बेटे सेढूराय ने आखिरकार इस किले को भरों से जीत लिया।

वह बताते हैं कि इस किले पर बैसों का कब्जा होने की वजह से यह बैसवारा नाम से चर्चित हुआ और डौंडियाखेड़ा इसकी राजधानी रही। वह आगे बताते हैं कि बैस राजवंश में त्रिलोकचंद्र नामक प्रतापी राजा हुए। उन्होंने इस किले को न सिर्फ सुदृढ़ कराया, बल्कि किले के अंदर दो महल भी बनवाए, साथ ही किले के अंदर 500 सैनिक और किले के बाहर दस हजार सैनिकों की तैनाती भी की। 

राजा त्रिलोकचंद्र के बारे में उन्होंने बताया कि वह दिल्ली सल्तनत के बादशाह बहलोल लोदी के काफी नजदीकी सहयोगी माने जाते रहे हैं। त्रिलोकचंद्र के काल में ही कालपी, मैनपुरी से लेकर प्रतापगढ़ जिले के मानिकपुर और पूर्व में बहराइच तक फैल चुका था। गांव के 90 साल के बुजुर्ग सरवन बताते हैं कि बैस वंश के अंतिम राजा राव रामबख्श सिंह को 28 दिसंबर 1857 को फांसी देने के बाद ब्रिटिश सेनानायक सर होप ग्रांट ने हमला करवा कर इसे नेस्तनाबूद करवा दिया था। 

अगर इस किले के भूगोल के बारे में चर्चा करें तो उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिला मुख्यालय से करीब 33 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में 50 फिट ऊंचे मिट्टी के टीले पर यह किला बना हुआ है। किले के पश्चिम दिशा में गंगा नदी टीले को छू कर बहती है और किले का मुख्य द्वार पूर्व दिशा की ओर था।

किले के सामने की लंबाई 385 फिट है और पीछे का हिस्सा कुछ चौड़ा है। किले का क्षेत्रफल 1,92,500 वर्ग फिट है। यह किला चारों तरफ मिट्टी की 30-32 फिट मोटी दीवारों से घिरा था और इसके चारों तरफ 50 फिट गहरी खाई बनी थी, जिसमें हमेशा पानी भरा रहता था।

यह बताना जरूरी है कि इससे पहले खंडहर में बदल चुके इस ऐतिहासिक धरोहर की खबर न तो एएसआई को थी और न ही कोई गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ही इस किले के संरक्षण के लिए अब तक आगे आया। अब जब एक संत शोभन सरकार ने यहां एक हजार टन सोने का खजाना होने के सपने के बारे में केंद्र सरकार को बताया तो भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) व एएसआई हरकत में आई और यह सुर्खियों में आ गया।

देह व्यापार की भट्ठी में झोंकने वाला 'राजू' आखिर कौन.......?

देश के आर्थिक रूप से पिछड़े ग्रामीण इलाकों की युवतियों को फंसाकर दिल्ली के रेड लाइट इलाके में देह व्यापार की भट्ठी में झोंकने वाला 'राजू' आखिर कौन है, जिसकी दिल्ली पुलिस को पिछले दो वर्षो से तलाश है। दिल्ली के रेड लाइट इलाके में देह व्यापार में फंसी लगभग हर युवती को यहां लाने वाले इस रहस्यमय व्यक्ति 'राजू' की आखिर असलियत क्या है। क्या यह कोई गैंग है या पुलिस को धोखा देने के लिए देह व्यापार के दलालों का फर्जी नाम भर है।

दिल्ली पुलिस के पास इस 'राजू' नाम के व्यक्ति का कोई रेखाचित्र, फोटो या कोई भी अन्य जानकारी नहीं है, और वह पिछले दो वर्षो से उसके लिए रहस्य बना हुआ है। जांच कर रहे एक अधिकारी ने अपनी पहचान की गोपनीयता के शर्त पर बताया, "जी. बी. रोड स्थित वैश्यालयों से बचाई गई अधिकतर युवतियों ने यही नाम लिया है। हम उसकी तलाश पिछले दो वर्षो से कर रहे हैं, लेकिन नाममात्र को सफलता मिली है।"

पिछले दो वर्षो से मध्य दिल्ली के भीड़ भरे इलाके जी. बी. रोड से निकाली गईं अधिकतर महिलाओं एवं किशोरियों ने अपनी वर्तमान स्थिति के लिए इसी व्यक्ति को जिम्मेदार बताया है।
कमला मार्केट पुलिस थाना के गृह अधिकारी प्रमोद जोशी ने बताया, "राजू ही वह आदमी है जो बचाई गई अधिकतर महिलाओं को विवाह करने या नौकरी देने का झांसा देकर देश के विभिन्न स्थानों से दिल्ली लाया था।"

महिलाओं को 20,000 रुपये से लेकर पांच लाख रुपये तक में बेचा गया। जी. बी. रोड इलाके में 24 इमारतों में लगभग 92 चकलाघर चलते हैं, जिसमें करीब 3,500 महिलाएं वैश्यावृत्ति करने के लिए मजबूर हैं। अधिकारी ने आगे बताया, "हम उसकी भारतीय दंड संहिता के तहत मानव तस्करी, अवैध कारावास एवं महिलाओं को जबरन देह व्यापार में धकेलने के आरोप में तलाश कर रहे हैं।"

जोशी ने बताया, "गुप्त सूचना के आधार पर हमने कुछ महीने पहले एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया, जिसके पास से रेलवे के ढेर सारे टिकट मिले थे। लेकिन वह व्यक्ति भी राजू नहीं था।"
एक अन्य पुलिस अधिकारी ने बताया, "चूंकि यहां लाई गई महिलाएं ठीक से हिंदी नहीं बोल पातीं, इसलिए उन्हें यहां लाने वाले व्यक्ति को हम अब तक दबोचने में असफल रहे हैं। इसी कारण वे अपने ग्राहकों एवं संपर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों को भी अपने बारे में कुछ नहीं बता पातीं।"

चकलाघरों से बचाकर निकाली गईं युवतियों के कल्याण के लिए 'शक्ति वाहिनी' एवं 'रेस्क्यू फाउंडेशन' दो गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं। शक्ति वाहिनी के कार्यक्रम निदेशक सुरबीर रॉय ने बताया, "पुलिस की मदद से हमने जुलाई, 2010 से अब तक कम से कम 66 युवतियों को बचाया है।"रॉय के अनुसार, "मानव तस्करी में लगे गिरोह के सदस्यों द्वारा पुलिस को धोखा देने के लिए 'राजू' के फर्जी नाम का सहारा लिया जाता है।" दिल्ली पुलिस ही नहीं कोलकाता पुलिस को भी इस रहस्यमय व्यक्ति 'राजू' की तलाश है।
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