जहां साक्षात रूप में मदिरा पान करते है भगवान काल भैरव

उज्जैन: हमारे देश में अनेक ऐसे मंदिर है जिनके रहस्य आज तक अनसुलझे है। महाकाल की नगरी उज्जैन में भी एक ऐसा ही मंदिर है काल भैरव मंदिर| इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है की यहाँ पर भगवान काल भैरव साक्षात रूप में मदिरा पान करते है। इस मंदिर में जैसे ही शराब से भरे प्याले काल भैरव की मूर्ति के मुंह से लगाते है तो देखते ही देखते वो शराब के प्याले खाली हो जाते है। यह मंदिर सदियों पुराना है लेकिन इसका जीर्णोद्धार करीब 1000 वर्ष पहले परमार कालीन राजाओं ने करवाया था। यहां होने वाली इस चमत्कारिक घटना को देखने देश-विदेश से भक्त आते हैं।

बताया जाता है कि कालभैरव का यह मंदिर लगभग छह हजार साल पुराना है। यह एक वाम मार्गी तांत्रिक मंदिर है। वाम मार्ग के मंदिरों में माँस, मदिरा, बलि, मुद्रा जैसे प्रसाद चढ़ाए जाते हैं। प्राचीन समय में यहाँ सिर्फ तांत्रिको को ही आने की अनुमति थी। वे ही यहाँ तांत्रिक क्रियाएँ करते थे। कालान्तर में ये मंदिर आम लोगों के लिए खोल दिया गया। कुछ सालो पहले तक यहाँ पर जानवरों की बलि भी चढ़ाई जाती थी। लेकिन अब यह प्रथा बंद कर दी गई है। पहले बलि के बाद भगवान को बलि का मांस प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता था लेकिन केवल भगवान भैरव को केवल मदिरा का भोग लगाया जाता है। काल भैरव को मदिरा पिलाने का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। यह कब, कैसे और क्यों शुरू हुआ, यह कोई नहीं जानता।

मंदिर में काल भैरव की मूर्ति के सामने झूलें में बटुक भैरव की मूर्ति भी विराजमान है। बाहरी दिवरों पर अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित है। सभागृह के उत्तर की ओर एक पाताल भैरवी नाम की एक छोटी सी गुफा भी है| कहते है की बहुत सालो पहले एक अंग्रेज अधिकारी ने इस बात की गहन तहकीकात करवाई थी की आखिर शराब जाती कहां है। इसके लिए उसने प्रतिमा के आसपास काफी गहराई तक खुदाई भी करवाई थी। लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला। उसके बाद वो अंग्रेज भी काल भैरव का भक्त बन गया।

स्कंद पुराण में इस जगह के धार्मिक महत्व का जिक्र है। इसके अनुसार, चारों वेदों के रचियता भगवान ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना का फैसला किया, तो उन्हें इस काम से रोकने के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने उनकी बात नहीं मानी। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से बालक बटुक भैरव को प्रकट किया। इस उग्र स्वभाव के बालक ने गुस्से में आकर ब्रह्मा जी का पांचवां मस्तक काट दिया। इससे लगे ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की। शिव ने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है।

दुनिया के प्रसिद्ध अंडरवाटर होटल

आप दुनिया के बहुत से होटलों व रिजॉर्ट्स में ठहर चुके होंगे, जहां सारी आधुनिक सुविधाएं मौजूद होती हैं। लेकिन आज हम आपको दुनिया के कुछ ऐसे होटलों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो समुद्र के अंदर बने हुए हैं। समुद्र के अंदर बने ये होटल अपने-आप में बेहद खास हैं। प्रकृति प्रेमियों को ये होटल पसंद आ सकते हैं। यहां समुद्र के अंदर जिंदगी का मजा लिया जा सकता है। यहां ठहरना किसी रोमांच से कम नहीं हो सकता।

1. मान्टा रिजॉर्ट (The Manta Resort, Pemba Island, Zanzibar)

मान्टा रिजॉर्ट समुद्र में कई फीट अंदर बना हुआ है। यह अफ्रीका का पहला अंडरवाटर होटल। तीन मंजिला ये होटल किसी आइलैंड से कम नहीं लगता। कई सारी सुविधाओं से लैस इस होटल के कमरे छोटे-छोटे हैं। इस होटल में खूबसूरत मछलियों, वाटर डेक के साथ रात रात गुजारने का मौका मिलता है होटल के कमरे से समुद्र के अंदर का नजारा ठहरने वालों को बेहद आकर्षित करता है। इसकी गहराई 13 फीट है।

2. पोजेडॉन अंडरवाटर, फिजी (The Poseidon Underwater Resort, Fiji)

इस होटल की गहराई 40 फीट है। फिजी के इस खूबसूरत से अंडरवाटर होटल में कुल 22 गेस्ट रूम, एक रेस्टोरेंट और बार भी है। इसके अलावा लाइब्रेरी, कॉन्फ्रेंस रूम, बैंकेट हॉल और स्पा की भी सुविधा मौजूद है। होटल के बाहर के नेचर पर्यटकों को खासतौर से पसंद आता है। ये होटल पांच हजार एकड़ के क्षेत्र में पानी से घिरा है। होटल के रूम के बाहर ब्लू व्हेल्स, बॉटल नोज डॉल्फिन्स और रंग-बिरंगी क्लाउनफिश देखने को मिल सकती है।

3. क्रिसेंट हाइड्रोपोलिस, दुबई( Crescent Hydropolis, Dubai)

क्रिसेंट हाइड्रोपोलिस बहुत ही महंगा और कई सारी सुविधाओं से लैस दुबई का मशहूर अंडरवाटर होटल है। जहां ज्यादातर सेलिब्रिटीज और शाही परिवार ही ठहरते हैं। कमरों से लेकर डाइनिंग एरिया, मीटिंग हॉल और इनडोर गेमिंग एरिया तक सभी कुछ ग्लास से बना हुआ है। इसी कारण समुद्र के अंदर मौजूद मछलियों और अन्य जीवों को आसानी से देखा जा सकता है। हरे कुछए और हॉक्सबिल भी देखने को मिल सकते हैं।

4. द शिमाओ वंडरलैंड, चीन (The Shimao Wonderland, China)

इसे गुफा होटल भी कहा जाता है। इसे ब्रिटेन की डिजाइनिंग फर्म एटकिन्स ने डिजाइन किया है। ये होटल चीन की सोंगजियांग में थियानमेंशन पहाड़ों के बीच स्थित है। 19 मंजिला यह होटल पानी के 100 मीटर अंदर मौजूद है। इसमें 380 कमरे हैं।

5. हुवाफेन फुशी (Huvafen Fushi)

पानी के अंदर बने इस होटल से समुद्र का नजारा बहुत ही खूबसूरत दिखता है। हुवाफेन फुशी मालदीव का मशहूर होटल है। इस होटल की खास बात ये है कि इसका निर्माण पानी के अंदर बेहद खूबसूरत तरीके से किया गया है। इतना ही नहीं, इस होटल के बाहरी हिस्से को भी बेहतरीन तरीके से डिजाइन किया गया है। होटल में इनडोर स्टेडियम से लेकर स्पा तक की सुविधाएं मौजूद हैं।

भोपाल गैस त्रासदी: अपनों को अंतिम विदाई तक नहीं दे सके कई परिवार

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की हाउसिंग बोर्ड कालोनी में रहने वाली कुसुम बाई की आंखें अपने दिवंगत पति जयराम को याद कर आज भी डबडबा जाती हैं। यूनियन कार्बाइड संयंत्र से रिसी गैस ने उन पर ऐसा कहर ढाया कि उन्हें पति का शव तक नहीं मिला। वह जयराम की तस्वीर निहारते सिर्फ यादों के सहारे जी रही हैं। गैस त्रासदी की ऐसी पीड़िताएं और भी हैं।

जहरीली गैस से अपनों को खोने वाले हजारों परिवार हैं, जिन्हें अपनों के शव तक नसीब नहीं हुए। भोपाल में दो-तीन दिसंबर 1984 की रात काल बनकर आई थी। यूनियन कार्बाइड संयंत्र से मिथाइल आइसो साइनाइड (मिक) गैस रिसी और वह जिस ओर बढ़ी, वहां तबाही मचाती रही। कुसुम बाई बताती हैं कि वह हादसे की रात सो रही थीं, उनके पति ने उन्हें जगाया और कहा, “पूरा भोपाल भागा जा रहा है और तुम हो कि सो रही हो।”

कुसुम ने जैसे ही पति की बात सुनी, वह भी घर से निकल पड़ी। वह बताती हैं कि जहरीली गैस के कारण उनकी आंखों में जलन हो रही थी, फिर भी भागे जा रही थीं। उस रात जिसे जहां रास्ता दिख रहा था, वह भागे जा रहा था। सड़कों पर लोग गिरे हुए थे। बच्चों और महिलाओं की चीख-पुकार से पूरा माहौल मातमी हो गया था। उसी भगदड़ में कुसुम पति से बिछुड़ गईं। काफी खोजा, मगर पति कहीं नहीं मिले।

कुछ ऐसा ही दुख मेवा बाई का है। उसने भी अपने पति किशन को हादसे की रात खो दिया। वह बताती हैं कि उनके पति स्टेशन के पास फर्नीचर बनाने का काम करते थे। जब गैस रिसी तब वह दुकान पर थे। उन्होंने अपनी जान बचाने की बजाय घर आकर उन्हें जगाया। मेवा बाई जागीं और अपने बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान की तलाश में भागीं। इसी दौरान वह पति बिछुड़ गईं।

उनके पति का आज तक कहीं कोई सुराग नहीं लगा है। भोपाल ग्रुप फॉर इंफोरमेशन एंड एक्शन की सदस्य रचना ढींगरा बताती हैं कि प्रशासनिक आंकड़ा हकीकत से मेल नहीं खाता। बताया गया कि हादसे की रात ढाई से तीन हजार लोगों की मौत हुई, लेकिन यह सच्चाई से कहीं दूर है। पहले सात दिन तो हाल यह रहा कि प्रशासन अनगिनत शवों का अंतिम संस्कार करने की स्थिति में नहीं था। आखिरकार शवों की सामूहिक अंत्येष्टि करनी पड़ी और सैकड़ों शव नर्मदा नदी में बहा दिए गए। यही कारण रहा कि हजारों लोगों को अपने परिजनों के शव नसीब नहीं हो सके।

हर धर्म में अंतिम संस्कार का विधान है, मगर गैस पीड़ित हजारों परिवार ऐसे हैं जो अपनों को अंतिम विदाई तक नहीं दे सके। उन्हें 30 वर्ष बाद भी इस बात का मलाल है।

भोपाल गैस त्रासदी: ऐसा दर्द जिसको याद कर कांप जाती है रूह

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड संयंत्र के आसपास की बस्तियों में अब भी हादसे के जख्म बरकरार हैं, हर घर से मरीज के कराहने की आवाज आसानी से सुनी जा सकती है मगर यहां की महिलाएं उस दर्द को सह रही हैं, जिसे वे बयां तक नहीं कर सकती। भोपाल में अब से 30 वर्ष पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की रात को यूनियन कार्बाइड संयंत्र से मिथाइल आइसो सायनाइड (मिक) गैस रिसी थी, इस गैस से हजारों लोग मौत की आगोश में समा गए थे। बीमारियों की वजह से मौत का सिलसिला तो अब भी जारी है।

गैस पीड़ितों में सबसे ज्यादा मरीज आंख, गुर्दे, हृदय, कैंसर, ट्यूमर, त्वचा के हैं। केंद्र सरकार के अधीन आने वाले भोपाल स्मारक अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र के अलावा राज्य सरकार के छह अस्पतालों में आने वाले ज्यादातर मरीज इन्हीं रोगों से संबंधित होते हैं। इनमें महिलाओं की संख्या ज्यादा होती है। गैस पीड़ितों की बस्ती में ऐसे घरों की कमी नहीं है जहां महिलाएं बीमारियों के साथ उस दर्द को झेल रही हैं जो उन्हें अपनों को मिली बीमारियों के चलते है। वे इस दर्द को बयां नहीं करती, इसे तो सिर्फ उनके चेहरे पर छाई उदासी से पढ़ा जा सकता है। वे आंसू भी अकेले में बहा देती हैं क्योंकि वे नहीं चाहती कि उनके इस दर्द का कोई भागीदार बने।

जेपी नगर में रहने वाली हाजरा बी अब लगभग 60 वर्ष की हो गई हैं, मगर गैस हादसे की रात को याद कर रो पड़ती हैं। वह कहती हैं कि उनकी तो खुशहाल दुनिया ही उस रात उजड़ गई। तीन बच्चे हैं जो बीमारी का शिकार हैं, पति भी चल बसा, एक नातिन जो सात वर्ष की है, अपंग है। उन्हें सांस की बीमारी है और आंखों के ऑपरेशन के बाद भी साफ दिखाई नहीं देता। वह बताती हैं कि उन्हें गैस हादसे ने वह दर्द दिया है, जिसकी याद कर उनकी रूह कांप जाती है, मगर किसी से कह नहीं सकती। अकेले में रो लेतीं हैं और उस घड़ी को कोसती हैं जब यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से गैस रिसी थी।

गैस हादसे ने शीला देवी की जिंदगी को भी जख्मों से भर दिया। वह खुद सांस की रोगी हैं और उनकी एक बेटी ज्योति तो कई बीमारियों से जूझ रही है। वह बताती है कि 45 वर्ष की ज्योति का शरीर फूल जाता है और उसे खून की कमी है। वह अस्पतालों के चक्कर लगाती रहती हैं, मगर कोई सुधार नहीं हो रहा है। वह ज्योति की शादी करना चाहती थी, मगर गैस के चलते मिली बीमारियों से वे उसका घर नहीं बसा पाई। भोपाल ग्रुप फॉर इन्फार्मेशन एण्ड एक्शन की सदस्य रचना ढींगरा कहती हैं कि गैस के दुष्प्रभाव ने महिलाओं को बीमारियां दी हैं मगर उसके बावजूद वे अपनी जिम्मेदारी व जवाबदारी को निभाने में पीछे नहीं रहती हैं।

भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार का कहना है कि गैस के दुष्प्रभाव ने महिलाओं को ऐसे रोग दिए हैं, जिसने उनकी जिंदगी को बेरंग कर दिया है। महिलाओं को कैंसर, सांस, ट्यूमर जैसी घातक बीमारियां हैं और उन्हें वह इलाज नहीं मिल पा रहा है जिसकी उन्हें जरुरत है। वे मरीजों का वर्गीकरण न होने पर भी चिंता जताते हैं। भोपाल गैस राहत व पुनर्वास विभाग के आयुक्त आर.ए. खंडेलवाल का कहना है कि राज्य सरकार हर वर्ष गैस पीड़ितों के उपचार पर 90 करोड़ रुपये खर्च करती है। हर वर्ग के बेहतर इलाज के लिए सरकार की ओर से प्रयास किए गए हैं। केंद्र सरकार के बीएमएचआरसी में तीन लाख 86 हजार गैस पीड़ितों के स्मार्ट कार्ड बनाए जा चुके हैं। राज्य सरकार के अस्पतालों का भी कंप्यूटराईजेशन किया जा चुका है, लिहाजा मरीजों को बिना परेशानी के इलाज मिल रहा है।

खंडेलवाल बताते हैं कि राज्य सरकार के गैस पीड़ितों के अस्पतालों में प्रतिदिन लगभग चार हजार मरीज आते हैं, उनका बेहतर इलाज मुहैया कराया जाता है। सामान्य और गंभीर मरीजों को उनकी जरूरत के मुताबिक सुविधाएं इन अस्पतालों में उपलब्ध है। भोपाल गैस हादसे ने हजारों परिवारों के जीवन को मुसीबतों से भर दिया है और इन मुसीबतों का पहाड़ अगर किसी पर टूट है तो उनमें महिलाएं कहीं ज्यादा है।

…यहाँ झूले पर झूलती हैं मां

अभी तक आपने कई मंदिरों के दर्शन किये होंगे लेकिन आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के दर्शन कराने जा रहे हैं जहाँ झूले में झूलती हैं मां| उत्तराखंड के रानीखेत माल रोड में घने जंगल के बीच सुरम्य स्थल पर स्थित मां झूला देवी का प्राचीन मंदिर श्रद्धालुओं की अटूट आस्था का केन्द्र है। मान्यता है कि झूला देवी मां के आशीर्वाद कई लोगों के लिए बेहतर फलीभूत हुआ है। मंदिर की स्थापना करीब 700 साल पहले मानी जाती है।

जनश्रुतियों के अनुसार, लगभग 700 साल पहले चौबटिया क्षेत्र के घनघोर जंगल में बड़ी संख्या में चीते, बाघ, शेर व अन्य जंगली जानवरों का वास था। उस दौर में क्षेत्र के ग्रामीण इनके आतंक से बेहद दुखी हो गए। ग्रामीणों व उनके मवेशियों पर आए दिन हमला होने लगा। इसके बाद दुखी ग्रामीणों ने मां की भक्ति की। इस भक्ति से खुश होकर मां देवी ने पिलखोली निवासी एक व्यक्ति को सपने में दर्शन दिए और दबी मूर्ति के बारे में बताया। उस जगह खुदाई में ग्रामीणों को आकर्षक मूर्ति मिली। उसी स्थान पर मां का मंदिर बनाकर मूर्ति स्थापित की गई और कहते हैं कि तब से पूजा-अर्चना शुरू हुई, तो जंगली जानवरों के आतंक से ग्रामीण मुक्त हुए।

झूले के पीछे मान्यता है कि एक बार सावन माह में मां ने एक व्यक्ति को फिर स्वप्न में बच्चों की भांति झूले में झूलने की इच्छा जताई। तो ग्रामीणों ने एक झूला तैयार कर मां की मूर्ति उसमें स्थापित कर दी। तभी से मंदिर झूला देवी मां के नाम से विख्यात हो गया। मंदिर से जुड़े लोग बताते हैं कि यह मंदिर लगभग 14वीं सदी का है। आज भी रात को बाघ व गुलदार मंदिर के इर्द-गिर्द विचरण करते हैं, किंतु माता की कृपा से कोई नुकसान नहीं पहुंचाते।

कितने जागरूक हैं हम?

‘एक्वायर्ड इम्युनो डेफिशियेन्सी सिन्ड्रोम’ (एड्स) के बारे में आज शायद ही ऐसा कोई होगा जो इससे अनभिज्ञ हो| एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए सरकार और समाजसेवी संस्था समय-समय पर इससे सम्बंधित अभियान चला रही हैं, लेकिन जो सबसे दुःख की बात है वह यह है कि सरकार व समाजसेवी संस्थाओं द्वारा चलाये गए इन अभियानों के बाद भी लोग अनजान बने हुए हैं| हर साल की तरह आज (1 दिसंबर 2015) भी ‘विश्व एड्स दिवस’ दुनियाभर में मनाया जा रहा है|

‘विश्व एड्स दिवस’ के अवसर पर सरकार विभिन्न स्थानों पर समारोह आयोजित कर लोगों में जागरूकता फैलाने का प्रयास कर रही है| लेकिन अगर देखा जाये तो एक सच ये भी है कि आज भी हमारे देश में, हमारे शहर में और हमारे गाँव में एड्स के चक्रवात में फँसे लोगों की स्थिति बेहतर नहीं है|

आखिर क्यों कतराते हैं लोग

हमारे देश में जो लोग एड्स से पीड़ित हैं वह इस बात को स्वीकार करने से कतराते हैं| जिसका मुख्य कारण है ‘भेदभाव’| कहीं न कहीं, आज भी एचआईवी पॉजीटिव व्यक्तियों के प्रति भेदभाव की भावना रखी जाती है| अगर एड्स पीड़ित व्यक्ति के प्रति सद्भावना का भाव रखा जाये तो इस स्थिति में सुधार लाया जा सकता है| लेकिन ये तभी हो सकता है जब देश का हर नागरिक इसके प्रति जागरूक हो और अपना अहम योगदान देने के लिए तात्पर्य हो|

निम्न वर्ग में एड्स पीड़ितों की संख्या अधिक

बात अगर जागरूकता की करे तो ये कहना गलत नहीं होगा कि उच्च वर्ग की अपेक्षा निम्न वर्ग में इसके प्रति लोग कम जागरूक हैं| निम्न वर्ग के लोगों में अभी भी जानकारी का अभाव है| इसलिए भी इस वर्ग में ‘एचआईवी पॉजीटिव’ लोगों की संख्या अधिक है| जबकि बहुत सी संस्थाएँ निम्न वर्ग के लोगों में इस बात के प्रति जागरूकता अभियान चला रही हैं|

कई बार ऐसा होता है कि लोगों को इस बारे में जानकारी होती है लेकिन वह किसी तरह की कोई सावधानी नहीं बरतना चाहते| जिन कारणों से ‘एड्स’ होता है उससे बचने के बजाए अनदेखा कर जाते हैं| वहीँ कई लोग असुरक्षित यौन संबंध और संक्रमित रक्त के कारण एड्स की चपेट में आते हैं|

एड्स के खिलाफ कार्य कर रही कई सरकारी संस्थाएँ

‘एड्स’ के खिलाफ आज देश में कई समाज सेवी और सरकारी संस्थाएँ कार्य कर रही हैं| इनका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना, एड्स से पीड़ित लोगों को समाज में उचित स्थान दिलाना व उनका उपचार कराना है| इन संस्थानों में से कुछ ‘फेमेली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया’, ‘विश्वास’, ‘भारतीय ग्रामीण महिला संघ’ और ‘मध्यप्रदेश वॉलेन्ट्री हेल्थ एसोसिएशन आदि है| इन संस्थानों का मुख्य उद्देश्य ‘एचआईवी मुक्त समाज’ का निर्माण करना है| संस्थानों का मानना है कि एड्स की वजह से फैले भेदभाव को कम करने के लिए ‘एचआईवी कानून’ की बेहद जरुरी है|

जीत हार के तंज कसने पर प्रधान समर्थकों में चली लाठियां, हुआ पथराव

हैदरगढ़: उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जनपद के लोनीकटरा थाना क्षेत्र के अंतर्गत इलियासपुर गांव में चुनावी रंजिश के चलते दो प्रत्याशियों के समर्थक के बीच जमकर लाठी-डंडे चले। मारपीट में तीन लोग जख्मी हो गए। घायल तीन समर्थकों को गंभीर अवस्था में जिला चिकित्सालय रेफर किया गया है। पुलिस ने दोनों पक्ष की शिकायत पर तेरह के खिलाफ शांति भंग की धाराओं में कार्रवाई की है।

लोनीकटरा थाना क्षेत्र के ग्राम इलियासपुर मौजूदा प्रधान नन्हा प्रसाद वर्मा इस बार फिर मैदान में वहीं उनके खिलाफ भगौती वर्मा ने भी प्रधानी के लिए नामांकन कर दावेदारी ठोंकी है। मंगलवार देर रात भगौती प्रसाद वर्मा के समर्थक अंकित पुत्र अमर सिंह, ललित वर्मा, देशबंधु, रज्जन लाल, गिरिजा शंकर, राम कुमार आदि अपने पक्ष में वोट मांग रहे थे। इसी दौरान नन्हा प्रसाद वर्मा के समर्थक भी वहां वोट मांगने पहुंचे। एक दूसरे पर हारने और जीतने की बात को लेकर छींटा कसी शुरू हो गई। देखते ही देखते दोनों पक्षों में संघर्ष शुरू हो गया। दोनों पक्षों से लाठियां चलीं तो जमकर पथराव हुआ।

इस वारदात में भगौती प्रसाद वर्मा के समर्थक अंकित व ललित गंभीर रूप से घायल हो गए। वहीं नन्हा प्रसाद वर्मा के समर्थक प्रदीप व अवधेश घायल हुए। मामला थाने पहुंचा तो पुलिस ने घायलों को उपचार के लिए भेजा जहां से अंकित व ललित को सीएचसी से जिला अस्पताल रेफर किया गया है।

थानाध्यक्ष अरूण द्विवेदी ने बताया कि घायल अंकित के पिता अमर सिंह की तहरीर पर अमरदीप वर्मा, धीरज कुमार, जगन्नाथ, अवधेश, चंद्र नारायण और प्रदीप पटवा पर मारपीट का मुकदमा दर्ज किया गया है। वहीं दूसरे पक्ष से प्रदीप की तहरीर पर अमर सिंह, अंकित, देशबंधु, तेज बहादुर, गिरजाशंकर, सार्जन लाल व राम कुमार के खिलाफ भी इसी धारा में मुकदमा दर्ज किया गया है। द्विवेदी ने कहा सभी 13 ग्रामीणों के खिलाफ शांति भंग की धाराओं में कार्रवाई की गई है और मौके की जांच कर आगे की कार्रवाई की जाएगी।

बिहार का सोनपुर का मेला, इससे बड़ा नहीं है पशु बाजार

प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के मौके पर लगने वाला सोनपुर पशु मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है| यह मेला भले ही पशु मेला के नाम से विख्यात है लेकिन इस मेले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां सूई से लेकर हाथी तक की खरीदारी की जा सकती है| इस वर्ष यह मेला 23 नवम्बर से शुरू होगा और 24 दिसम्बर को खत्म होगा| 

बिहार के सारण और वैशाली जिले की सीमा पर गंगा और गंडक नदी के संगम पर ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाले सोनपुर में विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेला (हरिहर क्षेत्र मेला) शुरू हो गया। एक महीने तक चलने वाले इस मेले की पहचान ऐसे तो सबसे बड़े पशु मेले की रही है, परंतु मेले में आमतौर पर सभी प्रकार के सामान मिलते हैं। मेले में जहां देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं के क्रय-विक्रय के लिए पहुंचते हैं, वहीं विदेशी सैलानी भी यहां खिंचे चले आते हैं।

मेला प्रारंभ होते ही देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए पहुंचते हैं। पूरा मेला परिसर सज-धज कर तैयार है। मेले के इतिहास के विषय में बताया जाता है कि इस मेले का प्रारंभ मौर्य काल के समय हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य सेना के लिए हाथी खरीदने के लिए यहां आते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला क्रांतिकारियों के लिए पशुओं की खरीदारी के लिए पहली पसंद रही।

सोनपुर के बुजुर्गो के अनुसार वीर कुंवर सिंह जनता को अंगेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरुक करने के लिए और अपनी सेना की बहाली के लिए यहां आए व यहां से घोड़ों की खरीदारी भी की थी। सोनपुर निवासी 78 वर्षीय बृजनंदन पांडेय कहते हैं कि इस मेले में हाथी, घोड़े, ऊंट, कुत्ते, बिल्लियां और विभिन्न प्रकार के पक्षियों सहित कई दूसरे प्रजातियों के पशु-पक्षियों का बाजार सजता है। यह मेला केवल पशुओं के कारोबार का बाजार ही नहीं, बल्कि परंपरा और आस्था का भी मिलाजुला स्वरूप है।

इस मेले से एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। मान्यता है कि भगवान विष्णु के भक्त हाथी (गज) और मगरमच्छ (ग्राह) के बीच कोनहारा घाट पर संग्राम हुआ था। जब गज कमजोर पड़ने लगा तो उसने अपने अराध्य को पुकारा और भगवान विष्णु ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुदर्शन चक्र चलाकर दोनों के बीच युद्ध का अंत किया था।

इसी स्थान पर हरि (विष्णु) और हर (शिव) का हरिहर मंदिर भी है जहां प्रतिदिन सैकड़ों भक्त श्रद्धा से पहुंचते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान राम ने सीता स्वयंवर में जाते समय किया था। बुजुर्ग बताते हैं कि पूर्व में मध्य एशिया से व्यापारी पर्शियन नस्ल के घोड़ों, हाथी और ऊंट के साथ यहां आते थे। इस मेले की विशेषता है कि यहां सभी पशुओं का अलग-अलग बाजार लगता है।

धीरे-धीरे इस मेले में पशुओं की संख्या कम होती जा रही है। बिहार पर्यटन विभाग के प्रधान सचिव बी़ प्रधान भी कहते हैं कि सोनपुर मेले में पशुओं की संख्या कम होना चिंता का विषय है। पशुओं के प्रति लोगों की दिलचस्पी कम होती जा रही है। इस वजह से पशुओं की संख्या बढ़ाने के लिए प्रशासन भी अपने स्तर से बहुत कुछ नहीं कर पा रहा है। प्रधान कहते हैं कि मेले के इतिहास को जीवित रखने के लिए विभाग ने असम, पश्चिम बंगाल समेत दूसरे राज्यों से पशुओं को मंगवाने की कोशिश की है। वे कहते हैं कि मेले के परंपरागत और ग्रामीण स्वरूप बनाए रखते हुए हर साल इसे आधुनिक और आकर्षक रूप प्रदान करने के प्रयास किए जाते हैं।

मेले की धार्मिक, एतिहासिक और पौराणिक महता को देखते हुए और इसे पर्यटन एवं दुनिया के मानचित्र पर लाने के लिए वेबसाइट के साथ-साथ अन्य प्रचार माध्यमों से प्रचार-प्रसार करवाया जा रहा है। इस मेले में नौटंकी, पारंपरिक संगीत, नाटक, जादू, सर्कस जैसी चीजें भी लोगों के मनोरंजन के लिए होती हैं। सोनपुर बिहार की राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सोनपुर पहुंचने के लिए सड़क का जरिया सबसे सुगम माना जाता है। सोनपुर में ठहरने के लिए टूरिस्ट विलेज बने हुए हैं जो उचित दर पर उपलब्ध हैं। 

कार्तिक पूर्णिमा पर लगाए आस्था की डुबकी

कार्तिक का महीना बहुत पवित्र माना गया है। इस माह में की गई भक्ति-आराधना का पुण्य कई जन्मों तक बना रहता है। इस माह में किए गए दान, स्नान, यज्ञ, उपासना से श्रद्धालु को तुरंत ही शुभ फल प्राप्त होने लगते हैं। इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा 25 नवम्बर दिन बुधवार को है |

शास्त्रों के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा शाम भगवान श्रीहरि ने मत्स्यावतार के रूप में प्रकट हुए। भगवान विष्णु के इस अवतार की तिथि होने की वजह से आज किए गए दान, जप का पुण्य दस यज्ञों से प्राप्त होने वाले पुण्य के बराबर माना जाता है। पूर्णिमा पर पवित्र नदिनों में दीपदान करने की भी परंपरा हैं। देश की सभी प्रमुख नदियों में श्रद्धालुओं द्वारा दीपदान किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा पर यदि कृतिका नक्षत्र आ रहा हो तो यह महाकार्तिकी होती है। भरणी नक्षत्र होने पर यह विशेष शुभ फल देती है। रोहिणी नक्षत्र हो तो इस दिन किए गए दान-पुण्य से सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति है।

कार्तिक पूर्णिमा की पूजन विधि-

इस दिन सुबह स्नान आदि से निवृत होकर पूरा दिन निराहार रहते हैं और भगवान विष्णु की आराधना करते हैं| श्रद्धालुगण इस दिन गंगा स्नान के लिए भी जाते हैं, जो गंगा स्नान के लिए नहीं जा पाते वह अपने नगर की ही नदी में स्नान करते हैं| भगवान का भजन करते हैं| संध्या समय में मंदिरों, चौराहों, गलियों, पीपल के वृक्षों तथा तुलसी के पौधे के पास दीपक जलाते हैं| लम्बे बाँस में लालटेन बाँधकर किसी ऊंवे स्थान में “आकाशी” प्रकाशित करते हैं| इस व्रत को करने में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है|

इस दिन कार्तिक पूर्णिमा का व्रत करने वाले व्यक्ति को ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराना चाहिए| भोजन से पूर्व हवन कराएं| संध्या समय में दीपक जलाना चाहिए| अपनी क्षमतानुसार ब्राह्मण को दान-दक्षिणा देनी चाहिए| कार्तिक पूर्णिमा के दिन रात्रि में चन्द्रमा के दर्शन करने पर शिवा, प्रीति, संभूति, अनुसूया, क्षमा तथा सन्तति इन छहों कृत्तिकाओं का पूजन करना चाहिए| पूजन तथा व्रत के उपरान्त बैल दान से व्यक्ति को शिवलोक प्राप्त होता है, जो लोग इस दिन गंगा तथा अन्य पवित्र स्थानों पर श्रद्धा – भक्ति से स्नान करते हैं, वह भाग्यशाली होते हैं|

कार्तिक पूर्णिमा की कथा-

प्राचीन समय की बात है, एक नगर में दो व्यक्ति रहते थे| एक नाम लपसी था और दूसरे का नाम तपसी था| तपसी भगवान की तपस्या में लीन रहता था, लेकिन लपसी सवा सेर की लस्सी बनाकर भगवान का भोग लगाता और लोटा हिलाकर जीम स्वयं जीम लेता था| एक दिन दोनों स्वयं को एक-दूसरे से बडा़ मानने के लिए लड़ने लगे| लपसी बोला कि मैं बडा़ हूं और तपसी बोला कि मैं बडा़ हूँ, तभी वहाँ नारद जी आए और पूछने लगे कि तुम दोनों क्यूं लड़ रहे हो? तब लपसी कहता है कि मैं बडा़ हूं और तपसी कहता है कि मैं बडा़ हूँ| दोनों की बात सुनकर नारद जी ने कहा कि मैं तुम्हारा फैसला कर दूंगा|

अगले दिन तपसी नहाकर जब वापिस आ रहा था, तब नारद जी ने उसके सामने सवा करोड़ की अंगूठी फेंक दी| तपसी ने वह अंगूठी अपने नीचे दबा ली और तपस्या करने बैठ गया| लपसी सुबह उठा, फिर नहाया और सवा सेर लस्सी बनाकर भगवान का भोग लगाकर जीमने लगा| तभी नारद जी आते हैं और दोनों को बिठाते हैं| तब दोनों पूछते है कि कौन बडा़ है? तपसी बोला कि मैं बडा़ हूँ| नारद जी बोले – तुम गोडा़ उठाओ और जब गोडा़ उठाया तो सवा करोड़ की अंगूठी निकलती है| नारद जी कहते हैं कि यह अंगूठी तुमने चुराई है| इसलिए तेरी तपस्या भंग हो गई है और लपसी बडा़ है|

सभी बातें सुनने के बाद तपसी नारद जी से बोला कि मेरी तपस्या का फल कैसे मिलेगा? तब नारद जी उसे कहते हैं – तुम्हारी तपस्या का फल कार्तिक माह में पवित्र स्नान करने वाले देगें उसके आगे नरद जी कहते हैं कि सारी कहानी कहने के बाद जो तेरी कहानी नहीं सुनाएगा या सुनेगा, उसका कार्तिक का फल खत्म हो जाएगा|

भगवान सूर्य की उपासना का महापर्व है छठ पूजा



दीपवाली के ठीक छह दिन बाद मनाए जाने वाले छठ महापर्व का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य षष्ठी का व्रत करने का विधान है। छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है| इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम-धाम से मनाते हैं।


बिहार का प्रमुख लोकपर्व छठ इस वर्ष 16 नवम्बर दिन सोमवार को व्रतियों के 'नहाय-खाय' के साथ प्रारंभ होगा। छठ के अवसर पर व्रत रखने वाली महिलाएं जहां महापर्व की तैयारियों में जुट गई हैं वहीं, छठ बाजार भी सजने लगे हैं। बाजार में सूप, दउरा, आम की लकड़ी, चूल्हा और फलों की दुकानें सज चुकी हैं।


व्रत रखने वाली महिलाएं इस दिन स्नान कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी खाएंगी। इस दिन खाने में सेंधा नमक का ही प्रयोग किया जाता है। दूसरे दिन सोमवार को कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी के मौके पर दिनभर व्रत रखने वाली महिलाएं उपवास कर शाम को विधि विधान से रोटी तथा गुड़ से बनी खीर का प्रसाद तैयार करेंगी और फिर सूर्य भगवान का स्मरण कर प्रसाद ग्रहण करेंगी। इस पूजा को 'खरना' कहा जाता है।


क्यों मनाते है छठ पूजा-


छठ पूजा का प्रारंभ आज से नहीं बल्कि महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। यह मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है।


छठ पूजा की विधि-


छठ पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है।


तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं, इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं| जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं| यही नही, तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।


पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर भी कहते हैं। यह गेहूं के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि।


पहले दिन महिलाएँ नहा धो कर अरवा चावल, लौकी और चने की दाल( जिनमे सेंधा नमक ही डाला जाता है) का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।


छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की खीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में खीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में खीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।


तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, और सूप में पूजा के सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, कम से कम पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :-


काचि ही बांस कै बहन्गिया, बहिंगी लचकत जाय

भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय

बाटै जै पूछेले बटोहिया, ई भार केकरै घरै जाय

आँख तोरे फूटै रे बटोहिया, जंगरा लागै तोरे घूम

छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा, ई भार छठी घाटे जाय


नदी किनारे जाकर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।


सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ्य देते हैं, लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद लेकर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।


छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।


रात छठिया मईया गवनै अईली

आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली

बिलम्बली – बिलम्बली कवन राम के अंगना

जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां,

जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा

उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां ||

दीपावली कल, इस तरह करें महालक्ष्मी और श्रीगणेश को प्रसन्न

हर वर्ष भारतीय पंचांग के कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं। इस वर्ष दिपावली, 12 नवम्बर दिन बुधवार को होगी| दीपावली में अमावस्या तिथि, प्रदोष काल, शुभ लग्न व चौघाडिया मुहूर्त विशेष महत्व रखते है| कहा जाता है कि कार्तिक अमावस्या को भगवान रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने श्री रामचन्द्र के लौटने की खुशी में दीप जलाकर खुशियाँ मनायी थीं, इसी याद में आज तक दीपावली पर दीपक जलाए जाते हैं और कहते हैं कि इसी दिन महाराजा विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था। एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार के साधु के मन में राजसिक सुख भोगने का विचार आया| इसके लिये उसने लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करनी प्रारम्भ कर दी| तपस्या पूरी होने पर लक्ष्मी जी ने प्रसन्न होकर उसे मनोवांछित वरदान दे दिया| वरदान प्राप्त करने के बाद वह साधु राजा के दरबार में पहुंचा और सिंहासन पर चढ कर राजा का मुकुट नीचे गिरा दिया|

राजा ने देखा कि मुकुट के अन्दर से एक विषैला सांप निकल कर भागा| यह देख कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ, क्योकि साधु ने सर्प से राजा की रक्षा की थी| इसी प्रकार एक बार साधु ने सभी दरबारियों को फौरन राजमहल से बाहर जाने को कहा, सभी के बाहर जाते ही, राजमहल गिर कर खंडहर में बदल गया| राजा ने फिर उसकी प्रशंसा की, अपनी प्रशंसा सुनकर साधु के मन में अहंकार आने लगा| साधु को अपनी गलती का पता चला, उसने गणपति को प्रसन्न किया, गणपति के प्रसन्न होने पर राजा की नाराजगी दूर हो गई, और साधु को उसका स्थान वापस दे दिया गया| इसी लिए कहा गया है कि धन के लिये बुद्धि का होना आवश्यक है. यही कारण कि दीपावली पर लक्ष्मी व श्री गणेश के रुप में धन व बुद्धि की पूजा की जाती है|

दीपावली यानी दीप पक्तियां, अमावस्या को जब चन्द्रमा और सूर्य दोनों किसी भी एक डिग्री पर होते हैं तो गहन अंधकार को जन्म देते हैं। दीपावली गहन अंधकार में भी प्रकाश फैलने का पर्व है, यह त्योहार हम सभी को प्रेरणा देता है कि अज्ञान रूपी अंधकार में भटकने के बजाय हम अपने जीवन में ज्ञान रूपी प्रकाश से उजाला करें और जगत के कल्याण में सहभागिता करें। कहते हैं कि दीपावली की रात्रि को महालक्ष्मी की कृपा जिस व्यक्ति या परिवार पर पड़ जाती है उसे कभी धन का अभाव नहीं होता है और उसके घर में हमेशा सुख-समृद्धि रहती है| दीपावली के शुभ अवसर पर महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिये कुछ पूजा-आराधना इस प्रकार से करनी चाहिये कि पूरे वर्ष धन-धान्य में वृद्धि होकर सुख-समृद्धि बनी रहे और निरन्तर मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहे। रावण के पास जो सोने की लंका थी, कहते हैं वह लंका रावण को महालक्ष्मी की कृपा से ही प्राप्त हुई थी। रावण के भाई कुबेर जो धनाधिपति के रूप में भी जाने जाते हैं, उनके साथ भी लक्ष्मी का शुभ आर्शीवाद ही था। दीपावली के शुभ अवसर पर भगवती महालक्ष्मी जी एवं गणेश जी का ही विशेष पूजन किया जाता है, क्योंकि पूरे वर्ष में एक यही पर्व है जिसमें लक्ष्मी का पूजन भगवान विष्णु के साथ नहीं होता क्योंकि भगवान विष्णु तो चार्तुमास शयन कर रहे हैं इसलिये लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी का पूजन दीपावली के शुभ अवसर पर किया जाता है|

माँ लक्ष्मी की पूजा के लिये लक्ष्मी-गणेश की नवीन मूर्ति, श्रीयंत्रा, कुबेर मंत्रा, फल-फूल, धूप-दीपक, खील-बतासे, मिठाई, पंचमेवा, दूध, दही, शहद, गंगाजल, रोली, कलावा, कच्चा नारियल, तेल के दीपक, व दीपकों की कतार और एक घी के दीपक जलाएं| पूजन के लिये एक थाली में रोली से ओम और स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर गणेश जी व माता लक्ष्मी जी को स्थापित करे। थाली में एक तरफ षोडस् मातृका पूजन के लिये रोली से 16 बिन्दु लगायें। नवग्रह पूजन के लिये रोली से ही खाने बनायें, सर्प आकृति बनायें, एक तरफ अपने पितरों को स्थान दें, अब आप पूर्व की दिशा या उत्तर की दिशा में मुहं कर बैठकर आचमन, पवित्रो-धारण-प्राणायाम कर अपने ऊपर तथा पूजा-सामग्री पर यह मंत्र ( ओइम् अपवित्राः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोडपि वा। य स्मरेत पुण्डरीकाक्षं सः बाह्य अत्यंतरः शुचि।।) पढ़ते हुये गंगाजल छिड़ककर शुद्ध कर लें| तत्पश्चात सभी देवी-देवताओं को गंगाजल छिड़ककर स्नान करायें, स्नान करने के बाद उनको तिलक करें, इसके पश्चात् गंगाजल मिले हुए जल से भरा लोटा या कलश का पूजन करे, डोरी बांधे, रोली से तिलक करे, पुष्प व चावल कलश पर वरूण देवता को नमस्कार करते हुये अर्पित करें। इतना करने के बाद थाली में जो 9 खाने वाली जगह है, उस पर रोली, डोरी, पुष्प, चावल, फल, मिठाई आदि चढ़ाते हुये नवग्रह का ध्यान व प्रणाम करे और प्रार्थना करें कि सभी नवग्रह सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृह॰, शुक्र, शानि, राहू, केतू शान्ति प्रदान करें| इसके पश्चात इस मंत्र के द्वारा कुबेर का ध्यान करें-

धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च। भवंतु त्वत्प्रसादान्मे धनधान्यादिसम्पदः॥

इसके लिए एक पाट पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक जोड़ी लक्ष्मी तथा गणेशजी की मूर्ति रखें। समीप ही एक सौ एक रुपए, सवा सेर चावल, गुढ़, चार केले, मूली, हरी ग्वार की फली तथा पाँच लड्डू रखकर लक्ष्मी-गणेश का पूजन करें और उन्हें लड्डुओं से भोग लगाएँ।

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहते हैं। इस दिन यमराज के निमित्त पूजा की जाती है। इस बार यह पर्व 11 नवम्बर मंगलवार को है। नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीयों की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बरात सजायी जाती है।

नरक चतुर्दशी की एक और कथा प्रचलित है| प्राचीन काल की बात है रन्तिदेवी नाम के राजा हुए थे। रन्तिदेवी अपने पूर्व जन्म में काफी धार्मिक व दानी थे, इस जन्म में भी दान पुण्य में ही समय बिताया था। कोई पाप किया याद न था, लेकिन जब अंतिम समय आया तो यमदूत लेने आए। राजा ने यमदूतों से पूछा कि मैंने तो काफी दान पुण्य किया है कोई पाप नहीं किया फिर यमदूत क्यों आए हैं मतलब मैं नरक में जांऊगा। राजा रन्तिदेवी ने यमदूतों से एक वर्ष की आयु की माँग की। यमदूतों ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और बताया कि एक बार तुम्हारे द्वार से एक ब्राह्मण भूखा वापस लौट गया था इस कारण नरक भोगना पडेगा। राजा ने ऋषि मुनियों से जाकर अपनी व्यथा बताई। ऋषियों ने कहा कि राजन् तुम कार्तिक मास की कष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करो और इस ब्राह्मणों को भोजन कराओ और अपना अपराध सबके सामने स्वीकार कर क्षमा याचना करो। ऐसा करने से तुम पाप से मुक्त हो जाओगे। राजा ने ब्राह्मणों के कहे अनुसार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को व्रत रखा व सब पापों से मुक्त हो विष्णु लोक चला गया।

नरक चतुर्दशी आज, जानिए इसके पीछे की कहानी

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहते हैं। इस दिन यमराज के निमित्त पूजा की जाती है। इस बार यह पर्व 11 नवम्बर मंगलवार को है। नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीयों की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बरात सजायी जाती है।

नरक चतुर्दशी की एक और कथा प्रचलित है| प्राचीन काल की बात है रन्तिदेवी नाम के राजा हुए थे। रन्तिदेवी अपने पूर्व जन्म में काफी धार्मिक व दानी थे, इस जन्म में भी दान पुण्य में ही समय बिताया था। कोई पाप किया याद न था, लेकिन जब अंतिम समय आया तो यमदूत लेने आए। राजा ने यमदूतों से पूछा कि मैंने तो काफी दान पुण्य किया है कोई पाप नहीं किया फिर यमदूत क्यों आए हैं मतलब मैं नरक में जांऊगा। राजा रन्तिदेवी ने यमदूतों से एक वर्ष की आयु की माँग की। यमदूतों ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और बताया कि एक बार तुम्हारे द्वार से एक ब्राह्मण भूखा वापस लौट गया था इस कारण नरक भोगना पडेगा। राजा ने ऋषि मुनियों से जाकर अपनी व्यथा बताई। ऋषियों ने कहा कि राजन् तुम कार्तिक मास की कष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करो और इस ब्राह्मणों को भोजन कराओ और अपना अपराध सबके सामने स्वीकार कर क्षमा याचना करो। ऐसा करने से तुम पाप से मुक्त हो जाओगे। राजा ने ब्राह्मणों के कहे अनुसार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को व्रत रखा व सब पापों से मुक्त हो विष्णु लोक चला गया।

कम खर्च में ऐसे मनाएं पर्यावरण अनुकुल दीपावली

दीपावली का त्योहार आते ही सभी घरों में साफ-सफाई व साज सज्जा की शुरूआत हो जाती है। दिवाली का जिक्र होते ही आंखों के सामने दीपों की जगमगाहट और कानों में पटाखे की आवाज गूंज उठती है। जहां सभी चाहते हैं कि उनके घर की सजावट पारंपरिक होने के साथ साथ कुछ अलग हट कर हो, वहीं अधिक खर्च से बजट गड़बड़ा जाने की चिन्ता भी सबको सताती है। ऐसे में कम खर्चे में ही रचनात्मक तरीकों को अपनाकर घर की शोभा बढ़ाई जा सकती है।

दिवाली पर बंदनवार व रंगोली बनाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। आज बाजार में बहुत प्रकार के बंदनवार उपलब्ध है, लेकिन आप चाहें तो अपने घर पर ही बंदनवार बना सकते हैं जो बजट में कम होने के साथ आर्कषक भी लगेगी और आप अवश्य ही तारीफ की पात्र भी होंगी। पुराने जमाने में लोग अपने घरों के दरवाजों पर रंगीन फूलों, अशोक व आम के पत्तों आदि से बंदनवार सजाते थे, लेकिन इस आधुनिक युग में सबको चलन से हटकर चलना पसंद है इसलिए कुछ नए प्रकार के बंदनवार बनाए जा सकते हैं। इनमें जरी बार्डर बंदनवार बनाने के लिए कोई भी व्यक्ति अपनी पंसद के साइज के बुकरम के दोनों तरफ जरी बार्डर लगा सकता है, फिर उस पर स्टोन व मिरर चिपका दे, अंत में मोती या घुंघरू भी सुई धागे की सहायता से लगाई जा सकती है। इसे अपने दरवाजे पर लगाएं, यह डिजाइनर होने के साथ-साथ पारंपरिक लुक भी देगा।

इसी तरह सुनहरा चमकीला बंदनवार बनाने के लिए बुकरम की चौड़ी पट्टी पर फेविकोल की मदद से सुनहरा रंग चिपकाएं फिर उस पर टिशू का रिबन बनाकर डिजाइन तैयार करें। अब फूल पत्तियां चिपकाएं। फिर सुई-धागे में मोती और सितारे पिरो कर बंदनवार में जगह-जगह लगाएं। इस तरह आकर्षक बंदनवार बनाकर घर सजाया जा सकता है। इसके अलावा दीपावली पर खास महत्व रखने वाले दीयों की जगमगाहट से दीवाली की खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं, पर इनके साथ कुछ नए तरीके अपनाकर और भी आकर्षक बनाया जा सकता है। बाजार में उपलब्ध मोमबत्ती जिनके साथ नीचे छोटा स्टैण्ड होता है, उन्हें ले आइए फिर घर में उपलब्ध बहुत सारे कांच के छोटे छोटे व रंगीन जार में इन्हें रखें। यह एक नया ही लुक देगा।

आप चाहें तो इन जारों को एक सपाट आईने पर समूह में सजा कर रख सकते है। कॉफी मग में बहुत सारी लंबी मोमबत्ती को काफी मात्रा में एक साथ रखें और जलाएं, यह बहुत ही खुबसूरत लगता है। बाजार में उपलब्ध डिजाइनर दीये दीवाली की चमक को ओर बढ़ा देते हैं। घर की साज-सजावट के साथ-साथ पूजास्थल की सजावट का भी अपना ही महत्व है। अपने पूजास्थल के आस-पास के क्षेत्र को सजाने के लिए चौड़ी बार्डर वाली बांधनी दुपट्टे या सिल्क साड़ियों का प्रयोग किया जा सकता है। इन्हें झालर के रूप में टेप से चिपकाएं। यह निश्चित रूप से सजावट को नया रूप देगा। रंगोली के बिना दीवाली की सजावट अधूरी ही लगती है। पारंपरिक रंगोली को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए इसमें अलग-अलग रंगों की दालों तथा फूल पत्तियों को प्रयोग कर सकते हंै जो रंगोली को पारंपरिकता के साथ-साथ आधुनिक झलक भी देगा और देखने वाला तारीफ किए बगैर नहीं रह पाएगा।

दीवाली के त्यौहार में इन सबके साथ एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि पर्यावरण और बढ़ते प्रदूषण के प्रति आप कितने जागरूक हैं। दीवाली के धूम धड़ाके में हम यह भूल जाते हैं कि इन पटाखों से हम वातावरण को कितना अधिक प्रदूषित कर रहे हैं। अगर आप दीवाली पर्यावरण के अनुकुल मनाए तो निश्चित ही आप रोशनी के इस त्यौहार पर सभी को एक संदेश देंगे कि प्रकृति की सुरक्षा हम सभी का फर्ज है।